Friday, August 7, 2009

जब व्हेल पलायन करते है



संवाद प्रकाशन से
यूरी रित्ख्यू के प्रकाशनाधीन उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का हिन्दी अनुवाद कथाकार डॉ शोभराम शर्मा ने किया है।डॉ शोभाराम शर्मा की रचनाओं को इस ब्लाग पत्रिका में अन्यत्र भी पढ़ा जा सकता है।

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पदसेसेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा।शोभाराम शर्मा ने अपना पहलालघुउपन्यास "धुमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा। शर्मा नेअपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्तिकोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है।क्रांतिदूतचे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) एक ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछलों दिनोंउन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डॉ। शोभारामशर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिसमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। वनरावतों परलिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऐसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर सामंतवाद के विरोध् की परंपरा परलिखी उनकीकहानियां पाठकों मेंलोकप्रिय हैं।
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पता: डी-21, ज्योति विहार, पोस्टऑपिफस- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड। फोन: 0135-2671476





डॉ. शोभाराम शर्मा


चुक्ची लोग परंपरा से कुल या गोत्र नाम का उपयोग नहीं करते थे। लेकिन जब सरकारी दस्तावेज में नाम अंकित करने का मौका आया तो यूरी ने एक परिचित गोत्र रूसी भू-वैज्ञानिक का गोत्र नाम अपना लिया और इस तरह "यूरी" यूरी रित्ख्यू हो गए।




