कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी पिता को बिना किसी औपचारिकता के यहां प्रस्तुत करते हुए मुझे इस बात की खुशी है कि देहरादून से बाहर रह रहे देहरादून के हमारे इन तमाम रचनाकार साथियों के लिए देहरादून और वहां के लोग अभी भी उतने ही प्रिय हैं जैसे अपने युवा दौर में वे उनके साथ थे। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बहुत ही अनाम सी ब्लाग पत्रिका से जुड़ते हुए वे अपने आप को कहीं देहरादून के साथियों के बीच देखने की इक्षाओं के साथ होते हैं। उनके इस स्नेह को आभार के किसी भी शब्द से व्यक्त नहीं किया जा सकता। भाई सुरेश उनियाल, सूरज प्रकाश, धीरेन्द्र अस्थाना, एक समय में पुणे में रहते हुए फ़िल्मों पर गम्भीर रूप से लिखने वाले मनमोहन चड्ढा (वर्तमान में देहरादून में ही हैं) देहरादून की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी उपस्थिति आज देहरादून की फ़िजाओं में किस्से कहानियों के रूप में सुनी जा सकती है।
समकालीन जीवन स्थितियों और बदले नैतिक मूल्यों से टकराती कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी पिता उनके वेब साइट से यहां साभार प्रस्तुत है। पिता
धीरेन्द्र अस्थाना
‘अपन का क्या है/अपन तो उड़ जायेंगे अर्चना/धरती को धता बताकर/अपन तो राह लेंगे अपनी/पीछे छूट जायेगी/घृणा से भरी और संवेदना से खाली/इस संसार की कहानी‘ - एयर इंडिया के सभागार में पिन ड्रॉप साइलेंस के बीच राहुल बजाज की कविता की पंक्तियां एक ऐंद्रजालिक सम्मोहन उपस्थित किये दे रही थीं। अब किसी सभागार में राहुल बजाज की कविता का पाठ शहर के लिए एक दुर्लभ घटना जैसा होता था। प्रबुद्ध जन दूर दूर के उपनगरों से लोकल, ऑटो, बस, टैक्सी या अपनी निजी कार से इस क्षण का गवाह बनने के लिए सहर्ष उपस्थित होते थे। राहुल शहर का मान था। साहित्य के जितने भी भारतीय अवार्ड थे वे सब के सब राहुल के घर में एक गर्वीले ठाठ के साथ शोभायमान थे। दुनिया भर की प्रसिद्ध किताबों से उसकी स्टडी अंटी पड़ी थी। अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनल वाले जब तब उसका इंटरव्यू लेने के लिए उसके घर की सीढ़ियां चढ़ते उतरते रहते थे। उसके मोबाइल फोन में प्रदेश के सीएम, होम मिनिस्टर, गवर्नर, कल्चररल सेक्रेटरी, पुलिस कमिश्नर, पेज थ्री की सेलिब्रिटिज और बड़े पत्रकारों के पर्सनल नम्बर सेव थे।
वह युनिवर्सिटियों में पढ़ाया जा रहा था। असम, दार्जिलिंग, शिमला, नैनीताल, देहरादून, इलाहाबाद, लखनऊ, भोपाल, चंडीगढ़, जोधपुर, जयपुर, पटना और नागपुर में बुलवाया जा रहा था। मुंबई जैसे मायावी नगर में वह टू बेडरूम हॉल के एक सुविधा और सुरुचि संपन्न फ्लैट में जीवन बसर कर रहा था। वह मारुति जेन में चलता था। रेमंड तथा ब्लैक बेरी की पैंटें, पार्क एवेन्यू और वेनह्यूजन की शर्टें और रेड टेप के जूते पहनता था। विगत में घटा जो कुछ भी बुरा, बदरंग और कसैला था, उन सबको वह झाड़-पोंछकर नष्ट कर चुका था। लेकिन चीजें इस तरह नष्ट होती हैं क्या! ‘अतीत कभी दौड़ता है, हमसे आगे, भविष्य की तरह, कभी पीछे भूत की तरह लग जाता है। हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर, आग ही आग है नसों के बिल्कुल करीब, और उनमें बारूद भरा है।‘ यह उसके बचपन का एक बहुत खास दोस्त बंधु था जो कॉलेज पहुचने तक कविताएं लिखने लगा था और नक्सली गतिविधियों के मुहाने पर खड़ा रहता था। वह बारूद की तरह फटता इससे पहले ही देहरादून की वादियों में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा निर्ममता पूर्वक मार दिया गया।
