Thursday, December 24, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-2

पिछले से जारी


मनाली में सैलानी गायब हैं इस समय। इसलिए ज्यादातर होटल और दुकानदार खाली हैं। कुछ दुकानें तो बेवजह खोले जाने से बचते हुए बन्द ही हैं। बस स्टैंड पर ही ट्रैकिंग टीमों की तलाश करते जांसकरी घोड़े वाले और फ्रीलांसर गाईड घूमते देखे जा सकते हैं। कुल्लू से कोठी तक की लम्बी पट्टी पर सेबों से पेड़ लदे पड़े हैं। हमारे लौटने तक शायद तुड़ान शुरू हो जाये। फिर सेब के व्यापारी ही मनाली वालों के लिए यात्री होगें। उसके बाद 15 अगस्त के आस पास शुरू होगा सैलानियों का आना जाना। जुलाई को छोड़ मई, जून और सितम्बर, अक्टूबर तक ही सैलानी पहुंचते हैं मनाली। जुलाई के महीने में तिब्बती बाजारों में कैरम बोर्ड या फिर ताश के पत्तों में उलझे रहते हैं दुकानदार। 15 जुलाई को शुरू हुई भारत पाकिस्तान वार्ता के प्रति किसी तरह की कोई उत्सुकता यहां मौजूद नहीं। ऐसे किसी भी विषय पर कोई लम्बी बातचीत करने वाला व्यक्ति मुझे नहीं मिला। हां ट्रैक के वि्षय में बात करनी हो तो ढ़ेरों ट्रैव्लिंग एजेन्ट हैं, एजेन्सियां हैं। तेन्जिंग नेगी जो कि एक ट्रैव्लिंग एजेन्ट है, लामायुरु का रहने वाला है, का मानना है कि '' लेह लद्दाख के लोगों को हिमाचल से मिलने में फायदा है। ट्यूरिज्म के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा सकता है। ''तांख'' से ''हमिश'' तक एक बेहतरीन ट्रैक रूट है। जो बरांडी नाला से शुरू किया जा सकता है। मार्का/मार्खा वैली में पड़ने वाले इस ट्रैक में हरापन भी देखने को मिल सकता है। उधर के पहाड़ जांसकर की तरह सूखे पहाड़ नहीं हैं।'' तेन्जिंग का कहना है। रोहतांग के बाद बारिश नहीं है। लाहुल वाले बोयी गयी मटर की फसल के लिए पानी का इंतजार कर रहे हैं। अगले रोज यहां से निकलेगें तो जान पाएंगे रोहतांग पार की असली स्थिति।

