Tuesday, October 24, 2017

प्रेम के पाठ

कहानी 

रमेश उपाध्याय
कहे अनकहे रूप में पिछले दिनों प्रेम कहानियों का खूब जोर रहा। बहुत सी पत्रिकाओं ने विशेषांक भी निकाले। बहुत सी अच्छीा कहानियां भी पढ़ने को मिली। लेकिन विशेषांकों से इतर प्रकाशित हुई कथाकार रमेश उपाध्या़य की कहानी ही स्मृोतियों में उछलती रही। बहुत ही सहजता और थोड़े खिलंदड़े अंदाज में लिखी गई इस कहानी पर भिन्नत राय भी हो सकती है कि यह तो प्रेम कहानी है ही नहीं। मैं भी यहां इसे इस दावे के साथ नहीं प्रस्तु त कर रहा हूं। पर एक बात तो है कि प्रेम को परिभाषित करने की चेष्टात तो इसमें साफ दिखती है। कथाकार रमेश उपाध्या य जी का आभार कि उन्होंतने हमारा मान रखा और कहानी को पुन: प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की।

वि.गौ. 


हमारे जीवन का मूल मंत्र था मजे में रहना। और इसका तरीका हमने बचपन में ही सीख लिया था: थोड़ा-सा बेवकूफ (होना नहीं) दिखना। लोग आपको थोड़ा-सा बेवकूफ समझते रहें और आप मजे में रहते रहें, इसमें क्या बुराई है? 

हमारे परिवार में परीक्षाओं में प्रथम आने की परंपरा थी। पिताजी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आये थे। भाईसाहब भी उनके नक्शे-कदम पर चलते थे और वे भी हमेशा हर कक्षा में प्रथम आते थे। हमेशा हर कक्षा का मतलब है कि क्लास टेस्ट हो, तिमाही, छमाही या सालाना इम्तिहान हो, फस्र्ट ही आना है। पिताजी अपने जमाने के फस्र्ट क्लास फस्र्ट बी.ए. पास थे। भाईसाहब भी हमेशा फस्र्ट आते थे। आगे चलकर वे एम.ए. फस्र्ट क्लास और ऊपर से गोल्ड मेडलिस्ट हुए। जाहिर है कि पिताजी और भाईसाहब ने हमारे सामने अपना-अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए हमसे भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए कहा। लेकिन हमारी जीजी के लिए प्रथम आने की कोई शर्त नहीं थी, क्योंकि उनकी पढ़ाई हाई स्कूल तक ही होनी थी, जिसके बाद उनकी शादी कर दी जाने वाली थी।

प्रेम करने का निश्चय करने के बाद हमारे सामने समस्या उठी कि प्रेम किस लड़की से किया जाये। हमारी देखी हुई फिल्मों और पढ़ी हुई कहानियों के अनुसार लड़की सुंदर तो होनी ही चाहिए थी, साथ ही ऐसी भरोसेमंद भी अवश्य होनी चाहिए थी, जो प्रेम-प्रसंग में गोपनीयता के महत्त्व को समझती हो। अगर उसने स्कूल में या अपने घर जाकर हमारी शिकायत कर दी, तो पिटाई निश्चित थी। बाहर पिटकर हमारे बदनाम होने की और उस बदनामी के कारण पुनः घर में पिटने की प्रबल आशंका थी। हम जानते थे कि जब पिताजी के करकमलों से हमारी पिटाई होगी, तब भाईसाहब यह भूल जायेंगे कि वे भी कभी प्रेम करते थे और हम उनके कासिद बनकर उनकी सेवा किया करते थे। ऐसी सुंदर और भरोसेमंद प्रेमिका खोजने के लिए हमने गली-मुहल्ले की लड़कियों से लेकर स्कूल में साथ पढ़ने वाली लड़कियों तक खूब नजर दौड़ायी, पर इन दोनों गुणों से युक्त कोई लड़की नजर न आयी। जो लड़कियाँ सुंदर थीं, वे भरोसेमंद नहीं थीं। जो भरोसेमंद हो सकती थीं, वे सुंदर नहीं थीं। अंततः हमें अपनी ममेरी बहन माधुरी याद आयी, जो बहुत सुंदर थी और अपने जेबखर्च के लिए मामा-मामी से मिले पैसे कभी-कभी चोरी से हमें सिनेमा देखने के लिए दिया करती थी। मामा-मामी सिनेमा कभी-कभार ही देखते थे और बड़ी होती इकलौती लड़की को सिनेमा के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसे प्रायः धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे। माधुरी हमें सिनेमा देखने के लिए चोरी-चोरी पैसे क्यों देती थी?
लेकिन हमेशा फस्र्ट आने का जो तरीका पिताजी और भाईसाहब ने हमें बताया, बालबुद्धि होते हुए भी हमें काफी मूर्खतापूर्ण लगा। टाइमपीस में चार बजे का अलार्म लगाकर सोओ। घंटी बजते ही उठ बैठो। उठते ही लोटा भर पानी पियो और पाखाने जाओ। लोटा भर से जरा भी कम पिया, तो पेट साफ नहीं होगा। पेट साफ नहीं हुआ, तो नींद आयेगी या सिर में दर्द होगा या यूँ ही पढ़ाई में मन नहीं लगेगा। पाखाने से निकलते ही गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी, ठंडे पानी से नहा डालो। नहाकर साफ धुले हुए कपड़े पहनो और पढ़ने बैठ जाओ। बिस्तर पर नहीं, बाकायदा मेज-कुर्सी पर। पिताजी कहते थे, ‘‘तुम तो बड़े खुशकिस्मत हो कि मेज-कुर्सी और बिजली की रोशनी जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमारे जमाने में तो किरासिन की ढिबरी या लालटेन की रोशनी में जमीन पर बोरी बिछाकर पढ़ने बैठना पड़ता था।’’ 

