Tuesday, December 16, 2025

 


 

वे अपने वक्त से बहुत आगे थीं- योगेन्द्र आहूजा

(यह आलेख  ‘विदुज बेटन ’ द्वारा आयोजित  स्त्रियों की यात्रा को लेकर लिखी गयी कहानियों पर  केन्द्रित  ‘उजास की ओर’ सीरीज के अन्तर्गत दिनांक 6 दिसंबर 2025  को रशीद  जहाँ की कहानियों पर चर्चा के दौरान पढ़ा गया.)


 


 

 

 

उर्दू, जिसकी शाइस्तगी, शगुफ्तगी और शीरीं-बयानी के हम सभी कायल हैं - में अफसाने की एक मजबूत रवायत रही है। जिस तरह हिंदी की मेनस्ट्रीम कहानी मानवीय, प्रगतिशील, ताकत और सत्ता के विरुद्ध और वंचितों के पक्ष में रही है, उर्दू की कहानी भी यही राह लेती रही है। उसके जो बड़े अफसाना-निगार हैं –इस्मत, मंटो, बेदी, कृश्न चंदर – हिन्दी के अपने लेखकों की तरह ही पढे जाते रहे हैं। सबकी तरह मुझे भी उनसे प्रेम रहा है, लेकिन पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के नायकों जैसा खामोश, पोशीदा और सिर्फ दिल ही दिल में। उसके बारे में कुछ कहने या लिखने का मौका कभी नहीं आया। आज रशीद जहां के बहाने मुझे इस बारे में कुछ कहने का मौका देने के लिए मैं इस मंच का शुक्रगुजार हूँ।  

उनके बारे में कुछ कहने के लिए इस कहानी को कुछ पहले से शुरू करना होगा। जिस तरह दुनिया में हर चीज की एक कहानी होती है, उसी तरह कहानियों की भी एक कहानी होती है ... दरअसल हर कहानी की अपनी एक अलग कहानी होती है। हर व्यक्ति की तरह हर जुबान और मुल्क में भी ऐसे दौर आते हैं जब लगता है जैसे उसकी सारी शक्तियाँ एक साथ जाग पड़ी हों। किसी चमत्कार या जादू की तरह अचानक या अपने-आप नहीं, उसके पीछे बरसों और दशकों की ऐतिहासिक प्रक्रियायें होती हैं। तब एक नयी भाषा, नये ख्याल, नये कला-रूप पैदा होते हैं। बने-बनाये साँचों को तोड़कर नये कवि, लेखक, विचारक और विद्वान पैदा होते हैं। हर शख्स दूसरे से सीखता है, एक दूसरे को पछाड़ता है, एक दूसरे को आग और रोशनी देता है। ऐसा एक विस्फोट या उबाल अब से नब्बे बरस पहले, पिछली सदी की चौथी दहाई में हुआ था। आज जब हम उसे उस वक्त के बरक्स देखते हैं, यह बहुत आश्चर्यजनक, एक चमत्कार जैसा लगता है।

पिछली सदी का चौथा दशक... जब देश पर अंग्रेज काबिज हैं और पूरे देश के 28 प्रतिशत हिस्से में प्रिंसली स्टेट्स हैं, राजाओं और नवाबों के अधीन। सतह पर सुस्त बहते पानी जैसा आम जीवन है, मगर तली में झाँकने पर दुर्गंध और दमन और उत्पीड़न की एक दम घोंटने वाली अनुभूति। एक ओर औपनिवेशिक गुलामी और दूसरी तरफ वर्णव्यवस्था के शिकंजे में पिसते साधारण जन बेउम्मीद, पस्त और मायूस थे। तीस के दशक की शुरुआत में, दिसंबर 29 में लाहौर-अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार पूर्ण स्वराज्य का रिजोल्यूशन एडाप्ट किया। 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में पूर्ण स्वराज दिवस मनाया गया। इसी साल मार्च-अप्रैल में गांधी जी ने डांडी मार्च किया और पूरे देश में सिविल नाफ़रमानी मूवमेंट में एक लाख गिरफ़्तारियाँ हुईं, जिनमें बड़ी तादाद में औरतें थीं। 23 मार्च 1931 को भगतसिंह फांसी पर चढ़ाये गये।

