एक दौर में दिनमान, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, कादम्बनी आदि पत्र-पत्रिकाओं में अपने विज्ञान विषयक आलेखों के कारण जाने जाने वाले यादवेन्द्र एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। पिछले एक लम्बे समय से उनकी खोमोशी जिन स्थितियों पर मनन करती रही है, उसकी आवाज को हम उनके हाल ही में इधर नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुए नेल्सन मंडेला के पत्रों का अनुवाद एवं जनसत्ता, समयांतर, कथादेश और अहा जिन्दगी में अनेकों प्रकाशित साहित्यिक अनुवादों के रुप में देख सकते हैं। आज वैश्विक पूंजी का जो रुप सामने आया है उसने दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने की जिस हिंसक कार्रवाई को जन्म दिया उसके खिलाफ जारी वे छोटे प्रतिरोध के बिन्दु जो इधर उधर बिखरे पड़े हैं, यादवेन्द्र पूरी शिद्दत से उन्हें एक जगह इकक्टठा करते जा रहे हैं। विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र इस बात को बखूबी जान रहे हैं कि विज्ञान को भी बंधक बनाकर अपने तरह से इस्तेमाल करने वाला यह तंत्र न सिर्फ सामूहिकता से भरी मानवीयता के खिलाफ है बल्कि वह एक ऐसा सांस्कृतिक वातावरण भी रच रहा है जिसमें उसकी आमानवीय कार्रवाइयां जायज ठहराई जा सके।
यादवेन्द्र जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार करते हुए अलबर्ट आइंस्टाइन का सिगमंड फ्रॉयड को लिखा एक महत्वपूर्ण पत्र हमें अनुवाद कर मुहैया कराया है। उनके इस अनुवाद को यहां प्रकाशित करते हुए हम उनका स्वागत भी कर रहे हैं और आभार भी। आगे भी ऐसी सामाग्री, जो समय समय पर हमें उनसे प्राप्त होती रहेगी, जैसा कि उन्होंने वायदा किया है, हम प्रकाशित करते रहेगें।
आधुनिक काल के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक अलबर्ट आइंस्टाइन सजग नागरिक व चिंतक भी थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरु होने से पहले "लीग ऑव नेशंस" (संयुक्त राष्ट्रसंघ का पूर्ववर्ती) द्वारा गठित विश्व भर के बुद्धिजीवियों के एक दल के नेता के तोर पर उन्होंने युद्ध के कारणों ओर मानव मन की गुत्थियों को समझने की कोशिशें कीं - उसी क्रम में विज्ञान के इस शिखर पुरुष ने मनाविज्ञान के तत्कालीन शिखर पुरुष सिगमंड फ्रॉयड को पत्र लिखकर उनकी विशेष राय जाननी चाही। दुर्भाग्य से आइंस्टाइन और फ्रॉयड का यह पत्र-व्यवहार हिटलर के सत्तासीन होने के कारण उनके जर्मनी छोड़कर चले जाने के बाद नाजी शासन द्वारा जब्त/नष्ट कर दिया गया।
अनेक दशकों बाद यह दस्तावेज जब मिला तो इसको धरोहर के तौर पर प्रतिष्ठा प्रदान की गई। यहां आज के दौर में बेहद प्रासंगिक आइंस्टाइन के इस पत्र का अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। यह पत्र ऑटो/नाथन एवं हींज नार्डेन द्वारा संपादित पुस्तक "आइंस्टाइन ऑन पीस" (शाकेन बुक्स, न्यूयार्क/1960 से उद्धृत है। ) - यादवेन्द्र।
09997642661
प्रिय श्री फ्रॉयड
सत्य की तह तक जाने की आपकी ललक का मैं बड़ा प्रशंसक रहा हूं और यही ललक आपकी सोच को दिशा प्रदान करती है। आपने अदभुत बोधगम्यता के साथ हमें समझाया है कि मानव मन अनिवार्यत: जैसे प्रेम और जीवन की लालसा से संचालित होता है, वैसे ही आक्रामक और विध्वंसक प्रवृत्ति भी इसी का अविच्छिन अंग है। साथ ही साथ आपके युक्तिपूर्ण तर्क युद्ध की विभीषिका से मानव की आंतरिक और बाहरी मुक्ति के प्रति आपकी गहरी निष्ठा भी साबित करते हैं। जीसस से लेकर गोथे और कांट तक नैतिक और धार्मिक नेताओं की ऐसी अटूट परम्परा रही है जो अपने काल और स्थान की सीमा का अतिक्रमण कर ऐसी ही गहरी आस्था की धारा प्रवाहित करते रहे हैं। यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि पूरी दुनिया ने ऐसे सभी व्यक्तियों को अपना नेता स्वीकार किया जबकि मानव इतिहास की धारा बदल देने की उनकी कामना असरहीन ही रही। हमारे चारों ओर ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां राष्ट्रों का भाग्य निर्धारित करने वाले सभी कामकाजी औजार पूरी तरह से गैर जिम्मेदार राजनैतिक नेताओं के हाथें में अनिवार्य तौर पर निहित हैं।
