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Monday, June 27, 2022

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते

   

दुख अपनी संरचना में जितना मजबूत होता है,प्रेम की छत जीवन की  दीवारों को उतना ही लचीला बना देने को उकसाती हैं। निर्मिति की प्रौद्योगिकी का यह वस्‍तु सत्‍य इल्‍म की इबारत होने से पहले अनुभव के जोर की परख का परिणाम होना चाहता है। कविताओं में सुख और प्रेम को पर्यायवाची की तरह संयोजित करने के आग्रह बहुत आम दिखते हैं। लेकिन सपना भट्ट की कविताओं में यह संयोजन संकोच के तार से स्‍वाभिमान की एडियों को बांधे हुए रहता है।  

प्रेम के बारे में प्रिय कथाकार राजेन्द्र दानी कहते हैं,’’ प्रेम नहीं कहना चाहिए , प्यार कहना चाहिए । प्रेम कहने से अभिजात महसूस होता है । प्यार ही सर्वांगीण है और सार्वभौमिक है । यह अभी भी विद्यमान है और भरोसा है कि रहेगा । किसी दार्शनिक ने कहा था कि आपकी हर हरकत में "सेक्स" है । अब इसका स्थानापन्न प्यार हो सकता है प्रेम नहीं । खुशहाली प्यार में निहित है ।

देह से मुक्त हुए बगैर, प्रेम एक भुलावा ही है। देह के बंधन जीवन की आपाधापी से निपटने नहीं देते, दुख के बादलों से घेरने लगते हैं। कुछ दिखाई नहीं देता। जीवन में आड़े आ रहे दुखों से लड़ने में प्रेम एक ताकत की तरह है। सपना भट्ट की कविताओं से गुजरते यह और भी साफ दिखाई देता हैं। सामाजिक महौल में बहुत करीब मौजूद बिम्‍बों का जैसा इस्‍तेमाल सपना भट्ट अपनी कविताओं में करती हैं, उसके कारण ही अपने समकालीनों में उनकी कवितायें अलग से पहचानी जाती हैं।    

प्रस्‍तुत हैं सपना भट्ट की कुछ चुनिंदा कवितायें 

वि.गौ.
परिचय:
सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
 शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं  और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं। 
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि। 
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
बोधि प्रकाशन से पहला कविता संग्रह 'चुप्पियों में आलाप' 2022 में प्रकाशित ।

1

 जबकि इतनी 

चिंताएं हैं इस विपुला पृथ्वी पर 

 

और 

मुझ पर अपनी 

उम्र से अधिक सालों का ही कर्ज़ नहीं

अपने छोटे बच्चों और अपनी ही 

रुग्ण देह से असीम काम लेने का भी निर्दयी कर्ज़ है

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ...

 

जबकि दुनिया में सुलग रही है

अन्याय की राजनैतिक सामाजिक आग 

तिस पर जब एक भीषण महामारी का 

प्रकोप सह रही है यह दुनिया

मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ

 

कितनी निर्लज्ज हूँ

मेरे अस्तित्व से समाज को क्या लाभ !

 

फिर सोचती हूँ 

पैरों से लिपटी माटी भी

ढल जाती है भांडे बर्तनों,

मूर्तियों खिलौनों और दीपदानो में एक दिन

 

बेढंगे अटपटे पत्थर भी 

एक दिन सहारा देते हैं 

किसी मकान की गहरी नींव में पैठकर

काम आते हैं 

ऊखल जांदर सिलबट्टों और घराटों में ढलकर

 

लोहा लोखर 

से चाहें तो गढ़ सकते हैं 

चिमटे सरिए हथियार  

या कुदाल गेंती फावड़े जैसे औजार ही 

 

ईंधन के बाद बची राख से भी 

मले और घिसे जा सकते हैं बासन

बनाई जा सकती है भभूत माथे और देह के लिए

 

और तो और 

कांटा भी कभी काम आता है कांटा निकालने के 

विष भी औषधि के काम आता है । 

 

इतना व्यर्थ नहीं होता

दुनिया मे किसी का भी अस्तित्व

जितना तुमने मेरा मान लिया है  ....

 

2

मेरी देह इन दिनों 

अक्सर अपने पते पर नहीं मिलती

 

क्षितिज पर 

अहर्निश टँगे सुरंगे दृश्यों 

और मतवाले चैत का अखूट सौंदर्य मुझे पुकारता है 

 

मैं घाटी के 

निचाट रस्तों पर भटकती रहती हूँ

 

मेरी तरसी हुई दीठ

केवल पहाड़ बादल नदी 

और बांज देवदारों के लकदक पेड़ ही नहीं देखती

मौल्यार के धानी वैभव का आह्लाद भी देखती है 

 

चाय की छोटी धूसर दुकानों पर 

सस्ते बिस्कुट और मैगी के पैकेट ही नहीं देखती

थके हारे लोगों की तृप्ति भी देखती है 

 

