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Wednesday, November 25, 2009

भाषा का वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्र

डॉ.शोभाराम शर्मा

भाषा का वर्गीय एवम् औपनिवेशिक चरित्र होता है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी समाज जिन परिस्थितियों से गुजरता है उनका प्रभाव सर्वग्रासी होता है। और तो और भाषा तक भी अछूती नहीं रह पाती। हर समाज आर्थिक, राजनीतिक, धर्मिक और सांस्कृतिक आदि कारणों से समस्तर नहीं होता। वह अनेक वर्गों और उपवर्गों में बंटा होता है। उन वर्गों-उपवर्गों की भाषा-बोलियां एक मूल की होने पर भी एक जैसी नहीं रह पाती। पढ़े-लिखे पंडितों और जन-साधरण की भाषा का अंतर इसका अकाटय प्रमाण है। भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो भाषा के वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्रा का तथ्य खुली किताब के रूप में सामने आ जाता है। आर्य भाषा-भाषी जन-गणों का यहां द्रविड़ भाषा-भाषियों से ही नहीं अपितु आग्नेय भाषा-भाषी संथाल, मुंडा और कोल-भीलों से भी जूझना पड़ा। संघर्ष में आर्य प्रबल सिद्ध हुए और आर्येतर भाषा-भाषियों को या तो दक्षिण-पूर्व की ओर हटना पड़ा या आर्य कबीलों के बीच उनके उपनिवेशों में ही अधीन होकर रहना पड़ा। इन उपनिवेशों के विस्तार और उनमें आर्येतर भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा-बोलियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि संस्कृत में टवर्गीय ध्वनियाँ द्राविड़ी प्रभाव स्वरूप आई हैं। जहाँ तक शब्दों के आदान-प्रदान का सवाल है, आर्य और आर्येतर मूल की सभी भाषा-बोलियों में एक-दूसरे के शब्द सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में उपलब्ध् हैं और उनकी रूपात्मकता भी निश्चित रूप से प्रभावित हुई है।
प्राचीन आर्यावर्त या मध्य देश तथा उसके बाहर जहां तक आर्य भाषा-भाषी प्रबल सिद्ध हुए वहां पैशाची, खस, शौरसैनी, महाराष्ट्री, अर्द्धर्माग्धी और पाली आदि प्राकृत भाषाओं के और आगे विकास में आर्य और आर्येतर भाषा-भाषियों का संसर्ग ही मुख्य कारण था। इन प्राकृत भाषाओं का स्वरूप मोटे रूप में आर्य भाषा-भाषियों की बोल-चाल की भाषा ही थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनमें जो अंतर पैदा हुए वे उन आर्येतर भाषा-भाषियों का प्रभाव था जो आर्य भाषा-भाषियों के बीच रहने पर बाध्य हो गए थे। इनमें से अधिकांश समाज के निचले स्तर के वे लोग थे जिन्हें शूद्र कहा गया। इन क्षेत्रों में कई आर्येतर भाषा-भाषी कबीले तो अपनी मूल भाषा तक त्यागने पर बाध्य हो गए। भील आदि जन-जातियों का यही इतिहास है। वे आज पूर्णत: आर्य भाषा-भाषी हो चुके हैं। मध्य पहाड़ी क्षेत्रा में जोहार-मुन्सार के भोटांतिक आज कुमाउफंनी के ही एक रूप का उपयोग करते हैं, जबकि उनकी मूल भाषा दारमा-चौदाँस और व्यास के भोटांतिकों की मुंडा प्रभावित तिब्बत-बर्मी बोलियों की सजातीय थी।
समाज के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण-पुरोहितों और शासकों को दलित शूद्रों के प्रभाव से अपनी देव-भाषा को बचा कर रखने की चिंता सताने लगी और इस तरह पाणिनि आदि के द्वारा संस्कृत का स्वरूप निर्धरण संभव हुआ। अपने धर्म और संस्कृति के प्रसार के लिए उन्हें पूर्व और दक्षिण के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच जाना पड़ा और उनसे वैवाहिक संबंध् भी स्थापित करने पड़े। आर्यावर्त या मध्य देश में अपनी अतिरिक्त कामेच्छा की पूर्ति के लिए भी वे दलित स्त्रियों को दासी या रखैलों के रूप में स्वीकार करने लगे थे। आर्येतर भाषा-भाषी पत्नियों या रखैलों, दास-दासियों से भी देव-भाषा के विकृत होने का खतरा था और इसीलिए शूद्र व नारी वर्ग को संस्कृत के पठन-पाठन आदि से वंचित कर दिया गया। संस्कृत के नाटक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिाय आदि पात्रों के संभाषण संस्कृत में हैं लेकिन शूद्र या नारी पात्रा प्राकृत में ही अपनी बात कहते नजर आते हैं। इतना ही नहीं शूद्रों पर वेद मंत्रा सुनने या बोलने पर भी पाबंदी लगा दी गई। यहां तक कहा गया है कि वेद मंत्रा सुनने पर उनके कानों में खौलता हुआ सीसा उड़ेल देना चाहिए और अगर वह वेद मंत्रा जुबान पर लायें तो जुबान काट देनी चाहिए।
आपसी वार्तालाप, अभिवादन और कुशल-क्षेम पूछने तक में भी भाषा का वर्गीय स्वरूप नजर आता है। मनुस्मृति के अनुसार-
भवत्पूर्वं चरेभ्दैक्ष मुपनीतो द्विजोत्त्म।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।

अर्थात् यज्ञोपवीतधरी ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर "भवत्" शब्द का उच्चारण पहले क्षत्रिय को मध्य में और वैश्य को अंत में करना चाहिए। ब्राह्मण कहे- "भवति भिक्षां देहि", क्षत्रिय कहे- "भिक्षां भवति देहि" और वैश्य कहे- "भिक्षां देहि भवति।" इस श्लोक में चौथे वर्ण शूद्र का जिक्र नहीं है क्योंकि उसे न तो यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार था न संस्कृत बोलने का। न्यायालय तक में यह भाषा-भेद बरता जाता था। मनुस्मृति के ही अनुसार-

ब्रृहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्।
गो बीज काञ्चनेर्वैश्यं शूद्रं सर्वेस्तु पातकै:।।

अर्थात् न्यायकर्ता ब्राह्मण से गवाही देने और क्षत्रिाय से सत्य बोलने को कहें। वैश्य से कहें कि अगर झूठ बोले तो उसे गौ, बीज और स्वर्ण चुराने का पाप लगेगा और शूद्र से कहें कि झूठ बोलने पर तुम्हें सारे पातकों का दोष लगेगा।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भाषा का यह वर्गीय चरित्रा आज भी समाप्त नहीं हो पाया है। खस प्राकृत से निकली गढ़वाली में एक दलित को ब्राह्मण आदि का अभिवादन "समन्या ठाकुरो या समन्या साब" (सेवा मानें ठाकुर या साहब) कहकर करना होता है। बदले में आर्शीवचन "जी रै" (जिंदा रह) कहा जाता है। उनके लिए "प्रणाम", "नमस्कार", "आयुष्मान" या "चिरंजीव" आदि शब्द वर्जित हैं। आर्य समाज के प्रभाव में कुछ पढ़े-लिखे दलितों ने अपने को आर्य लिखना आरंभ किया तथा अभिवादन के लिए "नमस्ते" का प्रयोग शुरू किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की नजर में "आर्य" और "नमस्ते" दोनों ही अपना मूल्य खो बैठे और यही हाल गांध्ी जी के दिए गए नाम 'हरिजन" का भी हुआ। गढ़वाली में दलित वर्ग से संबंध्ति डूम (नीच/शूद्र), डुमण (शूद्र निवास) डुमिणु (नीच/शूद्र होना), डुमण्य (शूद्रता प्राप्त), डुम्याणु (शूद्र बना देना), डुमटाल (नीचता का पातक), डुमैण (नीच शूद्रा) जैसे शब्दों के पीछे निश्चित रूप से वर्गीय घृणा ही नजर आती है। उनसे संबंधित मुहावरों और कहावतों में भी उसी घृणा के दर्शन होते हैं और यही स्थिति इस देश की अन्य भाषा-बोलियों में भी मिलती है।
समाज में पेशों पर आधरित जो विभिन्न वर्ग बन जाते हैं उनकी बोल-चाल भी एक जैसी नहीं रह पाती। उदाहरणार्थ, जिन जातियों को आपराधिक प्रवृति का मान लिया गया है, उनकी भाषा बोली कुछ ऐसा रूप ले लेती है कि दूसरे उसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं। साँसी, बावरिया और भाँतू जिस छद्म भाषा का प्रयोग करते हैं उसे वे ही आपस में समझ पाते हैं। गुप्तचरों और सटोरियों की भाषा भी सामान्य जन की भाषा से अलग ही होती है। पढे-लिखे सुसंस्कृत वर्ग और दबे-कुचले दलित-शोषितों की भाषा-बोलियों में जो अंतर होता है, वह भाषा के वर्गीय चरित्र को ही स्पष्ट करता है।
आर्य भाषी जन-गण जब दक्षिण और पूरब के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच अपने उपनिवेश बसाने तथा सत्ता हथियाने में सपफल हो गए तो उनकी भाषा, ध्म और रहन-सहन को महत्व मिलना जरूरी था। आर्येतर भाषा-भाषी कुछ कबीले बीहड़ घने जंगलों की शरण लेने पर बाध्य हो गए थे लेकिन अध्सिंख्य आर्य भाषा-भाषियों के रंग में रंगते चले गए। उनके शासकों ने भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में आकर संस्कृत को ही धर्म, प्रशासन और साहित्य की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की देन है। द्रविड़ भाषा-बोलियों ने भी बहुत कुछ संस्कृत से ग्रहण किया लेकिन उनकी कीमत पर सत्ता और आश्रमों के गलियारों में संस्कृत की अभिवि्र्द्धि ही होती रही। उत्तर और दक्षिण दोनों जगह संस्कृत जन-सामान्य से दूर होती गई। पंडितों ने उसे ऐसे नियमों में जकड़ दिया कि सामान्य जन उनका पालन नहीं कर सके और संस्कृत पंडित, पुरोहित वर्ग तक सीमित रह गई। मध्य कालीन निर्गुणपंथी संत कबीर ने इसीलिए कहा- "संस्कीरत है कूप जन भाखा बहता नीर" कबीर से बहुत पहले ही संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध विद्रोह का सूत्रापात हो चुका था। बौद्धों ने जन-भाषा पालि-प्राकृत को तो जैनियों ने अपभ्रंश को अपनाया। धुर दक्षिण में आलवार संतों ने भी अपनी बात वहां की जन-भाषा में ही कही।
मुसलमान शासकों की ध्म-भाषा तो अरबी थी लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए उन्होंने पफारसी का सहारा लिया। शायद इसलिए कि फारसी भी उसी मूल से निकली थी जिससे संस्कृत और उत्तर भारत की अन्य प्राकृत भाषा-बोलियां निकली थीं। पश्चिमोत्तर भारत ईरान के संपर्क में प्राचीन काल से ही रहा था। किंतु इध्र प्राचीन ईरानी से विकसित फारसी में इस्लाम की धर्म-भाषा अरबी की भारी घुसपैठ से फारसी भी भारतीय जन-मानस के लिए बहुत कुछ समझ से परे हो चुकी थी पिफर भी रोजी-रोटी का प्रश्न जुड़ा होने से एक छोटे से वर्ग ने उसे अपनाया और उसका असर जन-सामान्य की भाषा-बोलियों तक भी पहुंचता चला गया। शासक वर्ग में भी कुछ ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो समझते थे कि ऊपर से थोपी गई भाषा में प्रजा का एक छोटा-सा वर्ग पैठ बनाने में सपफल हो पाएगा। अधिसंख्यक लोगों को समझने-समझाने के लिए तो उन्हीं की जुबान का सहारा लेना होगा। फारसी के विद्वान अमीर खुसरो ने इसीलिए ब्रज और खड़ी बोली की ओर ध्यान दिया और इसी प्रक्रिया में आगे चलकर उर्दू जैसी एक नयी भाषा का प्रादुर्भाव संभव हुआ जिसमें इस्लाम की धर्म भाषा अरबी से ग्रस्त फारसी का खड़ी बोली हिंदी से घाल-मेल बखूबी हुआ है। दूसरी ओर धर्म संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रादेशिक भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया और इस तरह थोपी गई फारसी को प्रशासन के एक कोने तक सिमट कर रहने को बाध्य कर दिया।
थोपी गई भाषा का प्रतिरोध् एक विश्व व्यापी लक्षण है। उत्तर भारत में कबीर जैसे निर्गुणपंथियों ने जहाँ पंचमेल खिचड़ी भाषा का उपयोग किया, वहीं सगुणोपासकों ने ब्रज और अवधी का आश्रय लिया। और तो और प्रेम मार्गी सूफियों तक ने भी अरबी-पफारसी की जगह अवधी का दामन थाम लिया। अन्यत्रा भी मराठी, बांग्ला और गुजराती आदि ने भी उभरना आरंभ कर दिया। जहां तक दक्षिण का सवाल है, वहां भी तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं ने अपनी पकड़ और महत्व में उत्तरोत्तर व्रद्धि आरंभ कर दी। इसी समय देश पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने आरम्भ में फारसी से छेड़-छाड़ नहीं की लेकिन धीरे-धीरे एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत उसकी जगह अपनी भाषा अंग्रेजी थोप दी। भारत ही नहीं दुनिया में जहां कहीं भी अंग्रेज अपने उपनिवेश स्थापित करने में सपफल हुए, वहां सर्वत्र अंग्रेजी भी अपना पैर जमाने में सपफल हो गई। उस समय दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति होने के कारण दूसरे स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना पड़ा और इस तरह अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त करने में सपफल हो गई। र्‍ेंच, जर्मन और रूसी जैसी सशक्त भाषाएँ भी उसका मुकाबला नहीं कर सकीं। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत रूसी भाषा की चुनौती भी अंग्रेजी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी का वैश्वीकरण हो चुका है। सारे महा्द्वीपों में उसी की तूती बोल रही है। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मौलिक सामग्री का सबसे बड़ा भंडार उसी में है और सभी देशों को एक-दूसरे से संपर्क रखने के लिए उसी का सहारा लेना पड़ता है।
अंग्रेजी के इस अभ्युदय से दुनिया भर की दूसरी भाषाओं का विकास बाधित हुआ है। उपनिवेशीकरण का अभिशाप यह है कि हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी की ओर देखना पड़ता है। ब्रिटिश काल में स्थापित अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। रोजी-रोटी के प्रश्न को लेकर यहां काले अंग्रेज नौकरशाहों का जो शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ उसका प्रभाव आज भी ज्यों-का-त्यों है। अंग्रेजी का ज्ञान सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता का मानदंड बन चुका है। आर्थिक स्थिति में कुछ सुधर आने पर आज मध्यम वर्ग भी अंग्रेजियत अपनाने को आतुर है। यहां तक कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत की श्रेष्ठता का बखान करने वाले सा्धु-संत तक भी अंग्रेजी बोलने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जनता और जन-भाषा की बातें करने वाले नेतागण भी अपनी औलाद को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने पर बाध्य हैं।
भाषा के प्रश्न पर उत्तर और दक्षिण के बीच जो खाई थी उसे और चौड़ा करने में अंग्रेजी समर्थक नौकरशाही वर्ग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाषा का प्रश्न इतना उलझा दिया गया है कि उसे सुलझाने का कोई सीध रास्ता नजर नहीं आता। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत सुदूर टुंड्रा-टैगा और काकेशस की अल्पसंख्यक जन-जातियों तक की भाषा-बोलियों को जिस तरह विकास करने का अवसर प्रदान किया गया, यदि उसी तरह की कोई नीति यहां भी अपनाई जाए तो संभव है इस समस्या का कोई हल निकल सके। ऐसा करने से देश की दबी-कुचली जन-जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा और वे अपने वर्गीय हितों की रक्षा करने में अपने स्तर पर समर्थ हो सकेंगे।