राजनैतिक नेता और सरकारें बल प्रयोग से या आम चुनाव के जरिए शक्ति प्राप्त करते हैं पर राष्ट्र के नैतिक या बौद्धिक स्वरूप में इस शक्ति को श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं माना जा सकता। हमारे समय में बुद्धिजीवी वर्ग विश्व के इतिहास पर किसी तरह को प्रत्यक्ष प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं है - ये इतने अलग-अलग हिस्सों में बंटे हुए हैं कि आज की समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए भी इनमें आपसी सहयोग मुमकिन नहीं। आप मेरी इस बात से सहमत होगें कि दुनिया के अलग भागों में काम और उपलब्धियों के तौर पर अपनी योग्यता और विश्वसनीयता प्रमाणित कर चुके लोगों का एक खुला मंच बनाकर परिवर्तन की मुहिम शुरु की जानी चाहिए। इस अंतराष्ट्रीय समूह के बीच विचारों का आदान-प्रदान निरंतर चलता रहेगा जो राजनैतिक समस्याओं पर निर्णायक प्रभाव डाल सकता है। बशर्ते सभी सदस्यों के हस्ताक्षरयुक्त वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित किये जाऐं। मुमकिन है ऐसे मंच में वे तमाम कमियां हो जो अब तक प्रबुद्ध समाजों के अध:पतन का कारण बनती रही हैं और मानव प्रकृति की अपूर्णता (imperfection) के मद्देनजर पतन की गति की और बढ़ जाए। पर क्या इन खतरों का हवाला देकर हम ऐसे मंच के गठन की कोशिश छोड़ दें और हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं ? मुझे तो यह अपना अनिवार्य दायित्व लगता है।
वास्तव में ऊंचे कद के बुद्धिजीवियों का ऐसा मंच एक बार अस्तित्व में आ जाए तो अगले कदम के रूप में धार्मिक समूहों को साथ में जोड़ने की जोरदार कोशिशें शुरु की जा सकती हैं जिससे सब मिलजुल कर युद्ध के विरुद्ध संघर्ष छेड़ सकें। ऐसे मंच के गठन से उन अनेक व्यक्तियों को नैतिक बल मिलेगा जिनके इरादे तो नेक हैं पर उन्हें नैराश्यपूर्ण समर्पण का फालिज मार गया है - इतना ही नहीं इससे लीग ऑव नेशंस को घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी महत्वपूर्ण नैतिक समर्थन मिल सकेगा।
इस मौके पर मैं अपना निजी हार्दिक सम्मान प्रेषित कर रहा हूं और आपके लेखन को पढ़ने में व्यतीत किए गए आनन्दपूर्ण समय के लिए आपको धन्यवाद दे रहा हूं। यह बात मुझे बहुत चकित करती है कि आपके सिद्धांतों से असहमति रखने वाले लोग भी अक्सर अचेतन तौर पर अपने विचारों और भाषाओं में आप ही की शब्दावली का प्रयोग करते पाए जाते हैं।
आपका
अलबर्ट आइंस्टाइन
अनुवाद - यादवेन्द्र
Monday, August 4, 2008
Sunday, August 3, 2008
संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी - अगस्त 2008
गोष्ठी में उपस्थित रचनाकार एवं साहित्य प्रेमी
संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विदध्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, अल्पना मिश्र, जितेन्द्र शर्मा, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, नवीन नैथानी, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, रामभरत "सिरमोरी" आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, सुनीता, शिक्षाविद्ध रचना नौटियाल मौजूद थे।
यह एक सामान्य गोष्ठी थी। संवेदना की सामान्य गोष्ठियों की विशेषता है कि ऐसी गोष्ठी में शहर भर के रचनाकार अपनी उन रचनाओं का पाठ करते है जो उन्होंने अभी लिखी भर हों और जिन पर प्रकाशन से पहले वे मित्रों की राय चाहते हों। रचनाओं पर विस्तृत चर्चा का एक अच्छा-खासा माहौल अपनी पूरी जीवन्तता के साथ होता है।
दिनांक 3।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून पुस्तकालय में सम्पन्न हुई इस गोष्ठी में प्रेम साहिल ने अपनी कविता का पाठ किया। कथाकर मदन शर्मा ने एक संस्मरण सुनाया। मदन शर्मा इस बीच अपने जीवन के लम्बे दौर में साथ रहे अंतरग संगी साथियों को याद करते हुए एक श्रृंखला के तौर पर संस्मरण लिख रहे हैं। जांसकर यात्रा के कुछ अनुभवों को लिपीबद्ध रूप में मैंने भी रखा।
मदन शर्मा अपनी रचना का पाठ करते हुए
संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विदध्यासागर नौटियाल, सुभाष पंत, अल्पना मिश्र, जितेन्द्र शर्मा, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, नवीन नैथानी, कवि राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, रामभरत "सिरमोरी" आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, सुनीता, शिक्षाविद्ध रचना नौटियाल मौजूद थे।