इधर मैं एक दृश्य में

ठिठक कर प्रवेश करती हूँ 

चौरंगीनाथ के मुख्य द्वार पर 

चार हमउम्र बूढ़ों की चमत्कृत करती फसक सुनती हूँ

देर तक मुस्कुराती हूँ 

 

किसी कुल देवी की 

फिरकियों चर्खियों और 

फ्योंली बुरांश से सजी वह डोली देखती हूँ 

जिसके शीर्ष पर

मनौती वाली चिट्ठियां बंधी हैं 

 

क्षमता से अधिक

घास लकड़ियाँ ढोती स्त्रियों का 

मुझ देसवाली को देख 

खिस्स करके हँस देने का कौतुकपूर्ण उल्लास देखती हूँ

उन मृदुल मीठे ठहाकों पर न्योछावर होती हूँ। 

 

चैत में मायके आई 

बेटियों के अछोर सुख की तरह 

एक निश्चिंतता मेरी पूरी आत्मा में पसर जाती है 

 

फेफड़ों में ख़ूब गहरी सांस भरकर

मैं इस कविता के सहारे 

धीरे धीरे अपने एकांत में लौट आती हूँ।

 

 3


देखती हूँ 

कि यह बैरन शीत 

इन दिनों मेरे कमरे में ही आकर रहने लगी है ।

 

माघ का क्रूर तुहिन 

दुःख की खपरैलों से टपकता हुआ

सीधे मन की उन्मन भीत पर झिरता है 

 

ज्वर का भीषण ताप 

खोखली देह की ठठरी सुलगाता है 

प्राणों की धौंकनी को

श्वास का ईंधन पूरा नहीं पड़ता 

 

आंखें अश्रु ही बनाती है 

याद का बीज याद ही उपजाता है 

 

यह धड़ 

बेवजह एक उदास चेहरा उठाए फिरता है 

 

प्रीत का सुख 

इतना बेढब और विविक्त है 

कि अब अपने पर्यायों में भी नहीं मिलता

 

दुःख इतना सुघड़ और सलीकेदार 

कि अंधेरे में हाथ बढ़ाने पर भी

अपनी नियत जगह पर रखा मिलता है

 

फूलों के नाम याद रह जाते हैं

उनका सौरभ भूल जाती हूँ

तुम्हे बिसराने की जुगत में

तुम्हे और अधिक याद करने लगती हूँ

 

स्मृतियों के विलोम में 

बरसों पीछे लौटती हूँ 

वहां भी विस्मृति नहीं मिलती 

 

किसी और के लिए लिखी हुई

तुम्हारी विह्वल और रुआँसी कविताएँ मिलती हैं 


4

धैर्य के चूकने से निमिष भर पहले 

शिराओं में घुले 

दुःख की लयात्मकता टूट जानी चाहिए ।

 

जिस तरह

पुराने बूढ़े दुःख की जगह 

कोई मीठा तरुण दुःख 

कातर अनुभूतियों को कांधा दे देता है,

 

ठीक उसी तरह,

एक निश्चित अंतराल पर

स्मृतियों की निर्मम चोट मंथर हो कर

फूलमार में बदल जानी चाहिए।

 

चुम्बन का अन्वेषण किसी अधीर प्रेमी ने नहीं

अकेलेपन से घबराए 

ईश्वर ने किया होगा ।

 

उधर स्वप्न में तुम मुझे चूमते हो 

इधर मंगसीर का तीव्र ज्वर

निर्विघ्न इस देह की सांकलें बजाता है। 

एक ठंडी आंच आठो पहर आत्मा के भीतर सुलगती है। 

 

तुम्हारा नाम पुकारती हूँ 

एक आदिम प्यास से जिव्हा जलती रहती है।

 

इस दरिद्र तलहटी में 

नशे से बेसुध होने के लिए भांग भी हैमदिरा भी 

मैं मगर हर बार अपनी प्यास 

तुम्हारे कंठ में भूल आती हूँ।

 

तुम ठहरे कवि 

कविता में आलोचना का पक्ष देखते हो ।

प्रेमी होते तो बूझते

कि प्रेम से च्युत कवित्व आख़िर किस प्रयोजन का।

 

मैं कोई कवि ववि नहीं,

नियम और बंधन 

मुझमें असम्भव अचरज भरते हैं। 

 

मेरे पास तुम तक अपने दुःख पहुंचाने का

अन्यंत्र कोई मार्ग होता

तो कोई कविता कदापि सम्भव न होती।

 

रात के इस पहर 

देह इस देह के ऋण से मुक्त हो भी जाए 

स्मृतियों का एक अर्धनष्ट टुकड़ा 

मन को मुक्त नहीं होने देता। 

 

भीड़ में ठहाके लगाता 

मेरा नीरव एकांत मेरे भीतर बेतरह रोता है ।

 

तुम जो मांगते हो मुझसे

मुठ्ठी भर मेरा जूठा संताप

तुम्हे कैसे दे दूं! 

