Saturday, July 4, 2009

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था

(नागर्जुन की कविता हरिजन गाथा पर एक टिप्पणी)



साहित्य में दलित धारा की वर्तमान चेतना ने दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा को ही चुनौति नहीं दी बल्कि जातीय आधार पर अपनी पहचान को आरोपित ढंग से चातुवर्ण वाली व्यवस्था में शामिल मानने को भी संदेह की दृष्टि से देखना शुरू किया है। जहां एक ओर दलित धारा के चर्चित विद्धान कांचा ऐलयया की पुस्तक ''व्हाई आई एम नॉट हिन्दू" इसका स्पष्ट साक्ष्य है। वहीं हिन्दी की दलित धारा के विद्धान ओम प्रकाश वाल्मिकी की पुस्तक ''सफाई देवता" को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है। चातुवर्णय व्यवस्था की मनुवादी अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए दलितों को शुद्र मानने से दोनों ही विद्धान इंकार करते हैं।
हिन्दी साहित्य में दलित धारा का शुरूआती दौर ऐसे ही सवालों के साथ विकसित भी हुआ। उसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि अपने शुरूआती दौर में वह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से भी वह टकराता रहा है। यानी एक तरह का घ्ार्षण-संघ्ार्ष, जो स्थापित मानयताओं को चुनौति भी दे रहा है और आलोचना के औजार को पैना करने की दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। दलितोद्वार की दया, करूणा वाली अवधारणा जो पहचान के रूप्ा में शब्दावली के तौर पर हरिजन रूप्ा में आई, वह भी अस्वीकार्य हुई है। यहां अभी तक के प्रगतिशील विचार पर शक नहीं पर उसकी सीमाओं को चिहि्नत तो किया ही जा सकता है। थोड़ा स्पष्टता के साथ कहा जाए तो कहा जा सकता है कि दलित साहित्य ने भारतीय समाज की उन सिवनों को उधेड़ना शुरू किया है जो पूंजीवाद विकास के आधे-अधूरे छद्म और सामंती गठजोड़ पर टिका है। साथ ही दलित धारा की इस विकासमान चेतना पर भी सवाल तो अभी है ही कि सिर्फ और सिर्फ सामाजिक बुनावट के षडयंत्रकारी सच को उदघ्ााटित कर देने के बाद भी सामाजिक बदलाव के संघर्ष की उसकी दिशा, बदलाव के संघ्ार्ष की स्थापित वेतना से फिर कैसे अलग है ? संघर्ष का वह मूर्त रूप्ा कैसे भिन्न है ? और दलित चेतना के विचारक अम्बेडकर की वे स्थापित मान्यताएं जो पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर ही एक सुरक्षित जगह घेर लेने तक जाती है, कैसे दूसरे संघर्षों से अपने को अलग करेंगी ?
यह सारे सवाल जिन कारणों से मौजू हैं उसमें नागार्जुन की कविता ''हरिजन गाथा" का एक भिन्न पाठ भी उभरता है। दलित चेतना की दया, करूणा वाली अवधारणा ने दलितों को जो श्ब्द दिया है और जिससे वह इतिफाक नहीं रखती है, नागार्जुन भी उसी शब्द के मार्फत दलितों के प्रति अपनी पक्षधरता को जब रखते हैं तो कविता की सीमाएं चिहि्नत होने लगती हैं। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि हरिजन गाथा के उन प्रगतिशील तत्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने के वक्त तक मौजू थे। जैसे लाख तर्क वितर्क के बाद भी प्रेमचंद के रचना संसार में दलितों के प्रति मानवीय मूल्यों को दरकिनार करना संभव नहीं वैसे ही हरिजन गाथा के उस उत्स से इंकार नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने की वजह है और जिसमें जातिगत आधार पर होने वाले नरसंहारों का निषेघ है।
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, बावजूद इसके जो कुछ भी हुआ था, वह अमानवीय था। एक यातनादायक कथा कविता का हिस्सा है। हरिजन गाथा ऐसे ही नरसंहार को निशाने पर रखती है और उन स्थितियों की ओर भी संकेत करती है जो इस अमानवीयता के खिलाफ एक नये युग का सूत्रपात जैसी ही है।