यूरी रित्ख्यू का जन्म 8 मार्च 1930 को चुकोत्का की ऊएलेन नामक बस्ती में अल्पसंख्यक शिकारी चुक्ची जनजाति में हुआ। उनके परिवार का मुख्य पेशा रेनडियर पालना था। रेनडियर की खालों से बने तंबू-घर (यारांगा) में जन्मे यूरी रित्ख्यू ने बचपन में शामानों को जादू-टोना करते देखा, सोवियत स्कूल में प्रवेश लेकर रूसी भाषा सीखी, विशाल सोवियत देश के एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा करके लेनिनग्राद पहुंचे, उत्तर की जातियों के संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और लेखक बने, चुक्ची जनजाति के पहले लेखक। यूरी वह पहले चुक्ची लेखक हैं जिसने हिमाच्छादित, ठंडे, निष्ठुर साइबेरिया प्रदेश की लंबी ध्रुवीय रातों और उत्तरी प्रकाश से दुनिया का परिचय कराया।
अनादिर तकनीकी विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही "सोवियत चुकोत्का" पत्रिका में उनकी कविताएं व लेख छपने शुरू हो गए थे। 1949 में लेनिनग्राद स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी कुछ लघु कथाएं "ओगोन्योक" और "नोवी-मीर" पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1953 में उनका पहला लघु कथा-संग्रह "हमारे तट के लोग" सामने आया। 24 साल की उम्र में ही वह सोवियत लेखक संघ के सदस्य बन गए। यूरी या जूरी रित्ख्यू की रचनाओं का अंग्रेजी, जापानी, फ़िनिश, डेनिश, जर्मन और फ़्रैंच आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। "जब व्हेल पलायन करते हैं", "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना", "जब बर्फ पिघलती है", "अचेतन मन का आईना" और "अंतिम संख्या की खोज" उनके सर्वोत्तम उपन्यासों में गिने जाते हैं। "जब बर्फ पिघलती है" उपन्यास 20वीं सदी में चुक्ची जनजाति के जीवन में आए वाले बदलावों का लेखा-जोखा है। एक रचनाकार के रूप में यूरी रित्ख्यू पर मैक्सिम गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। "जब व्हेल पलायन करते हैं" पर गोर्की की आरंभिक भावुकता की छाप है तो "जब बर्फ पिघलती है" पर गोर्की की उपन्यास त्रयी "मेरा बचपन", "जीवन की राहों में" और "मेरे विश्वविद्यालय" का प्रभाव साफ झलकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना" में ध्रुवीय जीवन और प्रकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी विवरण है जो दूसरे रचनाकारों की कृतियों में कम ही मिलता है। यूरी की कृतियों में चुक्ची जाति के लोगों के आत्मत्यागी जीवन, कठोर श्रम, उनकी भोली दंत-कथाओं, प्राचीन परंपराओं-धरणाओं के साथ आधुनिकता और 20वीं सदी के विज्ञान एवं संस्कृति के विचि्त्र मिलाप और चुकोत्का के ग्राम्य-जीवन का अत्यंत काव्यमय एवं अभिव्यंजनात्मक भाषा में वर्णन किया गया है। "अंतिम संख्या की खोज" उपन्यास में रित्ख्यू ने खुद को कुछ नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में पश्चिमी संस्कृति, चुक्ची लोगों के भोले विश्वासों और महान बोल्शेविक विचारों का अंतर्द्वंद्व चित्रित है। 1918 में अमंडसेन नामक अन्वेषक का उत्तरी ध्रुव अभियान इस उपन्यास की केंद्रीय घटना है। जहाज के बर्फ में फंसने और जम जाने से अमंडसेन को पूरा कठिन ध्रुवीय शीतकाल वहां के स्थानीय लोगों के साथ बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे लगता है कि सदियों पुराने तौर-तरीकों के कारण ध्रुवीय लोगों का सभ्य होना संभव नहीं है। लेकिन "जियो और जीने दो" के अपने दृष्टिकोण की वजह से वह चुक्ची लोगों का विश्वास जीतने में सपफल रहता है। उसी साल लेनिन के महान विचारों से प्रेरित एक बोल्शेविक नौजवान अलेक्जेई पेर्शिन भी वहां पहुंचता है। वह वर्ग-संघर्ष के जरिए चुकोत्का में सोवियत-व्यवस्था की नींव डालना चाहता है। दैनंदिन जीवन संघर्ष से जूझते लोगों पर उसके भाषणों का कम ही असर होता है। वह लोगों को रूसी भाषा सिखाता है और अपनी ही एक शिष्या उमकेन्यू से शादी कर लेता है। उमकेन्यू खुद को उससे भी बड़ी बोल्शेविक दिखाने की कोशिश करती रहती है। उमकेन्यू का अंध पिता गैमिसिन भी बोल्शेविक सपनों की ओर खिंचता है और पेर्शिन के इस वादे पर विश्वास करने लगता है कि एक दिन कोई रूसी डॉक्टर आकर उसे अंधेपन से मुक्त कर देगा।
उपन्यास का केंद्रीय पात्रा चुक्ची शामान (ओझा) कागोट है जो अपने जनजातीय कर्त्तव्यों से विमुख हो चुका है। एक अमरीकी स्कूनर पर काम करते हुए अमंडसेन कागोट को रसोइया रख लेता है। अमंडसेन स्वयं कागोट के कामों की निगरानी करता है और प्रारंभिक नतीजों से खुश होता है। खोजी जहाज पर शामान कागोट व्यक्तिगत स्वच्छता का पाठ पढ़ता है जबकि चुक्ची सर्दियों में नहाते नहीं थे ताकि मैल की परत ध्रुवीय ठंड से उनकी रक्षा करती रहे। कागोट कलेवे के यूरोपियन परंपरा के मुट्ठे बनाने की कला में पारंगत हो जाता है। लेकिन जब उसे गणित का ज्ञान दिया जाता है तो अमंडसेन का प्रयोग गड़बड़ा जाता है। अनन्तता का विचार कागोट की समझ में नहीं आता। वह अंतिम संख्या को जादुई शक्ति का स्रोत समझ बैठता है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है। उसकी अपनी दुनियां तो परिमित थी। हर चीज यहां तक कि आकाश के सितारे भी गिने जा सकते थे बशर्ते कोई हार न माने तो। अमंडसेन के दल द्वारा दी गई कापियों पर वह संख्या पर संख्या लिखता चला जाता है। अंतिम संख्या के लिए इस हठध्रमिता के कारण जब कागोट अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है तो अमंडसेन को उसकी मूर्खता का अनुभव होता है और वह शामान कागोट को निकाल बाहर करता है।
वस्तुत: कागोट की हठध्रमिता अमंडसेन से कुछ कम नहीं है जो दुसाध्य उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने के प्रयास में नष्ट हो जाता है या पेर्शिन जैसे बोल्शेविकों का अपना परिमित विश्व-दृष्टिकोण जो अंतत: गुलाम और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ जाता है। अपने इस उपन्यास में रित्ख्यू ने यह भी दिखाया है कि विज्ञान के सर्वग्रासी हमले के आगे चुक्ची संस्कृति अपने अस्तित्व की रक्षा में कितनी असुरक्षित सिद्ध हुई। अपनी सभी कृतियों में लेखक अपने सुदूर अतीत के पूर्वजों की संस्कृति को अपने कथांनक में इस तरह संयोजित करता है कि पाठक उस छोटे-से राष्ट्र की दुर्दशा से अभिभूत हो जाते हैं। वह रित्ख्यू द्वारा वर्णित किसी स्वर्ग का विनाश न होकर जीवन की उस पद्ध्ति की समाप्ति है जिसके द्वारा दुनियां के उस कठोरतम वातावरण में वे लोग अपने को बचा पाने में समर्थ हो सके थे।
यूरी रित्ख्यू की पिछली कृतियां समाजवादी और यर्थाथवादी कही जा सकती हैं। उनमें मुख्यत: सोवियत-व्यवस्था की सपफलताओं का चित्राण ही अधिक है। लेकिन "अंतिम संख्या की खोज" में बोल्शेविक प्रशासन के प्रारंभिक दिनों में चुक्ची समाज की जटिलताओं को ही संतुलित रूप में उकेरा गया है।
रित्ख्यू ने सोवियत-व्यवस्था के समय पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण सोवियत संघ की यात्रा की थी। पिछले दशक में उन्होंने अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। बीसियों बार पेरिस की यात्रा की। उष्णकटिबंधीय जंगलों का भ्रमण किया। अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित यूरी रित्ख्यू की कृतियां सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में छपनी बंद हो गई थीं। लेकिन यूनियन स्वेलाग नामक स्विट्जरलैंड निवासी प्रकाशक ने जर्मन और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उनकी रचनाओं की ढाई लाख प्रतियां छाप डालीं। इध्र यूरी रित्ख्यू साइबेरिया की अनादिर नदी के किनारे बसे अनादिर कस्बे में रह रहे थे। अनादिर चुकोत्का स्वायत्त क्षेत्रा का प्रशासनिक केंद्र है। रूस के धुर पूर्वी छोर पर बसी इस बस्ती की स्थापना 3 अगस्त 1889 को नोवोमारीइन्स्क के नाम से हुई थी। 5 अगस्त 1923 को इसका नया नाम अनादिर रख दिया गया। 12 जनवरी 1965 को अनादिर को नगर की मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत-व्यवस्था में पले-बढ़े चुक्ची जनजाति के इस पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का 20 मई 2008 को देहावसान हो गया। यूरी की गणना आज भी अत्यदधिक प्रसिद्दध व लोकप्रिय सोवियत लेखकों में की जाती है।

