Tuesday, April 22, 2008

क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं

(क्या मैं किसी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति से बात कर सकता हूं ?
जी हाँ, नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2008 के अंक में प्रकाशित सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताओं को पढ़ने के बाद अपने को रोक न पाने, पर जब कवि महोदय को फोन लगाया, तो यही कहा था मैंने।
थोड़ा अटपटाने के बाद एक सहज और संतुलित आवाज में ज़वाब मिला, जी बेरोजगार सुन्दर व्यक्ति ही बोल रहा है। फिर तो बातों का सिलसिला था कि बढ़ ही गया। कविता के लिखे जाने की स्थितियों पर बहुत ही सहजता से सुन्दर चन्द ठाकुर ने अपने अनुभवों को बांटा। निश्चित ही नितांत व्यक्तिगत अनुभव कैसे समष्टिगत हो जाता है, इसे हम सुन्दर चन्द ठाकुर की इस कविता में देख सकते हैं। एक ही शीर्षक से प्रकाशित ये दस कवितायें थीं, जिनमें से कुछ को ही यहाँ पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। कविता को पढ़ते हुए जो प्रभाव मुझ पर पड़ा था, वह वैसा ही आप तक पहुंचे, इसके लिए कविताओं के क्रम परिवर्तन की छूट लेते हुए उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।)

सुन्दर चन्द ठाकुर, मो0 0991102826

एक बेरोज़गार की कविताऍं

एक
चांद हमारी ओर बढ़ता रहे
अंधेरा भर ले आगोश

तुम्हारी आँखों में तारों की टिमटिमाहट के सिवाय
सारी दुनिया फ़रेब है

नींद में बने रहे पेड़ों में दुबके पक्षी
मैं किसी की ज़िन्दगी में खलल नहीं बनना चाहता
यह पहाड़ों की रात है
रात जो मुझसे कोई सवाल नहीं करती
इसे बेखुदी की रात बनने दो
सुबह
एक और नाकाम दिन लेकर आएगी।


दो
कोई दोस्त नहीं मेरा
वे बचपन की तरह अतीत में रह गये
मेरे पिता मेरे दोस्त हो सकते हैं
मगर बुरे दिन नहीं होने देते ऐसा

पुश्तैनी घर की नींव हिलने लगी है दीवारों पर दरारें उभर आयी है
रात में उनसे पुरखों का रुदन बहता है
माँ मुझे सीने से लगाती है उसकी हडि्डयों से भी झरता है रुदन

पिता रोते हैं माँ रोती है फोन पर बहनें रोती हैं
कैसा हतभाग्य पुत्र हूँ, असफल भाई
मैं पत्नी की देह में खोजता हूँ शरण
उसके ठंडे स्तन और बेबस होंठ
कायनात जब एक विस्मृति में बदलने को होती है
मुझे सुनायी पड़ती है उसकी सिसकियाँ

पिता मुझे बचाना चाहते हैं माँ मुझे बचाना चाहती है
बहनें मुझे बचाना चाहती हैं धूप हवा और पानी मुझे बचाना चाहते हैं
एक दोस्त की तरह चाँद बचाना चाहता है मुझे
कि हम यूँ ही रातों को घूमते रहें
कितने लोग बचाना चाहते हैं मुझे
यही मेरी ताकत है यही डर है मेरा।


तीन
मैं क्यों चाहूँगा इस तरह मरना
राष्ट्रपति की रैली में सरेआम ज़हर पीकर
राष्ट्रपति मेरे पिता नहीं
राष्ट्रपति मेरी माँ नहीं

वे मुझे बचाने नहीं आयेगें।


चार
मेरे काले घुँघराले बाल सफ़ेद पड़ने लगे हैं
कम हँसता हूँ बहुत कम बोलता हूँ
मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगी है
अकेले में घबरा उठता हूँ बेतरह
मेरे पास फट चुके जूते हैं
फटी देह और आत्मा
सूरज बुझ चुका है
गहराता अँधेरा है आँखों में
गहरा और गहरा और गहरा
और गहरा

मैं आसमान में सितारे की तरह चमकना चाहता हूँ।


पाँच
इस तरह आधी रात
कभी न बैठा था खुले आँगन में
पहाड़ों के साये दिखाई दे रहे हैं नदी का शोर सुनायी पड़ रहा है
मेरी आँखों में आत्मा तक नींद नहीं
देखता हूँ एक टूटा हुआ तारा
कहते हैं उसका दिखना मुरादें पुरी करता है
क्या माँगू इस तारे से
नौकरी!
दुनिया में इससे दुर्लभ कुछ नहीं

मैं पिता के लिए आरोग्य माँगता हूँ
माँ के लिए सीने में थोड़ी ठंडक
बहनों के लिए माँगता हूँ सुखी गृहस्थी
दुनिया में कोई दूसरा हो मेरे जैसा
ओ टूटे तारे
उसे बख्श देना तू
नौकरी!

Sunday, April 20, 2008

जूते बेचने के लिए

सुभाष पंत
मो० 09897254818
( सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। निम्न-मध्यवर्गीय समाज का कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुंचा जा सकता है।
यहां प्रस्तुत कहानी, शीघ्र ही प्रकाशन के लिये तैयार उनके नये संग्रह से ली गयी है. अभी तक सुभाष जी के छ: कथा संग्रह, एक नाटक और दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. "पहाड चोर"(उपन्यास) अभी तक प्रकाशित उनकी सबसे अन्तिम रचना हैं जो साहत्यिक जगत में लगातार हलचल मचाये हुए है. )


