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Sunday, February 19, 2012

स्थानिकता की तस्वीर भू-भाग की विविधता में संभव होती है



                     
सीमित ज्यामीतिय आरेखन की निर्मिति से खड़ी होती बहुमंजिला इमारतें और भव्यता एवं ध्यान आकर्षण के लिए उन पर पुते प्रभावकारी रंगों के संयोजन, बेतरतीब ढंग से यातायात व्यवस्था को बिगाड़ती स्थितियों को जारी रखते हुए, उचित संचालन के नाम पर, निर्मित पथों के चौड़ीकरण के अभियानों का फूहड़पन, एक ओर आम मेहनतकश आवाम के सर्वथा सुलभ फुटपाथिया बाजार को उजाड़ने की गतिविधियां और दूसरी ओर रोजगार के नाम पर चंद सेवा क्षेत्रों के अवसरों वाली गतिविधियों का नाम देश, राज्य या राजधानी नहीं होना चाहिए था। लेकिन विकास की सांख्यिकी के पैमाने को सीमित कर देने वाली समझदारी ने देश भर के भीतर व्यवस्था के नाम पर ऐसी अव्यवस्था को जन्म दिया है कि विकसित और अविकसित क्षेत्रों का अन्तर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता गया है। गरीबी, भुखमरी और हत्या, आत्महत्याओं की बहुत आम हुई खबरों ने सामाजिक असंवेदनशीलता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।   
दस वर्ष पूरे कर चुके उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून के संदर्भ से ही बात की जाये तो बदलते स्वरूप को इससे बाहर नहीं देखा जा सकता। बल्कि विकास के नाम पर उत्तराखण्ड राज्य के ही दूसरे शहरों के साथ साथ, प्राकृतिक खूबसूरती से भरे, पर्वतीय भूभागों के भीतर जारी अराजक गतिविधियों में भी राज्य नाम की इकाई संदेह पैदा कर देने वाली साबित हुई है। वैसे भी कला शून्य लेकिन दक्ष कुशल होते जाते इस दौर में स्वभाविक विविधिता को ध्वस्त करते हुए संस्कृतिक समरूपता की जिद्दी धुन की गूंज वैश्विक स्तर पर पूंजीगत विस्तार का स्वर हुआ है। अलहदा भाषा, अलहदा विचार, अलहदा खान-पान के खिलाफ वैश्विक पूंजी का मुनाफे की संस्कृति से भरे आदर्शों वाला अभियान हर स्तर पर चालू है। बर्बर हमलों तक के रूप में भी। उसके प्रभाव की व्यापकता को बहुत पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी देखा जा सकता है। बल्कि कुशल व्यवाहरिकता के अभाव में ऐसी स्थितियों में तो उसकी स्वभाविक फूहड़ता ज्यादा स्पष्ट दिखने लगती है। बहुधा उसकी गिरफ्त ऐसी गिरह डालने वाली होती है कि जन आकांक्षओं के सवाल पर शुरू हुई गतिविधियां भी सवालों के घेरे में आने को मजबूर हो जाती हैं। जन आंदोलनों के अंदर घुसपैठ करने और फिर उसे अपनी तरह से हांकते हुए जन आंदोलनों पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देने में इस मुनाफा संस्कृति ने हारते हारते हुए भी जीत के लाभ तक पहुंच जाने की कला में कुशलता हांसिल की हुई है। उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि उसी के साथ-साथ गठित हुए झारखण्ड और छतीसगढ़ में भी राज्य निर्माण के बाद विस्तार लेती गयी व्यवस्था ने एक समय में राज्य की मांग के लिए मर मिटने वाली जनता तक को इसीलिए निराश किया है। ऐसे में दूसरे प्रांतों के भीतर जारी राज्य आंदोलनों के संघर्ष की गाथायें कैसे भिन्न हो ?, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिना इस तरह के सवाल उठाये छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया का एकतरफा समर्थन जनता के दुख दर्दो से निजात की कथा का कोई चरण पूरा करता हुआ नहीं माना जा सकता।
यह सच है कि सांस्कृतिक पहचान एवं विकास के वास्तविक मॉडल की अनुपस्थितियों ने विभिन्न प्रांतों के भीतर संघर्षरत जनता को राज्य के सवाल पर एकजुट होने को मजबूर किया हुआ है। और व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में एक छोटी प्रशासनिक इकाई वाला राज्य, बेशक चोर जेब जैसा ही,  जनता को सड़को पर उतरने को मजबूर करता हुआ है। बहुत व्यवस्थित एवं जन आकांक्षओं को सर्वोपरी मानते हुए नीतियों का निर्धारण करती किसी मुमल व्यवस्था की तात्कालिक अनुपस्थिति में यह सवाल उठाते हुए कि क्या सचमुच जनता के सपनों को साकार करने में राज्य कामयाब रहे है ?, छोटे राज्यों की मांग को ठुकराया नहीं जा सकता या उनका विरोध करना कतई तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन इसके साथ साथ उन खतरों को जो जनता के सपनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते, नजरअंदाज करना ठीक नहीं। तीन नव निर्मित राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छतीसगढ़ के आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि बेहतर राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति में चालू राजनीति के बेरोजगार नेताओं ने जो अफरा तफरी मचायी उसके प्रतिफल राज्य निर्माण के बाद स्थापित होती गयी उनकी सत्ता के रूप में सामने हैं। स्थापित राजनीति का बेहद फूहड़पन वाला विकास-मॉडल सिर्फ मुनाफे की संस्कृति की स्थापना करने में ही सहायक हुआ है। अपने व्यक्तिगत हितों के लिए आंदोलनों में सक्रिय रहते भूमाफिया और दलालों के बोलबाले ने स्थानिकता को निरीह और लाचार बनने के लिए मजबूर किया है। शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप की ताकत रखने वाले अपने आकाओं के इशारों पर आंदोलन में घुसपैठ करके वे आज सत्ता पर कब्जा जमाये हैं। मासूम जनता के सपनों को आकार देने के नाम पर षड़यंत कर वे आंदोलनों का हिस्सा हुए और अराजक तरह का माहौल रचने में कामयबी हासिल कर सके हैं। देख सकते हैं कि सबसे पहले उनकी निगाहें अपनी पूंजी को जल्द से जल्द और बिना किसी अतिरिक्त निवेश या मेहनत के, अधिक से अधिक बटोरने की रही और इसके लिए भौगोलिक विशिष्टताओं से भरे भू भागों पर कब्जे करने की उनकी कोशिश बहुत दबी छुपी न रहने पर भी स्थानीय भू मालिकों के समझ न आने वाली ही हुई हैं। रूपयों के बदले जमीन के मोल भाव में स्थानीय जन इस कदर ठगे गये हैं कि न सिर्फ स्वंय लाचार हुए बल्कि माहौल में अराजकता और लम्पटई की कितनी ही स्थितियों को जमने और फलीभूत होने का अवसर बना है। खेती योग्य भूमि को प्रोपर्टी के दलालों की निगाहों ने जिस तरह से तहस नहस किया वह शायद ही तीनों में से किसी भी एक राज्य में छुपा हुआ न हो। 
भाषायी आधार पर गठित आंध्र प्रदेश में भी आज अलग राज्य की मांग का सवाल सामने है। आदिलाबाद, निजामाबाद, करीमनगर, वारंगल, खममम, नलगोडा, हैदराबाद, मेढक, रंगारेड्डी, महबूबनगर को मिलाकर तेलांगाना राज्य का सपना विकास की दौड़ में पिछड़ गयी जनता के सपनों में है। जनता के इस सपने के आकार लेते ही 1956 के बाद का इतिहास भी उलट जाने वाला है। तेलंगाना राज्य इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि 1956 से पहले तक मद्रास पे्रसीडेंसी का हिस्सा रहे आंध्र प्रदेश के दूसरे भू-भाग रायलसीमा और तटिय आंध्रा की तुलना में पिछड़े रहे इस क्षेत्र के विकास की चिन्तायें राज्य आंदोलन का मूल हैं। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के साथ हैदराबाद को मिलाकर आंध्र प्रदेश के इतिहास का एक नया अध्याय 1956 में शुरू हुआ था। 1956 से पहले तक हैदराबाद के निजाम के द्वारा शासित भू-भाग भारत में विलय की स्थिति के साथ हैदराबाद राज्य के रूप्ा मे रहा। 1953 में ही निजाम के हुकूमती क्षेत्र को हैदराबाद राज्य के गठन के समय ही भाषायी आधार पर बांट दिया गया था। मराठी भाषी क्षेत्र को बम्बई राज्य और कन्नड़ भाषी क्षेत्र को मैसूर राज्य में विलय कर शेष बचे तेलुगू क्षेत्र को हैदराबाद राज्य का दर्जा दे दिया गया था। हैदराबदी राज्य का वह तेलुगू भाषी क्षेत्र ही मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कर निर्मित हुए आंध्रा राज्य में विलय कर विशाल भाषायी राज्य आंध्र प्रदेश अस्तीत्व में आया। इस तरह से समांती हुकूमत में संस्कारित एवं पिछड़ी अर्थव्यवस्था के जन समाज और औपनिवेशिक हुकूमत के भीतर आधुनिकता की हवाओं में संस्कारित जन मानस के यौगिक को एक धरातल पर लाने के लिए जिस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए थी, पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर उसके होने की कोई संभावना होने का प्रश्न नहीं हो सकता था। तात्कालिक लाभ के लिए बेचैन रहने वाली अर्थ व्यवसथा में असंतुलन को पाटने की बजाय उसके बढ़ाते जाने के बीज थे और उनका फलीभूत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फलस्वरूप निजामी हुकूमत का तेलंगाना क्षेत्र न तो जन सुविधाओं के स्तर पर और न ही रोजी रोजगार के स्तर पर तटिय आंध्र और रायलसीमा के क्षेत्रों के करीब आ सका। असंतोष के कारण ऐसी ही स्थितियों का सार रहे और 1969 में तेलंगाना राज्य की मांग का सवाल उठ खड़ा हुआ। यूं चालीस के दशक में ही भू सुधारों के तेलांगना आंदोलन का एक चरण अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था। निजाम की हुकूमत के खिलाफ कामरेड वासुपुन्यया के नेतृत्व में यह एक ऐतिहासिक शुरूआत थी जिसका सपना भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने का था।
मेढक संभावति तेलंगाना राज्य का एक जिला है, बिल्कुल वही स्थितियां जो उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान 1994 के आस पास देहरादून में दिखायी देने लगी थी, आज मेढक में साफ हैं। मेढक के बहुत छोटे और विकास की दौड़ में अभी गिनती में कहीं भी दिखायी न देते इलाके शंकरपल्ली के हवाले से कहूं तो आस पास के उजाड़ पड़े इलाके में बीच बीच में गड़े सीमेंट के अनंत खम्भे बताते हैं कि जमीनों पर पूरी तरह से कब्जा कर दलाल भूमाफियाओं का वर्ग राज्य निर्माण की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा कर चुका है। बड़े मॉल, आम जन के लिए प्रतिबंधित पार्क, मल्टीपलेक्स, खेती को निकृष्ट कर्म और दलाली को स्थापित करने वाली मानसिकता का तर्क बहुत स्पष्ट है कि बंजर जमीनों का वे सदुपयोग करना चाहते हैं और राज्य के आय का स्रोत होना चाहते हैं। साथ ही सौन्दर्य के नये मानक भी वे इसी तरह गढ़ने को उतावले हैं। लेकिन राज्य जिसकी जरूरत रहा, उस जनमानस के लिए इस तरह का विकास कैसे लाभकारी हो सकता है, यह प्रश्न उन्हें बेहुदा लग सकता है।     
यूं यह सवाल महत्वपूर्ण हो सकता है कि किसी जगह की सुन्दरता का मानक क्या हो सकता है ? वहां रह रहे लोगों के आचार-विचार का अनुपात स्थान विशेष की सुन्दरता में क्या कोई कारक है, या उसका कोई लेना देना नहीं। मानव निर्मितयों के रूप में पार्क, सड़क, भवन, खुदरा(खुरदरा) कहलाने के बावजूद मुलायम और चुंधियाते बाजार के साथ स्थानिकता के संयोजन के कौन से तत्वों को सुंदरता के पैमाने के साथ देखा जाना चाहिए ? किसी महानगरीय सुविधाओं सी समतुल्य स्थितियों में स्थानिकता को बचाने की बात करना क्या पिछड़ा कहलाते हुए असुंदर के पक्ष में हो जाने जैसा है ? आभावों के घटाटोप के बीच सुन्दर कहने के लिए भूभाग विशेष के किसी महानगर से संबंधों में विचरण करते बहुमंजिलेपन के बदलाव ही क्या सुंदरता के सांख्यिकी पैमाने हो सकते हैं ? अस्मिता का मामला भूगोल विशेष से स्थानीय जनता के जुड़ाव का मसला है और स्थान विशेष की खूबसूरती से भी है। स्थानिकता अपनी तस्वीर भू-भाग की विविधता में देख रही होती है और जरूरत के साथ-साथ ही वक्त-वक्त पर आवश्यक हस्तक्षेप कर उसे अपने तरह से तराश रही होती है। मुनाफे के अफरा-तफरी बदलाव में वह ठगी सी रह जाती है। स्पष्ट है कि ऊंचे- ऊंचे पहाड़, हरे हरे बुग्याल, बर्फानी हवाओं का खिलंदड़पन और बहुत शान्त माहौल के बीच नदीयों, पक्षीयों के गीतों से भरे सुरीले स्वर उत्तराखण्ड की अस्मिता के केन्द्र बिन्दू रहे। लेकिन जमीनों पर तेजी से कब्जा करने के बाद जिस तरह के बदलाव एकाएक हुए हैं वे राज्य के लिए संघर्षरत रही जनता को ठगने वाले रहे। मेढक के शंकरपल्ली इलाके की सुंदरता को गहरी ठेस पहुंचाने की कोशिशों को इसीलिए चिहि्नत किये जाने की जरूरत है वरना तय है कि भविष्य में छोटा राज्य बना लेने के बाद भी व्यवस्था के झुकाव को स्थानिकता के पक्ष में खड़ा नहीं पाया जा सकता।