हमें आदेश था कि स्कूल जाने के समय से एक घंटा पहले तक कल का पढ़ाया गया सब कुछ इस तरह दिमाग में बैठा लो कि क्लास में जो भी पूछा जाये, फौरन बता सको। जो भी सवाल दिया जाये, फटाफट हल कर सको। अब जो एक घंटा तुम्हारे पास है, उसी में तुम्हें अपना बस्ता लगाना है, नाश्ता करना है, ब्रश करना है, यूनिफाॅर्म पहननी है और स्कूल पहुँचना है। स्कूल में हर पीरियड में पूरा मन लगाकर पढ़ना है, रिसेस में टिफिन खाना है, खेल के पीरियड में खेलना है। घर आकर, कपड़े बदलकर, हाथ-मुँह धोकर, खाना खाकर एक घंटे सोना है। शाम को एक घंटा खेलने जा सकते हो, पर एक घंटे से एक मिनट भी फालतू नहीं। खेलकर आने के बाद अगर गर्मियाँ हैं तो नहाकर और सर्दियाँ हैं तो हाथ-मुँह धोकर भीगे हुए बादाम चबाते हुए एक गिलास दूध पीकर होम वर्क करने बैठ जाना है। चाहे आधी रात ही क्यों न हो जाये, उसे पूरा करके ही खाना और सोना है। वैसे मन लगाकर पढ़ोगे, तो होम वर्क फटाफट निपटा सकोगे और जल्दी से खाकर जल्दी सो सकोगे। भाईसाहब इस आदेश में अंग्रेजी की एक लाइन भी जोड़ दिया करते थे, ‘‘अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज, मेक्स अ मैन हैल्दी वैल्दी एंड वाइज।’’ 

भाईसाहब ने पता नहीं कैसे पिताजी के नक्शे-कदम पर चलना या उनके उपदेशों पर अमल करना सीख लिया होगा! हमें तो यह अनुशासन कड़ी सजा जैसा लगा और लगा कि ऐसी जिंदगी जीने में क्या मजा। हमेशा हर कक्षा में प्रथम आना आखिर क्यों जरूरी है? फस्र्ट क्लास फस्र्ट ही क्यों? सेकेंड क्लास फस्र्ट या फस्र्ट क्लास सेकेंड में क्या बुराई है? पिताजी पुराने जमाने के हैं, इसलिए कहते हैं, ‘‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’’। उनके जमाने में नवाब होते होंगे, अब कहाँ होते हैं। होते भी हों, तो नवाब रामपुर या नवाब धामपुर कौन बनना चाहेगा? नवाब ही बनना है, तो क्रिकेट वाले नवाब पटौदी न बनेंगे! पढ़ेंगे-लिखेंगे, पास भी अच्छे से होंगे, लेकिन फस्र्ट क्लास फस्र्ट आने के लिए की जाने वाली कठोर तपस्या नहीं करेंगे। खेलेंगे-कूदेंगे, पर खराब नहीं होंगे। होंगे नहीं, पर थोड़े-से बेवकूफ दिखेंगे और मजे में रहेंगे। जैसा किसी लोकोक्तिकार ने कहा भी है, ‘‘जो सुख चाहे जीव को, तो हौलू बनके रह!’’ 

