अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)
प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।