यह एक सामान्य गोष्ठी थी। संवेदना की सामान्य गोष्ठियों की विशेषता है कि ऐसी गोष्ठी में शहर भर के रचनाकार अपनी उन रचनाओं का पाठ करते है जो उन्होंने अभी लिखी भर हों और जिन पर प्रकाशन से पहले वे मित्रों की राय चाहते हों। रचनाओं पर विस्तृत चर्चा का एक अच्छा-खासा माहौल अपनी पूरी जीवन्तता के साथ होता है।
दिनांक 3।8।2008 को हिन्दी भवन, देहरादून पुस्तकालय में सम्पन्न हुई इस गोष्ठी में प्रेम साहिल ने अपनी कविता का पाठ किया। कथाकर मदन शर्मा ने एक संस्मरण सुनाया। मदन शर्मा इस बीच अपने जीवन के लम्बे दौर में साथ रहे अंतरग संगी साथियों को याद करते हुए एक श्रृंखला के तौर पर संस्मरण लिख रहे हैं। जांसकर यात्रा के कुछ अनुभवों को लिपीबद्ध रूप में मैंने भी रखा।
मदन शर्मा अपनी रचना का पाठ करते हुए
Wednesday, July 30, 2008
अपना बारूद सूखा रखिए
मैनिफ़ेस्टा- 7 यूरोप में हर दो वर्षों में होने वाली समकालीन कला प्रदर्शनी का सातवां मेला है। कला का यह आयेजन 19 जुलाई 2008 को आरम्भ हुआ और 2 नवम्बर 2008 तक चलेगा। फोर्टेत्सा/फ्रैंजेनफेस्टे में हो रहा है। ऐल्प्स पर्वतमाला में स्थित इस किले को हैप्सबर्ग राजवंश ने 1833 में बनवाया था। ऊंचे पर्वतों पर बना यह अब तक का सबसे बड़ा किला है। जुलाई 19 को मैनिफेस्टा का आयोजन पहला मौका है जब इसे आम लोगों के लिए खोला गया। मैनिफेस्टा से पूर्व इस किले में आमंत्रित दस रचनाकरों में, जिन्हें इस किले के बारे में अपने विचार एक रचना की शक्ल में रखने के लिए आमंत्रित किया था, अरुंधती राय भी थी। अरुंधति राय ने अपनी रचना में, पूंजी की चौधराहट के चलते जारी युद्धों और मौसम के बदलाव पर एक रुपक गढ़ा है जो बर्फ के ठोसपन से भरा है। बर्फ जिस पर फिसलती चली जा रही है दुनिया। खोए हुए सोने, गुम होती हुई बर्फ़ और ऎल्प्स में जारी हिमयुद्ध की शक्ल में. अरुंधति राय एक लम्बे अंतराल के बाद इस कथा रचना के साथ हाजिर हुई हैं। हिंदी के वरिष्ठ कवि नीलाभ द्वारा किया गया इस कथा का अनुवाद आऊटलुक (हिन्दी) 28 जुलाई 2008 में निर्देश शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह कथा रचना व्यापक हिन्दी पाठ्कों तक पहुंच सके, इसी मंशा के साथ यहां पुन: प्रकाशित की जा रही है।
निर्देश
अरुंधति राय
नमस्कार ! मुझे अफसोस है मैं आज यहां आपके साथ नहीं हूं लेकिन यह शायद ठीक भी है। जैसा समय चल रहा है, यही अच्छा है कि हम खुद को पूरी तरह जाहिर न करें, आपस में भी नहीं।
अगर आप रेखा को पार करके घेरे में कदम रखेगें तो शायद आपको सुनने में बहुत आसानी होगी। क्या आपने वह सब कुछ देख लिया है जो यहां देखने योग्य है - दवाई के डिब्बों जैसी बैटरियां, भटि्ठयां, खंदकनुमा फर्शों वाले शस्त्रागार ? क्या आपने मजदूरों की सामूहिक कब्रें देखी हैं ? क्या आपने सारे नक्शों पर गौर से निगाह डाली है ? क्या आपकी नजर में यह खूबसूरत है ? यह किला ? कहते हैं कि यह एक उद्धत शेर की तरह इन पहाड़ों पर जम कर बैठा हुआ है। अपनी कहूं तो मैंने कभी नहीं देखा। गाइडबुक कहती है कि यह खूबसूरत लगने के लिए नहीं बनवाया गया था। पर खूबसूरती तो बिन बुलाये भी आ सकती है - पर्दे की फांक से आती हुई सूरज की किरणों के सुनहरे सफूफ की तरह। हां, मगर यह तो वह किला है जिसके पर्दे में कोई फांक नहीं। वह किला, जिस पर कभी हमला नहीं हुआ। क्या इससे यह समझा जाए कि इसकी डरावनी दीवारों ने सौंदर्य को भी विफल करके उसे अपने रास्ते चलता कर दिया ?
सौंदर्य ! हम सारा दिन सारी रात इस पर बातें करते रह सकते हैं। वह क्या है ? क्या नहीं है ? कौन इस बात का फैसला करने का अधिकारी है ? कौन हैं दुनिया के असली सौंदर्य-पारखी, संग्रहपाल या हम इसे यों कहें - असली दुनिया के संग्रहपाल ? और असल दुनिया ही क्या है ? क्या वे चीजें असली हैं जिनकी हम कल्पना ही नहीं कर सकते, जिन्हें नाप ही नहीं सकते, विश्लेषित नहीं कर सकते, पुन: प्रस्तुत नहीं कर सकते, जिन्हें हम दुबारा जन्म नहीं दे सकते ? क्या उनका वजूद है भी ? क्या वे हमारे दिमाग की कंदराओं में किसी किले के भीतर रहती हैं जिस पर कभी हमला नहीं किया गया ? जब हमारी कल्पनाऐं विफल हो जाएंगी तब क्या दुनिया भी नाकाम हो जाएगी ? हमें इसका पता कभी नहीं चलेगा ?