 

यह प्रेम का दुःख 

मेरी बरसों की पूँजी है जिसे

अबोध कामनाओं को 

रेहन पर रख कर खरीदा है मैंने।

 

5

 भीतर कहीं एक कोमल आश्वस्ति उमगती है 

कि सुख लौट आएंगे । 

 

उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है 

कि आख़िर कब ?

 

जो कहीं नहीं रमता वह मन है,

जो प्रेम के इस असाध्य रोग 

से भी नहीं छूटती वह देह ।

 

अतृप्त रह गयी इच्छाएं 

आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह

यहां वहां बिखरी पड़ी हैं,

जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं 

हृदय में शूल की तरह चुभता है । 

 

अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श

सात तालों में छिपा कर रखती हूँ। 

मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते

तुम्हे संकोच घेर लेता है।

 

हमारा संताप इतना एक सा है 

ज्यों कोई जुड़वां सहोदर।

 

जानते हो न 

बहुत मीठी और नम चीजों को 

अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,

मेरे मन को भी धीरे धीरे

खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत। 

 

प्रेम करती हूं सो भी

इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ ।

जबकि जानती हूं कि 

लोग घृणा करते भी नहीं लजाते। 

 

किसी को दे सको तो अभय देना 

मुझ जैसे मूढमति के लिए

क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं। 

 

पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से 

घिरा है यह जीवन। 

 

सौ तरह की रिक्तताओं में 

अन्यंत्र एक स्वर उभरता है। 

देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं 

उड़ जाएगा हंस अकेला।

 

मैं एकाएक अपने कानों में 

तुम्हारी पुकार पहनकर 

हर ऋतु से नङ्गे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ। 

 

कैसी बैरन घड़ी है 

किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता। 

 

तुम कहाँ हो 

मुझे तुम्हारे पास आना है

 

6

इधर इस बूढ़े पहाड़ पर 

पावस ढुलता है मेरी पीठ पर धारासार

उधर विस्मृति के देवता

मधुर स्मृतियों के सब चिह्न धो देते हैं

 

कपास से भी हल्का तुम्हारा चुम्बन

मेरे माथे पर दीपक सा जलता तो है 

आलोक नहीं देता

 

तुम्हारे घुटने की तिकोनी अस्थि पर

टिके सामर्थ्य का सूर्य

पच्छिम में ऐसे डूबता है 

कि कोमल आश्वस्ति का एक समूचा शहर

पृथ्वी के नक़्शे से भटक जाता है 

 

प्रणय के मुरझाए फूलों को

निःश्वास भरकर देखती हूँ 

 

तुम्हारे पीछे जाती हूँ 

तो संकोच का एक तारा

मेरे स्वाभिमान की एड़ियों में गड़ता है 

 

स्पर्श और गन्ध के अलंकार 

स्मृतियों में ठिठकते हैं 

मेरे एकांत की मिट्टी में 

तुम्हारी छाया छूने की कामनाएँ उगती हैं 

 

अप्रासंगिक हो चुके उदाहरणों में 

विवेक और करुणा नहीं

बस शोक बचता है 

 

अकूत धैर्य बरतकर भी

बार-बार आत्मा के घावों की 

गिनती भूल जाती हूँ। 

 

देह का नमक 

नए आँसू ईजाद करता है 

क्षण भर का संवाद 

अपरिमित चुप्पियाँ बनाता हैं

 

तुम्हे भूलने की 

कोई तरक़ीब काम नहीं आती

 

तुम ज़रा देर को चश्मा क्या हटाते हो

मेरी बिसरी कामनाओं को 

तुम्हारी आंखों की भाषा

फिर फिर कंठस्थ हो जाती है

 

7

आत्मालाप का उन्मादी अभ्यास ही है

इस घाटी के माइनस तीन डिग्री पर

ज्वर में मेरा बड़बड़ाना 

 

अधकच्चे स्वप्न में देखती हूँ 

इत्र में भीगी एक नीली अंतर्देशीय चिठ्ठी

अपने नाम वाली

 

सोचती हूँ 

इस वन सरीखे गांव में ही होना था स्थानांतरण

जहाँ डाकखाना तो क्या 

कोई नीली लाल डाकपेटी भी नहीं आसपास

 

जहां डाकिए 

साइकिल की घण्टी बजाते हुए न गुज़रते हों

ऐसे अभागे स्थान पर रह कर क्या लाभ

 

आत्मा 'प्रियजैसे मृदुल 

सम्बोधनों को तरसती हो जहां 

ऐसी अप्रिय जगह हरगिज़ न रहना चाहिए

 

कैसा अटपटा है यह गांव

जहां पुरखे तो स्वप्न में 

पाप पुण्य की कहकर कान खाते हैं

आदमी आदमी से मगर

दिल की बात नहीं कह सकता

 

वैचारिकी और विमर्शों के लिए

अखबार पहुंच ही जाते हैं तीसरे दिन मुझ तक

कोई चिठ्ठी मगर नहीं आती 

 

यह लोभ आख़िरी इच्छा की तरह

मर्मान्तक संताप बनकर

मन के अभावों में पैठ गया है

 

ज्वर में देह का 

आवां धधकता रहता है

मन चिठ्ठी की आहट पोसता रहता है

 

अचेतन मन स्वप्न में 

तुम्हारी चिठ्ठियों के आखर चुगता है 

 

न चिठ्ठी आती है

न ज्वर उतरता है ....