राहुल डर गया। इसलिए नहीं कि उसने पहली बार मौत को इतने करीब से देखा था। इसलिए कि चौबीस बरस का बंधु बीस साल के राहुल के जीवन की पाठशाला बना हुआ था। यह पाठशाला उजड़ गई थी। उसने गर्दन उठाकर देखा, शहर के तमाम रास्ते निर्जन और डरावने लग रहे थे। एक खूबसूरत शहर में कुछ अभिशप्त प्रेतों ने डेरा डाल दिया था। वह एकदम अकेला था और निहत्था भी। कुछ कच्ची अधपकी कविताएं, थोड़े बहुत विद्रोही किस्म के विचार, कुछ मौलिक और पवित्र तरह के सपने, एक इंटरमीडियेट पास का सर्टिफिकेट, अहंकारी, तानाशाह, सर्वज्ञ और गीता इलेक्ट्रिकल्स के मालिक पिता के एकाधिकारवादी साये के नीचे बीत रहा था जीवन। यह सबकुछ इतना थोड़ा और आततायी किस्म का था कि राहुल डगमगा गया। उस रात वह देर तक पीता रहा और आधी रात को घर लौटा। पीता वह पहले भी था लेकिन तब वह बंधु के साथ उसके घर चला जाता था।
राहुल को याद है। एकदम साफ साफ। पिता ने उसे पर्दे की रॉड से मारा था। वह पिटते पिटते आंगन में आ गया था और हैंडपंप से टकराकर गिर पड़ा था। पंप और हत्थे को जोड़ने वाली मोटी-लंबी कील उसके पेट को चीरती गुजर गई थी। पेट पर दायीं ओर बना छह इंच का यह काला निशान रोज सुबह नहाते समय उसे पिता की याद दिलाता है। सिद्धार्थ अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर एक रात घर से गायब हुआ था और गौतम बुद्ध कहलाया था। राहुल अपने पिता, अपनी मां और कमरे की खिड़की से झांकते अपने तीन भाई-बहनों की भयाक्रांत आंखों को ताकते हुए, खून से लथपथ उसी हैंडपंप पर चढ़कर आंगन की छत के उस पार कूद गया था। उस पार एक आग की नदी थी और तैर के जाना था। पीछे शायद मां पछाड़ खाकर गिरी थी।
मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, नौकर हैं। तुम्हारे पास क्या है? अमिताभ बच्चन ने दर्प में ऐंठते हुए पूछा है। शशि कपूर शांत है। ममत्व की गर्माहट में सिंकता हुआ। उसने एक गहरे अभिमान में भरकर कहा - मेरे पास मां है। अमिताभ का दर्प दरक रहा है।
राहुल को समझ नहीं आता। उसके पास मां क्यों नहीं है? राहुल को यह भी समझ नहीं आता कि क्यों दुनिया का कोई बेटा घमंड से भरकर यह नहीं कहता कि मेरे पास बाप है। बाप और बेटे अक्सर द्वंद्व की एक अदृश्य डोर पर क्यों खड़े रहते हैं?
‘अब जबकि उंगलियों से फिसल रहा है जीवन/ और शरीर शिथिल पड़ रहा है/ आओ अपन प्रेम करें वैशाली।‘ एस.एन.डी.टी. महिला विश्विविद्यालय के कॉन्फ्रेन्स रूम में राहुल बजाज की कविता गूंज रही है। कविता खत्म होते ही वह ऑटोग्राफ मांगती नवयौवनाओं से घिर गया है।
वह कुमाऊं विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का सभागार था। उसके एकल काव्यपाठ के बाद विभागाध्यक्ष ने अपनी सबसे मेधावी छात्रा को नैनीताल घुमाने के लिए उसके साथ कर दिया था। इस छात्रा के साथ राहुल का छोटा-मोटा भावत्मक और बौद्धिक पत्र-व्यहार पहले से था। वह पत्रिकाओं में राहुल की कविताएं पढ़कर उसे खत लिखा करती थी। बीस साल पहले माल रोड की उस ठंडी सड़क पर केतकी बिष्ट नाम की उस एम.ए. हिन्दी की छात्रा ने सहसा राहुल का हाथ पकड़कर पूछा था -‘मुझसे शादी करोगे?‘
राहुल अवाक। हलक भीतर तक सूखी हुई। अक्तूबर की उस पहाड़ी ठंड में माथे पर चली आई पसीने की चंद बूंदें। आंखों में अचरज का समंदर। एक युवा, प्रतिभाशाली, तेज-तर्रार कवि के रूप में राहुल को तब तक मान्यता मिल चुकी थी। वह दिल्ली के एक साप्ताहिक अखबार में नौकरी कर रहा था। लेकिन शादी के लिए इतना काफी था क्या? फिर वह लड़की के बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं था। सिवा इसके कि वह कुछ कुछ रिबेलियन किस्म के विचारों से खदबदाती रहती थी, कि जीवन की चुनौतियां उसे जीने की लालसा से भरती थीं। उसकी आंखें गजब के आत्मविश्वास से दमक रही थीं।
आत्मविश्वास की इस डगर पर चलता हुआ क्या मैं अपने स्वप्नों को पैरों पर खड़ा कर सकूंगा? राहुल ने सोचा और केतकी की आंखों में झांका। ‘हां!‘ केतकी ने कहा और केतकी का माथा चूम लिया। आसपास चलती भीड़ आश्चर्य से ठहरने लगी। बीस बरस पहले यह अचरज की ही बात थी। खासकर नैनीताल जैसे छोटे शहर में। बिष्ट साहब की बेटी... बिष्ट साहब की बेटी... हवाओं में हरकारे दौड़ पडे।