कितना बड़ा है यह किला जो सुन्दर हो भी सकता है और नहीं भी ? वे कहते हैं कि इन ऊंचे पर्वतों में इससे बड़ा किला पहले कभी नहीं बना था। क्या कहा आपने - भीमकाय ? भीमकाय कहने पर चीजें हमारे लिए थोड़ी मुश्किल हो जाती हैं। क्या हम शुरुआत इसके मर्म-स्थानों का लेखा-जोखा करने से करें ? भले ही इस पर कभी हमला नहीं किया गया (या ऐसा ही कहा जाता है) तो भी जरा सोचिए कि इसे बनाने वालों ने हमला किए जाने के 'विचार' को कितनी बार जिया और फिर-फिर जिया होगा ? उन्होंने हमले किए जाने की 'प्रतीक्षा' की होगी। हमलों के सपने देखे होंगे। उन्होंने खुद को अपने दुश्मनों के दिलों और दिमागों में ले जाकर रखा होगा, यहां तक कि वे खुद को मुश्किल ही से उन लोगें से अलग महसूस कर पाते होंगे जिनके लिए उनके दिलों में इतना गहरा डर था। यहां तक कि आतंक और कामना के बीच अंतर करना उनके लिए संभव न रहा होगा। और तब, उस संतप्त, पीड़ित प्रेम की गुंजलक के भीतर उन्होंने हरसंभव दिशा से इतने से सटीक ढंग और शातिरपने के साथ किए गए हमले की कल्पना की होगी कि वे लगभग सच्चे जान पड़े होंगे। भला और कैसी की होगी उन्होंने ऐसी किलेबंदी ? भय ने इसे रूपाकार दिया होगा, दहश्त इसके जर्रे-जर्रे में समाई हुई होगी। क्या यही है दरअसल यह किला ? एक भंगुर साखी: संत्रास की, आशंका की, घिराव में फंसी कल्पना की।
इसका निर्माण - और मैं इसके प्रमुख इतिहासकार को उद्धत कर रहा हूं - उस चीज को संजोये रखने के लिए हुआ था जिसकी हर कीमत पर हिफाजत की जानी है। उद्धरण समाप्त। यह हुई न बातं तो साथियों, आखिर उन्होंने किस चीज को संजोया ? हिफाजत की तो किस चीज की ?
हथियार, सोना या खुद सभ्यता की । गाइडबुक तो यही कहती है। और अब, यूरोप के सुख-शांति और समृद्धि के काल में इसे सभ्यता की सर्वोच्च आकांक्षा से लोकोत्तर उद्देश्य, या अगर आप दूसरी तरह कहना चाहें, पर म निरुद्देश्यता - यानी कला - की एक नुमाइशगाह के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इन दिनों, मुझे बताया गया है, कला सोना है।
उम्मीद है आपने सूचीपत्रक खरीद लिया होगा। दिखावे के तौर पर ही सही।
जैसा कि आप जानते हैं, इस बात की संभावनाऐं हैं कि इस किले में सोना हो। असली सोना। छिपाया गया सोना। अधिकांश ले जाया जा चुका है, कुछ चुराया भी गया है लेकिन एक अच्छी-खासी मात्रा अब भी यहां बची हुई बातायी जाती है। हर शख्स उसकी तलाश में है - दीवारों का ठकठकाते हुए, कब्रों को खोद निकालते हुए। उनकी उत्कट हड़बड़ी को आप मानो छू सकते हैं।
वे जानते हैं कि किले में सोना है। वे यह भी जानते हैं कि पहाड़ों पर जरा भी बर्फ नहीं है। वे सोना चाहते हैं कि ताकि थोड़ी-सी बर्फ खरीद लें।
आप में से जो लोग यहीं के हैं - आपको तो हिमयुद्धों के बारे में मालूम होगा। जो नहीं हैं वे ध्यान से सुनें। यह बेहद जरुरी है कि आप उस जगह के रगो-रेशे और ताने-बाने को समझ लें जिसे आपने अपनी मुहिम के लिए चुना है।
चूंकि सर्दियां यहां अब पहले की बनिस्बत गर्म रहने लगी हैं इसलिए 'बर्फ बनने' के दिनों में कटौती हो हो गई है जिसका नतीजा है कि अब स्की करने की ढलानों को ढंकने के लिए पर्याप्त बर्फ नहीं है। ज्यादातर स्की ढलानें अब 'हिम विश्वसनीय' नहीं कही जा सकतीं। हाल के एक पत्रकार सम्मेलन में - शायद आपने रिपोर्टें पढ़ी हों - स्की प्रशिक्षक संघ के अध्यक्ष, वर्नर वोल्ट्रन ने कहा था, "भविष्य मेरे ख्याल में काला है। पूरी तरह काला।" (छिटपुट तालियां यों सुनाई देती हैं मानो दर्शक-गणों के पीछे से आ रही हों। मुश्किल से सुनायी देने वाली "वाह ! वाह ! जियो ! खूब कहा भैये ! की बुदबुदाहट)। नहीं, नहीं-नहीं, साथियो--- साथियो, आप गलत समझ रहे हैं। मिस्टर वोल्ट्रन 'अश्वेत राष्ट्र के अभ्युदय' की तरफ इशारा नहीं कर रहे थे। काले से उनका मतलब अशुभ, विनाशकारी, आशा रहित, अनर्थकर ओर अंधकारमय था। उन्होंने बताया था कि सर्दियों के तापमान में प्रत्येक सेल्सियस की वृद्धि लगभग एक सौ स्की-स्थलियों के लिए खतरे की घंटी है। आप कल्पना कर सकते हैं कि इसका मतलब है ढेर सारे रोजगार और धन की बलि।