अपने इस मूल मंत्र के मुताबिक हमने तय किया कि फेल नहीं होंगे, लेकिन फस्र्ट आने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। पहली बार सेकेंड आये, तो पिताजी ने हमारे दोनों कान उमेठकर उनमें खूब सदुपदेश भरे और भाईसाहब ने रिजल्ट देखकर हमारे गाल पर एक थप्पड़ जड़ते हुए अपना आदर्श हमारे सामने रखा। कान के दर्द और गाल की चोट के अनुपात में हम कुछ ज्यादा ही जोर से रोये, ताकि अम्मा और जीजी का कोमल नारी हृदय पसीज उठे और वे हमारी रक्षा के लिए सन्नद्ध हो उठें। वैसे भी हम अम्मा के ‘पेटपोंछना’ और जीजी के दुलारे ‘छुटकू भैया’ होने के कारण दोनों के लाड़ले थे। घर में सबसे छोटे होने के कारण सबका प्यार-दुलार पाने के न्यायोचित अधिकारी भी थे ही। अतः पिताजी और भाईसाहब ने एक लिमिट में रहकर ही हम पर सख्ती बरती। 

लेकिन उन्होंने हमें यह समझाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी कि हम सेकेंड आने वालों में सबसे अधिक नंबर लाये हैं, इसलिए हम में बुद्धि और प्रतिभा कम नहीं है, केवल थोड़ी मेहनत और करने की जरूरत है; फिर हमें फस्र्ट आने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन हमने अगली दो-तीन कक्षाओं में सेकेंड आना और उन दोनों ने हल्की सजा और भारी उपदेश देना जारी रखा, तो हमने अगले साल थोड़ा प्रयास किया और थर्ड आ गये। परिणाम जो होना था, हुआ। सख्त सजा मिली और पहले से भी ज्यादा वजनी उपदेश सुनने पड़े। लेकिन भविष्य में सेकेंड आते रहने का हमारा रास्ता साफ हो गया, क्योंकि थर्ड से सेकेंड आना बेहतर समझा गया। हमारे परीक्षकों ने भी हम पर दया दिखायी कि पूरे शिक्षाकाल में हमें हमेशा फस्र्ट क्लास सेकेंड आने लायक नंबर दिये और दो बार तो गोल्ड मेडल जैसा भी दिया कि दो-दो नंबर कम देकर हमारी फस्र्ट डिवीजन रोक ली। 

हमारे परिवार में सब पढ़े-लिखे थे। अम्मा अंग्रेजों के जमाने की मिडिल पास थीं, पिताजी अंग्रेजों के जमाने के बी.ए. पास। भाईसाहब और जीजी भी आजादी से पहले पैदा हुए थे। एक हम ही थे, जो उसी साल पैदा हुए, जिस साल देश आजाद हुआ। कारण यह था कि भाईसाहब और जीजी की उम्र में तो दो ही साल का अंतर था, पर हम जीजी के छह साल बाद पैदा हुए थे। इस प्रकार जब हम पाँच साल के थे और पहली में पढ़ते थे, जीजी ग्यारह साल की थीं और छठी में पढ़ती थीं, जबकि भाईसाहब तेरह साल के थे और आठवीं में पढ़ते थे। पिताजी अध्यापक थे और एक इंटर काॅलेज में पढ़ाते थे। 

पिताजी पढ़ाने के बड़े शौकीन थे। बाहर तो पढ़ाते ही थे, घर में भी खूब पढ़ाते। उन्होंने हमें शुरू से ही प्रेम के पाठ पढ़ाये थे। उन असंख्य पाठों में से कुछ थे: अपने परमात्मा से प्रेम करो। अपने धर्म से प्रेम करो। अपनी जाति से प्रेम करो। अपनी भाषा से प्रेम करो। अपनी सभ्यता से प्रेम करो। अपनी संस्कृति से प्रेम करो। अपनी परंपराओं से प्रेम करो। अपने परिवार से प्रेम करो। अपने पड़ोसियों से प्रेम करो। अपने देश और देशवासियों से प्रेम करो। अपनी दुनिया और दुनिया भर के लोगों से प्रेम करो। 

