सावन बीत गया था
भादों की उमस भरी गरमी में
कृष्ण जन्माष्टमी की वो एक
चुहल भरी सुबह थी -
बच्चे कट्टा भर रेत और
काई उठाये चले आ रहे थे
कितनी ही सीलन भरी दीवारें
खेल-खेल में हो गयीं थी साफ
खिल-खिलाने लगा उनका चूना
प्लास्टिक के कितने ही खिलौने से
भर गयी बहुमंजिला इमारत की
सीढ़ी के नीचे की वो जगह-
एक उदासी सी पसरी रहती थी जहां हर रोज
कितनी ही गोपियां, राधा और कृष्ण
खेलने लगे
धर्म-कर्म पर यकीन और
चण्डोल देखने वाले गुजरते
तो कृष्ण बना बच्चा
बांसुरी होठों से लगा
खड़ा हो जाता ऐसा
जैसी छठवीं कक्षा की पुस्तक में होती तस्वीर,
राधा भी नृत्य मुद्रा में स्थिर
गोपियों का कोरस और नृत्य देख
आनन्दित होते देखने वाले
प्रसाद बांटने को उत्सुक
कृष्ण बना बच्चा स्थिर न रह पाता
उसकी मुद्रा का टूटना भी
हंसी खेल हो जाता उस वक्त।
-विजय गौड़
Wednesday, September 1, 2010
Sunday, August 29, 2010
चाहता हूँ पानी बरसे
मूल रूप में सिएरा लेओन के पिता की संतान नाई आईक्वेई पार्केस, जन्मे तो ब्रिटेन में पर शुरुआती और निर्मिति का समय उनका घाना में बीता..देश विदेश घूमते हुए और अनेक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थाओं में रचनात्मक साहित्य पढ़ाते हुए वे पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन में रह रहे हैं...पार्केस कविताओं के अलावा कहानियां और लेख तो लिखते ही हैं,अश्वेत अस्मिता को स्थापित करने वाले स्टेज परफोर्मेंस के लिए भी खूब जाने जाते हैं. उनके अपने सात संकलन प्रकाशित हैं और अनेक सामूहिक संकलनों में उनकी कवितायेँ शामिल हैं. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ लोकप्रिय कवितायें..चयन और प्रस्तुति यादवेन्द्र की है.
चाहता हूँ पानी बरसे
कभी कभी मैं चाहता हूँ पानी बरसे
धारासार, अनवरत और पूरे जोर से
ताकि तुम मेरे अन्दर समा जाओ जैसे छुप जाती है व्यथा
और मुझे साँस की मानिंद पीती रहो निश्चिन्त हो कर धीरे धीरे.
मुझे खूब भाता है मेघों का विस्तार
इनका गहराना और दुनिया को अपनी छाया से ढँक लेना
जैसे पानी की धार हो जेल की सलाखें
और हम सब इसके अन्दर दुबक गए हों कैदी बन कर.
यही ऐसा मौका होता है जब सूरज बरतता है संयम
थोड़ी कुंद पड़ती हैं इसकी शिकारी निगाहें..
पडोसी धुंधलके में खो जाते हैं
और हमें पूरी आज़ादी नसीब होती है एकाकी प्रे म करने की.
सुबह सुबह का समय है
इसको न तो दिन कहेंगे न ही रात..
इस वेला में तुम न तो तुम रहीं और न मैं ही साबुत बचा
मुझे न तो किसी ने कैद में डाला और न खुला और आजाद ही रह पाया .
टिन की छत
बेकाबू गर्म थपेड़ों वाली तेज हवा कोड़े बरसाती रहती है तुम्हारी पीठ पर
फिर भी टिके बने रहते हो तुम..
तुम्हारी पूरी चमक पर बिखरा देते हैं वे गर्द और मिट्टी
और ऐंठ मरोड़ देते हैं तुम्हारे धारदार किनारे.
बारिश आती है तो अपनी थपाकेदार लय से
कीचड़ की लेप बना कर लपेट देती है तुम्हारा पूरा बदन
फिर भी टिके बने रहते हो तुम.
--- मेरा आत्मगौरव---
मेरी अपनी टिन की छत ही तो है.
मुझे मैं रहने दो
मैं मैं हूँ
और तुम तुम
पर तुम चाहते हो
मैं हो जाऊं बिलकुल तुम्हारे जैसा.....
तुम्हारी मंशा है कि मैं तो हो ही जाउं
तुम्हारे जैसा
पर आस पास के तमाम लोग भी
रूप बदल लें बिलकुल मेरी तरह...
