Tuesday, May 6, 2008
छत से देखो दुनिया को
(पिछले दिनों से तिब्बत खबरों में है। कथाकार उदयप्रकाश तिब्बत के बारे में अपने ब्लाग पर कुछ ऐसा लिखते रहे हैं जो लोक का पुट लिये हुए है। 9 अप्रैल 2008 को जिसकी पहली कडी से हम परिचित हुए थे.
दुनिया की छत कहे जाने वाले, बर्फली चोटियों से घिरे तिब्बत में कथा गढ़ने और कथा कहने की परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी रही है। तिब्बत के पारम्परिक लोक साहित्य, जिसमें पौराणिक कथाएं, मिथ, नीति कथाएं आदि हैं, का अथाह भंडार है. यहां प्रस्तुत है तिब्बत की लोक कथा। ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह पहली कड़ी है। आगे ल्वोचू खरगोश की कथा की अन्य कड़ियां भी प्रस्तुत की जायेंगी।)
ल्वोचू खरगोश की कथा - एक
यालूत्साङपो नदी के तटवर्ती वन में एक घास का मैदान था। वहां झरने कलकल बहते थे, रंगबिरंगे फूल खिलते थे और नाना प्रकार के कुकुरमुत्ते उगते थे। बहुत से छोटे पक्षी और जंतु नाचते-गाते और क्रीड़ा करते हुए बहुत ही खुश रहते थे। एक दिन ऊंचे पहाड़ के पार से दौड़ते हुए तीन भेड़िए वहां आए। उनमें एक नर और दो मादा थे। नर भूरे रंग का और दोनों ही मादाओं का रंग नीला था। जंगल के बीच घास के मैदान में पहुंचते ही उन तीनों के ही मुंह से निकला, ''वाह, यह जगह तो बहुत ही सुन्दर है! हमें यहां खाने पीने की तंगी भी न रहेगी। यहीं अपना घर बना लेते है।"
बस उसी वक्त से वन अशांत और असुरक्षित हो गया। आज मुर्गी का बच्चा खो गया, तो कल कोई सुनहरी मादा हिरन गायब हो गयी। लम्बे समय से रह रहे छोटे-छोटे पक्षी और छोटे जानवर मुसिबत में फंस गये। कुछ वहां से भागकर कहीं दूसरी जगह पर शरण लेने को मजबूर होने लगे। जो कहीं और जा पाने की स्थिति में न थे गुफाओं में छिपने लगे, ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर घोंसला बनाने लगे। दिन दोपहरी में डरते रहते और रात के अंधेरें में तो बाहर निकलने का साहस ही नहीं करते।
वहीं एक छोटा खरगोश भी रहता था, जिसका नाम ल्वोचू था। उसने न तो भागकर कहीं और शरण लेनी चाही और न ही कहीं छुप जाना उसे उचित लगा। हिंसक भेड़ियों से निपटने के लिए वह वहीं रुका रहा और कोई कारगर उपाय सोचने लगा।
तिब्बती लोक कथाओं को आप यहां भी पढ़ सकते हैं -
tibetan folk tales
digital library of tibetan folk tales
folktales from tibet
Saturday, May 3, 2008
ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं
विजय गौड
(बेशक हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ?- ऐसे ढेरों सवालों की जद में 2 जुलाई 2006 को हिमाचल की कांगड़ा घाटी से चम्बा घाटी की ओर शिवालिक ट्रैकिंग एवं क्लाईम्बिंग ऐसोसियेशन, आर्डनेंस फैक्ट्री देहरादून का एक नौ सदस्य अभियान दल अपने 15 दिन के अभियान पर मिन्कियानी-मनाली पास से गुजरते हुए कांगड़ा और चम्बा के गदि्दयों के जीवन को जानने-समझने निकला था। - पर्यटक स्थल धर्मशाला तक की यात्रा बस द्वारा की गयी। धर्मशाला के बाद मैकलोडगंज तक की यात्रा जीप से उसके बाद पैदल मार्ग शुरु होता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। उसी यात्रा पर लिखे संस्मरण का एक छोटा सा हिस्सा और ऐसी ही अन्य यात्राओं के अनुभवों से सर्जित एक कविता भेड़ चरवाहे यहां प्रस्तुत है।)
भटकते हुए
आकाश की ओर उछाल लेती हुई या पाताल की ओर को बहुत गहरे गर्त बनाती हुई समुद्र की लहरों पर हिचकोले खाने का साहस ही समुद्र के भीतर अपनी पाल खोल देने को उकसा सकता है। अन्जान रास्तों की भयावता और अन्होनी की आशंका में आवृत दुनिया का नक्शा नहीं बदल सकता था, यदि वे सिरफिरे, जो सुक्ष्म विवरों के गर्भग्रह की ओर लगातार खिसकती पृथ्वी के खात्मे की आशंका से डरे आत्मा की खोज में जुटे अपनी-अपनी कुंडलिनी को जागृत कर रहे होते। घर, जनपद या राज्यों की सरहदों के किवाड़ ही नहीं थल के द्वार पर लगातार थपेड़े मारते अथाह जलराशि से भरे समुद्र में उतर गये। वास्कोडिगामा रास्ता भटकने के बाद भारत पहुंचा। कोलम्बस ने एक और दुनिया की खोज की। यह भी सच है कि ऐसा करने वाले वे पहले नहीं थे, पर इस बिना पर उनको सलाम न करें, ऐसा कहना तो दूर, सोचने वालों से भी मैं हमेशा असहमत ही रहूंगा। ह्वेनसांग, फाहयान, मेगस्थनीज की यात्रा इतिहास के पन्नों में दर्ज है और समय विशेष की प्रमाणिकता को उनके संग्रहित तथ्यों में ढूंढ़ते हुए कौन उसके झूठ होने की घोषणा कर सकता है ?
प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति
मैकलोडगंज हमारे रास्ते पर बस रूट का आखिरी क्षेत्र था। जब मैकलोडगंज में थे तो आधुनिकता की रंगीनियों में टहलते भारतीय और योरोपिय सैलानियों के खिलंदड़ चेहरों में आक्रामक किस्म का एक हास्य देख रहे थे। बौद्ध गोम्पा में प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति सुन रहे थे। अभी कांगड़ा के दुर्गम इलाकों में रहने वाले गदि्दयों के गांवों से गुजर रहे हैं तो देख रहे हैं कि दो सामांतर दुनिया साथ-साथ चल रही हैं।
गदि्दयों का भौगोलिक प्रदेश
हमारा घूमना इन दोनों रेखाओं पर तिर्यक रेखा की तरह अंकित हो तो शायद कह पायें कि गदि्दयों के इस भौगोलिक प्रदेश की तकलीफों को एक सीमा तक जान समझ पायें। शायद इसीलिए निकले हैं। अपनी भेड़ों के साथ जीवन संघर्ष में जुटे उस अकेले भेड़ चरवाहे के मार्ग पर बढ़ते हुए, उसके पदचिन्हों और भेड़ बकरियों की मेंगड़ी की सतत गतिशील रेखा के साथ-साथ नदी नालों को टापते हुए, घुमावदार वलय की तरह ऊपर और ऊपर बढ़ते रास्तों के साथ हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ते रहे। मिन्कियानी दर्रे के पार ही खूबसूरत चारागाहों के मंजर की तलाश भेड़ चरवाहों की ख्वाहिश है। पसीने से चिपचिपाये बदन, जो खुद हमारे ही भीतर घृणा बो रहे हैं, उन हरियाले चारागहों पर लौटने को हैं आतुर।
मिन्कियानी के रास्ते पर बादल घाटियों से उठते तो कभी चोटियों से उतरते। इस चढ़ने और उतरने की प्रक्रिया में शायद कभी सुस्ताते तो घने कोहरे में ढक जाते। थोड़ी दूर पर छूट गये अपने साथी को भी हम पहचान नहीं सकते थे।
बादलों का यह खेल ही तो उकसाता है
बादलों का ऐसा ही खेल एक बार फिरचेन लॉ पर देखा था। फिरचेन लॉ जांसकर घाटी में उतरने का एक रास्ता है जो बारालचा पास के बाद सर्चू से पहले यूनून नदी के साथ आगे बढ़ते हुए फिर खम्बराब दरिया को पार कर पहुंचता है। उस समय जब खम्बराब को पार कर विश्राम करने के बाद अगले दिन तांग्जे के लिए निकले तो ऊंचाई दर ऊंचाईयों को ताकते हुए बेहद लम्बे फिरचेन लॉ को पार करने लगे। ऊंचाईयों की वह ऐसी लड़ी थी कि किसी एक को भी पार करने के बाद दिखायी देता विशाल मैदान। जब मैदान के नीचे की उस ऊंचाई को पार कर रहे होते तो शायद थका देने वाले चढ़ाई ही ऐसी रही होगी कि उसे पार करने की हिम्मत इसी बात पर जुटाते रहे हों कि शायद इस ऊंचाई पर ही होगा फिरचेन लॉ उसके बाद तो फिर फिसलता हुआ ढाल मिल ही जाना है। पर अपनी पुनरावृत्ति की ओर लौटती अनगिनत श्रृंखलाबद्ध ऊंचाईयों ने न सिर्फ शरीर की ताकत निचोड़ ली बल्कि एकरसता के कारण ऊबा भी दिया था।
कौन होगा मार्गदर्शक
मौसम भी साफ नहीं था। बादल कहीं चोटियों से उतरते और हमें ढक लेते। उस वक्त रास्ते का मार्ग दर्शक, हमारा साथी नाम्बगिल अपने घोड़ों के साथ आगे निकल चुका था। अन्य साथी भी आगे जा चुके थे। सतीश, मैं और अनिल काला ही पीछे छूटे हुए थे। मैं और सतीश बिल्कुल पीछे और अनिल काला हमारे आगे-आगे। जिस वक्त वह ऐसी ही एक चढ़ाई के टुक पर था और हम उससे कुछ कदम नीचे तभी अचानक तेज काले बादलों का झुण्ड कहीं से उड़ता हुआ आया। शायद तेज गति से नीचे उतरा होगा तभी तो जब हम तक पहुंचा, शायद थक चुका था और कुछ देर विश्राम करने के लिए हमें घेर कर खड़ा हो गया। फिरचेन लॉ का टॉप नजदीक ही था, जिसका कि उस वक्त हमें आभास नहीं था, क्यों कि पुनरावृत्ति की ओर लौटती ऊंचाईयों ने हमारे भीतर उसके जल्दी आने की कामना को शायद खत्म कर दिया था और हम सिर्फ इस बिना पर चलते जा रहे थे कि जहां पहुंच कर नाम्बगिल हमारा इंतजार कर रहा होगा, मान लेगें कि वही टॉप है। इस तरह से टॉप पर बहुत जल्दी पहुंच जायें- जैसी कामना जो हमें उसके पास न पहुंच पाने पर थका देने वाली साबित हो रही थी, उससे एक हद तक हम मुक्त हो चुके थे और अनगिनत लड़ियों से भरी इन ऊंचाईयों को पार करने की ठान कर बढ़ते चले जा रहे थे। काले घने बादलों के उस घेरे में हम पूरी तरह से ढक चुके थे। चारों ओर अंधेरा छा गया था। अंधेरा ऐसा कि बैग में रखे टॉर्च को भी नहीं खोज सकते। भयावह अंधेरा जिसमें हवायें सन-सना रही थी। सतीश और मैं साथ थे इसलिए हिम्मत बांधें बढ़ते रहे। पर हमसे कुछ ही फुट आगे चल रहा अनिल काला गायब हो चुका था। आंखों को फाड़-फाड़ कर भी देखे तो भी कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। हाथों के स्पर्श के सहारे ही हम एक दूसरे को देख पा रहे थे। काला किस दिशा में बढ़ा होगा, हम दोनों ही चिन्तित हो गये। गला फाड़-फाड़ कर पुकारने लगे। हवा इतनी विरल थी कि हमसे कुछ ही दूरी पर अंधेरे के बीच आगे बढ़ रहे अनिल काला को सुनायी नहीं पड़ रही थी। अपनी पुकार का प्रत्युतर न पा हम अन्जानी आशंकाओं से घिर गये। बस बदहवास से चिल्लाते हुए आगे बढ़ते रहे, उस ओर को जिधर उसके जूते के निशान, जो हल्की-हल्की गिरती हुई नमी से गीली हो चुकी धरती पर बेहद मुश्किलों से खोजने पर, दिखायी पड़ रहे थे। तभी अंधेरा छंटने लगा। आवाज लगाते हुए, पांवों के निशान के सहारे हम पास के एकदम नजदीक पहुंच चुके थे। पास पर पहुंचे हुए अन्य साथियों के साथ अनिल काला भी वैसी ही अन्जानी आशंकाओं से घिरा हमारा इंतजार कर रहा था। दूसरे साथियों के पद-चिन्ह उसका भी मार्ग दर्शन करते रहे थे।
