Showing posts with label रिपोर्ट. Show all posts
Showing posts with label रिपोर्ट. Show all posts

Monday, November 28, 2011

तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग

सिवा मार काट और नकारात्मक खबरों से भरे राष्ट्रीय मीडिया से विलुप्त होते गये कश्मीर पर  हमारे वरिष्ठ साथी और जिम्मेदार नागरिक यादवेन्द्र जी की एक  बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी ...

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- इस महीने के शुरू में श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया.सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी प्रजातियाँ सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें. यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों का नाम पूछा जाये तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा.  
जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है.सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. कि परपी होती है.देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है.सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है.देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है.करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है. 
जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है.अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है. 

दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम,केला,सेब,अंगूर,अनानास,अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी  व्यवसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता. 
आम का ही उदाहरण देखें...सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं.पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बड़ हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी.
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.. लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं.राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
इस लेखक को आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केंद्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं.इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद  पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख पायेगी.
कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म कि पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है...
कहाँ हैं धान  की  इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है...
-यादवेन्द्र 
yapandey@gmail.com

इस ब्लाग पत्रिका की पिछली पोस्टों पर भी यादवेन्द्र जी ने एक मेल में जो टिप्पणी की पाठकों तक वह भी पहुंच सके, यहां इसी आशय के साथ प्रस्तुत है- 
नयी पोस्ट में हिमालय यात्रा का  आपका वृत्तान्त...जनसत्ता में पढ़ा था,पिता की पीठ पर बैठे बच्चे वाला प्रतीक इस पूरे विवरण को एक नया आयाम देता है...मेरी बेटी को भी खूब पसंद आया था यह वृत्तान्त...इन सब को संकलित करके एल जिल्द में छापें...खुद की लेह यात्रा के बाद आजकल मैं कृष्ण नाथ जी के हिमाचल और लदाख यात्रा वृत्तान्त दुबारा पढ़ रहा हूँ और हिंदी के इस अद्भुत रचनाकार की उपेक्षा पर बेहद गुस्सा आता है... 
अरुण असफल की धारदार टिप्पणी...बिज्जी मेरे भी बेहद प्रिय कथाकार हैं और उनका मूल्यांकन समय उनकी रचनाशी
लता से करेगा,विष्णु जी के लिखे  से नहीं...फिर,यदि कोई रचनाकार नोबेल प्राप्त करने की इच्छा करे तो इसमें बुरा क्या....
-यादवेन्द्र 


 

Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

Wednesday, October 12, 2011

हमलावर संस्कृति का विरोध करो

देहरादून

कानून के भीतर बेशक अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता वर्णित हो लेकिन देख रहे हैं कि हमलावर संस्कृति की लगातार बढ़ रही कार्रवाइयों के जरिये एक अराजक किस्म का माहौल बनता जा रहा है। दबंगई और गुंडई का बोलबाला बहुत खुलेआम और बेखौफ है। सत्ता पर कब्जे की राजनीति उसे शरण देती हुई है।
अभी हाल ही में, स्त्री अधिकारों और धर्म की आड़ भ्रष्टता के खेले जा रहे खेल के प्रतिकार को अपने लेखन और सीधी कार्रवाइयों का हिस्सा बनाने वाली रचनाकार शीबा असलम फहमी के घर पर हुआ हमला और आज ही दिल्ली में घटी वह ताजा घटना जिसमें प्रशांत भूषण पर हमले की सूचनायें हैं, ऐसी ही राजनीति की सीधी कार्रवाइयां हैं। उधर गुजरात में संजीव भट्ट की गिरफ्तारी ।
11 अक्टूबर को देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना ने रचनाकार शीबा असलम फहमी पर हुए हमले की चर्चा करते हुए हमलावर संस्कुति की मुखालफत की है। अपराधियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई और शीबा असलम फहमी के साथ एकजुटता को प्रदर्शित करने के लिए आयेजित चर्चा में मुख्यतौर पर कथाकार सुरेश उनियाल, मनमोहन चडढा, डॉ जितेन्द्र भारती, अनिता दिघे, गीता गैरोला, रश्मि रावत, जावेद अख्तर, प्रवीण भट्ट, कमल जोशी, प्रतिमान उनियाल आदि उपस्थित थे।   

Friday, September 16, 2011

धीरेन्द्र अस्थाना को छत्रपति शिवाजी पुरस्कार

 
संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान से छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार प्राप्त करते कहानीकार पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना। मंच पर मौजूद हैं संस्कृति मंत्री संजय देवतले, पत्रकार विश्वनाथ सचदेव, अकादमी कार्याध्यक्ष दामोदर खडसे और पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी।

वरिष्ठ कहानीकार और प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा के मुंबई ब्यूरो प्रमुख धीरेन्द्र अस्थाना को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया है। श्री अस्थाना को 51 हजार रुपए का यह सम्मान उनके समग्र साहित्यिक लेखन को देखते हुए दिया गया है। मुंबई के सचिवालय जिमखाना के खचाखच भरे सभागार में श्री अस्थाना को शॉल, श्रीफल, ट्रॉफी और 51 हजार रुपए की राशि का चेक महाराष्ट्र की संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान ने प्रदान किया। श्री धीरेन्द्र अस्थाना की अब तक डेढ़ दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उपन्यास, कहानी और साक्षात्कारों का समावेश है। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं - गुजर क्यों नहीं जाता, देशनिकाला, हलाहल, उस रात की गंध, नींद के बाहर और रू-ब-रू। श्री अस्थाना टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और दैनिक जागरण समूह में काम कर चुके हैं। पिछले 9 वर्ष से वह सहारा समूह के साथ जुड़े हुए हैं। श्री अस्थाना के अलावा आबिद सुरती, दिनेश ठाकुर, नारायण दत्त, सलिल सुधाकर, डॉ। आनंद प्रसाद दीक्षित और मनोज सोनकर समेत महाराष्ट्र के कुल 27 हिंदी सेवियों को भी इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में सम्मानित किया गया।

-----

Sunday, July 31, 2011

वैकल्पिक ऊर्जा

पंडित नेहरु के प्रिय पात्र डा. होमी भाभा के साथ मतभेद का कारण देश के प्रखर वैज्ञानिक चिन्तक,गणितज्ञ,समाजशास्त्री और इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसांबी का टी.आई.एफ.आर में रहते हुए भारत के सन्दर्भ में परमाणु ऊर्जा की तुलना में सौर ऊर्जा को श्रेष्ठ ठहराने का मुखर और घोषित तर्क था.और इसी विश्वास के चलते उन्हें भाभा ने अपने संस्थान से हटा दिया.