मानो मैं हो गया बिलकुल तुम्हारी तरह
और चाहने लगूँ कि तुम भी बदल कर हो जाओ मेरी तरह..
इस से पहले कि मैं तुम्हारे जैसा हो जाऊं
तुम मेरे जैसे हो जाओगे
और मैं तो हो ही जाऊँगा बिलकुल तुम्हारी तरह..
पर जल्दी ही
मैं फिर से मैं ही हो जाऊंगा..
इसलिए यदि तुम चाहते हो
कि मैं बन जाऊं तुम्हारी तरह
तो मुझे रहने दो मैं ही...
Monday, August 23, 2010
तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं
देहरादून और पूरे उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों में सांस्कृतिक तौर पर डटे रहने वाले संस्कृतिकर्मी गिर्दा-गिरीश चंद्र तिवाड़ी को देहरादून के रचनाजगत ने पूरे लगाव से याद किया। गिर्दा का मस्तमौला मिजाज और फक्कड़पन, उनकी बेबाकी और दोस्तानेपन के साथ किसी भी परिचित को अपने अंकवार में भर लेने की उनकी ढेरों यादें उनके न रहने की खबर पर देहरादून के रचनाजगत और सामाजिक हलकों में सक्रिय रहने वाले लोगों की जुबां में आम थी। गत रविवार को यह सूचना मिलने पर कि गिर्दा नहीं रहे, देहरादून के तमाम जन संगठनों ने उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद किया। संवेदना की बैठक में नीवन नैथानी, दिनेश चंद्र जोशी, निरंजन सुयाल राजेश सकलानी, विद्या सिंह और अन्य रचनाकारों ने गिर्दा के देखने, सुनने और उनके साथ बिताये गये क्षणों को सांझा किया। कवि राजेश सकलानी ने उनकी हिन्दी में लिखी कविताओं का पाठ किया तो दिनेश चंद्र जोशी ने कुंमाऊनी कविता का पढ़ी। निरंजन सुयाल ने 1994 से आखिरी दिनों तक के साथ का जिक्र करते हुए गिर्दा के एक गीत की कुछ पंक्तियों का स-स्वर पाठ किया। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान गाये जाने वाले उनके गीतों को याद करते हुए तुतुक नी लगाउ देखी, घुनन-मुनन नी टेकी गीत को कोरस के रुप में भी गाया गया। इस अवसर पर फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उठाये। डॉ जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रमोद सहाय और चंद्र बहादुर रसाइली अदि अन्य रचनाधर्मी भी गोष्ठी में उपस्थित थे। गिर्दा की कविताओं के साथ गोष्ठी की बातचीत की कुछ झलकियां यहां जीवन्त रुप में प्रस्तुत है।
अक्षर ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
कोलाहल को गीत बनाना- क्या कहने हैं,
गीतों से कुहराम मचाना- क्या कहने हैं।
कोयल तो पंचम में गाती ही है लेकिन
तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं।
बिना कहे भी सब जाहिर हो जाता है पर,
कहने पर भी कुछ रह जाना- क्या कहने हैं।
अभी अनकहा बहुत-बहुत कुछ है हम सबमें,
इसी तड़फ को और बढ़ाना- क्या कहने हैं।
इसी बहाने चलो नमन कर लें उन सबको
'अ" से 'ज्ञ" तक सब लिख जाना- क्या कहने हैं।
ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
अ
दिल लगाने में वक्त लगता है,
डूब जाने में वक्त लगता है,
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता-
वक्त आने में वक्त लगता है।
आ
दिल दिखाने में वक्त लगता है,
फिर छिपाने में वक्त लगता है,
दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता-
दर्द जाने में वक्त लगता है।
इ
अभी करता हूँ तुझसे आँख मिलाकर बातें,
तेरे आने की लहर से तो उबर लूँ पहले।
ये खिली धूप, ये चेहरा, ये महकता मौसम,
अपनी दो-चार खुश्क साँसें तो भर लूँ पहले।।
Friday, August 13, 2010
सफाई देवता कोई इतिहास पुस्तक नहीं
’’सफाई देवता’’ कोई इतिहास पुस्तक नहीं है। पर दलित विमर्श के साथ इतिहास में हस्तक्षेप करने की कोशिश इसमें साफ दिखायी देती है।
इतिहास की प्रचलित मान्यताओं पर समकालीन दलित धारा क्या दृष्टिकोण रखती है, इसके संकेत तो पुस्तक से मिलते ही हैं। यह संयोग ही है कि भारतीय दलित धारा के विद्धान कांचा ऐलय्या की पुस्तक ’’व्हाई आई एम नाॅट हिन्दू’’ का हिन्दी अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता के साथ ही आया है। इस पुस्तक का अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। बेशक दोनों पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन संयोग हो पर यह संयोग नहीं है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता भी लिखें और कांचा ऐलयया का अनुवाद भी करें। इसीलिए सफाई देवता को इतिहास के बजाय इतिहास में हस्तक्षेप करती दलित धारा की उपस्थिति के रुप में ही देखा जाना चाहिए।