 -विजय गौड़

Sunday, February 5, 2012

अन्छुए किनारों को देखने का सुयोग



 




Wednesday, January 4, 2012

साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,

मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...


आपकी बच्ची
साहेल



Monday, November 28, 2011

तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग

सिवा मार काट और नकारात्मक खबरों से भरे राष्ट्रीय मीडिया से विलुप्त होते गये कश्मीर पर  हमारे वरिष्ठ साथी और जिम्मेदार नागरिक यादवेन्द्र जी की एक  बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी ...

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- इस महीने के शुरू में श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया.सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी प्रजातियाँ सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें. यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों का नाम पूछा जाये तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा.  
जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है.सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. कि परपी होती है.देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है.सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है.देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है.करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है. 
जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है.अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है. 

दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम,केला,सेब,अंगूर,अनानास,अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी  व्यवसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता. 
आम का ही उदाहरण देखें...सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं.पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बड़ हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी.
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.. लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं.राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
इस लेखक को आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केंद्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं.इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद  पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख पायेगी.
कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म कि पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है...
कहाँ हैं धान  की  इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है...
-यादवेन्द्र 
yapandey@gmail.com

इस ब्लाग पत्रिका की पिछली पोस्टों पर भी यादवेन्द्र जी ने एक मेल में जो टिप्पणी की पाठकों तक वह भी पहुंच सके, यहां इसी आशय के साथ प्रस्तुत है- 
नयी पोस्ट में हिमालय यात्रा का  आपका वृत्तान्त...जनसत्ता में पढ़ा था,पिता की पीठ पर बैठे बच्चे वाला प्रतीक इस पूरे विवरण को एक नया आयाम देता है...मेरी बेटी को भी खूब पसंद आया था यह वृत्तान्त...इन सब को संकलित करके एल जिल्द में छापें...खुद की लेह यात्रा के बाद आजकल मैं कृष्ण नाथ जी के हिमाचल और लदाख यात्रा वृत्तान्त दुबारा पढ़ रहा हूँ और हिंदी के इस अद्भुत रचनाकार की उपेक्षा पर बेहद गुस्सा आता है... 
अरुण असफल की धारदार टिप्पणी...बिज्जी मेरे भी बेहद प्रिय कथाकार हैं और उनका मूल्यांकन समय उनकी रचनाशी
लता से करेगा,विष्णु जी के लिखे  से नहीं...फिर,यदि कोई रचनाकार नोबेल प्राप्त करने की इच्छा करे तो इसमें बुरा क्या....
-यादवेन्द्र 


 

Monday, October 24, 2011

लोक जीवन और आधुनिकता



आलोचक जीवन सिंह जी के साक्षात्कार को पढ़ते हुए आधुनिकता और लोक जीवन पर उभरी असहमति को दर्ज करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।
- विजय गौड़

आधुनिकता को यदि बहुत थोड़े शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि नित नये की ओर अग्रसर होती दुनिया का चित्र। पर ''नित नये"" कहने से आधुनिकता वह वृहद अर्थ, जो समाज, संस्कृति, साहित्य और इसके साथ-साथ जीवन के कार्यव्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दखल देते हुए नयी दुनिया की तसवीर गढ़ रहा है, स्पष्ट नहीं होता। यहां आधुनिकता का वह अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता जो एक दौर की आधुनिकता को परवर्ती समय में पुरातन की ओर धकेलने वाला है। नैतिकता, आदर्श और मूल्यों की बदलती दुनिया में आधुनिकता एक ऐसी सत्त प्रक्रिया है जिसमें रुढ़ियों और परम्पराओं से मुक्ति के द्वार खुलते हैं और तर्क एवं ज्ञान की स्थापना का मार्ग प्रस्शत होता है। निषेध और स्वीकार के द्वंद्व से भरा ऐसा मार्ग जो जरुरी नहीं कि आज की आधुनिकता पर भविष्य में प्रश्नचिहन न खड़ा करे। दरअसल, इस आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों में प्रासंगिकता के भी करीब अर्थ ध्वनित करने लगता है। पृथ्वी को ब्रहमाण्ड का केन्द्र ( टालेमी का मॉडल) मानने वाली आधुनिकता को सैकड़ों सालों बाद, सूर्य ब्रहमाण्ड का केन्द्र है, जैसे विचारों ने आधुनिक नहीं रहने दिया। कोपरनिकस की विज्ञान की समझ ने टालेमी के विचार को, जो सर्वमान्य रुप से स्वीकार्य था, मौत का खतरा उठाकर भी, पुरातन ओर अवैज्ञानिक साबित कर दिया। ज्ञान विज्ञान की नयी से नयी खोजों ने आधुनिकता को नूतनता का वह आवरण पहनाया है जिसे समय-काल, के हिसाब से विचार, वस्तुस्थिति और यथार्थ की पुन:संरचना में प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा।

तर्क और बुद्धि की सत्ता का उदय ऐसी ही आधुनिकता के साथ दिखायी देता है। वैज्ञानिक आधार पर घ्ाटनाओं के कार्य-कारण संबंध को ढूंढने की कोशिश ने अंध-विश्वास और रुढ़ियों पर प्रहार करते हुए आधुनिक दुनिया की तस्वीर गढ़नी शुरु की। ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि तार्किक परिणितियों के आधार पर घ्ाटनाओं के विश्लेषण करने के पद्धति पर, गैर-वैज्ञानिक समझ का प्रतिरोध करने वाली इस आधुनिकता को अप्रसांगिक मानने की कोई हठीली कोशिश भी आधुनिकता का नया रुप नहीं गढ़ सकती है। आधुनिकता के बरक्स उत्तर-आधुनिकता की गैर वैज्ञानिक अवधारणा के अपने उदय के साथ, अस्त होते जाने का इतिहास, इसका साक्ष्य है।

औद्योगिकरण की बयार के साथ योरोप में शुरु हुआ पुनर्जागरण वर्तमान दुनिया की आधुनिकता का वह आरम्भिक बिन्दु है जिसने मध्ययुग के अंधकारमय सामंती ढांचे को चुनौति दी। राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व की शासन प्रणाली के महत्व पर बल दिया। मैगनाकार्टा का आंदोलन, जो सामंतशाही की पुच्च्तैनी व्यवस्था के खिलाफ मताधिकार के द्वारा नयी जनतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत चाहता रहा, आगे के समय तक भी आधुनिकता की उन आरम्भिक कोशिशों का महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा। अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांन्ति के साथ उसके  स्थापना की महत्वपूर्ण स्थितियां वे निर्णायक मोड़ है जिसने काफी हद तक आधुनिक दुनिया के एक स्पष्ट चेहरे को आकार दिया। इससे पूर्व औद्योगिकरण की शुरुआती मुहिम के साथ राष्ट्र-राज्यों के उदय की प्रक्रिया ने व्यापारिक गतिविधियों की एक ऐसी आधुनिकता को जन्म देना शुरु कर दिया था जो वस्तु विनिमय की पुरातन प्रणाली को स्थानान्तरित कर चुकी थी। श्रम के बदलते स्वरुप ने सामाजिक संबंधों के बदलाव की जो शुरुआत की, साहित्य की काव्यात्मक भाषा उसे पूरी तरह अटा पानो में संभव न रही। गद्य साहित्य का उदय हुआ। भाषा सत्त बहती, आम बोलचाल की लयात्मकता में, गद्याात्मक होती चली गयी। कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत, रेखा चित्र, निबंध और उपन्यासों का नया युग आरम्भ हुआ। साहित्य इतिहास के तमाम अंधेरे कोनो से टकराने लगा। नयी दुनिया की खोज में निकले अन्वेषकों, मेगस्थनीज, हवेनसांग, फाहयान, के यात्रा वृतांत उस शुरुआती कोशिशों के दस्तावेज हैं।