कोसांबी के उठाये मुद्दों पर बाद में भी शासन द्वारा अक्सर सवालों को यथासंभव दबाया गया और ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों की अनदेखी की गयी.आज देश में गहराते ऊर्जा संकट, पर्यावरण बचाने की मुहिम और अमेरिका की पिछलग्गू बनाने वाली परमाणु नीति की बाबत जन्मदिन (31 जुलाई)पर आदर पूर्वक कोसांबी का स्मरण करते हुए उनके कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैं:
"एक औसत दिन में भारत के सौ वर्ग मीटर भूभाग पर सूरज लगभग 600 किलो वाट आवर ऊष्मा उपलब्ध करता है.यह करीब 160 पौंड उच्च श्रेणी के कोयले के या फिर 16 गैलन पेट्रोल के समतुल्य होता है.इस तथ्य को ध्यानमें रखते हुए मेरा पक्का विश्वास है कि हमें लगभग निः शुल्क उपलब्ध होने वाली सौर ऊर्जा का भरपूर दोहन करना चाहिए...दोनों स्थितियों में: हम परमाणु ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो भी...नहीं बढ़ते हैं तब भी. "

"सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा फायदा विकेंद्रीकरण है.इतने बड़े देश को इकलौते राष्ट्रीय ग्रिड से बिजली पहुँचाना बहुत मुश्किल काम है, वह भी तब जब उत्पादन स्रोत अलग अलग (ताप और जल, मुख्यतः).सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ग्रिड हो या न हो आप स्थानीय तौर पर विद्युत् आपूर्ति कर सकते हैं.भारत कि भौगोलिक विशेषता को देखते हुए यहाँ वहाँ फैले लघु उद्योगों और गाँवों के लिए सौर ऊर्जा सबसे ज्यादा मुफीद बैठती है.यदि आप शुरुआती तौर पर भरी पूंजी निवेश और नौकर शाही के शिकंजे में फंसे बिना समाजवाद कि दिशा में अग्रसर होना चाहते हैं तो सौर ऊर्जा से ज्यादा कारगर और कोई साधन नहीं हो सकता."

"अनुसन्धान सिर्फ कुछ पेपर लिख देने, अपने प्रिय पात्रों को देश विदेश के कांफ्रेंसों में भेज देने और ऊँघते हुए राजनेताओं को पट्टी पढ़ा कर देश के कर दाताओं के करोड़ों रु. रिसर्च अनुदान के तौर पर जुटा लेने भर से नहीं होता...हमारे अनुसन्धान को वास्तविकताओं के धरातल पर भी खरा उतरना पड़ेगा."

"परमाणु ऊर्जा का पूरा मामला बेहद व्ययसाध्य है.जो लोग यह दलील देते हैं कि यह ताप और जल विद्युत् परियोजनाओं के समकक्ष ही है वे बड़ी चालाकी से यह सच्चाई छुपा जाते हैं कि परमाणु परियोजना के प्रारंभिक खर्चे कहीं किसी और मद में समाहित कर दिए जाते हैं."

"परमाणु ऊर्जा एक ऐसा खतरा है जिसकी विभीषिका आज की पीढ़ी को तो झेलनी ही पड़ेगी...बाद में जन्म लेने वाली पीढ़ियों को भी झेलनी होगी."

"सिर्फ अवसरवादी और तीसरे दर्जे के वैज्ञानिक ही परमाणु ऊर्जा पर अपना समय और ऊर्जा खर्च करते हैं."


प्रस्तुति: यादवेन्द्र

Saturday, July 30, 2011

तकनीकी अभियान

इस महीने की 15 तारीख को छोड़े गए भारत के नए संचार  उपग्रह जी सैट-12  की सुर्खियाँ मुंबई बम धमाकों के कारण नहीं बन पायीं ...पर  आत्म निर्भरता की इस तकनीकी मिसाल का एक पहलू रोमांच और गौरव पैदा करता है.इस अभियान को सही ढंग से स्थापित करने की महती जिम्म्मेदारी अंतरिक्ष  वैज्ञानिकों की जिस टीम को दी गयी है उसमें सबसे अग्रणी भूमिका तीन महिला वैज्ञानिकों की है: प्रोजेक्ट डाइरेक्टर टी के अनुराधा, मिशन डाइरेक्टर प्रमोधा हेगड़े और आपरेशंस डाइरेक्टर के.एस.अनुराधा (चित्र संलग्न). उपग्रह छोड़े जाने के बाद उसको  सुरक्षित अपेक्षित ऊंचाई तक पहुँचाना और सही तरीके से स्थापित कर के सौंपे गए दायित्वों को सुचारू रूप से आरंभ करवाना इस वैज्ञानिक दल के कन्धों पर हैं...इस काम में करीब डेढ़ से दो महीने का समय लगता है.अब तक के विवरण बताते हैं कि जिन सुयोग्य कन्धों पर इसरो  के शीर्ष नेतृत्व ने  यह दायित्व सौंपा था,वे विशाल देश की अपेक्षाओं पर बिलकुल खरे उतरे हैं.
सक्षम और सुयोग्य स्त्री शक्ति को सलाम.............
 
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Monday, July 4, 2011

याद आया "विचारधारा वाला पत्रकार"