अजीब बात थी कि जिन से प्रेम करने को कहा जाता था, वे या तो अमूर्त होते थे, या पुरुष, क्योंकि स्त्रियों से प्रेम करने का कोई पाठ हमें नहीं पढ़ाया गया। स्त्रियों को हमारे यहाँ पूज्य माना जाता था, प्रेम्य नहीं। हमें शिष्टाचार के जो पाठ पढ़ाये गये थे, उनमें से एक यह था कि गुरुजन यानी बड़े तो पितातुल्य आदरणीय होते हैं--जैसे पिताजी, भाईसाहब और तमाम तरह के दादा, बाबा, चाचा, ताऊ, मामा, मौसा, शिक्षक, साधु, संत, पुजारी इत्यादि--किंतु स्त्रियाँ बड़ी हों या छोटी, सभी माता के समान पूजनीय होती हैं। ‘‘मातृवत परदारेषु’’ का अर्थ समझाते हुए पिताजी हमसे कहा करते थे कि परायी स्त्रियों को माँ के समान मानना चाहिए, अर्थात् तुम्हारी एक संभावित पत्नी को छोड़कर संसार में जितनी भी स्त्रियाँ हैं, सब माँ के समान हैं और माँ पूजनीय होती है, इसलिए वे सब भी पूजनीय हैं। वे तुमसे उम्र में बड़ी हों या छोटी, सब माँ के समान हैं।

एम.ए. फाइनल में हमारे साहित्यकार प्रोफेसर हमें मध्यकालीन काव्य और उसका इतिहास पढ़ाते थे। जब से उन्होंने हमारी कविताएँ प्रकाशित करायी थीं, हम उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगे थे। वे प्रगतिवादी माने जाते थे, लेकिन हमें वे खासे परंपरावादी लगते थे। हम से कहते थे, ‘‘अच्छे कवि बनना चाहते हो, तो मध्यकालीन काव्य को ध्यान से पढ़ो। रीतिकाल और भक्तिकाल की कविता को समझे बिना तुम न तो हिंदी कविता को समझ सकते हो, न हिंदी में अच्छी कविता लिख सकते हो--खासकर प्रेम कविता--क्योंकि प्रेम और प्रेम कविता के अच्छे-बुरे तमाम तरह के रूप तुम्हें उसी में मिलेंगे, जिनसे तुम यह सीख सकते हो कि अच्छी प्रेम कविता क्या होती है। और देखो, एम.ए. के पाठ्यक्रम में जितना रीतिकालीन और भक्तिकालीन काव्य लगा हुआ है, उतना ही पढ़ने से दूसरे छात्रों का काम शायद चल जाये, तुम्हारा चलने वाला नहीं है। इसलिए उसे विस्तार से और गहराई से पढ़ो।
‘‘उम्र में छोटी भी?’’ यह पूछने पर पिताजी बताते थे, ‘‘परदारा वही नहीं है, जो विवाहित होकर परायी हो चुकी है। जो कल विवाहित होकर परायी बनने वाली है, वह भी परदारा है। इसलिए उम्र में छोटी कुँवारी लड़की भी मातृवत है और पूजनीय है। वैसे ही, जैसे छोटी बहनें, सगी छोटी बहनें और अपनी बेटियाँ भी पूज्य होती हैं। राखी बँधवाते समय छोटी बहन के भी पाँव छुए जाते हैं, बेटी के विवाह के समय उसके भी पाँव छुए जाते हैं। क्यों? इसलिए कि वे भी परदारा हैं। इसीलिए उन्हें पराया धन कहा जाता है।’’

हमें याद था कि जब तक जीजी की शादी नहीं हुई थी, हम अम्मा के साथ जीजी के भी पाँव छुआ करते थे। हमारी कोई छोटी बहन तो थी नहीं, इसलिए कानपुर में ही रहने वाले हमारे मामा की बेटी माधुरी हमें राखी बाँधती थी। राखी बँधवाते समय हम उसके भी पाँव छुआ करते थे और वह नटखट हमें बड़ी-बूढ़ियों की तरह आशीर्वाद दिया करती थी। जीजी की शादी हो गयी और भाभी आ गयीं, तो हमें उनके भी पाँव छूकर प्रणाम करने को कहा गया। समझाया भी गया, ‘‘बड़ा भाई पिता के समान होता है, तो भाभी माँ के समान हुई न!’’