हर कोई मिस्टर वोल्ट्रन की तरह नाउम्मीद नहीं है। मिसाल के लिए गुएंथर होल्ज हाउसेन को लीजिए जो 'माउंटेन वाइट' के प्रमुख कार्यकारी अध्यक्ष हैं। 'माउंटेन वाइट' बर्फ का एक नया ट्रेडमार्क-युक्त माल है जिसे आमतौर पर 'हॉस्ट स्नो' या उष्ण हिम के नाम से जाना जाता है क्योंकि उसका उत्पादन सामान्य तापमान से दो तीन डिग्री सेल्सियस ऊंचे तापमान पर हो सकता है। मिस्टर होल्जहाउसमेन ने कहा - और उनका बयान मैं आपके सामने पढ़ देता हूं, "बदलता हुआ मौसम ऐल्पस पर्वतमाला के लिए एक सुनहरा अवसर है। पूरे विश्व के गर्माने से तापमान में जो अत्यधिक वृद्धि हुई है ओर सागर की सतह बढ़ी है वह समुद्र-तटों पर केंद्रित प्यटन के लिए बुरी खबर है। आज से दस साल बाद जो लोग आमतौर पर छुटि्टयां मनाने के लिए निस्बतन ठंडे पर्वतों का रुख करेगें। यह हमारी जिम्मेदारी है, वास्तव में हमारा 'कर्तव्य' है कि हम सबसे उम्दा किस्म की बर्फ मुहैया कराने की गारंटी दें। 'माउंटेन वाइट' घनी, बराबर फैली हुई बर्फ का आश्वासन देती है जो स्की करने वालों को कुदरती बर्फ से कहीं ज्यादा उम्दा जान पड़ेगी।" उद्धरण समाप्त।
माउंटेन वाइट बर्फ, दोस्तो, सभी गैर-कुदरती बर्फों की तरह, एक प्रोटीन से बनती है जो सूडोमोनास सिरिंगे नामक जीवाणु की झिल्ली में पाया जाता है। जो चीज इसे दूसरी बर्फों से अलग करती है वह यह कि बीमारी या दूसरे रोगजनक खतरे से बचने के लिए माउंटेन वाइट इस बात की गारंटी देती है कि स्की उपयोगी बर्फ बनाने की खतिर जो पानी वह इस्तेमाल करती है, वह सीधे पानी के भंडारों से लिया जाता है। ऐसा कहते हैं कि गुएंथर होल्जहाउसमेन ने एक बार शेखी में कहा था, "आप हमारी स्की ढलानों को बोतल में भरकर भी पी सकते हैं। (साउंड-ट्रैक पर कुछ बेचैन, नाराज बड़बड़ाहट) मैं समझता हूं, समझता हूं।।। लेकिन अपने गस्से को ठंडा कीजिए। इससे सिर्फ आपकी नजर धुंधली होगी और उद्देश्य की धार भोथरी हो जाएगी।
कृत्रिम बर्फ बनानले के लिए नाभिकीय, संसाधित जल को उच्च दाब वाली शक्तिशाली हिम-तोपों द्वारा ऊंची रफ्तार से दागा जाता है। जब बर्फ तैयार हो जाती है तो उसके टीलों जैसे अंबार लग जाते हैं जिन्हें व्हेल कहते है। इसके बाद बर्फ को ढलानों पर बराबर से फैलाया जाता है जहां से कुदरती ऐब और प्राकृतिक चट्टाने साफ कर दी गई होती हैं। जमीन को उर्वरक की एक मोटी तह से ढंक दिया जाता है ताकि मिट्टी ठंडी रहे उष्ण हिमजनित गर्मी उस तक न पहुंच पाए। ज्यादातर स्की-स्थलियां अब नकली बर्फ इस्तेमाल करती हैं। लगभग हर स्की-गाह के पास एक तोप है। हर तोप का एक ब्रैंड है। हर ब्रैंड दूसरे ब्रैंड से युद्ध कर रहा है। हर युद्ध एक सुयोग है।
अगर आप कुदरती बर्फ पर स्की करना, या कम-अज-कम देखना, चाहते हैं तो आपके और आगे जाना होगा, उन हिमानियों तक जिन्हें प्लास्टिक की विशाल पन्नियों में लपेट दिया गया है ताकि गर्मियों के ताप से उनकी रक्षा हो सके और उन्हें सिकुड़ने से बचाया जा सकें हालांकि मैं नहीं जानता कि यह कितना कुदरती है - प्लास्टिक की पन्नी से लपेटी गई बर्फ की नदी। हो सकता है, आपको महसूस हो कि आप एक पुराने बासी सैंडविच पर स्की कर रहे हैं। मेरे ख्याल में एक बार तो अजमाने के काबिल है ही। मैं नहीं कह सकता, मैं स्की नहीं करता। पन्नियों की लाड़ाइयां एक किस्म की ऊंचाई पर किया गया संग्राम हैं - वैसा नहीं जिसके लिए आप में से कुछ लोग प्रशिक्षित हैं (दबी हंसी हंसता है)। वे हिम युद्धों से अलग हैं, हालांकि पूरी तरह असंबद्ध नहीं।
हिम युद्धों में 'माउंटेन वाइट' का एकमात्र गम्भीर प्रतिद्वंद्वी है 'सेंट ऐन 'स्पार्कल', एक नय उत्पाद जिसे पीटर होल्जाहाउसेन ने बाजार में उतारा है, जो, अगर आप मुझे गपियाने के लिए माफ करेगें, गुएंथर होल्जाहाउसेन के भाई हैं। सगे भाईं उनकी पत्नियां बहनें हैं। (बुदबुदाहट) क्या कहा ? हां--- सगी बहनों से ब्याहे सगे भाईं दोनों के परिवार सॉल्जबर्ग के रहने वाले हैं।