एक बात स्पष्ट है कि समाज का वह तबका, वर्षों की गुलामी झेलते-झेलते, जो अब गुलामी के जुए को उतार फेंकना चाहता है, एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हुआ है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश््रा आवाम के जीवन की अस्मिता का प्रश्न उसको उद्ववेलित किये है। अभी तक प्रकाश में आये दलित धारा के साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाषा और शैली के लिहाज से सहज-सरल सा लगना वाला यह साहित्य समाज की जितनी जटिलताओं को सामने रखने में सफल हुआ है उसमें दलित चेतना की सतत बह रही धारा भी परिष्कृत हो रही है।
दलित रचनाकारों के आग्रह, जो प्रारम्भ में किन्हीं खास बिन्दुओं को लेकर उभरते रहे, अब उसी रूप में नहीं रह रहे हैं। जातीय अस्मिता के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जटिलता के प्रश्न पर भी वे लगातार टकरा रहे हैं। यही वजह है कि रचनाओं के पाठ भी उतने इकहरे नहीं है कि कोई उनमें सिर्फ एक व्यक्ति के जीवन वृत्त को ही उसका आधार मान ले। इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था और अन्य विषयों पर भी दलित धारा के रचनाकारों की राय बिना एक दूसरे से व्यक्तिगत मतैक्य रखते हुए विमर्श की स्वस्थ बहस को जिन्दा कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में ओम प्रकाश वाल्मीकि की किताब सफाई देवता दलितों में भी दलित, समाज के सबसे उपेक्षित तबके के सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को आधार बनकार एक ऐतिहासिक मूल्यांकन करने का प्रयास है।
उनके मंतव्य से सहमति पर भारतीय समाज के उनके विश्लेषण से असहमति रखते हुए कहूं तो कह सकता हूं कि यह किताब एक बहस को जन्म दे रही है। स्वाभाविक है कि हर तरह की सामाजिक स्थितियों से दर-किनार कर दिये गये ‘अछूत’ भी किसी समय विशेष में विज्ञान की जानकारी की सीमा के चलते अपने डर और संश्यों के लिए, अन्यों की तरह, अदृश्य शक्ति की कल्पना करने को मजबूर रहे। चूंकि समाज की सामूहिक गतिविधियों से बहिष्कृत रहने के कारण उनके देवताओं के रूप, आकार और नाम वही नहीं रह सकते थे, जो चातुर्वणीय व्यवस्था के अन्य वर्णो के हो सकते थे, तो यह एक फर्क उनमें दिखायी देना ही था। वे ब्राहमणी मुख्यधारा के देवताओं की पूजा अर्चना से वंचित थे, इसलिए काफी हद तक वे न तो उन देवताओं के नामों से परिचित हो सकते थे और न ही उनके रूप से। आदिम समाज के जातीय टोटम उनके साथ बने ही रहने थे।
जब सुन लेने पर ही पिघले हुए शीशे को कानों में उड़ेल दिया जाना था तो देखने की कोई कोशिश करने की हिमाकत कैसे होती भला! सम्पूर्ण दलित समाज को चातुर्वणीय व्यवस्था से अलग मानते हुए दिये गये दोनों ही विद्धानों के तर्क इसीलिए इस बहस को जन्म दे रहे हैं कि आखिर वास्तविकता को ही नकारने की यह कोशिश फिर कैसे भारतीय समाज के बीच मौजूद जातीय व्यवस्था को तोड़ पाने में सफल होगी ? यह आग्रह नहीं एक प्रश्न है। और तर्क के तौर पर वे स्थितियां हैं जहां यज्ञोपवित करके घंटों-घंटों पूजा में लीन रहने वाले दलित समाज के उस तबके को देखा जा सकता है, जो जाति को छुपाने के लिए मजबूर है। ये स्थितियां स्वंय ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता में ज्यादा विस्तार से जगह पा रही है।
अपने इतिहास से किनारा करने और अपनी पहचान को छुपाने के लिए उनकी मजबूरी के कारणों पर आगे बाते हो सकती हैं, पर यह तथ्य के रुप में ही यहां रखते हुए कह सकते हैं कि दलितों में भी चातुर्वणीय व्यवस्था के ऊध्र्वाधर वर्गीकरण के साथ फैले क्षैतिज धरातल पर भी मनुष्य को बांटते चली गयी व्यवस्था भी उनके देवताओं मे वैसी ही समानता नहीं रहने दे रही है। स्वंय वाल्मीकि ने और कांचा ऐलयया दोनों ने ही विभिन्न जातियों के अलग-अलग देवताओं का जिक्र किया है। बल्कि सफाई देवता में तो एक पूरा अध्याय ही इस विषय पर लिखा गया है। चेचक, दलितों के यहां भी माता है और सवर्णों के यहां भी वह उसी रुप में है। अब नाम दुर्गा हो या पोचम्मा, इससे क्या फर्क पड़ता है। औद्योगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर तो किया ही है, बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक ढीला तो किया ही है।
दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन, गांधी के दलिताद्वार और ऐसे ही अन्य समाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरुप हुए सामाजिक बदलाव ने शहरी क्षेत्रों में सामूहिक कार्यक्रमों में दलितों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। एक हद तक गांवों में भी उसका प्रभाव हुआ है। सवर्णों के देवता ही आज दलितों के देवता के रूप में भी आज इसीलिए स्वीकार्य हो पाये हैं। फिर ऐसे में देवताओं के नामों और पूजा-पद्धतियों के आधार पर पायी जाने वाली भिन्नता को आधार बनाकर किये जा रहे जातिगत विश्लेषण में दलितों को उस ब्राहमणी व्यवस्था से अलग मानने का तर्क मेरी समझ के हिसाब से पुष्ट नहीं होता। मनुष्य को जातिगत आधार पर बांटने वाली व्यवस्था के विरोध का अर्थ क्या सम्पूर्ण दलित समाज को उससे बाहर मानने से हो सकता है ?
जिस तर्क के आधार पर कांचा ऐलय्या सम्पूर्ण दलित समाज को उस ब्राहमणी व्यवस्था में नहीं मानते ठीक उसी तरह की समझदारी ओम प्रकाश वाल्मीकि में भी दिखायी देती है। कांचा ऐल्य्या का काम ज्यादातर दक्षिण भारतीय समाज को आधार बनाकर हुआ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर भारत के समाज को आधार बनाकर बात करते हैं। दक्षिण भारतीय समाज के बारे में खुद की जानकारी के अभाव में मैं नहीं बता सकता कि कांचा ऐल्यया के तर्क कितना अपने समाज के विश्लेषण को तार्किकता प्रदान करते हैं पर उत्तर भारतीय समाज के बारे में अपनी एक हद तक जानकारी के देखता हूं तो दलितों को हिन्दू जाति व्यवस्था से बाहर मानने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि के तर्को से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।
इतिहास की प्रचलित मान्यताओं पर समकालीन दलित धारा क्या दृष्टिकोण रखती है, इसके संकेत तो पुस्तक से मिलते ही हैं। यह संयोग ही है कि भारतीय दलित धारा के विद्धान कांचा ऐलय्या की पुस्तक ’’व्हाई आई एम नाॅट हिन्दू’’ का हिन्दी अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता के साथ ही आया है। इस पुस्तक का अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। बेशक दोनों पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन संयोग हो पर यह संयोग नहीं है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता भी लिखें और कांचा ऐलयया का अनुवाद भी करें। इसीलिए सफाई देवता को इतिहास के बजाय इतिहास में हस्तक्षेप करती दलित धारा की उपस्थिति के रुप में ही देखा जाना चाहिए।
एक बात स्पष्ट है कि समाज का वह तबका, वर्षों की गुलामी झेलते-झेलते, जो अब गुलामी के जुए को उतार फेंकना चाहता है, एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हुआ है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश््रा आवाम के जीवन की अस्मिता का प्रश्न उसको उद्ववेलित किये है। अभी तक प्रकाश में आये दलित धारा के साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाषा और शैली के लिहाज से सहज-सरल सा लगना वाला यह साहित्य समाज की जितनी जटिलताओं को सामने रखने में सफल हुआ है उसमें दलित चेतना की सतत बह रही धारा भी परिष्कृत हो रही है।
