Thursday, January 8, 2009

किसी नयेपन की तलाश में

संस्मरण

मदन शर्मा

देहरादून में, घंटाघर चौराहे से, पल्टन बाजार और चकराता रोड के मध्य और हनुमान मंदिर के पीछे, 'चाट वाली गली" है। इसी गली से निकलती एक अन्य गली, 'भगवान नगर" कहलाती है। इसी भगवान नगर के एक मकान के प्रथम तल पर, हिंदी की सुप्रसिद्ध कथा लेखिका शशि प्रभा शास्त्री का निवास था।
मैं अब तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में, शशी प्रभा शास्त्री की रचनाएं पढ़ता रहा था। किंतु यह नहीं मालूम था, कि वे देहरादून में ही रहती है। एक दिन, जब '1970" साप्ताहिक के साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़, श्रीमती शास्त्री से भेंट के लिये जाने लगे, तो मैं भी उनके साथ हो लिया।
उनकी सादगी देख, ऐसा ज़रा भी नहीं लगा, कि वे एक बड़ी या प्रसिद्ध लेखिका हैं। साधारण पहनावा, जैसे अचानक किचन से निकल कर इधर आ बैठी हों। घर का रख-रखाव और बातचीत भी अति साधारण और सहज।
इन्द्र कुमार ने उन्हें मेरे बारे में बताया, कि मैं कहानियां वगैरा लिखता हूं और हाल ही में, एक उपन्यास भी प्रकाच्चित हुआ है। सुन कर वे प्रसन्न हुईं और उपन्यास दिखाने का आग्रह किया। मैं 'शीतलहर" की प्रति साथ लेकर गया था। झिझक के साथ, प्रति उन्हें भेंट कर दी।
एक सप्ताह बाद, उनका पत्र मिला। पढ़ने की कोशिश की, तो पढ़ा ही नहीं गया। इतना ही अनुमान लगा सका, कि 'शीतलहर" के बारे में कुछ लिखा है और किसी दिन मिलने का भी आग्रह किया है।
मेरा यह प्रथम उपन्यास, किस स्तर का है, मुझे पता चल ही चुका था। उस पर अन्य क्या-क्या टिप्पणियां सुनने को मिल सकती हैं, इसका अनुमान भी लगा चुका था। इस के बावजूद, मैं भगवान नगर जा पहुंचा।
सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर पहुंचा और कालबेल का बटन दबाया। दरवाज़ा खुला और वे नज़र आईं।
""कहिये?'' उन्होंने प्रश्न किया।
अर्थात, उन्होंने मुझे नहीं पहचाना था।
""मैं मदन शर्मा हूं।'' मैंने लज्जित सा होकर कहा।
""अरे अरे, मैं भी बस क्या हूं! आइये आइये।।। बैठिये।''
कुशल क्षेम पूछ, वे भीतर जाकर चाय बना कर ले आईं। चाय के साथ-साथ उन्होंने 'शीतलहर" के बारे में बातचीत शुरू कर दी।।। मैंने आपका उपन्यास पढ़ लिया। आप अच्छा लिखते हैं, मगर पुस्तक में छपाई की बहुत गलतियां हैं। संवादों में कहीं कहीं कच्चेपन की झलक है। भा्षा में भी कई जगह अटपटापन नज़र आता है। मगर एक बात है, कि आप कहानी और घटनाओं को काफी रंगीन बना लेते हैं। वैसे ओवर आल, आप का यह उपन्यास रोचक है।।।
मैं कुछ नहीं बोला।
अचानक उन्होंने पूछा, ""आपने एम0 ए0 किस विषय में किया था?''
मैंने कहा, ""मैंने तो बी0 ए0 भी नहीं किया। दरअसल, मैं बहुत कम पढ़ा लिखा हूं। थोड़ी उर्दू और अंग्रेज़ी ही पढ़ी है।''
वे न जाने क्या सोचने लगीं। फिर बोलीं, ""आप जब अपना अगला उपन्यास छपने के लिये भेजने लगें, तो मुझे ज़रूर दिखा दें।''
मैंने बताया, कि मैं अगला उपन्यास प्रका्शक के पास भेज चुका हूं।
तब उन्होंने पुन:शीतलहर पर बातचीत शुरू कर दी और उसकी कमियों की ओर मेरा ध्यान दिलाया।
द्राच्चिप्रभा शास्त्री से मेरी तीसरी भेंट, उनके एम0 के0 पी0 कालेज में हुई। उस समय वे वहां प्रचार्या के पद पर थीं। मैं अपने संस्थान की ओर से, अपने एक सहयोगी के साथ, डिफेंसफंड एकत्रित करने के सिलसिले में वहां गया था। उन्होंने इस बार भी मुझे नहीं पहचाना था। हम लोग डिफेंस फंड के बारे में बातचीत करते रहे। जब उठने लगे, तो मैंने कह ही दिया, ""आपने शायद मुझे पहचाना नहीं।''
""आप को मैंने।।। कहीं देखा तो है।'' वे कुछ याद करने की कोशिश कर रही थीं।
""मैं मदन शर्मा हूं।'' आज मैं, फिर से अपना परिचय देते लज्जित नहीं हुआ।
""ओह।।।!''