'माउंटेन वाइट' के सारे फायदों के अलावा 'सेंट ऐन 'स्पार्कल' ज्यादा सफेद, ज्यादा उजली बर्फ का वादा करती है जो सुगंधित भी है। अलबत्ता अलग कीमत अदा करने पर। 'सेंट ऐन 'स्पार्कल' तीन खुशबुओं में आती है - वनिला, चीड़ और सदाबहार। वह पर्यटकों के भीतर पुरानी चाल की छुटि्टयों को लेकर मौजूद अतीत-मोही लालसा को संतुष्ट करने का वादा करती है। 'सेंट ऐन 'स्पार्कल' एक बूटिक-निर्मित माल है जो खुले बाजार में आंधी की तरह छा जाने को जस्त लगाए है, या ऐसा ही जानकर कहते हैं क्योंकि उस माल के पीछे की दृष्टि है, स्वपनशीलता है ओर भविष्य की ओर एक आंख ! सुगंधित बर्फ के पीछे पर्यटन उद्योग पर वृक्षों और वनों के भूमंडलीय प्रवास से पड़ने वाले प्रभावों का अंदेशा भी काम कर रहा है। (बुदबुदाहट) जी हां, मैंने वृक्षों का प्रवास ही कहा।
क्या आप में से किसी ने स्कूल में मैकबेथ पढ़ा था ? क्या आपको याद है कि ऊसर में डायनों ने मैकबेथ से क्या कहा था ? मैकबेथ कभी पराजित होगा नहीं, जब तक विशाल बर्नम वन आएगा नहीं ऊंची डनसिनेन पहाड़ी पर उसके विरुद्ध ?
क्या आपको याद है मैकबेथ ने डायनों से क्या कहा था ?
(दर्शक-गणों के कहीं पीछे से एक आवाज कहती है, "ऐसा कभी होगा नहीं। कौन प्रभावित कर पाएगा वन को, देगा आदेश वृक्ष को, ढीली कर दे जड़ें जमीं हों जो धतरी में ?)
वाह ! बिल्कुल सही। लेकिन मैकबेथ एकदम गलत था। पेड़ों ने धरती से जीम हुई अपनी जड़ें ढीली कर दी हैं। और अब चलाचली है। वे अपने तबाह-बरबाद घरों से निकलकर एक बेहतर जिन्दगी की उम्मीद में वतन बदल रहे हैं। लोगों की तरह। गर्म इलाकों के ताड़-नारियल ऐल्प्स के निचले हिस्सों में आकर बस रहे हैं। सदाबहार अधिक ठंडी आबोहवा की तलाश में और ऊंचाई की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। स्की की ढलानों पर उष्ण हिम के नम गलीचे के नीचे, गम्र उर्वरक ढकी मिट्टी में चोरी-छिपे यात्रा करके आए तापगृह में उगने वाले नए पौधों के बीच अंकुआ रहे हैं। शायद जल्दी ही ऊंची पर्वत मालाओं पर फलों के पेड़, अंगूर के बीचे ओर जैतून के कुंज नजर आने लगेंगें
ज्ब पेड़ हिजरत करेंगे तो चिड़ियों और कीट-पतंगों, बर्रों, मधुमक्खियों, चमगादड़ों ओर दूसरे परागण करने वालों को भी उनके साथ-साथ जाना होगा। क्या वे अपने नए परिवेश के साथ तालमेल बिठा पाएंगे ? रॉबिन पाखी अभी से अलास्का में आ उतरे हैं। अलास्का के हिरन मच्छरों से तंग आकर और भी ऊंची बुलंदियों पर जा रहे हैं जहां उनके पास खाने के लिए काफी चारा नहीं है। मलेरिया मच्छर ऐल्प्स के निचले हिस्सों में आंधी की तरह चर लगा रहे हैं।
मैं इसी सोच में गर्क हूं कि यह किला जो भारी तोपों के हमले को भी यह लेने योग्य बनाया गया था, मच्छरों की सेना का मुकाबला कैसे करेगा ? हिम युद्ध अब मैदानों में फैल गए हैं। माउंटेन वाइट अब दुबई और सऊदी अरब के बाजारों पर राज कर रही हैं हिंदुस्तान ओर चीन में उसकी हिमायत की जा रही है, कुछ कामयाबी के साथ, ऐसी बांध निर्माण परियोजनाओं के लिए जो हर मौसम वाली स्की स्थलियों के प्रति पूरी तरह समर्पित होंगी। वह हॉलैंड के बाजार में भी दाखिल हो गई है। बांध मजबूत करने के लिए ताकि जब समुद्र की सतह जब ऊंची हो, पानी बांधों को आखिरकार लांघ जाए ओर हॉलैंड सागर में बहता चला जाए जो माउंटेन वाइट ज्वार को रोककर उसे सोने में बदल सके। 