 

8

निद्रा

दयार्द्र ईश्वर का

सबसे करुण उपहार है 

जो मैं बेध्यानी में कहीं रख कर भूल गयी हूँ । 

 

पुरानी स्मृतियाँ 

आंखों को इस तरह काटती हैं

ज्यों काटता हो कोई नया जूता सुकोमल पांव को

 

मैं रात भर जागती हूँ

पलकों के क्षितिज पर 

नींद का रुपहला तारा टिमटिमाता रहता है

 

किसी दिन 

अचानक चौंकाती है यह बात 

कि उसकी सूरत भूल रही हूं 

 

लाज से गड़ती हूँ कि

अब स्वप्न में उसे नहीं

स्वयं ही को सुख से सोते हुए देखना चाहती हूँ 

 

रोज़ रात गुलाबी पर्ची पर

लिखती हूँ अपनी एकशब्दीय कामना 'नींद'

सुबह तक उसका रंग उड़ कर सफ़ेद हो जाता है 

 

अपने खुरदुरे स्वर से 

अपनी बंजर पलकों पर 

बेग़म अख़्तर की ठुमरी का मरहम रखती हूं

"कोयलिया मत कर पुकार

करेजवा लागे कटार"

 

जब पूरा गांव 

निस्तब्धता में खो जाता है 

मैं उनींदी आत्मा लिए

मन ही मन बुदबुदाती हूँ एक निर्दोष प्रार्थना 

 

कि हे ईश्वर ! 

मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले

मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो ! 

Monday, May 24, 2021

खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती कविता

 

आम की टोकरी एक बालमन की कविता है। आभारी हूं उन मित्रों का जिन्‍होंने कविता पर बहस करते हुए मुझे एक खूबसूरत कविता से परिचित कराया।

इस कविता को पढ़ते मुझे एकाएक दो अन्‍य रचनाएं याद आई। कथाकार नवीन नैथानी की कहानी 'पारस' और हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame । यह यूंही नहीं हुआ। दरअसल कविता पर चल रही बहस ने मुझे भी बहस का हिस्सा बना दिया।

इन दोनों रचनाओं का और आलोच्‍य कविता का संबंध कैसा है, इस पर बात करने से पहले मैं यह बात जिम्‍मेदारी से कहना चाहता हूं कि हमारी आलोचना मनोगतवाद से ग्रसित है। मनोगत आग्रहों के आरोपण करते हुए ही हम अक्‍सर 'विमर्शों' को लादकर रचना के पाठ करने में सुकून महसूस करते हैं। दिलचस्‍प है कि नवीन की कहानी, हाना की फिल्‍म और बच्‍चों के पाठयक्रम की यह कविता हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि 'विमर्शों' में बंटी वैचारिकता को एकांगी तरह से समझने और उसका पक्ष लेने से दुनियावी बदलाव की तस्‍वीर नहीं बन सकती है। बदलाव की कोई भी मुहिम उस दुनियावी अन्‍तर्वरोध को ध्‍यान में रखकर कारगर हो सकती है, जिसने हमारी दुनिया को मुनाफाखौर नैतिकता में ढाल दिया है। वे मूल्य, आदर्श और नैतिकता जिनका हम सिद्धांतत: विरोध करना चाहते हैं, कैसे हमारे भीतर जड़ जमाए होते हैं।

हाना की फिल्‍म में स्‍वतंत्रता की पुकार के कई बिम्ब उभरते हैं। यहां एक बिम्ब का जिक्र ही काफी है। फिल्‍म तालीबानी निरंकुशता के विरुद्ध है। वह तालीबानी निरंकुशता जिसने बच्‍चों के मन मस्तिष्‍क तक को कैद कर लिया है। एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल कर भागने के बाद स्कूल पहुँची लड़की (बच्‍ची), बाखती, कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करना चाहती है। दिलचस्‍प है कि झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय फिल्‍म उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती को हमारे सामने रखती है। दृढ़ इरादों और खिलंदड़पने वाली बाखती। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठ जाती है बाखती। वह लड़की लिपिस्टिक को छीन-झपट कर हथिया लेती है। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। लिपिस्टिक हथिया चुकी बच्‍ची बेशऊर ढंग से पहले अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर हो जाती है। एक एक करके कक्षा की सारी बच्चियों के मुंह पुत जाते हैं। बलैकबोर्ड पर लिख रही अध्‍यापिका की निगाह जब बच्‍चों पर पड़ती है तो तालिबानी हिंसा को मुंह चिढ़ाता दृश्‍य आंखों के सामने नाचने लगता है।