साहित्य में आधुनिकता की यह शुरुआत सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को स्वर देने में ज्यादा लचीलेपन के साथ दिखायी देने लगी। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की जटिलता ने स्वच्छंदतावाद को जन्म दिया जो अपने विकास के क्रम में यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने लगा। राष्ट्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ। मानवीय  संवेदना को वैचारिक मूल्यों ने परिपोषित करना शुरु किया। धार्मिक साहित्य और राजे रजवाड़ों की स्तुतिगान से भरे पुरातन साहित्य की बजाय आम मनुष्य के दुख-दर्दो को स्वर मिला।

समकालीन दुनिया की सर्वग्रासी बाजारु प्रवृत्ति, जो धार्मिक अंध विश्वास और नैतिक पतन की कोशिशों के साथ है उसे ही आधुनिक मानना और उसके प्रतिपक्ष में रहते हुए, जो कि जरूरी है, आधुनिकता के वास्तविक अर्थों से मुंह मोड़ लेना स्वंय को एक ढकोसले के साथ खड़ा कर लेना है। आधुनिकता की स्पष्ट पहचान किए बगैर गैर आधुनिक होते जाते इस दौर में बाजारु प्रवृत्ति का निषेध कतई  संभव नहीं। स्वस्थ प्रतियोगिता का भ्रम जाल रचता आज का बाजार विविधता की उस जन तांत्रिक प्रक्रिया के भी खिलाफ है जो एक सीमित अर्थ में ही आधुनिक कहा जा सकता है। स्वस्थ जनतंत्र के बिना स्वस्थ आधुनिकता का भी कोई स्पष्ट स्वरूप्ा नहीं उभर सकता। बाजार की गुलामी करता विज्ञान भी आज अपने पूरी तरह से आधुनिक होने की अर्थ-ध्वनि के साथ दिखाई नहीं दे रहा है।   

सामाजिक विकास का हर अगला चरण अपनी कुछ विशेषताओं के साथ होता है। इस अगले चरण की वस्तुगत स्थितियों के तहत ही आधुनिकता की परिभाषा भी अपना स्वरूप ग्रहण करती चली जाती है। बहुधा आधुनिकता के इस सोपान को समकालीन कह दिया जा रहा होता है। समकालीन और आधुनिकता का यह साम्य इसीलिए एक दूसरे को आपस में पर्याय बना देता है। समकालीनता, आधुनिकता और प्रासंगिकता ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बीच किसी स्पष्ट विभाजक रेखा को खींच पाना इसीलिए संभव नहीं। अवधारणाओं की जटिलता के ऐसे निर्णायक बिन्दू पर बिना किसी ठोस विश्लेषण के अर्थ विभेद नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के आदर्शों से भरी व्यवस्था के चरित्र की पहचान बिना प्रासंगिकता के संभव नहीं। मौलिकता, साहस और बेबाकीपन के आधुनिक मुहावरों को तर्क का आधार बनाकर बहुत सस्ते में आधुनिक होने की यौनिक वर्जनाओं से भरी अभिव्यक्तियों को इसीलिए आधुनिक नहीं कहा जा सकता। संघ्ार्ष के बुनियादी स्वरूप को कुचलने को आमादा और सामाजिक विकास की हर जरुरी कार्रवाई को भटकाने का काम करती ऐसी समझदारी आधुनिकता का निषेध है।
आधुनिकता का सवाल लोक की जिस परिभाषा को वास्तविक अर्थों में व्याख्यायित करता है उसे स्थानिकता के साथ देख सकते हैं। स्थानिकता को छिन्न भिन्न करती कोई भी कार्रवाई आधुनिक कैसे कही जा सकती है। स्थानिकता का सवाल राष्ट्रीयता का सवाल है और राष्ट्रीयता का प्रश्न उसी आधुनिकता का प्रश्न है जो पुनर्जागरण से होती हुई अमेरिका, फ्रांस की क्रान्तियों के रास्ते आगे बढ़ती हुई पेरिस कम्यून की गलियों में भटकने के बाद रूस को सोवियत संघ्ा और चीन को आधुनिक चीन तक ले जाती है। लोक की अवधारणा में भी स्थानिकता समायी होती है। इसलिए लोक की अवधारणा को आधुनिकता से अलग करके परिभाषित करना ही पुरातनपंथी मान्यताओं का पिछलग्गू हो जाना है। पुरातनपंथी मान्यताऐं अस्मिता के किसी भी संघ्ार्ष को गैर जरूरी मानने के साथ होती होती हैं। भारतीय चिन्तन में आज दलित धारा की उपस्थिति और स्त्रि अस्मिता के प्रश्नों से उसे इसीलिए परहेज होता है। अस्मिता के संघ्ार्ष के मूल में भी राष्ट्रीय पहचान की तीव्रतम इच्छाऐं ही महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीयता की मांग ही सामंती ढांचे को ध्वस्त करने की प्रगतिशील चेतना की संवाहक होती है लेकिन अपने चरम पर स्थायित्व के दोष से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। यहीं पर आकर उसके गैर प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर हो जाना जैसा होने लगता है। क्षेत्रियता और दूसरे  ऐसे ही गैर प्रगतिशील  मूल्यों की गिरफ्त बढ़ने लग सकती है और आधुनिकता को ठीक से पहचाने बगैर वह सिर्फ लोक लोक की रट लगाने लगती है। स्थानिकता का नितांतपन उस सीमा के पार जाते हुए ही सार्वभौमिक हो सकता है जब वह बहुत आधुनिक होने के साथ हो। भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टता से हिलौर लेते समाज को सिर्फ कथ्य की विशिष्टता के लिहाज से विषय बनाती रचनाओं में दक्षिणपंथी भ्र्रामकता से ग्रसित होने की प्रवृत्ति होती है। ठहराव और दुहराव उसकी जड़वत प्रकृति के तौर पर होते हैं। स्पष्ट है कि उनसे पार जाने की कोशिशों से ही यथार्थ का उन्मूलन और वैश्विक जन समाज की चिन्ताओं का दायरा आकार लेता है। भूगोल और संस्कृति के बार-बार के दुहराव स्थानिकता को बचाए रखते हुए लोक के सर्जन में कतई सहायक नहीं हो सकते। दृश्यावलियों की समरूपता और सांस्कृतिक परिघ्ाटनाओं का एकांगी वर्णन कलावाद के करीब जाना ही है। जब प्रकृति अपने रूपाकार में गतिशील है तो उसके प्रस्तुति की दृश्यावलियां कैसे स्थिर हो सकती हैं ? साक्ष्यों के तौर पर स्थानिकता को प्रकट करती ऐसी दृश्यावलियां जिस मानसिकता से उपतजी हैं उसमें यथार्थ के हुबहू प्रस्तुतिकरण की चाह, जो संदेहों के परे हो, कारण होती है। यथार्थ के उन्मूलन में उनका योगदान इतना जड़वत होता है कि किसी नयी संभावना को खोजा नहीं जा सकता। निपट एकांतिक हो जाने वाली उनकी अनुभूति विशिष्टताबोध से भरी होने लगती है। छायावदी युगीन चेतना की कमजोरी इस सीमा के अतिक्रमण न कर पाने में ही रही है। संसाधनों के सार्थक उपयोग की बजाय प्रकृति से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ यहां निषेध हो जाती है और विध्वंश की आततायी कार्रवाइयों के विरोध में नॉस्टेलजिक हो जाने की भावनात्मक अनुभूतियां विद्यमान होने लगती हैं। स्वस्थ मनुष्य और अवसाद में घिरे व्यक्ति के बीच के फर्क से समझा जा सकता है। अवसाद में घिरे व्यक्ति को कतिपय एक बार देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अस्वस्थ है और उसकी अस्वस्थता का क्षेत्रफल सामाजिक उदासीनता के घेरे तक विस्तार ले सकता है। जो किसी भी निर्णायक संघर्ष तक प्रेरित करने की बजाय स्थितियों से नकार के रूपग में विकसित होता जाता है। तटस्थता की मुख-मुद्रा में भी वह निषेध के तत्वों का ही सर्जक हो सकता है।       




Wednesday, September 14, 2011

ससुरी आत्मा के खिलाफ चेतावनी

मेरी बहन डा.मधु मगध विश्वविद्यालय के एक कालेज में मनोविज्ञान पढ़ाती है और आजकल भारतीय समाज विज्ञान अनुसन्धान परिषद् (आई.सी.एस.एस.आर.)की फेलोशिप पर भारतीय मध्य वर्ग की सोच और बर्ताव पर एक शोधपूर्ण सर्वेक्षण कर रही है.उस से अबतक के प्रारंभिक नतीजों ( प्रश्नावली और सीधा साक्षात्कार) पर बात करते हुए बड़ी दिलचस्प बात सामने आयी कि जब हम अपने बारे में बताते हैं तो खुद को दूध के धुले और गऊ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर जब उन्हीं मुद्दों की पृष्ठ भूमि में आस पास के तात्कालिक समाज की सोच और बर्ताव के बारे में पूछ जाता है तो हमें वहाँ सिर्फ और सिर्फ गन्दगी और अँधेरा दिखाई देता है...अभी इस सर्वेक्षण के नतीजे अंतिम और निर्णायक स्तर तक नहीं पहुंचे हैं पर समाज के चेहरे पर कुछ रौशनी तो जरुर पड़ती है.इसी सन्दर्भ में बात करते हुए मैंने उसको हाल में प्रकाशित हिंदी के रचनात्मक साहित्य से कुछ उदाहरण दिए जिसमें समाज के बहुमत बर्ताव और अल्पमत बर्ताव और उनको रेखांकित किये जाने के औचित्य पर सवाल उठे.यहाँ प्रस्तुत टिप्पणी उसी चर्चा का हिस्सा है.
-यादवेन्द्र

Wednesday, September 7, 2011

उदार-अंधराष्ट्रवाद

मैं भी अन्ना 

गलियां बोलीं मैं भी अन्ना, कूचा बोला मैं भी अन्ना!
सचमुच देश समूचा बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
भ्रष्ट तंत्र का मारा बोला, महंगाई से हारा बोला!
बेबस और बेचार बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
साधु बोला मैं भी अन्ना, योगी बोला मैं भी अन्ना!
रोगी बोला, भोगी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
गायक बोला मैं भी अन्ना, नायक बोला मैं भी अन्ना
दंगों का खलनायक बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
कर्मनिश्ठ कर्मचारी बोला, लेखपाल पटवारी बोला!
घूसखोर अधिकारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
मुंबई बोली मैं भी अन्ना, दिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली बोली मैं भी अन्ना!
डमरु बजा मदारी बोला, नेता खद्दरधारी बोला!
जमाखोर व्यापारी बोला, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
दायां बोला मैं भी अन्ना, बायां बोला मैं भी अन्ना!
खाया-पीया अघाया बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
निर्धन जन की तंगी बोली, जनता भूखी-नंगी बोली!
हीरोइन अधनंगी बोली, मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!
नफरत बोली मैं भी अन्ना, प्यार बोला मैं भी अन्ना!
हंसकर भ्रष्टाचार बोला मैं भी अन्ना, मैं भी अन्ना!

