यदि गौर से देखें तो पाएंगे कि दुनिया छोटी-बड़ी सत्ताओं का एक संजाल है। परिवार से लेकर दे्श और दुनिया के स्तर तक अनेक सत्ताएं ही सत्ताएं हैं। परिवार से ही शुरू कीजिए- मुखिया की परिवार के सदस्यों पर , पति की पत्नी पर ,सास की बहू पर ,माता-पिता की बच्चों पर , जेठानी की देवरानी पर ,हर बड़े की अपने से छोटे पर सत्ता । परिवार से बाहर आ जाइए- गुरु की शिष्य पर ,पुरोहित की जजमान पर ,ताकतवर की कमजोर पर, अधिक जानकार की कम जानकार पर , पढ़े-लिखे की अनपढ़ पर , खूबसूरत की बदसूरत पर , बड़ी जाति वाले की छोटी जाति वाले पर , अधिक पैसे वाले की कम पैसे वाले पर ,बहुसंख्यक की अल्पसंख्यक पर ,शहर की गांव पर ,बड़े देश की छोटे दे्श पर सत्ता। कहां तक जिक्र किया जाय इन सत्ता-तंतुओं का ? अंत हो तब ना ? हर एक की कोशिश रहती है कि पदसोपान क्रम में उससे नीचे का व्यक्ति या संस्था उसकी आज्ञा का अक्षरश: पालन करे। थोड़ी भी ढील ऊपर वाले को बरदा्श्त नहीं होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी सत्ता को बनाए-बचाए रखने की कोशिश में लगा है। होड़ सी दिखाई देती है सत्ता हासिल करने की---बड़ी से बड़ी फिर उससे बड़ी ---कोई अंत नहीं इस होड़ का भी। सारे संघर्ष सत्ता के लिए ही हैं। राजनीतिक सत्ता इसके केंद्र में है। इन छोटी-छोटी सत्ताओं का चरित्र राजनीतिक सत्ता के चरित्र पर निर्भर करता है। राजनीतिक सत्ता अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इन छोटी-छोटी सत्ताओं और उसके लिए होने वाले संघर्षों को बनाए रखना चाहती है। हर-एक व्यक्ति अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए झूठ ,छल-प्रपंच ,दिखावे का सहारा लेता है।
हर कोई अपनी सत्ता चाहता है। प्रत्येक दूसरे की सत्ता का तो विरोध करता है पर अपनी सत्ता को येनकेन प्रकारेण बनाए रखना चाहता है। क्षाम-दाम-दंड-भेद की नीति का सहारा लेता है। अपनी सत्ता को जायज ठहराने के लिए गलत-सही तर्क गढ़ा करता है। गलत-सही तर्कों से अपना मायाजाल बुनता है। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य बना डालता है। बुद्धिलाल पाल सत्ता के इस "मायाजाल" को बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं-सत्ता का यह जादू सीधे-सीधे समझ में नहीं आता है। निखालिस आंखों से नहीं दिखाई देता है। उसका प्रभाव ही दिखाई देता है उसकी चाल नहीं। जनता के हित के नाम पर की जाने वाली मगरमच्छी नौटंकी ही हमें दिखाई देती है। उसके छल-प्रपंच इस नौटंकी के पीछे-छुप जाते हैं। इसमें राजा अकेला नहीं उसके साथ उसका पूरा वर्ग मौजूद रहता है। कबीले के सरदार ,जातियों के सामंत ,धर्मों के महानायक ,दरबारी , खैरख्वाह , नुमाइंदे ,व्यापारी ,पूंजीपति , रसूख वाले ,मौलवी ,पंडित आदि इसमें सभी शामिल हैं। सत्ता के मद से कोई अछूता नहीं है, इसके चलते ही जनता का सेवक कहलाने वाला -प्रशासन का /एक अदना सा प्यादा /मदमस्त होकर /हाथी जैसा चलता है/अपने को भारी-भरकम/पहाड़ जैसा/बाकी को तुच्छ समझता है। यह सत्ता का ही खेल तो है जिसके चलते -मर्द औरत को दोयम दर्जे की नागरिकता देता है। सवर्ण ,दलित को घ्रणा की नजरों से देखता है अमीर ,गरीब का शोषण करता है। कवि पाल का यह कहना बहुत युक्तिसंगत है कि दुनिया को सुंदर बनाना है तो इन सारी सत्ताओं के नाक में "नकेल" जरूरी है।