लेकिन अगली सुबह नैनीताल कोर्ट में बिष्ट दंपती तथा विभागाध्यक्ष की गवाही में राहुल और केतकी पति-पत्नी बन गए। उसी शाम राहुल और केतकी दिल्ली लौट आए-सरोजिनी नगर के एक छोटे से किराये के कमरे में अपना जीवन शुरू करने। एस.एन.डी.टी. के सभागार में ऑटोग्राफ सेशन से निपटने के बाद एक कुर्सी पर बैठे राहुल को अपना विगत अपने से आगे दौड़ता नजर आता है।
राहुल अंधेरी स्टेशन की सीढ़ियां उतर रहा था। विकास सीढ़ियां चढ़ रहा था। उसकी उंगलियों में सिगरेट दबी थी। राहुल ने विकास की कलाई थाम ली। सिगरेट जमीन पर गिर पड़ी। राहुल विकास को घसीटता हुआ स्टेशन के बाहर ले आया। एक सुरक्षित से लगते कोने पर पहुंचकर उसने विकास की कलाई छोड़ दी और हांफते हुए बोला, ‘मैंने तुमसे कहा था, जीवन का पहला पैग और पहली सिगरेट तुम मेरे साथ पीना। कहा था ना?‘ ‘ज्जी!‘ विकास की घिघ्घी बंधी हुई थी। ‘तो फिर?‘ राहुल ने पूछा। विकास ने गर्दन झुका ली और धीरे से कहा, ‘सॉरी पापा! अब ऐसा नहीं होगा।‘ राहुल मुस्कुराया। बोला, ‘दोस्त जैसा बाप मिला है। कद्र करना सीखो।‘ फिर दोनों अपने अपने रास्तों पर चले गए।
विकास मुंबई के जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट्स में प्रथम वर्ष का छात्र था। केतकी उसे डॉक्टर बनाना चाहती थी लेकिन विकास के कलात्मक रूझान को देख राहुल ने उसे हाई स्कूल साइंस के बाद इंटर आर्ट्स से करने और उसके बाद जेजे में एडमिशन लेने की स्वीकृति दे दी थी। वह कमर्शियल आर्टिस्ट बनना चाहता था। राहुल उन दिनों एक दैनिक अखबार का न्यूज एडीटर था। आधी रात को आना और सुबह देर तक सोते रहना उसकी दिनचर्या थी।
इतवार की एक सुबह उसने केतकी से पूछा, ‘विकास नहीं दिख रहा।‘
‘बेटे की सुध आई?‘ केतकी व्यंग्य की डोर थामे उस पार खड़ी थी।
‘लेकिन घर तो शुरू से ही तुम्हारा ही रहा है।‘ राहुल ने सहजता से जवाब दिया।
‘यह घर नहीं है।‘ केतकी तिक्त थी। उसे बहुत जमाने के बाद संवादों की दुनिया में उपस्थित होने का मौका मिला था, ‘गेस्ट हाउस है। और मैं हाउस कीपर हूं। सिर्फ हाउस कीपर।‘
राहुल उलझने के मूड में नहीं था। सीईओ ने उसे पुणे एडीशन की रूपरेखा बनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। दोपहर के भोजन के बाद अपनी स्टडी में बंद होकर वह होमवर्क कर लेना चाहता था। उसने विकास का मोबाइल लगाया।
‘पापा...।‘ उधर विकास था।
‘बेटे कहां हो तुम?‘ राहुल थोड़ा तुर्श था।
‘पापा, बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है अगले मंडे। इसलिए एक हफ्ते से अपने दोस्त कपिल के घर पर हूं। रिहर्सल चल रही है।‘
‘रिहर्सल? कैसा शो?‘
‘पापा आपको अपने सिवा कुछ याद भी रहता है, पिछले महीने मैंने आपको बताया नहीं था कि मैंने एक रॉक बैंड ज्वाइन किया है।‘
‘रिहर्सल घर पर भी हो सकती है।‘ राहुल उत्तेजित होने लगा था, टिपिकल पिताओं की तरह।
‘पापा, आप यह भी भूल गए?‘
विकास की आवाज में भी व्यंग्य तैरने लगा था, ‘अभी कुछ दिन पहले जब मैं रात को प्रैक्टिस कर रहा था तब आपने घर आते ही मुझे कितनी बुरी तरह डांट दिया था कि यह घर है नाचने गाने का अड्डा नहीं।‘
‘शटअप‘ राहुल ने मोबाइल ऑफ कर दिया। उसने देखा, केतकी उसे व्यंग्य से ताक रही थी। उसने सिर झुका लिया। वह धीमे कदमों से अपनी स्टडी में जा रहा था। पीछे पीछे केतकी भी आ रही थी।
‘क्या है?‘ राहुल ने पूछा और पाया कि उसकी आवाज में एक अजीब किस्म की टूटन जैसी है। इस टूटन में किसी शोध में असफल हो जाने का दर्द समाया हुआ था।
‘तुम हार गए राहुल।‘ केतकी की आंख में बरसों पुराना आत्मविश्वास था।
‘तुम भी ऐसा ही सोचती हो केतकी?‘ राहुल ने अपनी कमीज और बनियान उलट दी। ‘क्या तुम चाहती थीं कि पेट पर पड़े ऐसे ही किसी निशान को देखकर विकास को अपने बाप की याद आया करती?‘
‘नहीं।‘
‘तो फिर?‘ राहुल की आवाज में दर्द था। ‘मैंने विकास को एक लोकतांत्रिक माहौल देने का प्रयास किया था। मैं चाहता था कि वह मुझे अपना बाप नहीं, दोस्त समझे।‘
‘बाप दोस्त नहीं हो सकता राहुल। वह दोस्तों की तरह बिहेव भले ही कर ले। लेकिन होता वह बाप ही है। और उसे बाप होना भी चाहिए।‘ केतकी ने झटके से अपना वाक्य पूरा किया और स्टडी से बाहर चली गई।