-अरुण आदित्य

 

संघर्ष के स्वरूप की उदारता के बावजूद बहस से परे राष्ट्रवादी दिखने की जिद उदार-अंधराष्ट्रवाद  ही कही जा सकती है। आप मैसेज कर सकते हैं, मिस्ड कॉल कर सकते हैं, जूलूस निकाल सकते हैं, कैण्डल मार्च कर सकते हैं, बत्ती बुझा सकते हैं, गीत गा सकते हैं, सोसल साइटों पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रियायें दर्ज कर सकते हैं, न हो तो मौन रह सकते हैं लेकिन मुद्दे पर सहमत होते हुए भी कुछ इतर करने की छूट नहीं ले सकते कि कुछ सुलगते हुए सवाल उठ खड़े हों। न सिर्फ समाज विरोधी बल्कि राष्ट्रविरोधी का तमगा पहनना चाहते हों तो आपका कुछ नहीं किया जा सकता। बदलाव के संघर्ष के उदार-अंधराष्ट्रवादी ऐजण्डे का अनुपालन उसके तय कायदों में ही संभव है। उदार-अंधराष्ट्रवाद  की विशेषता है कि कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  के निहित कायदों से सहमति के बावजूद यह उससे अपने संबंधों को बचाकर चलता है। न सिर्फ वे जिनसे कट्टरपंथी अंधराष्ट्रवाद  को खुली असहमति होती है बल्कि किसी भी तरह की दूसरी गतिविधियां यहां छूट के दायरे में रहती हैं। आप व्यापार कर सकते हैं, बिकनी पहनकर फैशन शो में उतर सकते हैं, मैदान में खेलने की बजाय विज्ञापनों में छे जड़ते हुए दर्शकों को कूल कूल कर सकते हैं, खुद को प्रोजेक्ट करने वाली सामाजिक गतिविधियों के नाम पर विदेशी या देशी धन पर गैर-सरकारी बने रह सकते हैं, ओहदेदार पद पर होने के कारण जो कुछ सीमित दायरे में भी जनहित संभव हो उससे बचते हुए जी हुजूरी की व्यवस्था को बनाये रखने में सहयोगी हो सकते हैं, अन्य भी-चाहे वह बदलाव के ऐजण्डे से मेल न खाती कोई भी गतिविधी हो, स्वतंत्र रूप से जारी रख सकते हैं। यूं क्षेत्र, जाति, धर्म, रूप, रंग और लिंगभेद जैसे गैर प्रगतिशील विचार इसके दायरे से बाहर हैं लेकिन इन पर यकीन करना आपकी निजि स्वतंत्रता बना रह सकता है। आधुनिकतम तकनीक के प्रति उदार-अंधराष्ट्रवाद  का कोई निषेध नहीं जो कि उसका उजला पक्ष भी कहा जा सकता है। लेकिन तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ उसके तय ऐजण्डे के प्रचार प्रसार में हो, इस बात पर उसका विशेष जोर होता है। बल्कि ज्यादा मारक तरीके से उसके प्रयोग की संभावनाओं की तलाश इसके उद्देश्यों में शामिल माना जा सकता है। उदार-अंधराष्ट्रवाद की एक और विशेषता है कि गैर-जनतांत्रिक होते हुए भी जनतंत्र में पारदर्शिता की बात बहुत जोर-शोर से करता है। प्रगतिशील मूल्यों के प्रति सहमति के भाव के बावजूद गैर प्रगतिशील विचारों की व्याप्ति के लिए उदार-अंधराष्ट्रवाद को हमेशा जनता के किसी बेहद धड़कते हुए मुद्दे की दरकार रहती है। अपनी चोरजेब के अर्थतंत्र के लेखे-जोखे को ज्यादा पारदर्शी बनाने की उसकी कोशिशें, तरह-तरह के छल-छद्म से छली जाती जनता के पढ़े लिखे तबके को प्रभावित करने के लिए, लोकप्रिय छवी की तलाश में होती हैं और लोकप्रिय छवी के इर्द-गिर्द लामबंदी की कार्रवाइयों में उसके नेतृत्व का अहम हिस्सा खुद की छवियों को ज्यादा से ज्यादा संवारने की कोशिश में जुटा होता है। 
भारतीय मध्यवर्ग की त्रासद कथा का जनलोकपाल उदार-अंधराष्ट्रवाद की ज्वलंत मिसाल है। 
ऐसे ही एक बड़ी बहस को बहुत खूबसूरत ढंग से कवि अरूण कुमार आदित्य न कविता के अंदाज में बयां किया है। 
-विजय गौड़



Sunday, August 21, 2011

आजादी के मायने

साहित्य और यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृषिट रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।"
हावर्ड फास्ट का उपरोक्त कथन लेखकीय दृषिटकोण की पड़ताल करते हुए कुछ जरूरी सवाल उठाता है लेकिन आजादी की कल्पनाओं में डूबी देश की उस महान जनता के सपनों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, जो 1947 के आरमिभक दौर में आजादी के तात्कालिक स्वरूप को स्पष्ट तरह से पूरा देख पाने में बेशक असमर्थ रही। बलिक एक लम्बे समय तक इस छदम में जीने को मजबूर रही कि सत्ता से बि्रटिश  हटा दिये गए हैं और देश आजाद हो चुका है। आजादी उसके लिए एक खबर की तरह आर्इ थी। व्यवहार में उसे परखे बगैर कोर्इ सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे भी खबर के बारे में कहा जा सकता है कि वह घटना का एकांगी पाठ होती है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी जिसकी तटस्थता, तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी, समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है। देख सकते हैं कि बहुधा व्यवस्था की पेाषकता ही उसका उददेश्य होती है।

तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है
अपने इरादों में नेक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से बंधी जनता की समझदारी में आजादी, अवधारणा नहीं बलिक व्यवहार का प्रसंग रहा है और होना भी चाहिए ही। तकनीक के विकास और उसके सांझा उपयोग की कामना हमेशा ही उसके लिए आजादी का अर्थ गढ़ते रहे है। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुकित, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी  जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है। रोजी-रोजगार और दुनिया के नक्शे में अपनी राष्ट्रीयता को चमकते देखना उसकी चेतना का पोषक तत्व रहा है। संसाधनों का समूचित उपयोग और प्राकृतिक सहजता में सांस लेना, काल्पनिक नहीं बलिक वह आधारभूत सिथति हैं, जनतांत्रिकता के मायने जिसके बिना अधूरे हो जाते हैं। जीवन की प्राण वायु का एक मात्र तत्व भी कहा जाये तो अतिश्योकित नहीं। देख सकते हैं कि नियम कायदे कानून के औपनिवेशिक माडल पर देशी सामंतो और मध्यवर्ग के स्थानापन मात्र की प्रक्रिया ही आजादी कहलायी जाती रही। परिणमत: एक खास वर्ग के लिए, जिसमें नौकरी पेशा सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका भी समा जाता है, और रोजी रोजगार से वंचित एक बड़े वर्ग के लिए, आजादी के मायने एक ही नहीं रहे हैं। नियम कायदों के अनुपालन के लिए जुटी खाकी वर्दियों का डंडा भी वर्गीय आधारों से संचालित है। जनतंत्र के झूठे ढोल के बेसुरेपन में कितने ही राडिया प्रकरण, बोफोर्स घोटाले, हर्षद मेहता कांड और हाल-हाल में बहुत शौर करते 2-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी घोटाले, कौन बनेगा करोड़पति नामक धुन के साथ मद मस्त रहे हैं। खेती बाड़ी और दूसरे लघु उधोगों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाले राक म्यूजिकों ने जो समा बांधा है, देश का युवा वर्ग उसकी उत्तेजक धुनों में ज्यादा चालू होने के नुस्खे सीखने के साथ है। प्रतिगामी विचारों को यूरोपिय और पाश्चात्य संस्कृति के साथ फ्यूजन करने वाले, धार्मिक उन्मांद को भड़का कर, सत्ता की अदल बदल में ही अपनी चाल का इंतजार करते रहे हैं। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ मंदिरों के गर्भ ग्रहों में वर्षों से छुपा कर रखे गये धन पर इठला रहा है। आर्थिक जटिलताओं के ताने बाने में औपनिवेशिक और आन्तरिक औपनिवेशिक अवस्थाओं ने मुनाफे की दृषिट से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था के पेचोखम को अनेकों घुमावदार मोड़ दिये हैं। यह आजादी के अभी तक के दौर की ऐसी कथा-व्यथा है जिसमें व्यवस्था का मौजूदा ढांचा आजादी के वर्गीय आधार वाला साबित हो रहा है।   

अवधारणा के स्तर पर नियम कायदों की लम्बी फेहरिस्त में समानता बंधुत्व और छोटे-बड़े के भेद-भाव के बावजूद व्यवहार में उनके अनुपालन न करने वाली सरकारी मशीनरी के कारणों की पड़ताल बिना सामाजिकी को पूरी तरह से जाने और जनतंत्र को सिर्फ ढोल की तरह पीटते रहने से संभव नहीं है। सिद्धान्तत: ताकत का राज खत्म हो चुका है लेकिन व्यवहार में उसकी उपसिथति से इंकार नहीं किया जा सकता है। जनतंत्र का ढोल पीटते स्वरों की कर्कशता को देखना हो तो सुरक्षा की दृषिट से जुटी वर्दियों के बेसुरे और कर्कश स्वरों में कहीं भी सुनी और देखी जा सकती है। भ्रष्टाचार की बहती सरिता में डूबे बगैर हक हकूकों की बात कितनी बेमानी है, योजनाओं के कार्यानवयन में जुटे अंदाजों को परख कर इसे जाना जा सकता है। जनता की धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका सामान्य वर्ग का नौकरी पेशा कर्मचारी भी कैसे आम जन पर कहर बनता है, इसे सिविल सोसाइटीनुमा आंदालनों के जरिये न तो पूरी तरह से जाना जा सकता है और न ही उससे निपटने का कोर्इ मुक्कमल रास्ता ढूंढा जा सकता है। आजादी की वर्षगांठ का पर्व ऐसे सवालों से टकराये बिना नहीं मनाया जा सकता। रस्म अदायगियों की कार्यवाहियों में आजादी का कर्मकांड तो संभव है लेकिन आजादी के वास्तविक मायनों तक पहुंचना संभव नहीं। मुनाफे की दृषिट से संचालित व्यवस्था के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को आजादी मानने की समझ को अब मासूमियत कहना भी ठीक नहीं।