पुत्र की आत्मा चैतन्य किस्म के उजाले से झकाझक थी, जिसने उसके चेहरे की जिल्द का रंग बदल दिया था। भूरी काई दीवाल से ताजा सफेदी की गई दीवाल में। वह गहरे आत्मविश्वास से लबालब था, जो पैनी कटार की तरह हवा में लपलपा रहा था, जिसके सामने हम जमीन पर चारों खाने चित्त गिरे हुए थे। उसकी बगल में एक ओर राष्ट्रीय बैंक में अफसरनुमा कुछ चीज उसका पिता पशुपतिनाथ आसीन था। वो प्रसन्न था और वैसे ही प्रसन्न था जैसे किसी पिता को अपने बेटे की विलक्षण उपलब्धि पर होना चाहिए। खुशी से उसकी आंखें भरी हुई थीं और गला भरभरा रहा था। लेकिन उसकी अफसरनुमा चीज हड़काई कुतिया की तरह दुम दबाए बैठी थी। वह भौंकना भूल गई थी। पर जैसे ही उसे अपने महान संघर्षों और उपलब्धियों की हुड़क उठती, वैसे ही हड़काई कुतिया की पूंछ सौंटी हो जाती और हवा में लहराने लगती।
उसके संघर्ष सचमुच महान थे और उपलब्धियां चमत्कारी। वह घोर पहाड़ के ऐसे हिस्से में पैदा हुआ था, जहां कोई स्कूल नहीं था, लेकिन वहां एक दरिद्र-सा मंदिर जरुर था। उसके पिता उस मंदिर के पुजारी थे। वे बहुत गरीब थे। और सज्जन भी। पशुपतिनाथ उनकी पांचवीं संतान था। पिता कुण्डलियां बनाने और पढ़ने के माहिर थे। अपने बच्चों की कुंडलिया उन्होंने खुद ही बनाई थी और उनके गलत होने का कोई सवाल ही नहीं था। बच्चों की कुंडलियां पढ़कर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि मेरी पांचवीं संतान पशुपति धर्मपरायण होगा और मेरे बाद इस मंदिर के पुजारी के आसन पर सुशोभित होगा। हालांकि तब पशुपति कुछ सोचने की उम्र से छोटा था, लेकिन पिता की इस भविष्यवाणी से उसकी नींद गायब हो गई। वह क्रांतिकारी किस्म का लड़का था और मंदिर में घंटी बजाना उसे कतई स्वीकार नहीं था। वह मौका देखकर घर से भागकर मौसा के पास शहर आ गया। शहर में आकर उसने बेहद संघर्षं किए और घोर पहाड़ का यह लड़का निरन्तर प्रगति करते हुए बैंक में अफसरनुमा कोई चीज बन गया। वह होशियार और चौकन्ना था। उसने जमीन की खरीद-फरोख्त और दलाल बाजार से काफी पैसा पीटा। अब उसके पास शहर की संभ्रान्त कालोनी में कोठी है। माली है, बागवानी है, ए।सी। है, कम्प्यूटर है, बाइक है, कार है और न जाने क्या क्या है। यह भयानक प्रगति छलांग थी जो घोर पहाड़ के गरीब पुजारी की पांचवीं सन्तान ने मंदिर की छत से एलीट दुनिया में लगाई थी। अपनी इस महान संघर्ष गाथा को, जिसका उत्तरार्ध सफलताओं से भरा हुआ था, सुनाने के लिए वह हमेशा बेचैन रहता।
पुत्र की बगल में दूसरी तरफ अलका बैठी थी। उसकी गर्वीली मां। औसत कद की गुटमुटी, गोरी और चुनौती भरे अहंकार से उपहास-सा उड़ाती आंखों वाली। उसने ढीला-सा जूड़ा किया हुआ था, जो उसकी गोरी गर्दन पर ढुलका हुआ था और उसके बोलने के साथ दिलकश अंदाज में नृत्य करता था। वह बनारसी साड़ी पहने हुए थी, जो शालीन किस्म से सौम्य और आक्रामक ढंग से कीमती थी। लेकिन अट्ठाइस साल पहले जब वह पशुपतिनाथ की दुल्हन बनकर आई थी, जो उन दिनो हमारे पड़ोस में एक कमरे के मकान में विनम्र-सा किराएदार था, तब वह ऐसी नहीं थी। उन दिनो वह किसी स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की हुआ करती थी। सांवली, छड़छड़ी। कसी हुई लेकिन लम्बी चुटिया। आंखों में विस्मय भरी उत्सुकता और सहमा हुआ-सा भय और काजल के डोरे। लेकिन जैसे जैसे उसका पति छलांग मारता गया वैसे वैसे यह सांवली लड़की भी बदलती चली गई। और पशुपति के अफसरनुमा चीज बनने के बाद तो उसे हमारा मौहल्ला, जो उस समय तक उसका मौहल्ला भी था, बहुत वाहियात और घटिया लगने लगा।
''यह रहने लायक जगह नहीं है। पता नहीं लोग ऐसी जगह कैसे रह लेते हैं बहनजी --- मेरा तो यहां दम घुटता है। लोग एक दूसरे की टांग खींचने के अलावा कुछ जानते ही नहीं। और बच्चे? हे भगवान ऐसे आवारा और शरारतती बच्चे तो मैंने कहीं देखे ही नहीं। यहां रह गई तो मेरे बेटे का भविष्य बरबाद हो जाएगा।'' वह बेटे को बांहों के सुरक्षा-घेरे में लेकर कहती। और उसकी पुतलियां किसी अज्ञात भय से थरथराने लगतीं।
उसका डर भावनात्मक नहीं, जायज किस्म का था। मुहल्ले के लड़के वाकई भयानक रूप से आवारा, विलक्षण ढंग के खिलन्दड़ और सचेत किस्म से शिक्षा-विमुख थे। पशुपतिनाथ का सुकुमार उनके खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता था। वे उससे इसलिए भी खार खाते थे कि उन दिनों वह 'स्टैपिंग स्टोन" का पढ़ाकू छात्र था। जाहिर है कि यह मुहल्ले के उस शिक्षा-संस्कार पर घातक हमला था, जिसे बनाने में कई पीढ़ियों ने कुर्बानियां दीं थी और जिसकी रक्षा करना यह पीढ़ी अपना अहोभाग्य मानती थी। इसलिए जब भी लौंडे-लफाड़ों को मौका मिलता, खेल के मैदान में या उससे बाहर कहीं भी, तो वे उसकी कुट्टी काटे बिना न रहते। वह हर दिन पिटकर लौटता और मां के लिए संकट उत्पन्न हो जाता। वह गहराई से महसूस करती कि ऎसी स्थिति में उसके बेटे का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाएगा। और वो हो भी रहा था। वह लड़कियों की तरह व्यवहार करने लगा था। लड़के का लड़की में बदलना एक गम्भीर समस्या थी और इसका एकमात्र