रचना में शिल्प को महत्वपूर्ण मानने वालों को जान लेना चाहिए कि जब रचनाकार अपने परिवेश को बहुत निकट से पकड़ने की कोशिश करता है तो कथ्य खुद ही अपना शिल्प गढ़ लेता है। माओवादी उभार से काफी पहले नवे दशक के नेपाल के एक गांव का चित्र खींचते हुए नेपाली कथाकार प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उसका एक नमूना है। कहानी अपने शास्त्रीय ढांचे को तोड़ भी रही है। कई बार एक यात्रा कथा सी लगने लगती है। कहें तो है भी यात्रा कथा ही। बल्कि बहुत सी दूसरी कथाओं की तरह जिनमें यात्रा ही घटना होती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि हमारी आलोचना एक चिरपरिचित भूगोल में लिखी गई यात्रा कथा को तो कहानी मान रहा होता होता है पर एक अनजाने भूगोल पर लिखी गई रचना को पढ़ते हुए वह उसे यात्रा वृतांत कहने को मजबूर होता है। अपने यात्रा अनुभवों को लेकर जब मैंने कुछ कहानियां लिखी तो साथियों के इन आग्रहों से मुझे रुबरु होना पड़ा। पहल में प्रकाशित ''जांसकरी घोड़े वाले" एक ऐसी ही कथा थी जिसे ज्ञान जी ने यायावरी कह कर प्रकाशित किया था। मुझे यायावरी शब्द भी जंचा था ऎसी रचनाओं के लिए। जांसकरी घोड़े वाले फिर कभी पढ़िएगा अभी तो प्रस्तुत है मूल नेपाली से अनुदित कहानी - एक गांव- काकाकूल । कहानी का अनुवाद मेरे साथी भरत प्रसाद उपाध्याय न किया है। मैंने टाइप करते हुए वाक्य को थोड़ा ठीक करने की ही छूट ली है। प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उनके कथा संग्रह कुहिरो से साभार है।
-वि०गौ०
एक गांव- काकाकूल
प्रदीप ज्ञवाली
साथी चलो, आज मैं तुम्हें एक गांव घुमाकर लाता हूं। तुम तो शहर बाजार के आदमी हो, यहां की कई बांतें तुम्हें अनोखी लगेंगी। बरसात ने रास्ते को कठिन और फिसलन भरा कर दिया है, जरा आराम से चलना- संभलकर। चारों ओर पानी ही पानी है, पत्थर दूध से ध्वल और बहता मटमैला नाला। ओहो, कितनी तो खड़ी चढ़ाई है, मानो नाक ही टकरा जाए आगे बढ़ते हुए। कितने तो समतल है पत्थर। लेकिन साथी, ये समतल पत्थरों वाला रास्ता सरकारी योजना के तहत किसी इंजिनियर ने सर्वे करने के बाद नहीं बनाया है। पहले तो ये पत्थर भी सामने दिख रहे नुकीले पत्थरों तरह ही तीखे थे। पर यहां के लोगों के नंगे पांवों ने चढ़ते उतरते हुए घिस-घिस कर इन्हें समतल बनाया है। कितनी शक्ति होती है न श्रमिक जनता में !
थकान लग गई होगी न, इस चबूतरे (चौतारे) पर बैठ जाओं कुछ देर। क्योंकि कोहरा लगा हुआ इसीलिए पार के गांव दिखाई नहीं दे रहे हैं ।।।
काफी देर हो गई साथी, अब चलो चलते है ऊपर। रास्ता अभी लम्बा है फिर भी कम से कम नौ बजे तक तो हमें गांव पहुंचना ही होगा। नहीं तो लोग बाग अपने-अपने काम पर निकल जाएंगे। तुम तो जीवन में पहली बार ही ऐसा पहाड़ चढ़ रहे होंगे। कठनाई तो हो ही रही होगी। हिम्मत न हारो, लोग तो सागरमाथा पर भी चढ़ रहे हैं। यहां के लोगों को तो एक ही दिन में कई बार चढ़ाई उतराई करनी पड़ती है, छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी। लेकिन क्या करें, जब यहां पैदा हुए तो सुख खोजने कहां जाएंगे ? फिर भी कुछ थोड़े से समर्थ लोग शहरों में निकल गए हैं, वहीं बस भी गए। लेकिन गरीब गुरबा लोगों के लिए तो कहीं जगह नहीं।
अरे, गप करते-करते चढ़ाई तो कट गई, अब हम गांव की तरफ चलते हैं। अब हम गांव में पहुंच गए हैं। यहां दो चार घ्ारों को छोड़कर सभी में छोटे-छोटे बच्चे हैं, औरत और बुजुर्ग हैं। यहां के बच्चे साफ कपड़ों में दिखने वाले बाबू सहाबों को देखकर उनसे दूर-दूर रहते हैं क्योंकि यहां कोई बड़ा आदमी आता नहीं है। इतनी चढ़ाई चढ़कर जो आता भी है तो उनसे हिकारत से बात करता है।
चलो उस घर में चलते हैं। गरीब होने पर भी यहां गांव के लोग बहुत मिलनसार है। घ्ार आये मेहमान का हैसियत से अधिक सत्कार करते है। लेकिन साथी, बस आज भर के लिए तुम अपने शहरीपन को छोड़ देना। हो सके तो अंग्रेजी भाषा के शब्दों से भी बचना, उसका यहां कोई काम नहीं। जितना भी हो यहां के वातावरण में घुलने मिलने की कोशिश करना। तुम कर तो सकते हो न ?