राहुल अराम कुर्सी पर ढह गया। अगली सुबह जब वह बहुत देर तक नहीं उठा तो केतकी ने अपने फैमिली डॉक्टर को तलब किया। डॉक्टर ने बताया, ‘इनके जीवन में हाई ब्लड प्रेशर ने सेंध लगा दी है।‘
राहुल की आंखें आश्चर्य से भारी हो गईं। वह सिगरेट नहीं पीता था। शराब कभी कभी छूता था। तला हुआ और तैलीय भोजन नहीं खाता था। घर से बाहर का पानी तक नहीं पीता था।
‘तो फिर?‘ उसने केतकी से पूछा।
लेकिन तब तक डॉक्टर की बताई दवाइयां लेने के लिए केतकी बाजार जा चुकी थी।
ग्यारह सितंबर दो हजार एक को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए विनाशक हमले के ठीक एक हफ्ते बाद राहुल बजाज को रात ग्यारह बजे उसके बेटे विकास ने मोबाइल पर याद किया। राहुल उन दिनों एक टीवी चैनल में इनपुट एडीटर था और पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था। चैनल की नौकरी में विकास तो विकास, केतकी तक राहुल को कभी कभी किसी भूली हुई याद की तरह उभरती नजर आती थी। वह विकास को अपने मुंबई वाले बसे-बसाये घर में अकेला छोड़ आया था। विकास तब तक एक मल्टीनेशन कंपनी के मुंबई ऑफिस में विजुलाइजर के तौर पर नौकरी करने लगा था। आम तौर पर विकास का मोबाइल ‘नॉट रीचेबल‘ ही होता था। पंद्रह बीस दिनों में कभी उसे मां की याद आती तो वह दिल्ली के लैंडलाइन पर फोन कर मां से बतियाता था। केतकी के जरिये ही राहुल को पता चला कि विकास मजे में है। उसकी नौकरी ठीक है और वह एक उभरता रॉक गायक भी बन गया है। वह मां को बताता था कि मकान का मेंटेनेंस समय पर दिया जा रहा है, कि लैंड लाइन फोन का बिल और बिजली का बिल भी समय पर दिया जा रहा है। सोसायटी के लोग उन्हें याद करते हैं और उसने अपने एक दोस्त से किस्तों पर एक सेकिंड हैंड मोटर साइकिल खरीद ली है। वह बताता कि मुंबई की लोकल में भीड़ अब जानलेवा हो गई है। अब तो किसी भी समय चढ़ना-उतरना मुश्किल हो गया है। एक खाते-पीते मध्यवर्गीय परिवार के लक्षण यहां भी थे, वहां भी। राहुल की जिंदगी बीत रही थी। केतकी की भी। व्यस्त रहने के लिए केतकी दिल्ली में कुछ टयूशन करने लगी थी।
इसीलिए विकास के फोन ने राहुल को विचलित कर दिया।
‘बापू....‘ विकास लाड़, शराब और स्वतंत्रता के नशे में था, ‘बापू, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की बिल्डिंग में हमारा भी हेड ऑफिस था। सब खल्लास हो गया। ऑफिस भी, मालिक भी। मालकिन ने ई-मेल भेजकर मुंबई ऑफिस को बंद कर दिया है।‘
‘अब?‘ राहुल ने संयत रहने की कोशिश की, ‘अब क्या करेगा?‘
‘करेगा क्या स्ट्रगल करेगा। अभी तो एक महीने नोटिस की पगार है अपने पास। उसके बाद देखा जाएगा।‘ विकास आश्वस्त लग रहा था।
‘ऐसा कर, तू घर में ताला लगाकर दिल्ली आ जा। मैं तुझे अपने चैनल में फिट करवा दूंगा।‘ राहुल की हमेशा व्यस्त और व्यावसायिक आवाज में बहुत दिनों के बाद एक चिंतातुर पिता लौटा।
‘क्या पापा...।‘ विकास शायद चिढ़ गया था, ‘आप भी कभी कभी कैसी बातें करते हैं। मेरा कैरियर, मेरे दोस्त, मेरा शौक, मेरा पैशन सब कुछ यहां है... यह सब छोड़कर मैं वहां आ जाऊं, उस गांव में जहां लोग रात को आठ बजे सो जाते हैं। जहां बिजली कभी कभी आती है। ओह शिट... आई हेट दैट सिटी।‘ विकास बहकने लगा था, ‘मम्मी मुझे बताती रहती है वहां की मुसीबतों के बारे में। अपुन इधरीच रहेगा। आई लव मुंबई, यूू नो। अगले महीने मैं अपना बैंड लेकर पूना जा रहा हूं शो करने।‘
‘जैसी तेरी मर्जी।‘ राहुल ने समर्पण कर दिया, ‘कोई प्रॉब्लम आए तो बता जरूर देना।‘
‘शाब्बाश। ये हुई न मर्दों वाली बात।‘ विकास ने ठहाका लगाया फिर बोला, ‘टेक केयर... बाय।‘