हल मुहल्ला बदलने में निहित था। आखिर उन्होंने हमारा मुहल्ला छोड़ दिया। एक संभ्रात कालोनी में कोठी बनाली। इस छकड़ा मुहल्ले से नाता तोड़कर वे प्रबुद्ध किस्म के नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का एक शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ मुझे भी मुहल्ला छोड़ने के लिए उकसाते। उनका खयाल था कि मैं एक प्रतिभाशाली आदमी हूं और यह मुहल्ला मेरी प्रतिभा को डस रहा है। लेकिन मैं उनके बहकावे में नहीं आया। दरअसल एक तो मुझमें इसे बदलने की ताकत नहीं थी। दूसरे, अगर मेरे भीतर सचमुच कोई प्रतिभा थी, तो यह मुझे इस मुहल्ले ने ही दी थी। इसके अलावा मुझें इससे प्यार था, क्योंकि यहां बच्चे सचमुच बच्चे थे, जवान; जवान और बूढ़े; सचमुच के बूढ़े। देशज और खांटी। अद्भुत और विस्मयकारी। मुहल्ला कविता बेशक नहीं था, लेकिन इसका हरेक एक दिलचस्प और धड़कती कहानी जरूर था।।।इसलिए मैं मुहल्ला नहीं छोड़ पाया। चूंकि उन्हें सफल और महान बनना था इसलिए वे इस जीवन्त मुहल्ले को छोड़कर नगर की शालीन उदासी से लिपटी सम्भ्रान्त कालोनी में चले गए, जो एक दूसरी भाषा बोलती थी और जहां दूसरी तरह के लोग रहते थे, जो न लड़ना जानते थे और न प्यार करना--- बहरहाल कालोनी में आते ही वे प्रबुद्ध नागरिक बन गए। उनका लड़की में बदलता लड़का फिर से लड़के में बदलने लगा। उसकी अवरुद्ध प्रतिभा निखरने लगी और वह अपने स्कूल का शानदार छात्र बन गया। पशुपतिनाथ को अपने औहदे की वजह से जरूर कुछ दित हुई। वह बैंक का अफसर जैसा कुछ होने के बावजूद कालोनी की दृष्टि में तुच्छ और हिकारत से देखे जाने वाली चीज था। लेकिन इस उपेक्षा से उसकी रचनात्मक प्रतिभा पल्लवित हो गई और वह अपने गार्डन में घुसकर बेहतरीन फूल और पौष्टिक तरकारियां उगाने लगा। अलका को जरूर यह नई जगह रास आ गई। उसने किट्टी पार्टियों में शामिल हो कर फैशन और घर संवारने के आधुनिक तरीके, भले लोगों में उठने-बैठने का सलीका और कुछ अंग्रेजी के शब्द सीख लिये। बहरहाल मुहल्ले से नाता तोड़ने के बावजूद उन्होने हमारे परिवार से सम्बंध बनाए रखा। वे जब भी मिलते तो बहुत देर तक बतियाते रहते। उनकी बातचीत का एकमात्र विषय बेटा होता। सचमुच उनका बेटा विनम्र, शिष्ट और प्रतिभाशाली था और पढ़ाई में निरन्तर उपलब्धियां हासिल कर रहा था। उसका कद बहुत बड़ा हो गया था और उसके माता-पिता बजते हुए भोपुओं में तब्दील हो गए थे।
वे आज कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रहे थे।
''इधर की याद कैसे आ गई पशुपति जी।।।"" मैंने कहा।
वे सहसा उत्साहित हो गए। ''हमने सोचा यह खबर सबसे पहले आप को ही दी जानी चाहिए।"" अलका ने मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ते हुए कहा, ''आपके बेटे की नौकरी लग गई है।""
''यह तो बहुत अच्छी खबर है। आज के जमाने में नौकरी मिलना तो जंग जीतने के बराबर है।" मैंने कहा।
यह उनकी विनम्रता थी कि वे अपने उस लड़के को हमारा लड़का कह रहे थे, जिसने इस हा-हाकार के युग में नौकरी प्राप्त कर ली थी। मैं उनकी सदाशयता पर मुग्ध था।
''बहुत बहुत बधाई।" मेरी पत्नी ने भी उत्साह जाहिर किया।
''यह सब आपकी दुआ है। नौकरी भी बहुत अच्छी मिली। मल्टी नेशनल में।" अलका ने चहकते हुए कहा।
''वाकई आपके बेटे ने तो कमाल कर दिया।"
''यह दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आम लोगों की धारणा है। मैं कहता हूं कि यह अकूत संभावनाओं से भरी है। यहां कुछ भी पाया जा सकता है। बशर्ते आदमी मेहनत करे और उसमें हौंसला हो। अब मुझे ही देखो।।।"
वे अपने महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी सुनाने के लिए बेताब हो गए, लेकिन उनके बेटे ने, जो अब एमएनसी का मुलाजिम था, उन्हें बीच में ही रोक दिया। ''पापा आप भी।।।"
हालांकि यह बेटे की पंगेबाजी को शालीनता से पचा लेने का अवसर था। यह मौके की नजाकत थी और वक्त की जरूरत भी। लेकिन पशुपति ऐसा नहीं कर पाये। घर की ताजा हरी सब्जियों के नियमित सेवन से लहू में बढ़ी लौह मात्रा, दलाल बाजार से अनाप-शनाप पीटे पैसे की उछाल और चिरयौवन के लिए प्रतिदिन खाए जाने वाले कमांडो कैपसूल से उपजे पौरुष ने उनकी पूंछ सौंटी कर दी और वे तिक्त स्वर में बोले, ''तो क्या तुम्हारी निगाह में मेरे संघर्षों के कोई मानी नही हैंं?"
लड़का मुस्कराया। यह बहुत हौली-सी मुस्कुराहट थी, लेकिन उसके भीतर से ठंडी उपेक्षा का अरूप तीर निकला और शब्दहीन पिता के कलेजे में धंस गया, जिससे वे आहत हो गए और शायद पलटवार करने को सन्नद्ध भी।
मुझे लगा जैसे सहसा सब कुछ अघोषित युद्ध-स्थल में बदल गया है, जिसके एक ओर विनम्र सम्मान के साथ बेटा खड़ा है और दूसरी ओर विशद ममता के साथ पिता है, लेकिन उनके हाथों में नंगे खंजर हैं। युग युगान्तर से आमने-सामने खड़ी दो युयुत्स पीढ़ियां। मैं दुविधा में था और सममझ नहीं पा रहा था कि मेरी मंशा युद्धरत पीढ़ियों में किसे आहत देखने की थी। हमारी पीढ़ी एक थी पर पशुपति मुझ से और उनका बेटा मेरे बेटे से आश्चर्यजनक रूप से सफल था।