किशोरावस्था से निकलकर युवावस्था में प्रवेश करते समय ही हमें फिल्में देखने के साथ-साथ ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ नामक पत्रिकाओं में प्रेम कहानियाँ पढ़ने का चस्का लग चुका था। संक्षेप में, हम चाहने लगे थे कि हम भी किसी से प्रेम करें। लेकिन पिताजी ने ‘‘परदारेषु मातृवत’’ का पाठ पढ़ाकर हमारे लिए मानो प्रेम के सभी मार्ग बंद कर दिये थे, क्योंकि उस पाठ के अनुसार हमारी दूर भविष्य में संभावित पत्नी के अतिरिक्त संसार की समस्त स्त्रियाँ परदारा या तो थीं या भविष्य में हो जाने वाली थीं। मुहल्ले-पड़ोस की और स्कूल में हमारे साथ पढ़ने वाली वे सुंदर-सुंदर लड़कियाँ भी, जिनसे प्रेम करने को हमारा मन मचलता था, पराया धन की श्रेणी में आती थीं और ‘‘परदारेषु मातृवत’’ वाले श्लोक में ही आगे का सूत्र था ‘‘परद्रव्येषु लोष्टवत’’ अर्थात् पराये धन को ‘लोष्ट’ यानी मिट्टी के ढेले के समान मानना चाहिए। इसके अनुसार जैसे रास्ते में पड़े ढेलों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता, वैसे ही हमें लड़कियों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए था। आखिर हम अभी विद्यार्थी थे और पिताजी द्वारा बार-बार सुनाया हुआ ‘‘काकचेष्टा वकोध्यानम्’’ वाला वह श्लोक हमें हमेशा याद रखना था, जिसके अनुसार विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में सबसे मुख्य लक्षण यह है कि वह अपनी पढ़ाई पर (केवल कोर्स की पढ़ाई पर) ही ध्यान केंद्रित किये रखने वाला हो। मगर हम नासमझ-से दिखते हुए भी यह समझ चुके थे कि पिताजी की बातें और उनके श्लोक-फिश्लोक ‘‘सब कहने-सुनने की बातें’’ हैं, उन पर अमल-वमल करना जरूरी नहीं है। 