अभिनव श्रीवास्तव की यह रिपोर्ट एक मित्र के मार्फ़त मेल से प्राप्त हुई। राजस्थान पत्रिका जयपुर में काम करने वाले अभिनव भारतीय जनसंचार सस्थान से पास आऊट हैं। पत्रकारिता के साथ साथ साहित्य में उनकी गहरी अभिरूचि है। अभिनव का आभार।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान में शनिवार 2 जुलाई को दोपहर एक बजे से ही छात्रों,नौजवानों और मानवधिकार कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. धीरे धीरे सभागार भरने लगा था और २ बजते बजते लगातार आ रहे  लोगों के लिए सभागार में खड़े  होने की जगह नहीं बची थी. यह मौका था उस पत्रकार को याद करने का जिसने बदलाव के सपने और चट्टानी इरादों  के साथ अपनी पूरी जिन्दगी को जिया. जिसने आदिलाबाद के जंगलों में फर्जी मुठभेड़ में आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा मारे जाने से पहले  दमनकारी होते राज्य की  नीतियों पर अपनी बेबाक कलम से लगातार हमले  किये . बात हो रही है पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय की जिनकी पहली बरसी पर हेम चन्द्र पाण्डेय मेमोरियल लेक्चर सीरीज की शुरुआत की गयी. यह शुरुआत जनता के पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय के सपने को जिन्दा रखने का प्रयास भी था और गंभीर चर्चा के माध्यम से हेम जैसे मीडिया एक्टिविस्टों की लड़ाई को समझने का भी.यही कारण था कि सीरीज का पहला लेक्चर जनपक्षीय पत्रकारिता और मीडिया एक्टिविजम के रिश्ते जैसे विषय पर आधारित था. प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता सुमंता बनर्जी ने अपनी मुख्य वक्तृता में हेम चन्द्र पाण्डेय की हत्या का उदहारण लेकर भारतीय राज्य में पत्रकारों की सुरक्षा, पुलिसिया राज के  कारण लगातार प्रभावित होती पत्रकारीय स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के माध्यम से कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान मीडिया का आर्थिक ढांचा  ऐसा है कि यह  पूरी तरह  लाभ लेने वाली संस्था बन गयी है.जब एक संचार मीडिया का उद्देश्य ज्यादा ज्यादा लाभ कमाना हो तो वह लोगो को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने की भूमिका  से बहुत दूर होती चली जाती है. इस तरह का मीडिया  सरकारी योजनाओ की पोल खोलने वाले पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे सकता.  भारत में  मीडिया एक्टिविजम के भविष्य पर
बोलते हुए बनर्जी ने कहा कि मीडिया एक्टिविजम के स्वरूप को और अधिक संगठित बनाने की जरुरत है. इसके बिना कोई व्यापक हस्तक्षेप नहीं हो सकता.अरुंधती रॉय ने भारतीय राज्य के लगातार होते सैनिकीकरण पर चिंता जताते हुए बोला  कि बेशक हम सैधांतिक तौर पर लोकतंत्र हैं लेकिन आज भारतीय राज्य  में एक भी ऐसी लोकतान्त्रिक संस्था नहीं है जिसमे जाकर एक आम आदमी
न्याय की उम्मीद कर सके. अरुंधती के विचार में लोकपाल बिल को पास कराने की आड़ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को छिपाया गया.

साहित्यकार मंगलेश डबराल ने इस बात जोर दिया कि जब तक छोटे छोटे स्तर पर चल विरोधों को संगठित  नहीं किया जायेगा तब तक  कोई भी विचार हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं पहुंचेगा . बाजार के ही विचार माने जाने वाली मान्यता पर भी उन्होंने सवाल उठाये. उन्होंने कहा कि  मीडिया का आकार में लगातार विस्तार होने के बावजूद फलक पर सच दिखाई नहीं देता.यह अफ़सोस जनक
स्थिति है. मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधान ने भारतीय राज्य के दमनकारी चरित्र पर जमकर बरसे और मीडिया की वर्तमान आर्थिकी में विलुप्त होते पत्रकार संघो को पत्रकारों की खराब हालत के लिए जिम्मेदार बताया. उन्होंने  अखबार के मालिको  द्वारा इस बात का प्रचार किये जाने पर  आश्चर्य व्यक्त किया कि वेज बोर्ड लागू होने के बाद आर्थिक भार के कारण अखबार बंद हो जायेंगे.  कवी और पत्रकार नीलाभ ने माना कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति का खराब होना उनको सच कहने और लिखने से रोकता है.सत्ता और संरचना जान-बूझकर ऐसी स्थितियां बनाती है जिससे पत्रकार सच लिखने में असमर्थ हो जाये. संजय काक ने वैकल्पिक पत्रकारिता को मजबूत बनाये जाने पर जोर दिया. काक ने मुख्य धारा पत्रकारिता के समान्तर खड़ी हो रही वैकल्पिक पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने का सशक्त माध्यम बताया. संजय ने वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत को नए सिरे से समझने की जरुरत पर बल दिया.  हेम के याद करते हुए पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता भूपेन सिंह द्वारा सम्पादित किताब "विचारधारा वाला पत्रकार" का विमोचन भी किया गया.
विमोचन हिंदी मासिक हंस के संपादक  राजेंद्र यादव ने किया. किताब के एक लेख में हेम चन्द्र पाण्डेय की पत्नी बबिता उप्रेती ने हेम को याद करते हुए लिखा है कि कुछ लोगों की मौत पर्वत से भी ज्यादा भारी और कुछ की पंख से भी हलकी होती है. जनता के पत्रकार हेम की मौत वाकई पर्वत से भी ज्यादा भारी थी

Sunday, May 15, 2011

विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो


पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने  लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ  यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ जुलाई ,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए.  भारतीय रंगमंच के  क्रांतिकारी, जनपक्षधर  और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश  करता है.  उनके उस लम्बे, जद्दोजहद  भरे सफर को  सलाम पेश  करता है, जो १३ मई  को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा.  लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति  और सबसे बढ़कर  हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास  रखो, रास्ते में विश्वास  रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"  
     जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी  को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को  कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-
'अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम  दर्रों के इलाकों में 
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा  लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा. 
  नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं.  सिविल इंजीनियर और  टाउन प्लैनर  के पेशे  से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत  करने वाले बादल दा जनता की चेतना के  क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के  किए तैय्यार करने के  अनिवार्य उपक्रम के  रूप में नाटक और रंगमंच को  विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के  लिए समर्पित हो गए.  ”थर्ड थियेटर” की  ईजाद के साथ उन्होने  जनता और  रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को  एक झटके  से तोड  दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और  रंगमंच के  लिए हर तरीके  की विशेष ज़रूरत को उन्होंने  गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो  यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के  ज़रिए उन्होंने  बंगाल के  गावों में  घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को  उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी  नाटक किए. उनके  नाटको  में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था. 
     हमारे आन्दोलन  के नाट्यकर्मियों ने   खासतौर पर  १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा  और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे  इनके बुलावे पर इलाहाबाद और  हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं   कीं, नवयुवक  रंगकर्मियों  के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे  और उन्हें  सिखाया.  जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से  जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में  यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.
    एबम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप,त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष  नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और  स्पार्टाकस(अनूदित)जैसे उनके  नाटक भारतीय थियेटर को  विशिष्ट  पहचान तो  देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के  नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के  साथी हैं, उनके  सृजन और संघर्ष में  आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे ,उनके  सपनॉ के  भारत के  हमसफर होंगे.
( प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी) 