वातावरण बेचैन किस्म की चुप्पी से भरा हुआ था। अलका ने बेटे के चेहरे पर उपहास उड़ाती मुस्कुराहट और पति का तमतमाया चेहरा देखा तो वह उनके बीच एक पुल की तरह फैल गई।
''तुम्हारे पिता की सफलताएं बहुत बड़ी हैं। खासकर तब जब इन्होंने ऐसी जगह से शुरु किया जहां कोई उम्मीद नहीं थी। इनके सिर पर किसी का हाथ नहीं था। इन्होंने सब कुछ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। ट्युशन करके और अखबार बेचकर इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर बैंक में नौकर हो गए। वहां भी तरी की और अफसर बने। यह इन्हीं का बूता था कि शहर की सब से शानदार कालोनी में इन्होंने कोठी बनाई। शुरु में हमारी वहां कोई पूछ ही नहीं थी। आईएएस, आईपीएस जैसे बड़े अफसरों, बिजनेसमैंनों, कांट्रेक्टरो, कालाधंधा करने वालों की निगाह में बैंक के एक छोटे से अफसर, क्या कहते हैं उसे 'कैश मूवमैंट आफिसर" की बिसात ही क्या होती है। लेकिन आज ये ही हैं जिनके बिना कालोनी में पत्ता तक नहीं खड़क सकता। कोई भी काम हो चाहे मंदिर बनवाने का या भगवती जागरण का या सड़कों की मरम्मत का या फिर और भी कोई दीगर काम सबसे आगे ये ही रहते हैं। जीवन में एक एक इंच जगह इन्होंने लड़कर हासिल की है। इनके संघर्ष महान हैं और प्रेरणादायक हैं।" उसने कहा और उसका चेहरा आभिजात्य गरिमा से तमतमाने लगा।
''मम्मा, पापा के संघर्षों के प्रति मेरे मन में सम्मान है, लेकिन ये प्रेरणादायक नहीं हैं। सच कहूं तो ये अब इतिहास की चीज हो गए हैं। प्रीमिटिव एण्ड आउट ऑव डेट।" इनकी सक्सेस स्टोरी के आज कतई मायने नहीं हैं।" बेटे कहा।
इस बीच पत्नी ने चाय भी सर्व कर दी। बोन चायना की प्यालियों में। इस परिवार से हमारा आत्मीय सम्बंध था और बेतकल्लुफी से हम इन्हें चाय मगों में पिलाते थे, जिनमें देशजपन था और जिन्हें हमने फुटपाथ से खरीदा था। लेकिन यह बात लड़के के एमएनसी में जाने से पहले की थी। इस समय वह सम्मानित आतंक से भरी हुई थी और फुटपाथ से खरीदे मगों में चाय पिलाना उसे नागवार लगा था। बेटे ने पिता के संघर्षों को परले सिरे से नकार दिया था। और यह सब उसने उत्तेजना में नहीं, बहुत ठंडे स्वर में किया था। नि:संदेह यह एक खतरनाक किस्म की बात थी।
पशुपति चुपचाप चाय सिप करने लगे। लेकिन वे आहत थे। अलका भी, जो स्कूल मास्टर की दर्जा आठ पास लड़की से पति के अफसर होने के साथ प्रबुद्ध किस्म की महिला में रूपान्तरित हो चुकी थी, पशोपेश में थी। दरअसल, पत्नी और मां की सामान्य मजबूरी की वजह से दो हिस्सों में बंटकर वह निस्तेज हो गई थी। अब सामान्य शिष्टाचार के कारण मेरा ही दायित्व हो गया था कि मैं सुलह का कोई रास्ता तजबीज करूं।
''क्या तुम सचमुच ऐसा समझते हो कि पिता की संघर्ष-गाथा महत्वहीन हो गई है।"
''जी हां अंकल। यह आज का रोल मॉडल नहीं है। अगर हम इतिहास को थामकर बैठेंगे तो पीछे छूट जाएंगे। अब यह देश पूरी तरह अमीर और गरीब में बंट चुका है। गरीबों के साथ आज कोई भी नहीं है। न व्यवस्था, न धर्म, न न्याय, न बाजार यहां तक कि मीडिया भी नहीं, जो हर जगह पहुंचने का दावा करता है। वह भी उनके बारे में तभी बोलता है, जब वे कोई जुर्म करते हैं, क्योंकि आज बाजार में जुर्म बिकता है। गरीब कितना ही संघर्ष करे वह गरीब ही रहेगा। पापा की तरह संघर्ष करके और उन्हीं की तरह कामर्स में थर्ड क्लास एमए करने के बाद मैं किसी बजाज की दुकान में थान फाड़ रहा होता। इतना ही नहीं फर्स्ट क्लास होने पर भी मेरा भाग्य इस से अलग नहीं होता। संघर्ष के मायने बदल गए हैं और ये तभी कोई परिणाम दे सकते हैं जब आपकी जेब में पैसा हो।"
''लेकिन तुम तो पूरी तरह सफल हो। एमएनसी की नौकरी से बेहतर क्या हो सकता है।"
''हां, क्योंकि पापा की हैसियत मेरे लिए अच्छी शिक्षा खरीदने की थी और उन्होंने ऐसा किया भी --- मुझे शहर के सब से बढ़िया स्कूल में पढ़ाया। टाट-पट्टी के हिन्दी स्कूल में पढ़ाते तो मैं आज घास छील रहा होता। या यह भी संभव है कि मुझ में घास छीलने की काबलियत भी न होती।"
आहत पिता के सीने में हुलास की एक लहर दौड़ गई। बेटा भले ही उनके महान संघर्षों की प्रेरणादायक कहानी के प्रति निर्मम है, जो दो पीढ़ियों के सोच का अन्तर है, लेकिन वह उसका कैरियर बनाने के लिए किए उनके प्रयासों के लिए पूरा सम्मान प्रर्दशित कर रहा है। उन्होंने उसके लिए रात-दिन एक कर दिया था। उसे अंग्रेजी माध्यम के सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाते हुए वे आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट गए थे। लेकिन राहत की बात थी कि बेटा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा था। पढ़ने के अलावा तो उसकी कोई और दुनिया ही नहीं थी। उसके दोस्त भी ऐसे ही थे। वे सिर्फ कैरियर की बात करते। दुनिया जहांन से उनका कोई वास्ता ही नहीं था। उनके खयाल से देश में सब ठीक और कुछ ज्यादा ही ठीक चल रहा था। ये बड़े बापों के लायक बेटे थे। देश का उदारवाद उनके और उनके जैसों के लिए ही संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा था।
