Sunday, December 13, 2009

छलक-छलक गिर जाता पानी


रचना में शिल्प को महत्वपूर्ण मानने वालों को जान लेना चाहिए कि जब रचनाकार अपने परिवेश को बहुत निकट से पकड़ने की कोशिश करता है तो कथ्य खुद ही अपना शिल्प गढ़ लेता है। माओवादी उभार से काफी पहले नवे दशक के नेपाल के एक गांव का चित्र खींचते हुए नेपाली कथाकार प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उसका एक नमूना है। कहानी अपने शास्त्रीय ढांचे को तोड़ भी रही है। कई बार एक यात्रा कथा सी लगने लगती है। कहें तो है भी यात्रा कथा ही। बल्कि बहुत सी दूसरी कथाओं की तरह जिनमें यात्रा ही घटना होती है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि हमारी आलोचना एक चिरपरिचित भूगोल में लिखी गई यात्रा कथा को तो कहानी मान रहा होता होता है पर एक अनजाने भूगोल पर लिखी गई रचना को पढ़ते हुए वह उसे यात्रा वृतांत कहने को मजबूर होता है। अपने यात्रा अनुभवों को लेकर जब मैंने कुछ कहानियां लिखी तो साथियों के इन आग्रहों से मुझे रुबरु होना पड़ा। पहल में प्रकाशित ''जांसकरी घोड़े वाले" एक ऐसी ही कथा थी जिसे ज्ञान जी ने यायावरी कह कर प्रकाशित किया था। मुझे यायावरी शब्द भी जंचा था ऎसी रचनाओं के लिए। जांसकरी घोड़े वाले फिर कभी पढ़िएगा अभी तो प्रस्तुत है मूल नेपाली से अनुदित कहानी - एक गांव- काकाकूल । कहानी का अनुवाद मेरे साथी भरत प्रसाद उपाध्याय न किया है। मैंने टाइप करते हुए वाक्य को थोड़ा ठीक करने की ही छूट ली है। प्रदीप ज्ञवाली की यह कहानी उनके कथा संग्रह कुहिरो से साभार है।  