नवीन की कहानी का नायक पारस पत्‍थर को खोजना चाहता है। पारस पत्‍थर एक मिथ है। जिसके स्‍पर्श मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है। वह सोना जो आज मुद्रा के रूप में दुनिया पर राज कर रहा है। सवाल है कि कथानायक भी लोहे को सोना बनाकर दुनिया की दौलत इक्‍टठा करना चाहता है क्या, वैसी ही महाशक्ति होना चाहता है, जो आज की दुनिया में ताज बांधे घूमती है ? यह प्रश्‍न हमें मजबूर करता है कि हम पारस के नायक के जीवन में झांके। उसकी मासूमियत को पहचाने। वह मासूमियत जिसे पारस पत्‍थर की पहचान नहीं और उसको खोजने के लिए वह अपने पांवों के तलुवे में घोड़े की नाल ठोककर अनंत दुर्गम चढाइयां चढना चाहता है जहां पारस पत्‍थर के होने की संभावना है। उसे मालूम है कि उस पत्‍थर से टकराने पर उसके पांव के तलुवे में लगी नाल सोने में बदल जाएगी। सोने का यह जो बिम्ब कहानी में उभरता है वह गौर करने लायक है।

आलोच्‍य कविता में यह पाठ कितने खूबसूरत ढंग से आया है। आम बेचने को निकली बच्‍ची गरीब परिवार की है। बच्‍ची जिसे बेचने के काम में लगा दिया गया, जानती ही नहीं कि बेचना क्‍या होता है। इसीलिए वह तो आम के दाम भी नहीं बताती है। हां, करती है तो यह कि सारे आम अपने जैसे बच्‍चों को यूंही बांट देती है। सोच कर देखें कितना खूबसूरत बिम्‍ब है जब एक बच्‍ची आज की मुनाफाखौर व्‍यवस्‍था की सबसे कारगर प्रक्रिया बेचने-खरीदने को ही ध्‍वस्‍त कर दे रही है। वह तो इसमें भी लुत्‍फ उठा रही है कि बच्‍चे आम चूस रहे हैं। और वे बच्‍चे भी कितना अपनत्‍व से भर जाते हैं जो उस बच्‍ची का परिचय भी नहीं जानना चाहते हैं जो उनकी खुशियों के आम बांट रही है।

बिना कुछ अतिरिक्‍त कहे, बच्चों के बीच खरीदने और बेचने की नैतिकता को मुंह चिढ़ाती यह कविता गहरे सरोकारों की कविता है।       

Friday, November 9, 2018

इस मुश्किल समय में आशा का आश्ववास देती कविताएँ


गीता दूबे


आज जहाँ भरोसा शब्द पर से ही लोगों का भरोसा उठता जा रहा है वहां संभवतः कवि या फिर रचनाकार ही एकमात्र ऐसा जीव है जो भरोसे को बचाए रखने की बात करता है। वस्तुतः कभी कभार गंभीरता से सोचने पर ऐसा लगता है कि साहित्य एक ऐसा अजायबघर है जहाँ वे सारी वस्तुएं एक- एक कर अपनी जगह बनाकर सुरक्षित होती जाती हैं जो एक एक कर सचमुच के संसार से गायब हो रही हैं। और इसीलिए कवि निरंतर लुप्तप्राय भरोसे को अपना ही नहीं पाठकों का संबल बनाकर दुनियावी उलझनों को सुलझाने की भरपूर कोशिश करता नजर आता है। अपने पांचवे कविता संग्रह "भरोसे की बात" में कवि शैलेंद्र अतीत की स्मृतियों को संजोने के साथ साथ वर्तमान के सवालों से रुबरु होते हुए भविष्य के सपने भी सजाते दिखाई देते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कवि ही नहीं साधारण मनुष्य के लिए भी बहुधा संजीवनी का काम करती हैं जिसकी शक्ति के बल पर वह अपने वर्मान के दुखों और तकलीफों का भरदम सामना करता है। कवि भी इन स्मृतियों को खूबसूरती से अपने दिल ही नहीं अपनी कविताओं में भी संजोते हुए सुकून की सांस लेता दिखाई देता है। यह अतीत हमेशा ही खूबसूरत रहा हो यह जरुरी नहीं पर कवि अपनी स्मृतियों के झोले से अतीत के जिस टुकड़े को निकालकर उसे पाठकों के साथ साझा अरता है वह निस्संदेह अपनी खूबसूरती से सबको मोह लेता है। प्रसाद की कविता "वे कुछ दिन कितने सुंदर थे" का प्रेमिल अहसास या मादकता भले ही इनमें न हो पर रोमानीपन का भला भला सा लगनेवाला संस्पर्श जरूरत मौजूद है जो पाठकों को अंतर्मन को मृदुता से सहलाते हुए उसे वर्तमान की भयावहता से भी परिचित कराता है। "उस वक्त की कहानी" कहते हुए कवि अतीत और वर्तमान के इस फर्क को किस तरह उभारता है यह गौरतलब है-
"रोटियां बांटी थी
बांटी थी किताबें
कपड़े भी बांटे थे
* * * * * * *
मिल- बांट कर
भगाया था दुखों को
हांक ह़ाक कर
यह उस वक्त की कहानी है
जब बंटे नहीं थे घर -आंगन।" (पृ. 59)