भेड़ चरवाहेएकलकड़ी चीरान हो या भेड़ चुगान
कहीं भी जा सकता है
डोडा का अनवर
पेट की आग रोहणू के राजू को भी वैसे ही सताती है
जैसे बगौरी के थाल्ग्या दौरजे के
वे दरास में हों
रोहतांग के पार या,
जलंधरी गाड़ के साथ-साथ
बकरियों और भेड़ों के झुण्ड के बीच
उनके सिर एक से दिखायी देते हैं
बेशक विभिन्न अक्षांशों पर टिकी धरती
उनके चेहरे पर अपना भूगोल गढ़ दे
पर पुट्ठों पर के टल्ले तो एक ही बात कहेगें
दोऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं
भेडों में डूबी उनकी आत्मायें
खतरनाक ढलानों पर घास चुगती हैं
पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर रक्त बनकर दौड़ता है
उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी भोंथरा कर देती है
ढंगारों से गिरते पत्थर या,तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को
ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें
वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह बुग्याल ही हैं
ये भी जानते हैं
ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक
भेड़ों के बदन पर चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का खेल खेलते हुए भी रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर कब्जा करती व्यवस्था जारी है,
ये जानते हुए भी कि रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लागे
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती घास है
और है फूलों का जंगल
बदलते हुए समय में नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी कम पड़ जायेगें
भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें
उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सूनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने अपने खुरों से की है
(बेशक हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ?- ऐसे ढेरों सवालों की जद में 2 जुलाई 2006 को हिमाचल की कांगड़ा घाटी से चम्बा घाटी की ओर शिवालिक ट्रैकिंग एवं क्लाईम्बिंग ऐसोसियेशन, आर्डनेंस फैक्ट्री देहरादून का एक नौ सदस्य अभियान दल अपने 15 दिन के अभियान पर मिन्कियानी-मनाली पास से गुजरते हुए कांगड़ा और चम्बा के गदि्दयों के जीवन को जानने-समझने निकला था। - पर्यटक स्थल धर्मशाला तक की यात्रा बस द्वारा की गयी। धर्मशाला के बाद मैकलोडगंज तक की यात्रा जीप से उसके बाद पैदल मार्ग शुरु होता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। उसी यात्रा पर लिखे संस्मरण का एक छोटा सा हिस्सा और ऐसी ही अन्य यात्राओं के अनुभवों से सर्जित एक कविता भेड़ चरवाहे यहां प्रस्तुत है।)
भटकते हुए
आकाश की ओर उछाल लेती हुई या पाताल की ओर को बहुत गहरे गर्त बनाती हुई समुद्र की लहरों पर हिचकोले खाने का साहस ही समुद्र के भीतर अपनी पाल खोल देने को उकसा सकता है। अन्जान रास्तों की भयावता और अन्होनी की आशंका में आवृत दुनिया का नक्शा नहीं बदल सकता था, यदि वे सिरफिरे, जो सुक्ष्म विवरों के गर्भग्रह की ओर लगातार खिसकती पृथ्वी के खात्मे की आशंका से डरे आत्मा की खोज में जुटे अपनी-अपनी कुंडलिनी को जागृत कर रहे होते। घर, जनपद या राज्यों की सरहदों के किवाड़ ही नहीं थल के द्वार पर लगातार थपेड़े मारते अथाह जलराशि से भरे समुद्र में उतर गये। वास्कोडिगामा रास्ता भटकने के बाद भारत पहुंचा। कोलम्बस ने एक और दुनिया की खोज की। यह भी सच है कि ऐसा करने वाले वे पहले नहीं थे, पर इस बिना पर उनको सलाम न करें, ऐसा कहना तो दूर, सोचने वालों से भी मैं हमेशा असहमत ही रहूंगा। ह्वेनसांग, फाहयान, मेगस्थनीज की यात्रा इतिहास के पन्नों में दर्ज है और समय विशेष की प्रमाणिकता को उनके संग्रहित तथ्यों में ढूंढ़ते हुए कौन उसके झूठ होने की घोषणा कर सकता है ?
प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति
मैकलोडगंज हमारे रास्ते पर बस रूट का आखिरी क्षेत्र था। जब मैकलोडगंज में थे तो आधुनिकता की रंगीनियों में टहलते भारतीय और योरोपिय सैलानियों के खिलंदड़ चेहरों में आक्रामक किस्म का एक हास्य देख रहे थे। बौद्ध गोम्पा में प्रार्थनारत बौद्धिष्टों की अविकल शान्ति सुन रहे थे। अभी कांगड़ा के दुर्गम इलाकों में रहने वाले गदि्दयों के गांवों से गुजर रहे हैं तो देख रहे हैं कि दो सामांतर दुनिया साथ-साथ चल रही हैं।
गदि्दयों का भौगोलिक प्रदेश
हमारा घूमना इन दोनों रेखाओं पर तिर्यक रेखा की तरह अंकित हो तो शायद कह पायें कि गदि्दयों के इस भौगोलिक प्रदेश की तकलीफों को एक सीमा तक जान समझ पायें। शायद इसीलिए निकले हैं। अपनी भेड़ों के साथ जीवन संघर्ष में जुटे उस अकेले भेड़ चरवाहे के मार्ग पर बढ़ते हुए, उसके पदचिन्हों और भेड़ बकरियों की मेंगड़ी की सतत गतिशील रेखा के साथ-साथ नदी नालों को टापते हुए, घुमावदार वलय की तरह ऊपर और ऊपर बढ़ते रास्तों के साथ हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ते रहे। मिन्कियानी दर्रे के पार ही खूबसूरत चारागाहों के मंजर की तलाश भेड़ चरवाहों की ख्वाहिश है। पसीने से चिपचिपाये बदन, जो खुद हमारे ही भीतर घृणा बो रहे हैं, उन हरियाले चारागहों पर लौटने को हैं आतुर।
मिन्कियानी के रास्ते पर बादल घाटियों से उठते तो कभी चोटियों से उतरते। इस चढ़ने और उतरने की प्रक्रिया में शायद कभी सुस्ताते तो घने कोहरे में ढक जाते। थोड़ी दूर पर छूट गये अपने साथी को भी हम पहचान नहीं सकते थे।
बादलों का यह खेल ही तो उकसाता है
बादलों का ऐसा ही खेल एक बार फिरचेन लॉ पर देखा था। फिरचेन लॉ जांसकर घाटी में उतरने का एक रास्ता है जो बारालचा पास के बाद सर्चू से पहले यूनून नदी के साथ आगे बढ़ते हुए फिर खम्बराब दरिया को पार कर पहुंचता है। उस समय जब खम्बराब को पार कर विश्राम करने के बाद अगले दिन तांग्जे के लिए निकले तो ऊंचाई दर ऊंचाईयों को ताकते हुए बेहद लम्बे फिरचेन लॉ को पार करने लगे। ऊंचाईयों की वह ऐसी लड़ी थी कि किसी एक को भी पार करने के बाद दिखायी देता विशाल मैदान। जब मैदान के नीचे की उस ऊंचाई को पार कर रहे होते तो शायद थका देने वाले चढ़ाई ही ऐसी रही होगी कि उसे पार करने की हिम्मत इसी बात पर जुटाते रहे हों कि शायद इस ऊंचाई पर ही होगा फिरचेन लॉ उसके बाद तो फिर फिसलता हुआ ढाल मिल ही जाना है। पर अपनी पुनरावृत्ति की ओर लौटती अनगिनत श्रृंखलाबद्ध ऊंचाईयों ने न सिर्फ शरीर की ताकत निचोड़ ली बल्कि एकरसता के कारण ऊबा भी दिया था।
कौन होगा मार्गदर्शक
मौसम भी साफ नहीं था। बादल कहीं चोटियों से उतरते और हमें ढक लेते। उस वक्त रास्ते का मार्ग दर्शक, हमारा साथी नाम्बगिल अपने घोड़ों के साथ आगे निकल चुका था। अन्य साथी भी आगे जा चुके थे। सतीश, मैं और अनिल काला ही पीछे छूटे हुए थे। मैं और सतीश बिल्कुल पीछे और अनिल काला हमारे आगे-आगे। जिस वक्त वह ऐसी ही एक चढ़ाई के टुक पर था और हम उससे कुछ कदम नीचे तभी अचानक तेज काले बादलों का झुण्ड कहीं से उड़ता हुआ आया। शायद तेज गति से नीचे उतरा होगा तभी तो जब हम तक पहुंचा, शायद थक चुका था और कुछ देर विश्राम करने के लिए हमें घेर कर खड़ा हो गया। फिरचेन लॉ का टॉप नजदीक ही था, जिसका कि उस वक्त हमें आभास नहीं था, क्यों कि पुनरावृत्ति की ओर लौटती ऊंचाईयों ने हमारे भीतर उसके जल्दी आने की कामना को शायद खत्म कर दिया था और हम सिर्फ इस बिना पर चलते जा रहे थे कि जहां पहुंच कर नाम्बगिल हमारा इंतजार कर रहा होगा, मान लेगें कि वही टॉप है। इस तरह से टॉप पर बहुत जल्दी पहुंच जायें- जैसी कामना जो हमें उसके पास न पहुंच पाने पर थका देने वाली साबित हो रही थी, उससे एक हद तक हम मुक्त हो चुके थे और अनगिनत लड़ियों से भरी इन ऊंचाईयों को पार करने की ठान कर बढ़ते चले जा रहे थे। काले घने बादलों के उस घेरे में हम पूरी तरह से ढक चुके थे। चारों ओर अंधेरा छा गया था। अंधेरा ऐसा कि बैग में रखे टॉर्च को भी नहीं खोज सकते। भयावह अंधेरा जिसमें हवायें सन-सना रही थी। सतीश और मैं साथ थे इसलिए हिम्मत बांधें बढ़ते रहे। पर हमसे कुछ ही फुट आगे चल रहा अनिल काला गायब हो चुका था। आंखों को फाड़-फाड़ कर भी देखे तो भी कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। हाथों के स्पर्श के सहारे ही हम एक दूसरे को देख पा रहे थे। काला किस दिशा में बढ़ा होगा, हम दोनों ही चिन्तित हो गये। गला फाड़-फाड़ कर पुकारने लगे। हवा इतनी विरल थी कि हमसे कुछ ही दूरी पर अंधेरे के बीच आगे बढ़ रहे अनिल काला को सुनायी नहीं पड़ रही थी। अपनी पुकार का प्रत्युतर न पा हम अन्जानी आशंकाओं से घिर गये। बस बदहवास से चिल्लाते हुए आगे बढ़ते रहे, उस ओर को जिधर उसके जूते के निशान, जो हल्की-हल्की गिरती हुई नमी से गीली हो चुकी धरती पर बेहद मुश्किलों से खोजने पर, दिखायी पड़ रहे थे। तभी अंधेरा छंटने लगा। आवाज लगाते हुए, पांवों के निशान के सहारे हम पास के एकदम नजदीक पहुंच चुके थे। पास पर पहुंचे हुए अन्य साथियों के साथ अनिल काला भी वैसी ही अन्जानी आशंकाओं से घिरा हमारा इंतजार कर रहा था। दूसरे साथियों के पद-चिन्ह उसका भी मार्ग दर्शन करते रहे थे।