राहुल का जी उचट गया। उसने खुद को सांत्वना देने की कोशिश की। आखिर सब कुछ तो है मुंबई वाले घर में। टीवी, फ्रिज, कंप्यूटर, वीसीडी प्लेयर, वाशिंग मशीन, गैस, डबल बेड, वार्डरोब, सोफा, बिस्तर। इतना सक्षम तो है ही अपना बेटा कि दो वक्त की रोटी जुटा ले। उसने निश्चिंत होने की कोशिश की लेकिन कुछ था जो उसके सुकून में सेंध लगा रहा था। थोड़ी देर बाद वह घर लौट आया। लौटते वक्त उसने मोबाइल पर अपनी सोसायटी के सेक्रेटरी से रिक्वेस्ट किया कि कभी मेंटेनेंस मिलने में देर हो जाये तो वह मिस कॉल दे दे। पैसा सोसायटी के अकाउंट में ट्रांस्फर हो जाएगा। फिर उसने सेक्रेटरी से आग्रह किया कि विकास का ध्यान रखना। सेक्रेटरी सिख था। खुशमिजाज था। बोला, ‘तुसी फिक्र न करो। असि हैं न। वैसे त्वाडा मुंडा बड़ा मस्त है। कदी-कदी दिखता है बाइक पर तो बाय अंकल बोलता है।‘
राहुल को घर आया देख केतकी विस्मित रह गई। अभी तो सिर्फ पौने बारह बजे थे। राहुल कभी भी दो बजे से पहले नहीं आता था।
‘विकास का फोन था।‘ राहुल ने बताया, ‘उसकी नौकरी चली गई है लेकिन यह कोई चिंता की बात नहीं है।‘
‘तो?‘ केतकी कुछ समझी नहीं।
‘उसने शराब पी रखी थी।‘ राहुल ने सिर झुका लिया। उसकी आवाज दूसरी शताब्दी के उस पार से आती हुई लग रही थी। राख में सनी, मटमैली और अशक्त। केतकी के भीतर बुझते अंगारों में से कोई एक अंगार सुलग उठा। राहुल की आवाज ने उसे हवा दी थी शायद।
‘जब हम दिल्ली आ रहे थे मैंने तभी कहा था कि विकास को मुंबई में अकेला मत छोड़ो।‘
‘केतकी, मूर्खों जैसी बात मत करो। बच्चे जवान होकर लंदन, अमेरिका, जर्मनी और जापान तक जाते हैं। नौकरियां भी आती-जाती रहती हैं। फिर हम अभी जीवित हैं न!‘ राहुल सोफे पर बैठ गया और जूते उतारने लगा, ‘उसका नशे में होना भी कोई धमाका नहीं है। ऑफ्टर ऑल बाइस साल का यंग चैप है।‘
‘तो फिर?‘ केतकी पूछ रही थी, ‘तुम परेशान किस बात को लेकर हो?‘
‘परेशान कहां हूं?‘ राहुल झूठ बोल गया, ‘एक प्रतिकूल स्थिति है जो फिलहाल विकास को फेस करनी है। टेलेंटेड लड़का है। दूसरी नौकरी मिल जाएगी। इस उम्र में स्ट्रगल नहीं करेगा तो कब करेगा? उसे अपने खुद के अनुभवों और यथार्थ के साथ बड़ा होने दो।‘
‘तुम जानो।‘ केतकी ने गहरी निश्वास ली, ‘कहीं तुम्हारे विश्वास तुम्हें छल न लें।‘
‘डोंट वरी। मैं हूं न!‘ राहुल मुस्कुराया। फिर वे सोने के लिए बेडरूम में चले गये। रात का खाना राहुल दफ्तर में ही खाया करता था। उस रात राहुल ने सिर्फ दो काम किये। दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं।
सुबह हमेशा की तरह व्यस्तताओं भरी थी। अखबार, फोन, खबरें, न्यूज चैनल, इंटरव्यू, प्रशासनिक समस्याएं, कंट्रोवर्सी, मार्केटिंग स्ट्रेटेजी, ब्यूरो कोऑर्डिनेशन, आदेश, निर्देश, टार्गेट...। एक निरंतर हाहाकार था जो चौबीस घंटे, अनवरत उपस्थित था, इस हाहाकार में समय हवा की तरह उड़ता था और संवेदनाएं मोम की तरह पिघलती थीं। इन्हीं व्यस्तताओं में दिल्ली का दिसंबर आया। ठंड, कोहरे और बारिश में ठिठुरता। विकास से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। घर का फोन बजता रहता। दिल हूम हूम करता। पता नहीं विकास ने क्या खाया होगा? खाना हलक से नीचे उतरने से इंकार कर देता। केतकी कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी की शरण लेती। विकास का मोबाइल ट्राई करती। सोसायटी की सक्रेटरी की पत्नी से फोन पर पूछती, ‘विकास का क्या हाल है?‘ एक ही जवाब मिलता, ‘दिखा नहीं जी बड्डे दिनों से। मैं इनसे पूछ के फोन करांगी।‘ पर उसका फोन नहीं आता। केतकी अपनी कातर निगाहें राहुल की तरफ उठाती तो वह गहरी निस्संगता से भर कर जवाब देता, ‘नो न्यूज इज गुड न्यूज।‘
‘कैसे बाप हो?‘ आखिर एक रात केतकी ढह गई, ‘तीन महीने से बेटे का अता-पता नहीं है और बाप मजे में है।‘
‘केतकी?‘ राहुल ने केतकी को उसके मर्मस्थल पर लपक लिया, ‘मैं बीस साल की उम्र में अपना घर छोड़ कर भागा था। देहरादून से। फिर तुमसे शादी की। स्ट्रगल किया, अपना एक मुकाम बनाया। बेशक तुम साथ साथ आ रही थीं। हम देहरादून से दिल्ली, दिल्ली से लखनऊ, लखनऊ से गुवाहाटी और गुवाहटी से मुंबई पहुंचे। और अब दिल्ली में हैं। क्या तुम्हें एक बार भी याद नहीं आया कि मेरा भी एक पिता था। मैं भी एक बेटा था?‘