हालांकि कहने को तो देश ने एक बंटवारा झेला पर उस बंटवारे की पीठ पर अनगिनत बंटवारों की लाशें लदी हुईं हैं जो वर्तमान को सड़ांध से भर देती हैं और दर्दीले आतंक की खौफनाक परछाइयाँ आज तक आम आदमी को दहलाती हैं। अतीत की ये यादें कवि को लगातार कोंचती और बेचैन बनाए रखती हैं और इसी कारण विकास की दुहाई देनेवाली  इक्कीसवीं सदी की उस अजीब सी घड़ी को भी अपनी कविता में दर्ज करने से नहीं चूकता जब मानवता को शर्मसार करनेवाली घटनाएं घटती हैं -
"अपने ही हाथों में थे
ईंट- पत्थर
लाठी , ड़डे, खंजर भी थे
* * * * * * *
व्‍याभिचार की शिकार बेटियां
और अभियुक्तों की कतार में खड़े पराक्रमी
अपने ही थे
* * * * * * *
पर सबको
 अपनी अपनी ड़ी थी
इक्कीसवीं सदी की।
यह एक अजीब सी घड़ी थी।" (पृ.73)

लेकिन इनके साथ ही कुछ मृदु मृदु स्मृतियाँ भी हैं जो किसी भी व्यक्ति का बहुत बड़ संबल होती हैं। वे स्मृतियां कवि की उदासी और जिंदगी के बासीपन को भी अर्थवत्ता प्रदान करती हैं क्योंकि खुशी और उदासी के योग से ही जिंदगी की लय बनी रहती है। "तुम बिन" ऐसी ही कविता है-
"कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज उदासी
बाकी के सारे किस्से
वही
बासी के बासी।" (पृ.36 )

कवि शैलेंद्र की यह विशेषता है कि वह बहुत लंबी कविताएं नहीं लिखते, उनकी छोटी -छोटी कविताओं में जिंदगी का मर्म लिपटा दिखाई देता है। और कविता का अर्थ बहुधा अंतिम पंक्ति में आकर मुखर ही नहीं होता खिल भी उठता है।  कई मर्तबा तो उनकी छोटी सी कविता अपने में बहुत गहरा अर्थ समेटे नजर आती है जो उसकी ताकत बन जाती है,  'जिंदगी' शीर्षक कविता का उदाहरण देना चाहूंगी- -
"इस किताब के पन्ने
पलटने नहीं पड़ते
फड़फड़ाने लगते हैं
खुद--खुद
नित नये सबक के साथ" (पृ.47)

जिंदगी के इन्हीं सफों को पलटते हुए कवि बहुत से अनुभवों के पन्नों को हमारे साथ साझा करता है। आलोच्य कविता संग्रह की यह विशेषत है कि इसका कोई मूल केंद्रीय स्वर नहीं है ,यह प्रेम, प्रकृति आदि के साथ -साथ अपने समय के सवालों के साथ टकराता है।  कवि की पक्षधरता स्पष्टतः हाशिए के लोगों के साथ है और स्वयं मध्यवर्ग का प्रतिनिधि होते हुए भी वह मध्यवर्गीय लोगों की मानसिकता पर गाहे बगाहे व्यंग्य करने से नहीं चूकता। सत्ता ओर राजनीति के खिलाड़ी हों या नवधनाढ्य वर्ग के विलासी उन सब पर वह हौले से प्रहार करके आगे बढ़ जाता है।विरोधी की इन कविताओं में जरूरत से ज्यादा आक्रमकमता नहीं है जो कविता को नारे में बदल देती है लेकिन साजिशों को समझने और उकेरने की ईमानदारी जरूर है। इसी क्रम में वह अंधाधुंध विकास के नाम पर होनेवाले विनाश को भी वह रेखांकित करना नहीं भूलता। और उसकी समझदारी इस बात से जरूर  स्पष्ट होती है जब वह आज के पाखंडी समय में लोगों को भरमाने और भटकाने वाले मुद्दों की न केवल पहचान करता है बल्कि इनके झूठे रंगों को धोने की हिम्मत भी करता है -
"हम पढ़ते हैं, सफाई से टंकित झूठ
चम-चम चमकते पन्नों पर
और देखते हैं श्याम-सफेद
रंगीन पर्दों पर दोहराए जाते
और पाते हैं उसे
 सच के रूप में स्थापित होते
* * * * * * * * *
यह एक ऐसा खेल है , जिसे खेला जा रहा है अरसे से
अब तो झूठ भी एक उपलब्धि है
बा-जरिए अभिव्यक्ति की आजादी के।" (पृ.58)