-वि०गौ०
     



एक गांव- काकाकूल

प्रदीप ज्ञवाली

साथी चलो, आज मैं तुम्हें एक गांव घुमाकर लाता हूं। तुम तो शहर बाजार के आदमी हो, यहां की कई बांतें तुम्हें अनोखी लगेंगी। बरसात ने रास्ते को कठिन और फिसलन भरा कर दिया है, जरा आराम से चलना- संभलकर। चारों ओर पानी ही पानी है, पत्थर दूध से ध्वल और बहता मटमैला नाला। ओहो, कितनी तो खड़ी चढ़ाई है, मानो नाक ही टकरा जाए आगे बढ़ते हुए। कितने तो समतल है पत्थर। लेकिन साथी, ये समतल पत्थरों वाला रास्ता सरकारी योजना के तहत किसी इंजिनियर ने सर्वे करने के बाद नहीं बनाया है। पहले तो ये पत्थर भी सामने दिख रहे नुकीले पत्थरों तरह ही तीखे थे। पर यहां के लोगों के नंगे पांवों ने चढ़ते उतरते हुए घिस-घिस कर इन्हें समतल बनाया है। कितनी शक्ति होती है न श्रमिक जनता में !
थकान लग गई होगी न, इस चबूतरे (चौतारे) पर बैठ जाओं कुछ देर। क्योंकि कोहरा लगा हुआ इसीलिए पार के गांव दिखाई नहीं दे रहे हैं ।।।
काफी देर हो गई साथी, अब चलो चलते है ऊपर। रास्ता अभी लम्बा है फिर भी कम से कम नौ बजे तक तो हमें गांव पहुंचना ही होगा। नहीं तो लोग बाग अपने-अपने काम पर निकल जाएंगे। तुम तो जीवन में पहली बार ही ऐसा पहाड़ चढ़ रहे होंगे। कठनाई तो हो ही रही होगी। हिम्मत न हारो, लोग तो सागरमाथा पर भी चढ़ रहे हैं। यहां के लोगों को तो एक ही दिन में कई बार चढ़ाई उतराई करनी पड़ती है, छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी। लेकिन क्या करें, जब यहां पैदा हुए तो सुख खोजने कहां जाएंगे ? फिर भी कुछ थोड़े से समर्थ लोग शहरों में निकल गए हैं, वहीं बस भी गए। लेकिन गरीब गुरबा लोगों के लिए तो कहीं जगह नहीं।
अरे, गप करते-करते चढ़ाई तो कट गई, अब हम गांव की तरफ चलते हैं। अब हम गांव में पहुंच गए हैं। यहां दो चार घ्ारों को छोड़कर सभी में छोटे-छोटे बच्चे हैं, औरत और बुजुर्ग हैं। यहां के बच्चे साफ कपड़ों में दिखने वाले बाबू सहाबों को देखकर उनसे दूर-दूर रहते हैं क्योंकि यहां कोई बड़ा आदमी आता नहीं है। इतनी चढ़ाई चढ़कर जो आता भी है तो उनसे हिकारत से बात करता है।
चलो उस घर में चलते हैं। गरीब होने पर भी यहां गांव के लोग बहुत मिलनसार है। घ्ार आये मेहमान का हैसियत से अधिक सत्कार करते है। लेकिन साथी, बस आज भर के लिए तुम अपने शहरीपन को छोड़ देना। हो सके तो अंग्रेजी भाषा के शब्दों से भी बचना, उसका यहां कोई काम नहीं। जितना भी हो यहां के वातावरण में घुलने मिलने की कोशिश करना। तुम कर तो सकते हो न ?
।।।खाना तैयार है, चलो अन्दर चलें। चुपके से बता रहा हूं, खाना जैसा भी हो खा लेना। तुमको खाना बेस्वाद लग सकता है पर यहां के लोगें ने हमारे लिए सबसे स्वादिष्ट भोजन बनाया है, खाते हुए मुंह न बनाना बस, इन्हें बुरा लगेगा।
खाना खाते हुए तुम्हे आश्चर्य हुआ न ? भात पीला, दही पीली, पानी भी पीला। लेकिन ये हल्दी के कारण पीला नहीं हुआ, यहां पोखरों का पानी ही पीला है। तुम्हें कैसे बताऊं कि यहां पानी की कितनी किल्लत है ? तुम यहां न आए होते तो इस बात पर विश्वास ही नहीं करते, ये सारी बातें दंतकथाओं जैसी लगतीं। अपने आप देख लो। बरसात में यहां के लोगों को पोखरों का पानी पीना पड़ता है, जाहिर है जो गंदला तो होता ही होगा। स्रोत या कुंऐ का पानी लेने जाने पर दो घंटे तो लग ही जाते हैं। आते समय कितना समय लगता होगा ये तो आप अंदाजा खुद ही लगा लो। कभी यहां कहीं गांव में आपको रात बितानी पड़े तो देखना कि मध्य राती को दो-एक बजे जलती मशालों का लश्कर ढाल उतरता दिखाई देगा। आप डर के मारे सोचने लग सकते हैं कि कहीं मशाल वाला भूत तो नहीं। लेकिन कोई भूत नहीं। वो तो एक गागर पानी के लिए एक दूसरे से होड़ लगाते गांव वाले होते हैं। इस भागमभग में कितनी ही गागर टूट जाती हैं, कितने पिचक जाती हैं, कितनों के हाथ पांव ही टूट जाते हैं और कैसे कैसे तो झगड़े हो जाते हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं। इसके बावजूद बार-बार छलक कर गिर जाता आध गगरी पानी लेकर सुबह सात आठ बजे तक ही पहुंच पाते हैं। अभी बरसात में तो फिर भी ठीक है।
तुम्हें यहां के लोगों की बोली भी कुछ अलग-अलग और अटपटी सी लग रही होगी न ? हैरान न हों, ये भी यहां के गंदले पानी की करामात है। हारी-बिमारी की बात न करें तो ही अच्छा ? इतने अच्छे लोकतंत्र में, ऐसे शांत-सम्पन्न देश में रोग व्याधि की बात किससे करें !
साथी, यहां गांव के लड़कों की शादी भी एक आफत है, क्यों जानना चाहते हो ? कौन मां बाप अपनी बेटी को इस आफत वाली जगह में ब्याहना चाहेगा ? ऐसा वैसा तो यहां वैसे भी टिक नहीं सकता। हमें ही देखो, इस चढ़ाई को चढ़ने में कितनी महाभारत हुई ?
चलो उस चोटी में चलते हैं। वहां से चारों ओर का नजारा दिखाई देता है। अब तो कुहरा भी छंट चुका है। वो देखो नदी, गांव को तीन ओर से घेर कर कैसे बह रही है। तब भी यहां पानी का कैसा हाहाकर है ! देखो, ठीक से देखे अपनी आंखों से, पानी के लिए यहां के लोगों के गले कैसे सूखे है। अब चुनाव होने वाले हैं। बड़े-बड़े लोग घर-घर जाकर पानी की धारा बहा देने का लालच देकर वोट मांगेंगे और चुनाव जीतने के साथ ही यहां के लिए स्वीकृत योजना तक को छीन कर अपने गांव इलाके में ले जाएंगे। यहां के लोग हमेशा की तरह टुकुर-टुकुर नीचे बहती नदी को ही देखते रहते है और प्यास लगने पर अपने ही आंसू पीकर जीने के लिए मजबूर हैं।
ढंग से समझ लो साथी। पानी के लिए दूसरे नम्बर के धनी इस देश यह इलाका पानी के लिए कैसे छटपटा रहा है। नेपाल के तमाम गांवों में से यह तो एक ही गांव है- काकाकूल गांव।                 