उन्हें अपनी स्मरण शक्ति पर, सचमुच अफ़सोस हो रहा था। मैंने 'कोई बात नहीं" कहा और हम दोनों हंसते हुए, दफ़तर से बाहर चले आये। मैं अब अपने सहयोगी से आँखें चुरा रहा था, क्योंकि मैंने अपने संस्थान में डींग मार रखी थी, कि मेरा शशिप्रभा शास्त्री से, अच्छा परिचय है।
दैनिक 'पंजाब केसरी" के साहित्य सम्पादक अशोक प्रेमी ने आग्रह किया था, कि मैं कथा लेखिका शशिप्रभा शास्त्री के बारे में एक लेख लिख कर भेजूं। मैंने तुंरत इन शब्दों के साथ लेख शुरू कर दिया--- आप को यदि श्रीमती शशिप्रभा शास्त्री से भेंट करनी हो, तो भगवान नगर जाना होगा और जितनी बार आप उन से मिलना चाहेंगे, हर बार नये सिरे से आपको अपना परिचय देना होगा---
'पंजाब केसरी" में छपा मेरा वह लेख चर्चित हुआ। शशिप्रभा ने उसे पढ़ा और किसी दिन मिलने के लिये मुझे पत्र लिखा।
मैं अपने नव प्रकाशित उपन्यास 'अंधकार और प्रकाश" की प्रति लेकर उनके निवास पर पहुंचा। उस दिन दरवाजा, उनके पति धर्मेंद्र शास्त्री जी ने खोला। वे बोले,
""वे तो घर पर नहीं हैं। मेसेज छोड़ जाइये।''
""कह दीजियेगा, मदन द्रार्मा आया था।''
""अरे, आप मदन शर्मा हैं! आइये आइये, भीतर आकर बैठिये।''
धर्मेंद्र शास्त्री के बारे में मैंने सुन रखा था, कि वे यहां के डी0 ए0 वी0 कालेज में संस्कृत के विभागाघ्यक्ष हैं और किसी ऐरे-गैरे को घास डालना पसन्द नहीं करते। किंतु उस दिन जिस गरम जोशी के साथ, उन्होंने मेरा स्वागत किया, स्वयं चाय बना कर लाये, तो लोगों की उनके प्रति बनी धारणा निर्मूल सिद्ध हुई।
""आप का पंजाब केसरी में छपा लेख मैंने पढ़ा। वाह! क्या खूब लिखते हैं आप!
मज़ा आ गया!''
मैं पानी-पानी हुआ जा रहा था। पछता रहा था, क्यों मैंने यह हिमाकत की!
इतने में शशिप्रभा जी भी आ पहुंची। आज उन्होंने मुझे पहचानने में भूल नहीं की थी। बजाय नाराज़ होने के, उन्होंने भी मेरे लेख की प्रशंसा की और यह भी कहा,
""मदन जी, आप में एक अच्छे व्यंग्य लेखक होने के गुण मौजूद हैं। आप अपने अभ्यास को जारी रखें और मैं यह बात मज़ाक में नहीं कह रही हूं।''
मैंने अपने नये उपन्यास की प्रति उन्हें भेंट की। वे बहुत खु्श हुई और कहा, ""पढ़ कर बताउंगी, कैसा हैं।'' मेरा यह उपन्यास उन्हें बहुत पसन्द आया था। उन्होंने तीन प्रष्ठ लम्बी प्रतिक्रिया के साथ, आश्चर्य भी व्यक्त किया, कि शीत लहर जैसे अति साधारण उपन्यास के एक दम बाद मैं कैसे एक अच्छा उपन्यास लिख पाया।
उसके बाद, मैं अकसर प्रकाशनार्थ भेजने से पूर्व, अपनी रचना के बारे में शशिप्रभा जी से राय ले लेता। वे अपनी नि्श्पक्ष राय देतीं। किंतु यह कभी ज़ाहिर न होने देतीं, कि वे स्वयं बहुत बड़ी साहित्यकार हैं। वे स्वयं अपनी रचनाओं के बारे में मेरी राय जानना चाहतीं। उन्होंने अपने कई उपन्यास और कहानी संग्रह स्ास्नेह मुझे भेंट किये। उन्होंने ही मुझे 'संवेदना" और 'साहित्य संसद" की गोष्ठियों में नियमित भाग लेने की सलाह दी और बताया, कि वे स्वयं जो कुछ सीख पाई हैं, वह इन गोष्ठियों के माध्यम से ही सम्भव हुआ है।
बहुत से लोगों का उन के बारे में नज़रिया कुछ भिन्न ही रहा।।। वे घंमडी हैं लोगों से मिलना जुलना या बात करना पसंद नहीं करतीं, वगैरा वगैरा--- मगर मुझे वे कभी ऐसी नहीं लगीं। मूडी ज़रूर थीं। रिज़र्व भी थीं। बात तभी करती थीं, जब बहुत ज़रूरी हो। मैं जब भी उन से मिला, वे प्रसन्न ही नज़र आई। घंटों तक बातचीत होती। वे एक अच्छी मेहमान नवाज़ थीं।
एक दिन मैंने कह ही दिया, ""दीदी, आप अपने माहौल से कभी बाहर क्यों नहीं निकलती?''
वे चकित होकर बोली, ""कौन सा माहौल?''
""लोगों से मिलिये जुलिये। आम लोगों की तकलीफ़ों और समस्याओं को नज़दीक से परखिये। कम से कम, कमरे से बाहर निकल कर, ताज़ा हवा में चहल कदमी का आनन्द लीजिये।''
वे हंसने लगीं। फिर पूछा, ""उस से क्या हो जायेगा?''