कवि बिल्कुल सही कहता है कि शासक जो भी करता है केवल अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए। उसके पीछे उसकी जनकल्याण की भावना नहीं होती है। भले वह लोककल्याणकारी होने का ढोंग करते रहे। वह जानता है जनता का "असंतो्ष" कैसे दबाया जाता है , कैसे उसकी कंडिशनिंग की जाती है-दारू वालों को दारू/ भीख वालों को भीख/निकम्मे ज्ञानवादियों को दान/अपने सूबेदारों को /सूबे दान में देता है / कभी-कभी जरूरतमंदों को/सहयोग करता चतुर ठग-सा/ इस तरह/जनता की अकूत प्रतिरोध क्षमता को /अपने बस्तों में लपेटकर रखता है---राजा के पास /दिव्य दृष्टि होती है ----इस दिव्य दृष्टि से उसे पता चल जाता है कि कहां-कौन से जनांदोलन होने वाले हैं -उनको कुचलने के लिए /उसके पास पहले से ही /रूपरेखा तैयार रहती है। राजा अपने निहित स्वार्थों के लिए हमेशा चौकन्ना रहता है पर जनता के कल्याण की बात जहां आती हैं वहां आंखों में पट्टी बांध लेता है।उसके दरबारी इसमें उसके हमराही होते हैं। वह कानून-न्याय-समानता की बातें तो खूब करता है पर वह केवल दिखावा मात्र होती हैं। "राजा का न्याय' केवल ढोंग है - मुकुट यानि / अत्याचार का लाइसेंस / लाइसेंस यानि / भोग-विलास और सुविधा/ सुविधा यानि राजा/ ---व्यभिचार यानि / राजा का न्याय।
जनता राजा की कृपा को सबसे बड़ा ईनाम और उसकी रक्षा को अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझती है। कवि का प्रश्न जायज है कि जनता राजा के हर दुख में शामिल रहती है -राजा के प्रति निष्ठा /जनता के खून में बहती है /पर क्या राजा भी कभी / जनता के लिए ऐसा ही होता है? राजा जनता को अपनी "जागीर" समझता है। उसको कोई मतलब नहीं जनता किस स्थिति में हैं । उसको तो अपनी और अपने ऐशो-आराम की पड़ी रहती है-राजा का भला /दरिद्रता से क्या वास्ता ।
कवि के लिए जनता का मतलब उस वर्ग से है -जिसने कभी /कोई सुख नहीं भोगा /नून ,तेल ,लकड़ी के लिए/भागती रही ,भागती रही /खटती रही उम्र भर /कोल्हू के बैल की तरह ---उनकी आंखें /मृत्यु देवता के दर्शन तक /रोटी में ,लंगोटी में /छप्पर में टंगी रही। जो सत्ता की संस्कृति से संचालित हो यह कहती है ---मैं हारकर गया हर बार/ ईश्वर की चौखट पर /आखिरकार मुझे तो / यही बताया गया था / ईश्वर ही सब कुछ है। वह ---ईश्वर की मीमांसा में /बसी हुई जनता /ईश्वर की मीमांसा में /गढ़ी हुई जनता यानी /राजा के बाड़े में / राजा की जनता ---हैं । राजा की दृ्ष्टिमें जनता की क्या हैसियत होती है इस कविता में आई एक पंक्ति " राजा के बाड़े में" बता देती है। ईश्वर की मीमांसा से यह जनता पशु (निरीहता के अर्थ में ) बना दी जाती है जिसका अपना कोई विवेक नहीं रह जाता है। दरअसल राजा जनता को अपने अधीन रखने के लिए केवल हिंसा या बल प्रयोग ही नहीं बल्कि यह तो अंतिम उपाय होता है ,वह वैचारिक प्रभुत्व के द्वारा ऐसा करता है। द्राासक वर्ग के अपने विचार होते हैं जो उसके अपने वर्ग हितों के अनुरूप होते हैं और उनकी सेवा करते हैं। एक लंबी प्रक्रिया में यही विचार शासित वर्ग के विचार बन जाते हैं। वह शासक वर्ग की मूल्य-मान्यताओं को स्वीकार करने लग जाते हैं और उन्हीं के अनुसार ढल जाते हैं। इस कविता में गहरा इतिहासबोध दिखाई देता है। कवि इतिहास को पूरी द्वंद्वात्मकता एवं वैज्ञानिकता से देखता है। सत्ता ही हमेच्चा जनता की किस्मत लिखती है कवि इस ऐतिहासिक सत्य को अच्छी तरह जानता-समझता है। जो हमेशा उसका तरह-तरह से शोषण करता रहा वही "विधाता" बना उसके भाग्य का। उसके ऐशो-आराम , शानो-शौकत ,भोग-विलास का स्रोत बनी जनता ---पूरा इतिहास इसकी गवाही देता है । आज भी यह सिलसिला जारी है। "आदमी -आदमी में फर्क होता है।' यह किसी ईश्वर ने नहीं बल्कि राजा ने ही कहा।