Friday, April 8, 2011

नियंत्रित अराजकता के विरोध में


जन लोकपाल बिल के सवाल पर अन्ना हजारे की मुहिम के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना के तत्वाधान में आयोजित धरना इस मायने में सफल कहा सकता है कि उसने देहरादून के तमाम समाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु ट्रेड यूनियस्ट के साथ साथ विधा विशेष में सक्रिय कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर एकजुटता की ऐतिहासिक मिसाल कायम की है। भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदना के राजेश सकलानी ने अपना मत रखते हुए कहा, हम एक कंट्रोल एनार्किज्म के दौर में है। एक नियंत्रित किस्म की अराजकता आज हमारे चारों ओर है जिसके बीच हमारा पूरा मध्यवर्ग स्थितियों के सही और गलत का आकलन करने में भी चूक कर देता है। संवेदना की ही ओर से अन्य वक्ताओं में प्रमोद सहाय, डॉ जितेन्द्र भारती, शकुन्तला सिंह, गीता गैरोला, गुरुदीप खुराना, विद्यासागर नौटियाल एवं सुभाष पंत ने अपने अपने अंदाज में अन्ना हजारे की वर्तमान मुहिम को उसी नियंत्रिक अराजकता के प्रतिरोध में एक कदम मानते हुए इस बात को रखा कि भ्रष्टाचार का उत्स मुनाफाखौर व्यवस्था है। मुनाफे पर कब्जे की गलाकाट होड़ ही भ्रष्टाचार की जननी है।

धरने में शिरकत करने पहुँचे अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद और वयोवृद्ध सुन्दर लाल बहुगुणा की उपस्थिति इस मायने में उल्लेखनिय रही कि अपनी मद्धिम आवाज में भी आंदोलन को चरणबद्ध रूप्ा से लगातार आगे बढ़ाने की दृढ़ता से भरा उनका वक्त्वय  आंदोलनरत जनमानस को प्रेरित करने वाला रहा। केन्द्रीय कर्मचारियों की समन्वय समिति के जगदीश कुकरेती ने स्वत:स्फूर्त किस्म के वर्तमान आंदोलन में पिछलग्गूपन की तरह से हिस्सेदारी करने की बजाय एक सार्थक हस्तक्षेप करने की बात पर बल दिया। अन्य वक्ताओं में समर भण्डारी, अद्गवनी त्यागी, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, अतुल शर्मा, भारती पाण्डे, एस बी मेहंदीरत्ता, संजय कोठियाल आदि सभी ने अपने अपने तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी मुहिम को सतत आगे बढ़ाने की बात कही। धरने में डेण्ड सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की।

Thursday, April 7, 2011

पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है






जन लोकपाल बिल के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की हलचल इसम मायने में एक सार्थक हस्तक्षेप कही जा सकती है कि उसका ध्येय मात्र तात्कालिक तरह से एक सीमित अर्थ वाली जन आजादी के बजाय एक वास्तविक जन आजादी  की मुहिम और उसके लिए निरंतर संघर्ष की अवश्यम्भाविता का पक्ष प्रस्तुत कर रही है। 8 अप्रैल 2011 को देहरादून के सभी रचनाकार संवेदना की पहल पर गांधी पार्क में एकजुट होकर जन लोकपाल बिल के समर्थन में अपना पक्ष रखते हुए अपनी भूमिका को बखूबी स्पष्ट कर रहे हैं।


भ्रष्टाचार कोई आज पैदा हुआ मुद्दा नहीं है। यह कई दशकों से हमारे जीवन को नारकीय जीवन बना रहा है। गरीब और कमजोर के हक की कोई सुनवाई नहीं है। दुखद है कि हमारे समाज का मध्यवर्गीय वर्ग विरोध की शक्ति पूरी तरह से खो चुका है। क्योंकि वह बाजार के प्रभाव में इस गलत फहमी में जी रहा है कि समाज की उन्नति में कभी भी और किसी भी तरीके से फायदे की स्थिति में पहुँच सकता है। इस कारण उसने अपने सामाजिक राजनैतिक विवेक को बिल्कुल खो दिया है और लूट-खसोट की इस राजनीति में हस्तक्षेप करने का अपना नैतिक आधार भी खो दिया है। देश के प्रति भी इस वर्ग की समझ स्वार्थपूर्ण और गलत है। वह वंचितों और गरीबों के अधिकार के प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं है और स्वंय शोषण के किसी न किसी रूप का हिस्सा बन चुका है।
आज भ्रष्टाचार कोई छिपा हुआ मुद्दा नहीं है। हरेक गाँव कस्बे और शहरों में ऐसी ताकतें साफ-साफ दिखाई देती है जो समाज के विरोध में कार्यरत हैं और सत्ता पर उनका कब्जा पूरी तरह से है। वे अपनी लूट का के हिस्से को गर्व से दिखाते हैं। यह उनके लिए कोई शर्म का विषय भी नहीं।
भ्रष्टाचार की इस तंत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आजादी से पूर्व और बाद के वर्षों में इस देश के भीतर मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और वर्ष 1990 से इसके अन्दर नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों का व उदारीकरण को इस देश की जनता पर लादा गया। इस पूरे कालखण्ड में मुनाफे और अतिरिक्त मूल्य को हड़पने की भीषण होड़ निरंतर जारी रही। इसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार तीव्र गति से बढ़ता रहा। इसका उदाहरण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की आवाम ने भीषण जन आंदोलन के जरिये वर्ष 1977 में भ्रष्ट सरकार को धाराशायी कर दिया। लेकिन कालान्तर में दिखायी दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के दोषि पाये गये एवं भ्रष्टाचार अपने ज्यादा आक्रामक रूप में पनपने लगा।
उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी अन्ना हजारे की इस मुहिम का समर्थन करते हैं और जन लोकपाल बिल का समर्थन करते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम सिर्फ बिल पास होने तक ही नहीं है क्योंकि व्यवस्था के अन्दर मुनाफा कमाने की और अतिरिक्त मूल्य की लूट जब तक समाप्त नहीं होती तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली कोई भी लड़ाई मुक्कमिल जीत तक नहीं पहुँच सकती। प्रगतिशील और समाजवादी व्यवस्था ही इसका एक मात्र लक्ष्य हो सकती है और उसको हासिल करने तक संघर्ष में बने रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है।