  रोहतांग पर नहीं है बर्फ। रोहतांग और मनाली के बीच मड़ी से ही शुरू हो गयी थी जगह-जगह बिखरे कचरे की गली। भारतीय सैलानी ज्यादा से ज्यादा मनाली, शिमला, नैनीताल, मसूरी तक ही पहुंचते हैं। कुछ हैं जो लेह तक भी हो आते हैं। यानि कुल मिलाकर ज्यादातर उन स्थानों पर देखे जा सकते हैं जहां बस से लेकर होटल तक की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो। बाकी दूर- दराज के जन-जीवन तक पहुंचने वाले कम ही हैं जो थोड़ा जोखिम उठाकर पहुंचते हैं। रोहतांग: लेह रोड़ पर पड़ने वाला पहला पास। पहला दर्रा। मनाली तक आने वालों की ऐशगाह भी है। जून के पहले सप्ताह के आस पास ही अक्सर रोहतांग खुल जाता है और लेह तक की यात्रायें शुरू हो पाती हैं। मनाली में आने वाले यात्री अक्सर रोहतांग तक पहुंचते ही हैं। कुछ देर बर्फ में लोटने के बाद लौट जाते मनाली। पेप्सी और कोकाकोला की बोतलों से लेकर टीन, रैफल के पैकट, नमकीन आदि के रेपर ही चमक रहे हैं इस वक्त। बर्फ नहीं है। व्यास गुफा भी साफ दिखायी दे रही है। सुनते हैं पांडवों के स्वर्गारोहण के समय द्रोपदी ने यही देह त्यागी थी। रोहतांग को मुर्दों का किला भी कहा जाता है। जब राहुल गुजरे थे यहां से, सड़क नहीं थी। कैसा कठिन रहा होगा यह मार्ग राहुल से ही जाना जा सकता है। रोहतांग के पार नहीं है बारिश। कोकसर से ही शुरू हो गये थे मटर के खेत जो पिघलते बर्फिले नालों के दम पर लह-लहा रहे हैं। रोहतांग से नीचे ग्राम्फू है जहां से बातल होकर चन्द्रताल को रास्ता जाता है। सुनते हैं चन्द्रताल तक जीप जाने लगी है। ग्राम्फू से बातल तक का बस मार्ग बन्द है। कोई नाला था जिसने तोड़ दिया है रास्ता। बातल जाने वाले यात्री कोकसर आकर रूक रहे हैं। चन्द्रताल खूबसूरत झील है, बताता है मेरा मित्र विमल। चन्द्रताल के दो विपरीत दिशाओं से निकलती है दो नदियां। एक ओर से चन्द्रा और दूसरी ओर से भागा। भागा दारचा से होती हुई केलांग से इधर तांबी में चन्द्रा से मिल रही है। यहां से चन्द्रभागा बढ़ती है पटन घाटी में --- यही चिनाब है।
    यहां लाहुल में नकदी फसल ही उगाते हैं लोग--- मटर और आलू से होने वाली आय से ही खरीदा जाता है अनाज। रोहतांग के बन्द होने पर कटे रहते हैं लाहुल वाले मनाली से। रोहतांग के नीचे यहां कोकसर से जिस्पा तक देखी जा सकती है हरियाली पहाड़ों की तलहटी पर। ऊपर के पहाड़ पत्थरीली भूरी मिट्टी के हैं और ऊपर है बर्फ। जिस्पा से लगभग सात किमी आगे दारचा है। जिस्पा और दारचा के बीच सूखे पहाड़ों का बहुत नजदीक खिसक आने का क्रम जैसे शुरू हो चुका है। यूं दारचा के आसपास हरियाली देखी जा सकती है। जांसकर घाटी में जाने वाले विदेशी यात्रियों की एक न एक टीम दारचा में हर दिन देखने को मिल सकती है, इन तीन महीनों में। छोटे-छोटे ढ़ाबे, शराब का ठेका, पुलिस चैक पोस्ट और घोड़े वालों को मिलाकर एक हलचल भरी दुनिया है दारचा में। दारचा बाजार के साथ होकर बहने वाली नदी पर दो पुल हैं। यूं पहला पुल आज की तारीख में अप्रासंगिक हो गया है नदी के बदले बहाव के कारण। 1997 में जब शिंगकुन ला को पार करते हुए जा रहे थे जांसकर में, दारचा में ही रूकना हुआ था। नदी का बहाव उस वक्त आज जहां है वहां से थोड़ा दक्षिण दिच्चा की ओर था। नदी के उत्तर दिच्चा पर हमने टैन्ट लगाया था। तब हम आठ लोग थे। अभी पांच हैं। अनिल काला और अमर सिंह इस बार पहली बार जा रहे हैं। मैं, विमल और सतीश पहले दूसरे साथियों के साथ भी जा चुके हैं जांसकर। यही वजह है कि हम तीन और हमारे बाकी के दोनों साथियों की कल्पना जांसकर के बारे में मेल नहीं खा रही है। पहाड़ हो और जंगल न हो, वनस्पति न हो, सिर्फ पत्थर और मिट्टी बिखरी पड़ी हो, हमारे द्वारा दिखायी जा रही जांसकर से लेकर लेह लद्दाख तक की इस तस्वीर से सहमत नहीं हो पा रहे हैं हमारे साथी। फिर भी रोहतांग के बाद से यहां तक के पहाड़ों ने उनकी कल्पनाओं के पहाड़ो को तोड़ना शुरू किया है। उस वक्त दारचा में इतनी दुकानें नहीं थी। शराब का ठेका तो था ही नहीं। ''अपना ढाबा"" जिसमें रुके हुए हैं, तब भी था पर तब उसका नामकरण न हुआ था। वही एक मात्र था तब। आज तो दो एक और भी खुल गए हैं। अब टैन्ट लगाने के लिए जगह बची नहीं है। नदी के उत्तर में जो थोड़ी सी जगह है वहां पर एक विदेशी सैलानियों की टीम टैन्ट गाड़े बैठी है। दुकानों के पीछे, नदी के किनारे किनारे की जगह टैन्ट कालोनी से घिरी हुई है। थोड़ी सी खाली जगह पर जांसकरी घोड़े वालों के टैन्ट लगे हैं- सैलानियों की इंतजार में है वे।  97 में इस तरह सैलानियों का इंतजार करते नहीं मिले थे जांसकरी।

