Friday, December 18, 2009

रेनर मारिया रिल्के की कवितायें

रेनर मारिया रिल्के का जन्म 4 दिसंबर 1875 में प्राग में हुआ था। रिल्के का जर्मन भाषा के निर्विवाद कवि के रूप में माना जाता है। । जर्मन और फ्रेंच भाषाओं के जानकार रिल्के ने आधुनिक जीवन की जटिलताओं का चित्रण मानवीय संवेगों से भरपूर अपने गहन और गीतिमय ढंग तथा स्तब्ध कर देने वाले बिंबों के बल पर किया।

रिल्के के पिता जोसेफ रेल रोडवेज़ में इंस्पेक्टर थे। उन्होंने वर्षों सैनिक जीवन में बिताये और कई विशिष्टताओं के बाद भी उन्हें कभी कोई बड़ा पद नहीं मिला। जोसेफ ने अपने पुत्र रिल्के को भी मिलट्री अकादमी में भर्ती करवाया था।

बचपन में रिल्के ने उच्चवर्गीयता और एकदम साधारण रहन-सीन के दो विपरीत ध्रुवों को नजदीकी से महसूस किया। यह वह दौर था जब चेक परिवेश बदल रहा था जिसका सीधा असर साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा के फलने-फूलने पर हुआ। रिल्के के बचपन का सबसे अंधेरा पक्ष यह था कि इनकी माता ने इन्हें कई वर्षों तक लड़कियों की तरह पहनावा पहनाया और इसको सोफिया, मारिया आदि नामों से बुलाती रहीं। अपनी मां के इस विचित्र व्यवहार को रिल्के हमेशा अलग-अलग तरह से याद करते रहे। सितंबर 1886 में रिल्के को सेंटपाल्टेन मिलिट्री अकादमी स्कूल में भर्ती कराया गया जो बोर्डिंग स्कूल था।

स्कूल से रिल्के ने अपनी मां को कई सारी चिट्ठीयां लिखी जिसमें वह हमेशा यह लिखते थे कि इस अकादमी में वो फंस गये हैं जिससे वो कभी नफरत तो कभी प्यार करते हैं। रिल्के ने 12 वर्ष की उम्र तक अपनी कॉपियों को कविताओं से भर दिया था। स्कूल के अंतिम दिनों में उन्होंने एक अच्छा काम किया जो यूरोपीय युद्ध के तीस वर्षीय इतिहास से जुड़ा था। जबकि वास्तविकता में सैनिक कार्य उनके लिये असहनीय था।

किशोरावस्था में आने तक रिल्के की कवि बने की इच्छा तीव्र हो गई। रिल्के को उनकी ट्रेनिंग के लिये जिस जगह भेजा गया यहां उन्हें अलग तरह की स्वतंत्रता महसूस की। पर यह अच्छा समय कुछ ही समय रहा। जल्दी ही रिल्के कई सारी शारीरिक बीमारियों, मानसिक अवसाद, विषादपूर्ण हिंसक व्यवहार से घिर गये और आखिरकार वो अकादमी को छोड़ने में सफल भी रहे।

सन् 1894 में उन्होंने साहित्य और कलाओं के इतिहास की पढ़ाई प्राग में शुरू की तथा 1896 में म्यूनिख में दर्शनशास्त्र की पढ़ाई प्रारंभ की। म्यनिख में वे 30 वर्षीय रूसी बुद्विजीवी ला एनिड्रस सालोम से मिले। इन दोनों के बीच प्रेम संबंध कई वर्षों तक बना रहा और दोनो आजीवन मित्र बने रहे। 1899 में रिल्के सालोम और उनके पति के साथ रूस की यात्रा पर निकले। वहाँ के परिदृश्य ने इस कदर प्रभावित किया कि खासी परिपक्वता के बिंब उनकी बाद की रचनाओं में बस गये। रूस के रहस्यवाद ने उन्हें इतना गहराई से छुआ कि उन्होंने `दु बुक ऑफ ऑवरस´ शुरू की जो 1904 में छपी।