अलका अब तक पिता-पुत्र के बीच का वह स्पेस तलाद्गा कर चुकी थी जहां से दोनों को संभाला जा सकता था। उसने गर्वीली चमक, जो पति-पुत्र की सफलताओं ने उसके भीतर पैदा की थी, के साथ कहा, ''एकदम ठीक बात है। इन्होंने बेटे को अच्छे स्कूल में ही नहीं पढ़ाया, बल्कि ये उसके साथ पूरी तरह घुल गए थे। इनकी दुनिया भी सिर्फ बेटे में ही सिमटकर रह गई थी। बैंक से लौटते ही ये उसे पढ़ाने बैठ जाते। और पढ़ाने के लिए खुद रात रात भर पढ़ते। मैं कई बार झल्ला जाती कि इम्तहान आपने देना है कि बेटे ने। ये एक जिम्मेदार पिता की तरह जवाब देते, 'क्या बताऊँ? अब बच्चों को पढ़ना भी तो क्या क्या पड़ता है। हमने तो ऐसा कुछ नहीं पढ़ा था। वक्त ही बदल गया है। अगली पीढ़ी को सफल बनाने के लिए पिछली पीढ़ी को भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है।" बाप-बेटे दोनों रात-दिन मेहनत करते और यह अस्सी प्रतिशत नम्बर लाता। ये उसका रिजल्ट देखते और इन्हें निराशा का दौरा पड़ जाता। अस्सी प्रतिशत का बच्चा बाजार में अपनी कोई जगह नहीं बना सकता। फिर बेटे के लिए ट्युशन लगाए गए। भाई साहब इंटर में तो तीन ट्युशन थे हजार हजार के। स्कूल की भारी फीस और स्कूटर-पैट्रोल का खर्च अलग। इसने मेहनत कितनी की इसे तो बयान ही नहीं किया जा सकता। तब कहीं जाकर इसके छियास्सी प्रतिद्गात नम्बर आए।"
''छियास्सी प्रतिशत नम्बर तो सचमुच बहुत होते हैं।" मैंने कहा, ''ही"ज रियली जीनियस।"
''नहीं अंकलजी ये नम्बर बहुत नहीं थे। लेकिन इतने कम भी नहीं थे कि मैं निराश हो कर घुटने टेक देता।" बेटे ने चाय का प्याला, जिसमें से थोड़ी-सी चाय सिप की गई थी, मेज पर रखते हुए कहा, ''मेरे सामने अगला लक्ष्य आईआईटी था। मैंने अपनी सारी ताकत झोंक दी। पूरे साल मेहनत की और कितनी की यह मैं ही जानता हूं। बैस्ट कोचिंग इंसटीट्यूट से कोचिंग ली। लेकिन मैं आईआईटी तो दूर किसी अच्छी जगह मैरिट में नहीं आ सका। यह बहुत निराशा का दौर था और मैं पूरी तरह टूट गया था। मुझ में इतनी हिम्मत नहीं रह गई थी कि फिर से कम्पीटीशन की तैयारी कर सकूं।"
''मेरा तो भाई साहब दिमाग बिल्कुल खराब हो गया था।" अलका ने कहा, ''आंखों की नींद छिन गई थी। इसके दोस्त जो पढ़ने में इससे मदद लेते थे वे तो अच्छी जगह आ गए थे। ये रह गया था। किसी की नजर लग गई थी इसकी पढ़ाई पे। मैं कहां कहां नहीं भटकी। मंदिरों में शीश नवाया, गुरद्धारों में मत्था टेका, मजारों में शिजदा की, पीर-फकीरों के सामने झोली फैलाई। इन प्रार्थनाओं का असर हुआ भाई साहब और ये कमान संभालने के लिए कमर कसकर खड़े हो गए।"
अलका पशुपति को सहसा हाशिए से खिसकाकर परिदृश्य के केन्द्र में ले आई। ऐसा होते ही पशुपति की आवाज में गम्भीर किस्म का ओज भर गया। ''मैंने इससे कहा तू हिम्मत क्यों हारता है। कम्पीटीशन में न आ पाना दु:ख की बात तो अवश्य है लेकिन तेरे सारे रास्ते बंद नहीं हुए। डोनेशन का रास्ता तो खुला है। कहीं न कहीं तो सीट मिल ही जाएगी। और चार लाख डोनेशन देकर मैंने इसके लिए सीट खरीद ली।"
''चार लाख तो बड़ा अमाउंट होता है पशुपतिजी।।।।खासकर नौकरीपेशा के लिए।"
''भाई साहब छै साल पहले तो यह और भी बड़ा अमाउंट था। सर्विसवाले के पास कहां इतनी ताकत होती है। ये तो साहब आपके आशीर्वाद से शेयर मार्र्केट से रुपया बना रखा था। क्या थ्रिल है शेयर मार्केट भी --- कोई मेहनत नहीं बस दिमाग और स्पैकुलेशन का खेल। मैं तो कहता हूं भाईजान आप भी शेयर मार्केट में लाख-दो लाख डाल दी जिए। मेरे कहने से शेयर खरीदिए। देखिए सालभर में क्या कमाल होता है।"
ये पशुपति की जर्रानवाजी थी कि वे इसे मेरा आशीर्वाद मान रहे हैं, हालांकि मैंने अकसर सट्टा-बाजारी के लिए उन्हें हतोत्साहित किया था। मैं कृतज्ञता से मुस्कराया कि वे मुझे भी दलाल बाजार में किस्मत आजमाने का निमत्रण दे रहे हैं और मेरी सहायता करने को भी तैयार हैं। उनके चंगुल से बचने के लिए मैं उनके पुत्र की ओर मुखातिब हुआ, ''तुम्हारी सफलता के पीछे तुम्हारे पिता खड़े हैं और उन्होंने इस कहावत को गलत सिद्ध कर दिया है कि हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी औरत का हाथ होता है।" लड़का हंसने लगा। ''हां अंकलजी पुरानी सारी बातें अब व्यर्थ होती जा रही हैं। पर पहले आप मेरी बात तो सुन लीजिए।"
''जाहिर है कि मैं सुनना चाहता हूं। शायद मैं उस पर कभी कोई कहानी ही लिख दूं।"
कहानी लिखने के मेरे प्रलोभन को उसने कोई तरजीह नहीं दी। शायद उसके जीवन में कहानी वगैरह का कोई महत्व नहीं रह गया था।
''हां अंकलजी जब मैं डोनेशन से मिली सीट ज्वाइन करने जा रहा था तो मेरा सिर शर्म से झुका हुआ था। मेरे एमएनसी में जाने के सपने पूरी तरह टूट चुके थे। सीट भी सिविल में मिली थी। मेरे नाम के साथ इंजीनियर जरूर जुड़ जाने वाला था। लेकिन भविष्य किसी कंस्ट्रकशन कम्पनी में छै हजार की नौकरी वाले टटपूंजिया नौकर से अधिक कुछ नहीं था। ऐसे इंजीनियरों को तो पुराना और अनुभवी मिस्त्री ही हड़का देता है। लेकिन तभी मेरे मन ने कहा कि असली आदमी तो वह है जो वहां से भी रास्ता निकाल सके, जहां उसके निकलने की संभावना अत्यंत क्षीण हो। बस अंकलजी मैंने उसी समय निर्णय लिया कि मैं अपनी हार को विजय में बदलकर दिखाऊँगा।"
