उत्तराखण्ड के समाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में युगवाणी उत्तराखण्ड की एक मासिक पत्रिका ही नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का एक ऐतिहासिक सच भी है। अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्र की स्थापना टिहरी राजशाही के विरोध में जन्में आंदोलन का एक रूप था। उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों के साथ अपनी प्रतिबद्धता की परम्परा को युगवाणी ने बखूबी निभाने का प्रयास किया है। युगवाणी के संस्थापक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती पर एक कार्यक्रम का आयेाजन किया जा रहा है जिसमें पत्रकारिता की नयी चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जाएगा। 13 फरवरी 2010 को युगवाणी द्वारा देहरादून में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, समर भण्डारी, शेखर पाठक, राजेन्द्र धस्माना, शमशेर बिष्ट, राजीव लोचन शाह के साथ साथ कई लेखक पत्रकार हिस्सेदारी कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि कार्यक्रम उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टिहरी राज्य आन्दोलन, नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन, विश्व विद्यालय के लिए आन्दोलन, बाँध विरोधी आन्दोलन, बाँध विस्थापितों के हितों व उनके जनतान्त्रिक अधिकारों को समर्पित आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं, पूर्व सम्पादकों, पत्राकारों और बुद्धिजीवियों की विरासत को भी अच्छे से स्थापित करेगा साथ ही उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की प्रवृतियों और स्मृतियों का ब्यौरा भी संजो सकेगा। |
हमारे समय में आचार्य जी
संजय कोठियाल
आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती मनाने का विचार अचानक ही नहीं आया। उनके समय के टीन की छत वाले युगवाणी के दफ्रतर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिर के ऊपर लकड़ी की कड़ियाँ अभी भी मौजूद हैं। एक ट्रेडल प्रेस जरूर अब यहाँ नहीं है, लेकिन मशीन मैन की जगह कभी खुद अखबार की छपाई करते, अखबार के बण्डल को कन्धों पर रखकर पोस्ट ऑफिस ले जाते हुए और सम्पादक की कुर्सी पर बैठकर सुदूर पहाड़ी गाँवों से मिलने आये लोगों से ध्यान पूर्वक हाल-समाचार लेते हुए आचार्य जी अपनी व्यक्तित्व की पूरी आभा के साथ यहाँ बराबर मौजूद लगते हैं। छोटे-बड़े सभी उम्र के लोगों के साथ वे सामान लगाव से मिलते थे, लेकिन उनसे बात करते समय खुद-ब-खुद एक जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता था। बातें अर्थपूर्ण होनी चाहिए और शब्दों का उच्चारण ठीक होना चाहिए। देश की राजनीति की हलचलें उद्वेलित कर रही हैं या विभिन्न जनपदों में आन्दोलन की खबरें आ रही हैं। कहने-सुनने की बेचैनी के लिए सोचने-विचारने वाले लोग दस बाई दस के आचार्य जी के कार्यालय में जरूर आना चाहते हैं।
50 वर्षों से ज्यादा समय तक उन्होंने युगवाणी को गम्भीरता, सादगी और परिवर्तन की जन आकाँक्षाओं का केन्द्र बनाया था। वर्ष 1999 में उनके देहावसान के बाद आचार्य जी की कुर्सी की महत्ता का बोध हुआ। यह भी कि बड़े संघर्ष सरल जीवन और सरल विचारों से सम्भव होते हैं। अपने लोक और परिवेश से एकता और हर तरह की संकीर्णता से स्वाभाविक विरोध उनकी वैचारिकी का आधार था। टिहरी की राजशाही से मुक्ति संघर्ष को गति देने के लिए स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पान्थरी और स्व। श्री तेजराम भट्ट के साथ मिलकर अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्रा की स्थापना की थी। बाद के वर्षों में चुनौतियों की विकट शक्लें थी। पहाड़ों में सड़कों, स्कूल-कॉलेजों और अन्य विकास कार्यों के लिए अपनी चुनी हुई सरकारों से जद्दोजहद करना था। सामन्ती प्रवृतियों और निहित स्वार्थों से संघर्ष करना था।
आज के दौर में देश में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों पर जनता का भरोसा नष्ट हो चुका है। उत्तरदायित्व विहीन पूँजी हमारे जीवन को संचालित कर रही है। सूचना और संचार माध्यमों पर कारपोरेट जगत ने कब्ज़ा कर लिया है और हमारे सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन को छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें तेज हो रही हैं। छोटे क्षेत्राीय प्रकाशन केन्द्रों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। हमें इस बात से ताकत मिलती है कि उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय एकजुटता व्यापक राष्ट्रहितों के साथ तारतम्यता बनाते हुए विकसित हुई है। समय विनोद (1868), अल्मोड़ा अखबार(1871), गढ़वाल समाचार (1902), गढ़वाली (1905), पुरुषार्थ (1907), विशाल कीर्ति(1907), क्षत्रिय वीर (1922), तरुण कुमाऊँ (1923), गढ़देश (1926), शक्ति (1928), स्वाधीन प्रजा (1930), कर्मभूमि (1938) के बाद युगवाणी (1947) इस परम्परा को जिम्मेदारी के साथ निभाने को यत्नशील हैं।
"जनधारा" आचार्य जी की सीख व प्रेरणा है। नमन्