Thursday, October 29, 2009

नेपाली क्रांति की अवश्यमभाविता


पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं।
वनरावतों पर लिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और सामंतवाद के विरूद्ध संघर्ष की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। प्रस्तुत है नेपाल के सीमांत में रहने वाली राजी जन जाति पर लिखे गए उनके इसी उपन्यास 'काली वार-काली पार" का एक छोटा सा अंश :


उपन्यास अंश

काली वार-काली पार

डॉ.शोभाराम शर्मा


उस साल चौमास (चातुर्मास) कुछ पहले ही बीत गया। आषाढ़-सावन में तो बारिश कुछ ठीक हुई, लेकिन भादो लगते ही न जाने क्यों रूठ गई। बादल आते, कुछ देर आंख-मिचौली खेलते और पिफर अंगूठा दिखाकर न जाने कहां गायब हो जाते। परिणाम यह हुआ कि हरी-भरी पफसल मुरझाने लगी। लगता था कि जैसे पफसल को पीलिया हो गया हो, धान, झंगोरा (सवां), मंडुवा में बालियां तो आ गई थीं, लेकिन ऐन मौके पर वर्षा बन्द हो गई। पुष्ट दानों का तो अब सवाल ही नहीं रहा। अदसार (अर्द्धसार) फसल हाथ लग जाए, बस वही बहुत था। नदी-घाटियों में जहां सिंचाई सुलभ थी, वहां तो अधिक नुकसान की सम्भावना कम ही थी। फ़िर भी आसमानी वर्षा की तो बात ही कुछ और है। उसके अभाव में वहां भी भरपूर फसल की आशा नहीं रही। ऊपर बसे गांवों का तो बहुत बुरा हाल था। मक्के में ठीक से दाने कहां से पड़ते जबकि पानी के अभाव में पौधे ही पीले पड़ने लगे थे। हर नई फसल के हाथ आने से पहले वैसे भी प्राय: हाथ तंग होता ही है। लेकिन जब अगली फसल के मारे जाने का दृश्य आंखों के सामने हो तो लोग कहां और किस ओर देखें। वनवासी राजियों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी। रोपाई, गुड़ाई और निराई के काम से जो थोड़ा बहुत अनाज मिला था वह भी समाप्ति पर था। जंगलों के बीच खील काटकर फसल बोई तो थी, लेकिन बालियां आने से पहले ही सूखने लगी थीं। गींठी (बाराही कन्द), तरुड़ आदि के कन्द अभी तैयार नहीं हुए थे। लाचारी में खोदकर लाते भी तो बेस्वाद खाए नहीं जाते थे।
चिफलतरा के गमेर को अपनी और अपने लोगों की चिन्ता खाए जा रही थी। मुखिया था लेकिन कोई राह नहीं सूझ पा रही थी। अपनी छानी के आगे सांदण के एक कुन्दे को बसूले से छील रहा था कि सामने फत्ते के खेत पर नजर पड़ी। फत्ते के गाय-बछड़े अनाज के पौधों को चट करने में लगे थे। गमेर ने फत्ते को आवाज दी -
फत्ते! अरे वा फत्ते!! गाय खुल गई है रे! बाहर तो आ।
फत्ते छानी से बाहर निकला और गाय-बछड़े हांकने के बजाय झंगोरे के दो-तीन अधमरे पौधे उखाड़कर गमेर के पास आकर बोला-
दाज्यू, गाय खुली नहीं, मैंने ही चरने छोड़ दी है। देखो, फसल तो पूरी चौपट हो चुकी है। सोचा, गाय-बछड़े ही अपना पेट भर लें
गमेर ने पौधे छूकर कहा-
ठीक कहते हो भाऊ, फसल तो सचमुच बर्बाद है, डंगरों के मतलब की ही रह गई है। सोचता हूं यहां से बाहर निकल जाते, लेकिन अभी तो कम-से-कम एक महीना बाकी है।
लेकिन तब तक जिन्दा भी रह पाएंगे दाज्यू? घास-पात खाकर कब तक निभेगी। शिकार-मछली का जुगाड़ भी ठीक से नहीं बैठता तो क्या करें?
फत्ते ने निराश होकर कहा।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। काठ के बर्तन और खेती के जो उपकरण हमने इधर बनाए हैं, वे कब काम आएंगे? उनके बदले अनाज का जुगाड़ तो कर लें। महीने भर का गुजारा तो किसी-न-किसी तरह हो ही जाएगा। कल सुबह अंधेरे में पास के गांव तक हो आएंगे। चुन्या से भी तैयार रहने को कह देना। वैसे गांव वालों की हालत भी पतली है। फ़िर भी कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा,
गमेर से यह सुनने पर फत्ते अपनी छानी की ओर चला गया और गमेर अपने बनाये बर्तनों और उपकरणों को संभालने में लग गया।
अभी पौ नहीं फटी थी। गमेर, चुन्या और पफत्ते तीनों अंधेरे में ही जंगल से होकर चल पड़े - सिर पर काठ के बर्तन और खेती के उपकरण लादे। पाला इतना पड़ा कि पेड़ों से जैसे पानी बरस रहा था। नंगे बदन वे तीनों राजी बुरी तरह भीग गए। ठण्ड से कांपते-सिकुड़ते और जमीन पर केंचुओं को कुचलते हुए वे आगे बढ़ते रहे। न जाने कितनी जोंकें उनके पैरों की उंगलियों के बीच चिपक गई थीं। खुजली का आभास हो रहा था। पूरब की पहाड़ियों पर लाली क्या फूटी कि वे तीनों एक गांव के निकट थे। पनघट सामने था। वहीं बिछे पत्थरों पर बर्तन आदि रख दिए। फ़िर तीनों एक ऐसी घनी झाड़ी में जाकर छिप गए, जहां से पनघट का सारा दृश्य साफ-साफ दिखाई देता था। चुन्या ने कुछ कहना चाहा तो गमेर ने मुंह पर उंगली रखकर चुप रहने का संकेत कर दिया। आवाज करने से उनकी उपस्थिति का पता जो चल जाता। बेचारे इशारों में ही बतियाते रहे और पैरों से चिपकी जोंकों से पल्ला छुड़ाते रहे।
कुछ और उजास हुआ। गांव की दो औरतें पानी लेने आ पहुंची। राजियों के बर्तनों पर नजर पड़ी। गगरियां भरीं और एक-एक ठेकी भी साथ में लेती गईं। यही क्रम चलता रहा। कुछ ही देर में सारे बर्तन और उपकरण उठ गए थे। मुश्किल से दो-चार लोग ही अनाज लेकर आए। झाड़ी में बैठे राजी निराश होकर वह सब देखते रहे। नजरें बचाकर किसी तरह पत्थरों पर रखा अनाज उठाया, अपनी जाफ़ियों (रेशों से बने थैले) में भरा और छिप-छिपाकर अपने रौत्यूड़ा (रावतों अर्थात् राजियों की जंगली बस्ती) की ओर चल पड़े। रास्ते में फत्ते ने गमेर से कहा-
दाज्यू, यह तो कुछ भी नहीं हुआ।
चुन्या भी बोल उठा-
हम तो लुट गए दाज्यू। दो-तीन महीनों की मेहनत और इतना-सा अनाज!
गमेर ने कहा-
हां,इतने कम की आशा तो मुझे भी नहीं थी। लगता है कुछ लोग बर्तन तो ले गए, पर अनाज लेकर लौटे ही नहीं। इतना तो मैं भी मानकर चला था कि लोगों के हाथ तंग हैं, अनाज कम ही मिलेगा। लेकिन लोग बर्तन उठा ले जाएं और बदले में दो दाने भी न दें, इसकी आशा नहीं थी। ऐसी बात पहले कभी नहीं हुई, इसी का दु:ख है।

-तो क्या हम इसी तरह लुटते रहेंगे?, चुन्या ने आवेश में आकर पूछा।
कर भी क्या सकते हैं चुन्या? हम हैं ही कितने? वे अगर अपनी पर उतर आएं तो ---? हां, एक ही उपाय है, रजवार अगर चाहें तो बात बन सकती है। उनका आदेश कोई टाल नहीं सकेगा। जब भी मौका मिलेगा अस्कोट जाकर बात करेंगे। इसके अलावा हमारे पास कोई और चारा भी तो नहीं।
गमेर ने समझाया।