भेड़ चरवाहेएकलकड़ी चीरान हो या भेड़ चुगान
कहीं भी जा सकता है
डोडा का अनवर
पेट की आग रोहणू के राजू को भी वैसे ही सताती है
जैसे बगौरी के थाल्ग्या दौरजे के
वे दरास में हों
रोहतांग के पार या,
जलंधरी गाड़ के साथ-साथ
बकरियों और भेड़ों के झुण्ड के बीच
उनके सिर एक से दिखायी देते हैं
बेशक विभिन्न अक्षांशों पर टिकी धरती
उनके चेहरे पर अपना भूगोल गढ़ दे
पर पुट्ठों पर के टल्ले तो एक ही बात कहेगें
दोऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं
भेडों में डूबी उनकी आत्मायें
खतरनाक ढलानों पर घास चुगती हैं
पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर रक्त बनकर दौड़ता है
उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी भोंथरा कर देती है
ढंगारों से गिरते पत्थर या,तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को
ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें
वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह बुग्याल ही हैं
ये भी जानते हैं
ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक
भेड़ों के बदन पर चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का खेल खेलते हुए भी रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर कब्जा करती व्यवस्था जारी है,
ये जानते हुए भी कि रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लागे
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती घास है
और है फूलों का जंगल
बदलते हुए समय में नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी कम पड़ जायेगें
भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें
उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सूनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने अपने खुरों से की है
Thursday, May 1, 2008
आकर हरी घाटी में बस गयी सरकार, लेकिन डर लगता है
अपने स्थापना दिवस 1 मई के अवसर पर देहरादून की नुक्कड नाट्य संस्था दृष्टि ने गांधी पार्क, देहरादून में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस अवसर पर कविताओं की पास्टर प्रदर्शनी लगायी गयी और दो कवियों, जिनमें दलित धारा के कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि एवं युवा कवि राजेश सकलानी के काव्य पाठ का आयेजन किया गया।
दृष्टि, देहरादून की स्थापना 1983 में हुई थी। वर्ष 2008 को दृष्टि ने रजत जयंति वर्ष के रुप में मनाते हुए इस कार्यक्रम का आयोजन किया। पिछले 25 वर्षो में जनपक्षधर संस्कृति के सवालों के साथ स्थानीय स्तर पर दृष्टि ने देहरादून ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखण्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की लड़ाई के दौरान उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन में दृष्टि की केन्द्रीय भूमिका रही।
आयेजित कार्यक्रम में हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जो पिछले दो वर्षो से देहरादून में रह रहे हैं, के साथ-साथ कथाकार विद्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, जितेन ठाकुर, गुरुदीप खुराना, गढ़वाली कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एवं घूमंतू निरंजन सुयाल, कुसुम भट्ट, कृष्णा खुराना, सीपीआई के उत्तराखण्ड महासचिव समर भंडारी, जगदीश कुकरेती और कई ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता एवं अन्य कविता प्रेमी श्रोता और दर्शक मौजूद थे।
दृष्टि, देहरादून की स्थापना 1983 में हुई थी। वर्ष 2008 को दृष्टि ने रजत जयंति वर्ष के रुप में मनाते हुए इस कार्यक्रम का आयोजन किया। पिछले 25 वर्षो में जनपक्षधर संस्कृति के सवालों के साथ स्थानीय स्तर पर दृष्टि ने देहरादून ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखण्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की लड़ाई के दौरान उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन में दृष्टि की केन्द्रीय भूमिका रही।
आयेजित कार्यक्रम में हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जो पिछले दो वर्षो से देहरादून में रह रहे हैं, के साथ-साथ कथाकार विद्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, जितेन ठाकुर, गुरुदीप खुराना, गढ़वाली कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एवं घूमंतू निरंजन सुयाल, कुसुम भट्ट, कृष्णा खुराना, सीपीआई के उत्तराखण्ड महासचिव समर भंडारी, जगदीश कुकरेती और कई ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता एवं अन्य कविता प्रेमी श्रोता और दर्शक मौजूद थे।
Sunday, April 27, 2008
अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर और ब्लाग पर छ्पे की --- ?
सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" पर मदन शर्मा का संस्मरण
उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" ने अपनी आयु के अंतिम द्स वर्ष, राजपुर (देहरादून) में व्यतीत किये। उन दिनों उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध रहा।
मफ्तून साहब ने दिल्ली में 54 वर्ष साप्ताहिक 'रियासत" का शानदार सफलतापूर्वक सम्पादन किया। वे एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'नाकाबिल-ए-फरामोश" और 'जज़बात-ए-मशरिक," भारतीय साहित्य में मील का पत्थर हैं। हज़रत जोश मलीहाबादी और महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, खुशवंत सिंह और अन्य हज़ारों साहित्य प्रेमी उनके प्रशंसक, रियासतों के राजा-महाराजा, उनके नाम से ही जलते थे। उर्दू लेखक कृश्नचन्दर की प्रथम रचना को उन्होंने तब 'रियासत" में प्रकाशित किया था जब कृशनचन्दर कक्षा नौ के विद्यार्थी थे।
देहरादून में, राजपुर बस-स्टाप से बायें हाथ, चौड़ी पक्की सड़क मसूरी के लिए है। बिल्कुल सामने एक पतली-सी चढ़ाई, कदीम राजपुर के लिए खस्ताहाल मकानों से होते हुए, शंहशाही आश्रम की ओर ले जाती है। इन दोनों मार्गों के बीच, एक बाज़ूवाली गली है जो घूमकर पुराने राजपुर के उसी मार्ग से जा मिलती है। इसी गली में कभी, उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह मफ्तून ने अपनी आयु के अंतिम दस वर्ष व्यतीत किये थे। यहाँ वे दो बड़े कमरों, लम्बें बरामदों और खुले आंगन वाले पुराने से मकान में अकेले रहते थे। आयु 80 के ऊपर थी। सीधा खड़ा होने में पूर्णत: असमर्थ। काफी झुककर या घिसट-घिसट कर किचिन या टॉयलेट तक जाते और अपना काम निबटाते। पड़ोस में रहने वाली स्वरूप जी, घर की साफ-सफाई कर जाती, या चाय-वाय की व्यवस्था कर देती। दिल्ली में, धड़ल्ले से छपने और देश-भर में तहलका मचा देने वाला साप्ताहिक 'रियासत" कभी का बंन्द हो चुका था। लेकिन राजपुर वाले इस मकान के दफ्तर में, लम्बी चौड़ी मेंज़ों पर मोटी-मोटी फ़ाइलें, रियासत के सिलसिलावर अंक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, कृश्नचन्दर, सआदत हसनमंटो और अन्य सैकड़ों प्रशंसकों द्धारा लिखे पत्र, अलग-अलग फ़ाइलों में मौजूद हैं। एक जगह खुशवंत सिंह का नाम भी दिखाई पड़ रहा है।
उस मकान में वह अकेले रहते थे। मगर हर रोज मिलने वालों का तांता लगा रहता। यार-दोस्त, प्रशंसक, पत्रकार, मश्वरा लेने वाले। वे एक माने हुए मेहमान नवाज़ थे। मेहमान को हमेशा भगवान का दर्जा दिया करते।
ज्ञानी जैल सिंह उन दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री थे। मफ्तून साहब से मिलने आये थे। बात-चीत हुई। ज्ञानी जी ने कहा-" आप यहाँ उजाड़ में पड़े क्या कर रहे हैं, चंडीगढ़ आजाइये''
""चंडीगढ़ में क्या करूंगा?'' मफ्तून साहब ने पूछा। ज्ञानी जी ने सहज भाव से कहा, "बातें किया करेंगे।'' मफ्तूत साहब छूटते ही बोले, "तुमने मुझे सोर्स ऑफ एन्अरटेनमेंट समझ रखा है?''