‘लेकिन इस मामले में मैं कहां से आती हूं राहुल?‘ केतकी ने प्रतिवाद किया। ‘वह तुम्हारा और तुम्हारे पिता का मामला था। लेकिन यहां मैं इन्वॉल्व हूं। मैं विकास की मां हूं। मेरे दिल में हर समय सांय-सांय होती है। सोचती हूं कि कुछ दिनों के लिए मुंबई हो आती हूं।‘
‘ठीक है।‘ राहुल गंभीर हो गया, ‘मैं कुछ करता हूं।‘
नये वर्ष के पहले दिन दोपहर बारह पैंतीस की फ्लाइट से राहुल मुंबई के लिए उड़ गया। उसके ब्रीफकेस में घर की चाबियों और पर्स में तीन बैंकों के डेबिट तथा क्रेडिट कार्ड थे।
घर विस्मयकारी तरीके से बदरंग, उदास, अराजक और उजाड़ था। राहुल का घर, जिसे वह बतौर अमानत विकास को सौंप गया था। दरवाजे के बाहर लगी नेमप्लेट जरूर राहुल के ही नाम की थी लेकिन भीतर मानों एक अपाहिज पहरेदार की छायाएं डोल रही थीं।
धीरे-धीरे राहुल को डर लगना शुरू हुआ। ‘मैं उधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।‘ राहुल ने सोचा। इक्कीसवीं सदी का अंधेरा उसके जिस्म में भविष्य की तरह ठहर जाने पर आमादा था। उसके विश्वास, उसके मूल्य, उसकी समझ जिस पर देश का पढ़ा-लिखा तबका यकीन करता था, उसके अपने घर में विकास के मैले-कुचैले कपड़ों की तरह जहां-तहां बिखरे पड़े थे। हॉल में बने बुक शेल्फ में मकड़ी के जाले लगे हुए थे और उनमें छिपकलियां आराम कर रही थीं। उसने फोन का रिसीवर उठाकर देखा - वह मृतकों की दुनिया में शामिल था। यानी घंटी एक्सचेंज में बजा करती होगी। नागार्जुन, निराला और मुक्तिबोध की रचनावलियों के साथ कालिदास ग्रंथावली जैसी दुर्लभ और बेशकीमती पुस्तकें सदियों पुरानी धूल के नीचे हांफ रही थीं। सोफे के ऊपर एक इलेक्ट्रोनिक गिटार औंधा पड़ा था। टीवी के ऊपर एक नहीं तीन-तीन ऐश-ट्रे थीं, जिनमें चुटकी भर राख झाड़ने की भी जगह नहीं थी। शोकेस के किनारे कोने में सिगरेट के खाली पैकेट पड़े थे। फर्श पर चलते हुए धूल पर जूतों के निशान छप रहे थे।
राहुल भीतर घुसा- एक साबुत आशंका के साथ। किचन के प्लेटफार्म पर बिसलरी के बीस लीटर वाले कई कैन कतार से लगे थे - खाली, बिना ढक्कन। वाशिंग मशीन का मुंह खुला था और उसमें गरदन तक विकास के गंदे कपड़े ठुंसे हुए थे। पर्दों पर तेल और मसालों के दाग थे। बाथरूम और लैटरीन के दरवाजों पर कुछ विदेशी गायकों के अहमकों जैसी मुद्रा वाले पोस्टर चिपके थे। राहुल का स्टडी रूम बंद था। बैडरूम में रखा कंप्यूटर और प्रिंटर नदारद था। राहुल ने चाबी से स्टडी का दरवाजा खोला- वहां धूल, उमस और सीलन जरूर थी लेकिन बंद होने की वजह से बाकी कमरा जस का तस था- जैसा राहुल उसे छोड़ गया था। थका हुआ, प्रतीक्षातुर और उदास। यह कमरा मानों राहुल को यह सांत्वना दे रहा था कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। अपनी राइटिंग टेबल के सामने पड़ी रिवॉल्विंग चेयर पर बैठकर राहुल ने विकास का मोबाइल लगाने की एक व्यर्थ सी कोशिश की लेकिन आश्चर्य कि घंटी बज गई।
‘हैलो...‘ यह विकास था हूबहू राहुल जैसी आवाज़ में। तीन महीने से अदृश्य।
‘कहां है?‘ राहुल ने पूछा।
‘पापा...!‘ विकास चीखा, ‘कैसे हो, मॉम कैसी है?‘
‘तुझसे मतलब?‘ राहुल चिढ़ गया।
‘पापा, मेरा मोबाइल बंद था, परसों ही चालू हुआ है। मैं आपको बताने ही वाला था। गुड न्यूज। परसों ही मेरी नौकरी लगी है- रिलायंस इन्फोकॉम में। पगार है पंद्रह हजार रुपये। तीन महीने से खाली भटकते-भटकते मैं पागल हो गया था। बीच में मेरा एक्सीडेंट भी हो गया था। मैं पंद्रह दिन अस्पताल में पड़ा रहा। बाइक भी टूट गई। भंगार में बेच दी।‘ विकास बताता जा रहा था। बिना रुके, बिना किसी दुख, तकलीफ या पछतावे के। खालिस खबरों की तरह।
‘तूने एक्सीडेंट की भी सूचना नहीं दी?‘ राहुल को सहसा एक अनाम दुख ने पकड़ लिया।
‘उससे क्या होता?‘ विकास तर्क दे रहा था, ‘आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता। आप लोग भागे-भागे यहां आते। ठीक तो मुझे दवाइयां ही करतीं न? फिर दोस्त लोग थे न। किस काम आते साले हरामखोर। आप देखते तो डर जाते पापा। बाईं आंख की तो वाट लग गई थी। पूरी बाहर ही आ गई थी। माथे पर सात टांके आये। होंठ कट गया था। अब सब ठीक है।‘