चुन्या और फत्ते पहले तो गमेर से सहमत नहीं हुए। मरने-मारने की बात ही बढ़-चढ़कर करते रहे। लेकिन गमेर ने जब उन्हें बताया कि रजवार तो रिश्ते में "भाऊ" (छोटे भाई) लगते हैं, वे कुछ न कुछ जरूर करेंगे। फ़िर हम हैं कितने जो दीगर लोगों का मुकाबला कर सकें? इस पर उनका जोश ठण्डा पड़ गया और वे भी अस्कोट के रजवार के पास जाने की बात मान गए। अदला-बदली के लिए वे दूसरे गांवों में भी गए, लेकिन वही ढाक के तीन पात। बहुत कम अनाज मिल पाया। किसी तरह दिन काटते रहे कि कब जाड़ा शुरू हो और बाहर निकलने का अवसर आए। घर-गृहस्थी के झंझट में वे रजवार से मिलने की बात तो जैसे भूल ही गए। एक दिन फत्ते को याद आई और वे तीनों गमेर की अगुवाई में अस्कोट के लिए चल पड़े।
जाड़े के मौसम की शुरूआत। तीन-चार दिनों से आसमान पर हल्के बादल छाए हुए थे। दिगतड़ के उफपर सीराकोट-द्योधुरा, गोरी-रौंतिस के बीच यमस्यारी घणधुरा तथा पूर्वोत्तर में गोरी-पार घानधुरा-पक्षयां पौड़ी और छिपलाकोट की ऊंचाइयों पर सफेद कुहरे की चादर मौसम के और बिगड़ने की सूचना दे रही थी। मौसम की परख आदमी से कहीं अधिक पशु-पक्षियों को होती है। चिफलतरा का गमेर बणरौत अपने दो साथियों - चुन्या और फत्ते के साथ अस्कोट के रजवार से भेंट करने निकला था। तीनों लगभग नंगे थे। केवल अपने गुप्तांग ही किसी तरह ढके हुए। मालू की बेल के रेशे से बने कमरबन्द और उसी के चौड़े पत्तों का उपयोग इस कुशलता से किया गया था कि हरे रंग के मुतके (लंगोट) का आभास होता था।
रौंतिस गाड (नदी) तक आते-आते उन पत्राधारी वनरौतों को अचानक एक काखड़ नीचे की ओर भागता नजर आया। वे समझ गए कि बर्फबारी के डर से जानवर नीचे गरम घाटियों की ओर आ रहे हैं। उनकी बांछें खिल गईं। यदि कोई जानवर हाथ लग गया तो रजवार से खाली हाथ भेंट करने की बेअदबी से तो बच ही जाएंगे। गमेर ने अपने तीर-कमान संभाले और दोनों साथियों को सतर्क नजरों से टोह लेने का इशारा किया। वे एक खेत के किनारे क्वेराल (कचनार) के पेड़ के नीचे खड़े थे। फत्ते ने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो मवा की एक शाखा के नीचे काखड़ को खड़ा पाया और गमेर को इशारा किया। काखड़ की नजर दूसरी ओर थी और गमेर ने जो तीर मारा तो काखड़ नीचे रौंतिस के पानी में जा गिरा। गमेर और फत्ते नीचे भागे ताकि काखड़ को कब्जे में कर सकें। लेकिन चुन्या की नजर तो खेत के किनारे गींठी (बाराही कन्द) खोदते एक साही पर टिकी थी। उसने दोनों हाथों से एक भारी सा पत्थर उठाया और दबे पांव पास जाकर साही पर दे मारा। बेचारे साही को अपने तीरों का उपयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। साही भी हाथ लगा और गींठी भी उसने अपनी जापफी (रेशों से बुनी झोली) के हवाले की। पिफर वह भी गमेर और पफत्ते के पास चला आया। गमेर और फत्ते काखड़ को मालू की बेल से एक लट्ठे पर बांध चुके थे। चुन्या और पफत्ते ने काखड़ अपने कन्धों पर उठाया। गमेर ने चुन्या की जापफी भी अपने कन्धे से लटकाई और वे तीनों रौंतिस-पार अस्कोट के लिए चढ़ाई चढ़ने लगे।
वे छिप-छिपकर चल रहे थे। डर था कि कहीं पड़ोस के बसेड़ा, कन्याल या धामी लोगों में से किसी ने देख लिया तो कहीं काखड़ से हाथ न धोना पड़े। रह-रहकर ठण्डी पछुवा के झोंके चलने लगे थे। उफपर आसमान पर बादल भी गहराने लगे और बरसने-बरसने को हो आए थे। वे अभी उबड़-खाबड़ रौंतिस के किनारे से अधिक दूर नहीं जा पाए थे। अचानक पानी बरसने लगा। तीनों रौंतिस के किनारे एक ओडार (गुफा) की शरण लेने पर बाध्य हो गए। ऊंचाइयों पर सम्भवत: बर्फ पड़ने लगी थी। उधर से आते हवा के ठण्डे झोंके कंप-कंपी पैदा कर रहे थे। सौभाग्य से गुफा में कुछ सूखी लकड़ियां और झाडियां पड़ी मिल गईं। गुफा राजी बण-रौतों की यदा-कदा रात बिताने का आश्रय जो थी। मालू की एक बेल भी अपने चौड़े-चौड़े पत्तों के साथ गुफा के आधे खुले भाग को ढके हुए थी। पानी बरसना नहीं रुका तो अब रात उसी गुफा में काटनी थी। चुन्या ने मालू के पत्तों के बीच से बाहर झांका और बोला -
थिप्पे पौवा,(शाम हो गई है)।
ओअं, दे अस्कोट हं पियरे हूँर (हां, आज तो अस्कोट नहीं पहुंच पाएंगे), गमेर ने कहा।
उन्होंने काखड़ का शव गुफा की पिछली दीवार के सहारे एक पत्थर पर रख दिया था। गमेर ने अपनी जापफी से अगेला (आग पैदा करने वाला लोहे का टुकड़ा), डांसी (चकमक और कसबुलु ;एक वन्य पौधा जिसके पत्तों की सफेद परत को रेशों के रूप में उतार लिया जाता है, पुराना होने पर वह रेशा शीघ्रता से आग पकड़ लेता है) निकाले। डांसी से चिनगारियां निकली और कसबुलु ने आग पकड़ ली। सूखी पत्तियों, झाड़ियों और लकड़ियों के बीच रखकर हवा दी तो आग भड़क उठी और तीनों बैठकर आग सेंकने लगे। ठण्ड इतनी अधिक थी कि एक ओर जहां ताप का अनुभव होता, वहीं शरीर का दूसरा भाग सुन्न पड़ता महसूस होता। वे बारी-बारी से आग की ओर कभी मुंह करते तो कभी पीठ और इस तरह ठण्ड से बचने का प्रयास करते रहे। अंधेरा और गहराने पर गमेर ने दांत किट-किटाते चुन्या और फत्ते से कहा -
दे हं चुजावरे हूँर?(आज खाने का क्या होगा?)
चुन्या ने जवाब में अपनी जापफी से साही निकाला। उसके तीर जैसे कांटे उखाड़े और पत्थर के आघात से दो-तीन टुकड़े कर दिए। फत्ते तब तक मालू के साबुत पत्ते चुन चुका था। साही के टुकड़े मालू के पत्तों में लपेटकर धधकती आग में भूनने रख दिए गए और गीठी भी गरम राख में दबा दी गई। कुछ देर में मांस और गींठी दोनों पक गए। कुछ ठण्डे होने पर बिना नमक के ही वे तीनों मांस और गींठी का स्वाद लेने लगे। खाना समाप्त होते ही तीखी ठण्डी हवा फ़िर से सताने लगी। फत्ते ने आग को और धधकाने का प्रयास किया। किन्तु अब लकड़ियां समाप्त होने को थीं, केवल शोले भर रहे गए थे और उनसे तपन उस मात्रा में नहीं मिल पा रही थी, जितनी पहले लपटों से मिल रही थी। तीनों सटकर इस तरह बैठ गए कि एक-दूसरे के शरीर की गर्मी से ठण्ड का प्रकोप शान्त कर सकें। गमेर ने ठुड्डी पर हाथ रखते हुए गम्भीर होकर कहा-
बाप रे! यह हाल तो हमारा है, बेचारे गरीब-गुरबों का क्या होगा?

Friday, August 7, 2009

जब व्हेल पलायन करते है



संवाद प्रकाशन से
यूरी रित्ख्यू के प्रकाशनाधीन उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का हिन्दी अनुवाद कथाकार डॉ शोभराम शर्मा ने किया है।डॉ शोभाराम शर्मा की रचनाओं को इस ब्लाग पत्रिका में अन्यत्र भी पढ़ा जा सकता है।

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पदसेसेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा।शोभाराम शर्मा ने अपना पहलालघुउपन्यास "धुमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा। शर्मा नेअपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्तिकोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है।क्रांतिदूतचे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) एक ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछलों दिनोंउन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डॉ। शोभारामशर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिसमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। वनरावतों परलिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऐसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर सामंतवाद के विरोध् की परंपरा परलिखी उनकीकहानियां पाठकों मेंलोकप्रिय हैं।
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पता: डी-21, ज्योति विहार, पोस्टऑपिफस- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड। फोन: 0135-2671476





डॉ. शोभाराम शर्मा


चुक्ची लोग परंपरा से कुल या गोत्र नाम का उपयोग नहीं करते थे। लेकिन जब सरकारी दस्तावेज में नाम अंकित करने का मौका आया तो यूरी ने एक परिचित गोत्र रूसी भू-वैज्ञानिक का गोत्र नाम अपना लिया और इस तरह "यूरी" यूरी रित्ख्यू हो गए।