ऐसी राजनीतिक हलचलो के बीच, इसी महान दशक में शुरुआत हुई अंजुमन तरक्कीपसंद मुसन्निफीने हिंद या प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट की जिसका स्वर सामा्ज्यवाद विरोधी और वामोन्मुख था। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना लखनऊ में जुलाई 1936 में हुई। इसके बाद भारतीय साहित्य वह नहीं रहा जो पहले था। हमेशा के लिये बदल गया।

उस वक्त हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया में औरतों के लिये किसी भी तरह की बौद्धिक गतिविधि मना थी। परंपरागत रूप से उनकी आवाज को गले में ही घोंट देने के पुख्ता इंतजाम थे। ऐसे वक्त में बदायूं जैसे कस्बे के एक मध्यवर्गीय परिवार से एक औरत आती है, बेबाक, दिलेर और बागी - और अपनी तरह से उर्दू अफसाने की दुनिया को बदल देती है। मैं इस्मत चुगताई की बात कर रहा हूँ। वे वर्जनाओं से लदे, दमनपूर्ण मध्यवर्गीय समाज में औरत की स्थिति की पड़ताल करती हैं उस वक्त जब पश्चिम में भी नारीवाद एक नया विचार था।

1936 में जब वे बी.ए. में पढ़ रही थीं, लखनऊ में प्रलेस की मीटिंग में हिस्सा लेने गईं। वहां उनकी मुलाकात हुई रशीद जहां से और वहीं उनके जीवन की दिशा तय हो गयी। वे उनकी मुरीद हो गयीं, और उनका असर जीवनपर्यंत रहा। उनकी आज़ाद लेखन-शैली और बेबाक आवाज़ ने इस्मत चुगताई को वह दृष्टि दी, जिससे उन्होंने उर्दू अदब में महिलाओं की जिंदगी और उनकी चाहतों को मुखर बनाया। इस्मत स्वीकार करती थीं कि रशीद जहाँ न होतीं, तो शायद वे वह लेखक न बन पातीं जो बनीं। उन्होंने लिखा है – उन्होंने मुझे बिगाड़ दिया, क्योंकि वे बहुत बोल्ड थीं और हर बात बेझिझक, बगैर किसी दुविधा के, ऊँची आवाज़ में कहती थींमैं उनकी नकल करना चाहती थी, चाहती थी कि बस उन्हें देखती रहूँ, ‘खा जाऊँ उन्हें - और यह भी – सुंदर नायक-नायिकाएँ… मोम जैसी उँगलियाँ, नींबू और गुलाबी फूल—सब गायब हो गए। धरती-सरीखी रशीद जहाँ ने मेरे सारे हाथी-दाँत के बने देवताओं को चकनाचूर कर दिया… ज़िंदगी नंगी-सच्चाई के साथ मेरे सामने खड़ी हो गई।