Thursday, August 6, 2009

सबी धाणी देहरादून, होणी खाणी देहरादून



उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के सवाल पर गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट जिस तरह से राजधानी के सवाल का हल ढूंढती है उससे यह साफ हो गया है कि राज्य का गठन ही उन जन भावनाओं के साथ नहीं हुआ जिसमें अपने जल, जंगल और जमीन पर यकीन करने वाली जनता के सपनों का संसार आकार ले सकता है।
गैरसैंण जो राज्य आंदोलन के समय से ही राजधानी के रूप में जनता की जबान पर रहा और रिपोर्ट के प्रस्तुत हो जाने के बाद भी है, उसको जिन कारणों से आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए उपयुक्त नहीं माना, उत्तराखण्ड का राज्य आंदोलन वैसे ही सवालों का लावा था। भौगालिक विशिष्टता जो पहाड़ का सच है, यातायात के समूचित साधनों का होना और दूसरे उन स्थितियों का अभाव जो शहरी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को जन्म देने वाली होती हैं गैरसैंण का ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के एक विशाल क्षेत्र का सच रहा। बावजूद इसके जनता ने गैरसैंण को ही राज्य की राजधानी माना तो तय है कि एक साफ समझ इसके पीछे रही कि यदि राजधानी किसी ठेठ पहाड़ी इलाके में बनेगी तो उन सारी संभावनाओं के रास्ते खुलेंगे। लेकिन विकास के टापू बनाने वाले तंत्र का हिमायती दीक्षित आयोग शुद्ध मुनाफे वाली मानसिकता के साथ देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिए चुन रहा है, जहां दूसरे पहाड़ी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति कुछ बेहतर है। दूसरा गढ़वाल और कुमाऊ के दो बड़े क्षेत्रों में फैले उत्तराखण्ड राज्य का लगभग एक भौगोलिक केन्द्र होना भी गैरसैंण को राजधानी के लिए उपयुक्त तर्क रहा, जिसके चलते भी गैरसैंण जनता के सपनों की राजधानी आज भी बना हुआ है। नैनीताल समाचार के सम्पादक और सक्रिय राज्य आंदोलनकारी राजीवलोचन शाह के आलेख का प्रस्तुत अंश ऐसे ही सवालों को छेड़ रहा है।
-वि़.गौ.




