हिन्दी में दलित धारा के मूल्यांकन को लेकर एक बहस लगातार जारी है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, लिंगभेद और अन्य गैर-प्रगतिशील मूल्यों के विरोध के साथ अम्बेडकर के विचार से पोषित हिन्दी की दलित धारा किसी भी जनवादी संघर्ष के साथ कदम दर कदम बढ़ाते हुए है। साम्राज्यवादी पूंजी की मुखालफ़त और आवाम की खुशहाली का स्वप्न उसकी संवेदनाओं का हिस्सा है। ऎसे तमाम मसलों से टकराते हुए और एक स्पष्ट पक्षधरता की वकालत के साथ, अपनी उपस्थित के एक बहुत छोटे से अंतराल में ही, हिन्दी दलित धारा ने आलोचना के क्षेत्र को भी प्रभावित किया है। विधाओं के तमाम क्षेत्रों में दलित धारा के रचनाकारों की आवाजाही कोई आनायास नहीं है।
ओम प्रकाश वाल्मीकि मूलतः कवि हैं लेकिन कविता, कहानी, नाटक, आलोचना आदि के बीच उनके लगातार हस्तक्षेप से हिन्दी का पाठक जगत अपरिचित नहीं है। सदियों का संताप उनकी पहली काव्य पुस्तिका है, जिसने बिना ज्यादा शौर मचाए हिन्दी में दलित धारा की पदचाप को स्वर दिया है। बेशक उस पुस्तिका का प्रकाशन एक छोटे से शहर के बेहद अनजान प्रकाशन से हुआ और प्रकाशन के वक्त हिन्दी में दलित धारा की किंचित अनुपस्थिति के चलते काव्य पुस्तिका में दलित धारा को दर्ज करने का एक संकोच रहा पर कथ्य के लिहाज से देख सकते हैं कि उन रचनाओं की काव्य संवेदना तत्कालीन हिन्दी की कविताओं से कुछ भिन्न स्वर के साथ हैं-
यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाये
पानी तक न लेने दिया जाये कुंए से
दुतकारा-फटकारा जाये
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाये तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाये खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे।
हाल में ही लिखी कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ अन्य कविताओं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं पर अलग से बातचीत हो, पाठकों से अनुरोध एवं अपेक्षा है कि वे हिस्सेदारी करें।
ओम प्रकाश वाल्मीकि मूलतः कवि हैं लेकिन कविता, कहानी, नाटक, आलोचना आदि के बीच उनके लगातार हस्तक्षेप से हिन्दी का पाठक जगत अपरिचित नहीं है। सदियों का संताप उनकी पहली काव्य पुस्तिका है, जिसने बिना ज्यादा शौर मचाए हिन्दी में दलित धारा की पदचाप को स्वर दिया है। बेशक उस पुस्तिका का प्रकाशन एक छोटे से शहर के बेहद अनजान प्रकाशन से हुआ और प्रकाशन के वक्त हिन्दी में दलित धारा की किंचित अनुपस्थिति के चलते काव्य पुस्तिका में दलित धारा को दर्ज करने का एक संकोच रहा पर कथ्य के लिहाज से देख सकते हैं कि उन रचनाओं की काव्य संवेदना तत्कालीन हिन्दी की कविताओं से कुछ भिन्न स्वर के साथ हैं-
यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाये
पानी तक न लेने दिया जाये कुंए से
दुतकारा-फटकारा जाये
चिलचिलाती दुपहर में
कहा जाये तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाये खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे।