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

जीवन के उल्लास का यह रंग जिस अमानवीय और हिंसक प्रवृत्ति के कारण है यदि उसे हरिजन गाथा में ही देखें तो ही इसके होने की संभावनाओं पर चकित होते वृद्धों की आशंका को समझा जा सकता है।
यदि इस यातनादायी, अमानवीय जीवन के खिलाफ शुरू हुए दलित उभार को देखें तो उसकी उस हिंसकता को भी समझा जा सकता है जो अपने शुरूआती दौर में राजनैतिक नारे के रूप में तिलक, तराजू और तलवार जैसी आक्रामकता के साथ दिखाई दी थी। और साहित्य में प्रेमचंद की कहानी कफन पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए थी। यह अलग बात है कि अब न तो साहित्य में और न ही राजनीति में दलित उभार की वह आक्रामकता दिखाई दे रही और जिसे उसी रूप में रहना भी नहीं था, बल्कि ज्यादा स्पष्ट होकर संघ्ार्ष की मूर्तता को ग्रहण करना था। पर यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय आजादी के संभावनाशील आंदोलन के अन्त का वह युग, जिसके शिकार खुद विचारवान समाजशास्त्री अम्बेडकर भी हुए ही, इसकी सीमा बना है। और इसी वजह से संघ्ार्ष की जनवादी दिशा को बल प्रदान करने की बजाय यथास्थितिवाद की जकड़ ने संघर्ष की उस जनवादी चेतना, जो दलित आदिवासी गठजोड़ के रूप में एक मूर्तता को स्थापित करती, उससे परहेज किया है और अभी तक के तमाम प्रगतिशील आंदोलनों की उसी राह, जो मध्यवर्गीय जीवन की चाह के साथ ही दिखाई दी, अटका हुआ है। हां वर्षों की गुलामी के जुए को उतार फेंकने की आवाजें जरूर थोड़ा स्पष्ट हुई हैं। हिचक, संकोचपन और दब्बू बने रहने की बजाय जातिगत आधार पर चौथे पायदान की यह हलचल एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हो और ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश् आवाम के जीवन की खुशहाली के लिए भी संघर्षरत हो नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा का एक पाठ तो बनता ही है।
संघर्ष के लिए लामबंदी को शुरूआती रूप में ही हिंसक तरह से कुचलने की कार्रवाइयों की खबरे कोई अनायास नहीं। उच्च जाति के साधन सम्पन्न वर्गो की हिंसकता को इन्हीं निहितार्थों में समझा जा सकता है। जो बेलछी से झज्जर तक जारी हैं।
नागार्जुन की कविता हरिजन गाथा कि पंक्तियां यहां देखी जा सकती है जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण की डिमांड करती हैं। नागार्जुन उस सभ्य समाज से, जो हरिजनउद्वार के समर्थक भी हैं, प्रश्न करते हुए देखें जा सकते हैं -

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/हरिजन माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को/ खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में/ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।।।

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं/तेरह के तेरह अभागे/अकिंचन मनुपुत्र/जिन्दा झोंक दिये गये हों/प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में/साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले/सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि/महज दस मील दूर पड़ता हो थाना/और दारोगा जी तक बार-बार/खबरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

नागार्जुन समाजिक रूप से एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। अमानवीय कार्रवाइयों को पर्दाफाश करना अपने फर्ज समझते हैं और श्रम के मूल्य की स्थापना के चेतना सम्पन्न कवि हो जाते हैं। खुद को हारने में जीत की खुशी का जश्न मानने वाली गतिविधि के बजाय वे सवाल करते हैं। हिन्दी कविता का यह जनपक्ष रूप्ा ही उसका आरम्भिक बिन्दु भी है। सामाजिक बदलाव के सम्पूर्ण क्रान्ति रूप को ऐसी ही रचनाओं से बल मिला है। वे उस नवजात शिशु चेतना के विरुद्ध हिंसक होते साधन सम्पन्न उच्च जातियों के लोगों से आतंकित नहीं होती बल्कि सचेत करती है। उसके पैदा होने की अवश्यम्भाविता को चिहि्नत करती है।
श्याम सलोना यह अछूत शिशु /हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का / बेडा सचमुच पार करेगा
हिंसा और अहिंसा दोनों /बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे / कभी नहीं तकरार करेंगी।।।






-विजय गौड़

कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय जी के आदेश पर लिखी गई यह टिप्पणी इससे पहले यहां प्रकाशित हुई है।

Thursday, July 2, 2009

इराक के कब्जे वाले सुलेमानिया प्रांत में


1940 में प्रसिद्ध कुर्द कवि फायेक बेकेस के बेटे के तौर पर जन्में शेर्को बेकेस आधुनिक कुर्द कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। युवावस्था में ही वे कुर्द स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और इसके रेडियो के लिए काम करने लगे। मामूली विषयों पर गूढ़ कविताएं लिखने के लिए और कुर्द कविता को परंपरागत ढांचे से बाहर निकालने के लिए उन्हें वि्शेष श्रेय दिया जाता है। उनकी कविताओं के अनुवाद अरबी, स्वीडिश डेनि्श डच इटालियन फ्रेंच अंग्रेजी सहित वि्श्व की अनेक भा्षाओं में हुए हैं- साथ ही अनेक अन्तर्रा्ष्ट्रीय पुरस्कारों /सम्मानों से भी उन्हें नवाजा गया है। आधुनिक फारसी के निकट समझी जाने वाली कुर्द भाषा में उनके कई संकलन प्रका्शित हैं। अंग्रजी में "द सीक्रेट डायरी ऑफ ए रोज: थ्रू पोएटिक कुर्दिस्तान" उनकी कविताओं का लोकप्रिय संकलन है। 1986 में तत्कालीन इराकी सरकार की दमनात्मक नीतियों से बचने के लिए बेकेस को स्वीडन में राजनितिक शरण लेनी पड़ी पर 1992 में वापस अपने दे्श लौट आए। सक्रिय राजनीति में रहते हुए वे थोड़े समय के लिए स्थानीय सरकार में मंत्री भी रहे। यहां प्रस्तुत हैं अपने समय के इस महत्वपूर्ण कवि की कुछ छोटी कविताओं के अनुवाद। - यादवेन्द्र