दलित रचनाकारों के आग्रह, जो प्रारम्भ में किन्हीं खास बिन्दुओं को लेकर उभरते रहे, अब उसी रूप में नहीं रह रहे हैं। जातीय अस्मिता के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जटिलता के प्रश्न पर भी वे लगातार टकरा रहे हैं। यही वजह है कि रचनाओं के पाठ भी उतने इकहरे नहीं है कि कोई उनमें सिर्फ एक व्यक्ति के जीवन वृत्त को ही उसका आधार मान ले। इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था और अन्य विषयों पर भी दलित धारा के रचनाकारों की राय बिना एक दूसरे से व्यक्तिगत मतैक्य रखते हुए विमर्श की स्वस्थ बहस को जिन्दा कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में ओम प्रकाश वाल्मीकि की किताब सफाई देवता दलितों में भी दलित, समाज के सबसे उपेक्षित तबके के सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को आधार बनकार एक ऐतिहासिक मूल्यांकन करने का प्रयास है।
उनके मंतव्य से सहमति पर भारतीय समाज के उनके विश्लेषण से असहमति रखते हुए कहूं तो कह सकता हूं कि यह किताब एक बहस को जन्म दे रही है। स्वाभाविक है कि हर तरह की सामाजिक स्थितियों से दर-किनार कर दिये गये ‘अछूत’ भी किसी समय विशेष में विज्ञान की जानकारी की सीमा के चलते अपने डर और संश्यों के लिए, अन्यों की तरह, अदृश्य शक्ति की कल्पना करने को मजबूर रहे। चूंकि समाज की सामूहिक गतिविधियों से बहिष्कृत रहने के कारण उनके देवताओं के रूप, आकार और नाम वही नहीं रह सकते थे, जो चातुर्वणीय व्यवस्था के अन्य वर्णो के हो सकते थे, तो यह एक फर्क उनमें दिखायी देना ही था। वे ब्राहमणी मुख्यधारा के देवताओं की पूजा अर्चना से वंचित थे, इसलिए काफी हद तक वे न तो उन देवताओं के नामों से परिचित हो सकते थे और न ही उनके रूप से। आदिम समाज के जातीय टोटम उनके साथ बने ही रहने थे।
जब सुन लेने पर ही पिघले हुए शीशे को कानों में उड़ेल दिया जाना था तो देखने की कोई कोशिश करने की हिमाकत कैसे होती भला! सम्पूर्ण दलित समाज को चातुर्वणीय व्यवस्था से अलग मानते हुए दिये गये दोनों ही विद्धानों के तर्क इसीलिए इस बहस को जन्म दे रहे हैं कि आखिर वास्तविकता को ही नकारने की यह कोशिश फिर कैसे भारतीय समाज के बीच मौजूद जातीय व्यवस्था को तोड़ पाने में सफल होगी ? यह आग्रह नहीं एक प्रश्न है। और तर्क के तौर पर वे स्थितियां हैं जहां यज्ञोपवित करके घंटों-घंटों पूजा में लीन रहने वाले दलित समाज के उस तबके को देखा जा सकता है, जो जाति को छुपाने के लिए मजबूर है। ये स्थितियां स्वंय ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता में ज्यादा विस्तार से जगह पा रही है।
अपने इतिहास से किनारा करने और अपनी पहचान को छुपाने के लिए उनकी मजबूरी के कारणों पर आगे बाते हो सकती हैं, पर यह तथ्य के रुप में ही यहां रखते हुए कह सकते हैं कि दलितों में भी चातुर्वणीय व्यवस्था के ऊध्र्वाधर वर्गीकरण के साथ फैले क्षैतिज धरातल पर भी मनुष्य को बांटते चली गयी व्यवस्था भी उनके देवताओं मे वैसी ही समानता नहीं रहने दे रही है। स्वंय वाल्मीकि ने और कांचा ऐलयया दोनों ने ही विभिन्न जातियों के अलग-अलग देवताओं का जिक्र किया है। बल्कि सफाई देवता में तो एक पूरा अध्याय ही इस विषय पर लिखा गया है। चेचक, दलितों के यहां भी माता है और सवर्णों के यहां भी वह उसी रुप में है। अब नाम दुर्गा हो या पोचम्मा, इससे क्या फर्क पड़ता है। औद्योगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर तो किया ही है, बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक ढीला तो किया ही है।
दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन, गांधी के दलिताद्वार और ऐसे ही अन्य समाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरुप हुए सामाजिक बदलाव ने शहरी क्षेत्रों में सामूहिक कार्यक्रमों में दलितों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। एक हद तक गांवों में भी उसका प्रभाव हुआ है। सवर्णों के देवता ही आज दलितों के देवता के रूप में भी आज इसीलिए स्वीकार्य हो पाये हैं। फिर ऐसे में देवताओं के नामों और पूजा-पद्धतियों के आधार पर पायी जाने वाली भिन्नता को आधार बनाकर किये जा रहे जातिगत विश्लेषण में दलितों को उस ब्राहमणी व्यवस्था से अलग मानने का तर्क मेरी समझ के हिसाब से पुष्ट नहीं होता। मनुष्य को जातिगत आधार पर बांटने वाली व्यवस्था के विरोध का अर्थ क्या सम्पूर्ण दलित समाज को उससे बाहर मानने से हो सकता है ?