संवेदना के सभी साथी

Thursday, March 10, 2011

याद आली टिहरी

पहली ग्ढ़वाली फिल्म के निर्माता-निर्देशक पाराशर गौड़, लोक गायक गोपालबाबू गोस्वामी एवं लोक गायिका कबूतरी देवी को सम्मानित करने के साथ-साथ यंग उत्तराखण्ड द्वारा सीरीफोर्ट, नई दिल्ली में आयोजित पुरस्कार समारोह में गढ़वाली फिल्म  याद आली टिहरी को सर्वश्रेष्ठ फिल्म से पुरस्क्रत किया गया। अन्य पुरस्कारों की घोषणा के साथ यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड्स २०११ में उनके सिनेमा एवं संगीत छेत्र में जिन कलाकारों को सम्मानित किया गया वे इस प्रकार है |

सर्वश्रेष्ठ गीतकार (Best lyricist)
नरेन्द्र सिंह नेगी - बिनिसिरी की बेला (सलान्या श्याली)

सर्वश्रेष्ठ गायक (Best singer male)
किशन महिपाल - सुनिंदी रात्यूं माँ (सामन्या बौजी )

सर्वश्रेष्ठ गायिका (Best singer female)
मीना राणा - औ बूलाणु यो फहाड़ा (दिन जवानी चार)

सर्वश्रेष्ठ संगीतकार (Best music director)
नरेन्द्र सिंह नेगी - (सलान्या श्याली)

सर्वश्रेष्ठ संगीत एल्बम निर्देशक (Best Music album director)
किशन महिपाल - (सामन्या बौजी )

सर्वश्रेष्ठ संगीत एल्बम (Best Music album)
सलान्या श्याली

सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता (Best actor in comic role)
रमेश रावत - गुल्लू

सर्वश्रेष्ठ खलनायक अभिनेता (Best actor in nagetive role)
पन्नू गुसाईं - छम घुन्गुरु

सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता (Best actor in supporting role – Male)
राकेश गौड़ - कभी त होली सुबेर

सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री (Best actor in supporting role – Female)
संगीता नेगी - छम घुन्गुरु

सर्वश्रेष्ठ कैमरामैन (Best cinematographer)
जयदेव भट्टाचार्य - याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (best actor in lead role-male)
मदन डुकलान - याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (Best actor in lead role – female)
रचित कुकरेती - माँ के आंसूं

सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशक (Best film director)
अनुज जोशी- याद आली टिहरी

सर्वश्रेष्ठ फिल्म (Best film)
याद आली टिहरी

Monday, February 14, 2011

I am a painter, I want to become an artist

 