यूरी रित्ख्यू का जन्म 8 मार्च 1930 को चुकोत्का की ऊएलेन नामक बस्ती में अल्पसंख्यक शिकारी चुक्ची जनजाति में हुआ। उनके परिवार का मुख्य पेशा रेनडियर पालना था। रेनडियर की खालों से बने तंबू-घर (यारांगा) में जन्मे यूरी रित्ख्यू ने बचपन में शामानों को जादू-टोना करते देखा, सोवियत स्कूल में प्रवेश लेकर रूसी भाषा सीखी, विशाल सोवियत देश के एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा करके लेनिनग्राद पहुंचे, उत्तर की जातियों के संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और लेखक बने, चुक्ची जनजाति के पहले लेखक। यूरी वह पहले चुक्ची लेखक हैं जिसने हिमाच्छादित, ठंडे, निष्ठुर साइबेरिया प्रदेश की लंबी ध्रुवीय रातों और उत्तरी प्रकाश से दुनिया का परिचय कराया।
अनादिर तकनीकी विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही "सोवियत चुकोत्का" पत्रिका में उनकी कविताएं व लेख छपने शुरू हो गए थे। 1949 में लेनिनग्राद स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी कुछ लघु कथाएं "ओगोन्योक" और "नोवी-मीर" पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1953 में उनका पहला लघु कथा-संग्रह "हमारे तट के लोग" सामने आया। 24 साल की उम्र में ही वह सोवियत लेखक संघ के सदस्य बन गए। यूरी या जूरी रित्ख्यू की रचनाओं का अंग्रेजी, जापानी, फ़िनिश, डेनिश, जर्मन और फ़्रैंच आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। "जब व्हेल पलायन करते हैं", "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना", "जब बर्फ पिघलती है", "अचेतन मन का आईना" और "अंतिम संख्या की खोज" उनके सर्वोत्तम उपन्यासों में गिने जाते हैं। "जब बर्फ पिघलती है" उपन्यास 20वीं सदी में चुक्ची जनजाति के जीवन में आए वाले बदलावों का लेखा-जोखा है। एक रचनाकार के रूप में यूरी रित्ख्यू पर मैक्सिम गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। "जब व्हेल पलायन करते हैं" पर गोर्की की आरंभिक भावुकता की छाप है तो "जब बर्फ पिघलती है" पर गोर्की की उपन्यास त्रयी "मेरा बचपन", "जीवन की राहों में" और "मेरे विश्वविद्यालय" का प्रभाव साफ झलकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना" में ध्रुवीय जीवन और प्रकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी विवरण है जो दूसरे रचनाकारों की कृतियों में कम ही मिलता है। यूरी की कृतियों में चुक्ची जाति के लोगों के आत्मत्यागी जीवन, कठोर श्रम, उनकी भोली दंत-कथाओं, प्राचीन परंपराओं-धरणाओं के साथ आधुनिकता और 20वीं सदी के विज्ञान एवं संस्कृति के विचि्त्र मिलाप और चुकोत्का के ग्राम्य-जीवन का अत्यंत काव्यमय एवं अभिव्यंजनात्मक भाषा में वर्णन किया गया है। "अंतिम संख्या की खोज" उपन्यास में रित्ख्यू ने खुद को कुछ नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में पश्चिमी संस्कृति, चुक्ची लोगों के भोले विश्वासों और महान बोल्शेविक विचारों का अंतर्द्वंद्व चित्रित है। 1918 में अमंडसेन नामक अन्वेषक का उत्तरी ध्रुव अभियान इस उपन्यास की केंद्रीय घटना है। जहाज के बर्फ में फंसने और जम जाने से अमंडसेन को पूरा कठिन ध्रुवीय शीतकाल वहां के स्थानीय लोगों के साथ बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे लगता है कि सदियों पुराने तौर-तरीकों के कारण ध्रुवीय लोगों का सभ्य होना संभव नहीं है। लेकिन "जियो और जीने दो" के अपने दृष्टिकोण की वजह से वह चुक्ची लोगों का विश्वास जीतने में सपफल रहता है। उसी साल लेनिन के महान विचारों से प्रेरित एक बोल्शेविक नौजवान अलेक्जेई पेर्शिन भी वहां पहुंचता है। वह वर्ग-संघर्ष के जरिए चुकोत्का में सोवियत-व्यवस्था की नींव डालना चाहता है। दैनंदिन जीवन संघर्ष से जूझते लोगों पर उसके भाषणों का कम ही असर होता है। वह लोगों को रूसी भाषा सिखाता है और अपनी ही एक शिष्या उमकेन्यू से शादी कर लेता है। उमकेन्यू खुद को उससे भी बड़ी बोल्शेविक दिखाने की कोशिश करती रहती है। उमकेन्यू का अंध पिता गैमिसिन भी बोल्शेविक सपनों की ओर खिंचता है और पेर्शिन के इस वादे पर विश्वास करने लगता है कि एक दिन कोई रूसी डॉक्टर आकर उसे अंधेपन से मुक्त कर देगा।
उपन्यास का केंद्रीय पात्रा चुक्ची शामान (ओझा) कागोट है जो अपने जनजातीय कर्त्तव्यों से विमुख हो चुका है। एक अमरीकी स्कूनर पर काम करते हुए अमंडसेन कागोट को रसोइया रख लेता है। अमंडसेन स्वयं कागोट के कामों की निगरानी करता है और प्रारंभिक नतीजों से खुश होता है। खोजी जहाज पर शामान कागोट व्यक्तिगत स्वच्छता का पाठ पढ़ता है जबकि चुक्ची सर्दियों में नहाते नहीं थे ताकि मैल की परत ध्रुवीय ठंड से उनकी रक्षा करती रहे। कागोट कलेवे के यूरोपियन परंपरा के मुट्ठे बनाने की कला में पारंगत हो जाता है। लेकिन जब उसे गणित का ज्ञान दिया जाता है तो अमंडसेन का प्रयोग गड़बड़ा जाता है। अनन्तता का विचार कागोट की समझ में नहीं आता। वह अंतिम संख्या को जादुई शक्ति का स्रोत समझ बैठता है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है। उसकी अपनी दुनियां तो परिमित थी। हर चीज यहां तक कि आकाश के सितारे भी गिने जा सकते थे बशर्ते कोई हार न माने तो। अमंडसेन के दल द्वारा दी गई कापियों पर वह संख्या पर संख्या लिखता चला जाता है। अंतिम संख्या के लिए इस हठध्रमिता के कारण जब कागोट अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है तो अमंडसेन को उसकी मूर्खता का अनुभव होता है और वह शामान कागोट को निकाल बाहर करता है।
वस्तुत: कागोट की हठध्रमिता अमंडसेन से कुछ कम नहीं है जो दुसाध्य उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने के प्रयास में नष्ट हो जाता है या पेर्शिन जैसे बोल्शेविकों का अपना परिमित विश्व-दृष्टिकोण जो अंतत: गुलाम और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ जाता है। अपने इस उपन्यास में रित्ख्यू ने यह भी दिखाया है कि विज्ञान के सर्वग्रासी हमले के आगे चुक्ची संस्कृति अपने अस्तित्व की रक्षा में कितनी असुरक्षित सिद्ध हुई। अपनी सभी कृतियों में लेखक अपने सुदूर अतीत के पूर्वजों की संस्कृति को अपने कथांनक में इस तरह संयोजित करता है कि पाठक उस छोटे-से राष्ट्र की दुर्दशा से अभिभूत हो जाते हैं। वह रित्ख्यू द्वारा वर्णित किसी स्वर्ग का विनाश न होकर जीवन की उस पद्ध्ति की समाप्ति है जिसके द्वारा दुनियां के उस कठोरतम वातावरण में वे लोग अपने को बचा पाने में समर्थ हो सके थे।
यूरी रित्ख्यू की पिछली कृतियां समाजवादी और यर्थाथवादी कही जा सकती हैं। उनमें मुख्यत: सोवियत-व्यवस्था की सपफलताओं का चित्राण ही अधिक है। लेकिन "अंतिम संख्या की खोज" में बोल्शेविक प्रशासन के प्रारंभिक दिनों में चुक्ची समाज की जटिलताओं को ही संतुलित रूप में उकेरा गया है।
रित्ख्यू ने सोवियत-व्यवस्था के समय पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण सोवियत संघ की यात्रा की थी। पिछले दशक में उन्होंने अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। बीसियों बार पेरिस की यात्रा की। उष्णकटिबंधीय जंगलों का भ्रमण किया। अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित यूरी रित्ख्यू की कृतियां सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में छपनी बंद हो गई थीं। लेकिन यूनियन स्वेलाग नामक स्विट्जरलैंड निवासी प्रकाशक ने जर्मन और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उनकी रचनाओं की ढाई लाख प्रतियां छाप डालीं। इध्र यूरी रित्ख्यू साइबेरिया की अनादिर नदी के किनारे बसे अनादिर कस्बे में रह रहे थे। अनादिर चुकोत्का स्वायत्त क्षेत्रा का प्रशासनिक केंद्र है। रूस के धुर पूर्वी छोर पर बसी इस बस्ती की स्थापना 3 अगस्त 1889 को नोवोमारीइन्स्क के नाम से हुई थी। 5 अगस्त 1923 को इसका नया नाम अनादिर रख दिया गया। 12 जनवरी 1965 को अनादिर को नगर की मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत-व्यवस्था में पले-बढ़े चुक्ची जनजाति के इस पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का 20 मई 2008 को देहावसान हो गया। यूरी की गणना आज भी अत्यदधिक प्रसिद्दध व लोकप्रिय सोवियत लेखकों में की जाती है।

Sunday, May 10, 2009

जगदेई की कोलिण

कहानी
डा.शोभाराम शर्मा

इस कहानी का संबंध् हमारे इतिहास के उस काल-खंड की एक सच्ची घटना से है जब मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात यह देश अराजकता के उस भंवर में पफंस गया था जिसका लाभ पश्चिम के उन देशों ने उठाने का प्रयासकिया जो औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे थे। उन्हें उद्योगों के लिए जितने कच्चे माल की जरूरत थी, वह उनकीअपनी जमीन से मिलना मुश्किल था। इसलिए दूसरें मुल्कों की जमीन हड़पने की होड़ मची और इस होड़ में इंग्लैंडका पलड़ा ही भारी सिद्ध् हुआ। औद्योगिक क्रांति की ऊर्जा से शक्ति-संपन्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आगे हमारेनवाबों और राजा-महाराजाओं की जंग लगी सामंती तलवारें नहीं टिक पाईं। बंगाल से लेकर पंजाब की सीमा तकऔर लगभग सारे दक्षिण भारत को लीलते देखकर एक दिन काठमांडू के राजमहल में सोए शेष-शायी विष्णु केअवतार नेपाल नरेश की नींद खुल पड़ी। एक विदेशी कंपनी को तराई-भाबर से नीचे सारे देश को हड़पते देखकर नेपाल की सामंती सत्ता के कान खड़े होने ही थे। निश्चय हुआ कि पूरब से पश्चिम तक सारे पहाड़ी राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया जाए। काली पार कर चंद राज्य पहला शिकार हुआ। गढ़वाल पर पहला हमला नाकामयाब रहा मगर दूसरे धावे में गढ़वाल भी फ़तह हो गया। गोरखे हिमाचल की ओर भी बढ़े लेकिन वहां टिक नहीं पाए।पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह के आगे गोरखा-अभियान असफल हो गया।



लोक मानस ने जिस नारी को '"जगदेई की कोलिण" के नाम से अपनी स्मृति में संजोए रखा है उसका असली नाम क्या था, कोई नहीं जानता। बात उन दिनों की है जब पूरब की पहाड़ी बस्तियों से लोग पश्चिम की ओर भागते पिफर रहे थे। वे या तो घने जंगलों या ऊंची चोटियों पर शरण लेने को मजबूर थे अथवा तराई-भाबर के जंगलों को पार कर मैदानों की ओर पलायन कर रहे थे। कारण था काली-कुमाऊं के जंगलों से होकर हमलावर गोरखों की एक टुकड़ी का कोसी से रामगंगा की मध्यवर्ती बस्तियों तक आ ध्मकना। तरह-तरह की अतिरंजित अफवाहों का बाजार गरम था। जवान लड़के-लड़कियों को दास-दासियों के रफ में सरेआम बेचे जाने की अफवाह जहां जोरों पर थी, वहीं औरतों की इज्जत से खुलेआम खिलवाड़ करने की बात भी चारों ओर फैल रही थी। और तो और दूध् पीते बच्चों को ऊखल में ठूँसकर मूसल से कुचल देने की अफवाह पर भी लोग आँख मँूदकर विश्वास करने लगे थे। प्रतिरोध् करने पर बस्तियां आग की भेंट चढ़ रही थीं और सिर कलम किए जा रहे थे। लूट-खसोट और जोर-जबरी का ऐसा दौर चला कि नादिरशाही भी फीकी पड़ गई। तराई-भाबर की समीपवर्ती पहाड़ी बस्तियों पर "गोर्ख्याणी" का ऐसा कहर बरपा कि लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। हमलावरों को आशंका थी कि अगर उध्र के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के दलालों से मिल गए तो पहाड़ों पर अधिकार बनाए रखना कठिन होगा। अत: आतंक का ऐसा माहौल बना देना उचित समझा गया कि लोग सिर उठाने की जुर्रत न कर सकें।