1947 के बाद विकसित हुए औधोगिक ढांचे ने उत्पादन के केन्द्रों को शहरी क्षेत्रों में स्थापित कर विकास के चंद टापुओं का निर्माण किया है। कृषि आधारित उधोगों की अनदेखी के चलते विकास का जो माडल खड़ा हुआ है वह शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग के लिए ही अनुकूल साबित हुआ। यधपि उसकी भी अपनी एक सीमा रही है। दलाली और ठेकेदारी उसके प्रतिउत्पाद के रूप में सामने हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का बढ़ता घनत्व उसका दीर्घ कालीन परिणाम है, जो न सिर्फ पारिसिथतिकी असंतुलन को जन्म दे रहा है बलिक अविकसित रह गये एक बड़े भारत में निवास कर रही जनता को जो निराश और पस्त करता है। प्रतिरोध की आवाजों को जातीय और क्षेत्रीय पहचान के आंदोलनों की ओर धकेलने की राजनीति का सहयोगी हो जाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूचना प्रौधोगिकी का बढ़ता तंत्र ऐसी ही राजनीति का प्रस्तोता हुआ है। मुनाफे की संस्कृति उसकी प्राथमिकता में रही है और इस अंधी दौड़ में अव्वल आ जाने की चाह में घटनायें सिर्फ खबरों का हिस्सा हो रही हैं। खबरों का कोलाहल मचाते हुए मूल मुददे को एक ओर कर देने की चालाकियां स्पष्ट दिखायी देने के बावजूद भी उस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना जनता के हाथ में नहीं है। बलिक एक बड़े हिस्से के बीच यह सवाल बार-बार बेचैन करने वाला है कि क्या नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते हुए व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव लाया जा सकता है ? उत्तराखण्ड राज्य की मांग के सवाल पर सामाजिक चिंतक पूरन चंद जोशी के विश्लेषण को दोहराना यहां ज्यादा न्यायोचित लग रहा है जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं, ''....हमें यह  स्पष्ट रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भारत का पिछले पाच दशकों का विकास स्थानीयता के विघटनकारी विकास क्रम ने क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर भयंकर असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। जिसका विस्फोट हम आज देश के कर्इ भागों में देख रहे हैं। इस असंतोष और आक्रोश का मूल हमारे विकास क्रम की विकृतियों और हमारे विकास दर्शन और कार्यक्रम की अपूर्णता में है, इस कटु सत्य को न कभी हमारा शासक वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करता है, न मुख्यधारा के आर्थिक और सामाजिक चिन्तक और विचारक।

देश के तमाम क्षेत्रों में किसान और ज़मीन के सवाल खड़े हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर वैशिवक पूंजी की पैरोकारी ने जो अफरा तफरी मचायी है, उसने जनतंत्र को लूट तंत्र में बदल दिया है। नंदीग्राम का मामला अभी कोर्इ बहुत पुरानी बात नहीं। उड़ीसा में पास्को परियोजना के दुष्प्रभावों के विरुद्ध आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर गोली-बारी की घटना एकदम ताजा ही है। गुजरात में कच्छ का समुद्र तट, मैसूर की परियोजना, हरियाणा में रिलायंस परियोजना और गाजियाबाद का मामला तो बहुत ही ताजा है। ढेरों उदाहरण हैं जो कहीं से भी देश के तमाम नागरिकों को आजाद देश का नागरिक होने के सबूत नहीं छोड़ रहे हैं। हां एक खास वर्ग की आजादी को यहां भले तरह से देखा जा सकता है। बलिक प्रतिरोध की बहुत धीमी सी पदचाप पर भी हिंसक आक्रमणों की छूट वाली उस वर्ग की आजादी का नजारा तो कुछ और ही है। उसके पक्ष में ही तमाम प्रचार तंत्र माहौल बनाना चाहता है। सरकारी अमला उसके हितों के लिए ही कानूनों की किताब हुआ जाता है। जनतांत्रिकता का तकाजा है कि कानून के अनुपालन में सीट पर बैठे व्यकित की कलम से निकला कोर्इ भी वाक्य कानून है। किसी एक ही मसले पर लागू होते कानूनों की भिन्नता सीट पर बैठे व्यकित की समझदारी ही नहीं बलिक आग्रहों का भी नतीजा है। भिन्नताओं का आलम यह है कि हर बेसहारा व्यकित के लिए अपने पक्ष को सही साबित करने की लम्बी कानूनी प्रक्रिया का थकाऊपन झुनझुना हुआ जा रहा है। सूचना के अधिकार अधिनियमों या कितने ही लोकपाल अधिनियमों के आजाने पर भी जो वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित करने में अधूरा ही रह जाने वाला है। जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह उसी वैशिवक पूंजी के इशारों पर होता हुआ है जो मुनाफे की अंधी दौड़ में इस कदर फंसती नजर आ रही है कि आज अपने संकटों से उबरने के लिए सैन्य बलों के प्रयोग के अलावा कोर्इ दूसरा विकल्प जिसके पास शेष न बचा है। उसका अमेरिकीपन अहंकार की काली करतूत के रूप में तीसरी दुनिया के नागरिकों पर कहर बन रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद ऐसे ही अमेरिका को रोल माडल की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। सारा परिदृष्य इस कदर धुंधला गया है कि विरोध और समर्थन की अवसरवादी कार्रवार्इयां, किसी भी जन पक्षधर मुददे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है और आजादी के एक वर्गीय, धार्मिक एवं जातीय रूप को सामने रखा है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशसित में, बड़े-बड़े विस्थापनों को जन्म देने वाली नीतियों के पैरोकार डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं। आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर, उसी अमेरीकी आदर्शों स्वीकार्यता को भी ऐसी ही अवधारणाओं से बल मिल रहा है और आतंक की परिभाषा अपना आकार गढ़ रही है। संपूर्ण गरीब पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निशिचत ही चालक कोशिश है कि विदेशी धन संपदा से लदे फदे अप्रवासियों का झुंड आयेगा और देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगा।

झूठे जनतंत्र की दुहार्इ देते विश्व बाजार का सच आज की वास्तविकता है जो घरेलू उधोगों और उनके विकास में संलग्न बाजार को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है। उसके इशारों पर दौड़ती किसी भी व्यवस्था को आज आजाद व्यवस्था मानना, मुगालते में रहना ही है। आजादी का जश्न मनाते हुए सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से उसके क्रूर चेहरे को नहीं देखा जा सकता। तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने के लिए लगातार आक्रामक होती विश्व पूंजी की गति इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी एक सिथति से उसके सच तक पहुंच सके। उसके विश्लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है कि कहीं अपने मनोगत कारण की वजह से, उसे मुक्कमल तौर पर रखने में, वे आड़े तो नहीं आ रही। देशी बाजार का मनमाना पन भी कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं। यह सोचने वाली बात है कि तमाम चौकसियों के लिए सीना फुलाने वाली व्यवस्था क्यों उत्पादों के मूल्य निर्धारण की कोर्इ तार्किक पद्धति लागू नहीं करना चाहती। मनमाने एम आर पी मूल्यों के अंकन की छूट क्या एक खास वर्ग को उपभोक्ता सामानों में भी अघोषित सबसीडी की व्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए (?), जबकि किसानों और आम जनों को सबसीडी के सवाल पर यही वर्ग सबसे ज्यादा नाक भौं सिकोड़ने वाला है। दो पेन्ट खरीदने पर दो शर्ट मुफ्त बांटते इस बाजार की आर्थिकी क्या है ? यह सवाल आजादी के दायरे से बाहर का सवाल नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कारीगर और नौकरीपेशा आम कर्मचारियों को उपभोक्ता मानकर निर्धारित उत्पादकता लक्ष्यों के बाद के अतिरिक्त उत्पादन की मार्जिनल कास्ट का लाभ एक खास वर्ग को देता यह बाजार आजादी के वास्तविकता को ज्यादा क्रूरता से प्रस्तुत करता है। उत्पाद को खरीदने की स्वतंत्रता भी अधिकाधिक पूंजी वालों के लिए ही अवसर के रूप में है। ऐसे मसले पर आजादी जैसे शब्द को उचारना भी मखौल जैसा ही हो जाता है। 
 
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र हुआ है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गुण़वत्ता को जांचने की आजादी की भी जरूरत को नजर अंदाज कर दिया जा रहा है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, छुपाने के लिए नयी से नयी तकनीक की कोटिंग के प्रयोगों को चमकीली गुलामी ही कहा जा सकता है।

इस चमकीली गुलामी के असर से बचना भी आजादी को बचाने का ही सवाल है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औधोगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर किया है। बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक उसने ढीला किया है। लेकिन दलित आमजन की मुकित के लिए वैशिवक पूंजी की दुहार्इ देने का औचित्य दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन या दूसरे चेतना आंदोलन की राह फिर भी नहीं बन पा रहा है। स्त्री विमुकित का स्वप्न भी आजादी की चमकीली तस्वीर में जकड़बंदी के ज्यादा क्रूरतम रूप का पर्याय हुआ है। चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लेना उस असलियत से मुंह मोड़ लेना है जिसमें निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ लिया जाता है।
1947 से आज तक का भारतीय समय जिन कायदे कानूनों की व्यवस्था में पोषित और विकसित हुआ है, उसके विशलेषण को दुनिया के दूसरे मुल्कों से निरपेक्ष मानकर मूल्यांकन किया जाये तो ही आजादी के वास्तविक अर्थों तक पहुंचा जा सकता है। देख सकते हैं कि आजाद भारत में भी 1947 से पहले के सामंती शोषण और उसकी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका है। बलिक उसी वजह से विश्व पूंजी का पिछलग्गू बनने को ही एक मात्र रास्ता स्वीकार करने की मानसिकता को आधार मिला है और संवैधानिक स्वीकार्यता के बावजूद समाजवाद सिर्फ सपना ही बना हुआ है।  

-विजय गौड़

Sunday, July 31, 2011

वैकल्पिक ऊर्जा

पंडित नेहरु के प्रिय पात्र डा. होमी भाभा के साथ मतभेद का कारण देश के प्रखर वैज्ञानिक चिन्तक,गणितज्ञ,समाजशास्त्री और इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसांबी का टी.आई.एफ.आर में रहते हुए भारत के सन्दर्भ में परमाणु ऊर्जा की तुलना में सौर ऊर्जा को श्रेष्ठ ठहराने का मुखर और घोषित तर्क था.और इसी विश्वास के चलते उन्हें भाभा ने अपने संस्थान से हटा दिया.

कोसांबी के उठाये मुद्दों पर बाद में भी शासन द्वारा अक्सर सवालों को यथासंभव दबाया गया और ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की अनदेखी की गयी.आज देश में गहराते ऊर्जा संकट, पर्यावरण बचाने की मुहिम और अमेरिका की पिछलग्गू बनाने वाली परमाणु नीति की बाबत जन्मदिन (31 जुलाई)पर आदर पूर्वक कोसांबी का स्मरण करते हुए उनके कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं:
"एक औसत दिन में भारत के सौ वर्ग मीटर भूभाग पर सूरज लगभग 600 किलो वाट आवर ऊष्मा उपलब्ध करता है.यह करीब 160 पौंड उच्च श्रेणी के कोयले के या फिर 16 गैलन पेट्रोल के समतुल्य होता है.इस तथ्य को ध्यानमें रखते हुए मेरा पक्का विश्वास है कि हमें लगभग निः शुल्क उपलब्ध होने वाली सौर ऊर्जा का भरपूर दोहन करना चाहिए...दोनों स्थितियों में: हम परमाणु ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो भी...नहीं बढ़ते हैं तब भी. "

"सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा फायदा विकेंद्रीकरण है.इतने बड़े देश को इकलौते राष्ट्रीय ग्रिड से बिजली पहुँचाना बहुत मुश्किल काम है, वह भी तब जब उत्पादन स्रोत अलग अलग (ताप और जल, मुख्यतः).सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रिड हो या न हो आप स्थानीय तौर पर विद्युत् आपूर्ति कर सकते हैं.भारत कि भौगोलिक विशेषता को देखते हुए यहाँ वहाँ फैले लघु उद्योगों और गाँवों के लिए सौर ऊर्जा सबसे ज्यादा मुफीद बैठती है.यदि आप शुरुआती तौर पर भरी पूंजी निवेश और नौकर शाही के शिकंजे में फंसे बिना समाजवाद कि दिशा में अग्रसर होना चाहते हैं तो सौर ऊर्जा से ज्यादा कारगर और कोई साधन नहीं हो सकता."