1

2


3



Sunday, January 30, 2011

मेले ठेले से अलग


जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जतिन दास को सुनने का सुख
                                
यदि किसी से पूछा जाये कि बाईस जनवरी सन दो हजार ग्यारह को जयपुर में कला एवम संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण घटना क्या थी तो वह तपाक से बोलेगा - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल! 23 जनवरी को प्रकाशित जयपुर के सारे अखबार भी यही कह रहे थे। शायद जयपुर के चित्रकारों को भी यह बात मालूम न हो ( यदि मालूम रहती तो वे वहॉ उपस्थित रहते ही?) कि लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जयपुर के सांस्कृतिक स्थल जवाहर कला केन्द्र ( जेकेके) के रंगायन सभागार में विश्वविख्यात कलाकार जतिन दास का ' ट्रेडिशन एण्ड कंटम्परेरी इंडियन आर्टस" पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है, वह भी हिन्दी में। खुद मुझे भी कहॉ मालूम थी यह बात। हॉ कुछ दिन पहले ( जब लिटरेचर फेस्टिवल का तामझाम शुरू न हुआ था) अखबारों में पढ़ा था कि जेकेके में  21 जनवरी से जतिनदास के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है और मैंने तय किया हुआ था कि रविवार दिनॉक 23 जनवरी को लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल को सुनकर वहीं से जेकेके निकल जाऊंगा परन्तु अपर्णा को नीयत ताड़ते देर न लगी और कहा कि मैं निकल जाऊंगा तो वह अकेली रह जायेगी। लिहाजा आज ही (22 जनवरी ) जवाहर कला केन्द्र चलो। तब हम लोग उस दिन शाम को जवाहर कला केन्द्र पहुंचे। लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से हमेशा खचाखच भरा रहने वाला जेकेके का कॉफी हाऊस उस दिन खाली खाली-सा था। हॉ जेकेके के रॅगायन सभागार के सामने कुछ लोग अवश्य खड़े थे। ऐसा तभी होता है जब वहॉ या तो नाटक होने वाला हो या कोई पुरानी क्लासिक फिल्म प्रदर्शित की जाने वाली हो। जिस बात की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पॉ कर दी जाती है। मैंने उत्सुकतापूर्ण नोटिसबोर्ड को देखा तो उससे भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण सूचना चस्पॉ थी " जतिन दास का व्याख्यान , शाम 5:30 पर रंगायन सभागार में'। जतिन दास की कलाकृतियों को देखना तथा दोनों अलग अलग अनुभव है। जतिन दास ही क्या, किसी भी कलाकार को सुनना दुर्लभ ही होता है। हम जगह पर कब्जा करने के उद्देश्य से सभागर में भागे तो यह देख कर दंग रह गये कि सभागार मुश्किल से बीस लोग थे और जतिनदास जी उपस्थित लोगों से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। हमें देखते बोले- आईये आईये बैठ जाईये। पता नहीं जतिन दास को क्या महसूस हो रहा हो पर इतने कम लोगों को देख कर मुझे बहुत कोफ़्त हो रही थी। जयपुर में आये दिन चित्रों की प्रदर्शनियॉ लगती है जिससे पता चलता है कि यह शहर छोटे बड़े चित्रकारों से अटा पड़ा होगा। तो क्या उन्हे इतने बड़े चित्रकार को सुनने का समय नहीं है? या जरूरत नहीं है? आयोजको ने सफाई भी दी कि उन्होने सारे अखबारों को सूचना दी थी पर किसी ने छापी नहीं थी ( क्योकि उस दिन सभी स्थानीय दैनिक, लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत कर रहे जावेद अख्तर और गुलजार आदि के खबरो से भरे पड़े थे) आयोजकों ने यह भी बताया कि उन्होने सारे स्कूल कालेजों कों सूचित कर दिया था क्योंकि यह व्याख्यान कला के विद्यार्थियों के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। पर जो कुछ भी हो, यह हमारा सौभाग्य था कि इतने कम लोगों के बावजूद जतिन दास ने अपना व्याख्यान गर्मजोशी से दिया।
जतिन दास के व्याख्यान में उनकी मुख्य चिन्ता कला के एकेडिमिक प्रशिक्षण को लेकर थी। उन्होने कहा कि कला सर्वव्यापी है जबकि विद्यालयों में इसे दायरे में बॉधना सिखाया जाता है और कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिये गैलरियों में जगह निर्धारित कर दिया गया है। प्रशिक्षुओं को लोक कलाओं की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है। शुरूआत में ही एक्र्रेलिक थमा दिया जाता है जबकि प्रारॅभ में उसे पारंपरिक कलाओं को पारंपरिक तरीके से करने का अभ्यास करना चाहिये। कला के विकास के लिये साधना आवश्यक है जबकि लोग विद्यालय से निकलने के बाद बाजार में घूमने लगतें हैं और अपने काम का मूल्यॉकन उसके दाम से करने लगतें हैं।उन्होने दुख व्यक्त किया कि कला की अन्य विधाओं जैसे साहित्य संगीत का मूल्यॉकन उसके सौन्दर्य शास्त्र के हिसाब से होता है जबकि चित्रकला में उसी चित्र को श्रेष्ठ मानने का रिवाज़ हो गया है जिसकी बोली ज्यादा लगती है। यह स्थिति कला के लिये अत्यन्त घातक है। उन्होने कहा कि आजकल कला के क्षेत्र विलगाव की भी घातक प्रवृत्ति देखी जा रही है । साहित्य के लोग चित्रकला की बात नहीं करतें हैं चित्रकार साहित्य नहीं पढ़ता। संगीत वालो की अपनी अलग दुनिया होती है। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। कई चित्रकार अच्छे कवि भी थे और कई कवि अच्छे चित्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रभ्पति भवन की जिसने आर्किटेक्टिंग की थी वह आर्किटेक्ट नहीं, बल्कि एक चित्रकार था। जतिन दास ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कटाक्ष करते हुये कहा कि मेले के हो हल्ले के बीच कवि अपना कविता पाठ करता है वह किसी काम का? जबकि कविता पाठ के लिये एक अलग माहौल चाहिये होता है। जतिन दास ने कला सीखने वालों को एक मूलमन्त्र बताया ' लर्न- अनलर्न-क्रियेट"। अर्थात पहले सीखो, फिर जितना सीखा है वह भूल जाओ और अपना सृजन करो।जतिन दास का व्याख्यान लगभग आधा घन्टा चला। उसके बाद उन्होने अपने चित्रों का स्लाईड शो किया तथा सभागार में उपस्थित लोगो से विनोदपूर्ण शैली में अनौपचारिक बातचीत भी करते रहे। स्लाईड शो के बीच उनके मुंह से वाह वाह निकल जा रहा था तो एक ने विनोदपूर्ण तरीके से उन्हे टोका तो उन्होने जवाब दिया कि जब बनाई थी तब उतनी अच्छी नहीं लग रही थी, अब लग रही है तो तारीफ कर रहा हूं। उन्होने एक और मजेदार बताई कि वे एक बढ़िया कुक भी हैं। एक कलाकर कोई भी काम करेगा तो पूरे मनोयोग से करेगा। इसलिये ज्यादातर कलाकार खाना भी बढ़िया बनातें हैं।
दुर्भाग्य से इतनी महत्वपूर्ण कलात्मक गतिविधि की रिपोर्टिगं के लिये आयोजको द्वारा निमिंत्रत किये जाने के बावजूद एक भी पत्रकार सभागार में उपस्थित न था। मुझे सन्तोष इस बात का है कि हाल ही में खरीदे गये अपने सस्ते साधरण हैडींकैम से मैंने व्याख्यान की शतप्रतिशत रिकार्डिगं कर ली है। यह ऐसी अमूल्य निधि है जिसे सबको बॉट कर खुशी होगी। इस हैडींकैम का भविष्य में इससे बेहतर इस्तेमाल शायद ही हो। पर धन्यवाद की पात्र तो पत्नी अपर्णा ही रहेगी जिसने उस दिन जवाहर कला केन्द्र जाने का हठ किया था।

-------- अरूण कुमार 'असफल, जयपुर,
09461202365] arunasafal@rediffmail.com

Friday, December 24, 2010

बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल



कभी आप किसी के साथ होते हैं, समय आपके साथ नहीं होता। यूं समय कभी भी साथ नहीं होता तब भी आप किसी के साथ होना चाहते हैं।
उस रोज भी बहुत से लोग साथ थे- मैदान में बैठे, गुनगुनी धूप का आनन्द लेते हुए। ढलते सूरज के साथ बौद्ध-स्तूप की लम्बी होती छाया धूप के एक बड़े हिस्से को लपक चुकी थी। कुछ देर धूप सेंक लेने के बाद पीठ पर चीटिंयों का अहसास जिन्हें होने लगता, बौद्ध-स्तूप की छाया में सिमट आते। कई युवा जोड़े छाया की ठंडक का हाथ पकड़ते हुए स्तूप की जड़ तक सरक आ गए थे। स्तूप के भीतर नंगे पैर चलने के कारण शरीर के भीतर तक घुस चुकी ठंड को बाहर फेंकने के लिए पारिवारिक किस्म के समूहों ने मैदान के उन हिस्सों पर, जहां धूप अपने पूरे ताप के साथ गिर रही थी, दरी बिछाकर खाने के छोटे-बड़े न जाने कितने ही डिब्बे खोले हुए थे।
इतना कुछ एक साथ था कि हवा को हवा की तरह अलग से पहचानना भी मुश्किल था। स्कूली बच्चों के कितने ही समूह अध्यापिकाओं के दिशा निर्देश पर लाइनबद्ध होकर भी अपने को धूल का हिस्सा होने से बचा न पा रहे थे। तभी न जाने कहां से, स्तूप की कौन सी दीवार से उठती आवाज उस बौद्ध-विहार में विहार करने के नियम कायदे निर्देशित करने  लगी-
लड़का-लड़क़ी मैदान में एक साथ न बैठें!
बिना लय ताल के उच्चारित होते कितने ही दोहरावों की एकरसता चुभने वाली थी। दोहराने वाली आवाज को भी उसका बेसुरापन अखरा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर मात्राओं को घटाते बढ़ाते हुए निर्देश का मजमून थेड़ा बदल चुका था-
लड़का-लड़की को मैदान में एक साथ बैठना मना है।
कितने ही युवा जोड़े स्थायी के बाद बेस्वर होकर उठती आंतरा को सुनने से पहले खड़े हो चुके थे और यूंही टहलने लगे थे। यूंही टहलते हुए एक दूसरे से सट कर टकराजाने वाली स्थितियां भी उन्हें सचेत करने लगी थी कि नियम की कोई नयी धारा न सुनायी दे जाए। लेकिन गोद में सिर रखकर लेटा वह लड़का जो अपने पेट और घुटने मोड़ कर उठाए पैरों के समकोण पर लेपटाप पर पर बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल खोले था, वैसे ही लेटे-लेटे अपनी साथिन को मंत्रों के अर्थ बता रहा था। काफी देर से सुने जा रहे बौद्ध मंत्रों से विषयांतर करते हुए साथिन एक किस्सा बयां करने लगी थी कि एक बार-यह किसी और जगह की बात है, दो घुटे सिर वाले युवा बौद्ध-भिक्षु मुझे लाइन मार रहे थे। लड़के के पास समय भरपूर था-साथिन के साथ का हर छोटे से छोटा क्षण भी स्मृतियों में कैद कर लेना चाहता था। पेट और घुटनों के साथ उठे पैर के समकोण पर खुली बौद्ध मंत्रों की पीडिएफ फाइल को उसने एक क्लिक से हटा दिया और तिरछी निगाहों से साथिन को ताकने लगा। समय तो साथिन के पास भी भरपूर था पर लड़का उसकी आंखों में एक तरह की हड़बड़ाहट को देख रहा था। लड़के को लगा कि शायद साथिन साथ नहीं | वह स्वंय उठ कर बैठ गया और चहलकदमी करते दूसरे युवा जोड़ो को देखने लगा।             