कैसी विडंबना है कि राज्य की हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता है वह तो उसका कर्त्तव्य माना जाता है इस बात को बुद्धिलाल पाल ने बहुत सुंदर तरीके से प्रतीकात्मक रूप में कहा है - वे हथियार /हथियार नहीं माने जाते / राजा का सौंदर्य बढ़ाने वाले /आभूषण माने जाते हैं। ऐसा साबित किया जाता है जैसे राजा इसी के लिए बना है- और जनता /राजा के इसी रूप पर मुग्ध होती है। यहां जनता की मानसिकता पर भी अच्छा व्यंग्य है।
ये कविताएं राजा (सत्ता) की विशिषताओं को दो टूक द्राब्दों में बताती हैं- राजा वर्चस्ववादी संस्कृति का पोषक होता है---राजा अदृश्य होकर /वार करने की कला में /माहिर होता है---राजा की कूटनीति /जनता को छलना /राजा का यश फैलाना होती है---राजा का मंतव्य /जनता के उबलते खून को ठंडा करना होता है/ और उसी खून से अपने महल/ रंगमहल बनाना होता है। ---राजा /अपनी प्रतिस्थापना के बाद हर बरस / डेढ़ बित्ता /और बढ़ जाता है। ----राजा की /योजनाओं के आंकड़े /झूठ के पुलिंदे होते हैं/उनकी योजनाओं के लाभ/जरूरत मंदों में कम /अपनों में ही रेवड़ी की तरह बांटते हैं---आखिर राजा /राजा होता है !उसे सब छूट है ---राजा के राज्य में /गुंडों की भी /खास जगह होती है/ वह भी सम्मानित होता है/बेहद सम्मानित ---जरूरत पड़ने पर /मित्र ,सगे संबंधियों की / बलि भी स्वीकार कर लेते हैं---राजा धनबल ,बाहुबल से /सराबोर होता है/ कूटनीति उसके चरित्र में होती है---उसकी मर्जी ही /उसकी जाति ,उसका धर्म --- उसका हर आदेश/ईश्वर का आदेश होता है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राजनैतिक सत्ता को बैधता प्रदान करने के लिए ही राजा के आदे्श को ईश्वर के आदेश के रूप में स्थापित किया जाता है। ताकि जनता उसका विरोध ना करे। उसे सहर्ष स्वीकार कर ले। राजा का दैवीय स्वरूप होना ही उसे सारी मनमानी करने की छूट प्रदान करता है। दु:ख ने ईश्वर को जन्म दिया और राजनैतिक सत्ता ने उसका इस्तेमाल अपनी ताकत को बढ़ाने और बचाने के लिए किया। इस बात को बुद्धिलाल पाल बहुत सहज रूप से बता देते हैं। धार्मिक सत्ता और राजनैतिक सत्ता एक दूसरे को कैसे मदद पहुंचाती हैं इस बात को ये कविताएं बखूबी व्यक्त करती हैं। सत्ता किस तरह की चालाकी करती है उसकी ओर कवि पाठकों का ध्यान खींचता है-जाति और धर्म की /ये सब बंदिशें /ये सब जरूरतें /जनता के लिए हैं/जनता ही भोगे--- हम तो उलझे हैं /मल्लाशाह जाति ,धर्म /वर्ण में ही/हिंदी-उर्दू ,तमिल में ही। और सत्ता अपना विस्तार करती चली जाती है। सत्ता द्वारा -डर दिखाकर /दिग्भ्रमित किया जाता है/डर की राजनीति /खूब फलती-फूलती है। जनता को धार्मिकता के नाम पर अंधा कर दिया जाता है उसके विवेक का हरण कर दिया जाता है। उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह भी शासक वर्ग की भाषा और शिल्प में बातें करने लगती है- अंधे ,अंधों की बात मानते हैं /चमत्कार पर विश्वास करते हैं--- और अन्तत: /शैतान के भक्त हो जाते हैं। इसके बावजूद भी राजा चाहे कितना ही -ओढ़ता है लिबास /सादगी का ---पर उसका दर्प छुप नहीं पाता है। राजा भी अच्छा कहलाना चाहता है इसलिए सादगी का लिबास ओढ़ता है -फिर भी / उसकी सादगी में /उसका अक्खड़पन/उसका दर्प ही झलकता है । राजा के द्राौक भी अलग होते हैं। भाषा भी अलग ताकि वह यह दिखा सके कि वह जनता से विशिष्ट है।