"अनुसन्धान सिर्फ कुछ पेपर लिख देने, अपने प्रिय पात्रों को देश विदेश के कांफ्रेंसों में भेज देने और ऊँघते हुए राजनेताओं को पट्टी पढ़ा कर देश के कर दाताओं के करोड़ों रु. रिसर्च अनुदान के तौर पर जुटा लेने भर से नहीं होता...हमारे अनुसन्धान को वास्तविकताओं के धरातल पर भी खरा उतरना पड़ेगा."

"परमाणु ऊर्जा का पूरा मामला बेहद व्ययसाध्य है.जो लोग यह दलील देते हैं कि यह ताप और जल विद्युत् परियोजनाओं के समकक्ष ही है वे बड़ी चालाकी से यह सच्चाई छुपा जाते हैं कि परमाणु परियोजना के प्रारंभिक खर्चे कहीं किसी और मद में समाहित कर दिए जाते हैं."

"परमाणु ऊर्जा एक ऐसा खतरा है जिसकी विभीषिका आज की पीढ़ी को तो झेलनी ही पड़ेगी...बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ियों को भी झेलनी होगी."

"सिर्फ अवसरवादी और तीसरे दर्जे के वैज्ञानिक ही परमाणु ऊर्जा पर अपना समय और ऊर्जा खर्च करते हैं."


प्रस्तुति: यादवेन्द्र

Saturday, July 30, 2011

तकनीकी अभियान

इस महीने की 15 तारीख को छोड़े गए भारत के नए संचार  उपग्रह जी सैट-12  की सुर्खियाँ मुंबई बम धमाकों के कारण नहीं बन पायीं ...पर  आत्म निर्भरता की इस तकनीकी मिसाल का एक पहलू रोमांच और गौरव पैदा करता है.इस अभियान को सही ढंग से स्थापित करने की महती जिम्म्मेदारी अंतरिक्ष  वैज्ञानिकों की जिस टीम को दी गयी है उसमें सबसे अग्रणी भूमिका तीन महिला वैज्ञानिकों की है: प्रोजेक्ट डाइरेक्टर टी के अनुराधा, मिशन डाइरेक्टर प्रमोधा हेगड़े और आपरेशंस डाइरेक्टर के.एस.अनुराधा (चित्र संलग्न). उपग्रह छोड़े जाने के बाद उसको  सुरक्षित अपेक्षित ऊंचाई तक पहुँचाना और सही तरीके से स्थापित कर के सौंपे गए दायित्वों को सुचारू रूप से आरंभ करवाना इस वैज्ञानिक दल के कन्धों पर हैं...इस काम में करीब डेढ़ से दो महीने का समय लगता है.अब तक के विवरण बताते हैं कि जिन सुयोग्य कन्धों पर इसरो  के शीर्ष नेतृत्व ने  यह दायित्व सौंपा था,वे विशाल देश की अपेक्षाओं पर बिलकुल खरे उतरे हैं.
सक्षम और सुयोग्य स्त्री शक्ति को सलाम.............
 
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Sunday, July 17, 2011

अलकनन्दा घाटी का मूर्ति शिल्प

उत्तराखण्ड के गांवों की वीरानी, तकलीफ देने वाली है। जो लोग वहां खपने के लिए छूट गए हैं उनकी कोई खबर लेने वाला नहीं है। जो खत्म हो चुके हैं उनका कोई ब्यौरा हमारे पास नहीं है। आर्थिक कारणों के अतिरिक्त सवर्णों की खराब सोच के कारण हमारे शिल्पकारों, मूर्तिकारों और संगीतकारों को खत्म होना पड़ा। सवर्णों के लिए ये कार्य हेय है और इनके सक्रिय लोग निम्न कोटि के वासी हैं। कभी ये ध्यान ही नहीं गया कि यहां के मन्दिरों में सुन्दर मूर्तिशिल्प किसने बनाए? हमारे घरों की तिबारियों पर गढ़े गए लकड़ी के सुन्दर शिल्पों का निर्माण करने वाले आखिर हैं कहां ? लेकिन पहाड़ों में घुमकड़ी करने वाले कला रसिक नन्द किशोर हटवाल की मुलाकात आशा लाल से होती है। आशा लाल खांटी मजदूर है। वैसे ही दिखते हैं विनम्र और अबोध। घरों की खोली बनाने में वे निपुण हैं लेकिन अपने उजड़ते गांवों में इसकी जरूरत ही नहीं रही। बहुत संकोच के साथ वे बताते हैं वे मूर्तिशिल्पी हैं और पहाड़ के स्थानीय पत्थरों पर वे देवी देवताओं के शिल्प उकेरते हैं। वे जानते और मानते नहीं कि वे कलाकार हैं। जिला चमोली के छिनका नामक स्थान के सामने पाखे पर उनका गांव है। मूर्तिशिल्प कोई लेने वाला नहीं इसलिए बनाते भी नहीं हैं। पहले कभी पारम्परिक खरीददार रहे होंगे। आज के समय की मार्केटिंग उन्हें नहीं आती, इसलिए सड़क पर मजदूरी करते हैं।
वे शौक के लिए तो मूर्ति बना नहीं सकते। लगभग एक-फुट ऊंची मूर्ति बनाने में लगभग 15 दिन लगते हैं। पहले पहाड़ की ऊंचाई पर उपयुक्त जगह पर पत्थर को छांटना पड़ता है। फिर भारी पत्थर को ढो कर अपने गांव तक लाना पड़ता है। इतने समय तक बच्चों का पेट कौन भरेगा। सो काम बिल्कुल खत्म है। वे लगभग सत्तर-बह्त्तर वर्ष की आयु के हैं। उनके साथ इस दुर्लभ कला का भी अन्त होना हुआ।
किसी तरह लगभग दस मूर्तियां उनसे आग्रह कर बनवाई गईं। उनमें कलाकार का अहंकार नहीं है, ये कार्य वे मजदूर की तरह ही करते हैं। उनके मूर्तिशिल्पों की अलग पहचान है। उनका खुरदरापन और स्थानिकता देश के किसी भी दूसरे भाग की मूर्तियों से भिन्न है। स्थानिक देवी-देवता के अलावा वे भगवान बदरीनाथ की मूर्ति बनाते हैं। बहुत सम्भव है उनके पूर्वजों ने ही बदरीनाथ देवता की मूर्ति का सृजन किया होगा।
जांच पड़ताल करने पर कुछ और मूर्ति शिल्पियों की जानकारी भी मिली। छिनका के अनुसुया लाल और पंगनों के बसन्तू लाल के नाम उल्लेखनीय हैं। चमोली जिले में दस या बारह इस तरह के कलाकार हैं। ठीक से शोध करने पर उत्तरकाशी से बागेश्वर तक ऐसे अनेकों गुणी कलाकारों का जरूर पता लग सकता है। साहित्यकार नन्द किशोर हटवाल ने इस दिशा में पहल की है।
चारों धाम की यात्रा करने वाले लाखों लोगों को वैसे भी अपने उत्तराखण्ड में यादगार के लिए कोई चीज खरीदने को नहीं मिलती है।

-राजेश सकलानी

यदि ग्राहक मौजूद हों तो मूर्तिशिल्प की उपलब्धता  संभव हो सकती है। एक ठीक ठाक आकार का शिल्प (लगभग १ फ़ुट लम्बा और८ इंच चौड़ा) मेहनताने की कीमत रू २५०० से ३००० के बीच उपलब्ध हो सकता है।

Wednesday, July 13, 2011

शीशे के पार

 कई घंटों  लम्बी न रुकने वाली बरसात के एक दिन मैंने बेडरूम के रोशनदान के शीशे के पार  परिंदों का एक जोड़ा सिमटा सुरक्षित बैठा हुआ देखा...सार्थक साथ की जरुरत और इस से मिलने वाली सुरक्षा और सुकून की शिद्दत से समझ  आई...उस दृश्य को मोबाईल के कैमरे में कैद कर के आपके  पास भेज रहा हूँ...मुझे लगता है यह अपने आपमें एक सार्थक कविता है.                 -यादवेंद्र
                                                

Monday, July 4, 2011

याद आया "विचारधारा वाला पत्रकार"

अभिनव श्रीवास्तव की यह रिपोर्ट एक मित्र के मार्फ़त मेल से प्राप्त हुई। राजस्थान पत्रिका जयपुर में काम करने वाले अभिनव भारतीय जनसंचार सस्थान से पास आऊट हैं। पत्रकारिता के साथ साथ साहित्य में उनकी गहरी अभिरूचि है। अभिनव का आभार।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान में शनिवार 2 जुलाई को दोपहर एक बजे से ही छात्रों,नौजवानों और मानवधिकार कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. धीरे धीरे सभागार भरने लगा था और २ बजते बजते लगातार आ रहे  लोगों के लिए सभागार में खड़े  होने की जगह नहीं बची थी. यह मौका था उस पत्रकार को याद करने का जिसने बदलाव के सपने और चट्टानी इरादों  के साथ अपनी पूरी जिन्दगी को जिया. जिसने आदिलाबाद के जंगलों में फर्जी मुठभेड़ में आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा मारे जाने से पहले  दमनकारी होते राज्य की  नीतियों पर अपनी बेबाक कलम से लगातार हमले  किये . बात हो रही है पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय की जिनकी पहली बरसी पर हेम चन्द्र पाण्डेय मेमोरियल लेक्चर सीरीज की शुरुआत की गयी. यह शुरुआत जनता के पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय के सपने को जिन्दा रखने का प्रयास भी था और गंभीर चर्चा के माध्यम से हेम जैसे मीडिया एक्टिविस्टों की लड़ाई को समझने का भी.यही कारण था कि सीरीज का पहला लेक्चर जनपक्षीय पत्रकारिता और मीडिया एक्टिविजम के रिश्ते जैसे विषय पर आधारित था. प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता सुमंता बनर्जी ने अपनी मुख्य वक्तृता में हेम चन्द्र पाण्डेय की हत्या का उदहारण लेकर भारतीय राज्य में पत्रकारों की सुरक्षा, पुलिसिया राज के  कारण लगातार प्रभावित होती पत्रकारीय स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के माध्यम से कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान मीडिया का आर्थिक ढांचा  ऐसा है कि यह  पूरी तरह  लाभ लेने वाली संस्था बन गयी है.जब एक संचार मीडिया का उद्देश्य ज्यादा ज्यादा लाभ कमाना हो तो वह लोगो को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने की भूमिका  से बहुत दूर होती चली जाती है. इस तरह का मीडिया  सरकारी योजनाओ की पोल खोलने वाले पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे सकता.  भारत में  मीडिया एक्टिविजम के भविष्य पर
बोलते हुए बनर्जी ने कहा कि मीडिया एक्टिविजम के स्वरूप को और अधिक संगठित बनाने की जरुरत है. इसके बिना कोई व्यापक हस्तक्षेप नहीं हो सकता.अरुंधती रॉय ने भारतीय राज्य के लगातार होते सैनिकीकरण पर चिंता जताते हुए बोला  कि बेशक हम सैधांतिक तौर पर लोकतंत्र हैं लेकिन आज भारतीय राज्य  में एक भी ऐसी लोकतान्त्रिक संस्था नहीं है जिसमे जाकर एक आम आदमी
न्याय की उम्मीद कर सके. अरुंधती के विचार में लोकपाल बिल को पास कराने की आड़ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को छिपाया गया.