कुल्लू-रारिक पहुंचने वाली बस जैसे ही दारचा पहुंचने को होती है तो रास्ते के पड़ाव जिस्पा से ही बस में चढ़ जाते हैं जांसकरी घोड़े वाले कि आने वाली टीम शायद उनके घोड़े बुक कर ले। बस के दारचा पहुंचते ही तो जैसे रौनक सी आ जाती है दारचा में। यह तुरन्त नहीं बल्कि वहां कम से कम एक दिन रुकने के बाद ही जाना जा सकता है। सुबह के वक्त न जाने कहां गायब हो जाते हैं जांसकर घोड़े वाले भी। शायद घोड़ो के साथ ही चले जाते होंगे ऊपर, बहुत दूर। शाम होते-होते दुकानों के आस-पास भीड़ दिखाई देने लगती है। दारचा पहुंचती बस के ऊपर यदि यात्रियों के पिट्ठू चमक रहे हों तो जैसे जीवन्त हो उठता है दारचा। दुकान वाले, घोड़े वाले और यूंही दारचा के उस छोटे से बाजार में घूम रहे दारचा वासियों की निगाहों में उत्सुकता की बहुत मासूम सी हंसी जुबान से जूले-जूले की भाषा में फूटने लगती है। जांसकरी घोड़े वाले खुद ही बस की छत पर चढ़कर सामान उतरवाने लग जाते हैं- इस लालच में कि शायद बुकिंग उन्हें ही मिल जाए। लेकिन ये जानकर कि पार्टी तो पीछे से ही बुक है, मायूस हो जाते हैं जांसकरी। उनके जांसकर में जाने वाले यात्रियों को जांसकर तक पहुंचाने वाले न जाने कहां-कहां बैठे हैं, हैरान हैं जांसकरी। हमारी तरह के कुछ अनिश्चित यात्री पहुंचते हैं दारचा। वरना दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई और बड़े-बड़े महानगरों में नक्शा बिछाए बैठे हैं ऐजेन्ट। फिर भी जांसकरी उम्मीद में है कि उनके घोड़े भी बुक होंगे ही। घोड़ा यूनियन वालों की पैनी निगाहें हैं जांसकरियों पर---कहीं कोई जांसकरी बिना पर्ची कटाये ही न निकल जाए पार्टी को लेकर। एक घोड़े पर 10 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कटेगी पर्ची।


जारी---

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प !!!!

Vineeta Yashsavi said...

apke travelogues parne mai sabse achha yah lagta hai ki aap her jagah aur waha ki pariwesh ke baare mai vistrit jankari dete hai...isliye tasveero ki kami zyada nahi akharti...