Tuesday, October 5, 2010

भरोसे के सूत्र आंकड़ों में नहीं पनपते




5 -6 अगस्त की रात जिस अबूझ विभीषिका ने लदाख के लेह नगर के लोगों को अपने खूनी बाहुपाश में जकड़ लिया था   उसकी  जितनी भी तस्वीरें देख ली जाएँ ,वास्तविक नुक्सान का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा.लेह भारत का क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला है पर इसमें आबादी का घनत्व मात्र 3  व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है,इसलिए ढाई सौ के आस पास बताई जाने वाली मौतें  देश के प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहुत भयानक नहीं मानी जायेंगी...हांलाकि 300 लोग दुर्घटना के महीने भर  बीतने के बाद भी लापता बताये जा रहे हैं.पैंतीस के लगभग गाँव इसकी चपेट में आ के नक्शे से लगभग लुप्त ही हो गए....मीलों लम्बी सड़कें,दर्जनों पुल और सैकड़ों खेत बगीचे इसकी विकराल धारा के हवाले हो गए,वो भी देश के उस हिस्से में जहाँ सड़कें और पुल सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माने जाते हैं.अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर सीमा सड़क संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि अकेले लद्दाख के इलाके में ढाई से तीन सौ करोड़ तक की सड़के ध्वस्त हो गयी हैं। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे की ऊँची लाइनें देखी जा सकती हैं--उनके अन्दर से झांकते कपडे लत्ते और घर के साजो सामान साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं.कभी कभार इनके अन्दर से लाशें अब भी निकल आती हैं. लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि मरने वाले अधिकतर लोग या तो सोते हुए मारे गए, या फिर बदहवासी में घर से निकलकर भागते हुए। बाजार में अनेक दुकानें  ऐसी हैं जो हादसे के बाद से अब तक खुली ही नहीं हैं...जाने इन्हें हर रोज झाड पोंछ कर खोलने वाले हाथ जीवित बचे भी हैं या नहीं?
 -यादवेन्द्र

 

विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका साफ़ साफ़ ये अर्थ होता है कि  बहुत छोटी अवधि में एक क्षेत्र  विशेष में (20 से 30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं)अ  साधारण  तीव्रता के साथ -- एक घंटे में 100 मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा-- बरसात हुई.भारत सरकार ने हांलाकि बादल फटने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई मानक तय नहीं किया है पर मौसम विभाग अपनी वेबसाईट पर ऊपर बताई परिभाषा का ही हवाला देता है.अब पूरे मामले के कारणों की बात करते समय यदि हम 5-6 अगस्त की रात को लेह में हुई बरसात के आधिकारिक आंकड़ों की बात करेंगे तो मौसम विभाग ( लेह नगर में उनकी वेधशाला मौजूद  है) चुप्पी साध लेता है.नगर के दूसरे हिस्से में स्थित भारतीय वायु सेना के वर्षामापी यन्त्र का हवाला देते हुए मौसम विभाग जो आंकड़ा प्रस्तुत करता है वो इतना काम है कि बादल फटने की घटना पर संदेह होने लगता है-- पूरे 24  घंटे में 12.8  मिली मीटर बरसात,बस.वाल स्ट्रीट जर्नल  ने इस पर विस्तार से लिखा है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी उस काली रात में हुई बरसात का कोई आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका.यहाँ ये ध्यान देने की  बात है कि पिछले कई सालों से अगस्त माह का  बरसात का औसत मात्र ... है.दबी जुबान से अनेक लोगों ने ये कहने की कोशिश की कि यह विभीषिका कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी,बल्कि चीन के मौसम बदलने वाले प्रयोग का एक नमूना
 थी.कोई भरोसेमंद सूत्र भले ही ऐसा कहने के लिए सामने न हो,पर इसको यूँ ही खारिज  नहीं किया जा सकता  क्योंकि हाल में ही ब्रिटिश वायु सेना के कृत्रिम बारिश कर के दुश्मन को तबाह कर देने के एक प्रयोग से  सैकड़ों लोगों की जान जाने की एक घटना का खुलासा हुआ है-- विनाश के स्थान  से 40 -50 किलो मीटर दूर ये प्रयोग कोई पचास साल पहले किया गया था और देश की रक्षा का हवाला दे कर इसमें गोपनीयता बरती गयी थी.कुछ साल पहने द गार्डियन ने इसका खुलासा किया है.   
 