दोनों खिलखिला पड़े। उन्हें दो जगह से पेंशन मिल रही थी। पंजाब सरकार से और केंद्र सरकार से भी। इसके अतिरिक्त कितने ही उनके पुराने प्रशंसक थे, जों अब भी उन्हें चेक भेजते रहते थे और उसमें से बहुत को वे जानते तक नहीं थे। वे कहा करते---" इस जमाने में भी आप अगर काबिल हैं और आपका क्रेक्टर है तो लोग आपके पीछे, रूपए की थैलियां लिए घूमेंगे ---''
मैंने अब तक उनके बारे में महज़ सुना था। मिलने का कभी मौका न मिला था। एक दिन इन्द्र कुमार कक्कड, ""1970'' साप्ताहिक के लिये उनका साक्षात्कार लेने गये, तो अपने मोटर साईकिल पर मुझे भी साथ ले गये।
वे लम्बे चौड़े शरीर के खुशमिज़ाज, मगर लाचार से व्यक्ति नज़र आये। बिस्तर पर तकियों के सहारे अध-लेटे हुए वे बातचीत कर रहे थे। बाद में भी वे अकसर ऐसी अवस्था में ही नज़र पड़े।
उन्होंने बारी-बारी, हम दोनों से परिचय प्राप्त किया। मेरे बारे में मालूम कर, कि मैं उपन्यास वगैरा लिखता हूँ, उन्होंने हंसते हुए, लेखकों और कवियों के बारे में दो-तीन लतीफे सुना दिये। मुझे फीका सा पड़ता देख, वे अखबार वालों की ओर पलट पड़े-"यह अखबार वाले, क्रिमनल-क्लास के आदमी होते हैं। और इनमें सबसे बड़ा ऐसा क्रिमनल मैं खुद रहा हूँ'' ऐसा कह वे कहकहा लगा कर हंसने लगे।
अचानक उन्होंने मुझ से पूछा, "आपकी पैदायश कहां की है?'' मैंने जगह का नाम बताया, तो वे चौंक कर बोले, "रियासत मलेरकोटला के। मैं वहां कई बार जा चुका हूँ। मैं जिन दिनों महाराजा की मुलाज़मत में था, कई जरूरी कामों के सिलसिले में, मुझे वहां के नवाब अहमद अली खां से मुलाकात का मौका मिला था। मलेरकोटला अच्छी ज्रगह है। वहां के लोग बेहद मेहनती, ईमानदार मगर कावर्ड क्लास के होते हैं। जिस जगह की मेरी पैदायश है वह जगह अब पाकिस्तान में है। वहां के लोग भी बहुत मेहनती होते हैं। पैसा खूब कमाना जानते हैं। वे अच्छे मेहमानवाज होते हैं। मगर उनमें एक खूबी यह भी है, कि वो दुश्मन को कभी मुआफ़ नहीं करते। बल्कि उसका खून पी जाते हैं।''
फिर वे लेखन की ओर मुडे "---कम लिखो, मगर ऐसा लिखो, जो दूसरों से कुछ अलग और अनूठा हो। उस लिखे की उम्र लम्बी होनी चाहिये। अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर होती हैं। किसी रसाले में छपा, ज्यादा से ज्यादा एक महीने का मगर जो महात्मा तुलसी दास ने लिखा, उसे कई साल हो गये ---''
पंडित खुशदिल ने अपने उर्दू अखबार 'देश सेवक" के माध्यम से मफ्तून साहब की शान में, कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया। मफ्तून साहब को नागवार गुज़रा, क्योंकि उनकी खुशदिल से उनकी पुरानी जान पहचान थी। वे कितनी बार सपरिवार दिल्ली में उनके मेहमान बनकर रहे थे और कितनी बार मफ्तून साहब ने पंडित खुशदिल की माली इमदाद भी की थी। खुशदिल को अपनी गलती का, बाद में एहसास भी हो गया और उसने मफ्तून साहब से मुआफ़ी मांगने की भी कोशिश की थी, मगर मफ्तून साहब की डिक्शनरी में तो मुआफ़ी शब्द मौजूद ही नहीं था। वे मुझे बुला कर कहने लगे, ""मदन जी, आप एक काम कीजिये, देहरादून का जो टॉपमोस्ट एडवोकेट हो, उससे मेरी मुलाकात का टाइम फिक्स कराइये। मैं खुशदिल पर मुकदमा ठोकूंगा और नाली में घुसेड़ दूंगा।''
मैं सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से इन दिनों अखबारी शत्रुओं के पचड़ें मे पड़ना नहीं चाहता था, इसलिये चुप ही रहा।
कुछ दिन बाद, मफ्तून साहब का पत्र मिला ---"-आप छुट्टी के दिन इधर तशरीफ़ लायें। जरूरी मश्वरा करना है ---। दीवान सिंह''
मैं जाकर मिला। इधर-उधर की बातचीत और चाय के बाद उन्होंने पूछा, "आप उर्दू से हिंदी में तर्जुमा कर सकते हैं?'' मैंने कहा, "थोड़ा बहुत कर ही लेता हूँ।''
"थोड़ा-बहुत नहीं, मुझे अच्छा तर्जुमा चाहिये। आप फिलहाल एक आर्टिकल ले जाइये। इसे हिन्दी में कर के मुझे दिखाइये, ताकि मेरी तसल्ली हो जाये।''
मैं उनका लेख उठा लाया और अगले रविवार, अनुवाद सहित राजपुर जा पहुँचा।
""आप इसे पढ़ कर सुनाइये।''
मैंने पढ़कर सुना दिया। सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे और मैं चाय पीकर वापस लौट आया।
तीन दिन बाद उनका पत्र मिला, जिसमें लिखा था- "मेरे ख्याल के मुताबिक आप एक फर्स्ट क्लास ट्रांस्लेटर हैं। आप अगले रविवार को तशरीफ़ लाकर मेरी किताब का पूरा मैटर तर्जुमे के लिये ले जा सकते हैं।''
मैं उनकी किताब का मसौदा लेने राजपुर पहुंचा, तो बोले, "आप एक बात साफ़-साफ़ बताइये, इस किताब के पूरा तर्जुमा करने के लिये कितना मुआवज़ा लेंगे?''
मैंने चकित होकर कहा, "यह आप क्या कह रहे हैं। मेरे लिये तो यह फ़ख्र की बात है, कि मैं आपकी किताब का हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ। वे मुस्करा कर बोले, "यह आप ऊपर-ऊपर से तो नहीं कह रहे?'' मैने उन्हें यकीन दिलाया, कि जो कह रहा हूँ, दिल से ही कह रहा हूँ। मैंने पूरी किताब का अनुवाद किया। इन्द्र कुमार कक्कड़ ने उसे तरतीब दी और डॉ. आर के वर्मा ने पुस्तक प्रकाशित कर दी।
यह पुस्तक, जिस का नाम 'खुशदिल का असली जीवन" था मफ्तून साहब ने लोगों में मुफ्त तकसीम की और उसके माध्यम से देश सेवक के सम्पादक पंडित खुशदिल को सचमुच नाली में घुसेड़ दिया।
उर्दू के मशहूर शायर जनाब जोश मलीहाबादी ने अपनी ज़ब्रदस्त किस्म की किताब 'यादों की बारात" के एक अध्याय में लिखा है --- पूरे हिंदुस्तान में शानदार किस्म की गाली देने वाले तीन व्यक्ति अपना जवाब नहीं रखते। उनमें पहले नम्बर पर फ़िराक गोरखपुरी का नाम आता है। दूसरे नम्बर पर सरदार दीवान सिंह मफ्तून और तीसरे नम्बर पर खुद जोश मलीहाबादी। इनमें पहले और तीसरे नम्बर के महानुभावों से मिलने का मुझे मौका न मिल सका। मगर मफ्तून साहब से, वर्षों तक मिलने और बातचीत करने के नायाब मौके मिले। सिख होने के बावजूद वे हमेशा उर्दू में ही बातचीत किया करते थे। मगर उस बातचीत के दौरान, वे जिन गालियों का अलंकार स्वरूप प्रयोग किया करते, वे ठेठ पंजाबी में होती। उन गालियों का प्रयोग वे बातचीत में इतना उम्दा तरीके से करते, कि सुनने वाला वाह कह उठता।
मफ्तून साहब की भाषा में एक अन्य विशेषता भी थी। वे जिस तरह बोलते थे, उसी तरह लिखते थे। यह दीगर बात है, कि उस लेखन में वे गालियां शामिल न होती थी। उनके द्धारा बोले या लिखे जाने वाले वाक्य, सरल उर्दू में लेकिन लम्बे होते थे। मगर उनमें व्याकरण की अशुद्धि कभी नहीं मिल सकती थी। उनकी सुप्रसिद्ध किताब नाकाबिल-ए-फ़रामोश का हिंदी संस्करण, 'त्रिवेणी" नाम से छपा। इस किताब के छपने से खूब नाम और पैसा मिला। पुस्तक में जो छपा है, वह मफ्तून साहब के संघर्षमय जीवन का 'सच" है, जो पाठकों के लिये एक मशाल का काम करता है।
नाकाबिल-ए-फ़रामोश के उर्दू संस्करण की सभी प्रतियां खप चुकी थी। किंतु 'त्रिवेणी" की काफी प्रतियां अभी मफ्तून साहब के पास मौजूद थी। उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया, कि जो व्यक्ति किताब का डाकव्यय उन्हें मनीआर्डर से भेज देगा, उसे त्रिवेणी की प्रति मुफ्त भेज दी जायेगी। उनका नौकर हर रोज़ किताबों के पैकेट बनाता और पोस्ट आफिस जा कर रजिस्ट्री करा देता। मैंने हैरान होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं। इतनी मंहगी किताब लोगों को मुफ्त भेजे चले जा रहे हैं।''
वे हँस कर बोले,
"अब मैं ज्यादा दिन नहीं चलूंगा। मेरे बाद लोग इन किताबों को फाड़-फाड़ कर, समोसे रख कर खाया करेंगे। इससे अच्छा है, जो इसे पढ़ना चाहे, वे पढ़ लें।''
एक दिन दैनिक 'दूनदपर्ण" के सम्पादक एस. वासु उनसे मिलने आये तो कहने लगे, "अपनी इस किताब की एक जिल्द इस नाचीज को भी इनायत फ़रमाई होती।''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, "दरअसल यह किताब मैंने उन अच्छे लोगों के लिये लिखी है, जो इसे पढ़कर और अच्छा बना सकें। इसीलिये मैंने यह किताब आप को नहीं दी।''
वासु ने चकित होकर पूछा, ""मेरे अंदर आपने क्या कमी पाई?''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, ""कुछ रोज़ पहले, आप रात के बारह बजे मेरे यहां शराब की बोतल हासिल करने की गरज़ से तशरीफ़ लाये थे न? आप यह किताब लेकर क्या करेंगे?''