''हां, मनुष्य के भीतर एक मन होता है, जो टूटकर भी कभी नहीं टूटता।" मैंने समर्थन में सिर हिलाया। ''इसके बाद अंकलजी मैंने पढ़ाई में रात-दिन एक कर दिए। मैरिट में आया मैं। यह आश्चर्य की बात थी कि डोनेद्गान का लड़का मैरिट में आए। लेकिन इंजीनियरिंग कॉलेज की क्रेडिटेबिलिटी ऐसी नहीं थी कि उसकी मैरिट का छात्र एमएनसी में लिया जा सके। रास्ता सिर्फ मैनेजमैंट का कोर्स करके निकल सकता था। फिर मैंने कैट क्लीयर किया। लेकिन दुर्भाग्य ने यहां भी मेरा साथ नहीं छोड़ा और मैं पहले दस बी0 स्कूल में नहीं आ सका। अब सिर्फ एक ही रास्ता रह गया था कि मैं किसी एमएनसी के साथ कोई प्र्रोजेक्ट करूं और अपनी प्रतिभा का परिचय दे सकूं। मैं हर रोज तीस किलोमीटर का सफर करके एमएनसी के ऑफिस में जाता। अपने और स्कूल के नाम की चिट भेजककर सीइओ से मिलने की प्रार्थना करता। और हर दिन मेरी प्रार्थना ठुकरा दी जाती। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और पच्चीस दिन की दौड़ के बाद आखिर सीइओ ने मुझे मिलने का वक्त दे दिया। और अब मैं सीइओ के सामने था। आत्मविश्वास से भरा, शार्प, मुस्कराता और मैगेटिक पर्सनेलिटी का मुश्किल से तीस साल का आदमी, जो सारे एशिया में कम्पनी के प्र्रॉडक्ट्स की सेल्स के लिए जिम्मेवार था। वह घूमने वाली कुर्सी पर बैठा था और उसकी शानदार टेबल पर कुछ फोन और बस एक लैपटॉप था। 'फरमाइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।" कुर्सी की और बैठने का संकेत करते हुए उसने मुस्कराते हुए पूछा। मैंने अपना बायोडाटा उसकी ओर बढाते हुए कहा, 'सर मैं आपके साथ एक प्रोजेक्ट करना चाहता हूं।"
इसी बीच कॉफी आ गई। उसने कॉफी पीते हुए मेरे बायेडाटा पर सरसरी निगाह डाली और फिर मेरी आंखों में आंखे डालते हुए कहा, ''मिस्टर बाजपेई आपके पास सेल्स के बारे में कोई ओरिजीनल आइडिया हो, जिस पर आप प्रोजेक्ट करना चाहते हैं, तो बताएं। लेकिन खयाल रहे कि आपके पास सिर्फ दो मिनट हैं।"
मैंने अपना आइडिया बताया, जो शायद सीइओ को पसन्द आ गया, हालांकि उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था।
''ओके यू कैन प्रोसीड। मीट माई सेक्रेटी मिसेज रामया। शी विल फेसेलिटेट यू फॉर कैरिंगआउट द प्रॉजेक्ट।" उसने कहा, ''अंकलजी यही मेरे जीवन का टर्निंग पाइंट सिद्ध हुआ।"
''वाकई यह दिलचस्प है।" मैंने कहा, ''तुम्हारी हिम्मत सचमुच तारीफ के काबिल है।"
''जी हां अंकलजी यह आज का रोल मॉडल है। मैंने प्रोजक्ट को अपनी सारी ताकत और क्षमता झोंककर पूरा किया। सीइओ को यह प्रोजेक्ट बहुत पसन्द आया। यहां तक तो सब ठीक था। अब सवाल था प्रेजेंटेशन का। एमएनसी के कानफ्रेंस हॉल में गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सामने प्र्रजेंटेशन देने में अच्छे-अच्छे की हालत पतली हो जाती है। यह मेरी अग्निपरीक्षा थी। प्रेजेंटेशन सचमुच बहुत अच्छा रहा। मेरा आत्मविश्वास अपने चरम पर था। क्वेश्चन सैशन में मैंने बहुत कॉन्फीडेंस से सवालों के जवाब दिए। और ये सवाल किसी ऐरे-गैरे के नहीं गैलेक्सी ऑव इंटेलेक्चुअल्स के सवाल थे। तालियों की गड़गड़ाहट में जब मुझे पुरस्कार में कम्पनी के प्रॉडक्ट दिए गए तब मुझे यकीन हुआ कि सेल्स सम्बंध मेरी मौलिक अवधारणाओं को मान्यता मिल गई है। दरअसल अंकलजी ये प्रेजेंटशन ही मेरा इंटरव्यू था। इस बात का पता मुझे उस समय हुआ जब मैंनेजमैंट का फाइनल करते ही एमएनसी का अप्वाइटमैंट लैटर मेरे हाथ में आया। जानते हैं अंकलजी यह फोर्टी फारचून कम्पनीज में से एक है, जो हमारे देश के मार्केट में दस हजार का तो जूता ही उतार रही है।"
दस हजार के जूते की बात से मैं लड़खड़ा गया। ''इस गरीब मुल्क में जहां हर साल कपड़ों के अभाव में ठंड से सैकड़ों लोग मर जाते हैं।।।दस हजार का जूता ---" मैंने शंका जाहिर की।
''क्या बात करते हैं अंकलजी, इस देश में पूरे युरोप से भी बड़ा मध्यम वर्ग है। उसकी लालसायें अनन्त हैं और उसके बीच मार्केट की विशद संभावनाएं हैं। वह दस जगह बचत करेगा, या दस जगह बेईमानी से रूपया कमाएगा और एएमएनसी का दस क्या बीस हजार का जूता भी खरीदेगा। जानते हैं न अंकलजी यहां आदमी की औकात वस्तुएं तय करती हैं। भले ही हम अपने को आध्यात्मिक कहते हों, लेकिन स्कूटर, कार, फ्रिज वगैरह की खरीद पे पूजा-पाठ करके प्रसाद हम ही बांटते हैं।" उसने कहा और विजयी भाव से मेरी ओर देखा।
मैं सहसा उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे सका।
वह सफलता के गरूर में था और इस गरूर के साथ ही उसने कहा, ''कम्पनी मुझे अगले महीने ट्रेनिंग के लिए यूएसए भेज रही है। वापस आकर मैं नार्थ इंडिया में कम्पनी की सेल्स देखूंगा।"
मैंने उसकी और देखा तो वह मुझे बहुत भव्य और महान दिखाई दिया, जिसके सामने हम अकिंचन और बौने थे।
मेरे पास सचमुच कोई विकल्प नहीं रह गया था, सिवा इसके कि मैं उसे उसकी विलक्षण सफलता के लिए बधाई दूं।
मैंने ऐसा किया भी। और उसका हाथ थामकर गर्मजोशी से हिलाने लगा।