‘पैसा कहां से आया?‘ राहुल ने पूछा।
‘दोस्त ने दिया। कंप्यूटर बेचना पड़ा। अब धीरे धीरे सब चुका दूंगा।‘
‘और घर कबसे नहीं गया?‘
‘शायद आठ-दस दिन हो गए।‘ विकास ने आराम से बताया।
‘और घर का फोन?‘
‘वो डैड है।‘ विकास ने बताया, ‘मैं भाड़ा कहां से देता? खाने के ही वांदे पड़े हुए थे।‘
‘मेंटनेंस भी नहीं दिया होगा?‘
‘हां।‘ विकास बोला।
‘तुझे यह सब बताना नहीं चाहिए था?‘ राहुल झुंझला गया, ‘इस तरह बर्ताव करती है तुम लोगों की पीढ़ी अपने मां-बाप के साथ?‘
‘पापा आप तो लेक्चर देने लगते हो।‘ विकास भी चिढ़ गया, ‘मकान कोई छीन थोड़े ही रहा है? अब नौकरी लग गई है, सब कुछ दे दूंगा। अच्छा सुनो, मम्मी से बात कराओ न!‘
‘मम्मी दिल्ली में है।‘
‘दिल्ली में? तो आप कहां हैं?‘ विकास थोड़ा विस्मित हुआ।
‘मुंबई में। अपने घर में।‘ राहुल ने बताया।
‘ओके बाय, मैं शाम तक आता हूं।‘ विकास ने फोन काट दिया। उसकी आवाज में पहली बार कोई लहर उठी थी। क्या फर्क है? राहुल खुद से पूछ रहा था। सिर्फ इतना ही न कि मैं घर से भाग गया था और विकास घर से दूर है - अपनी तरह से जीता-मरता हुआ। अपनी एक समानांतर दुनिया में। वह एक अदृश्य सी डोर से अपने मम्मी-पापा के साथ बंधा हुआ है और राहुल की दुनिया में यह डोर भी नहीं थी। घर से भागने के पूरे सात वर्ष बाद जब जोधपुर में पिता का ब्रेन कैंसर से देहांत हो गया, तब मां का मौन टूटा था। और मां की आज्ञा से छोटे भाई ने उसका पता खोज कर उसे टेलीग्राम दिया था -‘पिता नहीं रहे। अगर आना चाहो तो आ सकते हो।‘
वह नहीं गया था। अगर पिता उसके जीवन से निकल गए थे, अगर मां, मां नहीं बनी रह सकी थी, अगर भाई-बहन उसे ठुकरा चुके थे तो राहुल ही क्यों एक बंद दुनिया का दरवाजा खोलने जाता? जब अपने लहुलुहान शरीर को लिए वह घर के बाहर कूद रहा था तब दरवाजा खोलकर मां बाहर आकर उसके कदमों की जंजीर नहीं बन सकती थी? पिता को एक बार भी ख्याल नहीं आया कि बीस साल का एक इंटर पास लड़का इतनी बड़ी दुनिया में कहां मर-खप रहा है?
राहुल बजाज ने पाया कि उसकी बाईं आंख से एक आंसू ढुलककर गाल पर उतर आया है। शायद बाईं आंख दिल से और दाईं आंख दिमाग से जुड़ी है। राहुल ने सोचा और अपनी खोज पर मुस्कुरा दिया।
दो बाइयों की मदद से घर शाम तक सामान्य स्थिति में आ गया। सोसायटी का सेक्रेटरी बदल गया था। नोटिस बोर्ड पर मेंटेनेंस न देने वालों में राहुल बजाज का नाम भी शोभायमान था। राहुल ने पूरे हिसाब चुकता किये और बारह महीने के पोस्ट डेटेड चेक सेक्रेटरी को सौंप दिये। बिजली के बिल के खाते में भी उसने पुराने चौदह सौ और अग्रिम सोलह सौ मिलाकर तीन हजार का चेक जमा करवा दिया। टेलीफोन सरेंडर करने की अप्लीकेशन भी उसने सेक्रेटरी को दे दी- साइन किये हुए क्रॉस्ड चेक के साथ। विकास के सारे गंदे कपड़े धोबी के यहां भिजवा दिए। टीवी, फ्रिज और वाशिंग मशीन उसने दस हजार रुपये में केतकी के एक दोस्त को बेच दिये। इसी दोस्त रेवती के पति ललित तिवारी के घर वह रात के खाने पर आमंत्रित था।
रात आठ बजे विकास आया। वह अपने साथ बैगपाइपर की बॉटल लाया था।
‘आपने कहा था न, पहला पैग मेरे साथ पीना।‘ विकास बोला, ‘वह तो नहीं हो सका लेकिन मेरी नयी नौकरी की खुशी में हम एक साथ चियर्स करेंगे।‘
‘मंजूर है।‘ राहुल निर्विकार था, ‘मैं घर में ताला लगाकर जा रहा हूं।‘
‘चलेगा।‘ विकास तनिक भी परेशान नहीं हुआ, ‘मेरा दफ्तर मरोल में है। अंधेरी से मीरा रोड की ट्रेन में चढ़ना अब पॉसिबल नहीं रहा। मैं दफ्तर के पास ही कहीं पेइंग गेस्ट होने की सोच रहा हूं।‘
विकास रेवती और ललित के घर खाने पर नहीं गया। उसने पुष्पक होटल से अपने लिए चिकन बिरियानी मंगवा ली।
अगली सुबह इतवर था। राहुल सोकर उठा तब तक विकास तैयार था। उसने पापा के लिए दो अंडों का ऑमलेट बना दिया था।
‘कहां?‘ राहुन ने पूछा।
‘मेरी रिहर्सल है।‘ विकास ने कहा, ‘आज शाम सात बजे बांद्रा के रासबेरी में मेरा शो है।‘
‘क्या उस शो में मैं नहीं आ सकता?‘ राहुल ने पूछा।
