Thursday, January 1, 2009

करो कामना थाप, धमक और थिरकने वाले तार की

आतंक के साये से जख्मी, वर्ष 2008 बीत गया है। प्रेम की फुहार बिखेरते, नव वर्ष 2009 का स्वागत है। आयशी गुल की कविताओं के अनुवाद के साथ प्रस्तुत है हमारे वरिष्ठ साथी यादवेन्द्र जी। गुल तुर्की की कवियत्री हैं जो ब्रिटेन में रहती हैं।

priy vijayji,

do chhoti kavitayen aapko bhej raha hun...
mujhe behad priy lagin...itni ki yadi is desh me kahi hotin GUL to ja kar unse jaroor milta aur anya kavitayen sunta.(2001 me britain ki POETRY MAGAZINE me prakashit)

yadvendra


तुम्हारे साथ


(1)

तुम्हारे साथ
आदमी औरत जैसी कोई बात नहीं
न ही तुम तुम हो, न ही मैं मैं
हम बस हम हैं और वे वे---

तुम्हारे साथ
हम महज दो वृक्ष हैं तने हुए इस सड़क पर
आजू बाजू में एक दूसरे के
हवा में अठखेलियां करते
ताकते तालाब को तो कभी आकाश को
बीच-बीच में दूसरे वृक्षों को भी
मेरी पत्तियां वही सांस ले रही हैं
जो ले रही हैं तुम्हारी पत्तियां
वैसे ही धूप में नहा रही हैं
और वैसे ही चख रही है स्वाद
हवा और बारिश के---

तुम्हारे साथ
न ही काल की और न ही स्थान की बंदिशें हैं
मेरी डालियां झुक रही हैं
आतुर छूने को तुम्हारी डालियां
वैसे ही जैसे कि मेरी पत्तियां
हौले-हौले गले लग रही है
तुम्हारी पत्तियां---

(2)

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल जगा देते हैं भूख की ज्वाला
और मैं कामना करने लगती हूं
चार जून के व्यंजनों की
शराब और ब्रांडी की लज्जत के साथ

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल हो जाते हैं बन कर प्रस्तवाना
और मैं कामना करने लगती हूं सम्पूर्ण उपन्यास की
साथ हो जिसमें पटाक्षेप भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल बन जाते हैं पूर्व परिचय
और मैं कामना करने लगती हूं
चार दिशाओं वाले ओपेरा की
जिसमें हिलते रहे पर्दे बार-बार

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
दरअसल छा जाते हैं भूमिका बनकर
और मैं कामना करने लगती हूं एक मुकम्मल सिंफोनी की
जिसमें हो आरोह और क्लाईमेक्स भी

तुम्हारे साथ
बातचीत के दो घंटे
बजने लगते हैं जैसे हों बंशी और मादल
और मैं कामना करने लगती हूं पूरे ऑक्रेस्ट्रा की
जिसमें फूंक हो, थाप हो, धमक हो
और हो थिरकने वाले तार भी

4 comments:

अजित वडनेरकर said...

अच्छी बात है....
नया साल शुभ हो...

तरूश्री शर्मा said...

तुम्हारे साथ
न ही काल की और न ही स्थान की बंदिशें हैं
मेरी डालियां झुक रही हैं
आतुर छूने को तुम्हारी डालियां
वैसे ही जैसे कि मेरी पत्तियां
हौले-हौले गले लग रही है
तुम्हारी पत्तियां---

बेहद बढ़िया कविता। लगा जैसे रचनाकार नहीं, हम खुद कुछ बोल रहे हों। प्रकाशित करने के लिए शुक्रिया।

sandhyagupta said...

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !!

डॉ .अनुराग said...

तुम्हारे साथ
हम महज दो वृक्ष हैं तने हुए इस सड़क पर
आजू बाजू में एक दूसरे के
हवा में अठखेलियां करते
ताकते तालाब को तो कभी आकाश को
बीच-बीच में दूसरे वृक्षों को भी
मेरी पत्तियां वही सांस ले रही हैं
जो ले रही हैं तुम्हारी पत्तियां
वैसे ही धूप में नहा रही हैं
और वैसे ही चख रही है स्वाद
हवा और बारिश के---



खूबसूरत .......पहली कविता बहुत भायी .