""बहुत कुछ नया मिलेगा। लेखन में ताज़गी आयेगी।''
वे अब गम्भीर नज़र आने लगीं। फिर लम्बी सांस लेकर बोलीं, ""क्या करना नयेपन या ताज़गी का! मेरे लिये यह पुराना और बासी ही काफ़ी हैं। वैसे मैं लिखती भी क्या हूं! बस, यों ही उल्टी सीधी लकीरें खींच मारती हूं।''
मैंने पूछा, ""आप के हाथ से लिखा, प्रेस वाले पढ़ते कैसे होंगे?'' वे हँस कर बोली, ""टाइप कर के भेजती हूं।''
किंतु वे जब एक बार अपने उस कमरे या घर से बाहर निकलीं, तो सीधी अमरीका ही जा पहुंचीं। उनका बेटा वहां सपरिवार रहता था। वहां वे कई महीने रहीं। वहीं से लिखा उनका पत्र मिला। लिखा था--- यहां बहुत कुछ देख लिया। नया और ताज़ा, यही तो चाहते थे न आप! अब शीघ्र ही वापिस लौटूंगी और आप सभी से मिलूंगी--- वे वहां से यादों का पुलंदा बांध कर अपने साथ लाईं और यहां आते ही एक संस्मरणात्मक उपन्यास लिख डालां यह उपन्यास पर्याप्त रोचक था, किंतु यह भी उनके अन्य उपन्यासों की तरह र्चर्चित न हो पाया।
उनके कई उपन्यास और कहानी संग्रह पढ़ने को मिले। किंतु एक छोटा सा उपन्यास 'छोटे छोटे महाभारत" मुझे सबसे अच्छा मालूम पड़ा। हालांिक स्वयं शशिप्रभा जी को अपना यह उपन्यास बहुत मामूली लगा था।
कुछ महानुभावों का कहना था, कि उनके अपने पति के साथ सम्बन्ध खुशगवार न थे। मगर मुझे कभी ऐसा नहीं लगां। एक रात जब शास्त्री जी सोये, तो सुबह, जगाये जाने पर भी न उठे। तब उन पर जैसे गम का पहाड़ ही टूट पड़ा था। उसके बाद मैंने उन्हें कभी हंसतें हुए नहीं देखा। ऐसा लगता था, जैसे टूट सी गई हों। उसके बाद उन्होंने जो लिखा, वह भी जैसे बेमन से ही लिखा।
फिर वे कभी बच्चों के पास दिल्ली चली जातीं और कभी देहरादून लौट आतीं। फिर पता भी न चला, उन्होंने कब देहरादून वाला अपना मकान बेच कर, नोएडा में एक फलैट खरीद लिया और देहरादून स्थायी रूप से छोड़ दिया।
उनकी अंतिम रचनाओं में, 'हंस" में प्रकाशित एक कहानी, देहरादून में काफी चर्चित हुई। दरअसल यह कहानी, स्त्री विमर्श के मसीहा श्री राजेन्द्र यादव के 'टेस्ट" की थीं। किंतु शशिप्रभा शास्त्री के स्वभाव के बिल्कुल बरअक्स। इस रचना में देहरादून के चंद साहित्यकार मित्रों को बेबाकी से लपेट लिया गया था और इस प्रकार की कहानी की, कम से कम शशिप्रभा से उम्मीद न थीं। मुझे इस किस्म की कहानी पढ़कर धा सा लगा। मैंने पत्र लिख कर कहानी का ज़िक्र किया, तो उन्होंने टालने के मूड़ में मुझी से पूछा, कि मेरा नाटक 'एडीटर" आकाशवाणी से प्रसारित हुआ या नहीं।
उसके बाद बहुत दिन तक उनका कोई समाचार न मिला और न कोई रचना ही कहीं पढ़ने में आई।
अर्सा बाद, एक पोस्ट कार्ड मिला। लिखा था--- मैं इन दिनों काफी बीमार हूं। कमज़ोरी बहुत बढ़ गई है।।।
मैंने उन्हें फ़ोन पर सूचित किया, कि उन्हें देखने नोएडा पहुंच रहा हूं। उन्होंने 'अच्छा" कहा। किंतु साथ ही पत्र लिखा।।। मदन जी, आप अभी इधर न आयें। मैं इस वक्त आप का स्वागत करने की स्थिति में नहीं हूं।।।
मैं बड़ा निरा्श हुआ, क्योंकि मैं यहां से चलने के लिये तैयार था और वहां सिर्फ उनका पता लेने ही जाना था।
कुछ दिन बाद, उनका फिर पत्र मिला--- मैं अब पहले से काफी ठीक हंू। आप यहां अवश्य आयें। मिलकर अच्छा लगेगा।।।
उस समय मैं स्वयं बीमार पड़ा था। या समझिये, मिलना भाग्य में न था।
थोड़े ही दिन बाद, अखबार में समाचार छपा था।।। हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका शशिप्रभ शास्त्री अब नहीं रहीं---
घुली हुई शाम, वीरान रास्ते और झरने, अमलतास, नावें, सीढ़िया, छोटे छोटे महाभारत, परछाइयों के पीछे और कितनी ही अन्य छोटी या लम्बी रचनाओं की यात्रा समाप्त कर, वे शायद किसी नयेपन की तलाश में, बहुत दूर जा पहंुची थीं और मैंने अपनी स्नेहमयी बड़ी दीदी को हमे्शा के लिये खो दिया था।