अनुवाद: भरत प्रसाद उपाध्याय

Tuesday, December 8, 2009

सॉलिटरी रेसिसटेंस



अरुण कुमार असफल की यह टिप्पणी विष्णु खरे जी के आलेख पर प्रतिक्रया स्वरूप लिखी गई पोस्ट पर किसी अनाम भीम सिंह जी की टिप्पणी के विरोध में प्राप्त हुई है। अरूण को उसके लिखे से जानने वाले जानते हैं कि अरूण एक गम्भीर रचनाकार हैं और सनसनी की हद तक चर्चाओं में बने रहने की बजाय अपने लिखे पर यकीन करते हैं। इस आभासी दुनिया में अरूण का यह प्रवेश साहित्य की दुनिया के भीतर गुंडावाद के विरुद्ध और अपने लिखे पर यकीन करने वाले रचनाकार का ही प्रवेश है।




भीम सिंह जी,,

आपने पूरे ब्लॉग का एक एक पन्ना न पढ़ा हो पर मैं इस ब्लॉग का नियमित पाठक हूं । यदि इस ब्लॉग पर कुछ नॉन सेन्स जैसा है तो वह है आपकी टिप्पणी। आपका बस चले तो ब्लॉग क्या बोलने बतियाने पर भी रोक लग जाये। केवल आपके श्रद्धेय विष्णु खरे के 'सॉलिटरी रेसिसटेंस " को ज्यों का त्यों आत्मसात कर लें। आप एक तरफ तो विजय को कहतें हैं कि "पूरी जिन्दगी कुछ न किया"। तो इस "पूरी जिन्दगी कुछ न किये वाले" कि इतनी औकात कहॉ से आ गई कि हिन्दी साहित्य के चेग्वेरा से अपना पुराना हिसाब करने लगा ? पर हमने तो लेख में आपके श्रद्धेय को ही किन्ही से पुराना हिसाब करते पाया है। माफ कीजिये हमें भी पढना नही आता । क्या उस विश्वविद्यालय का नाम बतायेगे जहॉ से आपने लिखने पढ़ने की यह समझ हासिल की है।

अरुण कुमार असफल, जयपुर

Monday, December 7, 2009

एक विरासत का अन्त




हिम आहुजा
(लेखक एक शोधकर्ता हैं जो आजकल टौंस घाटी, जिला उत्तरकाशी में कार्यरत हैं)

माधो सिंह भण्डारी को कौन नहीं जानता? वीरता की मिसाल, उनका नाम पूरे गढ़वाल में जाना जाता है। किन्तु दले सिंह जड़यान इतने भाग्यशाली नहीं। अपितु वीर सही, रवांई क्षेत्र में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। उनकी वीरता के कारनामे जानता है। यही सत्य है उस क्षेत्र के अनेक राजपूत वीरों की कथाओं के लिए - जैसे दले सिंह का बेटा जीतू जड़यान, नागदेऊ फन्दाटा, बहादर सिंह और कर्ण महाराज के रांगड़ वज़ीर।