।।।खाना तैयार है, चलो अन्दर चलें। चुपके से बता रहा हूं, खाना जैसा भी हो खा लेना। तुमको खाना बेस्वाद लग सकता है पर यहां के लोगें ने हमारे लिए सबसे स्वादिष्ट भोजन बनाया है, खाते हुए मुंह न बनाना बस, इन्हें बुरा लगेगा।
खाना खाते हुए तुम्हे आश्चर्य हुआ न ? भात पीला, दही पीली, पानी भी पीला। लेकिन ये हल्दी के कारण पीला नहीं हुआ, यहां पोखरों का पानी ही पीला है। तुम्हें कैसे बताऊं कि यहां पानी की कितनी किल्लत है ? तुम यहां न आए होते तो इस बात पर विश्वास ही नहीं करते, ये सारी बातें दंतकथाओं जैसी लगतीं। अपने आप देख लो। बरसात में यहां के लोगों को पोखरों का पानी पीना पड़ता है, जाहिर है जो गंदला तो होता ही होगा। स्रोत या कुंऐ का पानी लेने जाने पर दो घंटे तो लग ही जाते हैं। आते समय कितना समय लगता होगा ये तो आप अंदाजा खुद ही लगा लो। कभी यहां कहीं गांव में आपको रात बितानी पड़े तो देखना कि मध्य राती को दो-एक बजे जलती मशालों का लश्कर ढाल उतरता दिखाई देगा। आप डर के मारे सोचने लग सकते हैं कि कहीं मशाल वाला भूत तो नहीं। लेकिन कोई भूत नहीं। वो तो एक गागर पानी के लिए एक दूसरे से होड़ लगाते गांव वाले होते हैं। इस भागमभग में कितनी ही गागर टूट जाती हैं, कितने पिचक जाती हैं, कितनों के हाथ पांव ही टूट जाते हैं और कैसे कैसे तो झगड़े हो जाते हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं। इसके बावजूद बार-बार छलक कर गिर जाता आध गगरी पानी लेकर सुबह सात आठ बजे तक ही पहुंच पाते हैं। अभी बरसात में तो फिर भी ठीक है।
तुम्हें यहां के लोगों की बोली भी कुछ अलग-अलग और अटपटी सी लग रही होगी न ? हैरान न हों, ये भी यहां के गंदले पानी की करामात है। हारी-बिमारी की बात न करें तो ही अच्छा ? इतने अच्छे लोकतंत्र में, ऐसे शांत-सम्पन्न देश में रोग व्याधि की बात किससे करें !
साथी, यहां गांव के लड़कों की शादी भी एक आफत है, क्यों जानना चाहते हो ? कौन मां बाप अपनी बेटी को इस आफत वाली जगह में ब्याहना चाहेगा ? ऐसा वैसा तो यहां वैसे भी टिक नहीं सकता। हमें ही देखो, इस चढ़ाई को चढ़ने में कितनी महाभारत हुई ?
चलो उस चोटी में चलते हैं। वहां से चारों ओर का नजारा दिखाई देता है। अब तो कुहरा भी छंट चुका है। वो देखो नदी, गांव को तीन ओर से घेर कर कैसे बह रही है। तब भी यहां पानी का कैसा हाहाकर है ! देखो, ठीक से देखे अपनी आंखों से, पानी के लिए यहां के लोगों के गले कैसे सूखे है। अब चुनाव होने वाले हैं। बड़े-बड़े लोग घर-घर जाकर पानी की धारा बहा देने का लालच देकर वोट मांगेंगे और चुनाव जीतने के साथ ही यहां के लिए स्वीकृत योजना तक को छीन कर अपने गांव इलाके में ले जाएंगे। यहां के लोग हमेशा की तरह टुकुर-टुकुर नीचे बहती नदी को ही देखते रहते है और प्यास लगने पर अपने ही आंसू पीकर जीने के लिए मजबूर हैं।
ढंग से समझ लो साथी। पानी के लिए दूसरे नम्बर के धनी इस देश यह इलाका पानी के लिए कैसे छटपटा रहा है। नेपाल के तमाम गांवों में से यह तो एक ही गांव है- काकाकूल गांव।
अनुवाद: भरत प्रसाद उपाध्याय