'माउंटेन वाइट है जहां, कोई डर कैसे हो वहां।' यह नारा मैदानों में भी उसी कामयाबी से काम करता है। सेंट ऐन 'स्पार्कल' ने भी कई तरफ पांव पसारे हैं वह एक लोकप्रिय टीवी चैनल की मालिक है और एक ऐसी कंपनी में उसके निर्णायक शेयर हैं जो बारूदी सुरंगें बनाती और उसे निष्फल भी करती है। शायद सेंट ऐन 'स्पार्कल' की नई खेप में अब स्ट्रॉबरी, क्रैनबरी, जोजोबा की खुशबुएं मिलाई जाएंगी ताकि बच्चों के साथ-साथ जानवरों ओर चिड़ियों को भी आकर्षित किया जा सके। बर्फ और बारूदी सुरंगों के अलावा सेंट ऐन 'स्पार्कल' मध्य एशिया और अफ्रिका के खुदरा बाजारों में बने-बनाए कृत्रिम-बैअरी चालित अंगोंं की भी बिक्री करती है। वह कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अभियाान के हिरावल दस्ते में शामिल है और अफगगानिस्तान में उत्तम कर्मचारियों वाले कॉरपोरेट अनाथालयों और गैर-सरकारी संगठनों को आर्थिक अनुदान भी देती है जिनमें से कुछ से आप परिचित भी हैं। हाल में उसने ऑस्ट्रिया और इटली में उन झीलों और नदियों से कीचड़ निकालने और उन्हें साफ करने का टेंडर भी भरा है जो उर्वरकों और नकली बर्फ के पिघले पानी से दोबारा प्रदूषित हो गई हैं।
यहां दुनिया के शिखर पर भी, अवशेष अब बीती हुई बात नहीं है। वह भविष्य है। कम-से-कम हममें से कुछ लोगों ने इस अर्से के दौरान दूसरे लोगों के लोभ के खंडहरों में चूहों की तरह जीना सीख लिया है। हमने बिना किसी संसाधन के हथियार बनाना सीख लिया है। हम उन्हें इस्तेमाल करना जानते हैं। यही हमारी लड़ाई की तदबीरें हैं, युद्ध कौशल है।
साथियों, पर्वतों में यह पत्थर का शेर अब कमजोर पड़ने लगा है। जिस किले पर कभी हमला नहीं हुआ उसने खुद अपने विरुद्ध घेरा डाल दिया है। वक्त आ गसया है कि हम अपनी चाल चलें। मशीनगनों और शोर-शराबे से भरी, दिशाहीन गालाबारी की बौछार की जगह किसी हत्यारे की गाली के अचूक ठंडेपन को ले आएं। लिहाजा अपने निशाने सावधानी से चुन लीजिए।
जब पत्थर के शेर की पत्थरीली हडि्डयां हमारी इस धरती में, जिसे जहर दिया गया है, दफन हो जाएगी, जब यह किला, जिस पर कभी हमला नहीं हुआ, मलबे में बदल जाएगा और उस मलबे की धूल बैठ जाएगी, तब शायद फिर से बर्फ गिरने लगेगी।
मुझे बस यही कहना है। आप अब जा सकते हैं। जो हिदायतें आपको दी गईं हैं उन्हें याद कर लीजिए। सलामती के साथ जाइए, साथियों, पैरों के निशान छोड़े बिना। जब तक हम फिर नहीं मिलते, आपकी यात्रा शुभ हों खुदा हाफिज, और अपना बारूद सूखा रखिए।
आऊटलुक (हिन्दी) 28 जुलाई 2008 से साभार।
Monday, July 28, 2008
कबाड़खाना: 'लोकसरस्वती' का लोकसंगीत - दो प्रस्तुतियां
कबाड्खाने पर यह लोकगीत निश्चित ही इतना सुंदर है कि इसे मै बार बार सुनना चाहूंगा, बस इसी लिये लिंक किये दे रहा हूं. आप भी सुनिये.
कबाड़खाना: 'लोकसरस्वती' का लोकसंगीत - दो प्रस्तुतियां
कबाड़खाना: 'लोकसरस्वती' का लोकसंगीत - दो प्रस्तुतियां
Friday, July 25, 2008
ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये
(पेशे से चिकित्सक डॉ एन.एस.बिष्ट का अपने बारे में कहना है कि (बंगाली) खाना पकाना, (अंग्रेजी) इलाज करना और (हिन्दी) कविता लिखना ये तीनों चीजें मुझे उत्साहित रखती हैं, क्योंकि इन तीनों कामों में ही रस, पथ्य, मसाले और रसायन जैसी, बहुत सारी मिलीजुली बातें हैं। डॉ बिष्ट युवा है और कविताऐं लिखते हैं। हाल ही में उनकी कविताओं की एक पुस्तक "एकदम नंगी और काली" तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। उनकी कविताओं की विशेषता के तौर पर जो चीज अपना ध्यान खींचती है वह है उनकी भाषा, जिसमें हिन्दी के साथ-साथ दूसरी अन्य भाषाओं, खास तौर पर बंगला, के शब्दों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है। भाषा का यह अनूठापन उनकी कविताओं को समकालीन हिन्दी कविताओं में एक अलग पहचान दे रहा है।)
डॉ एन.एस.बिष्ट 09358102147
वास्तव
वास्तव का मतलब -
एक निर्विघ्न छाया के रास्ते पर फिसले जाना
लेकिन मुझको ऊंट की सवारी चाहिए
ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये
ऊंट, जिसको इतने दिनों से सहेजा है
हर चीज का हरा सत्व सार कर
हरे का मतलब, लेकिन घास-पात नहीं
हरे का मतलब है छाया के रास्ते लगा
एक और रास्ता
जिस रास्ते में आंखों पर लगे किताब की तरह, आकाश