हिंदी कहानी पत्रिका 'सारिका" में एक कॉलम 'गुस्ताखियाँ"" शीर्षक से छप रहा था, जिसक माध्यम से,, हिंद पॉकेट बुक्स के निदेशक प्रकाश पंडित, अपने छोटे-छोटे व्यंग्य लिख कर जानीमानी हस्तियों पर छींटाकशी किया करते थे। एक बार वह गलती से वे मफ्तून साहब की मेहमान वाज़ी को केन्द्र बना कर बेअदबी कर बैठे। किसी ने सारिका का वह अंक मफ्तून साहब को जा दिखाया। प्रकाश पंडित को मफ्तून साहब अपना अज़ीज मानते थे। सुन कर वह इतना ही बोले, "यह बेचारा अगर काबिल होता, तो किसी की दुकान पर बैठ कर किताबें बेचता नज़र आता।''
मफ्तून साहब उच्च कोटि के सम्पादक और लेखक होने के बावजूद बहुत ही विनम्र थे। वे पहली मुलाकात में जाहिर कर देते थे, कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं है। वे अकसर मज़ाक के मूड में कहते।।। "मैं महज़ इतना पढ़ा हूं, जितना भारत का शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद, यानि पांचवी पास।''
एक दिन उनके पास पंजाबी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहन सिंह आये हुए थे। मुझसे उनका परिचय कराते हुए बोले, "इन्हें पिछले दिनों कोई बड़ी उपाधि मिली है। समझ में नहीं आता, जब इनसे बड़ा बेवकूफ मैं यहां मौजूद था, तो यह उपाधि मुझे क्यों नहीं दी गई।''
मफ्तून साहब के व्यक्तित्व में बला का आकर्षण था। उनके द्धारा कही गई साधारण बातचीत में भी गहरा अर्थ निहित रहता। मैं और इन्द्र कुमार कक्कड़, अकसर रविवार के दिन उनके दर्शन करने जाया करते। उन्हें हर वक्त सैकड़ों लतीफे या किस्से याद रहते, जिनके माध्यम से, स्वयं उनके सम्पर्क आये लोगों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता था। यह सब बयान करने की उनकी शैली इतनी उम्दा थी, कि सुनने वाला घंटों बैठा सुनता रहे और मन न भरे।
एक बार उनके पास एक आदमी, किसी का सिफारिश पत्र लेकर पहुंचा, जिसमें लिखा था, कि इस ज़रूरत मंद आदमी के लिये किसी कामकाज़ का बंदोबस्त कर दिया जाये। मफ्तून साहब ने उस आदमी के लिये रहने और खाने की व्यावस्था कर दी और कहा, "शहर में घंटाघर से थोड़ी दूर मोती बाज़ार है। वहां पर देश सेवक अखबार का दफ्तर है। आपको यह पता करना है कि वहाँ हर रोज़ लगभग कितनी डाक आती है।''
वह आदमी एक सप्ताह के बाद रिर्पोट लेकर पहुंचा और बोला, "क्या खाक डाक वहाँ पर आती है। हफ्ते भर में सिर्फ एक पोस्ट कार्ड आया, जिसमें लिखा था, कि ---
मफ्तून साहब ने टोका, "श्रीमान जी, मैंने आपको सिर्फ यह मालूम करने के लिये भेजा था, कि वहां पर हर रोज़ कितनी डाक आती है, या किसी का खत पढ़ने के लिये। दूसरों के खत पढ़ने वाले लोग यकीन के काबिल नहीं होते। इसलिऐ मुझे अफसोस है, कि मैं आपके लिए किसी काम का बंदोबस्त नहीं कर सकता।''
मेरे पड़ोसी मोहन सिंह प्रेम, मफ्तून साहब के प्रशंसक थे और उनसे मुलाकात के बहुत इच्छुक थे। मैंने उन्हें राजपुर जाकर मफ्तून साहब से मिल आने के लिये कह दिया। कुछ दिन बाद मैं मफ्तून साहब से मिला, तो वे कहने लगे, "आपने मेरे पास किस बेवकूफ को भेज दिया। वह आदमी जितनी देर मेरे पास बैठा रहा, आत्मा-परमात्मा की बातें ही करता रहा। मैंने बेजार होकर कह दिया, सरदार साहब, दिल्ली में आत्माराम एंड संस को तो मैं जानता हूँ, जो किताबें छापते हैं। मगर आपके आत्मा परमात्मा या धर्मात्मा जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं।''
एक दिन कोई अखबार वाला उनके पास आकर हालात का रोना रोने लगा ---"क्या बताऊँ, अखबार तो चल ही नहीं रहा। आप ही कुछ रास्ता बतायें।'' मफ्तून साहब ने कहा, "अखबार चलाने के तीन मकसद होते हैं। मुल्क और कौम की खिदमत करना और रूपया कमाना। आपका क्या मकसद हैं?''
वह आदमी बोला, ""जी मैं तो चार पैसे कमा लेना चाहता हूँ, ताकि दाल रोटी चलती रहे'', मफ्तून साहब बिगड़ कर बोले, "आप अखबार चलाने के बजाय, तीन चार कमसिन और खूबसूरत लड़कियों का बंदोबस्त करके उनसे धंधा कराइये। कुछ ही दिन में आपके पास पैसा ही पैसा होगा। आप अखबार चलाने के लायक नहीं।''
एक दिन मैंने कहा, "देश में भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही चला जा रहा है। आखिर होगा क्या?'' वे सोचने लगे। फिर बोले, "बहुत जल्द वह जमाना आने वाला है कि यही लोग, जो लीडरों के गले में फूलों के हार पहनाते नहीं थकते, इन्हीं लीडरों के लिये बंदूकें लिये, उनका पीछा करते नज़र आयेंगे।''
बातों का सिलसिला चल रहा था। इन्द्र कुमार ने कहा, "सुना है कृश्न चन्दर को आपने ही छापा था सबसे पहले।'' कृश्नचन्दर के बारे में बताने लगे---"वह तब नौंवी क्लास में पढ़ता था। उसने अपने किसी टीचर का नक्शा खींचते हुए तन्ज या व्यंग्य लिखा और मेरे पास भेज दिया। मुझे पसंद आया और रियासत में छाप दिया। उसको पढ़कर कृश्नचन्दर के टीचर और पिता ने भी, उसकी पिटाई कर डाली थी। काफ़ी दिन बाद उसकी एक कहानी मेरे पास आई। मैंने कहानी पढ़ी और तार दिया---'रीच बाई एयर"।
--- वह अगले ही दिन आ पहुँचा। मैंने कहा, "पहले फ्रेश होकर कुछ खा पी ले, फिर बात करेंगे।''
"यह कहानी तुमने लिखी?''
"जी''।
"इसे यहाँ तक पढ़ो।''
कृश्नचन्दर ने कहा, "यह तो वाकई मैं गलत लिख गया।''
"तो ऐसा करो, इसे अपने हाथ से ही ठीक कर दो। मफ्तून साहब के एकांउटेट ने उन्हें हवाई जहाज़ के आने जाने का किराया और डी. ए. वगैरा देकर विदा किया।''
इन्द्र कुमार ने कहा, "सआदत हसन मंटो के बारे में कुछ बताइये?'' बोले- "मंटो मेरा अच्छा दोस्त था। वह जिन दिनों दिल्ली में होता था शाम के वक्त मेरे दफ्तर में आता और देर तक बैठा रहता। मैं काम में लगा रहता और बीच बीच में उससे बात भी कर लेता। वह उठने लगता तो मैं पूछता,-'पियेगा?" वह जाते जाते रूक जाता और कहता, 'पीलूंगा।" मैं फिर काम में लग जाता। वह फिर उठने लगता, तो मैं फिर पूछ लेता, पियेगा? दो तीन बार ऐसा होने पर वह झुझला कर कहता, पिलायेगा भी कि ऐसे ही बनाता रहेगा?--- एक बार वह लगातार मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैंने मुस्कुरा कर पूछा, "मंटो, क्या देख रहे हो।'' वह बोला--- "सरदार तुमने अपने माथे पर जो यह बेंडेज बाँध रखी है इससे तुम्हारी पर्सनैलिटी में चार चांद लग जाते हैं।'' मंटो में एक खास बात थी, कि वह एक नम्बर का गप्पी था। वह अपनी कहानी में जान पहचान वालों या किसी फ़िल्मी हस्ती का असली नाम डाल देता और बाकी पूरी कहानी उसके अपने दिमाग की पैदावार होती थी। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं होती थी। मगर वह लिखता उम्दा था।''
मफ्तून साहब इन्द्र कुमार को सलाह दिया करते--- "मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी, शादी करना। वरना मैं बहुत तरक्की करता। कक्कड़, आप हरगिज़ शादी नहीं करना। आप में काबिलियत है, बहुत तरक्की कर सकते हैं ---''
वे चौरासी के आसपास पहुँच चुके थे। शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चला था। लेकिन अब भी किसी का सहारा लेना स्वीकार न था। उसी तरह घिसट-घिसट कर टॉयलेट या किचिन तक जाते। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कह ही डाला, "ऐसी हालत में आप का परिवार साथ होता, तो बेहतर होता।''
वे मेरी और देखते रहे, फिर बोले, "मेरी बीवी बददिमाग है। उससे हमारी बातचीत बंद है। तीन लड़के हैं। बड़ा लड़का कारोबारी है। खूब पैसे कमाता है। मगर बहुत अकड़बाज है। मैं भी उसका बाप हूं। दूसरा थोड़ा ठीक-ठाक हैं। किसी तरह अपना और बाल बच्चों का गुज़ारा कर लेता है। तीसरा दिमाग से कमज़ोर हैं। मैं कभी कभी उसका माली इमदाद कर दिया करता हँू। मगर उनमें से किसी को भी यहां आने की इज़ाजत नहीं --- दे आर नॉट एलाउडटू एंटर दिस हाऊस।''
वे फिर कहने लगे, "मैंने अपनी जिंदगी में लाखों कमाये। अपने ऊपर खर्च किया। दोस्तों की मदद की। मगर सबसे ज्यादा मेरा रूपया, अखबार पर चलने वाले मुकदमों पर खर्च आ गया, जिस की वजह से दिल्ली में मुझे 'रियासत" का दफ्तर बन्द कर देना पड़ा। हाँ, शादी न करता तो बात कुछ और होती।''
उन्हें महसूस होने लगा था, अब लम्बे सफ़र की तैयारी है। राजपुर बस-स्टैंड के पास शांति की दुकान थी। मफ्तून साहब ने उसे अपने अंतिम संस्कार के लिये कुछ रकम सौंप रखी थी। वे रात को भी दरवाज़ा खुला रख कर सोते। जाने कब बुलावा आ जाये और बेचारे शांति को दरवाज़ा तुड़वाना पड़े। एक बार मैंने कहा, "अगर चोरी हो जाये तो?''