साथ - साथ

एक शाम
एक गूंगा, एक बहरा और एक अंधा
बाग में थोड़ी देर के लिए
साथ साथ बैठे
एक बेंच पर-
जीवंत, तेज-तर्रार और मुस्कराते हुए।
अंधे ने देखनी शुरू की दुनिया
बहरे की आंखों से-
बहरे ने सुननी शुरू की आवाजें
गूंगे के कानों से-
और गूंगे ने सब कुछ समझना शुरू किया
बाकी दोनों के होठों और चेहरों के हावभाव से-
इस तरह तीनों ने साथ साथ
अपने अंदर खींचनी शुरू की सांसें
फूलों की सुगंध से लिपटी हुई।


कुर्सी


वह कुर्सी
जिस पर बिठा कर मार डाला गया था कवि को-
वह थी एक गवाह
और बची रही जिन्दा
देखने को हत्यारे की मौत---
फिर आजादी प्रकट हुई आनन फानन में
और आसीन हो गई
उसी कुर्सी पर।


तूफान में लहर


उफनती लहर ने मछुआरे से कहा-
एक नहीं हजार कारण हैं
जिनसे उत्तेजित हैं वे लहरें
पर सबसे अहम बात ये
कि मैं बख्शना चाहती हूं
मछली को आजादी
विरोध में खड़े होकर
जाल के।





प्रेमगीत


पहले पहल एक सरकंडे ने
बगावत कर दी धरती के खिलाफ
वह दुर्बल और पीली पड़ी हुई कुंवारी डंडी
दिल दे बैठी गतिशील बयार को
पर धरती को नहीं था मंजूर
ये प्रेम गठबंधन।
प्रेम में सराबोर होकर उसने कहा:
"इस धरती पर नहीं है कोई उसका सानी---
और मेरा दिल है कि वहीं पर रम गया है---"
ओस से गीली आंखों वाली
उसी कुंवारी को देने को दंड
उद्धत धरती ने बुला भेजा कठफोड़वा-
उसने कब्जे में जकड़ लिए दुर्बल डंडी के मन और तन
और कर डाले यहां वहां सूराख ही सूराख---
उस दिन के बाद से
वह बन गई एक बांसुरी
और बयार के हाथ सहलाने लगे उसके घाव
लाड़ में- कोमल तानों से-
तब से अब तक वह गाए जा रही है
गीत दुनिया की खातिर।


विच्छेद


मेरी कविताओं से
यदि बहिशकृत कर दो तुम फूल
तो इनके चार मौसमों में से
हो जाएगी मौत एक मौसम की।
यदि निचोड़ लो प्यार
तो मर जाएगा दूसरा मौसम।
यदि इसमें कहीं नहीं है जगह रोटी की
तो बचेगा हरगिज नहीं तीसरा मौसम।
और यदि बंद कर दिए गए दरवाजे आजादी के लिए
तो दम तोड़ ड़ालेंगे चारों मौसम एक साथ
बिल्कुल मेरी तरह ही।


बुत

एक दिन जरूर आएगा
जब दुनिया के तमाम बल्ब
कर देंगे बगावत
और हमें मनाही कर देंगे रोशनी देने से
क्योंकि जब से वे आए हैं अस्तित्व में
कौंधे जा रही हैं अपलक उनकी आंखें
दुनिया भर में फैले
हजार-हजार बुतों के ऊपर-
पर अफसोस कि
नहीं बनाया गया है एक भी अदद बुत
एडिसन के नाम।

अनुवाद: यादवेन्द्र

Tuesday, June 30, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर - आठ




सुबह के वक्त थमजैफलांग में बारिस की रिमझिम पड़ने लगी। तम्बू उखाड़ चुके थे। सामान की पैकिंग की जा चुकी थी। रोहतांग पार बारिस- सच में एक सुकून देने वाला क्षण था। कमलनाथ जी की पुस्तक स्फीति में बारिस तो बारिस के इंतजार का ही गान है। हमारे अपने अनुभवों में भी यह पहला ही क्षण था। लेकिन बारिस में भीगने का खतरा नहीं उठा सकते थे। ठंड बढ़ने लगी थी। बारिस से बचने के लिए पॉलीथिन की बरसातियां निकाल ली गयीं। और बरसाती ओढ़े-ओढ़े ही सिंगोला की ओर रुख किया। रंगबिरंगी बरसातियों में ढके हम चलते फिरते ढूह नजर आ रहे थे। हर कोई दूसरे को ढूह कह सकता था। लेकिन हमारे साथ चल रहा वह इजरायली लड़का हम सबक को ढूह कह कर मंद-मंद मुस्करा रहा था जो पलामू से हमारे साथ चल रहा था।