जिस तर्क के आधार पर कांचा ऐलय्या सम्पूर्ण दलित समाज को उस ब्राहमणी व्यवस्था में नहीं मानते ठीक उसी तरह की समझदारी ओम प्रकाश वाल्मीकि में भी दिखायी देती है। कांचा ऐल्य्या का काम ज्यादातर दक्षिण भारतीय समाज को आधार बनाकर हुआ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर भारत के समाज को आधार बनाकर बात करते हैं। दक्षिण भारतीय समाज के बारे में खुद की जानकारी के अभाव में मैं नहीं बता सकता कि कांचा ऐल्यया के तर्क कितना अपने समाज के विश्लेषण को तार्किकता प्रदान करते हैं पर उत्तर भारतीय समाज के बारे में अपनी एक हद तक जानकारी के देखता हूं तो दलितों को हिन्दू जाति व्यवस्था से बाहर मानने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि के तर्को से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।
सवाल है कि फिर वो चातुर्वणय व्यवस्था क्या है ? समाज को चार जातियों में बांटने वाली व्यवस्था ही तो उसे शूद्र बना दे रही है। जिसका निषेध होना चाहिए। पर निषेध के मायने क्या सारे दलित समाज को उससे बाहर का मान कर कोई हल निकल सकता है, इस पर सोचा जाना चाहिए। कानून व्यवस्था का सहारा लेकर भ्रष्टाचार का तंत्र फैलाती नौकरशाही की जात क्या है ? क्या वह वर्ण व्यवस्था के आधार पर बंटे भारतीय समाज के वर्णों के लिए अलग-अलग तरह से योजनाओं को आबंटित कर भ्रष्टाचार की सांख्यिकी से भरी है या एक समान भाव से वह सब कुछ हड़प कर जाने के लिए मुंह खोले बैठी है ?
ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक में उठाये गये भ्रष्टाचार के मामले जिस रूप में उर्द्धत हुए, उनको ध्यान में रखकर यह प्रश्न उठता है। दलित विमर्श की वर्तमान चेतना मौजूदा तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के घुन को भी क्यों सिर्फ इतना सीमित होकर देखना चाहती है। नौकरशही की जात क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग अलग है! सामाजिक प्रश्न को राजनैतिक प्रश्न की तरह देखने पर ही वर्तमान दलित विमर्श की सीमायें दिखने लगती हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि क्या अमूर्त किस्म का राजनैतिक संघर्ष समाजिक बदलाव में सहायक हो सकता है ?