वे हँस कर बोले, "यहां के चोर थर्ड क्लास किस्म के हैं। वे दाल चावल या नमक मिर्च ही चुरा सकते हैं। हाँ, कोई पंजाबी चोर आ गया, तो वह भारी चीज़ उठाने की सोचेगा।''
उनकी बीमारी के बारे में जानकर पंडित खुशदिल भी पता लेने पहुँचे। हालचाल पूछा और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए, मुआफ़ी की गुज़ारिश की। मुआफ़ी शब्द मफ्तून साहब की डिक्शनरी में नहीं था। मगर अंतिम समय मानकर उन्होंने केवल एक शब्द कहा, "अच्छा,''
बाद में मफ्तून साहब ने मुझे बताया, "खुशदिल आया था और मुआफ़ी मांग रहा था। मैंने अच्छा कह दिया। मैं एक बात सोच रहा हूँ, कि खुशदिल या तो महापुरूष है, या उल्लू का पट्ठा।''
कुछ अर्सा पहले उन्होंने अपनी नई किताब का मसौदा और प्रकाशन का व्यय, दिल्ली में अपने मित्र और शायर गोपाल मितल के पास भेजा था। पता नहीं चल सका, वह पुस्तक छपी या नहीं।
बहुत बीमार हो जाने पर महंत इंद्रेश चरण जी ने उन्हें कारोनेशन अस्पताल में दाखिल करा दिया। वहां वे प्राइवेट वार्ड में थे। उन दिनों 'फ्रटियरमेल" के सम्पादक दता साहब ने उनकी बहुत सेवा की और मुआमला नाज़ुक जानकर उन्होंने मफ्तून साहब के बेटे को सूचित कर दिया।
लड़के दिल्ली से आये और उन्हें बेहोशी की हालत में, कार में डाल कर ले गये।
दिल्ली में होश आने पर उन्होंने पूछा, "मैं कहां हूँ?''
"आप अपने परिवार में हैं।''
तभी उन्होंने शरीर त्याग दिया।
मदन शर्मा फ़ोन :-0135-2788210
उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह 'मफ्तून" ने अपनी आयु के अंतिम द्स वर्ष, राजपुर (देहरादून) में व्यतीत किये। उन दिनों उनसे मेरा निकट का सम्बन्ध रहा।
मफ्तून साहब ने दिल्ली में 54 वर्ष साप्ताहिक 'रियासत" का शानदार सफलतापूर्वक सम्पादन किया। वे एक उच्च कोटि के लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'नाकाबिल-ए-फरामोश" और 'जज़बात-ए-मशरिक," भारतीय साहित्य में मील का पत्थर हैं। हज़रत जोश मलीहाबादी और महात्मागांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, खुशवंत सिंह और अन्य हज़ारों साहित्य प्रेमी उनके प्रशंसक, रियासतों के राजा-महाराजा, उनके नाम से ही जलते थे। उर्दू लेखक कृश्नचन्दर की प्रथम रचना को उन्होंने तब 'रियासत" में प्रकाशित किया था जब कृशनचन्दर कक्षा नौ के विद्यार्थी थे।
देहरादून में, राजपुर बस-स्टाप से बायें हाथ, चौड़ी पक्की सड़क मसूरी के लिए है। बिल्कुल सामने एक पतली-सी चढ़ाई, कदीम राजपुर के लिए खस्ताहाल मकानों से होते हुए, शंहशाही आश्रम की ओर ले जाती है। इन दोनों मार्गों के बीच, एक बाज़ूवाली गली है जो घूमकर पुराने राजपुर के उसी मार्ग से जा मिलती है। इसी गली में कभी, उर्दू पत्रकारिता के पितामह सरदार दीवान सिंह मफ्तून ने अपनी आयु के अंतिम दस वर्ष व्यतीत किये थे। यहाँ वे दो बड़े कमरों, लम्बें बरामदों और खुले आंगन वाले पुराने से मकान में अकेले रहते थे। आयु 80 के ऊपर थी। सीधा खड़ा होने में पूर्णत: असमर्थ। काफी झुककर या घिसट-घिसट कर किचिन या टॉयलेट तक जाते और अपना काम निबटाते। पड़ोस में रहने वाली स्वरूप जी, घर की साफ-सफाई कर जाती, या चाय-वाय की व्यवस्था कर देती। दिल्ली में, धड़ल्ले से छपने और देश-भर में तहलका मचा देने वाला साप्ताहिक 'रियासत" कभी का बंन्द हो चुका था। लेकिन राजपुर वाले इस मकान के दफ्तर में, लम्बी चौड़ी मेंज़ों पर मोटी-मोटी फ़ाइलें, रियासत के सिलसिलावर अंक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, कृश्नचन्दर, सआदत हसनमंटो और अन्य सैकड़ों प्रशंसकों द्धारा लिखे पत्र, अलग-अलग फ़ाइलों में मौजूद हैं। एक जगह खुशवंत सिंह का नाम भी दिखाई पड़ रहा है।
उस मकान में वह अकेले रहते थे। मगर हर रोज मिलने वालों का तांता लगा रहता। यार-दोस्त, प्रशंसक, पत्रकार, मश्वरा लेने वाले। वे एक माने हुए मेहमान नवाज़ थे। मेहमान को हमेशा भगवान का दर्जा दिया करते।
ज्ञानी जैल सिंह उन दिनों पंजाब के मुख्यमंत्री थे। मफ्तून साहब से मिलने आये थे। बात-चीत हुई। ज्ञानी जी ने कहा-" आप यहाँ उजाड़ में पड़े क्या कर रहे हैं, चंडीगढ़ आजाइये''
""चंडीगढ़ में क्या करूंगा?'' मफ्तून साहब ने पूछा। ज्ञानी जी ने सहज भाव से कहा, "बातें किया करेंगे।'' मफ्तूत साहब छूटते ही बोले, "तुमने मुझे सोर्स ऑफ एन्अरटेनमेंट समझ रखा है?''
दोनों खिलखिला पड़े। उन्हें दो जगह से पेंशन मिल रही थी। पंजाब सरकार से और केंद्र सरकार से भी। इसके अतिरिक्त कितने ही उनके पुराने प्रशंसक थे, जों अब भी उन्हें चेक भेजते रहते थे और उसमें से बहुत को वे जानते तक नहीं थे। वे कहा करते---" इस जमाने में भी आप अगर काबिल हैं और आपका क्रेक्टर है तो लोग आपके पीछे, रूपए की थैलियां लिए घूमेंगे ---''
मैंने अब तक उनके बारे में महज़ सुना था। मिलने का कभी मौका न मिला था। एक दिन इन्द्र कुमार कक्कड, ""1970'' साप्ताहिक के लिये उनका साक्षात्कार लेने गये, तो अपने मोटर साईकिल पर मुझे भी साथ ले गये।
वे लम्बे चौड़े शरीर के खुशमिज़ाज, मगर लाचार से व्यक्ति नज़र आये। बिस्तर पर तकियों के सहारे अध-लेटे हुए वे बातचीत कर रहे थे। बाद में भी वे अकसर ऐसी अवस्था में ही नज़र पड़े।
उन्होंने बारी-बारी, हम दोनों से परिचय प्राप्त किया। मेरे बारे में मालूम कर, कि मैं उपन्यास वगैरा लिखता हूँ, उन्होंने हंसते हुए, लेखकों और कवियों के बारे में दो-तीन लतीफे सुना दिये। मुझे फीका सा पड़ता देख, वे अखबार वालों की ओर पलट पड़े-"यह अखबार वाले, क्रिमनल-क्लास के आदमी होते हैं। और इनमें सबसे बड़ा ऐसा क्रिमनल मैं खुद रहा हूँ'' ऐसा कह वे कहकहा लगा कर हंसने लगे।
अचानक उन्होंने मुझ से पूछा, "आपकी पैदायश कहां की है?'' मैंने जगह का नाम बताया, तो वे चौंक कर बोले, "रियासत मलेरकोटला के। मैं वहां कई बार जा चुका हूँ। मैं जिन दिनों महाराजा की मुलाज़मत में था, कई जरूरी कामों के सिलसिले में, मुझे वहां के नवाब अहमद अली खां से मुलाकात का मौका मिला था। मलेरकोटला अच्छी ज्रगह है। वहां के लोग बेहद मेहनती, ईमानदार मगर कावर्ड क्लास के होते हैं। जिस जगह की मेरी पैदायश है वह जगह अब पाकिस्तान में है। वहां के लोग भी बहुत मेहनती होते हैं। पैसा खूब कमाना जानते हैं। वे अच्छे मेहमानवाज होते हैं। मगर उनमें एक खूबी यह भी है, कि वो दुश्मन को कभी मुआफ़ नहीं करते। बल्कि उसका खून पी जाते हैं।''
फिर वे लेखन की ओर मुडे "---कम लिखो, मगर ऐसा लिखो, जो दूसरों से कुछ अलग और अनूठा हो। उस लिखे की उम्र लम्बी होनी चाहिये। अखबार में छपे मैटर की लाइफ एक दिन या हफ्ता भर होती हैं। किसी रसाले में छपा, ज्यादा से ज्यादा एक महीने का मगर जो महात्मा तुलसी दास ने लिखा, उसे कई साल हो गये ---''
पंडित खुशदिल ने अपने उर्दू अखबार 'देश सेवक" के माध्यम से मफ्तून साहब की शान में, कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया। मफ्तून साहब को नागवार गुज़रा, क्योंकि उनकी खुशदिल से उनकी पुरानी जान पहचान थी। वे कितनी बार सपरिवार दिल्ली में उनके मेहमान बनकर रहे थे और कितनी बार मफ्तून साहब ने पंडित खुशदिल की माली इमदाद भी की थी। खुशदिल को अपनी गलती का, बाद में एहसास भी हो गया और उसने मफ्तून साहब से मुआफ़ी मांगने की भी कोशिश की थी, मगर मफ्तून साहब की डिक्शनरी में तो मुआफ़ी शब्द मौजूद ही नहीं था। वे मुझे बुला कर कहने लगे, ""मदन जी, आप एक काम कीजिये, देहरादून का जो टॉपमोस्ट एडवोकेट हो, उससे मेरी मुलाकात का टाइम फिक्स कराइये। मैं खुशदिल पर मुकदमा ठोकूंगा और नाली में घुसेड़ दूंगा।''
मैं सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से इन दिनों अखबारी शत्रुओं के पचड़ें मे पड़ना नहीं चाहता था, इसलिये चुप ही रहा।
कुछ दिन बाद, मफ्तून साहब का पत्र मिला ---"-आप छुट्टी के दिन इधर तशरीफ़ लायें। जरूरी मश्वरा करना है ---। दीवान सिंह''
मैं जाकर मिला। इधर-उधर की बातचीत और चाय के बाद उन्होंने पूछा, "आप उर्दू से हिंदी में तर्जुमा कर सकते हैं?'' मैंने कहा, "थोड़ा बहुत कर ही लेता हूँ।''
"थोड़ा-बहुत नहीं, मुझे अच्छा तर्जुमा चाहिये। आप फिलहाल एक आर्टिकल ले जाइये। इसे हिन्दी में कर के मुझे दिखाइये, ताकि मेरी तसल्ली हो जाये।''
मैं उनका लेख उठा लाया और अगले रविवार, अनुवाद सहित राजपुर जा पहुँचा।
""आप इसे पढ़ कर सुनाइये।''
मैंने पढ़कर सुना दिया। सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे और मैं चाय पीकर वापस लौट आया।
तीन दिन बाद उनका पत्र मिला, जिसमें लिखा था- "मेरे ख्याल के मुताबिक आप एक फर्स्ट क्लास ट्रांस्लेटर हैं। आप अगले रविवार को तशरीफ़ लाकर मेरी किताब का पूरा मैटर तर्जुमे के लिये ले जा सकते हैं।''
मैं उनकी किताब का मसौदा लेने राजपुर पहुंचा, तो बोले, "आप एक बात साफ़-साफ़ बताइये, इस किताब के पूरा तर्जुमा करने के लिये कितना मुआवज़ा लेंगे?''