जमाने के इन झूठों और फरेबों से बौखलाया कवि कभी कभार अपनी कविता में एक स्टेमेंट देता नजर आता है और वहीं कविता का स्वर सपाटबयानी में ढलता नजर आता है। दरअसल आज के समय के कई ऐसे संवेदनशील मुद्दे हैं जिनपर कुछ कहने या बोलने के मोह से प्राय रचनकार बच नहीं पाते वह मुद्दा चाहे धर्म का हो ता राजनीति का। और इन विषयों पर लिखी कविताएं महज एक बयान बन कर रह जाती हैं , ऐसे बयान जो बार बार दोहराए जाने के कारण अपना अर्थ खो चुके हैं। बल्कि वे कुछ कविताएं ज्यादा विश्वसनीय बन पड़ी हैं जहां कवि बड़ी ईमानदारी से अपनी बेबसी को बयान करता नजर आता है। आज सच में रचनकार सत्ता या राजनीति के सामने बेबस ही है लेकिन फिर भी वह सृजनरत रहकर समाज के प्रति अपना दायित्व जरूर निभाने की कोशिश करता है। इसी कारण वह साफ साफ अपनी बात कहने की कोशिश करते हुए इस साफगोई को जरूरी भी मानता है
"जब साफ-साफ कुछ कहते हैं- च्‍छे लगते हैं।" ( पृ.48)

संग्रह की  इन बहुरंगी और विविध आयामी कविताओं का मूल छोर मनुष्य की संवेदना से जुड़ता है और संवेदना के रेशों से बुनी  गई कविताएँ जीवन के मधुतिक्त अनुभवों का बहुरंगी कोलाज बनाती हैं। वहाँ अगर स्मृतियों का माधुर्य है तो उस माधुर्य के चूक जाने या बीत जाने की पीड़ा भी है । इस सुख दुख की आंखमिचौली के बीच कवि सुख को तो सबके साथ बांटना चाहता है लेकिन दुख की गठरी अकेले ही उठाने की बात करता दिखाई देता है शायद वह इस दुनिया का यह दस्तूर जानता है कि दुख में अक्सर अपनी परछाई भी साथ छोड़ देती है-
 "सुख को बांट लो मिलकर
दुख को मगर चुपचाप अकेले ले लो ।"( पृ.25)

किसी भी रचनाकार के लिए एक बड़ी चुनौती होती है उसकी समकालीन संवेदना। कई मर्तबा  कालातीत कविताएँ लिखने के व्यामोह में अपने समय की छोटी छोटी घटनाओं को नजरअंदाज भी कर देता है। यहां तात्कलिकता में बहने की बात नही बल्कि कुछ दर्ज करने लायक टनाओं को  दर्ज करने की कोशिशों का जिक्र है। कवि अपने जीवन के बेहद छोटे अनुभव को भी अगर महत्वपूर्ण मानता है तो उसे दर्ज करना नहीं भूलता। इसी के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल स्थानीयता का भी है। कवि देश के किस हिस्से में सृजनरत है वह हिस्सा अपनी तमाम वशेषताओं के साथ अगर उसकी रचनाओं में अंकित होता है  तो वह भी कवि की एक बड़ी विशेषता है।

रचनाकार अपनी रचनाओं में वही रचत या उकेरता है जो कुछ वह देखता, सुनता या महसूस करता है। कवि शैलेंद्र का रचनकार अपने आस- पास के परिवेश को ही अपनी रचनाओं में उकेरता है और यह अगर उसकी सीमा है तो उसकी विशेषता भी । वस्तुत:  कई मर्तबा एक बड़े यथार्थ को रचने की चाह में हम अपने आस पास के परिवेश को उपेक्षित करते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय अथवा वैश्विक दिखाई देने की होड़ में हम अपनी स्थानीयता को नकारने से भी नहीं कतराते गोया कि स्थानीय होना कमतर होना है लेकिन शैलेंद्र की कविताओं में यह स्थानीय होना बखूबी दिखाई देता है। वह कलकत्ते में रहते हुए अपनी कलकतिया पहचाना पर गर्व करते हुए वहाँ के इतिहास को तो उकेरते ही हैं । इसके साथ ही वह जब जहाँ होते हैं वहाँ की खासियत या खूबसूरती से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते।  
अपनी कलकतिया पहचान को "साल्टलेक" शीर्षक कविता में अभिव्यक्ति देते हुए वह वहाँ समय के साथ आये बदलाव को रेखांकित करना भी नही भूलते और उनका उद्देश्य संभवतः कलकत्ता के सांस्कृतिक ऐतिहासिक परिवेश में आए बदलावों को रेखांकित करना भी रहा हो। जो कलकत्ता किसी समय क्रांति का शहर था, जहाँ कुछ सिरफिरे नौजवान व्यवस्था को बदल देने का सपना देखने की कोशिशों में लगे हुए थे वही अब अन्य विकसित शहरों की तरह विलासिता के छोटे- छोटे द्वीपों में कैसे बदल गया, यह सचमुच सोचने की बात है। कविता की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं -
"कोलकाता में एक जगह है साल्टलेक
जहां न तो साल्ट है न लेक
यानि कि है वह पूरी तरह फेक
* * * * * * * * * * * *
तब झील के आसपास क्रांति के सपने भी बुनते थे कुछ सिरफिरे
और अब वह मालो- माल
तिजोरियों की पुजारी, अलमस्त, दिलफेंक है।" ( पृ. 33)