दहशत के मारे लोग सुरक्षित स्थानों की खोज में थे। ऐसे में किसी को भी अपनी और अपनों की सुरक्षा की चिंता होनी स्वाभाविक थी। जगदेई की कोलिण को अपनी दूध्-पीती बेटी और बूढ़े मां-बाप की चिंता थी। मां-बाप वर्षों से एक छोटे-से पहाड़ी नाले के समीप घने जंगल में रहकर बुनाई से अपनी जीविका चलाते आए थे। उनके अपने भाई-बंद सामने की पहाड़ी के पीछे संदणा नामक बस्ती में जाकर रहने लगे थे। लेकिन वे अपनी उसी कुटिया में बने रहे। कोलिण का जन्म वहीं हुआ था और बड़ी होने पर सल्टमहादेव के पार जगदेई के कोली परिवार में ब्याह दी गई थी। लेकिन घर-गृहस्थी का सुख उसके भाग्य में कहां बदा था। ब्याह के दूसरे साल उसे एक बेटी को जन्म देने का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ लेकिन उसी वर्ष भाग्य रूठ गया और पति बिसूचिका का शिकार हो गया। घरवाले दो साल छोटे देवर का घर बसाने पर जोर देते रहे लेकिन वह अभी तक किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी। बेटी को वह मां-बाप के पास पहुंचा देना चाहती थी क्योंकि पहाड़ी की ओट में घ्ाने जंगल के बीच अपना मायका उसे अधिक सुरक्षित लगा। कोली परिवार का आवास होने से वह "कोल्यूं सारी" कहलाने लगा था। वह बेटी को लेकर जब वहां पहुंची तो यह देखकर दंग रह गई कि उस खाई जैसी तंग घाटी के जंगल में कई और लोग भी शरण ले चुके थे। उनमें से एक डुंगरी नामक बस्ती का वह ब्राह्मण परिवार भी था जिसके मुखिया पंडित रामदेव को कोलिण बहुत पहले से जानती थी। कुछ दिन पहले ही वह उनके डुंगरी के आवास से कंबल बुनने के लिए ऊनी तागों के गोले लेकर गई थी और कंबल अभी अधबुने ही पड़े थे। पंडित रामदेव उसे बेटी कहकर पुकारते थे। उन्होंने बताया कि उनके परिवार के अलावा मंदेरी रावत, नेगी, ध्याड़ा, गोदियाल और डबराल भी वहां शरण ले चुके थे। नीचे नदी के किनारे एक मनराल परिवार भी सैणमानुर से आकर रहने लगा। सौंद नामक एक लुहार परिवार वहां पहले से ही रह रहा था। उसे यह देखकर और भी खुशी हुई कि पंडित रामदेव की अपनी बेटी जो उसी के ससुराल जगदेई में ब्याही थी, वह भी अपने पति के साथ वहां पहले ही पहुंच चुकी थी। पंडित जी ने आग्रह किया कि जितनी जल्दी हो सके वह कंबल वहीं लाकर दे क्योंकि डुंगरी की बजाय वह जगह अध्कि ठंडी थी। पंडित रामदेव उन दिनों सामने की पहाड़ी के दूसरी ओर के कुठेल गांव और संदणा के लोगों की मदद से कालिका नामक एक गोलाकार चोटी पर पत्थरों का ढेर जमा करवाने में जुटे थे ताकि मौका पड़ने पर हमलावरों का प्रतिरोध् किया जा सके।
मां-बाप का कहना था कि वह अपने परिवार के लोगों को भी वहीं लेती आए क्योंकि पहाड़ी की ओर का वह जंगल हमलावरों की नजरों में शायद ही पड़े। मां ने जोर देकर कहा कि वह कब तक अकेली जीवन का भार ढोती रहेगी। दो साल छोटा है तो क्या हुआ, वह देवर को स्वीकार कर ले, नन्हीं बेटी को भी पिता का प्यार मिल जाएगा। इस पर कोलिण कुछ सोचने को मजबूर हो गई और उसका अनिर्णय निर्णय में बदल गया। वह दूसरे ही दिन नीचे नदी के किनारे उतरी और पार के किनारे से होकर सल्ट महादेव की ओर चल पड़ी जहां से उसे ऊपर चढ़कर अपनी ससुराल पहुंचना था। रास्ते भर वह देवर के साथ अपने गार्हस्थ्य जीवन के रंगीन सपने बुनती रही और कब जगदेई पहुंच गई कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन यह क्या! बस्ती बिल्कुल वीरान जैसी। बहुत कम लोग ही वहां रह गए थे। अधिकांश लोग अपना आशियाना छोड़ गए थे। पूछने पर पता चला कि लोग भिरणाभौन के देवी-मंदिर की ओर गए हैं। मंदिर एक गोलाकार पहाड़ी के ऊपर था और जगह चारों ओर से इतनी खुली कि हमलावर चाहे जिध्र से आते उन पर नजर रखी जा सकती थी। ऊपर चढ़ते हमलावरों को पत्थरों की मार से भागने पर मजबूर कर देना भी बहुत संभव लगता था। कोलिण रास्ते के ऊपर पहाड़ी के पीछे जखल और जमणी नामक बस्तियों के मिलन बिंदु पर अपनी झोंपड़ी में पहुंची तो अवाक् रह गई। परिवार के सारे लोग न जाने कहां चले गए थे। करघे वैसे ही पड़े थे जिन पर से अधबुने कंबल भी परिवार वाले समेट ले गए थे। निराश कोलिण बाहर निकली। सूरज अभी सिर पर था और हवा न चलने के कारण घुटन का अनुभव हो रहा था। उसने बदनगढ़ पार सल्ट की बस्तियों की ओर देखा तो आसमान की ओर उठता धुंआ देखकर और लोगों की चीख-पुकार सुनकर सन्न रह गई। भय के मारे रोंगटे खड़े हो गए। हमलावर इतने समीप थे कि कुछ ही देर में इध्र की बस्तियां भी उनका शिकार होने वाली थीं। कोलिण से रहा नहीं गया। वह झोंपड़ी के ऊपर एक टीले पर पहुंची और भरपूर गले से चिल्ला उठी-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" (गोरखे आ गए! गोरखे आ गए!) वह लगातार चिल्लाती गई। उसकी भय मिश्रित वह चीख-पुकार धर (पर्वत दंड) के दोनों ओर की दूर-दूर तक बसी बस्तियों तक ही नहीं, सल्ट महादेव से ऊपर देवलगढ़ के पार की बस्तियों तक भी साफ-साफ सुनाई पड़ी।
सुनते ही बस्तियों में तो जैसे भूचाल आ गया। जो साहसी लोग अभी तक बस्तियों में इस विश्वास के साथ टिके थे कि हमलावर उनकी बस्ती तक शायद ही पहुंच पाएं, वे भी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। कोलिण की चीख ने उनके साहस और विश्वास के परखच्चे उड़ा दिए। वे ऐसी जगहों की ओर दौड़ पडे जिन पर हमलावरों की निगाह पड़ने की बहुत कम संभावना थी। कोलिण की अपनी बस्ती का एक प्रौढ़ ओड (पत्थरों की छंटाई-चिनाई करने वाला मिस्त्री) कहीं जा छिपने से पहले उसके पास आया और डांटते हुए बोला-"अरी ओ मूर्खा! यह तू क्या कर बैठी। क्यों आ बैल मुझे मार की मूर्खता कर बैठी हो? मैं कहता हूं, अब तो चुप हो जा और कहीं जाकर छिप जा। तेरी यह चीख-पुकार तो साक्षात् मौत को न्यौता दे बैठी है। गोरखे कोई बहरे नहीं, तेरी पुकार की दिशा भांपकर बस पहुंचते ही होंगे।"
इस चेतावनी का कोलिण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह तो बस गला पफाड़-पफाड़कर चिल्लाती रही-"ग्वर्ख्य आगीं! ग्वर्ख्य आगीं!" चेतावनी देने वाला ओड भी घबराकर भाग खड़ा हुआ और कुछ दूरी पर एक पत्थर की आड़ में उन घनी कंटीली झाड़ियों के बीच जा छिपा जहां से चीखती-चिल्लाती कोलिण भी सापफ नजर आ रही थी। कुछ ही पल बीते होंगे कि दो गोरखे सैनिक प्रकट हो गए। वह चढ़ाई चढ़कर आए थे। उनका दम पफूल रहा था और पफटी-पफटी लाल अंगारों जैसी उनकी आँखें इस बात का सुबूत थीं कि दोनों रक्शी (शराब) के नशे में भी चूर थे। गुस्से से पागल एक ने कोलिण को बालों से जा पकड़ा और पफुंपफकारता हुआ बोला-"बदजात औरत चुप कर!" एक झटका देकर उसने कोलिण को नीचे पटक डाला। लेकिन कोलिण थी कि खड़ी होकर और भी जोर से चीखने लगी। इस पर दूसरा सैनिक खुखरी लहराते हुए आगे बढ़कर बोला-"यह ऐसे नहीं मानेगी दाई।" और उसने आव देखा न ताव कोलिण के नाक, कान और स्तन काटकर फैंक दिए। लहूलुहान चीखती-चिल्लाती कोलिण को पिफर एक लात जमाकर राक्षसी हंसी हंसता हुआ वह शैतान बोल उठा-"चिल्ला! और चिल्ला! तेरी तो -----" वह बाल पकड़कर पत्थर पर पटकने की गरज से आगे बढ़ने ही वाला था कि पहले सैनिक के भीतर का इंसान जाग उठा, उसने दूसरे को एक ओर खींचकर टोका-"अरे! तूने यह क्या कर डाला? डरा धमकाकर चुप कराने से मतलब था लेकिन तू तो वहशीपन की हद भी पार कर गया। एक निहत्थी निर्बल नारी के नाक, कान और ऊपर से स्तन भी ---- छि! ---- मातृत्व का ऐसा अपमान! इस महापातक का खामियाजा तो शायद मुझे भी भुगतना होगा। सरदार दूसरे साथियों के साथ पहुंचते ही होंगे। उनकी नजर अगर इस पर पड़ी तो समझ ले खैर नहीं।"
साथी की लताड़ से दूसरे सैनिक का नशा उड़न छू होने लगा, बोला-"तो अब क्या करें भाई? अपराध् तो हो ही गया। न जाने कितनी कठोर सजा मिले।"
"दंड से तो मैं भी नहीं बच पाऊंगा रे! वे तो इस कांड में हमारी मिलीभगत ही समझेंगे। कहेंगे कि मैंने रोका क्यों नहीं।" पहले ने कहा।
दूसरा अब रूआंसा होकर बोला-"जो होना था सो तो हो चुका! हां अगर इसे उनकी निगाह में न पड़ने दें तो?"
"हां, हां। एक यही रास्ता है हमारे बच निकलने का।" पहले ने सुझाव का समर्थन किया।
और दोनों ने कोली परिवार की झोंपड़ी के साथ कोलिण को भी जलाकर खाक कर देने की ठान ली। इस बीच बेतहाशा खून बह जाने से कोलिण जमीन पर लुढ़क गई थी। पिफर भी उसके गले से कहीं दूर से आता एक हल्का-सा स्वर तैरता सुनाई पड़ रहा था। दोनों मृतप्राय कोलिण को खींचकर झोंपड़ी के भीतर ले गए और करघ्ो के नीचे पटककर झोंपड़ी को आग के हवाले कर दिया। दरवाजों, तख्तों और छत के शहतीरों ने जो आग पकड़ी तो झोंपड़ी भरभराकर ढह गई और कोलिण की अपनी झोंपड़ी ही उसकी चिता बन गई।