राजीवलोचन शाह


देहरादून में अखबार कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं। शराब के बड़े ठेकेदार और भू माफिया रंगीन पत्रिकायें निकाल रहे हें और उनके संवाददाता किसी भी आन्दोलनात्मक गतिविधि को उपहास की तरह देखते हैं। जब उनके मालिक अपने धंधे निपटा रहे हैं तो वे भी क्यों न मंत्रियों विधायकों के साथ गलबहिंयां डाले अपने लिए विलास के साधन जुटाने में लगें ? उनके लिए सिर्फ भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि उन्हें सदबुद्धि मिले।
लेकिन उन पुराने पत्रकारों,जो कि कभी राज्य आन्दोलन की रीढ़ हुआ करते थे,के पतन पर वास्तव में दुख होता है। क्या उनका जमीर इतना सस्ता था? क्या उनके लालच इतने छोटे थे कि नौ साल में प्राप्त छाटे माटे प्रलोभनों में ही वे फिसल गये? क्या उनके पास उाराखंड राज्य आन्दोलन की ही तरह इस नवोदित प्रदेश के लिए कोई सपना नहीं था? वे इतना भी नहीं जानते कि राजधानी शासन प्रशासन का एक केन्द्र होता हे, बाजार या स्वास्थ्य शिक्षा की सुविधाओं का नहीं। राजधानी एक विचार होता है और गैरसैंण तो हमारी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के लिए असीमित संभावनायें भी छोड़ता है। जिस तरह कुम्हार एक मिट्टी के लोंदे को आकार देता है हम दसियों मील तक फैले इस खूबसूरत पर्वतीय प्रांतर को गढ़ सकते हैं। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने खूबसूरत शहर बसाये ,हम क्यों नहीं बसा सकते ? लेकिन नहीं, भ्रष्ट हो चुके दिमागों में सकारात्मक सोच आ ही नहीं सकती।
यह इस "बागी" हो चुके मीडिया और अपनी अपनी जगहों पर फिट हो चुके आन्दोलनकारियों के ही कुकर्म हैं कि उत्तराखंड आन्दोलन के मु्द्दे अब शहरों, खासकर देहरादून में भी उतनी भीड़ नहीं जुटा पाते। लेकिन आन्दोलन के मुद्दे तो अभी जीवित हैं। पहाड़ के दूरस्थ इलाके तो अभी भी उतने ही उपेक्षित उतने ही पिछड़े हैं,जितने उत्तराखंड राज्य बनने से पहले थे। वहां से कुछ चुनिन्दा लोग, जिनके पास कुछ था, बेच बाच कर देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार,हल्द्वानी, टनकपुर या रामनगर में अवश्य आ बसे हैं लेकिन वहां की बहुसंख्य जनता तो अभी भी बदहाली में जी रही है । तो क्या वह अपने हालातों को अनन्त काल तक यूं ही स्वीकार किये रहेगी? कभी न कभी तो वह उठ खड़ी होगी और जब वह खड़ी होगी तो भ्रष्ट हुए आन्दोलनकारियों की भी पिटाई लगायेगी और मीडिया की भी। गैरसैण तो एक टिमटिमाते हुए दिये की तरह उनकी स्मृति में है ओर बना रहेगा---तब तक जब तक उत्तराखंड राज्य, बलिदानी शहीदों की आकांक्षाओं के अनुरूप एक खुशहाल राज्य नहीं बन जाता।





प्रस्तुति;
दिनेश चन्द्र जोशी
युगवाणी से साभार


शीर्षक: उत्तराखण्ड के लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत की पंक्ति