साहित्यकार मंगलेश डबराल ने इस बात जोर दिया कि जब तक छोटे छोटे स्तर पर चल विरोधों को संगठित  नहीं किया जायेगा तब तक  कोई भी विचार हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं पहुंचेगा . बाजार के ही विचार माने जाने वाली मान्यता पर भी उन्होंने सवाल उठाये. उन्होंने कहा कि  मीडिया का आकार में लगातार विस्तार होने के बावजूद फलक पर सच दिखाई नहीं देता.यह अफ़सोस जनक
स्थिति है. मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधान ने भारतीय राज्य के दमनकारी चरित्र पर जमकर बरसे और मीडिया की वर्तमान आर्थिकी में विलुप्त होते पत्रकार संघो को पत्रकारों की खराब हालत के लिए जिम्मेदार बताया. उन्होंने  अखबार के मालिको  द्वारा इस बात का प्रचार किये जाने पर  आश्चर्य व्यक्त किया कि वेज बोर्ड लागू होने के बाद आर्थिक भार के कारण अखबार बंद हो जायेंगे.  कवी और पत्रकार नीलाभ ने माना कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति का खराब होना उनको सच कहने और लिखने से रोकता है.सत्ता और संरचना जान-बूझकर ऐसी स्थितियां बनाती है जिससे पत्रकार सच लिखने में असमर्थ हो जाये. संजय काक ने वैकल्पिक पत्रकारिता को मजबूत बनाये जाने पर जोर दिया. काक ने मुख्य धारा पत्रकारिता के समान्तर खड़ी हो रही वैकल्पिक पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने का सशक्त माध्यम बताया. संजय ने वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत को नए सिरे से समझने की जरुरत पर बल दिया.  हेम के याद करते हुए पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता भूपेन सिंह द्वारा सम्पादित किताब "विचारधारा वाला पत्रकार" का विमोचन भी किया गया.
विमोचन हिंदी मासिक हंस के संपादक  राजेंद्र यादव ने किया. किताब के एक लेख में हेम चन्द्र पाण्डेय की पत्नी बबिता उप्रेती ने हेम को याद करते हुए लिखा है कि कुछ लोगों की मौत पर्वत से भी ज्यादा भारी और कुछ की पंख से भी हलकी होती है. जनता के पत्रकार हेम की मौत वाकई पर्वत से भी ज्यादा भारी थी

Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..

Tuesday, May 3, 2011

आदत हो चुके ढकोसले



अपने लिखे या कहे की सत्यता पर तर्क करना, दृढ़ रहना एक बात है लेकिन उसे अन्तिम सत्य मान लेना, दूसरी बात। यह दूसरी बात ही है जो विवादों को जन्म देती है। आरोप और प्रत्यारोप का मैदान इसी की चौहद्दी में फलता फूलता है। यह बात मैं उस कविता पर बात करने के लिए कह रहा हूं जिसे पिछले दिनों अशोक ने फेस बुक पर लगाया। कवि बोधिसत्व की कविता- अब जबकि जान गया हूं।  कविता के प्रस्तुतिकरण का शीर्षक और उस के पक्ष में दर्ज अशोक की टिप्पणी के आधार पर कविता के पाठ में आ रही दितों को असहमति के रूप में दर्ज करने का मन हुआ था। इधर हिन्दी साहित्य की बिगड़ैल प्रवृति में जो खतरा दिखाई देता है, उसका शिकार हो जाने की आशंकाओं ने बहुत संभलकर लिखने की हिदायत दी थी, जिसका अक्षरस: पालन न कर पाने का खामियाजा भुगतना ही पड़ा। टिप्पणी पर रचनाकार बोधिसत्व की व्यंग्योक्ति से भरी प्रतिक्रिया का जवाब फेस बुक में दिया जाना संभव न लगा।
 

चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
(कवि अग्रज बोधिसत्व की यह कविता मैंने असुविधा पर भी लगाई थी...इस कविता में मुझे जो खास लगा वह यह कि कोई प्रगतिशीलता मनुष्यता के बिना सम्पूर्ण नहीं. जो मानवीय गुणों और व्यवहार से च्युत है वह किसी समाज के लिए आधुनिक या क्रांतिकारी नहीं हो सकता. अक्सर परम्परा को आधुनिकता के नाम पर खारिज कर दिया जाता है...लेकिन यह कविता कबीर के सार-सार को गहि रहे वाले विवेक से परम्परा के मानवीय पक्षों को बचा ले जाने की वकालत करती है)
अब जबकि जान गया हूँ
 

जबकि जान गया हूँ
चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ।

जबकि जान गया हूँ
बाझिन गाय को चारा न दूँ
खूंटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डंडा मार कर
वध करूँ मनुष्य का या पशु का
कोई नर्क नहीं कहीं
तो क्या उठा लूँ खड्ग

जबकि जान गया हूँ कि क्या गंगा क्या गोदावरी
किसी नदी में नहाने से
सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे
तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो


जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है
मेघ हमारी भाषा नहीं समझते
धरती माँ नहीं
तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...
यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो
बादलों से कुछ बूँदों की याचना करूँ तो

जबकि जान गया हूँ
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि अपनी पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूँ तो
अपनी माँ को जगदम्बा कह दूँ तो

जबकि जान गया हूँ
अन्न कोई देव नहीं
उसे धरती को जोत-बो कर उगाते हैं लोग
किंतु यदि कौर उठाते शीश झुका दें तो

ऐसा बहुत कुछ है
जो न जानता तो पता नहीं क्या होता
लेकिन अब जो जान गया हूँ तो
क्या करूँ..... पिता
क्या करूँ गुरुदेव
क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का
vijay: "क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का" yahi tou sankat hai is duniya ka ki ek vaigyanik jo jaan raha hota hai ki chhoda ja raha upgrah yadi kinhi karano se apni kasha tak nahi pahunch paayega tou zaroor koi kharabi aajane ki wajah... se hi esa hua par use chhode jane se pahle nariyal phodne ka anushthan karte hue wah apni asfalta ke prarambh ke maafiname ke liye juta hota hai. mareej ka ilaj sirf marj ki pahchan aur sahi aushdhi se ho sakta hai yah jaane wale bhi upar wale ke bharoshe ki baat karta hai, na jane kitne uddaharna hai. aapka janna unse alag kahan hai bodhi ji, dekh nahi paa raha hu. sirf kavita me kah dene bhar se mukat ho jaana ek suvidha se jyada kuchh nahi. kavita ek kharab awdharna ko bhi pusht kar ahi hai, mujhe tou yahi lag raha hai. ummeed hai itni tareefo ke beech is ek asahamati ko anytha nahi lenge. jo laga kaha.

बोधिसत्वमैं क्या कह सकता हूँ.....विजय भाई. कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में। गोर्की ने लिखा है कि ढाई हजार हार्सपावर का जहाज पादरी के आशीष और पूजादि के बाद पानी पर चलाया गया। यह कैसी वैज्ञानिकता ...है। और व्यक्तिगत रूप से मैं भी जानता हूँ कि भुना हुआ गेहूँ चाहे आप कहीं भी बो दें नहीं उगेगा। अगर कविता एक खराब अवधारणा को पुष्ट करती है तो बहुत अच्छा नहीं करती। आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ। आप का काव्यास्वाद इस कविता ने बिगाड़ा यह अपपराध क्षमा करें। आगे गलती न करने की कोशिश करूँगा....
बोधिसत्व: "आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ।" 
vijay:  jwab shraratpurna hai bodhi bhai, lagta hai dostana rai aapko pasand na aayi. Khair.
बोधिसत्व: सचमुच अच्छा लगा विजय भाई लेकिन खराब अवधारणा को पुष्ट करने वाली बात को थोड़ा सा समझा दें....मुझे सचमुच नहीं समझ आया....
मैं राह देख रहा हूँ...देखूँगा.....बिना नाराज हुए....
vijay:  kya zaroori hai abhi hi darj karu ? yadi kahenge tou vistar se likhunga
kavita ko save kiye le raha hu, dusri any rachnao par jinse asahmati ubharti rahi hai, baat karte hue jikar karne ki koshish karunga, aalekh aapko bhi mail kar dunga. kab likh payunga abhi nahi kah sakta, haa likhunga zaroor

 

बोधिसत्व: अगली गलती करूँ कि उसके पहले कुछ समझा दो भाई...यहाँ कुछ संक्षेप में ही कह दो...कौन जीता है तेरी जुल्फ सके सर होने तक...
vijay: "सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे...

तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो" is tou ke baad ka rth
hai tou kya ho jayega, yahi na. yahi kya ho jayega tou wahan bhi hai ki "कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में।" kahir aapke wyangy ko mai kinhi any artho me nahi le raha hu . wyangy se parhej nahi yadi usme wyaktigat aham aur dusre ko dhool chatane ki sweekarokti na ho tou. aapka wyangy dhool chatata hua. afsos hai mujhe jo tippni dene ki himakat ki. yah aap akele ki dikkat nahi hai bodhi bhai. apr mera aasay kabhi bhi vivad paida karne ka nahi raha hai. aapko lutf aaye tou bhi ab aage mujhe yahan kahna uchit nahi lag raha.
बोधिसत्व: मैं आपकी पहली बात से सहमत हूँ....वह व्यंग नहीं आपके कथन का समर्थन था....अगर आप कुछ न कहना चाहें तो बात अलग है....उसके लिए आप कोई भी राह चुन सकते हैं....