वह हिन्दी भाषा सीखना चाहता था। देवनागरी स्क्रिप्ट उसने एक हद तक सीख ली थी और कुछ शब्द भी टूटे-फूटे तरह से बोलने लगा था। कोई नया शब्द सुनता तो उसकी उत्सुकत बढ़ जाती। अर्थ पूछ कर उसे बार-बार दोहराता। ढूह- उसकी जुबान में था। ब्रिटेन वासी एक दूसरा युवक उसका सहयात्री था। दोनों की ही उम्र में करीब 13-14 वर्ष का अंतर था। पलामू में ही पहली बार इन दोनों युवकों से मुलाकात हुई थी। वहीं से वे हमारे साथ-साथ थमजैफलांग तक पहुंचे थे। पलामू में टैन्ट गाड़ कर बैठे वे दोनों ही आगे के मार्ग से अनभिज्ञ थे। दारचा से चलते हुए उनके सामने बहुत स्पष्ट नहीं था कि आगे कितने दिनों का मार्ग है पदुम तक। हालांकि एक गाईड बुक उनके पास थी। पर उसमें दिए गये वर्णन से बेपरवाह वे दोनों बिना पर्याप्त भोजन सामाग्री को लादे ही निकल पड़े। कुछ पैक फूड ही लेकर चले थे वे। कोई गाईड या सहयोगी भी उनके साथ नहीं था। पलामू में वे हमारे तम्बू में आए तो अपरिचय की दीवार टूट गई। मालूम हुआ कि दोनों ही भारत में, वो भी इस जांसकर यात्रा के दौरान ही एक दूसरे के दोस्त बने हैं और यात्रा कि समाप्ति पर फिर अपने-अपने रास्तों के हिसाब से निकल लेंगे। यात्रा के दिनों के हिसाब से उनके पास राशन का अभाव था। पूछने लगे कि आगे कहां मिल सकता है। उस बीहड़ में कहां तो मिलना था राशन। हम स्वंय ही उस जिम्मेदारी के दबाव में आ गए कि इनके लिए कुछ न कुछ व्यवस्था तो करनी ही होगी। हम तो अपने हिसाब से ही राशन लादकर चले थे। कम-कम भी खाएं तो एक व्यक्ति को तो एडजस्ट किया जा सकता था पर वे दो थे। खैर उस शाम का भोजन तो हमने उनके लिए भी बनवा दिया। कैम्पिंग-चार्ज वसूलने के लिए तम्बू लगाए नेपाली लड़के से गुहार लगाई कि किलो दो किलो चावल और कुछ दाल का प्रबंध कर दे। नेपाली युवक सहृदय था। हमारे कहे का मान रख दिया और आगे के दो-तीन दिनों की राशन उसने वाजिब पैसे लेकर अपने टैन्ट से निकाल कर मुहैय्या कर दी।
थमजैफलांग तक वे दोनों ही साथी हमारे साथ थे लेकिन थमजैफलांग पहुचते-पहुचंते एक साथी की तबीयत खराब होने लगी। ब्रिटेन वासी जो रास्तेभर सिगरेट का धुंआ उड़ाता रहा, उसकी सांस फूलने लगी थी और एक-एक कदम बढ़ाना उसके लिए भारी हो गया। हम लोग तम्बू गाड़ चुके थे। लेकिन न तो इजरायली युवक रूई अमित और न ही उसका साथी अभी तक पहुंचे थे। उनका इंतजार करने के बाद अंतत: यह मानते हुए कि शायद जांसकर सुमदो भी ही वे लोग रुक गए हैं, हमने सूप बनाया और पी कर कुछ देर यूंही लेटे कि आंख लग गई। थकान ज्यादा थी। कुछ ही देर बाद कुछ आवाज-सी हुइ। सोचा हमारा सहयोगी दोरजे है जो अपने घोड़ों के साथ बतिया रहा है शायद। बस वैसे ही लेटे रहे। जब आंख खोली तो देखा कि इजरायली युवक रूई अमित पहुंच हुआ है। उसके चहरे पर थकान थी और परेशानी के भाव। पूछना चाहा तो कुछ कहना उसने उचित न समझा। उसके चेहरे पर थकान की रेखाएं इतनी गहरी थीं कि उसकी नीली आंखें गडढों में धंसकर और नीली हो गईं थीं। हम उसे आराम करने देना चाहते थे। लिहाजा उसे यूंही अपने शरीर को ढीला छोड़ कर उसे बिना डिस्टर्ब किए लेटने दिया। लेकिन थोड़ा विश्राम करने के बाद रूई अमित अपना पिट्ठू वहीं पटक गायब था। सोचा, दिशा-मैदान के लिए निकला होगा। लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह अपने साथी ब्रिटेनी युवक का पिट्ठू लादे गहरी थकान से भरे पांवों को उठाते हुए उस पहाड़ी के कोने से प्रकट हुआ, थमजैफलांग जिसकी ओट में था। पीछे-पीछे उसका साथी। उसकी हालत कहीं ज्यादा खराब थी। हमारे तम्बू के पास आकर उसने पिट्ठू को ऐसे पटका मानों एक क्षण भी उसे संभाले रखना अब उसके लिए संभव न रहा हो और हाथ पांवों को फैलाकर थमजैफलांग के उस मैदान में लेट गया। ऐसे मानो उस छोटे से मैदान को अपने शरीर से ढांप लेना चाहता हो। उसके साथी के लिए तो उस तरह से लेटना भी संभव न रहा। वह तो उल्टियां कर रहा था। दोनों की स्थितियां हमें परेशान कर गयी। दवा के बाक्स को ढूंढा गया और जल्द से जल्द उनका उपचार कर देना चाहा । कच्चे लहसुन की एक फांक उन्हें चबाने को दी। अपने अनुभव के देशीपन में ऊंचाई पर आने वाली समस्या से हम अक्सर ही ऐसे निपटते रहे हैं। ब्रिटेन के उस युवक का हाथ पकड़ कर उसे इधर-उधर चहलकदमी करवाई तो उसे थोड़ा आराम-सा मिलने लगा। ऐसा लगता था कि सिगरेट की बुरी लत ने उसके फेफड़ों की ताकत को निचोड़ दिया है। वह अपने शरीर में तकात महसूस ही नहीं कर रहा था। रूई अमित शांत था। कुछ देर तक वैसे ही लेटा रहा। फिर जाने कहां से उसमें ऐसी स्फूर्ति आई कि टैंट खोलने लगा। हवा जो कुछ देर पहले काफी तेह बह रही थी- अभी उसकी गति में कुछ कमी आ गई थी। अपना टैंट लगाने के बाद हमारे साथियों ने उन युवकों का टैंट भी लगवाना चाहा तो रूई अमित हिचकने लगा। लेकिन आग्रह को टाल न पाया। उनका तम्बू खड़ा हो गया था।
रूई अमित तो फिर भी थोड़ी देर बाद अपने को ठीक महसूस करने लगा लेकिन ब्रिटिश युवक की हालत गम्भीर थी। वह आगे निकलने से घ्ाबराने लगा था। हम भी नहीं चाहते थे कि इस हालत में वह सिंगोला की लगभग 17000 फुट की उस कठिन चढ़ाई पर चढ़े। रूई अमित अमित का मन जांसकर को देखने का था। अपनी यात्रा को स्थगित होते देख वह गम्भीर हो गया था। एक खास किस्म की निराशा उसके चेहरे पर थी। आगे जाना चाहता था। हिम्मती था लेकिन अकेले आगे जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। वह चाह रहा था कि हम उसे अपने साथ ले चलें। वह पदुम तक जाना चाहता था। टैन्ट और अन्य साधन उसके अपने पास थे। वह कह रहा था कि फूड आईटम्स उसके पास है। पांच-छै मैगी के पैकेट और पलामू में खरीदा गया मात्र थोड़ा-सा राशन- दाल और चावल। रूई अमित की इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता था। लेकिन उस ब्रिटिश युवक का क्या होगा ? यही हमारी चिन्ता थी। लेकिन उसका हल खुद उसने ही निकाल दिया। वह भी चाहता था कि हम रूई अमित को अपने साथ ले जाएं। वह खुद वापिस लौटना चाहता था- दारचा। बस रूई अमित हमारा साथी हो गया। वैसा ही साथी जैसे दोरजे सहित हम छै थे। उसे मिलाकर सात।