Wednesday, August 5, 2009

चलो चलें मेरे हम सफर इंक्लाब की राह पर

अरविन्द शेखर मेरा मित्र है। अखबार में काम करता है । अरविन्द के व्यक्तित्व पर कभी फिर बात हो सकती है पर जिस वजह से मैं यहां उसका जिक्र करना चाहता हूं वह यही कि निरंतर सामाजिक बदलाव के सपनों को देखने वाले अरविन्द के मार्फत मैं पाकिस्तान के लाल बैंड तक पहुंच पाया हूं। एक ऐसे बैंण्ड तक जिसके युवा साथियों के जोश और इंक्लाबी जुनून को यू टयूब में देखा और सुना जा सकता है। शाहराम, तैमूर रहमान, हैदर रहमान और महाविश वकार जैसे लाल बैंड के युवा साथियों का जोश जिन कारणों से उल्लेखनीय है उसे उनके ही मुंह से सुना जा सकता है। वे कहते हैं कि हमारा संगीत आवाम की निजात के लिए है। गरीबी और बदहाली में जीती पाकिस्तानी आवाम के प्रति अपने प्रतिबद्धता को प्रकट करते हुए उनको सुना जा सकता है कि हमारी कोशिश खुद का विकास भी है और युवाओं में प्रगतिशील चेतना को प्रसार भी। लाल बैण्ड का सफर उम्मीद-ए-सहर का सफर है। जिसमें हबीब जालिब, फैज अहमद फैज और अहमद फराज जैसे तरक्की पसंद शाइरों की शाइरी गूंज रही है। अरविन्द के ही हवाले से एक रिपोर्ट भी यहां प्रस्तुत है:-



उत्तराखंड की तीन संरक्षित विरासतें गुम

देहरादून।
उत्तराखंड में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 44 विरासतों में से तीन का कोई अता-पता नहीं है। अल्मोड़ा जिले की रानीखेत तहसील के द्वाराहाट स्थित कुटंबरी मंदिर, हरिद्वार जिले की रुड़की तहसील के खेड़ा की बंदी और नैनीताल जिले की रामनगर तहसील के ढिकुली स्थित विराटपत्तन की प्राचीन इमारतों के अवशेषों का भी कुछ पता नहीं है।

उत्तराखंड में केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का देहरादून सर्किल प्रदेश में 44 पुरातात्विक महत्व के ढांचों और स्थानों का देखरेख करता है। इनमें से तीन का गुम हो जाना अचरज की बात है। मालूम हो कि हाल में ही केंद्र सरकार ने स्वीकार किया है कि देश भर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित कुल 3675 पुरातात्विक महत्व की इमारतों व स्थानों में से 36 गुम हो गई हैं। इनमें से तीन उत्तराखंड, 12 दिल्ली की, आठ यूपी की, तीन जम्मू कश्मीर, दो राजस्थान, दो हरियाणा, दो गुजरात, दो कर्नाटक व एक-एक असम व अरुणाचल प्रदेश से हैं। देहरादून सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद डा. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि पचास के दशक में जब देश में पहली बार पुरातत्व स्थलों की सूची बनाई गई तो उसमें कई नाम स्थानीय लोगों की सूचना पर दर्ज कर लिए गए। इनमें से कई स्थानों का पुरातत्व विभाग ने भौतिक सत्यापन भी नहीं किया। तब पुरातत्व विभाग ने द्वाराहाट के कुटुंबरी मंदिर के बारे में स्थानीय लोगों से जानकारी चाही तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी। बहुत संभव है कि वह द्वाराहाट के मंदिर समूहों में से ही कोई मंदिर रहा हो या समय की मार से नष्ट हो गया हो। ढिकुली के विराटपत्तन के बारे में कहा जाता है कि यहां महाभारत का विराटनगर था और यहां पांडव आए थे। वैसे ढिकुली में कत्यूरी शासक जाड़ों में धूप तापने आते थे। यहां आज भी खुदाई में कत्यूरी काल की इमारतों के अवशेष मिल जाते हैं, लेकिन एएसआई के मुताबिक विराटपत्तन का अब तक कुछ पता नहीं है। तीसरी गुम हुई जगह रुड़की की खेड़ा बांदी कब्र है। डा. डिमरी का कहना है कि खेड़ा बांदी के गुम होने के बारे में भ्रम है, क्योंकि इसी नाम का एक स्थल आगरा सर्किल में भी संरक्षित है। दरअसल पचास के दशक में जब पुरातात्विक जगहों का नोटिफिकेशन हुआ तब तक यह क्षेत्र सहारनपुर जिले में था। उस समय रुड़की, हरिद्वार भी सहारनपुर जिले में था।

