विजय गौड
(22 जून को लददाख के अंदरुनी इलाके जांसकर की यात्रा पर अपने चार अन्य मित्रों के साथ निकल रहा हूं। जून और जुलाई के मध्य पिछले कई वर्षों से हम मित्र ऐसी यात्राओं पर निकलते रहे हैं। ऐसी ही एक यात्रा का विवरण प्रस्तुत है। तीन चार कड़ियों में ही यह संस्मरण पूरा होगा। जांसकर की यात्रा पहले भी कर चुका हूं। दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के अनुभव से जो रचनायें लिख पाना संभव हुआ, उसे कहानी और कविता के रुप में भी ढालता रहा हूं। उस श्रृंखला की कुछ कहानियां इधर-उधर प्रकाशित भी हुई हैं। पहल 72 में प्रकाशित उसी श्रृंखला की एक कहानी "जांसकरी घोडे वाले" इस संस्मरण के उपरांत, यात्रा में निकलने से पूर्व, यहां पुन: प्रकाशित करने का मन है। अभी प्रस्तुत है हर्षिल से छितकुल तक की यात्रा की प्रथम कड़ी। )
30 जून 2002 को हम देहरादून से चले और 8 जुलाई 2002 की शाम हिमाचल की किन्नौर घाटी के एक छोटे से गांव छितकुल पहुंच गये। छितकुल में लकड़ी के बने हुए घर बेहद खूबसूरत लग रहे थे। लेह-लद्दाख और कश्मीर के घरों की मानिंद छितकुल के मकानों के ऊपर के हिस्से में कांच की खिड़कियां ही दिखायी देती हैं जिनके ऊपर छज्जे जैसा, जो बारिस के पानी को रोक सके, नहीं था। छत का रूप उत्तरकाशी और हिमाचल के बीच पड़ने वाले लमखागा दर्रे की तरह- शंकुवाकार। वैसा ही दो बांहों में फैलता हुआ। कोई चित्रकार जैसे अपने चित्र में दूर उड़ते पक्षी को स्केच करते हुए सिर्फ दो रेखाओं से पक्षी की आकृति दिखा देता है। ठीक वैसे ही पंख खोलकर उड़ता पक्षी- छितकुल की छतें। किसी-किसी मकान के पीलरों पर, किनारियों पर नाशी की गयी। उत्तरकाशी की ओर से आते हुए लमखागा दर्रे को पार कर लगभग दो दिन के रास्ते पर आईटीबीपी की चैक-पोस्ट पड़ती है- नागेस्ती, जहां से छितकुल दिखायी देने लगता है। थोड़ा आगे बढ़ो तो खेतो में निराई-गुड़ाई करती किन्नरियां भी दिखने लगती हैं। दूसरे पहाड़ी इलाकों की तरह यहां भी ज्यादातर काम स्त्री के ही जिम्मे हैं। पहाड़ की स्त्रियां दुनिया के वे सभी काम बड़ी ही सहजता से करती हैं जिन्हें मैदानी इलाकों में पुरुष निबटाते हैं। मसलन घास के बड़े-बड़े पूले सिरों पर उठाये उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना, जंगलों से लकड़ी लाना। तीखी ढलानों पर खड़े हुए पेड़ भी पहाड़ी स्त्री के भीतर वैसा खोफ पैदा नहीं कर सकते। शरीर को हल्का-सा उछाला और दनादन-दनादन ऊपर चढ़ती चली गयी। इस सबके बावजूद घर के चूल्हे चौके से लेकर बच्चों की देखभाल तक उन्हीं के जिम्मे। फाफर छितकुल की मुख्य फसल है। गेहूं उगाया जाता है पर धान नहीं। घरों के आस-पास हरी सब्जी, मूली और गोभी आदि भी गांव वाले बोते ही हैं। नागेस्ती चैक-पोस्ट से गांव की ओर बढ़ते हुए गांव के द्वार पर बौद्ध कला का नुमाना दिखायी देता है- द्वार पर लामाओं की रंगी आकृतियां उकेरी गयी हैं। द्वार को देखकर छितकुल वालों को बैद्धिष्ट माना जा सकता है। लेकिन गोव में पहुंचकर मालूम हुआ कि छितकुल वाले न तो पूरी तरह से बैद्धिष्ट हैं और न पूरी तरह से हिन्दू। गांव में गोम्पा है जिसमें वर्ष 2000 में चोरी हुई। चोर बुद्ध की कांस्य