हम सभी साथी चुमी नापको की ओर बढ़ रहे थे। चुमी नापको- सिंगोला का बेस।
मौसम अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुआ था।
हां, बारिश रुक चुकी थी। मौसम के गीलेपन की वजह से हवा का वो बहाव जो पास के एकदम नजदीक काफी तेज होता है और जिसमें टैन्ट लगाना आसान नहीं होता है, अभी उतना वेगवान नहीं था। लेकिन वैसा ही शांत बना न रहेगा, इस बात से अनभिज्ञ न थे। बस्स, जब तक मौसम साथ दे रहा है, टैंट गाड़ लेते हैं, यह हर कोई कह रहा था। टैंट गाड़ दिए गए। चारों ओर बर्फीली चोटियों के बीच चुमी नापको पर हमारे टैंटों की रंगीनियां बिखर गई।

मौसम के मिजाज में जो बदलाव था वो हैरान करने वाला भी था और उसी वजह से थोड़ा परेशान भी हो गए। समाने के पहाड़ों पर ताजा पड़ी बर्फ की सफेदी स्पष्ट थी। सिंगोला यूं तो ऊंचाई पर होते हुए भी आसान पास कहा जा सकता है- हौले-हौले उठती हुई चढ़ाई। पर सीधी धूप गिरने की वजह से बर्फ सुबह ही गलने लग जाती है वहां और फिर गलती हुई बर्फ में घुटनों-घुटनों धंसते हैं पांव। जिन्हें निकालने में ही सारी ऊर्जा खर्च हो जा रही होती है। फिर तो पार करना कठिन लग रहा होता है। सोचते रहे कि कल यदि मौसम ठीक से न खुला तो क्या सुबह-सुबह ही निकलना संभव होगा ? और निकलने में देर हो गई तो कहीं फंस न जाएं गलती हुई बर्फ में। हमारे अनुभवों में इसी सिंगोला पर घुटनों-घुटनों धंसना अटका हुआ था।

समाप्त

अन्य कडियों के लिए :

पहली किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
दूसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
तीसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
चौथी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
पांचवी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
छठवीं किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
सातवीं किश्त के लिए यहां क्लिक