राजा की दुनिया को रचने-बनाने वाला केवल एक राजा नहीं है बल्कि वे सारे "देवता" हैं जिन्हें " इंद्रलोक के / वैभवशाली सुख के लिए" एक इंद्र को बनाया रखना जरूरी लगता रहा है। यहां सत्ता का वर्गीय स्वरूप सामने आता है। वर्ग हितों की रक्षा के लिए "राजा" को बनाए रखा गया है। यदि उसके खिलाफ लड़ना है तो वर्गीय एक जुटता से ही संभव होगा। अन्यथा उसका "अभेद्य" किला नहीं भेदा जा सकता है। कवि शासक वर्ग की आकांक्षाओं को भी पहचानता है और उनकी षड्यंत्रों को भी ,सत्ता के बिचौलियों को भी। उसके "तब और अब" को भी। पहले भी राज्य का खजाना राजा के ऐशो-आराम में उड़ता था आज भी।
कवि राजा और राक्षस में समानता देखता है और अंतर सिर्फ इतना कि - राक्षस के सींग/दिखाई देते हैं /राजा के नहीं । कवि का दिल अवसाद से भर जाता है जब राजा के दरबारियों में एक और दरबारी बढ़ जाता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक का ध्यान बरबस मौजूदा लोकतंत्र की ओर खिंच जाता है। इनसे एक स्वर बिना कहे ही निकलता है कि आज के तथाकथित लोककल्याणकारी राज्य भी इसके अपवाद नहीं हैं। कविताओं में से यदि राजा शब्द को हटा दें तो सारी की सारी कविताएं आज की राजनीतिक व्यवस्था और उसके कर्त्ताधर्ताओं पर सटीक बैठती हैं। ये कविताएं उस आधुनिक राजतंत्र का कि्स्सा कहती हैं जो लोकतंत्र नामधारी है। इन कविताओं के माध्यम से कवि हमें इस बात का अहसास दिलाता है कि नाम बदलने से चरित्र नहीं बदल जाता है। कवि राजतंत्र के बहाने आज के पूंजीवादी लोकतंत्र पर चोट करता है और राजतंत्र से उसकी समानता स्थापित करता है। आज भले कहने के लिए लोकतंत्र हो गया हो पर चरित्र में राजतंत्र ही है। इस तरह ये कविताएं लोकतंत्र की सीमाओं की ओर भी ध्यान खींचती हैं। युवा कवि-आलोचक बसंत त्रिपाठी ने ब्लर्व में सही लिखा है - "" बुद्धिलाल पाल ने आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा की उपस्थिति और उसकी निर्मिति को व्यापक संदर्भ में देखा है। कबीलाई युद्धों से लेकर सामंती समाज ,पूंजीवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजतंत्र की मनोरचना के तमाम रूप इन कविताओं में उपस्थित हैं ।''
ये कविताएं समाज में मौजूद शासक और शासित वर्ग की जीवन-परिस्थितियों का कम शब्दों में सटीक चित्रण करती हैं। यह यथार्थ है कि शासित वर्ग जीवन पर्यंत रोटी-कपड़ा-मकान के लिए खटता रहता है और शासक वर्ग सोने-चाघ्दी से लदता है। इन कविताओं के संदर्भ में कवि-कथाकार अनवर सुहेल अपनी पत्रिका "संकेत" में लिखते हैं कि बुद्धिलाल पाल की कविताएं राजाओं की मानसिकता और प्रजा की बेचारगी बयान करती है---उनकी कविताएं आकार में छोटी हैं लेकिन घाव बड़े गम्भीर करती हैं। ---वे छोटी कविताओं के सिद्धहस्त कवि हैं। --- व्यंग्योक्तियां ही उनकी कविताओं की ताकत है।