सन् 1900 में उन्होंने वरप्सवेड की आर्टिस्ट कॉलोनी में गर्मियां बितायी जहां उनकी मुलाकात युवा मूर्तिकार क्लारा वेस्थाप से हुई। 1901 में इन्होंने क्लारा से शादी की और एक बच्ची रुथ के पिता बने। यह वैवाहिक जीवन एक वर्ष ही चल पाया। रिल्के ने अपना ज्यादातर जीवन घूमते हुए ही बिताया। 1902 में वे पेरिस के महान मूर्तिकार रोदिन से मिले और वे जर्मनी की आर्ट कॉलोनी में रोदिन के सेक्रेटरी के तौर पर 1904 में पेरिस आ बसे। रोदिन की संगत में रिल्के ने सीखा की कला से जुड़े कामों को धर्म की तरह सम्मान दिया जाना चाहिये।

प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत में रिल्के पेरिस में ही रहे। इसी दौरान उन्होंने कई गद्य-पद्यात्मक कार्यों के बीच उपन्यास की शुरूआत की। 1907 में इटली के दक्षिण पश्चिमी द्वीप कापरी में रिल्के ने एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग्स की `सानेट्स फ्रॉम पोर्तगालिज़´ का अनुवाद किया। अपनी जिस पुस्तक `द नोटबुक ऑफ माल्ट लाउरिड्ज ब्रिड्ज´ में वो पिछले कई वर्षों से काम कर रहे थे 1910 में प्रकाशित हुई। 1923 में `द ड्यूनो एलेजिज´ और `द सानेट्स टू ऑरफ्यूज´ प्रकाशित हुई।

29 दिसम्बर 1926 को रिल्के का देहांत हुआ। 27 अक्टूबर 1925 के पहले उन्होंने एक स्मृति लेख लिखा और अनुरोध किया कि उसे उनके कब्र पर लगे पत्थर पर खुदवाया जाये। जो कुछ इस तरह था - रोन, ओह प्योर कंट्राडिक्शन, डिसायर, टू बी, नो वंस स्लीप अंडर सो मेनी लिड्स। (ओ विशुद्ध विरोधाभास, कामना, संभावना, कोई भी इतनी परतों के नीचे नहीं सोता।)



प्रस्तुत है रेनल मारिया रिल्के की दो कवितायें

प्रेम

अनजाने परों पर आसीन
मैं
स्वप्न के अंतिम सिरे पर

वहां मेरी खिड़की है
रात्रि की शुरूआत जहां से होती है

और
वहां दूर तक मेरा जीवन फैला हुआ है

वे सभी तथ्य मुझे घेरे हुए हैं
जिनके बारे में मैं सोचना चाहती हूं
तल्ख
घने और निश्शब्द
पारदर्शी क्रिस्टल की तरह आर पार चमकते हुए
मेरे अंदर स्थित शून्य को लगातार सितारों ने भरा है
मेरा हृदय इतना विस्तृत इतना कामना खचित
कि वह
मानो उसे विदा देने की अनुमति मांगता है

मेरा भाग्य मानो वही
अनलिखा
जिसे मैंने चाहना शुरू किया
अनचीता और अनजाना
जैसे कि इस अछोर अपरास्त विस्तृत चरागाह के
बीचोंबीच मैं सुगंधों भरी सांसों के आगे-पीछे झूलती हुई

इस भय मिश्रित आह्वान को
मेरी इस पुकार को
किसी न किसी तक पहुंचना चाहिये
जिसे साथ साथ बदा है किसी अच्छाई के बीच लुप्त हो जाना

और बस।

इस शहर में
 
इस शहर के अंत में
वह अकेला पर
इतना अकेला
मानो वह दुनिया में स्थित बिल्कुल अकेला घर हो
गहराती हुई रात्रि के अंदर शनै: शनै: प्रविष्ट होता हुआ राजमार्ग
जिसे
सह नन्हा शहर रोक सकने में सक्षम नहीं

यह छोटा सा शहर मात्र एक गुज़रने की जगह
दो विस्तृत जगहों के बीच
चिंतित और डरा हुआ
पुल के बदले में घरों के बगल से गुज़रता हुआ रास्ता

जो शहर छोड़ जाते हैं
एक लंबे रास्ते पर
भटकन के बीच गुम हो जाते हैं
और
शायद कई
सड़कों पर
प्राण त्याग देते हैं।

अनुवाद : इला कुमार
साभार : टूटे पंखों वाला समय

8 comments:

Himanshu Pandey said...

रिल्के के परिचय और उनकी कविताओं की यहाँ प्रस्तुति का आभार ।

Anonymous said...

अब तक सिर्फ़ नाम सुना था, रिल्के का। आपने कविताएं पढ़वा दीं। शुक्रिया।

तल्ख़ ज़ुबान said...
This comment has been removed by the author.
तल्ख़ ज़ुबान said...