 रशीद जहां की शख्सियत चकित करती है। 1905 में अलीगढ़ में जन्मी रशीद जहां के parents महिलाओं की शिक्षा के हिमायती और एक महिला-कॉलेज की स्थापना से जुड़े थे। 1931 में आये कहानी-संग्रह ‘‘अंगारे’’ की एक लेखक, उर्दू अदब में एक नये युग की शुरुआत करने वाली, दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज में गायनाकालिस्ट और लेखक, प्रलेस की एक आवाज, कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रिय मेम्बर। पिछली शताब्दी के तीसरे दशक में औरतों के लिये यह कितना मुश्किल रहा होगा, आज इसका पूरा अंदाज लगा पाना असंभव है। ये बोल्ड, प्रखर, तेजस्वी, बागी औरतें सिर्फ अपने वक्त की अभिव्यक्ति नहीं, अपने वक्त से बहुत आगे थीं । रशीद जहां के गैर-पारंपरिक लिबास, उनके हेयर-स्टाइल को लेकर मंटो ने कुछ फिकरे कसे हैं(*), जो उन जैसे अजीम अफसानानिगार को ज़ेब नहीं देते। बात छिड़ी है तो ... just to put on record - कहना चाहता हूँ कि मंटो ने मीना बाज़ार में नृत्यांगना और अभिनेत्री सितारा देवी का जो स्केच खींचा है, वह भी उन जैसे बड़े लेखक के लिए शोभनीय नहीं है। बहरहाल, मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर पता चले कि रशीद जहां इस उपमहाद्वीप की पहली मुस्लिम लेडी डाक्टर थीं। पहली महिला डाक्टर आनंदी गोपाल जोशी ने 1886 में मेडिकल की डिग्री ली थी। गूगल बताता है कि पहली मुस्लिम महिला डाक्टर जोहरा बेगम काजी थीं, जिन्होंने 1935 में लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज से डिग्री ली थी। यह बात कुछ उलझन भरी है क्योंकि रशीद जहां 1931 में उसी लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज से ग्रेजुएट हुईं थीं। इस तरह इस उपमहाद्वीप की पहली मुस्लिम महिला डाक्टर वे ठहरती हैं। उनका नाम इस रूप में क्यों दर्ज नहीं है। जो साहित्य के रिसर्चर हैं इसकी तफतीश कर सकते हैं। अगर यह बात सही है तो इसे जरूर दर्ज होना चाहिये।

लेकिन हम यहां डाक्टर रशीद जहां को नहीं, लेखक रशीद जहां को याद कर रहे हैं, जो उर्दू में ही नहीं, शायद किसी भी भारतीय भाषा में पहली नारीवादी थीं, पर्दे के पीछे’ जो पर्दे के विरुद्ध पहली कहानी है, और ‘दिल्ली की सैर’ जैसी कहानियों की लेखिका। ये दोनों कहानियां ‘अंगारे’ संग्रह में हैं, जिसका उर्दू की लिटरेरी हिस्टी में क्या महत्व है, इसे जानकार लोग जानते हैं। इस संग्रह को अंग्रेज सरकार ने जब्त किया था। इसके अलावा वे ‘चिंगारी’ की संपादक थीं जो उर्दू की पहली मार्क्सवादी पत्रिका थी। यही नहीं वो इप्टा की स्थापना से भी पहले इस देश में प्रोग्रेसिव थियेटर की संस्थापकों में से एक थीं। उन्होंने चेखव और प्रेमचंद से लेकर ब्रेख्त और जेम्स ज्वाइस तक की रचनाओं का नाट्य-रूपांतर और उनकी प्रस्तुति, निर्देशन किया। और यह सब तीस के दशक में ... इस बात को बार-बार दोहरा कर भी इसका महत्व पूरी तरह नहीं बताया जा सकता। 

इस्मत, रशीद जहां, और अन्य भी ... मैं उन्हें सिर्फ लेखिकाओं या घटनाओं की तरह नहीं, परिघटनाओं की तरह, फिनामिनन की तरह देखता हूं। हिंदी के लोग रशीद जहां को कम जानते हैं और उन्हें याद करने के मौके तो और भी कम आते हैं। रशीद जहां, इस्मत, रजिया सज्जाद जहीर ये किसी और दुनिया से नहीं आये थे। उसका संबंध उस वक्त के राजनीतिक वातावरण से है। गांधी जी से असहमतियां हो सकती हैं लेकिन यह तथ्य मिटाया नहीं जा सकता कि उनके असहयोग आंदोलन में, इस मुल्क के इतिहास में महिलायें शायद सैकड़ों सालों के बाद पहली बार घर से बाहर आयी थीं। और उर्दू अदब में यह सिर्फ शुरुआत थी । उसके बाद बागी लेखिकाओं और शायराओं की एक ऐसी भरी-पूरी रवायत बनी जिस पर अन्य भाषाओं को रश्क हो सकता है । बुरी औरत की कथा, बुरी औरत के खुतूत, रबे शर्तनामाऔर वहशत और बारूद में लिपटी हुई शायरीजैसी रचनाओं की लेखिका किश्वर नाहीद, जो पाकिस्तान के दमनपूर्ण समाज में अंतश्चेतना की आवाज बनीं। नींद की मुसाफतें और रास्ते मुझे बुलाते हैं जैसी रचनाओं की लेखिका अजरा अब्बास और सिर्फ यही नहीं ... अदा जाफरी, खदीजा मस्तूर, जमीला हाशमी, बानो कुदसिया, फहमीदा रियाज, मुमताज शीरीं, जीलानी बानो, परवीन शाकिर, जाहिदा हिना, जाहिरा परवीन, शबनम शकील, शाहिदा हसन ... यह सूची बहुत-बहुत लंबी है। सबका स्वर रूढ़ियों, दमन और अन्याय के प्रति कमोबेश वैसा ही अवज्ञाकारी या डिफाएंट है जो मंटो या इस्मत चुगताई का था। रशीद जहां इन सबकी pioneer और प्रेरक थीं।  