प्रतिमा चुरा ले गये, अन्तराष्ट्रीय बाजार में जिसकी अच्छी-खासी कीमत मिल सकती है। गोम्पा से उत्तर-पूर्व दिशा में लकड़ियों से बने देवी के मन्दिर को भौगोलिक रुप से गांव का केन्द्र कहा जा सकता है। लकड़ियों का यह मन्दिर इतिहास में छितकुल के राजा का महल था, ऐसा गांव के एक युवक ने बताया। मन्दिर कौन-सी देवी का है ? कोई स्पष्ट जवाब नहीं। सिर्फ देवी। देवी के मन्दिर में पुजारी है। गोम्पा की जिम्मेदारी लामा पर। हमारी यात्रा के दौरान कोई भी लामा वहां नियुक्त नहीं था। गांव का ही एक लड़का जो शास्त्रीय रुप से लामा नहीं था पर अस्थायी तौर पर लामा का काम देख रहा था। मन्दिर में सुबह-सुबह पुजारी पूजा करता है। पूजा के वक्त ढोल, दमाऊ और थाली को जोर-जोर से बजाया जाता है। गांव के कुछ लोग अपने को हिन्दू मानते हैं और कुछ बौद्ध। मन्दिर और गोम्पा सभी के तीर्थ है। मालूम हुआ कि छितकुल की ही तरह एक गोम्पा और एक मन्दिर किन्नौर के हर गांव में है। ऐसा छितकुल से करछम आते हुए बस में बैठे सहयात्री ने बताया, जो छितकुल का ही रहने वाला था और ऐसा दिखायी भी देता रहा। सहयात्री अपने को पहले हिन्दू बता रहा था फिर बौद्ध, जबकि गांव में ही मिला एक युवक अपने को पहले बौद्ध बता रहा था फिर हिन्दू। यानी हिन्दू और बौद्ध साथ-साथ। दोनों धर्मों को स्वीकारना दोनों की बातचीत में था। किन्नौर में एक ही जाति नाम है- नेगी। नेगी ही पूजारी, नेगी ही राजपूत और नेगी ही बाजी। इसे बौद्ध धर्म का ही प्रभाव माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था यहां मौजूद नहीं है। फिर भी कहीं भीतर छुपा बैठा हिन्दू धर्म है जो उन्हें आपस में बांटे हुए है। जिस गेस्ट हाऊस में रुके, वहां खाना पहुंचाने वाला तो अपने को गर्व से कुंवर नेगी कह रहा था। वह यह भी कह रहा था कि हमारे पूर्वज मूल रुप से माणा के हैं जो किन्नौर में विस्थापित हुए। ऐसी ही बात गांव के अन्य लोगों से भी सुनने को मिली पर इसका ऐतिहासिक प्रमाण किसी के पास भी नहीं था।
विलसन जहां रुका, हम वहां से चले। हमें कहीं भी नहीं रुकना था। सिर्फ चलते जाना था। तो फिर हर्षिल में ही क्यों रुकें ?मोनाल पक्षी के पंखों का व्यापार हमें नहीं करना। देवदार वृक्षों को काटकर हमें मुद्रा इक्टठी नहीं करनी है । कस्तूरी का आकर्षण- हम उसे देख भर लें, बस। उसे मारने की हमें कोई जरुरत नहीं। हमें, कस्तूरी, मोनाल दिख भर जायें तो धन्य हो जायें।
हमारा कोई उपनिवेश नहीं और न ही उपनिवेश बनाने की खवाइश। जबकि दुनिया को उपनिवेश बनाने वाले आज नये से नये कुचक्र रच रहे हैं। हमारी निगाहें भी जिन्हें देख पाने में असमर्थ हैं।
चूंकि हमें कहीं नहीं रुकना था, इसीलिए तो 30 जून 2002 की सुबह जब देहरादून से चले तो कहीं भी नहीं रुके। सीधे उत्तरकाशी में ही बस से उतरे थे। मौसम बारिस का होने की वजह से बादल छाये हुए थे। अगले दिन पोर्टर आदि की व्यवस्था हो जाने के बाद हर्षिल की ओर बढ़ लिये। किन्नौर का एक छोटा-सा गांव- छितकुल, जहां पहुंचना था हमें। लेकिन रुकना वहां भी नहीं। हर्षिल से ही शुरु होता है वो मार्ग जो पांवों के जोर पर लमखागा पास को पार करते हुए छितकुल पहुंचायेगा।
कहां तक जाना है आज ?