हाल में ही लिखी कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कुछ अन्य कविताओं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं पर अलग से बातचीत हो, पाठकों से अनुरोध एवं अपेक्षा है कि वे हिस्सेदारी करें।
opvalmiki@gmail.com
०९४१२३१९०३४
शब्द झूठ नहीं बोलते
मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
शब्द जिन्दा रहेंगे
समय की सीढियों पर
अपने पांव के निशान
गोदने के लिए
बदल देने के लिए
हवाओं का रुख
स्वर्णमंडित सिंहासन पर
आध्यात्मिक प्रवचनों में
या फिर संसद के गलियारॉं में
अखबारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में
कसमसाता शब्द
जब आयेगा बाहर
मुक्त होकर
सुनाई पडेंगे असंख्य धमाके
विखण्डित होकर
फिर –फिर जुडने के
बंद कमरों में भले ही
न सुनाई पडे
शब्द के चारों ओर कसी
सांकल के टूटने की आवाज़
खेत –खलिहान
कच्चे घर
बाढ में डूबती फसलें
आत्महत्या करते किसान
उत्पीडित जनों की सिसकियों में
फिर भी शब्द की चीख
गूंजती रहती है हर वक्त
गहरी नींद में सोए
अलसाये भी जाग जाते हैं
जब शब्द आग बनकर
उतरता है उनकी सांसों में
मौज-मस्ती में डूबे लोग
सहम जाते हैं
थके हारे मजदूरों की फुसफुसाहटों में
बामन की दुत्कार सहते
दो घूंट पानी के लिए मिन्नते करते
पीडितजनों की आह में
जिन्दा रहते हैं शब्द
जो कभी नहीं मरते
खडे रहते हैं
सच को सच कहने के लिए
क्योंकि,
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते !
4 मई,2011
जुगनू
स्याह रात में
चमकता जुगनू
जैसे उग आया
अंधेरे के बीच
एक सूरज
जुगनू अपनी पीठ के नीचे
लटकाये घूमता है
एक रोशनी का लट्टू
अंधेरे मे भटकते
जरूरतमंदों को राह दिखाने के लिए
जुगनू की यह छोटी सी चमक भी
कितनी बडी होती है
निपट अंधेरे में
जिसके होने का सही-सही अर्थ
जानते हैं वे
जो अंधेरे की दुनिया में
पडे हैं सदियों से
जिनका जन्म लेना
और मरना
एक जैसा है
जिंनके पुरखे छोड जाते हैं
विरासत में
अंधेरे की गुलामगिरि
रोशनी के खरीदार
एक दिन छीन लेंगे जुगनू से
उसकी यह छोटी - सी चमक भी
बंद कर लेंगे तिजोरी में
जो बेची जायेगी बाजार में
ऊंचे दामों पर
संस्कृति का लोगो चिपका कर !
29.04.2011
अंधेरे में शब्द
रात गहरी और काली है
अकालग्रस्त त्रासदी जैसी
जहां हजारों शब्द दफन हैं
इतने गहरे
कि उनकी सिसकियां भी
सुनाई नहीं देती
समय के चक्रवात से भयभीत होकर
मृत शब्द को पुनर्जीवित करने की
तमाम कोशिशें
हो जायेंगी नाकाम
जिसे नहीं पहचान पायेगी
समय की आवाज़ भी
ऊंची आवाज में मुनादी करने वाले भी
अब चुप हो गये हैं
’गोद में बच्चा
गांव में ढिंढोरा’
मुहावरा भी अब
अर्थ खो चुका है
पुरानी पड गयी है
ढोल की धमक भी
पर्वत कन्दराओं की भीत पर
उकेरे शब्द भी
अब सिर्फ
रेखाएं भर हैं
जिन्हें चिन्हित करना
तुम्हारे लिए वैसा ही है
जैसा ‘काला अक्षर भैंस बराबर’
भयभीत शब्द ने मरने से पहले
किया था आर्तनाद
जिसे न तुम सुन सके
न तुम्हारा व्याकरण ही
कविता में अब कोई
ऎसा छन्द नहीं है
जो बयान कर सके
दहकते शब्द की तपिश
बस, कुछ उच्छवास हैं
जो शब्दों के अंधेरों से
निकल कर आये हैं
शुन्यता पाटने के लिए !
3 मई,2011