Friday, April 18, 2008

डॉ0 विजय दीक्षित की कविता


(डॉ0 विजय दीक्षित गोरखपुर में रहते हैं। लखनउ से निकलने वाली मासिक पत्रिका ''चाणक्य विचार"" में लगातार लिखते हैं। बहुत सहज, सामान्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता को हम उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। यहॉं प्रस्तुत है उनकी कविता, जो ई-डाक द्वारा हमें प्राप्त हुई थी।)

तपन

बहा जा रहा था नदी में घड़ा

तभी एक कच्चे घड़े ने ईर्ष्यालु भाव से पूछा

क्यों इतना इठला रहे हो ?

तैरेते हुए घड़े ने कहा,

मैंने सही थी आग की तपन

चाक से उतरने के बाद

तप कर लाल हुआ था,

मुझे बेचकर भूख मिटाई कुम्हार ने

ठंडा पानी पीकर प्यास बुझाई पथिक ने

मुझमें ही रखा था मक्खन यशोद्धा ने कृष्ण के लिए

अनाज को रखकर बचाया कीड़े-मकौड़ों से गृहस्थ ने

अनाज से भरकर सुहागिन के घर मै ही तो गया था।

अन्तिम यात्रा में भी मैने ही तो निभाया साथ

पर तुम तो डर गये थे तपन से,

कहते हुए घड़ा चला गया बहती धार के साथ

अनंत यात्रा पर

और कच्चा घड़ा डूब गया नदी में

नीचे और नीचे।

डॉ विजय दीक्षित

मो0 । 9415283021

Tuesday, April 15, 2008

गुजरते हुए

विजय गौड

(एक लम्बी कविता। वर्ष 200५ में रुपकुंड की यात्रा के दौरान जिसे यूंही टुकड़ों टुकड़ों में लिखा गया। समुद्र तल से लगभग 16500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है रुपकुंड। वर्षों पहले किसी विभिषका के दौरान बर्फ के नीचे दब गये नर कंकाल जहां आज भी ज्यों के त्यों हैं। रुपकुंड से आगे ज्यूरागली दर्रे से होते हुए घाट पहुंचा जा सकता है। 12 वर्षों के अंतराल पर निकलने वाली 12 सिंगों वाले खाडू बकरे के साथ नंदा देवी की जात-यात्रा सांस्कृतिक यात्रा का मार्ग भी यही है। खाडू को तो यहां से त्रिशूली चोटी की ओर रवाना कर दिया जाता है।)

घाटियों से उठते धुंए
और पंखा झलते पहाड़ों से लय बैठाते,
वाहन में सवार
खिड़की से गर्दन बाहर निकाल
उलटते रहे खट्टापन
बुग्यालों पर पिघल चुकी बर्फ के बाद
हरहराती-फिसलन से बेदखल कर दी गयी
भेड़ बकरियों की मिमियाट को खोजते हुए बढ़ते रहे
जली हुई चट्टानों की ओर
खो चुके रास्तों को खोजना जोखिम से भरा ही था
रुपकुंड की ऊंचाई से भी ऊपर
ज्यूरागली के डरावने पन के पार
शिला-समुद पहुंचना आसान नहीं इतना।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

पहाड़ों की खोह में है रुपकुंड
रुपकुंड में नहीं संवारा जा सकता है रुप
बर्फानी हवाऐं वैसे ही फाड़ देंगी चेहरा
यदि मौसम के गीलेपन को निचोड़ दिया चट्टानों ने,
खाल पर दरारें तो गीलेपन के खौफ से भी न डरेंगीं,
एक उम्र तक पहुंचने से पहले
यूं ही नहीं सिकुड़न बना लेती है घर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

नाम मात्र से आकर्षित होकर
रुपकुंड का रास्ता पकड़ना
खुद को जोखिम में डालना होगा
तह दर तह बिछी हुई बर्फ के नीचे
दबे हुई लाशें अनंतकाल से दोहरा रही हैं,
कटी हुई चट्टानों में रुकने का
जोखिम न उठाना कभी
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

सदियों से उगती रही है
बेदनी बुगयाल में बुग्गी घास,
चरती रही हैं भेड़ें आली और दयारा बुग्याल में भी
रंग बदलती घास ही
चिपक जाती है बदन पर भेड़ों के
जो देती है हमें गर्माहट
और मिटाती है भेड़ चरवाहों की थकावट
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

अतीश, पंजा, मासी-जटा
अनगिनत जड़ी-बूटियों के घर हैं बुग्याल,
कीड़ा-झाड़अ हाल ही में खोजा गया नया खजाना है
जो पहाड़ों के लुटेरों की
भर रहा है जेब
!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बुग्याल के बाद भी
कितनी ही चढ़ाई और उतराई होंगी रुपकुंड तक पहुंचने में
कितने ही दिन रपटीले पहाड़ों पर
ढूंढ कर कोई समतल कहा जा सकने वाला कोना
करेगें विश्राम
पुकारेगें एक दूसरे का नाम,
आवाजों के सौदागर नहीं लगा पायेगें शुल्क,
निशुल्क ही कितने ही दिनों तक सुन सकते हैं
पत्थरों के नीचे से बहते पानी की आवाज
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बुग्यालों पर खरीददार होंगे,
क्या कह रहें हैं जनाब
बिकने के लिए भी तो कुछ नहीं है बुग्यालों में
समय विशेष पर उगने वाली जड़ियां तो
किसी एक टूटी हुई गोठ पर टांग दिये गये
राजकीय चिकित्सालय से
किसी भी तरह की उम्मीद न होने का सहारा भर हैं
फिर ऐसा क्यों हो रहा है हल्ला,
रोपवे खिंच जायेगा वहां
सड़क पहुंच जायेगी
गाड़ियों के काफिलें पहुंचने से इतनी पहले
बेदखल कर दिये गये जानवर
फिर किस लिए ?
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

रुपकुंड के शीष पर चमकती है ज्यूरागली
पाद में फैले हैं बुग्याल;
आली, बेदनी, कुर्मातोली, गिंगातोली
बाहें कटावदार चट्टानों में दुबक कर बैठे
ग्लेशियरों में धंस गयी हैं
चेहरे को भी छुपा लिया है बर्फ ने
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बर्फ में मुंह छुपाये रुपकुंड के चेहरे को जरा संभल कर देखना
मौसम उसकी प्रेमिका है,
कोहरे में ढक देंगें बादल
ओलावृष्टि से क्षत-विक्षत हो जायेगें शरीर
कोई रपटीला ग्लेशियर भी
धकेल सकता है हजारों फुट गहरी खाई में
कार्बन डेटिंग के अलावा
और कोई आकर्षण नहीं रहेगा मानव शरीर का
बर्फ के नीचे दुबका कीड़ा-झाड़
ज्यादा अहमियत रखता है
मुनाफाखोरों के लिए।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

हां जी की नौकरी न जी का घर,
बड़ बड़ाते और आशंकित खतरे से डरे
बढ़ते रहे नरेन्द्र सिंह दानू और देवीदत्त कुनियाल
बगुवावासा में ही छोड़ दो सामान, सर
बिना पिट्ठु के ही रुपकुंड तक पहुंचना आसान नहीं है
ज्यूरागली तो मौत का घर है, सर