मोरा सोर।
आज का पड़ाव मोरा सोर।
हमें यूंही रुकना है और चलते जाना है। तभी पहुंचेगें छितकुल।
छितकुल तो हम बस से भी जा सकते थे। बस का रास्ता तो शिमला होकर है। बस में ही लदकर शिमला होकर लौटना है देहरादून। तो फिर हर्षिल से ही क्यों जा रहे, पैदल! वो भी ऐसे इलाके से जो निर्जन है। जीव तो दूर वनस्पिति भी नहीं। मौजूद है तो सिर्फ मौरेन, बर्फ, पत्थर और जली हुई चट्टाने ही। आखिर क्या चीज है जो हमें आकर्षित करती है और जिसके पीछे भागे चले जाते हैं ?
पहाड़ों पर घूमना इसलिए शुरु नहीं किया कि पहाड़ी जीवन का हिस्सा हो जांऊ। चमकीला, हरहराता मौसम, पहाड़ों की ऊंचाई, बर्फ, पहाड़ों के लोग, एक तरह के जोखिम से गुजरने की इच्छा कहीं न कहीं भीतर तैरने लगी। मुसिबतों के पहाड़ हमारी जिन्दगी का हिस्सा न हो जायें, तभी तो भागे थे पिता पहाड़ छोड़कर। उनका भागना सही था या गलत, इस बात पर कभी नहीं उलझा। इधर बचचपन छूटा तो पहाड़ी 'कज्जाकों " का जीवन आकर्षित करने लगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि अपने भीतर के जंगलों से बाहर निकलने का क्रम ही मेरी यात्रायें हैं। जिसकी स्मृतियां हर वक्त मथती रहती हैं और जीवन को गति देती हैं। पहाड़ों की यात्रायें मेरे लिए मुक्ति की कामना भी नहीं। यात्राओं के बहाने ही तो मैं अक्सर अपने अतीत में झांकने की कोशिश करता हूं। मां, पिता, चाचा, चाची और ढेरों पहाड़वासियों की उस जिन्दगी में झांकना चाहता हूं जो उन्हें पहाड़ छोड़ने को मजबूर करती रही है। मुझे लगता है इसे जानने के लिए दुनियाभर के पहाड़ों से पलायन करते लोगों की जिन्दगी में झांकना होगा। किसी भी देश का पहाड़ी जीवन तो उस देश के कुलीन जीवन से अलग है।
हर्षिल में ही रुका था विल्सन। नालापानी-खलंगा के युद्ध में अंग्रेज जीत गये। गोरखे हारे थे। राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मद्द की। तोहफा तो मिलना ही था। अंग्रेज व्यापारी थे। चालाक थे। टिहरी राजा के स्वतंत्र अस्तित्व को कैसे स्वीकार करते। श्रीनगर राजधानी वापिस नहीं दी जा सकती थी। पर वफादारी का तोहफा क्या हो ? लिहाजा अन-उपजाऊ ढंगारों वाला हिस्सा, जो अलकनन्दा के दांये तट पर पड़ता है, सुदर्शन शाह को दे दिया गया। राजधानी श्रीनगर नहीं रही। नई राजधानी कहां हो ? और भागीरथी-भिलंगना का तट टिहरी रियासत की राजधानी बना। पूर्व दिशा में सीमा मंदाकनी नहीं रही। मंदाकनी के दांयें तट का उपजाऊ भाग भी अंग्रेजों ने अपने पास ही रखा। रवांई अभी राजा को नहीं सोंपा गया था। बाद में प्रशासनिक दितों की वजह से राजा को सोंपना पड़ा। यूं, राज तो राजा का ही रहा पर ब्रिटिश हस्तक्षेप भी जारी रहा। उसी दौरान अपनी बीमारी को ठीक करने विलसन टिहरी पहुंचा और हर्षिल के नजदीक मुखवा-धराली में ही रुक गया। मालूम नहीं शारीरिक बीमारी ठीक हुई या नहीं पर आर्थिक बीमारी को तो वह ठीक करने ही लगा। कस्तूरी मृगों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा और उनकी कस्तूरी निकाल ली। हांका लगाने के लिए स्थानिय लागों का इस्तेमाल किया। लट्ठों को नदीयों के बहाव के साथ मैदानों तक पहुंचाने वाला वह पहला व्यक्ति कहा जा सकता है। पेड़ों के लट्ठे नदी के बहाव के साथ हरिद्वार पहुंचने लगे। मुखवा-धराली के पास जब उसकी समानान्तर सत्ता चलने लगी तो "हुल सिंह साहब" या 'हुल सिंह राजा" के नाम से जाना जाने लगा। मुखवा के एक बाजी की लड़की से विवाह किया। हम जहां से निकल रहे हैं उसके दांयें हाथ पर विलसन कॉटेज। जो अब उजाड़ हो चुका है। सुनते हैं पिछले कुछ वर्ष पूर्व उसमें आग लग गयी थी। इसीलिए अभी वो रुप नहीं।
--जारी