इस भयानक कांड का चश्मदीद गवाह वही ओड था जो पत्थर की आड़ में झाड़ियों के बीच छिपकर सब कुछ देख रहा था। नाक, कान और स्तन-विहीन लहुलुहान कोलिण की उस करुणाजनक आकृति ने उसकी आत्मा को इतना झकझोर डाला कि वह चाहकर भी उसे अनदेखा नहीं कर पाया। धूं-धूं कर जलती झोंपड़ी से ऊपर उठते धुंए के बीच उसे वही दिखाई देती रही। घबराकर उसने आँखें मूंद लीं और जब खोलीं तो उसे धुंए के साथ ऊपर आसमान में तैरती एक ऐसी श्वेताभ निष्कलंक पवित्रा आत्मा का आभास हुआ जो लगातार चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को आसन्न खतरे से सावधन कर रही थी। दीबागढ़ी से नीचे दक्षिण की ओर बदनगढ़, देवलगढ़ और टांडयूंगाड़ के दोनों ओर जहां तक कोलिण की आवाज पहुंची थी, वहां से और आगे की बस्तियों को भी चेतावनी मिलने लगी। कोलिण का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा था। उसकी वह निष्कलंक श्वेताभ आत्मा आसमान से होकर उड़ते-उड़ते अंतत: ऊंचे शिखर पर स्थित देवी-मूर्ति में समाहित हो गई। मूर्ति में समाहित उस आत्मा ने दीबा डांडे की दूसरी ओर बसी बस्तियों के लोगों को भी लगातार चेतावनी देकर हमलावरों का मनसूबा विपफल कर दिया था।
हमलावरों का टोली नायक जब दूसरे सैनिकों और लूट के माल के बोझ तले दबे, पकड़े गए दास-दासियों के साथ पहुंचा तब तक झोंपड़ी के साथ कोलिण का अस्तित्व भी राख में बदल चुका था। नायक ने आते ही पूछा-"वह औरत कहां है जो यहां के नामुरादों को चेतावनी दे रही थी? इधर तो कुछ भी हाथ नहीं लगा। लोग अपने मालमत्ते के साथ न जाने कहां गायब हो गए।"
पहले सैनिक ने कुछ सोचकर जवाब दिया-"क्या बताएं हुजूर! हमें देखते ही बदजात अपनी झोंपड़ी में जा छिपी। हमने उसे जिंदा पकड़ने का भरपूर प्रयास किया लेकिन उसने दरवाजा नहीं खोला तो नहीं खोला। दरवाजा तोड़कर जब तक हम भीतर पहुंचते उसने खुद झोंपड़ी को आग लगा दी और खुद भी उसी में जल मरी।"
उधर लूट का माल हाथ न आने से हमलावरों का दस्ता पकड़े गए दास-दासियों के साथ देवलगढ़ नदी की ओर उतर गया। वह ओड जिसने सारा कांड अपनी आँखों से देखा था, पत्थर की आड़ से बाहर निकला और राख के ढेर को कुरेद-कुरेदकर कुछ ढूंढने लगा। लेकिन वहां बचा ही क्या था। सुलगते शोलों के बीच कोलिण की हडि्डयां तक भी साबुत नहीं बची थीं। इसी बीच आस-पास छिपे कुछ और लोग भी आ गए। सभी की जुबान पर यही था कि कोलिण तो सचमुच जगदेई ;जगत-देवीद्ध निकली। दूसरों की जान बचाने के लिए जिसने अपनी जान तक दे डाली। पत्थरों का पारखी वह ओड एक हल्के नीले पत्थर पर कोलिण की नाक, कान और स्तन-विहीन आकृति को उभारने लगा ताकि भावी पीढ़ियां उसकी कुर्बानी को भुला न पाएं।
(लेखक ने 1950 के आस-पास नाक, कान और स्तन-विहीन वह छोटी-सी नारी मूर्ति जगदेई गांव के ऊपर खुद अपनी आँखों से देखी थी। आज एक छोटे-से मंदिर में कोलिण की वह नाक-कान-स्तन विहीन मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित है।)


कहानी में अरविन्द शेखर के रेखांकनों का इस्तेमाल किया गया है
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लेखक परिचय
डॉ शोभाराम शर्मा
जन्म: 6 जुलाई 1933, पतगांव मल्ला, पौड़ी गढ़वाल
शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एमए (हिंदी) व पीएचडी। अंग्रेजी दैनिक 'द स्टेटसमैन" में कार्य, 1958 से विभिन्न राजकीय संस्थानों में अध्यापन, 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष ;हिंदीद्ध के पद से सेवानिवृत।
रचनाएं: 50 के दशक में पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु", क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी), सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), पूर्वी कुमाउफं तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों ;वन रावतोंद्ध की बोली का अनुशीलन ;अप्रकाशित शोध्प्रबंध्द्ध, जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू के उपन्यास का अनुवाद- प्रकाशनाधीन) विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं में कहानियां व लेख प्रकाशित। विभिन्न पत्रिकाओं का संपादन।
पता: डी-21, ज्योति विहार, पोऑ- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड, फोन: 0135-2671476

Sunday, February 22, 2009

समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

पौड़ी गढ़वाल में जन्मे डा.शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष (हिंदी) के पद से सेवानिवृत हुए हैं। 50 के दशक में डा.शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शोभाराम शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय समय में प्रकाशित हुआ है।


पूर्वी कुमाउ तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों (वन रावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध्प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है। क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) उनकी ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछले दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेगें। जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का उपन्यास), जो निकट भविष्य में ही प्रकाशित होने वाला है एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डा.शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिसमें उत्तराखण्ड का जनजीवन और इस समाज के अन्तर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए है। वन राजियों पर लिखा उनका उपन्यास, जो प्रकाशानाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऎसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी उनकी कहानी समन्या साब! समन्या ठाकुरो! हम पूरे आदर के साथ प्रस्तुत कर रहे है।


समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

डॉ। शोभाराम राम शर्मा

स्थानीय मिडिल स्कूल के अहाते में उस दिन बड़ी हलचल थी। ऐसी हलचल कि जो इलाके के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। और यह सब थोकदार जीतू रौत ऊर्फ जीत सिंह जी के कुलदीपक भवान सिंह के अथक प्रयास का नतीजा था। तब के लाहौर में अपने मामा उमेद सिंह के सरंक्षण में पढ़ते समय वे आर्य समाजियों के संपर्क में क्या आए कि उनके विचारों का प्रभाव दिनोंदिन गहरा होता गया। इंटर पास करने के बाद जब घर लौटे तो आर्य समाजी विचारों के प्रचार-प्रसार का जुनून सवार हो गया। कुछ राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के समर्थन और मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य व कुछ शिक्षकों के सहयोग से आयोजन परवान चढ़ गया। सभा की अध्यक्षता के लिए जब थोकदार जीतसिंह के नाम का प्रस्ताव आया तो किसी ने भी विरोध् नहीं किया। वे पहले तो बेटे के विचारों से सहमत नहीं थे लेकिन जब जिला परिषद के चुनाव में उन्हें इलाके से खड़ा करने का प्रलोभन मिला तो रातोंरात अपने विचारों से समझौता करने को तैयार हो गए। और आज सभा में सपफेद टोपी पहनकर बेटे के विचारों के पोषक बनकर चहक रहे थे। सभा में बीस-तीस विद्यार्थी और साठ-सतर दूसरे लोग जमा थे। यह इलाके में आज तक कि सबसे बड़ी सभा थी। अधिकांश लोग परिगणित जातियों से ही थे जिन्हें सभास्थल तक लाने में थोकदार जी के अपने हलिया (हलवाहा) लूथी के बेटे केसी की भूमिका सर्वोपरि थी। सवर्णों में कुछ गांव के मौरुसी प्रधन और कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता शिरकत करने आए थे। आर्य-समाज की इस मुहिम के विरोधी दो-चार पुराण-पंथी भी मुंह बिचकाए पिफर रहे थे। महिलाओं की संख्या तो नाम-मात्र को थी। दो-चार वे नारियां जिनका पेशा ही नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करना था, अपने मर्दों के साथ चुपचाप बैठी तमाशा देख रही थीं।
थोकदार जी के सभापति के आसन पर विराजमान होते ही सभा-संचालक ने सबसे पहले उस दिन के प्रमुख वक्ता भवान सिंह का आह्वान किया। भवान सिंह ने सभी आंगतुकों का अभिवादन करते हुए जो जोशीला वक्तव्य दिया उसका लब्बोलुआब यही था कि अगर देश और हिंदू समाज को आगे बढ़ना है तो वेदों की ओर लौटना होगा। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश" में जो राह सुझाई है, उसी से देश का कल्याण संभव है। दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत तो हमारे वेद ही हैं लेकिन पुराण-पंथियों ने कुछ ऐसी विकृतियां पैदा कर दी हैं कि आज जगत गुरु भारत दूसरों के तलुवे चाटने पर मजबूर है। वेदों का महत्व पश्चिम के लोगों और विशेषकर जर्मनों ने समझा है। उसी के दम पर वे आज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रा में नए-नए अनुसंधन करने में सपफल हो रहे हैं। पूंजी हमारी है लेकिन लाभ दूसरे उठा रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो यही है कि हमने शिल्पकार जैसे उपयोगी अंग को ही बाहर कर दिया। उन्हें अछूत कहकर नारकीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। परिणाम सापफ है आज वे दूसरे मज़हबों की ओर देखने लगे हैं। अगर इस प्रवृति को रोकना है तो हमें अपने शिल्पकार भाइयों को सम्मान के साथ अपनाना होगा। उन्हें यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार प्रदान करना होगा। हम सभी आर्यों की संतान हैं और उन्हें भी अपने को आर्य कहलाने का पूरा अधिकार है। इससे छूत-अछूत की कटुता ही नहीं, पीढ़ियों से पनपी हीन-भावना का दंश भी समाप्त हो जाएगा। मेरा मानना है कि इससे सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाप्त हो जाएगी और डोला-पालकी जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं का निदान भी स्वत: हो जाएगा। हिंदू समाज को अगर सशक्त होकर उभरना है तो यह सब करना ही होगा। वक्तव्य के अंत में "भारत माता की जय" का उदघोष करते हुए उसने श्रोताओं की ओर सरसरी नजर डाली, यह देखने के लिए कि उसके कथन का कुछ असर हुआ भी या नहीं।
भवान सिंह के मंच छोड़ते ही एक त्रिपुंडधारी पंडित जी धोती का छोर हिलाते हुए मंच की ओर बढ़े। वे काफी देर से कुछ कहने के लिए कसमसा रहे थे। मंच पर चढ़ते ही गुर्राए- "अछूत और यज्ञोपवीत! ऐसी अनहोनी! अरे, हमारे पुर्खे क्या मूर्ख थे जो उन्होंने वेद-सम्मत ऐसी वर्ण-व्यवस्था लागू की? वेदों की तो शकल तक न देखी होगी और चले हैं वेदों की ओर लौटने की बात कहने। ठीक है लौटो, लेकिन पहले गहराई से उनका अध्ययन तो कर लो। आशय तो ठीक से समझ लो। वहां सापफ-सापफ कहा गया है कि आदि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और चरणों से शूद्र जन्मे हैं। इन चारों वर्णों के लिए जो शास्त्रा-सम्मत विध्-निषेध् हमारे पुरखों ने निर्धरित किए हैं उनकी अनदेखी करना भला कहां की बि(मानी है। ऐसा करने से तो हमारे समाज का पूरा ढांचा ही चरमरा जाएगा। चौथे वर्ण को अगर यज्ञोपवीत के लिए उपयुक्त नहीं माना गया तो उसके पीछे शास्त्राकारों की कोई दुर्भावना नहीं थी। बिना पात्राता के यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार देना गलत था और यही हमारे शास्त्राकारों ने किया है। वर्णाश्रम ध्म के खिलापफ जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।" यह कहकर पंडित जी एक ओर हटे तो लगा कि ठाकुर भवान सिंह ने बर्र के छते को छेड़ दिया था। सवर्णों में से जितने भी लोग वहां थे उनमें से एकाध् को छोड़कर सभी पंडित जी के साथ हो लिए।
किसी ने कहा- "पंडित जी ने बिल्कुल सही फरमाया है। इन लोगों में वैसी पात्राता न पहले थी और न आज है।" दूसरे ने कहा- "अरे! जो भक्ष्याभक्ष्य तक का खयाल नहीं रखते, निषि( मांस तक से जिन्हें परहेज नहीं, वे जनेऊ धरण करने के पात्रा कैसे हो सकते हैं।" तीसरे ने कहा- "इन लोगों में नर-नारी संबंधें की शिथिलता की कैसे अनदेखी की जा सकती है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो अपनी बहू-बेटियों को नचाकर जीविका कमाते हैं। ऐसे में इन्हें बराबरी का दर्जा देने की वकालत कैसे की जा सकती है।" चौथे ने कहा- "महीनों तक तो ये नहाते नहीं। सामने पड़ गए तो नाक फटने लगती है। जनेऊ जैसे पवित्रा सूत्र की इनके गले में क्या दुर्गति होगी, मुझे तो सोचते ही उबकाई आने लगती है।" पांचवें ने कहा- "न शकल न सूरत और पहनेंगे यज्ञोपवीत! घोर कलयुग है भाई। जाति-धर्म सबकुछ खतरे में है। ये नए जमाने के लोग तो उल्टी गंगा बहाने की वकालत कर रहे हैं। हम हर्गिज ऐसा नहीं होने देगें।"
एकाध् नौजवान ने ठाकुर भवान सिंह का समर्थन करने का प्रयास किया लेकिन विरोधियों ने ऐसा शोर मचाया कि कुछ सुनाई नहीं दिया। इस पर एक सफेद टोपी वाला नौजवान मंच पर जाकर दहाड़ा- "किसी को बोलने तक न देना, ये कहां की शरापफत है। आप मानें या न मानें लेकिन सुन तो लें।"
"अरे, जा-जा, बड़ा आया हमें शरापफत की सीख देने वाला! कल तक तो बाप-दादे हमारी डांडी (पालकी) ढ़ोते रहे और आज सपफेद टोपी क्या पहन ली कि पर ही निकल आए।" एक प्रधनजी गुस्से में कांपते हुए बोल पड़े।
"प्रधनजी, नाराज क्यों होते हैं? हां, याद दिलाने के लिए ध्न्यवाद। जब भी जरूरत पडेगी मैं आपकी डांडी (अर्थी) को कंध देने जरूर आऊंगा। लेकिन भगवान करे हाल-पिफलहाल ऐसी नौबत न आए।" नौजवान ने मुस्कुरा कर जवाब दिया तो प्रधन जी कटकर रह गए।
नौजवान की बात पर बहुत-से लोग हंस पड़े और सभा का माहौल थोड़ा शांत हो गया। सभा संचालक ने मौका देखकर अध्यक्ष से आज्ञा ली और केसी को अपना पक्ष रखने को कहा।
केसी उद्विग्न मन से मंच पर चढ़ा और हाथ जोड़कर उपस्थित लोगों का अभिवादन कर बोला- "ठाकुरो! मुझ नाचीज को बोलने का अवसर दिया, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। भाई भवान सिंह की भावना की मैं कद्र करता हूं, लेकिन क्या जनेऊ धरण करने से खाली पेट भर जाएंगे? अगर नहीं, तो इस कसरत से क्या फायदा। हां, अगर सब लोग ऐसा सोचें तब तो यह सब चल सकता है। ऊंच-नीच और छूत-अछूत का अभिशाप हमारी आत्मा में कितना जहर घोल देता है इसका भुक्तभोगी मैं खुद हूं। मुझे याद है, जब मैं पहली बार पाठशाला गया तो मुझे अछूत कहकर भर्ती करने से मना कर दिया गया। वह तो भला हो थोकदार जी का जिनके कहने पर दाखिला तो मिल गया लेकिन कक्षा में मुझे औरों से अलग बिठाया जाता रहा और बात-बात पर ऐसी गालियां दी जातीं कि क्या कहूं। गुरु जी का गंगाराम (डंडा) तो हर समय मेरी आवभगत में ऐसा लगा रहता कि पिटाई का एहसास ही जाता रहा। उस दिन की याद तो शायद भाई भवान सिंह को भी होगी जब संयोग से मैं अपने एक साथी को छू बैठा था। उसने गुस्से में आव देखा न ताव और अपना बस्ता जमीन पर पटक डाला। कहने लगा कि मैंने जानबूझकर उसे छुआ ताकि भिड़ने (अस्पृश्य के छूने) के कारण मैं अपना नाश्ता उसके हवाले कर दूं। नाश्ते की रोटियां तो भला मुझे क्या मिलतीं, वे तो कुत्ते के हवाले हो गईं। उफपर से गुरु जी ने कसकर मेरी जो मरम्मत की वह मुझे अभी तक याद है। छुट्टी होने पर जब हम घरों की ओर चले तो मेरे अपने ही सहपाठियों ने मुझे पटककर दबोच लिया। एक ने मेरे हाथ पकड़े, दूसरे ने पांव और तीसरे ने गला इस तरह दबाया कि मैं अपना मुंह खोलने पर मजबूर हो जाउफं। चौथा रास्ते की किनारे पड़ी गीली विष्ठा में लकड़ी डुबोकर लाया और मेरे मुंह में ठूँसने लगा। मैं पूरी ताकत से ऐसा उछला कि हाथ पकड़ने वाले और गला दबाने वाले दोनों की पकड़ ढीली पड़ गई। फ़िर भी वे गीली विष्ठा नाक के नीचे और उफपरी होंठ तक तो ले ही आए, हां मुंह में नहीं ठूँस पाए। मल की दुर्गंध् से कै करते-करते मेरी तो जान ही निकल गई थी। मेरी दशा देखकर वे सब भाग खड़े हुए। अभी दो साल पहले की बात है मैं अपने ही गांव की एक बारात में शामिल हुआ था। फाड़ (घर से बाहर सामूहिक भोजन स्थल) से ठाकुर-ब्राह्मण खाना खाकर उठ चुके थे। हम सबको खाने के लिए पुकारा गया। मैंने देखा कि पफाड़ में जो कुछ बचा-खुचा जूठन पड़ा था, उस पर कुत्ते मुंह मारकर भाग रहे थे। मैंने जूठन लेने से इंकार क्या किया कि अपने ही गांव के दो ठाकुर आगबबूला हो गए। वे गला दबाकर मेरे मुंह में भात का एक बड़ा-सा कौर लाठी से ठूँसने लगे। मेरे अपने लोग इतने डर गए कि एक ओर दुबककर रह गए। वह तो भला हो थोकदार जी और पट्टी-पटवारी जी का जो मैं उस दिन बच गया अन्यथा दम घुटने से ऊपर ही पहुंच गया होता। खैर, मेरे साथ जो हुआ सो हुआ भगवान करे ऐसा आगे और किसी के साथ न हो। वैसे इस कड़वे सच को निगल पाना बहुत कठिन है लेकिन देश और समाज का हित इसी में है कि इस तरह का व्यवहार भविष्य में अतीत का विषय बनकर रह जाए। वेद-लवेद की बात हम नहीं जानते! जानते भी कैसे, जब सुनने तक की मनाही थी। लोग तरह-तरह की व्याख्या देकर अपना पक्ष सामने रखते हैं। कहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था की पीछे कार्य-विभाजन का सिद्धांत है। हो सकता है वर्ण-व्यवस्था के पीछे यही भावना रही हो। लेकिन आगे क्या हो गया, यह सभी के सामने है। वर्ण-व्यवस्था वंशानुगत तो हो गई लेकिन क्या चारों वर्ण आज अपने दायरे के भीतर हैं? कहना न होगा कि इसकी सबसे बुरी मार हम पर ही पड़ी है। जमीन-जायदाद से तो हमें महरफम रखा ही गया था, आज हमारे पुश्तैनी पेशे भी हमसे छिनते जा रहे हैं। जो धंधे और शिल्प हमारे लिए निर्धरित थे, वे सब सवर्णों के हाथ में खिसकते जा रहे हैं। यहां पर हमारे आचरण, खान-पान, नर-नारी संबंध्, रूप-रंग और शकल-सूरत पर भी टिप्पणी की गई है। इनमें से हर मुद्दे पर बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन समय की कमी है। इसलिए केवल दो मुद्दों पर ही कुछ कहना चाहूंगा। जहां तक हमारे समाज में नर-नारी संबंधें का सवाल है, उसके लिए टिप्पणीकार अगर अपनी ओर ही देखने का कष्ट करें तो बेहतर होगा। हमारी बहू-बेटियों को अपनी अतिरिक्त वासना-पूर्ति का साध्न समझने वाले उफपर से हमें ही दोष दें तो क्या कहा जाए। जहां तक रूप-रंग और शकल-सूरत का प्रश्न है क्या उसी रूप-रंग और शकल-सूरत के लोग आप लोगों में नहीं हैं? मुझे ही देखिए। क्या रूप-रंग और नाक-नक्शे में मैं भाई भवान सिंह जैसा ही नहीं लगता? वही गोरा रंग, वही चोड़ा माथा, वही उभरी-सी नाक। वे थोकदार कुल के दीपक हैं लेकिन मैं।"
वह आगे कुछ कहता कि मंच से अध्यक्ष थोकदार जी ने पफटकार लगाई- "बहुत हो गया रे केसी! अपना थोबड़ा बंद रख। चला है अपनी बराबरी हमसे करने।"
उनकी यह पफटकार विरोधियों को इशारा कर गई। चार आदमी मंच पर चढ़ आए और केसी को धकियाने लगे।
एक ने कहा- "दो जमात क्या पढ़ गया, खुद को अपफलातून की औलाद समझने लगा।" दूसरे ने कहा- "एहसान पफरामोश कहीं का। थोकदार जी का खाया, उन्हीं की कृपा से तालीम हासिल की और अब उन्हीं की बराबरी पर उतर आया।"
तीसरे ने कहा- "बदजात की जीभ बहुत लंबी हो गई है। काटकर फेंक दो।"
चौथे ने ऐसा धक्का दिया कि केसी मंच से नीचे गिरकर एक नुकीले पत्थर से जा टकराया। उसकी कनपटी से खून बहने लगा। सभा में ऐसी अपफरा-तपफरी मची कि एक किनारे बैठी केसी की मां खुद को रोक नहीं पाई।