Tuesday, August 4, 2009

कुर्दिस्तान की कविता



फिलीस्तीन जैसा करीब 4 करोड़ की आबादी वाला काल्पनिक (अ-वास्तविक ) देश है कुर्दिस्तान जो मध्यपूर्व की दुर्गम पहाड़ियों में बसा हुआ तो है पर भूगोल की किताबों में इसका कोई जिक्र नहीं मिलेगा--- भौगोलिक स्तर पर यदि देखा जाए तो जिसको लाग कुर्दिस्तान मानते हैं उसका आकार फ़्रांस जितना होगा--- तुर्की, इरान और इराक जैसे देशों में कुर्द आबादी बनती हुई है---और पूरी दुनिया में लाखों कुर्द लोग बनते बिखरते हुए हैं--- इराक में इनको अलग राजनैतिक पहचान मिली हुई है और पिछले दिनों इस इलाके में चुनाव सम्पन्न हुए थे--- अकूत प्राकृतिक सम्पदा (मुख्यतौर पर तेल) इस क्षेत्र में जमीन के गर्भ में दबी होने के कारण पश्चिम देशों की निगाहें इन पर लगी हुई हैं।
अब्दुल्ला पेसिऊ इसी कुर्दिस्तान के कवि हैं।

परिचय: 1946 में इराकी कुर्दिस्तान में जन्म। कुर्द लेखक संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता। अध्यापन के प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद सोवियत संघ्ा (तत्कालीन) से डाक्टरेट। कुछ वर्षों तक लीबिया में प्राफेसर। फिर 1995 से फिनलैंड में रह रहे हैं। 1963 में पहली कविता प्रकाशित, करीब दस काव्यसंकलन प्रकाशित। अनेक विश्व कवियों का अपनी भाषा में अनुवाद प्रकाशित।

-यादवेन्द्र


अब्दुल्ला पेसिऊ




तलवार


मैं नंगी तलवार हूं
और मेरी मातृभूमि उसकी म्यांन
जिसे चोरी कर ले गया कोई और
यह मत सोचना कि रक्त पिपासु हो गया हूं मैं
अपने इर्द गिर्द देखो
उस चोर को ढूंढ निकालो
जिसने नंगा कर दिया है मुझे।



शर्त

नहीं, मैं बिल्कुल नहीं हूं विरोधी
तानाशाहों का
उन्हें फैला लेने दो पग-पग पर अपने पैर
सम्पूर्ण विश्व में
ईश्वर के प्रतिबिंब की तरह
पर एक ही शर्त रहेगी मेरी-
बन जाने दो ताना्शाह दुनिया के तमाम बच्चों को।



अज्ञात सैनिक


यदि अचानक बाहर से कोई आए
और मुझसे पूछे:
यहां कहां है अज्ञात सैनिक की कब्र?
मैं कहूंगा उससे:
सर, आप किसी भी नदी के किनारे चले जाएं
आप किसी भी मस्जिद की बैंच पर बैठ जाएं
आप किसी भी घर की छाया में खड़े हो जाएं
आप किसी भी चर्च की दहलीज पर कदम रख दें
किसी कंदरा के मुहाने पर
किसी पर्वत की किसी शिला पर
किसी बाग के किसी वृक्ष के नीचे
मेरे देश में
कहीं भी किसी कोने में
असीम आका्श के नीचे कहीं भी-
फिक्र मत करिए बिल्कुल भी
थोड़ा सा नीचे झुकिए
और रख दीजिए फूलों की माला
चाहे कहीं भी---

अनुवाद: यादवेन्द्र


यादवेन्द्र जी द्वारा अनुदित अब्दुल्ला पेसिऊ की अन्य कविताएं भी आप आगे पढते रहेंगे।

Thursday, July 30, 2009

गनीमत हो





बारिश के रुकने के बाद
मौसम खुला तो
रूइनसारा ताल के नीचे से
दिख गई स्वर्गारोहिणी
आंखों में दर्ज हो चुका
दिखा पाऊं तुम्हें,
खींच ही लाया बस तस्वीर

ललचा क्यों रही हो
ले चलूंगा तुम्हे कभी
कर लेना दर्शन खुद ही-
पिट्ठू तैयार कर लो
गरम कपड़े रख लो
सोने के लिए कैरी मैट और स्लिपिंग बैग भी
टैंट ले चलूंगा
बस कस लो जूते

चढ़ाई-उतराई भरे रास्ते पर चलते हुए
रूइनसारा के पास पहुंचकर ही जानोगी,
झलक भर दर्शन को कैसे तड़फता है मन
कितनी होती है बेचैनी
और झल्लाहट भी

गनीमत हो कि मौसम खुले
और स्वर्गारोहिणी दिखे।