Friday, November 14, 2008

जारी रहे पहल (सम्मान)

पहल बंद होने के कगार पर है- यह खबर है। कई ब्लागों में छपी सूचनाएं, जनसत्ता में कवि अशोक वाजपेयी का कॉलम और गाहे बगाहे सुनी जा रही खबरें चिन्तित करने वाली हैं। इसीलिए उन पर यकीन भी नहीं होता। यकीन करना भी नहीं चाहते। पहल आज हिन्दी की एक ऐसी केन्द्रीय पत्रिका है जिसे जनपक्षधर साहित्य का स्कूल भी कहा जा सकता है। उसमें छपे की विश्वसनीयता है। पहल से धुर असहमति रखने वाले भी इससे अलग राय नहींरख पाते हैं। आज पत्रिकाएं तो बहुत निकल रही हैं पर पहल की जो भूमिका है उसको स्थानापन करने की सार्म्थय अभी तो किसी में नहीं है। पहल ने जन पक्षधरता के सवाल को जिस तरह से प्राथमिकता पर रखा है उससे इस हल्लातारु दौर में भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं पर एक लगाम लगती रही है। प्रतिबद्धता की इस मुहिम के जारी रहने की खबर फिर कैसे हिन्दी के पाठकों की चिन्ता का विषय होगी। पहल-90 जो ताजा-ताजा छपा है, में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के आलेख "ठुमरी के नैहर में बनारस की मैना " के अंत में छपी टिप्पणी "--- धारावाहिक आगे भी जारी रहेगा ।" हमारे इस यकीन को पक्का करता है कि पहल का प्रकाशन सतत जारी रहेगा और उसे रहना भी चाहिए।

इस उम्मीद को कायम रखते हुए ही पहल सम्मान 2000 के सम्मानित कथाकार
विद्यासागर नौटियाल जी द्वारा सम्मान के वक्त प्रस्तुत उनका आत्मकथ्य, प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है। वारणसी से निकलने वाली पत्रिका आर्यकल्प ने उन पर विशेषांक निकाला है। हम भी अपने प्रिय ऊर्जावान और बुजुर्ग-युवा कथाकार को शुभकानाएं देते हैं। इस अवसर पर उनकी अन्य रचनाएं भी सिल-सिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। यह उसकी पहली कड़ी है।

दसवें ' पहल " सम्मान के अवसर पर 4 जून, 2000 को देहरादून के टाउन हॉल में विद्यासागर नौटियाल द्वारा दिया गया वक्तव्य

सभागार में उपस्थित सम्बन्धियों मित्रों, परिचितों, साहित्यप्रेमियों , रचनाधर्मियों और साथियों से घिरा होने पर मेरी नज़रें एक मेहतरानी की सूरत तलाशने लगी हैं । यह सुनि्श्चित हो चुका है कि इस वक्त वह हमारे बीच नहीं । भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद केन्द्र और प्रान्त की सरकारों से सीधी टर लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत हो जाना पड़ा था । हमारा शिकार करने को घूम रहे मुस्तैद पुलिसकर्मियों की सतर्क निगाहों से बचते हुए इस शहर की एक छोटी-सी झोंपड़ी के अन्दर बारी-बारी से कभी दूसरे, कभी तीसरे दिन पहुँचकर हम एक या दो साथी बहुत बेताबी से उस मेहतरानी का उस घर के अन्दर लौटने का इन्तज़ार करने लगते थे । अपने आँचल के नीचे एक थाली को छुपाती हुई वह घर के अंदर पाँव धरती तो हमारे चेहरे खिल उठते । उसकी थाली में विभिन्न घरों से, जहाँ-जहाँ वह काम करती होगी,माँग-माँग कर लाई गई इस शहर की जूठन होती । अपने भूखे बच्चों को खिलाने से पहले वह उस थाली के मिश्रित पदार्थ हमें परोस देती थी । गुरदयालसिंह बताते हैं कि गुरूद्वारे में अमृत छकने के बाद सिख कोई अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करता । भूमिगत ज़िन्दगी में उस अमृत का पान करने के बाद मैने आजीवन अपने को उस वर्ग के साथ एकाकार करके रखने की चेष्ठा की । दुनिया का कोई प्रलोभन मुझे विचलित नहीं कर पाया । पूँजीवादी समाज के कुल पदार्थ बेस्वाद लगते रहे । सोच रहा हूँ कि इस मौके पर कहीं से वह मेहतरानी माँ, हमारी वह कामरेड भी इस सभागार में आ लगती तो उसके आल्हाद के तापमान को माप करने लायक कोई यंत्र क्या वैज्ञानिक ईजाद कर पाते ?
राजगुरू कुल में जन्मे पिता नारायणदा नौटियाल वन विभाग के अधिकारी थे । मेरा बचपन रियासत टिहरी-गढ़वाल के उन भयानक,घनघोर जंगलों में बीता जहाँ शायद अब अकेले जाने का मैं साहस न कर सकूँ । यद्यपि उन वनों का अधिकांश माफिया की हव्श के शिकार हो चुके है। । उस ज़माने में उस वन-प्रदे्श में रहते हुए मुझे इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि रोग-बीमारियों का उपचार करने के लिए रीछ के कलेजे के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । उसे हम रिखतिता कहते थे । ज्वर-बुखार से लेकर चोट वगैरह लगने या छाती-पेट-बदन आदि में दर्द उठने,कैसा भी दर्द उठने,की दवा मेरी जानकारी में रिखतिता होती थी । हमारे ज्ञान में दवा का अर्थ रिखतिता होता था । अपने बचपन में मैने कितनी मात्रा रिखतिता की हज़म की इसका कोई हिसाब नहीं दिया जा सकता । रीछ की एक विशेषता यह होती है कि गोली लगने पर,घायल होने पर वह रूकता नहीं,आगे बढ़ता जाता है । रास्ते में मिलने वाले वृक्षों और झाड़ी-गाछ से पो दंदोड़ कर वह अपने घावों को भरता जाता है और बढ़ता जाता है। रिखतिते की अचूक शक्ति की सहायता से अपने बचपन के कुल रोगों से लड़ते रहने के कारण मेरे अन्दर रीछ का वही स्वभाव भर गया । जीवन और साहित्य में हमलों से विचलित हुए बगैर मैं अपने लक्ष्य की ओर लगातार अग्रसर रहा ।