मैंने चकित होकर कहा, "यह आप क्या कह रहे हैं। मेरे लिये तो यह फ़ख्र की बात है, कि मैं आपकी किताब का हिंदी में अनुवाद कर रहा हूँ। वे मुस्करा कर बोले, "यह आप ऊपर-ऊपर से तो नहीं कह रहे?'' मैने उन्हें यकीन दिलाया, कि जो कह रहा हूँ, दिल से ही कह रहा हूँ। मैंने पूरी किताब का अनुवाद किया। इन्द्र कुमार कक्कड़ ने उसे तरतीब दी और डॉ. आर के वर्मा ने पुस्तक प्रकाशित कर दी।
यह पुस्तक, जिस का नाम 'खुशदिल का असली जीवन" था मफ्तून साहब ने लोगों में मुफ्त तकसीम की और उसके माध्यम से देश सेवक के सम्पादक पंडित खुशदिल को सचमुच नाली में घुसेड़ दिया।
उर्दू के मशहूर शायर जनाब जोश मलीहाबादी ने अपनी ज़ब्रदस्त किस्म की किताब 'यादों की बारात" के एक अध्याय में लिखा है --- पूरे हिंदुस्तान में शानदार किस्म की गाली देने वाले तीन व्यक्ति अपना जवाब नहीं रखते। उनमें पहले नम्बर पर फ़िराक गोरखपुरी का नाम आता है। दूसरे नम्बर पर सरदार दीवान सिंह मफ्तून और तीसरे नम्बर पर खुद जोश मलीहाबादी। इनमें पहले और तीसरे नम्बर के महानुभावों से मिलने का मुझे मौका न मिल सका। मगर मफ्तून साहब से, वर्षों तक मिलने और बातचीत करने के नायाब मौके मिले। सिख होने के बावजूद वे हमेशा उर्दू में ही बातचीत किया करते थे। मगर उस बातचीत के दौरान, वे जिन गालियों का अलंकार स्वरूप प्रयोग किया करते, वे ठेठ पंजाबी में होती। उन गालियों का प्रयोग वे बातचीत में इतना उम्दा तरीके से करते, कि सुनने वाला वाह कह उठता।
मफ्तून साहब की भाषा में एक अन्य विशेषता भी थी। वे जिस तरह बोलते थे, उसी तरह लिखते थे। यह दीगर बात है, कि उस लेखन में वे गालियां शामिल न होती थी। उनके द्धारा बोले या लिखे जाने वाले वाक्य, सरल उर्दू में लेकिन लम्बे होते थे। मगर उनमें व्याकरण की अशुद्धि कभी नहीं मिल सकती थी। उनकी सुप्रसिद्ध किताब नाकाबिल-ए-फ़रामोश का हिंदी संस्करण, 'त्रिवेणी" नाम से छपा। इस किताब के छपने से खूब नाम और पैसा मिला। पुस्तक में जो छपा है, वह मफ्तून साहब के संघर्षमय जीवन का 'सच" है, जो पाठकों के लिये एक मशाल का काम करता है।
नाकाबिल-ए-फ़रामोश के उर्दू संस्करण की सभी प्रतियां खप चुकी थी। किंतु 'त्रिवेणी" की काफी प्रतियां अभी मफ्तून साहब के पास मौजूद थी। उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया, कि जो व्यक्ति किताब का डाकव्यय उन्हें मनीआर्डर से भेज देगा, उसे त्रिवेणी की प्रति मुफ्त भेज दी जायेगी। उनका नौकर हर रोज़ किताबों के पैकेट बनाता और पोस्ट आफिस जा कर रजिस्ट्री करा देता। मैंने हैरान होकर कहा, "यह आप क्या कर रहे हैं। इतनी मंहगी किताब लोगों को मुफ्त भेजे चले जा रहे हैं।''
वे हँस कर बोले,
"अब मैं ज्यादा दिन नहीं चलूंगा। मेरे बाद लोग इन किताबों को फाड़-फाड़ कर, समोसे रख कर खाया करेंगे। इससे अच्छा है, जो इसे पढ़ना चाहे, वे पढ़ लें।''
एक दिन दैनिक 'दूनदपर्ण" के सम्पादक एस. वासु उनसे मिलने आये तो कहने लगे, "अपनी इस किताब की एक जिल्द इस नाचीज को भी इनायत फ़रमाई होती।''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, "दरअसल यह किताब मैंने उन अच्छे लोगों के लिये लिखी है, जो इसे पढ़कर और अच्छा बना सकें। इसीलिये मैंने यह किताब आप को नहीं दी।''
वासु ने चकित होकर पूछा, ""मेरे अंदर आपने क्या कमी पाई?''
मफ्तून साहब ने उतर दिया, ""कुछ रोज़ पहले, आप रात के बारह बजे मेरे यहां शराब की बोतल हासिल करने की गरज़ से तशरीफ़ लाये थे न? आप यह किताब लेकर क्या करेंगे?''
हिंदी कहानी पत्रिका 'सारिका" में एक कॉलम 'गुस्ताखियाँ"" शीर्षक से छप रहा था, जिसक माध्यम से,, हिंद पॉकेट बुक्स के निदेशक प्रकाश पंडित, अपने छोटे-छोटे व्यंग्य लिख कर जानीमानी हस्तियों पर छींटाकशी किया करते थे। एक बार वह गलती से वे मफ्तून साहब की मेहमान वाज़ी को केन्द्र बना कर बेअदबी कर बैठे। किसी ने सारिका का वह अंक मफ्तून साहब को जा दिखाया। प्रकाश पंडित को मफ्तून साहब अपना अज़ीज मानते थे। सुन कर वह इतना ही बोले, "यह बेचारा अगर काबिल होता, तो किसी की दुकान पर बैठ कर किताबें बेचता नज़र आता।''
मफ्तून साहब उच्च कोटि के सम्पादक और लेखक होने के बावजूद बहुत ही विनम्र थे। वे पहली मुलाकात में जाहिर कर देते थे, कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं है। वे अकसर मज़ाक के मूड में कहते।।। "मैं महज़ इतना पढ़ा हूं, जितना भारत का शिक्षामंत्री मौलाना आज़ाद, यानि पांचवी पास।''
एक दिन उनके पास पंजाबी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहन सिंह आये हुए थे। मुझसे उनका परिचय कराते हुए बोले, "इन्हें पिछले दिनों कोई बड़ी उपाधि मिली है। समझ में नहीं आता, जब इनसे बड़ा बेवकूफ मैं यहां मौजूद था, तो यह उपाधि मुझे क्यों नहीं दी गई।''
मफ्तून साहब के व्यक्तित्व में बला का आकर्षण था। उनके द्धारा कही गई साधारण बातचीत में भी गहरा अर्थ निहित रहता। मैं और इन्द्र कुमार कक्कड़, अकसर रविवार के दिन उनके दर्शन करने जाया करते। उन्हें हर वक्त सैकड़ों लतीफे या किस्से याद रहते, जिनके माध्यम से, स्वयं उनके सम्पर्क आये लोगों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता था। यह सब बयान करने की उनकी शैली इतनी उम्दा थी, कि सुनने वाला घंटों बैठा सुनता रहे और मन न भरे।
एक बार उनके पास एक आदमी, किसी का सिफारिश पत्र लेकर पहुंचा, जिसमें लिखा था, कि इस ज़रूरत मंद आदमी के लिये किसी कामकाज़ का बंदोबस्त कर दिया जाये। मफ्तून साहब ने उस आदमी के लिये रहने और खाने की व्यावस्था कर दी और कहा, "शहर में घंटाघर से थोड़ी दूर मोती बाज़ार है। वहां पर देश सेवक अखबार का दफ्तर है। आपको यह पता करना है कि वहाँ हर रोज़ लगभग कितनी डाक आती है।''
वह आदमी एक सप्ताह के बाद रिर्पोट लेकर पहुंचा और बोला, "क्या खाक डाक वहाँ पर आती है। हफ्ते भर में सिर्फ एक पोस्ट कार्ड आया, जिसमें लिखा था, कि ---
मफ्तून साहब ने टोका, "श्रीमान जी, मैंने आपको सिर्फ यह मालूम करने के लिये भेजा था, कि वहां पर हर रोज़ कितनी डाक आती है, या किसी का खत पढ़ने के लिये। दूसरों के खत पढ़ने वाले लोग यकीन के काबिल नहीं होते। इसलिऐ मुझे अफसोस है, कि मैं आपके लिए किसी काम का बंदोबस्त नहीं कर सकता।''
मेरे पड़ोसी मोहन सिंह प्रेम, मफ्तून साहब के प्रशंसक थे और उनसे मुलाकात के बहुत इच्छुक थे। मैंने उन्हें राजपुर जाकर मफ्तून साहब से मिल आने के लिये कह दिया। कुछ दिन बाद मैं मफ्तून साहब से मिला, तो वे कहने लगे, "आपने मेरे पास किस बेवकूफ को भेज दिया। वह आदमी जितनी देर मेरे पास बैठा रहा, आत्मा-परमात्मा की बातें ही करता रहा। मैंने बेजार होकर कह दिया, सरदार साहब, दिल्ली में आत्माराम एंड संस को तो मैं जानता हूँ, जो किताबें छापते हैं। मगर आपके आत्मा परमात्मा या धर्मात्मा जैसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं।''
एक दिन कोई अखबार वाला उनके पास आकर हालात का रोना रोने लगा ---"क्या बताऊँ, अखबार तो चल ही नहीं रहा। आप ही कुछ रास्ता बतायें।'' मफ्तून साहब ने कहा, "अखबार चलाने के तीन मकसद होते हैं। मुल्क और कौम की खिदमत करना और रूपया कमाना। आपका क्या मकसद हैं?''