इसी तरह जब कवि दिल्ली पुस्तक मेले का भ्रमण करता है तो वहाँ के परिवेश में शब्दों की बरसात में भींगते हुए भी कलकत्ता में उस समय हो रही बरसात से अनछुआ नहीं रह पाता। अपनी पहाड़ी यात्रा के अनुभवों को भी वह पूरे हुलास के साथ शब्दबद्ध करता है। लेकिन सैलानी हुलास के बीच भी उसका सजग कवि मन जागृत हो उठता है और वह बांझ सौंदर्य की सीमा को भी समझता और समझाते हुए कह उठता है-
"जहां तुम आए हो
बदलने हवा-पानी
वहां के बहुत से लोग
पहुंच चुके हैं राजधानी
तुम्हें मालूम है सैलानी
खूबसूरती बांझ भी हुआ करती है
और सौंदर्य नपुंसक भी
और यह तो तुम्हें मालूम ही है
कि जिस्म को चाहिए होता है दाना-पानी।" (पृ. 70)

संग्रह की कविताओं में प्रगतिशीलता का ऐसा मृदुल स्वर भी मुखरित होता है जहाँ रूढ़ियों के विरोध या तिरस्कार के साथ साथ परंपरा का सम्मान भी नजर आता है। वह रूढ़ियों के विरोध के द्वारा अपनी आधुनिकता या तार्किकता को स्थापित करने की कोशिश जरूर करते हैं, उदाहरण के लिए ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं -
"सारे व्रत
तीज त्योहार
निर्जल उपवास
कब तक करती रहोगी
उनकी सलामती के लिए
जो एक दिन भी नहीं करते
तुम्हारे लिए
अरे, कुछ तो छोड़ो
कुछ तो तोड़ो।" ( पृ.32)

मुश्किल यही है कि कवि जिन रुढियों को तोड़ने या छोड़ने की ख्वाहिश जताता नजर आता है वे सारी रूढ़ियां परंपराओं के नाम पर ही इस देश में फलफूल रही हैं और प्रगतिशीलता के जबर्दस्त पैरोकार भी अपनी -अपनी पत्नियों को इन स्वर्णिम परंपराओं को निभाते हुए देखकर ऊपर -ऊपर चाहे कुछ भी क्यों न कह लें मन ही मन खुश भी होते रहते हैं। वस्तुतः यह एक बड़ा अंतर्द्वंद्व है जो तार्किकता एक अभाव से जन्म लेता है। बहुधा हम प्रगतिशील दिखना चाहते हैं और अपने हाव-भाव, वेशभूषा , बोलचाल आदि से प्रगतिशीलता का छद्म भी रच लेते हैं लेकिन जब तक हमारा मानस पूरी तरह परिष्कृत या परिमार्जित नहीं होता तब तक हमारी प्रगतिशीलता प्रश्नांकित ही रहती है।  

इसके बावजूद इस संग्रह का उल्लेखनीय बिंदु है इसमें व्याप्त सकारात्मकता जिसके कारण अविश्वास के इस घटाटोप में भी कवि भरोसा नहीं खोता। वह आपने साथ- साथ दुनिया पर भी भरोसा रखता है और इस भरोसे को बनाए रखने में बहुत बड़ी -बड़ी नहीं बल्कि बेहद छोटी छोटी चीजें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आती हैं और इसी कारण तमाम छोटी -बड़ी मुश्किलों, विवशताओं और बेचैनियों के बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट है-
"जिंदगी गुजर गई
और पूछते हो
क्या मिला
बहुत मिला
बहुत मिला
जो भी मिला
बहुत मिला
यूं ही तो नहीं कटा
दुश्वारियों का सिलसिला।" (पृ. 71)

इस अति महत्वाकांक्षी समय में यह संतोष सचमुच सराहनीय है। कुल मिलाकर कवि शैलेंद्र का आलोच्य संग्रह इंसानियत ही नहीं साहित्य के प्रति भी हमारे भरोसे को कायम करता है। मुक्त छंद में रचित ये कविताएं बेहद सहजता से पाठकों के अंतर्मन में अपनी जगह बना लेती हैं। बहुत सी कविताओं में लयात्मकता भी है जो प्रायः प्रूफ की गलतियों से बाधित होती दिखाई देती है। प्रूफ अगर थोड़ी और सावधानी से देखा गया होता तो संग्रह की खूबसूरती और भी बढ़ जाती।  

भरोसे की बात, कविता संग्रह, शैलेंद्र शांत 
बोधि प्रकाशन, जयपुर 
अक्टूबर 2017, मूल्य 120/- पेपरबैक।

गीता दूबे, पूजा अपार्टमेंट, फ्लैट ए-3, द्वितीय तल
58/1 प्रिंस गुलाम हुसैन शाह रोड
यादवपुर, कोलकाता-700032। 
फोन: 9883224359/ 8981033867