समाप्त

Sunday, June 28, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- सात

पलामू से आगे जांसकरसुमदो तक रोड़ काटी जा चुकी है। उसी कच्ची रोड़ पर, जो बीच बीच में गायब हो जाती थी लेकिन कुछ ही दूर जाकर फिर प्रकट, हम बढ़ लिए। 1997 में जब इसी रास्ते से गुजरे थे तो बोल्डरों भरे रास्ते पर चलते हुए पेट दुखने लगे थे । हर क्षण लगता था कब आएगा जांसकरसुमदो और जब जांसकर सुमदो पहुंचे थे तो विशाल हरे मैदान को देख कर तंबू तन गया । एक ओर भेड़ वालों का बसेरा था और दूसरी ओर, जांसकर नाले के एकदम नजदीक हम। कारगियाक गांव का नाम्बगिल दोरजे अपने घोडों के साथ हमारा सहयोगी था। घोड़ों को जांसकर नाले के पार उतारने के लिए उसने इसी दरिया में घोड़ों को धकेल दिया था। जो तैरते हुए नाले के पार हो गए थे। लेकिन इस बार तो कच्ची ही सही, फिर भी एक हद तक समतल कही जा सकने वाली रोड़ पर हम बढ़ते रहे। जांसकरसुमदो से लगभग आधा घंटा पहले तक रोड़ एकदम स्पष्ट थी। आगे का आधा घंटा वही पुरानी स्मृतियों वाला - बोल्डरों भरा था। उस रास्ते पर एक बड़ी जल धारा भी पार करनी पड़ी।
उछाल मारता हुआ पानी जांसकर नाले में मिल जाने को तेज ढलान पर आवाज करता हुआ और पत्थरों को लुढ़काता हुआ बहता चला जा रहा था। पानी का बहाव देख कर एक बारगी तो हिम्मत जवाब देने लगी, कैसे पार करेंगे ? पर पार तो जाना ही था । घोड़े हमसे बहुत पहले पार हो चुके थे । पलामू से निकलते ही घोड़े वाले ने इस पानी के बाबत आगाह कर दिया था कि जितना जल्दी हो निकल लें वरना दोपहर होते - होते तक पानी बढ़ जाता है । उस वक्त उसकी राय पर कोई तवज्जो ही नहीं दी।
जूते भीग न जाएं इसलिए उन्हें उतार लिया गया। वस्त्रों को घुटनों तक मोड़ लिया और एक दूसरे के सहारे चाकू की धार सी ठंडक लिए उस तेज बहते पानी में उतर गए। रिपटते, संभलते और एक दूसरे को सहारा देते हुए पार हो गए। बस ऐसे ही आगे का बोल्डरों भरा रास्ता भी पार कर लिया। जांसकरसुमदो पहुंच चुके थे। जांसकरसुमदो का बदला हुआ रूप देख कर चौंक गए। हरियाली का कहीं नामो निशान न था । पत्थरों का साम्राज्य बिखरा हुआ था । यदि पत्थरों और रेत भर वह मैदान-सा न दिखाई देता और ना ही जांसकर नाले और बरसी नाले का संगम वहां पर दिखता तो तय था कि हमारी पुरानी स्मृतियां उस जगह को जांसकर सुमदो मानने ही न देती।
हो सकता है कि रास्ता भटक जाने का एक अनजाना भय भी हमें घेर लेता । पर जांसकरसुमदो का भूगोल, सिर्फ उस हरियाली को छोड़कर जो 1997 में थी, वैसा का वैसा ही था। पूरा मैदान नदी का पाट जैसा दिख रहा था। संभवत: पिछले कुछ वर्षों में बरसी नाले का बहाव जांसकर सुमदो के मैदान की हरियाली को बहा ले गया होगा। और बदले में जो कुछ था वह पत्थर और रेत। मैदान के बीच में एक कच्चा पुल भी दिखा। अनुमान लगा सकते हैं कि बरसी नाले ने, दारचा से जांसकर या जांसकर से दारचा आने-जाने वाले स्थानीय लोगों को मुसीबत में डाल दिया होगा। और जिससे निपटने के लिए ही उस कच्चे पुल का निर्माण किया होगा जो अब मैदान के बीच में टूटा हुआ अकेला और उदास पड़ा था। यानी जांसकर सुमदो में पत्थर और रेत बिखेर कर बरसी नाला अपने पूर्व मार्ग पर वापस लौट चुका। पत्थरों और रेत के उस मैदान पर रुकने के बजाय झूला पुल से बरसी नाले को पार कर सिंगोला पास की ओर बढ़ती हुई चढ़ाई पर चढने लगे और थमजैफलांग जा कर रूके। बरसी नाले के साथ-साथ यदि आगे बढ़ें तो पहाड़ी दर्रों को पार कर जम्मू कश्मीर की मयाड़ घाटी में उदयपुर उतरा जा सकता है।



-जारी
पहली किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
दूसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
तीसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
चौथी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
पांचवी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
छठवीं किश्त के लिए यहां किल्क करें।






Friday, June 26, 2009

लद्दाख की बंद डिबिया है जांसकर- छै




दोपहर 1 बजे के आस-पास पलामू का मैदान दिखाई दे गया। खूबसूरत कैम्पिंग ग्राउंड। जांसकर नाले के एक ओर । दक्षिण के पहाड़ों से उतर कर आ रही जलधारा जो मैदान के बीचो बीच बह रही थी,, के दोनों ओर दो तम्बू गड़े हुए- स्थानीय निवासियों के। 1997 में भी इस रास्ते से गुजर चुके हैं। उस वक्त स्थानीय निवासी सैलानियों से कैम्प लगाने का कोई चार्ज नहीं लेते थे। अभी तो वे इंतजार में हैं कि सैलानी आएं तो अपने खाली पड़े खेतों पर तम्बू गाड़ने का चार्ज लें। आय का एक स्रोत तो उन्होंने भी जांसकर वासियों की तरह खोज ही लिया है। फिर पलामू का मैदान तो है भी खूबसूरत। हरियाली ऐसी कि मन लोटने को हो।