Sunday, January 4, 2009

संवेदना की मासिक बैठक जनवरी 2009

वर्ष 2009 की शुभकामनाओं और कथाकार जितेन ठाकुर के दिवंगत पिता को विनम्र श्रद्धांजली के साथ आज दिनांक 4/1/2009 को सम्पन्न हुई संवेदना की मासिक बैठक में कवि राजेश सकलानी ने अपनी नयी रचनाओं का पाठ किया जिन पर विस्तार से चर्चा हुई। कवि राजेश पाल ने भी अपनी ताजा रचनाएं सुनायी। अपने कथ्य में स्थानिकता को बयान करती राजेश पाल की कविता टिहरी की चिट्ठी ने निर्विवाद रुप से सभी को प्रभावित किया।
कथाकार डॉ जितेन्द्र भारती ने अपनी एक पुरानी कहानी लछमनिया, जिसे उन्होंने पहले मिली राय मश्विरों के अधार पर पुन: दुरस्त किया, का पाठ किया। मैंने भी अपनी ताजा कहानी फोल्डिंग दीवान पढ़ी। डॉ विद्या सिंह ने भी अपनी एक रचना का पाठ किया।
गोष्ठी में अन्य उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, दिनेश चंद्र जोशी,, जयन्ती सिजवाली,, प्रेम साहिल, आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता शकुन्तला, सुनील रावत और राजेन्द्र गुप्ता मौजूद थे।

गोष्ठी में पढ़ी गयी राजेश पाल की कविताएं यहां प्रकाशित की जा रही है।

राजेश पाल

टिहरी की चिट्ठी


दिन 8 जुलाई 2008
पोस्टमैन के हाथ में है
एक चिट्ठी
पता लिखा है-
राम प्रसाद नौटियाल
पुरानी मण्डी चौक
टिहरी