क्षरियानाग पर पस्त होने के बाद भी
नहीं रुके
नहीं रुकेगें शिला-समुद्र तक,
हमने ढेरों पहाड़ किये हैं पार

ज्यूरागली का रास्ता नहीं है आसान
पहाड़ों का पहाड़ है ज्यूरागली,
नीचे मुंह खोले बैठा है रुपकुंड

हमारे पिट्ठुओं का वजन
गीले हो चुके सामानों से बढ़ गया है, सर
पर नहीं हटेगें हम पीछे
चलेगें आपके साथ-साथ
बाल-बच्चे दार तो आप भी हैं न सर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

पहाड़ ताकत से नहीं हिम्मत से होते हैं पार
दृढ़ इच्छाशक्ति ही
कंधों पर लदे पिट्ठुओं के भार को हवा कर सकती है,
हवा की अनुपस्थिति में तो उठते ही नहीं पैर
फेफड़ों की धौंकनी तो गुम ही कर देती है आवाज
रपटीले पहाड़ों पर रस्सी क्रे सहारे चढ़ना-उतरना
टंगी हुई हिम्मत को अपने भीतर इक्ट्ठा करना है बस।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

बर्फीले ढलान पर नहीं होता कोई पद-चिन्ह,
किसी न किसी को तो उठाना ही पड़ेगा जोखिम आगे बढ़ने का
काटने ही होगें फुट-हॉल पीछे आने वालों के लिए
कमर में बंधी रस्सी के सहारे
आगे बढ़ते हुए फुट-हॉल काटता व्यक्ति
रस्सी पर चलने का करतब दिखाता
नट नजर आता है।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

धीरे-धीरे चलना, सर
तेज चलकर रुक जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है, सर
ऐसे तो एक कैंची भी नहीं कर पायेगें पार
खड़ी चढ़ाई पर चढ़ना तो और भी मुश्किल हो जायेगा

धीरे-धीरे चलना,
सर ऊंचाईयों को ताकते हुए तो दम ही टूट जायेगा,
अपने से मात्र दो फुट आगे ही निगाह रखें, सर
रुक-रुक कर नहीं
ऐसे एक-एक कदम चलें सर

सिर्फ कदमों पर निगाह रखें, सर
सिर्फ अपने कदमों की लय बैठायें, सर
ऊंचाई दर ऊंचाई अपने आप पार हो जायेगीं

देखना ही है तो नीचे छूट गये अपने साथी को देखें, सर
कहीं उसे आपकी मद्द की जरुरत तो नहीं
बेशक थकान कितनी ही भर चुकी हो
बेशक मुश्किल हो रहा हो पांव उठाना,
धीरे-धीरे चलते रहें, सर
लय बैठाने के लिए अभ्यास जरुरी है,
कदम गिन-गिन कर शुरु करें, सर
रुकना ही है तो गिनती पूरी होने पर ही
पल भर को खड़े-खड़े ही रुके, सर
चढ़ाई पर तो बदन आराम मांगता ही है
ठहरिये मत, सर
वैसे भी यूंही
कहीं पर ठहर जाना तो खतरनाक हो ही सकता है, सर

धीरे-धीरे चलें, सर
सिर्फ चलते रहें
एक ही लय में बिना थके
पीठ का बोझ तो वैसे ही हवा हो जायेगा
सिर्फ कमर को थोड़ा झुका लें, सर
सिर नही ।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ढाल पर उतरते हुए तो और भी सचेत रहें, सर
घुटनों पर जोर पड़ता है;
ध्यान हटा नहीं कि रिपटते चले जायेगें

बस वैसे ही चलें, एक-एक कदम
ध्यान रखें सर
पिट्ठु, लाठी या कैमरा
कुछ भी फंस सकता है चट्टान में
एक बार डोल गये तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा, सर
वैसे आप निष्फिकर रहें
मैं आपके साथ हूं
आगे निकल चुके साथियों को,
यदि हम ऐसे ही चलते रहे,
जल्द ही पकड़ लेगें
वे दौड़-दौड़ कर निकले हैं
लम्बा विश्राम जो उनकी जरुरत हो जायेगा
उन्हें वैसे ही थका देगा, सर
उनके पास पहुंच कर भी हम ज्यादा नहीं रुकेगें
बढ़ते ही रहेगें, सर
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तम्बाकू न खाओ, सर
बीड़ी भी ठीक नहीं
चढ़ाई में वैसे ही फूल-फूल जाती है सांस
हमारा क्या हमारा तो आना जाना ठहरा
आपका तो कभी-कभी आना ठहरा, सर।
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तुम्हारे सिर पर पसीना होगा
अभी चढ़ाई चढ़के आये हो,
टोपी उतारना ठीक नहीं
हमारी तरह साफा बांध लो सर
वरना हवा पकड़ लेगी 'सर"।




अतीश, पंजा, मासी-जटा जड़ी-बूटियों के नाम है
कीड़ा-झाड़ एक विशेष प्रकार की जड़ी। इसमें कीड़े के पेट से ही पौधा बाहर निकलता है। यानी जीव और वनस्पति की एकमय प्रमेय का साक्ष्य भी। इसका तिब्बति नाम है- यारक्षागंगू और अंग्रेजी नाम है- कार्डिसेप

Monday, April 14, 2008

नेपाल में एक राजा रहता था



नेपाल में एक राजा रहता था. नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस आरम्भिक, ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है। 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ती नेपाली जनता को उनकी जीत की खुशी क पैगाम देना चाहता हूं। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है। पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है। भरत प्रसाद उपाध्याय मेरा मित्र है, जो नेपाली मूल का है। चुनाव के बाद नेपाल से मिल रही सूचनाओं में ऐसी ही उम्मीदों के साथ है ढेरों अन्य नेपाली मूल के तमाम भारतीय। अपने जनपद देहरादून के बारे में कहूं तो ऐसे ढेरों लोगों ने ही उसे आकार देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वे भी जो कुछ दिनों पहले तक सूचना तंत्र के द्वारा फैलायी जा रही खबरों, जिनमें नेपाल के जन आंदोलन को आतंकवाद की संज्ञा दी जाती रही, अब उम्मीदों के साथ देख रहे हैं। नेपाल के वर्तमान परिदृश्य पर पिछले दो दिनों से लिखने का मन था, जो कुछ लिखने लगा हूं वह अवांतर कथाओं के साथ विस्तार लेता जा रहा है। उम्मीद है कुछ दिनों में ही पूरा कर पाऊंगा अब। तब तक नेपाल की स्थिति भी काफी साफ हो ही जायेगी।