कौन नहीं रुकना चाहेगा ! बर्फीले पहाड़ों के बीच हरा मैदान कैसा सुकून देता है, इसे तो यहां आकर ही जाना जा सकता है। फिर रोहतांग पार के रूखेपन के बाद यह हरियाली तो सचमुच ललचाने वाली है। अब यह तो नहीं कह सकता कि सड़क, जो यहां काटी जा रही है, होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि उससे प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट हो जाएगा। हां, इतना जरूर कहूंगा कि विकास का कोई ऐसा मॉडल बने कि सड़क और दूसरी सुविधाएं भी हों और प्रकृति का यह खजाना भी नष्ट न हो। वैसे भी रोहतांग के पार, सिंगोला पास के इस रास्ते पर ऐसा हरा मैदान तो दूसरा कोई है नहीं। बल्कि मेरे अनुमान से तो पूरे रोहतांग पार के भूगोल में जो कुछ गिनती के हरियाले मैदान होंगे, उनकी सूची पलामू के बिना अधूरी ही कही जाएगी। 1997 में इसी रास्ते से गुजरे थे। चतरसिंह जो उस वक्त हमारा मार्गवाहक था, अपने घोड़ों को, जो उसने चुगने के लिए छोड़े थे, पलामू से ही लेकर दारचा पहुंचा था और राशन आदि लादने के बाद हमें हमारे पहले पड़ाव पलामू तक लाया था। पलामू के मैदान में पहुंचकर उसके घोड़े भी ऐसे हिनहिनाए थे कि पलामू की हरियाली फुरफुरा गई थी। पलामू पार करने के बाद भी जब अगले पड़ाव जांसकरसुमदो पहुंचे थे

तो रात को घास चुगने के लिए खुले छोड़ दिए गए घोड़े पलामू के मैदान तक ही निकल आए थे और जिन्हें खदेड़ लाने के लिए निकलते वक्त चतर सिंह के मुंह में पलामू की हरियाली के लिए गालियां फूटी थी। उस समय बस-मार्ग दारचा से आगे रारिक तक ही था। अभी तो रारिक से भी आगे छीका तक पी सड़क है। बस भी आती है अब छीका तक। बल्कि कहूं कि छीका से आगे जांसकर नाले पर बने उस पुल, जिस पर होकर नाले के पार्श्व को बदलना मजबूरी है, जो पलामू का रास्ता पकड़ता है, तक कटी हुई सड़क बेशक कच्ची है पर जीप या ऐसा ही कोई दूसरा वाहन उस पर दौड़ ही जाता है। वे सैलानी जो सिर्फ पलामू के सौन्दर्य का आनन्द लूटना चाहते हैं, दारचा से जीप बुक कर उसी पुल तक आ जाते हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व के उस समय में लकड़ी के पुल से जांसकर नाले को पार किया था। पुल भी क्या, लम्बी-लम्बी बल्लियां- इस छोर से उस छोर तक। जैसे-तैसे कांपते-कूंपते पार हुए थे उस समय। यहां पर जांसकर नाला गहरा गर्त बनाता है। अभी पा पुल बन गया है। लोहे का। बड़ा सा वह पत्थर, जिस पर बल्ली का दूसरा छोर टिका था- जांसकर नाले का पानी जहां उछाल मारता हुआ पहुंच जाता था, अभी दिखाई ही नहीं देता। लोहे का पुल उसी पर टिका है। मार्ग का वह जोखिम, जो कांपती बल्लियों पर संतुलन बनाने को मजबूर करता, अब नहीं। यहां उस रोमांच के क्षणों से वंचित हो जाना बेशक खलने वाला है पर गांव वालों के लिए पुल ने जो सहजता प्रदान की है उसकी खुशी कहीं ज्यादा है।
कच्ची रोड़ पर अपनी ट्रैक्टर-ट्राली के साथ आलू मटर की तैयार फसल को वे दारचा तक उतार सकते हैं।
हम सड़क से गुजर रहे थे - जांसकर नाले के पार खेतों में एक ट्रैक्टर-ट्राली दिखाई दी। गांव वाले खेतों में मौजूद थे। गांव के बीच से गुजरते हुए जो सूनापन महसूस कर रहे थे वह खेतों में दिखाई दे रहे लोगों के कारण टूट रहा था। खेतों में काम कर रही स्त्रियों की आखों में उत्सुकता थी । खिलखिलाने की आवाजें और उचक - उचक कर देखती निगाहें हमसे संवाद करना चाहती थी। हम लाहौली नहीं जानते थे तो कैसे बतियाते भला ?