वह आदमी बोला, ""जी मैं तो चार पैसे कमा लेना चाहता हूँ, ताकि दाल रोटी चलती रहे'', मफ्तून साहब बिगड़ कर बोले, "आप अखबार चलाने के बजाय, तीन चार कमसिन और खूबसूरत लड़कियों का बंदोबस्त करके उनसे धंधा कराइये। कुछ ही दिन में आपके पास पैसा ही पैसा होगा। आप अखबार चलाने के लायक नहीं।''
एक दिन मैंने कहा, "देश में भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही चला जा रहा है। आखिर होगा क्या?'' वे सोचने लगे। फिर बोले, "बहुत जल्द वह जमाना आने वाला है कि यही लोग, जो लीडरों के गले में फूलों के हार पहनाते नहीं थकते, इन्हीं लीडरों के लिये बंदूकें लिये, उनका पीछा करते नज़र आयेंगे।''
बातों का सिलसिला चल रहा था। इन्द्र कुमार ने कहा, "सुना है कृश्न चन्दर को आपने ही छापा था सबसे पहले।'' कृश्नचन्दर के बारे में बताने लगे---"वह तब नौंवी क्लास में पढ़ता था। उसने अपने किसी टीचर का नक्शा खींचते हुए तन्ज या व्यंग्य लिखा और मेरे पास भेज दिया। मुझे पसंद आया और रियासत में छाप दिया। उसको पढ़कर कृश्नचन्दर के टीचर और पिता ने भी, उसकी पिटाई कर डाली थी। काफ़ी दिन बाद उसकी एक कहानी मेरे पास आई। मैंने कहानी पढ़ी और तार दिया---'रीच बाई एयर"।
--- वह अगले ही दिन आ पहुँचा। मैंने कहा, "पहले फ्रेश होकर कुछ खा पी ले, फिर बात करेंगे।''
"यह कहानी तुमने लिखी?''
"जी''।
"इसे यहाँ तक पढ़ो।''
कृश्नचन्दर ने कहा, "यह तो वाकई मैं गलत लिख गया।''
"तो ऐसा करो, इसे अपने हाथ से ही ठीक कर दो। मफ्तून साहब के एकांउटेट ने उन्हें हवाई जहाज़ के आने जाने का किराया और डी. ए. वगैरा देकर विदा किया।''
इन्द्र कुमार ने कहा, "सआदत हसन मंटो के बारे में कुछ बताइये?'' बोले- "मंटो मेरा अच्छा दोस्त था। वह जिन दिनों दिल्ली में होता था शाम के वक्त मेरे दफ्तर में आता और देर तक बैठा रहता। मैं काम में लगा रहता और बीच बीच में उससे बात भी कर लेता। वह उठने लगता तो मैं पूछता,-'पियेगा?" वह जाते जाते रूक जाता और कहता, 'पीलूंगा।" मैं फिर काम में लग जाता। वह फिर उठने लगता, तो मैं फिर पूछ लेता, पियेगा? दो तीन बार ऐसा होने पर वह झुझला कर कहता, पिलायेगा भी कि ऐसे ही बनाता रहेगा?--- एक बार वह लगातार मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैंने मुस्कुरा कर पूछा, "मंटो, क्या देख रहे हो।'' वह बोला--- "सरदार तुमने अपने माथे पर जो यह बेंडेज बाँध रखी है इससे तुम्हारी पर्सनैलिटी में चार चांद लग जाते हैं।'' मंटो में एक खास बात थी, कि वह एक नम्बर का गप्पी था। वह अपनी कहानी में जान पहचान वालों या किसी फ़िल्मी हस्ती का असली नाम डाल देता और बाकी पूरी कहानी उसके अपने दिमाग की पैदावार होती थी। उसमें ज़रा भी सच्चाई नहीं होती थी। मगर वह लिखता उम्दा था।''
मफ्तून साहब इन्द्र कुमार को सलाह दिया करते--- "मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी, शादी करना। वरना मैं बहुत तरक्की करता। कक्कड़, आप हरगिज़ शादी नहीं करना। आप में काबिलियत है, बहुत तरक्की कर सकते हैं ---''
वे चौरासी के आसपास पहुँच चुके थे। शरीर काफ़ी कमज़ोर हो चला था। लेकिन अब भी किसी का सहारा लेना स्वीकार न था। उसी तरह घिसट-घिसट कर टॉयलेट या किचिन तक जाते। मैंने एक दिन साहस बटोर कर कह ही डाला, "ऐसी हालत में आप का परिवार साथ होता, तो बेहतर होता।''
वे मेरी और देखते रहे, फिर बोले, "मेरी बीवी बददिमाग है। उससे हमारी बातचीत बंद है। तीन लड़के हैं। बड़ा लड़का कारोबारी है। खूब पैसे कमाता है। मगर बहुत अकड़बाज है। मैं भी उसका बाप हूं। दूसरा थोड़ा ठीक-ठाक हैं। किसी तरह अपना और बाल बच्चों का गुज़ारा कर लेता है। तीसरा दिमाग से कमज़ोर हैं। मैं कभी कभी उसका माली इमदाद कर दिया करता हँू। मगर उनमें से किसी को भी यहां आने की इज़ाजत नहीं --- दे आर नॉट एलाउडटू एंटर दिस हाऊस।''
वे फिर कहने लगे, "मैंने अपनी जिंदगी में लाखों कमाये। अपने ऊपर खर्च किया। दोस्तों की मदद की। मगर सबसे ज्यादा मेरा रूपया, अखबार पर चलने वाले मुकदमों पर खर्च आ गया, जिस की वजह से दिल्ली में मुझे 'रियासत" का दफ्तर बन्द कर देना पड़ा। हाँ, शादी न करता तो बात कुछ और होती।''
उन्हें महसूस होने लगा था, अब लम्बे सफ़र की तैयारी है। राजपुर बस-स्टैंड के पास शांति की दुकान थी। मफ्तून साहब ने उसे अपने अंतिम संस्कार के लिये कुछ रकम सौंप रखी थी। वे रात को भी दरवाज़ा खुला रख कर सोते। जाने कब बुलावा आ जाये और बेचारे शांति को दरवाज़ा तुड़वाना पड़े। एक बार मैंने कहा, "अगर चोरी हो जाये तो?''
वे हँस कर बोले, "यहां के चोर थर्ड क्लास किस्म के हैं। वे दाल चावल या नमक मिर्च ही चुरा सकते हैं। हाँ, कोई पंजाबी चोर आ गया, तो वह भारी चीज़ उठाने की सोचेगा।''
उनकी बीमारी के बारे में जानकर पंडित खुशदिल भी पता लेने पहुँचे। हालचाल पूछा और अपने किये पर पश्चाताप करते हुए, मुआफ़ी की गुज़ारिश की। मुआफ़ी शब्द मफ्तून साहब की डिक्शनरी में नहीं था। मगर अंतिम समय मानकर उन्होंने केवल एक शब्द कहा, "अच्छा,''
बाद में मफ्तून साहब ने मुझे बताया, "खुशदिल आया था और मुआफ़ी मांग रहा था। मैंने अच्छा कह दिया। मैं एक बात सोच रहा हूँ, कि खुशदिल या तो महापुरूष है, या उल्लू का पट्ठा।''
कुछ अर्सा पहले उन्होंने अपनी नई किताब का मसौदा और प्रकाशन का व्यय, दिल्ली में अपने मित्र और शायर गोपाल मितल के पास भेजा था। पता नहीं चल सका, वह पुस्तक छपी या नहीं।
बहुत बीमार हो जाने पर महंत इंद्रेश चरण जी ने उन्हें कारोनेशन अस्पताल में दाखिल करा दिया। वहां वे प्राइवेट वार्ड में थे। उन दिनों 'फ्रटियरमेल" के सम्पादक दता साहब ने उनकी बहुत सेवा की और मुआमला नाज़ुक जानकर उन्होंने मफ्तून साहब के बेटे को सूचित कर दिया।
लड़के दिल्ली से आये और उन्हें बेहोशी की हालत में, कार में डाल कर ले गये।
दिल्ली में होश आने पर उन्होंने पूछा, "मैं कहां हूँ?''
"आप अपने परिवार में हैं।''
तभी उन्होंने शरीर त्याग दिया।
मदन शर्मा फ़ोन :-0135-2788210
Thursday, April 24, 2008
चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है
("रेलगाड़ी" सभी वय के लोगों को आकर्षित करती है लेकिन क्या चीज़ है जो इसको विशिष्ट छवि देती है ? यह एक बच्चे की आँखों से अनुभव किया जा सकता है। इंजन की वजह से इसका खिसकना संभव होता है। इस शब्द की वजह से रेल कितनी सरल और सुलभ लगने लगती है। रंगों का जिक्र और हिलने की क्रिया पूरी प्लेटफार्म की हलचल को प्रकाशित करती है। और हाँ, चाट पकोड़ी का स्वाद भी लोक आचरण की तस्वीर को सघन करता है. - राजेश सकलानी )
सौरभ गुप्ता, देहरादून
रेलगाड़ी
छुक्क छुक्क करती रेलगाड़ी आई
अपने पीछे कई डब्बे लाई
पटरी पर यह चलती हरदम
पर इंजन बिना कहीं न खिसके
काला था इंजन, सफेद थे डब्बे
डब्बों में थे रंग-बिरंगे लोग हिलते-डुलते
छुक्क छुक्क जब यह चलती
दूर तक सुनायी देती आवाज इसकी
प्लेटफार्म में धीरे हो जाए
स्टेशन में चाट पकौड़ी खाए
फिर धीरे-धीरे रफ्तार बढाए।
सौरभ गुप्ता, देहरादून
रेलगाड़ी
छुक्क छुक्क करती रेलगाड़ी आई
अपने पीछे कई डब्बे लाई
पटरी पर यह चलती हरदम
पर इंजन बिना कहीं न खिसके
काला था इंजन, सफेद थे डब्बे
डब्बों में थे रंग-बिरंगे लोग हिलते-डुलते
छुक्क छुक्क जब यह चलती
दूर तक सुनायी देती आवाज इसकी
प्लेटफार्म में धीरे हो जाए
स्टेशन में चाट पकौड़ी खाए
फिर धीरे-धीरे रफ्तार बढाए।
लेबल:
कविता,
ब्लाग पर,
सौरभ गुप्ता
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