मामा बिशु भट्ट साबली गाँव के बेहद गरीब आदमी थे। एक बार हमसे भेंट करने शिमला पहाड़ियों के मिलान पर टिहरी-गढ़वाल रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र बंगाण पट्टी के कसेडी रेंज मुख्यालय पर आए । उनको कुछ रोज़गार की ज़रूरत थी । पिता ने बड़े पाजूधार में जमा लकड़ी के स्लीपरों को छोटे पाजूधार तक ढुलान करने का काम सौंप दिया । पिता के लम्बे दौरे पर जाते ही मेरी माँ ने मुझे भी उस काम में जोत दिया इस सख्त व गोपनीय हिदायत के साथ कि इस बारे में किसी भी तरह पिता को पता नहीं लगना चाहिए । मामा के अलावा स्लीपरों के उन चट्टों के ढुलान की जुम्मेदारी मेरे कमज़ोर कंधों पर भी आ पड़ी । किसी अन्य बालक के साथ मैं भी बारह फुट्टे स्लीपरों के ढुलान में जुट गया । लम्बे दौरे के बाद पिता के घर लौटने से पहले ही ढुलान का काम पूरा कर लिया गया था । मजूरी के भगतान के वक्त मामा को लगा कि शायद हिसाब में कुछ गड़बड़ी हो गई है । पहाड़ी लोग दिन के वक्त सिर्फ भात खाते हैं । भात चौके के अन्दर खाया जाता था । बच्चों का वहाँ प्रवेश वर्जित होता । मामा पिता के एकदम पास,चौके के अन्दर बैठे थे । माँ ने धीमे स्वर में मामा की मजूरी का प्रसंग छेड़ दिया । पिता ने अदा की गई मजूरी को सही बताया । बेहद दबी जुबान में मामा ने भी कुछ निवेदन किया । पिता ने खाते-खाते वहीं चौके के अंदर क्रोधावेश में उलटे हाथ से उन्हें एक धौल मार दी । उस घटनाक को मैं आजीवन बिसार नहीं पाया । उसके स्मरण से मुझे अपनी जड़ों का खय़ाल आ जाता है और मैं अपनी औकात पर पहुँच जाता हूँ । जीवन में अनेक ऐसे मुकाम आए जब अंतिम निर्णय लेने से पूर्व मैने नौ बरस के उस विद्यासागर की याद की जो पाजूधार के वन में ऊँची-नीची राहों पर बारह फुट्टे स्लीपरों का ढुलान कर रहा था कि उसके दरिद्र मामा को दो पैसे ज़्यादा मिल सकें ।

पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है । पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है । सूरज,नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग । ये सब शक्ति देते हैं । उच्च शिखरों पर बुग्यालों की रंगीन कालीन के ऊपर बैठ कर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करते लगते हैं । लेकिन इन पहाड़ों में मानव जीवन विकट है । याद रखा जाना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे । कुछ लोग, मात्र कुछ लोग, इसे सुगम बनाने के लिए अपने को कुर्बान कर रहे हैं । मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया । इसे छोड़ कर कहीं भाग जाने की बात नहीं सोची । अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अन्दर घिरा रहा । टिहरी से बाहर नहीं निकला । निकलूँगा भी नहीं ।
वन अधिकारी के घर जन्म लिया । जब तक छोटा रहा पिता व परिवार के साथ दूरियाँ तय करनेके लिए मुझे बोझा ढोनेवाले बेगारियों की पीठ पर ढोए जा रहे माल-असबाब के ऊपर धर दिया जाता । तब बेगार के ऊपर, उनकी पीठ पर बैठकर मैं यात्राएँ करता रहा । अब वे भारवाहक मुझे अपने सर के ऊपर बैठे मालूम होते हैं । पीठ पर ढोने के बजाय सर पर ढोना बहुत कठिन होता है । उनके उस भार को अपने सर से उतार नहीं पाता । जिन्होंने एक-दो दिन कभी मुझे अपनी पीठ पर ढोया वे आजीवन मेरे सर पर सवार मालूम हो गए लगते हैं । उनके उस जीवन की व्यथा का बयान करने की कोशिश करता रहता हूँ ।
अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ । साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, कहीं ऊपर पहुँचने-चढ़ने की कोई अस्थायी सीढ़ी नहीं, ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है । लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज के तौर पर अंजाम देता हूँ । किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की सिफारिश पर नहीं लिखता । जो मन में आए वह लिखता हूँ । सिर्फ वही लिखता हूँ ।
कोई भी मनुष्य नितान्त अकेला नहीं जी सकता । किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियाँ पूरे समाज की उपलब्धियाँ होती हैं । बचपन से उसके निर्माण में असंख्य लोगों का
योगदान रहता है । इस दुनिया का हर कार्य अनगिनत लोगों के सामूहिक श्रम का प्रतिफल होता है । 'सूरज सबका है" में मैने इस तथ्य को, समाज की सामूहिकता के प्रश्न को भी, रेखांकित करने का प्रयास किया है । 'भीम अकेला " में भी यह बात और खुल कर सामने आती है जहाँ एक पीढ़ी के बजाय, हमारे इतिहास में विचरण करते हुए अनेक लोग समान रूप से कार्यरत दिखाई देते हैं ।
अपनी कहानियों में मैं मामूली लोगों पर होनेवाले सामंती अत्याचार के विरोध में अपने को खड़ा पाता हूँ । जहाँ मेरे पात्र कोई प्रतिरोध नहीं कर पाते, मेरी मंशा रहती है कि उस स्थिति को देखकर पाठक के मन में प्रतिरोध की भावना जागृत हो । अक्सर वे अत्याचार हमारी सामाजिक व्यवस्था की उपज के रूप में दिखाई देते हैं । तब मात्र सत्तासीन कुछ व्यक्तियों को बदलने के बजाय पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना पाठक को एकमात्र विकल्प प्रतीत होने लगे ऐसी मेरी कोशिश रहती है । ' खच्चर फगणू नहीं होते " तथा ' उमर कैद " जैसी अनेक कहानियों में मैने यही प्रयास किया है । सामाजिक व्यवस्था का बदलाव अकेले व्यक्तियों के द्वारा, चाहे वे कितने ही महाबली हों, किया जाना संभव नहीं । ' फट जा पंचधार " में अपनी सदिच्छा और कोशिशों के बावजूद सवर्णों के कसे हुए जाल में फँसा हुआ वीरसिंह पराजित हो जाता है और रक्खी सड़क पर आ जाती है । यह अकेले वीरसिंह की नहीं, उस समाज में जी रहे कुल नौजवानों की पराजय है । ' भैंस का कट्या " में गबलू व उसके माता-पिता की मज़बूरियाँ पाठक के दिमाग में स्पष्ट हो उठती हैं, जब एक जानवर गज्जू के प्रति उनके दृष्टिकोणों के अन्तर गायब हो जाते हैं और वे सब उसकी मौत पर एक समान पीड़ा का अनुभव करने लगते हैं ।
अपना लेखन कार्य करते वक्त मुझे लगता है इस कार्य को मैं अकेले नहीं कर रहा हूँ, मेरे कुल पात्र मेरे साथ हैं जो अपनी कहानी मुझसे लिखवा रहे हैं और यह एक मिली-जुली प्रक्रिया है। अनेक पात्रों को मैं वर्षों तक अपने अन्दर जीता आया हूँ । अपनी अब तक की रचनाओं के लेखन से मेरे अन्दर एक आत्मविश्वास पैदा हुआ । भविष्य में मैं नए विषयों पर लिखना चाहता हूँ । सन् 1930 में टिहरी रियासत के बागी किसानों की ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड में अमर भूमिका पर अब लिखना शुरू किया है जिसका एक अंश ' वसुधा " ने ' यमुना के बागी बेटे " शीर्षक से प्रकाशित किया ।
सभागार में उपस्थित मित्रों तथा भारत के कोन-कोने से देहरादून तक पहुँचने वाले साहित्यकारों के अहसान से मुझे शेष जीवन में शक्ति मिलती रहेगी

विद्यासागर नौटियाल
nautiyalvs@yahoo.com

2 comments:

Girish Kumar Billore said...

विजय गौर जी
सादर अभिवादन
आपका आलेख पढा यकीन तो हमको भी न था किंतु सही यही है कि
पहल अब प्रकाशित नहीं होगी . खुद ज्ञान जी से मेरी विस्तार से बात
चीत हुई है. अब कोई भी कयास न लगाएं जाने चाहिए रारी पहल सम्मान की बात
तो इस सम्बन्ध में अभी तक ज्ञान जी ने कुछ नहीं कहा है
सादर
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
जबलपुर

डॉ .अनुराग said...

agar sach hai to dukhad hai.