दलित विमर्श के विकास का यही प्रस्थान बिन्दू समाज व्यवस्था के बुनियादी बदलाव के संघर्ष में सहायक हो सकता है जिस पर गमभीरता से विचार होना चाहिए। भ्रष्टाचार से भरी वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण करने का दलित चिंतको का दृष्टिकोण पर बात करें तो उसकी कुछ अपनी सीमाऐं दिखायी देती है। वह सत्ता के बुनियादी चरित्र के बदलावों के संघर्ष की बजाय उसी के बीच में अपने लिए एक सुरक्षित जगह निकाल लेने के साथ है। एक नये समाज के सर्जन के लिए जिस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है उससे उसका विचलन दलित पैंथर के आंदोलन के बिखरने के साथ ही हो चुका था।
पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत महान विचारक अमबेडकर की सीमाओं भी एक हद तक इसमें आड़े आती हैं। दलित विमर्श की संभावनाओं के द्वार भी उससे टकराकर ही खुल सकते है। व्यवस्था के सामंती ढांचे का खुलासा कर सकने की वैज्ञानिक सोच के साथ सामाजिक बदलाव की वास्तविक पहल को निश्चित ही उससे बल मिलेगा। दलित शोषित समाज के खिलाफ आक्रामक रुख अपनायी हुई सम्राज्यवादी नीतियों पर भी चोट कर सकने की संभावना भी यहीं से पैदा होगीं। मौजूदा व्यवस्था से माहभंग की स्थिति में पहुॅंचे शोषित समाज के सामने एक नयी और दलित शोषित के वर्गीय हितों का पोषण करने वाली एवं समता और न्याय की स्थापना के लिए सचेत व्यवस्था की कल्पना तभी संभव हो सकती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक में उठाये गये भ्रष्टाचार के मामले जिस रूप में उर्द्धत हुए, उनको ध्यान में रखकर यह प्रश्न उठता है। दलित विमर्श की वर्तमान चेतना मौजूदा तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के घुन को भी क्यों सिर्फ इतना सीमित होकर देखना चाहती है। नौकरशही की जात क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग अलग है! सामाजिक प्रश्न को राजनैतिक प्रश्न की तरह देखने पर ही वर्तमान दलित विमर्श की सीमायें दिखने लगती हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि क्या अमूर्त किस्म का राजनैतिक संघर्ष समाजिक बदलाव में सहायक हो सकता है ?
दलित विमर्श के विकास का यही प्रस्थान बिन्दू समाज व्यवस्था के बुनियादी बदलाव के संघर्ष में सहायक हो सकता है जिस पर गमभीरता से विचार होना चाहिए। भ्रष्टाचार से भरी वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण करने का दलित चिंतको का दृष्टिकोण पर बात करें तो उसकी कुछ अपनी सीमाऐं दिखायी देती है। वह सत्ता के बुनियादी चरित्र के बदलावों के संघर्ष की बजाय उसी के बीच में अपने लिए एक सुरक्षित जगह निकाल लेने के साथ है। एक नये समाज के सर्जन के लिए जिस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है उससे उसका विचलन दलित पैंथर के आंदोलन के बिखरने के साथ ही हो चुका था।
पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत महान विचारक अमबेडकर की सीमाओं भी एक हद तक इसमें आड़े आती हैं। दलित विमर्श की संभावनाओं के द्वार भी उससे टकराकर ही खुल सकते है। व्यवस्था के सामंती ढांचे का खुलासा कर सकने की वैज्ञानिक सोच के साथ सामाजिक बदलाव की वास्तविक पहल को निश्चित ही उससे बल मिलेगा। दलित शोषित समाज के खिलाफ आक्रामक रुख अपनायी हुई सम्राज्यवादी नीतियों पर भी चोट कर सकने की संभावना भी यहीं से पैदा होगीं। मौजूदा व्यवस्था से माहभंग की स्थिति में पहुॅंचे शोषित समाज के सामने एक नयी और दलित शोषित के वर्गीय हितों का पोषण करने वाली एवं समता और न्याय की स्थापना के लिए सचेत व्यवस्था की कल्पना तभी संभव हो सकती है।
यह तय है कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक शोषित वर्ग मूल रूप से वर्ण व्यवस्था के चैथे पायदान पर बैठा जन ही है। भारतीय सर्वहारा के इस चेहरे को न सिर्फ दलित धारा को पहचानना चाहिए बल्कि हर ऐसे समूह, जो देश दुनिया को बदलाव के लिए प्रयासरत है, समझना चाहिए। चर्चा की जा रही पुस्तक में दलित विमर्श का जो चेहरा सिर्फ रिपोर्ट को रख देने भर से उभर रहा है, वह सिर्फ एक जाति विशेष की समस्या के खात्मे पर ही बदलाव की इति श्री जैसा हो जाता है।