रिल्के एक ताक़तवर कवि है. उसका जीवन बीहड़ अनुभवों से भरा रहा. हिंदी में उन्हें उतना समर्थ अनुवादक नहीं मिला, जितने के वे अधिकारी हैं. मेरे गृहनगर के सुप्रसिद्ध प्रकाशन संवाद से छपी इला कुमार के अनुवादों की किताब मेरे पास है. सहज और अच्छे अनुवाद के उदाहरण के लिए संवाद से ही जनाब अशोक पांडे जी की फर्नान्दों पेसोया वाली किताब देखी जा सकती है. रिल्के के मक़बरे पर खुदी पंक्तियों का अनुवाद कुछ यूँ भी हो सकता था- ओह, निरा विरोधाभास, लालसाएं, होनी : कोई भी इतनी परतों के नीचे नहीं सोता ! मैं कोई संशोधन नहीं कर रहा बस अपनी अभिव्यक्ति दे रहा हूँ- वो भाषा जो मुझे प्रिय है. किसी विदेशी कवि को प्रस्तुत करने का सही तरीका यही होता है कि उसका और उसके सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का परिचय भी साथ ही दिया जाये- विनीता जी आपने ऐसा ही किया, जो बहुत अच्छा है. दोनों कविताएँ भी अच्छी लगीं. पिछली पोस्ट पलटीं तो देखा अजेय जी ने तल्खियों में उलझे रहने की बात है- मुझे अच्छा लगा कि मेरे इस ब्लॉग तक पहुँचने से पहले ही मेरा (ओह माफ़ कीजिये मीर कहते थे "मिरा") ज़िक्र यहाँ तक आ पहुंचा. बहुत शुक्रिया. नीचे छपी नेपाली कहानी भी अद्भुत है. एक सार्थक ब्लॉग के लिए जनाब विजय गौड़ जी को बधाई और शुभकामनाएं.
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(स्पेलिंग की ग़लतियों के कारण पिछली टिप्पणी हटा दी, साहित्य का व्यक्ति नहीं हूँ इसलिए ये चाहत भी ज़्यादा है कि ऐसी ग़लती न हो! असुविधा के लिए खेद है.)

अजेय said...

अनुवाद की कमज़ोरी को ले कर मुझे भी ऐसा ही लगा था.वह किताब मैने भी खरीदी थी, पढ़ कर पछताया. और टिप्पणी की थी, - काश, विश्व साहित्य की तमाम चर्चित कविताओं को उन की मूल भाषा में पढ़ सकता !
सम्वाद वालों की उस पूरी सीरीज़् मे इला कुमार द्वारा अनूदित यह किताब ही सब से कमज़ोर थी.
लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य मे इस का बेहतर अनुवाद किया जाएगा.

महेन said...

रिल्के सिर्फ़ ताकतवर ही नहीं जटिल कवि भी हैं और उनकी कविताओं का अनुवाद उनके लेखन के साथ कुछ साल बिताये बगैर नहीं किया जा सकता। इस तरह तो एकदम नहीं कि बस एक दिन आप सोचें और अनुवाद करने बैठ जाएं। यह बात बहुत हद तक ब्रेख्त के साथ हुई है मगर इसका कारण बहुत हद तक यह भी है कि ब्रेख्त अनिवार्य रूप से जनकवि थे और इसीलिये बेहद सहज भी। संभवत: इसीलिये उनका अनुवाद बार बार हुआ है और रिल्के और गोएथे का बहुत कम। मैनें रिल्के को भी मूल जर्मन में पढ़ा है और सच कहूं तो सपने में भी कभी उनका अनुवाद करने की हिम्मत नहीं हुई।

अजेय said...

सही कहा .एक तो कविता, ऊपर से रिल्के की. मैं रोमाँचित हूँ कि मेरे एक परिचित कवि ने रिल्के को मूल रूप में पढ़ा है.महेन , सपने में हिम्मत नहीं हुई, मतलब कि हक़ीक़त में कुछ सम्भावना ज़रूर है. एक दम नहीं, अपना समय लो. लेकिन करना ज़रूर. प्रतीक्षा करूँगा.

महेन said...

अजेय भाई, विजय भाई भी मुझसे कह चुके हैं मगर सचमुच हिम्मत नहीं होती। कुछ और करने का सोचा है। अगर समय ने इजाज़त दी और सामर्थ्य के अंदर हुआ तो ज़रूर बताऊंगा आपको।