''मात्र आदत हो चुके ढकोसलों में लगभग विलुप्त हो चुकी भावना का सतर्क शोध करती" यह कविता जिस बिन्दु से शुरू होती है वहां स्पष्ट एक चुनौति है। एक ऐसी चुनौति जिसमें हुंकार है, गर्जना है और दम्भ। ये तीनों क्यों हो ? गर्वोक्ति से भरी इन पंक्तियों के उत्स क्या हैं ? उनके निहितार्थ क्या हैं ? ये कुछ सवाल हैं जिनके दायरे में ही पाठ को खोला जाना संभव हो सकता है।

जबकि जान गया हूं
चीटिंयों को पिसान्न डालने से मोक्ष का द्वार नहीं खुलता
तो क्या चीटिंयों को पिसान्न डालना रोक दूं।


कविता के उत्स का जो अपना तर्क शास्त्र है, स्पष्ट है कि जो कुछ आदत हो चुके ढकोसलों में किया जा रहा था, उसकी निरर्थकता को जान भी लिया है तो भी उसे दुनिया के बदलाव की किसी भी गतिविधि को आगे बढ़ाते रहने में क्या फर्क पड़ने वाला है। वैसे "क्या" यहां प्रश्न के रूप में नदारद है, बल्कि कहें कि निरर्थक कार्रवाइयों को जारी रखते हुए ही गतिविधियों का आगे बढ़ाते रहने की सैद्धान्तिकी की जिद्द है। कविता में जिस पड़ने वाले फर्क की बात हो रही है, संभवत: किन्हीं खास सकारात्मक स्थितियों की ओर इशारा जैसा ही कुछ होना चाहिए, ऐसा मान रहा हूं। कविता के प्रस्तोता अशोक की टिप्पणी भी ऐसे ही अर्थ तक पहुंचने की राह दिखाती है। बावजूद इसके कविता में तर्क की जगह एक कुतर्क मुझे क्यों दिखायी दे रहा है ? यदि कुतर्क न भी कहूं तो जो तर्क है उसमें दम्भ, हुंकार और गर्जना क्यों सुनायी दे रही है ? यानी एक ऐसा तर्क जो किसी तरह के अन्य तर्क की गुजांइश से परे मानने की अवधारणा को साथ लिए चलता है। तर्क वही जो अक्सर सुनायी देते हैं कि क्या फर्क पड़ता है यदि एक मंदिर और बन जाये तो। ईश्वर तरंग हैं और मंदिर रेडियो स्टेशन। ब्रहमाण्ड रूपी ब्रॉड कास्ट स्टेशन से छूटने वाली तरंगे हर रेडियों में उतर जाएंगी। बनाओ, बनाओ, खूब बनाओ मन्दिर। लड़ो उन सब खाली पड़ी जगहों के लिए, मचाओ मार-काट, जो मानवता की जरूरत के लिए भी इसलिए उपयोग में नहीं दी जा सकती कि उस पर किसी न किसी पुरखे का अधिकार है।

यह कहना उपयुक्त लग रहा है कि सिद्धान्त और व्यवहार की अस्पष्टता के चलते ही हावी होते मनोगतवाद से कवि संचालित दिखाई दे रहा है। स्पष्ट है कि मनोगतवाद जब हावी होने लगता है तो स्थितियों का समूचित मूल्यांकन इतना भ्रामक होता है कि दिखाई दे रही स्थितियों से निपटने के लिए कर्ता अनायास ही व्यवहार की उस चपेट में होता है जिसको सिद्धान्त: अस्वीकारे हुए हो। यानी सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में प्रतिक्रान्ति का भाष्य हो जाना एक प्रवृत्ति हो जाती है। बेशक क्रान्ति को बेहद स्थूल अर्थों में इस्तेमाल करते हुए कवि बोधिसत्व ने प्रतिक्रिया के जवाब में उस व्यंग्यात्मकता का सहारा लिया हो जिसमें क्रान्ति का मखौल उड़ाया जाना निहित हो, पर कविता के भाष्य में निहित शब्द "क्रान्ति" तो वहां मौजूद ही है। हां सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में "प्रतिक्रान्ति" का वाहक हो जाना उसकी स्वाभाविकता है। कविता में मौजूद गड़बड़ी जिसको इशारे में खराब अवधारणा को पुष्ट करती हुई है, कहकर, मैंने सिर्फ एक छोटी सी टिप्पणी भर करनी चाही थी। आशय बिल्कुल स्पष्ट था कि कविता के मूल विचार से सहमति नहीं बन रही है।

इस कविता पर बात करने के लिए एक सवाल मन में उठ रहा है कि रचनाकार का भौतिक जीवन और सास्कृतिक जीवन क्यों एक नहीं होना चाहिए ? रचनाकार के जीवन की सम्पूर्ण पदचाप क्यों उसकी रचनाओं में सुनायी नहीं देनी चाहिए ?
व्यवहार ज्ञान से बढ़कर है। यह मेरा कथन नहीं महान विचारक लेनिन कह गये। क्योंकि मानते थे कि उसमें न सिर्फ सर्वव्यापकता का गुण होता है बल्कि प्रत्यक्ष वास्तविकता का गुण भी होता है। प्रत्यक्ष वास्तविकता की व्याख्या के लिए आस-पास के आन्तरिक अन्तर्विरोधों की पड़ताल जरूरी होती है। तभी देखी-जानी स्थितियों से प्राप्त ज्ञान से उस सिद्धान्त का प्रतिपादन हो सकता है जो उन्न्त से उन्न्त की ओर अग्रसर होता है। व्यवहार और सिद्धान्त का संक्षिप्तिकरण या एकमेव हो जाना इससे अलग नहीं हो सकता। बोधिसत्व की कविता में वे अपने अपने जुदा रास्तों के साथ है।

जबकि जान गया हूं
जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूं तो
अपनी मां को जगदम्बा कह दूं तो

बहुत स्पष्ट श्ब्दों में जो स्वीकारोक्ति है वह सिद्धान्त के साथ है, जिसमें अभी तक के ज्ञान विज्ञान से बनी समझ के प्रति कोई संदेह नहीं लेकिन व्यवहार में उसके लागू करने के सवाल पर जो द्विविधा और असमंजस है वह एक तर्क बन जा रहा है- यदि ऐसा कर दूं तो
और इस "तो" से जो ध्वनी उठती है वह एक चुनौति भी है कि तो क्या हो जाएगा ?

यहां कहना पड़ रहा है कि अप्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त ज्ञान व्यवहारिक दिक्कतों का कारण हो जाता है। ज्ञान प्रत्यक्ष का दर्शन है। प्रत्यक्ष ही रूप की समस्या को हल करने में सहायक होता है और विषय वस्तु का सवाल सिद्धान्त से हल किया जा सकता है। लेकिन इन दोनों समस्याओं को व्यवहार से अलग कतई हल नहीं किया जा सकता। पर कविता व्यवहार के सवाल पर ही एक गलत समझ के साथ हो जाने की चुनौतियों को रख रही है। स्पष्ट है कि यह दम्भ भरी चुनौति अप्रत्यक्ष ज्ञान से ही हासिल हुई समझ का नमूना है। यह अप्रत्यक्षता कहां से आती है ? तय है कि इसका उत्स फेशन में मौजूद प्रगतिशीलता के मानक हैं जबकि भीतर जड़ जमायी संकीर्णता अवचेतन के बहाव में आ जाती है। यही कारण है कि उसका बहुत प्रकट रूप वहां ज्यादा साफ दिख रहा होता है जब रचनाकार के निजी जीवन और रचना से उदघाटित होते सत्य स्पष्ट होते हैं और साथ-साथ दिखाई देते हैं। अप्रत्यक्ष ज्ञान की यह दिक्कत ही है कि जब चाहे उस पर यकीन किया जा सकता है और जब मन हो भाषायी घुमेर देकर उस से हटा जा सकता है। विचलन की इस अवस्था को कई बार व्ववहार में लचीलेपन की संज्ञा वाली शब्दावली कह दिया जा रहा होता है। यहां लचीलेपन की वह प्राकृतिक व्याख्या अट नहीं पा रही होती है जो शहतूत की टहनी-सा मजबूती वाला वास्तविक लचीलापन होता है। व्यवहार में वास्तविक लचीलापन सिद्धान्त पर दृढ़ रहते हुए ही संभव हो सकता है। कला में वही यथार्थ को परिभाषित करता है, वहां यथार्थ की पूर्णता के लिए यथार्थ की जरूरत होती है। जोखिम उठाने की ललक होती है। विश्व के रूपान्तर में सक्रिय सहयोग का निर्धारण होता है। महज ज्ञान प्राप्त कर लेने और अमल में लाये बिना उसका जाप करते रहने से दुनिया के रूपान्तर की प्रक्रिया का एक भी कदम नहीं बढ़ सकता।
क्रांति सिर्फ मारकाट की कार्रवाइयां नहीं, जैसा कि बोधिसत्व जी की टिप्पणी इशारा करती है। सिद्धान्त और व्यवहार की सही समझ के साथ चरण बद्ध प्रक्रिया में अपनी निश्चित भूमिका के साथ मौजूद रहना भी क्रांति का हिस्सा हो जाना होता है। एक रचनाकार की भूमिका उसकी रचना के सत्य से ही निर्धारित होती है। सत्य को लागू करने में आ रही दितों को बेचारगियों की तरह जाहिर करने से सत्य कहीं अंधेरे कोनों में खो जाता है। व्यवहारिक दिक्कतों को ठीक से समझकर, लागू करने की अस्पष्टता को, बहस का हिस्सा बना देना कहीं ज्यादा सार्थक है। रही बात सामंती मूल्यों की, दक्षिपंथी मान्यताओं की, तो दुनिया के कई हिस्सों में आगे बढ़ चुके समाजों के अनुभव आज हमारे सामने हैं। उनकी सत्यता के सवाल पर संदेह न रहा है। उन्हें फिर-फिर परखने की कार्रवाइयां एक झूठ को स्थापित करने की चालाक कोशिशें हैं। मनोगत कारणों से उपजा एकांगीपन। वस्तुगत यथार्थ के आगे बढ़ जाने की स्थितियों से पिछड़ जाने पर ही कटटरपंथी मान्यताएं लुभाने लगती हैं। रचना के सत्य और जीवन के सत्य को अलग-अलग मानने की हठधर्मिता व्यवहार का हिस्सा हो जा रही होती है। रचना में कलावाद को इससे अलग नहीं माना जा सकता।

समाज को बदलने की प्रक्रिया और उसे बेहतर देखने की उम्मीदों भरी हमारी रचनाओं की पड़ताल की जाए तो देखेंगे कि उसकी सीमाएं वैज्ञानिकता और तकनालॉजी की सीमा भर नहीं है, बल्कि वस्तुगत यथार्थ से हमारे आत्म साक्षात्कार की श्रेणीबद्धता उसका एक कारण है। सामाजिक बदलाव में दर्शन की विशिष्टता आध्यात्मिक और भौतिकवादी अन्तर्विरोधों पर निर्भर होती है। विशिष्टता के इस पहलू के आधार पर ही दोनों की परस्पर निर्भरता तथा विरोधपूर्ण समग्र मूल्यांकन पर ही रचनात्मक कृति की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार होती है। अन्तर्विरोधों की विशिष्टता और जटिलता पर विचार किए बगैर रचना के किसी एक धुर छोर तक पेंग मार जाने की अवस्था से बचा नहीं जा सकता। भाववादी रचनाओं के साथ यही दिक्कत होती है कि विशिष्टता से बचकर वे नितांत निजीपन की स्थितियों को सर्वोपरी मान लेने के साथ होती हैं। व्यवहार में एकांगीपन भी इन्हीं स्थितियों में जन्म लेता है। सिर्फ परम्परा और आधुनिकता का जिक्र भर कर देने से अन्तर्विरोधों की विशिष्टता उभर नहीं पाती है। मनोगत आग्रहों से मुक्त होकर ठोस धरातल पर टिका हमारा आत्म खुद की आलोचना का आधार दे सकता है। आत्म से साक्षात्कार की उन्नत अवस्था में ही स्वंय की रचना पर आलोचनात्मक टिप्पणी हमें तिलमनाने की बजाय फिर से पुनर्विचार करने का अवसर दे सकती है। तर्क की जमीन पर खड़े होकर तभी हम दोस्ताना संघर्ष के रास्ते को चुन सकते हैं।
 

विजय गौड़