  भूगोल की किताबों में लदाख को सहारा जैसा रेगिस्तान बताया जाता है,फर्क बस इतना है कि यहाँ का मौसम साल के ज्यादातर दिनों में  भयंकर सर्द बना रहता है.मनाली या श्रीनगर चाहे जिस रास्ते से भी आप लेह तक आयें,रास्ते में नंगे पहाड़ और मीलों दूर तक फैले सपाट रेगिस्तान  दिखेंगे... हरियाली को जैसे सचमुच कोई हर ले गया हो.दशकों पहले रेगिस्तान को हरा भरा बनाने को जो नुस्खा पूरी दुनिया में अपनाया जाता रहा है-- पेड़ पौधे रोपने का -- वो नुस्खा लदाख में भी आजमाया गया और लदाखी जनता को वृक्ष रोपने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते नगद इनाम देने की योजना राज्य सरकार ने शुरू की.साथ साथ लेह में स्थापित रक्षा प्रयोगशाला ने भी बड़े पैमाने पर इस बंजर इलाके को हरियाली से पाट  देने का अभियान शुरू किया.आज वहां दूर दूर तक हरियाली के द्वीप दिखाई देने लगे है.रक्षा प्रयोगशाला दावा करती है की लेह में उनके प्रयासों से हवा में आक्सिजन की उपलब्धता 50 %  तक बढ़ गयी है और इस क्षेत्र की सब्जी की करीब साठ फीसदी आपूर्ति   उनके प्रयासों से स्थानीय स्तर पर पूरी की जा रही है.सब्जी की करीब 80 नयी और सेब की लगभग 15  नयी  प्रजातियाँ इस समय वहां उगाई जा रही हैं.पिछले सालों में जहाँ इस क्षेत्र में हरियाली  की चादर बढ़ी है वहीँ वर्षा की मात्रा भी निरंतर बढती गयी है.हांलाकि  सरकार के दस्तावेज अब भी लदाख क्षेत्र में हरियाली से ढका हुआ क्षेत्र महज 0 .1 % ही  दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग मानता है कि हरियाली को  मौसम प्रभावित  करने के लिए कम से कम अपना दायरा 30 %  तक बढ़ाना पड़ेगा-- पर इस बार की अ प्रत्याशित त्रासदी ने ऐसे लोगों का एक वर्ग तो खड़ा कर ही दिया है जो लदाख के सर्द रेगिस्तान को हरा भरा करने के अभियान को शंका की दृष्टि से देखता  है और अत्यधिक बरसात से बाढ़  जैसी स्थिति पैदा करने के लिए हरियाली को ही दोषी मानता  है.दबी जुबान से लेह  के एक सम्मानित धर्मंगुरु  जो राज्य सभा के सदस्य भी रहे हैं,ने  भी विभीषिका के लिए इसको ही दोष देने की कोशिश की.लेह में लोगों से बात करने पर कई लोगों ने ये भी कहा कि दलाई लामा भी पिछले कई सालों से अपने उद्बोधनों में लदाख में हरियाली की संस्कृति को रोकने की अपील करते आ  रहे हैं.त्रासदी के दिनों के उपग्रह चित्रों को देखने से मालूम होता है कि कैसे देश के सुदूर दक्षिण पश्चिम सागर तट से काले मेघ पूरा देश पार करके उत्तरी सीमाओं तक पहुँच गए.यह एक अजूबी घटना है और अब मौसम वैज्ञानिकों ने इसका विस्तृत अध्ययन करने की घोषणा की है.
 
  अचानक आई इस बाढ़ से हुए नुकसानों के बचे हुए अवशेष ये बताते हैं कि ध्वस्त होने वाले घरों कि बनावट में कोई कमी रही हो ऐसा नहीं है -- लेह बाजार के पास अच्छी सामग्री और डिज़ाइन से बने  टेलीफोन  एक्सचेंज और बस अड्डे में जिस तरह का नुक्सान अब भी दिखाई देता है,ये इस बात का सबूत  है कि मलबे की विकराल गति ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया.यूँ साल में तीन सौ से ज्यादा धूप वाले दिनों के अभ्यस्त लोग  लदाख क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मकान मिट्टी की बिन पकाई इंटों से बनाते हैं, नींव भले ही पत्थरों को जोड़ कर बना दिया जाए.इलाके की सर्दी को देखते हुए दीवारें मोटी बनायीं जाती हैं और मिट्टी बाहर की सर्दी को इसमें आसानी से प्रवेश नहीं करने देता.छत सपाट और स्थानीय लकड़ियों, घास और मिट्टी की परतों से बनायीं जाती हैं.अब कई भवन टिन की झुकी हुई छतों से लैस दिखाई  देते हैं पर स्थानीय लोग इनको सरकार के दुराग्रह और दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे वास्तुकारों की ढिठाई का प्रतीक मानते हैं.हाँ, चुन चुन कर पत्थर की ऊँची पहाड़ियों के ऊपर किले की तरह बनाये गए किसी बौद्ध मठ को कोई क्षति नहीं हुई.जब साल दर साल बढ़ रही  बरसात के सन्दर्भ में लोगों से बात की गयी तो छतों के ऊपर किसी ऐसी परत(जैसे तिरपाल) को मिट्टी की परत के अन्दर बिछाने की जरुरत महसूस की गयी जिस से बरसात का पानी अन्दर न प्रवेश कर पाए.हमें लेह में ढूंढने  पर भी स्थानीय स्तर पर कम करने वाले वास्तुकार नहीं मिले,जिनसे और गहन विचार विमर्श किया जा सकता.
 
अब भी मलबे हटाने का कम चल रहा है पर सबसे अचरज वाली बात ये लगी कि इनमें स्थानीय जनता की कोई भागीदारी नहीं है...विभीषिका की काली रात में तो सेना के जवान अपनी बैरकों  से निकल कर आ गए,बाद में सीमा सड़क संगठन के लोग खूब मुस्तैदी से ये काम कर रहे हैं-- बिछुड़े हुए परिजनों और खोये हुए सामान को दूर से निहायत निरपेक्ष भाव से लोग खड़े खड़े निहारते दिखते हैं,पर पास आकर न तो कोई हाथ लगाता दिखता है और न ही बिछुड़ी हुई   वस्तुओं को प्राप्त कर लेने का कुतूहल किसी के चेहरे पर दिखाई देता है.लोगों से बार बार इसका कारण पूछने पर लोगों ने बौद्ध जीवन शैली में जीवन और मृत्यु की अवधारणा के गहरे रूप में दैनिक क्रिया कलाप और व्यवहार में  लोगों के अन्दर तक समा जाने की ओर इशारा किया.                           



-यादवेन्द्र