इन्हीं लोगों की वीरता के किस्सों से बना है इस पूरे क्षेत्र का इतिहास। आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यही एकमात्र तरीका है अपने पूर्वजों को याद रखने और उन्हें इज्जत देने का। परन्तु बुली दास के बिना, हरकी दून क्षेत्र के देऊरा गाँव से एक साधारण गरीब बाजगी, ये किस्से और इतिहास कब के लुप्त हो जाते।

बुली दास का ज्ञान पीढ़ियों पीछे जाकर रोमांचक, अविश्वसनीय घटनायें ढूँढ लाता था। उन घटनाओं को जिनसे पिछले सैकड़ों साल में इस क्षेत्र का भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास निर्मित हुआ।

उदाहरण के तौर पर हिमांचल के बुशेहर और यहां की टौंस घाटी के लोगों के बीच चरागाह विवाद, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही राजपूत खानदानों के बीच की दुश्मनी, एवं अनेक ऐसी कथायें, घटनायें जिन्होंने सिर्फ इस क्षेत्र का इतिहास ही नहीं दर्ज किया अपितु जो लिपिबद्ध इतिहास एवं दस्तावेजों से प्रमाणित भी हुआ।

बाजगी जिन्हें बेड़ा, बादी, औजी, ढ़ाकी आदि नामों से भी जाना जाता है, उत्तराखण्ड के परम्परागत गायक वादक हैं। इनका मुख्य कार्य हर अवसर पर गाँव में गाना और बजाना है। चाहे वे जन्म के गीत हों या मृत्यु के, शादी-ब्याह के, ऋतुओं के, मेलों के और देवता के उत्सवों के, बिना बाजगी के वे सम्पन्न नहीं हो सकते। वे 'मौखिक परम्परा' के भी संवर्धक हैं जिनसे समुदाय की सामुहिक स्मृति जिन्दा रहती है।

मुझे याद है जब मैं पहली बार 2005 में उनके घर गया, तो वे हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ। विलियम सैक्स को एक 'पंवाड़ा' (वीरता की गाथा) सुनाने में तल्लीन थे। उनका ज्ञान और असर ऐसा था कि डॉ। विलियम ने उन्हें दस साल तक लगातार वृत्तचित्रित किया और उनका रिश्ता एक खूबसूरत दोस्ती में बदल गया।

इस दशहरे, टौंस घाटी की यात्रा पर, मैं बुली दास से मिला। परन्तु इस बार एक कमजोर, निढ़ाल और संक्रमण से जूझते बुली दास ने बिस्तर से मेरा अभिवादन किया। मैं उनके लिए कुछ दवाईयाँ लेकर आया था। हम हमेशा की तरह बैठे और पुरानी कथाओं में खो गये। उनकी आवाज कमजोर थी परन्तु हिम्मत मज़बूत थी। उन्होंने गाना गाने की कोशिश की परन्तु थोड़ी देर बाद ही वे रुक गये और मुझे विस्तार से कहानी रुप में सुनाने लगे।

उनकी सेहत के बारे में चिन्तित, डॉ। विलियम उनका परीक्षण करवाने उन्हें रोहड़ू ले गये। वहाँ पता चला कि उन्हें दमा है। सब प्रकार की दवाईयाँ लेकर वे लौट आये, इस आश्वासन के साथ कि बीमारी मिल जाने पर ईलाज भी शीघ्र हो जायेगा।

आज, सिर्फ दस दिन बाद ही, 62 साल की उम्र में, बुली दास नहीं रहे। वो 'जीवित परम्परा' चली गई। पीछे छोड़ गई वो खनकती हुई हंसी जो मेरे कानों में आज भी गूँज रही है, वो सालों के अनुबद्ध और संग्रहित गाने, गाथायें, कथायें जो सिर्फ उनके समुदाय ही नहीं, अपितु आने वाली कई पीढ़ियों के काम आयेंगें और एक तीखे दर्द का एहसास जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा।

