जांसकर घाटी: जम्मू कश्मीर का यह इलाका जो अपने आप में एक बन्द डिबिया की तरह है। जिसमें घुसने के लिए दर्रा पार कर जाना होगा, यदि बाहर निकलना है तब भी दर्रा पार करना ही होगा। लाहुल में दारचा गांव है हिमाचल का। यूं दारचा से कइयों मील दूर है वह दर्रे जिनसे होकर जाता है रास्ता जांसकर घाटी में। दारचा में ही मिलेंगें घोड़े वाले जो हमारे सामानों के वाहक हो सकते हैं। वैसे मनाली में भी बैठे हैं घोड़े वाले। सिर्फ घोड़े वाले ही नहीं बल्कि ट्रैकिंग टीम से पूरा ठेका लेकर उन्हें यात्रा कराने वाले ट्रैव्लिंग एजेन्ट तक। ट्रैव्लिंग एजेन्ट तो दिल्ली में भी हैं और आज तो दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हुए सैलानी कम्प्यूटर में बैठे एजेन्ट से कर सकते हैं सम्पर्क। दारचा से रारिक होकर लेह मार्ग को एक ओर छोड़ते हुए उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़ शिंगकुन ला/पास को पार कर पहुंचा जा सकता है जांसकर में, या फिर लेह मार्ग पर ही आगे बढ़ते हुए बारालाचा पास को पार कर युनम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ते हुए पश्चिम दिशा की ओर छुमिग मारपो से कुछ आगे चलकर दो दर्रे हैं। एक दक्षिण दिशा की ओर- '' सेरिचेन'' ला तो दूसरा उत्तर पश्चिम दिशा की ओर '' फिरचेन ला''। सेरीचेन को पार कर कारगियाक गांव में उतरना होगा जो जांसकर घाटी का आखरी गांव है और फिरचेन से उतरना होगा तांग्जे में। सिंगोला पास को पार कर दूसरी ओर लाकोंग है जहां से आगे कारगियाक, खीं, थांसो होते हुए तांग्जे और तांग्जे से जो रास्ता आगे बढ़ता है वह कुरू, त्रेस्ता, याल, मलिंग, पुरने, चा, रारू, मोने और बारदन होते हुए जांसकर घाटी के हेड क्वार्टर पदुम तक पहुंचता है।
इन तीनों दर्रों के पार जांसकर घाटी के गांवों का यह रास्ता यूं अपने आप में गांव वालों द्वारा बनाया गया है लेकिन पहाड़ों की ऊंचाई यहां मौजूद है। लद्दाख के ज्यादातर पहाड़ों की तरह यहां के पहाड़ भी सूखे हैं। हां गांवों के आस पास होने वाली खेती जरूर थोड़ा बहुत हरापन लिए हुए है। कारगियाक से तांग्जे गांव तक छोटे बड़े छोरतनों की एक लड़ी-सी दिखायी देती है। गांवों के आस पास '' ओम मणि पद्मे हूं'' मंत्र खुदे मने पत्थरों की उपस्थिति पहाड़ी के पीछे छिपे गांव का आभास करा देती है। बौद्ध धर्म के प्रतीक यह छोरतेन और मने पूरी जांसकर घाटी से लेकर लेह लद्दाख और लाहोल तक फैले पड़े हैं। पदुम से कारगिल तक एक ही सड़क मार्ग है जो लगभग 250 किमी लंबा है। पेनच्चिला दर्रे से होते हुए बस द्वारा यह दूरी तय की जा सकती है। यदि कारगिल लेह रोड़ पर जाना है तब तो दस पास करने होगें पार, तब ही पहुंचेगें लामायुरु जहां से लेह लगभग 124 किमी दूर है। एक और रास्ता हो सकता है लेह जाने का जिस पर कोई पास नहीं। जांसकर नदी के किनारे-किनारे सिन्धु नदी तक। पर यह कोई रास्ता नहीं, यह नदी का रास्ता है। पानी है, जो पहाड़ को फोड़ कर बह सकता है, मनुष्य नहीं। मनुष्य ने नहीं बनाया अभी तक इस पर रास्ता । इसलिए जांसकर को मैं जम्मू कश्मीर की डिबिया ही कहूंगा। एक ऐसी डिबिया जो दुनिया की तमाम हरकतों से बेखबर है। दुनिया की झलक विदेशी सैलानियों के रूप ही देख पाते हैं जांसकरी- साल के तीन महीने जुलाई, अगस्त, सितम्बर में। बाजपेयी और मु्शर्रफ की होने वाली बातचीत से बेखबर, कभी कभी लेह लद्दाख में होने वाली संघशाषित क्षेत्र की मांग से बेखबर जांसकर घाटी के इन बीस पच्चीस गांवों के लगभग 6-7 हजार लोग अभी तो अपनी ''चौरू'' और ''याक'' के साथ डोक्सा (चारागाह/बुग्याल) में हैं। पिघलती बर्फीली चोटियों की बर्फ से अपने गेंहू, आलू, मटर, शलजम और गोभी के खेतों को सींच रहे हैं। हीनयानी हो या महायानी सभी कटे हैं रोहतांग पार के बोद्धों से, लेह लद्दाख के बोद्धों से। यहां तक कि कारगिल से पदुम तक बस रोड़ के किनारे के गांवों से भी।
यह यात्रा की शुरूआत नहीं बल्कि यात्रा की जाने वाली जगह का आकर्षण है। यात्रा की शुरूआत यूं देहरादून से है जो मनाली पर अपना पहला पड़ाव उसके बाद दारचा दूसरे पड़ाव के रूप में होता है।
15, जुलाई 2001 बरसात का मौसम--- जब उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर झमा-झम बारिश बरस रही थी। दे्श की नदियों का जल स्तर बाढ़ की सीमाओं तक था, देहरादून से मनाली के लिए दोपहर बाद हिमाचल रोड़ वेज की बस से चलकर सुबह मनाली पहुंचे। बारिश की रिम-झिम झड़ी सुबह से ही लगी हुई थी।
जारी---