लाहौली होने की हमारी कोशिश कंठ से फूटती और जोर से चिल्लाते- "जूले"
दूर खेतों से हाथ उठ जाते । रंग बिरंगी तितलियों के सम्वेत स्वर उठते- "जूले"
दारचा से रारिक तक का पैदल मार्च लेह रोड़ ही थी। सड़क पर काम कर रही स्त्रियों से भी कहा था -"जूले"
जवाब था - "जूले जी जूले "
कुछ खटका लगा । लाहौली तो जूले के जवाब में सिर्फ जूले ही कहेगा।
फिर ये जुले जी जूले !
चेहरे मोहरों से तो वे लाहौली ही लग रहीं थी। पहनावा भी वैसा ही। तितलियों के से रंग। ढके हुए मुंह से झांकती निगाहें में भी वैसी ही उत्सुकता जैसी लाहौली स्त्रियों में सैलानियों को देखकर होती है।
"---कहां तक ?"
किसी स्त्री ने संवाद को आगे बढ़ा दिया था। अन्यों की उत्सुक निगाहें भी जवाब सुनने को हमारी ओर ही उठ गयीं।
"पदुम" यह सोचते हुए कि लाहौल वालों के लिए पूछे गए जवाब को एक मात्र शब्द- "पदुम" कहकर भी दिया जा सकता है। फिर अपनी बात को लाहौली में न कह पाने का संकोच भी बहुत छोटे जवाब की ही छूट देता था। बातों को विस्तार से रखने पर बचना चाहते थे। हालांकि ठहर कर बातें कर पाने का मन तो था। किसी भी भू-भाग के जन-जीवन को सिर्फ वहां से गुजर कर तो जाना नहीं जा सकता न!
"आप कहां के हैं ?""
हम में से कोई एक जो अपने भीतर उठ रहे अंदाजों की पड़ताल कर लेना चाहता था, चहक उठा। आपसी संवाद को उसने हल्का-सा विस्तार दे दिया था। हमारे ही किसी दूसरे साथी ने उस जवाब को उच्चारित किया जो हम उनके मुंह से सुनना चाहते थे।- "दारचा !" हमारा अनुमान था कि दारचा के परिचित जगह है और स्त्रियां भी अपने को उस परिचित जगह से ही जोड़ना चाहेगीं जैसा कि अक्सर होता भी है। चमोली जनपद के भीतर रहने वाला कोई भी अपने को कर्णप्रयाग का ही कह देता है। या कभी भी किसी व्यक्ति से उसके निवास स्थान का पता पूछो तो सबसे पहले वह वहां के जाने पहचाने नाम को ही उच्चारित करेगा।

खुद ही सवाल और खुद ही जवाब हमारे भीतर की असमंजस और विश्लेषणों के गवाह थे। हम में से कुछ साथी उन स्त्रियों को आस-पास के गांवों के निवासियों के रूप में चिहि्नत कर रहे थे और कुछ ऐसा ही मानते हुए एक हिचकिचाहट के साथ थे।
"जी--- जी--- दारचा।" यह किसी एक स्त्री का स्वर था जिसमें कुछ स्वर भी गुंथ गए थे। मानो वे सभी यकीन दिलाना चाहते हों अपने को दारचावासी होने का। हमारे सवालों में छुपे पड़ताल करने को अंदाज को मानो उन्होंने भांप लिया हो। लेकिन जवाब देते हुए एक खास तरह की लड़खड़ाहट उनके सम्वेत स्वर में भी छुप न पा रही थी। वे खुद भी इसको भांप चुकी थीं। उसी को छुपाने के लिए सवाल हमारे तरफ उछाल दिया गया-
"---और आप कहां के ?" कहे गए वाक्य में जरा भी लाहौली लटक नहीं। यह पूरा दृश्य ही ऐसा था जिसमें स्त्रियों के द्वारा खुद की पहचान को छुपाने की गंध छुपी थी। अपनी पहचान को स्पष्ट तरह से रखे बिना हम इन स्त्रियों की वास्तविकता को जान पाने में असमर्थ रहेंगे, यह सवाल खुद ही उठा। उनकी पहचान को जान लेने की कि गैर जरूरी सी जिद न जाने कैसे हावी हो गई। क्योंकि पहचान को छुपा लेने में चालाकी नहीं बल्कि एक चुहल दिखाई दे रही थी। पर हमने चेहरे पर ऐसी गम्भीरता कि सुनने वाला हमारे एक-एक शब्द पर यकीन कर सके जवाब दिया -
"हम तो उत्तराखण्ड से हैं। ---पर आप लोग जांसकरी हैं या लाहौली ?"
"जी जांसकरी --- नी--- नी--- लाहौली।" खिलखिलाहट फिर से बिखर गई।
"नेपाली हैं जी हम लोग।" यह कुछ शांत लेकिन उसकी आवृति यकीन दिलाती हुई थी। जो हम से छेड़-छाड़ कर रही स्त्रियों को नेपाली पहचान में ढक गया। जिसके उदघाटित होते ही वह खिलंदड़पन गायब हो गया जो पहचान के छुपे होने पर वे करती रही थीं। अब बातचीत में खासी गम्भीरता आ गई। नेपाल से मजदूरी के वास्ते पलायन किए लोगों की यह टोली दारचा गांव में ही रुकी थी- ऐसा बातचीत के दौरान ही मालूम हुआ। पति-पत्नी और बच्चों के साथ पूरा परिवार। लेह रोड़ की दुरस्तीकरण का काम उनकी रोजी बना हुआ था।
"कितना पैसा मिलता है एक दिन का ?"
"सौ रुपया दिहाड़ी।"
"हमारा काम तो टूटी हुई रोड़ की सफाई करना ही है। मरम्मत करने वाले दूसरे हैं।"


-जारी
पहली किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
दूसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
तीसरी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
चौथी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।
पांचवी किश्त के लिए यहां क्लिक करें।