दुनियां में आज भी कितने लोग हैं
जो अपने पुराने दोस्तों को भी याद करते हैं
जिन्हें नहीं पता है
कि टिहरी का अब कोई पता नहीं है
और न ही पता है अब दोस्त का।


चादर

गड़रिये
सफर में
कन्धे पर चादर रखते हैं
धूप लगी तो - सिर पर बांध ली
ज्रुरत पड़ी तो - बिछा ली
नहाये तो
बदन पोछकर धेती बांध ली

दरअसल
बौहने पैर
बबूल के जंगल से गुजरते हुये
गड़रिये की जिन्दगी
और चादर में कोई फर्क नहीं है।

Thursday, January 1, 2009

करो कामना थाप, धमक और थिरकने वाले तार की

आतंक के साये से जख्मी, वर्ष 2008 बीत गया है। प्रेम की फुहार बिखेरते, नव वर्ष 2009 का स्वागत है। आयशी गुल की कविताओं के अनुवाद के साथ प्रस्तुत है हमारे वरिष्ठ साथी यादवेन्द्र जी। गुल तुर्की की कवियत्री हैं जो ब्रिटेन में रहती हैं।

priy vijayji,

do chhoti kavitayen aapko bhej raha hun...
mujhe behad priy lagin...itni ki yadi is desh me kahi hotin GUL to ja kar unse jaroor milta aur anya kavitayen sunta.(2001 me britain ki POETRY MAGAZINE me prakashit)

yadvendra


तुम्हारे साथ


(1)

तुम्हारे साथ
आदमी औरत जैसी कोई बात नहीं
न ही तुम तुम हो, न ही मैं मैं
हम बस हम हैं और वे वे---

तुम्हारे साथ
हम महज दो वृक्ष हैं तने हुए इस सड़क पर
आजू बाजू में एक दूसरे के
हवा में अठखेलियां करते
ताकते तालाब को तो कभी आकाश को
बीच-बीच में दूसरे वृक्षों को भी
मेरी पत्तियां वही सांस ले रही हैं
जो ले रही हैं तुम्हारी पत्तियां
वैसे ही धूप में नहा रही हैं
और वैसे ही चख रही है स्वाद
हवा और बारिश के---

तुम्हारे साथ
न ही काल की और न ही स्थान की बंदिशें हैं
मेरी डालियां झुक रही हैं
आतुर छूने को तुम्हारी डालियां
वैसे ही जैसे कि मेरी पत्तियां
हौले-हौले गले लग रही है
तुम्हारी पत्तियां---

(2)

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल जगा देते हैं भूख की ज्वाला
और मैं कामना करने लगती हूं
चार जून के व्यंजनों की
शराब और ब्रांडी की लज्जत के साथ

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल हो जाते हैं बन कर प्रस्तवाना
और मैं कामना करने लगती हूं सम्पूर्ण उपन्यास की
साथ हो जिसमें पटाक्षेप भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल बन जाते हैं पूर्व परिचय
और मैं कामना करने लगती हूं
चार दिशाओं वाले ओपेरा की
जिसमें हिलते रहे पर्दे बार-बार

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल छा जाते हैं भूमिका बनकर
और मैं कामना करने लगती हूं एक मुकम्मल सिंफोनी की
जिसमें हो आरोह और क्लाईमेक्स भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
बजने लगते हैं जैसे हों बंशी और मादल
और मैं कामना करने लगती हूं पूरे ऑक्रेस्ट्रा की
जिसमें फूंक हो, थाप हो, धमक हो
और हो थिरकने वाले तार भी

Thursday, December 25, 2008

क्रांतिकारी धारा के कवि ज्वालामुखी को विनम्र श्रद्धांजलि



सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे.चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया.इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा।
ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है। जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

मैनेजर पांडेय,राष्ट्रीय अध्यक्ष
जनसंस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण,महासचिव,
जनसंस्कृति मंच

विद्यासागर नौटियाल का नया कथा-संग्रह " मेरी कथा यात्रा"




सुप्रसिद्ध आलोचक डा0 नामवरसिंह 25 दिसम्बर '08 को दूरदर्शन के ने्शनल प्रोग्राम के अंतर्गत
सुबह 8-20 बजे विद्यासागर नौटियाल के कथा-संग्रह
मेरी कथा यात्रा की समीक्षा करेंगे