व्यवस्था का वर्तमान ढांचा जबकि इतना क्रूर है कि मेहनतकश वर्ग के आवाम के खिलाफ ही उसकी सारी नीतियां जारी है। जो बेरोजगारी बढ़ाने और भूखों मरने की नौबत पैदा करने वाला है। ऐसे में अपने जीने भर के लिए तमाम अमानवीय परिस्थितियों के बीच से रास्ता निकालने की कोशिश जारी हैं। फिर वह चाहे मोटर गैराज में तमाम चीकट कालिख के बीच गाड़ियों को अपनी छाती पर उठाये और उनका दुरस्त करता कोई मैकेनिक हो या, गटर के अन्दर उतर कर गटर की सफाई करने को मजबूर कामगार।
दोनों की स्थितियां जातीय आधार पर उन्हें कुछ खास सुविधा नहीं देती। सिर्फ फर्क है तो यही कि जो जिसके अनुभवों का हिस्सा है अमुक जाति का व्यक्ति उसी अनुभव को आधार बनाकर रोजी रोटी के जुगाड़ में जुटा है और जीने भर का रास्ता तलाशने को मजबूर है। यानी दलित वर्ग के मेहनतकश आवाम के अनुभवों में जो यातना दायक अनुभव है, मजबूरन उस वर्ग के बेरोजगार को उन्हें ही अपनाने की मजबूरी है। चालीस किलोमीटर पैदल चलते हुए सिर पर मैला ढोने को वह मजबूर है, जैसा कि पुस्तक में उल्लेख है। उसके बदले भी वाजिब मूल्य नहीं।
तो फिर इस निर्मम व्यवस्था के अमानवीय आक्रमण के खिलाफ रास्ता क्या है, यह सोचनिय प्रश्न है। क्या चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लिया जा सकता है ? बल्कि असलियत तो यह है कि उनके बचाये रखते हुए ही निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को ऐसा भी न करने की स्थिति में निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ दिया जा रहा है।
आम मध्यवर्गीय खाते पीता वर्ग, जो जनता के धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका है, यूंही नहीं ऐसे तर्कों को अक्सर रखता है। ऐसी चालाक कोशिशें के पर्देफाश के लिए जो सचेत कार्यवाही होनी चाहिए, दलित विमर्श की वर्तमान धारा उस पर अभी केन्द्रित नहीं हो पायी है, पुस्तक में भी उसकी कमी अखरती ही है। मैं व्यक्तिगत तौर पर सफाई देवता को एक सही समय पर आयी ऐसी पुस्तक मानता हूं कि जो भारतीय समाज के बुनियादी चरित्र के विश्लेषण की बहस को जिन्दा करने में सहायक है।
-विजय गौड
लेबल:
ओम प्रकाश वाल्मीकि,
पुस्तक,
विजय गौड,
समीक्षा
Wednesday, August 11, 2010
पत्रकार वार्ता
देहरादून
नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में महिला रचाकारों के रचनाकर्म पर की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में आयोजित पत्रकार वार्ता में देहरादून के विभिन्न सामजिक साहित्यिक संगठनों के बीच स्पष्ट एकता दिखायी दी। महिला समाख्या, जागो रे अभियान, उत्तराखंड महिला मंच, संवेदना, दिशा सामाजिक संगठन, वाइज, प्रगतिशील महिला मंच की प्रतिनिधियों ने सामूहिक तौर पर पत्रकारवार्ता को संबोधित किया। साक्षात्कार में की गई टिप्पणी की निंदा करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और साहित्यकार विभूतिनारायण राय के इस्तीफे की मांग शिक्षा मंत्री से की गई। वार्ता में शामिल महिला संगठनों का मानना था कि विभूतिनारायण राय की ओर से की गई टिप्पणी उनकी कुत्सित मानसिकता को दिखाती है। पत्रकार वार्ता को संबोधित करने वालों में गीता गैरोला, कमला पंत, मनमोहन चड्ढा, पदमा गुप्ता आदि मुख्य रहे। देहरादून के अन्य साहित्यकार और सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के बहुत से कार्यकर्ता इस अवसर पर उपस्थित रहे।
नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में महिला रचाकारों के रचनाकर्म पर की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में आयोजित पत्रकार वार्ता में देहरादून के विभिन्न सामजिक साहित्यिक संगठनों के बीच स्पष्ट एकता दिखायी दी। महिला समाख्या, जागो रे अभियान, उत्तराखंड महिला मंच, संवेदना, दिशा सामाजिक संगठन, वाइज, प्रगतिशील महिला मंच की प्रतिनिधियों ने सामूहिक तौर पर पत्रकारवार्ता को संबोधित किया। साक्षात्कार में की गई टिप्पणी की निंदा करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और साहित्यकार विभूतिनारायण राय के इस्तीफे की मांग शिक्षा मंत्री से की गई। वार्ता में शामिल महिला संगठनों का मानना था कि विभूतिनारायण राय की ओर से की गई टिप्पणी उनकी कुत्सित मानसिकता को दिखाती है। पत्रकार वार्ता को संबोधित करने वालों में गीता गैरोला, कमला पंत, मनमोहन चड्ढा, पदमा गुप्ता आदि मुख्य रहे। देहरादून के अन्य साहित्यकार और सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के बहुत से कार्यकर्ता इस अवसर पर उपस्थित रहे।
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