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वह अभी तक चुपचाप बैठी अपने पिछले जीवन की याद में खोई थी। उसने उन मां-बाप के घर जन्म लिया था जो गांव-गांव नाच-गाकर जीविका कमाते थे। ब्याह-शादियों में उनकी मांग होती और थोड़ी-बहुत अतिरिक्त कमाई भी हो जाती। मां परुली की कदकाठी बड़ी आकर्षक थी। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पेट का सवाल था। नन्हीं-सी जान को लेकर गांव-गांव जाना ही पड़ता था। बेटी कुछ बड़ी हुई, थोड़ा-बहुत सीखने-समझने की उम्र हुई तो उसके कानों में सबसे पहले "समन्या साब! समन्या ठाकुरो!" के संबोधन ही पड़े। मां-बाप जहां भी जाते, जिसके भी संपर्क में आते "समन्या साब, समन्या ठाकुरो" कहकर अभिवादन करते और बदले में "जी रै" (जिंदा रह) का आशीर्वाद पाते। मां-बाप ने नाम रखा दीपा। बढ़ती उम्र के साथ वह रूप-रंग और नाक-नक्शे में मां से भी दो हाथ आगे निकल गई। सौंदर्य की ऐसी दीपशिखा कि जिसके उजास के आगे कुरूपता का अंधकार कहीं टिक नहीं पाता। उसने भी जब नाच-गान में अपनी मां का साथ देना शुरू किया तो लोग परवानों की तरह मंडराने लगे। इसी बीच मां को न जाने क्या हुआ कि वह दिनों-दिन मुर्झाने लगी। फलत: उसकी जगह बेटी को लेनी ही पड़ी। लेकिन मां नहीं चाहती थी कि जो कुछ उसके साथ हुआ, उसी की शिकार उसकी बेटी भी बने। मां-बाप ने बहुत प्रयास किया लेकिन कहीं किसी खूंटे से बांध्ने की सूरत नजर नहीं आई।
बरसों पहले की बात है, वे थोकदार जी के आंगन में ही अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। थोकदार जी अपने कुलपुरोहित के साथ बातों में मशगूल थे कि दीपा पर नजर पड़ी तो मूंछों को ताव दे बैठे और पुरोहित से बोले- "पंडितजी, ऐसी खूबसूरती तो आज पहली बार देखी।"
पंडित जी ने जवाब दिया- "सच कहते हैं ठाकुर साहब! नारी रत्न है यह तो। कामसूत्रा के अनुसार पद्मिनी, चित्रणी, शंखिनी और हस्तिनी ये चार प्रकार की नारियां होती हैं। पद्मिनी इनमें श्रेष्ठ मानी गई है और यह तो सचमुच पद्मिनी लगती है। ऊपर वाले को भी न जाने क्या सूझी कि हुड़क्यूं (हुड़का वादकों) के घर ऐसा रत्न पैदा कर दिया।" थोकदार जी के कान तो पुरोहित की ओर थे लेकिन निगाह अल्हड़ किशोरी दीपा की ओर। पुरोहित ने थोकदार जी के भीतर उठे तूफान को भांपकर बात आगे बढ़ाई, बोला- "सुन रहे हो थोकदार जी! शास्त्रों की बहुत-सी मान्यताएं आज स्वीकार नहीं की जातीं। कलयुग है न! मनु महाराज ने तो ब्राह्मण को चारों वर्णों और क्षत्रिय को शेष तीनों वर्णों से वैवाहिक संबंध् स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया था। लेकिन आज इसे कोई नहीं मानता, हां! अमान्य तरीकों से संबंध् आज भी बनते-बिगड़ते हैं। कुछ दिन शोर मचता है और पिफर सबकुछ भुला दिया जाता है।"
थोकदार जी समझ गए कि पंडितजी किस ओर इशारा कर रहे हैं। इस बीच नाच-गाना समाप्त हो चुका था। थकी-मांदी मां-बेटी भी सुस्ताने लगी थीं। हुड़का भी शांत हो चुका था। थोकदार जी ने खा जाने वाली नजर से दीपा की ओर देखा। मन-ही-मन कुछ निर्णय लिया और भीतर की ओर लपक लिए। कुछ ही पलों में वे बाहर आए तो उनके हाथों में मां-बाप और बेटी के लिए नए-नए कपड़े थे। पीछे से सेवक लूथी पसेरी भर बढ़िया चावल भी उनकी टोकरी में उड़ेल गया। वे निहाल हो गए। मां ने कहा- "जुगराज रयां ठाकुरो! (ठाकुरो युगों तक राज करते रहो) भगवान करे आपके रुतबे और भंडार में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो।" तीनों ने पफर्शी सलाम किया। कपड़े टोकरी में रखे और आंगन से नीचे रास्ते पर चले आए। पंडित जी काम के बहाने एक ओर खिसक लिए और थोकदार जी मां-बाप के आगे-आगे जाती अल्हड़ दीपा की ओर निहारते रहे।
गांव की सीमा से आगे जंगल पड़ता था। एक मोड़ पर पहुंचे ही थे कि झाड़ियों की आड़ से चार जवान सामने कूद पड़े। वे दीपा को जबरन खींचकर ले जाने लगे। इस अप्रत्याशित घटना से मां-बाप बुरी तरह घबरा गए, मदद के लिए चिल्लाए तो दो जवान उन्हीं पर पिल पड़े। दीपा ने शेष दो की पकड़ से छूटने का भरपूर प्रयास किया। बस नहीं चला तो एक के हाथ पर दांत गड़ा दिए। पकड़ ढीली पड़ते ही वह गांव की ओर भागी और इतनी जोर से चिल्लाई कि उसकी चीख दूर-दूर तक सुनाई दी। पिफर से पकड़ी जाती कि अचानक थोकदार जी सामने आकर गरज उठे- "ये क्या हो रहा है? कौन हो तुम? एक अकेली लड़की को छेड़ते शरम नहीं आती, नामुरादो!" थोकदार जी को देखते ही चारों हमलावर भाग खड़े हुए। दीपा रुलाई रोककर एक पेड़ की ओट में सिसकियां भरने लगी।
थोकदार जी ने पास आकर सांत्वना दी- "दीपा रो मत! मैं आ गया हूं ना, देखता हूं कौन तुमसे बदसलूकी करने की हिम्मत करता है।"
हादसे से बुरी तरह हिले मां-बाप की तो सोच ही कुंद पड़ गई थी। बेटी की सुरक्षा की समस्या मुंह बाए खड़ी थी। गुजारे के लिए लोगों का मनोरंजन करना तो उनकी पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा थी और इसके लिए गांव-गांव की खाक छानते पिफरना उनकी मजबूरी थी। बेटी को अकेली घर पर छोड़ना भी खतरे से खाली नहीं था। साथ लेते चलें तो आज का सा हादसा पिफर से न हो इसकी की भी कोई गारंटी नहीं थी। बेटी को लेकर मां-बाप के दिमाग में क्या कुछ चल रहा है इसका अनुमान लगाकर थोकदार जी बोले- "देखो, हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलाद किसी संकट में न पड़े। बेटी को लेकर इस तरह की चिंता तो और भी स्वाभाविक है। तुम लोग जिस उधेड़बुन में हो मैं उसे महसूस कर रहा हूं। उससे बाहर निकलने का एक रास्ता है मेरे पास।"
बाप ने कहा- "क्या उपाय है ठाकुर साहब? हमें तो कुछ नहीं सूझ रहा?"
मां ने कहा- "माई बाप! जल्दी बताएं मैं नहीं चाहती कि जो कुछ मैंने भोगा है, वही दीपा को भी भोगना पड़े।"
थोकदार जी कुछ गंभीरता ओढ़कर बोले- "देखो मेरी बात को अन्यथा न लेना। यहां आस-पास के गांवों में मेरी इतनी जमीन पड़ी है कि संभालना मुश्किल है। खायकर और सिरत्वान जितनी चाहें कमा-खाते हैं लेकिन कुछ अभी भी बंजर पड़ी है। अगर चाहो तो मैं कमा-खाने के लिए कहीं भी जमीन दे सकता हूं। लेकिन मैं चाहूंगा कि यहां इसी गांव में मेरे पास ही रहो तो बेहतर है।" इस पर पिता ने कहा- "सो तो ठीक ठाकुर जी। लेकिन हमारा खेती-पाती से कभी कोई ताल्लुक तो रहा नहीं। गाने-बजाने के अलावा हमें आता ही क्या है?"
"इसकी चिंता न करें खेती तो वही करेंगे जो आज तक करते आए हैं। मैं यहां अपने पास रहने के लिए इसलिए कह रहा हूं कि आज का सा हादसा फ़िर कभी न हो। मेरे सरंक्षण में रहने से लपफंगों की बुरी नजर से दीपा बची रहेगी। आप चाहें तो उसे मेरे पास छोड़कर अपनी परंपरा निभाते रहें। वैसे यहां अनेक अधिकारी सरकारी काम से आते रहते हैं, मेरी समझ से उनका मनोरंजन ही काफी रहेगा। तुम लोगों को गांव-गांव भटकने से भी मुक्ति मिल जाएगी।" थोकदार जी बोले।
"धन्य भाग हमारे, जो हमारी खातिर आप इतना सोचते हैं। लेकिन दीपा को आपके सरंक्षण में छोड़ दें, बात अटपटी लगती है। दुनियां क्या कहेगी?" पिता ने आशंका जताई।
"अरे! तुम भी न जाने क्या सोच बैठे। सरंक्षण से मतलब केवल सरंक्षण और कुछ नहीं। मेरी देख-रेख में रहेगी तो कोई आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाएगा। तुमने लूथी को तो देखा ही है। तुम्हारी ही बिरादरी का है। पांच-छह साल का था जब अनाथ हो गया। तब से हमारी सेवा में है। तुम चाहो तो उसके साथ दीपा के हाथ पीले कर सकते हो।" थोकदार जी ने शंका मिटाने के लिए सुझाव रखा।
"शादी के बाद अगर उसने भी अपनी परंपरा निभाने की सोची तो क्या होगा? जो कुछ मैंने झेला है, क्या वही दीपा को भी झेलना पड़ेगा?" दीपा की मां ने कहा।
"नहीं तो। अरे, हमारी देख-रेख में पले लूथी को न नाचना-गाना आता है और न बजाना। हां, हल जरूर चला लेता है और खेती-पाती के दूसरे काम भी बखूबी कर लेता है। दीपा तो उसके साथ यहीं बनी रहेगी।" थोकदार जी ने समझाया।
बाप की शंका तो निर्मूल नहीं हो पाई लेकिन मां ने सोचा कि दुनियां भर की नजरों से बचाने का एक यही रास्ता है। ठाकुर साहब की नजर में अगर खोट भी हो तो भी क्या हर्ज है? इधर-उधर मुंह मारने वाले कामियों से तो बची रहेगी। जो रोग मुझे लग गया है उससे तो बची रहेगी। यही सब सोचकर वह ऐसी अड़ी कि बाप की एक न चल पाई। दीपा की शादी लूथी से हो गई। शादी का पूरा खर्च थोकदारजी ने ही उठाया।
शादी के बाद दीपा ने पाया कि थोकदन (थोकदार की पत्नी) किसी बीमारी के कारण इतनी कमजोर हो गई थी कि उससे अपनी औलाद भी नहीं संभल पाती थी। दीपा को ही दो साल के भवान सिंह और उसकी दूध पीती बहन को संभालना पड़ा। उसे याद आया कि किस तरह उसके मां-बाप गुप्त-रोग के चलते एक दिन दुनियां छोड़ गए और उसे थोकदार जी की जरखरीद रखैल की तरह जीना पड़ा। उसे अपनी वह सुहागरात भी याद आई जब लूथी की जगह थोकदार जी ने उसे अपने आगोश में भर लिया था। लूथी को उसी दिन कहीं दूर बाजार से कुछ सामान खरीद लाने भेज दिया गया था, जहां से वह तीन-चार दिन बाद ही लौट पाता। उसके लौट आने तक तो सबकुछ हो गया। उसने हाथ-पैर जोड़े लेकिन थोकदार जी नहीं पसीजे। ऊपर से धमकी दे बैठे कि अगर वह नहीं मानी तो उस दिन के हादसे से भी कहीं और बुरा घट सकता है। पिफर कहने लगे- "अरी! अपना सौभाग्य मान जो इलाके का थोकदार तुझसे प्रणय की भीख मांग रहा है।" फ़िर कहने लगे कि वह जिंदगी भर उसका और उसके बीमार मां-बाप का भार उठाने को तैयार हैं। अगर हाथ खींच लिए तो वह जाने। दीपा ने अपनी और अपने मां-बाप की बेबसी समझी और छटपटा कर रह गई। पति के लौटने पर उसने रो-रोकर उसे अपने साथ हुए बर्ताव की जानकारी दी। लेकिन लूथी में पहले तो प्रतिक्रिया ही नहीं हुई और पिफर हंसा तो हंसता ही चला गया। दीपा को लगा कि उसमें शायद मर्दानगी ही नहीं है। थोकदार को शायद पहले से पता था और इसीलिए उससे शादी का प्रपंच रचा गया। सदमा तो बहुत बड़ा था परंतु भाग्य का लिखा मानकर दीपा थोकदार जी के हाथों का खिलौना बनकर रह गई। लूथी तो केवल नाम का पति था।

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इधर बेटे की कनपटी से खून रिसता देखकर वह आवेश में आकर मंच की तरपफ दौड़ पड़ी। जिन्होंने केसी को घोर रखा था, एक अधेड़ औरत को अपनी ओर झपटते देखकर सहम गए। उनमें से जिसने जूता हाथ में निकालकर केसी को जुतियाना चाहा था उसका हाथ उठा का उठा ही रह गया। अचकचाए सभा संचालक ने दीपा को रोकना चाहा और बोले- "बहन जी, आप मंच से हट जाएं तो अच्छा है। हम सब ठीक कर लेंगे।"
इस पर दीपा आदतन बोल पड़ी- "समन्या ठाकुरो! मेरा बेटा पिट रहा है और आप कहते हैं कि मैं मंच से हट जाऊं। जरा, इन थोकदार जी से तो पूछो कि वह कौन है? जिसको वह थोबड़ा बंद करने को कह रहे हैं। वह ऐसे क्यों तिलमिला उठे? अगर वह अपने नाक-नक्शे का मिलान भवान सिंह से कर बैठा तो क्या गलत कर बैठा। आखिर दोनों की रगों में खून तो एक ही है।" यह सुनना था कि सभा में सनसनी पफैल गई। यह पहला अवसर था जब एक औरत सभा में खड़ी होकर मर्दों से सवाल-जवाब कर रही थी। थोकदार जी को काटो तो खून नहीं। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। पहली बार पगड़ी ऐसी उछली कि मंच से उतरकर भागते नजर आए। किसी ने पीछे से व्यंग्य किया- "वाह थोकदार जी! आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले।" बाप की इस तरह किरकिरी होते देख भवान सिंह खड़ा का खड़ा रह गया। बोलती जैसे बंद हो गई। कुछ ही पलों में सभा-स्थल पर सन्नाटा पसर गया।