हमारे चारों ओर ऐसी कई 'जीवित परम्परायें' हैं जो हमेशा के लिए खो जाने के कगार पर हैं। उत्तराखण्ड की हर वादी में ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदाय की 'मौखिक परम्पराओं' को सुरक्षित और जीवित रखने में समर्पित कर दिया। यह उन्हें सिर्फ दक्ष ढ़ोल वादक और गायक के रुप में ही अमूल्य नहीं बनाता अपितु उस 'निरन्तरता' का संग्रहणी बनाता है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। टिहरी रियासत से मिलने वाले प्रश्रय का खो जाना और लोगों का परम्परागत गीतों और ढ़ोलों के बजाय डी।जे। और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में जादा रुचि लेना- इन सबके कारण इनका जीवनयापन एवं समुची परम्परा ही खतरे में है। यही समय है जब सरकार को जागकर प्रदेश की संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को पहचानना चाहिए एवं इस परम्परा को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिएं।

Sunday, December 6, 2009

किसी भी मामले में सनसनी पैदा करना आसान है

विष्णु खरे एक जिम्मेदार रचनाकार हैं- यह ब्लाग और मैं स्वंय उनको इसी अर्थ में लेते हैं। उनके मार्फत लिखी गई पोस्ट इसी का परिचायक है। लेकिन क्या एक जिम्मेदार लेखक से असहमति नहीं रखी जा सकती ? क्या उनके लिखे के उस पाठ को पकड़ना, जो गलियारों में होने वाली बातचीत का हिस्सा होता है और उसे दर्ज करना, उसका गलत पाठ है ? यह सवाल जनसत्ता में प्रकाशित उनके उस आलेख से सहमति और असहमति रखते हुए लिखी पोस्ट पर हमारे एक सहृदय पाठक भीम सिंह जी की टिप्पणी के कारण उठ रहे हैं। मैं नहीं जानता कि भीम सिंह जी कौन है ? वे सच में भीम सिंह ही है या, उनका वास्तविक नाम कुछ और है ? पर इस बिना पर कि मैं अदना सा व्यक्ति उनको नहीं जानता तो वे मुझसे असहमति नहीं रख सकते। जरूर रख सकते हैं और इससे भी तीखे स्वर में उनका स्वागत हमेशा रहेगा। मैं किसी दार्शनिक के विचारों के मार्फत कहूं तो कह ही सकता हूं कि स्वतंत्रता के मायने यह नहीं कि मेरा कोई विरोधी मेरे विरोध में बोले तो मैं उसके बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार को छीन लूं। अब भीम सिंह जी से माफी चाहते हुए कहना चाहूंगा कि कहीं वे मुझसे उस दार्शनिक का नाम न पूछने लगें कि किसने कहा था यह (?), मैं नाम बता न पाऊंगा और फिर कहीं यादाश्त पर जोर देकर नाम बता भी दूं और वे रुष्ट होने लगें कि दार्शनिक द्वारा कहे गए वक्तव्य को मैंने अपने अंदाजों में प्रस्तुत किया है, यानी उन्हें शब्दश: नहीं कहा तो मेरे पास इस बात की सफाई देने की कोई गुंजाइश न रह जाएगी कि श्रीमान मैंने तो जो कहा वह पढ़े गए वक्तव्य का आशय है और मैं किसी भी आलेख को पढ़ने के बाद उसके आशय पर यकीन करता हूं, उसमें कहे गए हुबहू शब्दों पर नहीं। विष्णु जी के आलेख पर भी मेरी प्रतिक्रिया उसी आशय का पाठ है। यहां यह भी स्पष्ट जाने कि विष्णु जी से असहमति भी अपने आशय में एक जिम्मेदार और गम्भीर रचनाकार से असहमति है। असहमति के आशय भी स्पष्ट है, " सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? --- कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए।"
किसी बात को सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने की मंशा इस "nonsense blog" की कभी न रही। अब भी नहीं है। मामला जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नही, यह बात मैं फिर-फिर कहना चाहूंगा।
यहां यह कहना तो अब और भी जरूरी लगने लगा है कि जब साहित्य अकादमी की इस कार्रवाई की कोई अधिकारिक सूचना (मेरी सीमित जानकारी में तो कहीं दिखाई न दी ) अभी तक भी कहीं दिखाई न दी और विष्णु जी को कहीं से पता लगी तो तय है कि किसी अन्य के द्वारा तो उसके विरोध की कोई गुंजाइश कैसे दिखाई देती भला ? लेकिन विष्णु जी का आलेख उस जानकारी को इसलिए शेयर करने के लिए कि सच में प्रतिरोध करने की गुंजाइश तलाशी जाए, दिखता नहीं। बजाय इसके चंद साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवियों के सामने चुनौति प्रस्तुत करने जैसा ही ज्यादा है।
अच्छा हो कि ऊर्जा को सनसनी पैदा करने में जाया न करें और किसी ठोस पहल की शुरूआत करने में जुटे। 