‘क्या?‘ विकास अचरज के हवाले था। ‘आप मेरा शो देखने आएंगे? लेकिन आप और मम्मी तो कुमार गंधर्व भीमसेन जोशी टाइप के लोगों...।‘
‘ऑफ्टर ऑल, जो तू गाता है वह भी तो संगीत ही है न?‘ राहुल ने विकास की बात काट दी।
‘येस्स‘ विकास ने दोनों हाथों की मुट्ठियां हवा में उछालीं, ‘मैं इंतजार करूंगा।‘ फिर वह अपना गिटार लेकर सीढ़ियां उतर गया। देर तक राहुल की आंख में विकास के कानों में लटकी बालियां और छोटे छोटे कलर किये गए खड़े बाल उलझन की तरह डूबते-उतराते रहे। जब केतकी का फोन आया तो राहुल ठीक ठीक बता नहीं पाया कि वह किसके साथ है - विकास के या अपने? केतकी जरूर विकास के साथ थी, ‘जब उसके लिए तुमने घर ही बंद कर दिया है तो उसका अंतिम संस्कार भी हाथोंहाथ क्यों नहीं कर आते?‘ वह रो रही थी। वह मां थी और स्वभावतः अपने बेटे के साथ थी। राहुल मां को नहीं जानता। वह केतकी के रुदन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
रासबेरी। नई उम्र के लड़के-लड़कियों का डिस्कोथेक। बाहर पोस्टर लगे थे - न्यू सेंसेशन ऑफ इंडियन रॉक सिंगर विकास बजाज। राहुल तीन सौ रुपये का टिकट लेकर भीतर चला गया। वहां अजीबोगरीब लड़के-लड़कियों की भीड़ थी। हवाओं में चरस की गंध थी। बीयर का सुरूर था। यौवन की मस्ती थी। क्षण में जी लेने का उन्माद था। लड़कियों की जीन्स से उनके नितंबों के कटाव झांक रहे थे। लड़कों ने टाइट टी शर्ट पहनी हुई थी। उनके बाल चोटियों की तरह बंधे थे। स्लीवलेस टी शर्ट्स से उनके मसल्स छलके पड़ रहे थे। ब्रा की कैद से आजाद लड़कियों के स्तन शर्ट्स के भीतर टेनिस की गेंद की तरह उछल रहे थे। राहुल वहां शायद एकमात्र अधेड़ था जिसे रासबेरी का समाज कभी कभी कौतुक भरी निगाह से निहार लेता था।
एक संक्षिप्त से अनाउंसमेंट के बाद विकास मंच पर था - अपने गिटार के साथ। उसने कान-फाड़ शोर के साथ गर्दन को घुटनों के पास तक झुकाते हुए पता नहीं क्या गीत गाया कि हॉल तालियों से गड़गड़ाने लगा, लड़कियां झूमने लगीं और लड़के उन्मत्त होकर नाचने लगे।
इस लड़के की रचना हुई है उससे? राहुल ने सोचा और युवक-युवतियों द्वारा धकेला जाकर एक कोने में सिमट गया। भीड़ पागल हो गई थी और विकास के लिए ‘वन्स मोर‘ का नारा लगा रही थी। राहुल का दिल दो-फांक हो गया। उसने केतकी को फोन लगाया और धीरे से बोला, ‘शोर सुन रही हो? यह विकास की कामयाबी का शोर है। मैं नहीं जानता कि मैं सुखी हूं या दुखी। पहली बार एक पिता बहुत असमंजस में है केतकी।‘ राहुल ने फोन काट दिया और मंच पर उछलते-कूदते विकास को देखने लगा।
ब्रेक के बाद वह बाहर आ गया। ‘हाय गाइज, हैलो गर्ल्स‘ करता हुआ विकास भी बाहर निकला। उसके मुंह में सिगरेट दबी थी। उसने राहुल के पांव छू लिए और बोला, मैं बहुत खुश हूं कि मेरा बाप मेरी खुशी को शेयर कर रहा है।‘
‘मेरे बच्चे‘ राहुल ने विकास को गले लगा लिया, ‘जहां भी रहे, खुश रहे। मुझे अब जाना होगा। मेरी दस पैंतीस की फ्लाइट है। अपने सारे प्रेस किये हुए कपड़े तुझे रेवती आंटी के घर से मिल जाएंगे।‘ राहुल बजाज का गला रूंध गया था, ‘कल से तू कहां रहेगा? क्या मैं घर की चाबियां?‘
राहुल बजाज के भीतर एक पिता पिघलता, तब तक विकास का बुलावा आ गया। उसने वापस राहुल के पांव छुए और बोला, ‘मेरी चिंता मत करो पापा। मैं ऐसा ही हूं। आप जाओ। बेस्ट ऑफ जर्नी। सॉरी।‘ विकास ने हाथ नचाए, ‘मैं एयरपोर्ट नहीं आ सकता। मां को प्यार बोलना।‘ विकास भीतर चला गया। भीड़ और शोर और उन्माद के बीच।
बाहर अंधेरा उतर आया था। इस अंधेरे में राहुल बजाज बहुत अकेला, अशक्त और दुविधाग्रस्त था। वह सबके साथ होना चाहता था लेकिन किसी के साथ नहीं था। उसके पास न पिता था, न मां। उसके पास बेटा भी नहीं था। और दिल्ली पहुंचने के बाद उसके पास केतकी भी नहीं रहने वाली थी। राहुल ने हाथ दिखाकर टैक्सी रोकी, उसमें बैठा और बोला, ‘सांताक्रूज एयरपोर्ट।‘
टैक्सी में गाना बज रहा था -‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।‘