पन्ना पलटते ही सब कुछ जैसे पढ़ा जाय
हर चीज में ही आंखों लगने जैसी, जैसे कोई चीज हो
वास्तव
सिर्फ फिसलायेगा, चोट नहीं आयेगी कहीं
कंकड़ नहीं, कंटक नहीं कोई,
केवल छाया
छाया बिछाया नरम रास्ता
गिर पड़े तो आवाज नहीं, रक्तझरण नहीं, दाग नहीं -
आंखों लगने जैसा कोई दाग
तब भी मैं छोड़-कर चलता हूं, जल भरी छाती लिये
मछली की तरह तरना तैरता
यह तीर्ण जल
लेकिन कोई आंसू नहीं, कोई मानव स्राव नहीं
खिड़की के कांच पड़ा वृष्टि-जल है
जल जो पंख खोल मधुमक्खी सा उड़ता आता है
छपाक आंखों पर लगता है।
पहाड़ भारती
जहां भी जाता हूं मेरे चेहरे से चिपका रहता है, पहाड़ का चित्र
मेरी भंगिमा में हिमालयों का सौम्य, दाव की दुरंत द्युति
मेरे तितिक्षा में आकश खोभते
दयारों का शांकव
मेरी आंखों में स्तब्ध घुगतों की दृष्टि
मेरे चाल-चलन में गंगा-यमुनाओं की हरकत
बढ़ गया तो बाढ़, बंध गया तो बांध
मेरी सावधानी में ऊर्ध्वाधर बावन सेकेण्ड
जन गण मन के
अधिनायक के
जहां भी जाता हूं पुलिंदा कर चलता हूं भारत का मानचित्र
कि मर्यादाओं का न उलंघन हो
साथ लिये चलता हूं आस्तीन में सरयू की रेत
कि रेगिस्तान मिला तो एक टीला और कर दूंगा
कि समन्दर मिला तो किनारा बनाकर चल दूंगा
जहां भी जाता हूं ओढ़कर चलता हूं संविधान की गूढ़ नामावली
कि समुद्रतल से हिमालय के शिखर तक
हमारे उत्कर्ष की ऊंचाई बराबर है
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
हमारी राष्ट्रीयता की रास एक है
कि जाति, धर्म, नाम सब भारत के वर्षों में विरत
वलय बनाते हैं
जहां भी जाता हूं बस इतना चाहता हूं कि पहचान लिया जांऊ
कोई बेईमानी न करे मेरा नाम, पता न पूछे
कोई मक्कारी न करे मुझसे जाति, धर्म न पूछे।
डॉ एन.एस.बिष्ट 09358102147
वास्तव
वास्तव का मतलब -
एक निर्विघ्न छाया के रास्ते पर फिसले जाना
लेकिन मुझको ऊंट की सवारी चाहिए
ऊंट, जिसकी मेरू बादल के घट पर घर्ष खाये
ऊंट, जिसको इतने दिनों से सहेजा है
हर चीज का हरा सत्व सार कर
हरे का मतलब, लेकिन घास-पात नहीं
हरे का मतलब है छाया के रास्ते लगा
एक और रास्ता
जिस रास्ते में आंखों पर लगे किताब की तरह, आकाश
पन्ना पलटते ही सब कुछ जैसे पढ़ा जाय
हर चीज में ही आंखों लगने जैसी, जैसे कोई चीज हो
वास्तव
सिर्फ फिसलायेगा, चोट नहीं आयेगी कहीं
कंकड़ नहीं, कंटक नहीं कोई,
केवल छाया
छाया बिछाया नरम रास्ता
गिर पड़े तो आवाज नहीं, रक्तझरण नहीं, दाग नहीं -
आंखों लगने जैसा कोई दाग
तब भी मैं छोड़-कर चलता हूं, जल भरी छाती लिये
मछली की तरह तरना तैरता
यह तीर्ण जल
लेकिन कोई आंसू नहीं, कोई मानव स्राव नहीं
खिड़की के कांच पड़ा वृष्टि-जल है
जल जो पंख खोल मधुमक्खी सा उड़ता आता है
छपाक आंखों पर लगता है।
पहाड़ भारती
जहां भी जाता हूं मेरे चेहरे से चिपका रहता है, पहाड़ का चित्र
मेरी भंगिमा में हिमालयों का सौम्य, दाव की दुरंत द्युति
मेरे तितिक्षा में आकश खोभते
दयारों का शांकव
मेरी आंखों में स्तब्ध घुगतों की दृष्टि
मेरे चाल-चलन में गंगा-यमुनाओं की हरकत
बढ़ गया तो बाढ़, बंध गया तो बांध
मेरी सावधानी में ऊर्ध्वाधर बावन सेकेण्ड
जन गण मन के
अधिनायक के
जहां भी जाता हूं पुलिंदा कर चलता हूं भारत का मानचित्र
कि मर्यादाओं का न उलंघन हो
साथ लिये चलता हूं आस्तीन में सरयू की रेत
कि रेगिस्तान मिला तो एक टीला और कर दूंगा
कि समन्दर मिला तो किनारा बनाकर चल दूंगा
जहां भी जाता हूं ओढ़कर चलता हूं संविधान की गूढ़ नामावली
कि समुद्रतल से हिमालय के शिखर तक
हमारे उत्कर्ष की ऊंचाई बराबर है
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
हमारी राष्ट्रीयता की रास एक है
कि जाति, धर्म, नाम सब भारत के वर्षों में विरत
वलय बनाते हैं
जहां भी जाता हूं बस इतना चाहता हूं कि पहचान लिया जांऊ
कोई बेईमानी न करे मेरा नाम, पता न पूछे
कोई मक्कारी न करे मुझसे जाति, धर्म न पूछे।
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