-विजय गौड़

Saturday, December 5, 2009

सामूहिक प्रतिरोध जरूरी है

29 नवम्बर 2009 के जनसत्ता में प्रकाशित विष्णु खरे जी के आलेख पर बहुत सख्ती से न भी कहा जाए तो भी यह तो देखा ही जा सकता है कि एक गैर जनतांत्रिक शासकीय (साहित्य अकादमी एक स्वायत संस्था है, बावजूद इसके ) प्रक्रिया के खिलाफ उनकी टिप्पणी आत्मरक चिंताओं से घिरी है जिसमें उस प्रक्रिया की जो साहित्य संस्कृति को भी बाजार का हिस्सा बना रही है, मुखालफत कम और खुद की आत्मतुष्टी कहीं ज्यादा है। विरोध के नाम पर जो कुछ है उसमें विरोध की संभावना को जन्म देने वाली चिंताओं की बजाय एक ताल ठोकू और ललकार भरी चुनौति के साथ खुद मामले से पल्ला झाड़ लेने की कवायद भी। व्यक्तियों को निशाना की बनाने की यह ऐसी प्रवृत्ति है जो खुद को ही चर्चा के केन्द्र में देखने की खराब मंशाओं भरी मनौवैज्ञानिक बिमारी है। एक वरिष्ठ एवं जिम्मेदार आलोचक और नागरिक की इस प्रवृत्ति पर आखिर सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए जो किसी भी घटनाक्रम में सनसनी पैदा करने वाली एक बाजारू मानसिकता का परिचय बनकर सामने आ रही है। मामला देश की सर्वोच्च संस्था साहित्य अकादमी द्वारा एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साहित्यिक, सांस्कृतिक चेहरे को चमकाने वाली बेहद गैर जनतांत्रिक प्रक्रिया का है। जनता के द्वारा चुनी हुई एक सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी ही चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नहीं, यह बात विष्णु जी की समझ नहीं आती क्या ? विष्णु जी ही क्यों अन्य उनकी जैसी ही समझदारी रखने वालों को भी भली प्रकार से मालूम होगा कि एकल प्रतिरोध का कोई मायने नहीं। फिर इतने मजबूत तंत्र के सामने तो कोई नहीं। बावजूद इसके विष्णु जी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चंद कवियों के नाम ही इसके प्रतिरोध का ठेका क्यों छोड़ देना चाहते हैं फिर ? सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? ऐसी किसी भी नीति के विरोध में किसी अकेले व्यक्ति के विरोध का क्या मायने ? लेखक संगठनों को चाहिए कि ऐसे सवालों पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर एक राय तैयार करें और किसी ठोस कार्यनीति की शुरूआत हो। जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों का मामला ही नहीं, दूसरे, अन्य घरानों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार और लेखकीय नैतिकताओं से जुड़े अन्य सवालों पर भी एक सर्वानुमति कायम हो। ठीक वैसे ही जैसे दलित शोषित आम जन के बारे में और साम्प्रदायिकता के मामले में एक सामाजिक स्वीकृति बनी हुई है, वैसा ही, अमुक अमुक पुरस्कार के बारे में भी स्पष्ट हो। वरना तो किसी रचनाकार द्वारा किसी पुरस्कार को ग्रहण कर लेना और किसी का छोड़ देना व्यक्ति की निजी नैतिकता का मामला हो जाएगा, जो कि आज भी ऐसा ही बना हुआ है। पुरस्कारों को रचनाकारों का निजी मामाला जैसा मानने की समझदारी पर लेखक संगठनों को विचार करना चाहिए और उसे सार्वजनिक मसला बनाना चाहिए। कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए। सिर्फ छिछालेदारी करना ही यदि रचनात्मक अलोचना है तो विष्णु जी के वक्तव्य पर खूब ताली पीटी जा सकती है। आखिर वरिष्ठ अलोचक ही तो पहले व्यक्ति है न जो हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सैमसुंग के सहयोग से दिए जाने वाले रवीन्द्र पुरस्कार की मुखालफत कर रहे हैं !!!!     

-विजय गौड़