वे सिर्फ एक अफसाना-निगार नहीं थियेटर और दीगर राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय थीं और इनके अलावा डॉक्टर थीं ही। सिर्फ लेखक होने से बढ़कर वे अपने आप में वे एक पूरी तहरीक थीं। वे अधिक नहीं लिख सकीं, लेकिन अदृश्य रूप से उस समय की कितनी ही रचनाओं में मौजूद हैं। उनका एक परिचय यह है कि प्रेमचंद की ‘गोदान’ की ‘मालती’ — जो पेशे से डॉक्टर, आधुनिक, आत्मविश्वासी, सामाजिक कुरीतियों के प्रति आलोचनात्मक और स्त्री-स्वतंत्रता की समर्थक थीं, दरअसल वही हैं।  प्रेमचंद रशीद जहाँ के बेहद क़रीबी थे (प्रगतिशील लेखक संघ के शुरुआती स्तंभों में दोनों शामिल थे)। उनकी शख्सियत का असर प्रेमचंद के कई स्त्री-पात्रों पर दिखता है, लेकिन मालती सबसे प्रत्यक्ष और पहचानी जाने वाली छवि है। यह आलोचकों और शोधकर्ताओं की लगभग सर्वसम्मत राय है।

एक कयास-आराईमैं भी करना  चाहता हूँ और वह यह कि प्रेमचंद की विलक्षण कहानी क्रिकेट मैच की मिस हेलेन मुखर्जी जैसा गैर-मामूली पात्र  भी कभी न सिरजा जाता अगर वे रशीद जहां को न जानते। हेलेन मुखर्जी ने भी डाक्टरी की पढ़ाई की है। कहानी में वे अंग्रेजों की क्रिकेट टीम के विरुद्ध हिन्दुस्तान की टीम तैयार करती हैं।

उनके बारे में अन्य तथ्य ये हैं - 1934 में उन्होंने महमूद-ज़फ़र से विवाह किया। उनकी साहित्यिक-राजनैतिक गतिविधियां अंत तक जारी रहीं जिनके कारण उन्हें अक्सर निगरानी और चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1949 में रेल्वे हड़ताल में भाग लेने पर वे कुछ समय जेल में भी रहीं। 1952 में कैंसर से उनका निधन हुआ।

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(*)डॉक्टर रशीद जहां का फ़न आज कहाँ है? कुछ तो गेसुओं के साथ कटकर अलैहदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठुस कर रह गया। फ़्रांस में जॉर्ज सेड ने निस्वानियत का हसीन मलबूस उतार कर तसन्नो की ज़िंदगी इख़्तियार की। पुलिस्तानी मूसीक़ार शोपाँ से लहू थुकवा-थुकवा कर उसने ला’ल-ओ-गुहर ज़रूर पैदा कराए, लेकिन उसका अपना जौहर उस के बतन में दम घुट के मर गया।

(मंटो के एक आलेख से)


 

 

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