वास्तव में इस संग्रह की कविताएं छोटी-छोटी अवश्य हैं पर अपने में गहरे निहितार्थों को अपने छुपाए हुए जीवन का सार प्रस्तुत करती हैं। अपने आप में अलग तरह की कविताएं हैं। वे छोटे-छोटे उदाहरणों से जीवन की बड़ी-बड़ी बातों को बहुत सहजता से व्यक्त कर देते हैं। उनकी दृ्ष्टि में कहीं भ्रम नहीं दिखाई देता है। वे सब कुछ बिल्कुल साफ-साफ देखते हैं। पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ देखते हैं। समय की नब्ज को बहुत अच्छी तरह पकड़ते हैं। उसकी धड़कनों को गिनने में किसी तरह की गलती नहीं करते । जो कवि जीवन को जितनी गहराई से समझता है वह अपनी बात को उतने ही कम द्राब्दों में कह पाता है। यह खासियत हमें बुद्धिलाल पाल में दिखाई देती है।
समीक्ष्य संग्रह में साम्राज्यवाद और बाजारवाद के प्रभाव को व्यक्त करती कविताएं भी हैं। " नया राजा" कविता अमेरिका पर अच्छा व्यंग्य है। उनका राजा केवल देश तक सीमित नहीं है- देखो ,वो देखो /आंधी की तरह धूल उड़ाता /चला आ रहा है वह / बम धमाकों के साथ /मानवाधिकारों की दुहाई देता /हम सबका हमारी पूरी दुनिया का/नया राजा। आज की बाजारवादी व्यवस्था में आदमी की हैसियत कितनी रह गई है उस पर भी वे अपनी बात कहते हैं- उनकी नजरों में / हम सिर्फ बाजार /जैसे वस्तु से /वस्तु की तुलना । बाजार हमारे जीवन में कैसे घुस आया इस उनका कहना बहुत सटीक है- वे हमारे घर /हमारे जीवन में / सगे संबंधी /शुभचिंतक बनकर आए। इस तरह आकर कैसे वे हमारे मालिक बन जाते हैं। आज बाजार पूरी तरह आदमी को अपने अनुसार चला रहा है। व्यक्ति की पसंद-नापसंद को तय कर रहा है। हमें किस वस्तु की आवच्च्यकता है इस बात को बाजार निर्धारित कर रहा है। हमारा हृदय परिवर्तन कर रहा है। हम अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने में असमर्थ होते जा रहे हैं। बाजार की चका-चौंध हमें विवेकशून्य किए जा रही है। इस बात को हम रोज-रोज के अनुभवों से समझ सकते हैं। हमारी इस मनोदशा को ये कविताएं बहुत अच्छी तरह व्यंजित करती हैं। बाजार की भी एक सत्ता है।
शिल्प की दृष्टि से इन कविताओं को देखा जाय तो कहना होगा कि ये सहज-संप्रेषणीय कविताएं हैं । कवि की बात भाषा के चक्कर में कहीं भी नहीं फंसती है। बुद्धिलाल भाषा को सहूलियत से बरतने वाले कवि हैं । उनकी कविताओं को पढ़ते हुए भाषा को उलटने-पलटने या घुमाने-फिराने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वे भा्षा के पेंच को बेतरह कसते नहीं है । वे जानते हैं ऐसा करने का मतलब है बात की चूड़ी मर जाना। इन कविताओं को अलग तरह से पढ़ने की जरूरत है उस मनोदशा तक पहुंचने की जरूरत है जहां से ये कविताएं पैदा हुई हैं। एक लंबी कविता की तरह है यह संग्रह एकदम नया प्रयोग है। इस संदर्भ में वरिष्ठ कवि और 'समावर्तन' पत्रिका के संपादक निरंजन श्रोत्रिय उनकी कविता पर सटीक टिप्पणी करते हैं-वे कविता में शब्दों की स्फीति ,बयानबाजी और विश्लेषण को तरजीह न देकर चीजों को दो-टूक डिफाइन करते हैं। '' यह सही भी है क्योंकि कविता का उद्देश्य वाक चातुर्य दिखाना नहीं बल्कि संवेदना का विस्तार करना तथा अपने समय और समाज के प्रति दायित्वपूर्ण दृ्ष्टि विकसित करना होता है। यह काम कवि बुद्धिलाल पाल की कविताएं बखूबी करती हैं क्योंकि वे हमेशा जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले कवि हैं। वे लोक के नाम पर होने वाले षड्यंत्रों को खूब समझते हैं और अपने तरीके से उसका प्रतिरोध करते हैं। इन्हें सच्चे लोकतंत्र की चाह की कविताओं के रूप में देखा जाना चाहिए।
- महेश चंद्र पुनेठा
राजा की दुनिया (कविता संग्रह) बुद्धिलाल पाल
प्रकाशक : यश पब्लिकेशन 1/10753 सुभाष पार्क ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली -32
मूल्य - 160 रु0