उदाहरण हमें अपने घर में ही मिल चुके थे। नन्हे-मुन्ने कासिद के रूप में हमने जीजी के प्रेमपत्र उनके प्रेमी तक और भाईसाहब के प्रेमपत्र उनकी प्रेमिका तक पहुँचाने का काम किया था और ऐसी होशियारी से किया था कि अम्मा और पिताजी को कभी भनक भी नहीं पड़ी थी। (हमारी सेवाओं के बदले में जीजी और भाईसाहब द्वारा इनाम या रिश्वत के रूप में जो पैसे चोरी-चोरी हमें दिये जाते थे, उनसे हम चोरी-चोरी फिल्में देखकर प्रेम के पाठ पढ़ते थे।) हालाँकि जीजी की शादी उनके प्रेमी से और भाईसाहब की शादी उनकी प्रेमिका से नहीं हुई, लेकिन दोनों ने प्रेम तो किया ही न! इसलिए हमने सोच लिया था कि हम भी प्रेम करेंगे।
प्रेम करने का निश्चय करने के बाद हमारे सामने समस्या उठी कि प्रेम किस लड़की से किया जाये। हमारी देखी हुई फिल्मों और पढ़ी हुई कहानियों के अनुसार लड़की सुंदर तो होनी ही चाहिए थी, साथ ही ऐसी भरोसेमंद भी अवश्य होनी चाहिए थी, जो प्रेम-प्रसंग में गोपनीयता के महत्त्व को समझती हो। अगर उसने स्कूल में या अपने घर जाकर हमारी शिकायत कर दी, तो पिटाई निश्चित थी। बाहर पिटकर हमारे बदनाम होने की और उस बदनामी के कारण पुनः घर में पिटने की प्रबल आशंका थी। हम जानते थे कि जब पिताजी के करकमलों से हमारी पिटाई होगी, तब भाईसाहब यह भूल जायेंगे कि वे भी कभी प्रेम करते थे और हम उनके कासिद बनकर उनकी सेवा किया करते थे।
ऐसी सुंदर और भरोसेमंद प्रेमिका खोजने के लिए हमने गली-मुहल्ले की लड़कियों से लेकर स्कूल में साथ पढ़ने वाली लड़कियों तक खूब नजर दौड़ायी, पर इन दोनों गुणों से युक्त कोई लड़की नजर न आयी। जो लड़कियाँ सुंदर थीं, वे भरोसेमंद नहीं थीं। जो भरोसेमंद हो सकती थीं, वे सुंदर नहीं थीं। अंततः हमें अपनी ममेरी बहन माधुरी याद आयी, जो बहुत सुंदर थी और अपने जेबखर्च के लिए मामा-मामी से मिले पैसे कभी-कभी चोरी से हमें सिनेमा देखने के लिए दिया करती थी। मामा-मामी सिनेमा कभी-कभार ही देखते थे और बड़ी होती इकलौती लड़की को सिनेमा के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसे प्रायः धार्मिक फिल्में ही दिखाते थे।
माधुरी हमें सिनेमा देखने के लिए चोरी-चोरी पैसे क्यों देती थी?
बात यह थी कि तब तक भारत में टी.वी. नहीं आया था और मनोरंजन का मुख्य साधन सिनेमा या फिर रेडियो था, जिस पर रेडियो सीलोन से प्रसारित और अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला नाम का फिल्मी गानों का कार्यक्रम लड़कियों के बीच सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम था। माधुरी फिल्मों और फिल्मी गानों की दीवानी थी। वह फिल्मी गाने सुनती थी, याद करती थी और गाती-गुनगुनाती रहती थी। उन दिनों खारी बावली दिल्ली से छपी फिल्मी गानों की किताबें एक-एक आने में बिकती थीं। तब तक दशमलव प्रणाली शुरू नहीं हुई थी और बाजार से लेकर गणित की पुस्तकों तक में रुपया-आना-पाई, मन-सेर-छटाँक और गज-फुट-इंच वाला हिसाब चलता था। एक रुपये में सोलह आने होते थे और एक आने में हर फिल्म के गानों की सोलह पेजी किताब मिलती थी। वह किताबदरअसल किसी घटिया प्रेस में बेशुमार गलतियों के साथ सस्ते अखबारी कागज पर छपा एक सोलह पेजी फर्मा होता था, जिसे किसी प्रकार की कटिंग-बाइंडिंग के बिना सिर्फ मोड़कर किताबबना दिया जाता था। लेकिन ये किताबें बहुत बिकती थीं और बाजार में उनकी माँग हमेशा बनी रहती थी। ब्याह-शादी में गाने-बजाने की शौकीन महिलाएँ और लड़कियाँ उन्हें खरीदती थीं और सहेजकर रखती थीं। खुद बाजार जाकर फिल्मी गानों की किताबें खरीदना उनके लिए ‘‘हाय बेहया-बेशरम’’ वाली बात थी, इसलिए वे किसी बच्चे को इकन्नी-दुअन्नी पकड़ाकर बाजार दौड़ा देती थीं कि वह जाकर आन’, ‘अंदाज’, ‘दीदार’, ‘अनारकलीया नया दौरके गाने ले आये। लड़कियों में तो नयी से नयी फिल्मों के गाने खरीदने की होड़ भी लगी रहती थी।
हमारी ममेरी बहन माधुरी जेबखर्च के लिए रोजाना मिलने वाली इकन्नी फिल्मी गानों की किताबें खरीदने और नयी फिल्मों की स्टोरी सुनने पर खर्च किया करती थी। वह जेबखर्च के लिए प्रतिदिन मामा या मामी से मिलने वाले एक आने को चटोरी लड़कियों की तरह चाट-पकौड़ी या गोलगप्पे खाने पर खर्च नहीं करती थी। (उन दिनों अधन्ने में चाट का पूरा पत्ता या दोना आता था और एक आने के आठ गोलगप्पे मिलते थे।) वह उन पैसों को बचाती थी और एक रुपया पूरा हो जाने पर चुपके से हमें थमा देती थी। वह हमसे एकाध साल ही छोटी थी और हमसे एक ही क्लास पीछे थी, लेकिन अपने घर में उसने हमारी विद्वत्ता के झंडे गाड़ रखे थे। वह स्वयं को पढ़ाई में कमजोर बताती थी और हमारे बारे में कहती थी कि हम बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। मामा-मामी ने उसके लिए ट्यूशन लगाने के बजाय हमारी मुफ्त सेवाएँ इस प्रकार ले रखी थीं कि हम छुट्टी वाले दिन आकर घंटे-दो घंटे उसे पढ़ा दिया करें। सो जब हम उसे पढ़ाने जाते, वह चुपके से एक पुड़िया में बँधी सोलह इकन्नियाँ या आठ दुअन्नियाँ या चार चवन्नियाँ या दो अठन्नियाँ हमें पकड़ा देती। उसके दिये एक रुपये में से हम सिनेमा का सेकेंड क्लास का दस आने वाला टिकट लेकर नयी फिल्म देखते थे और बाकी छह आनों की फिल्मी गानों वाली किताबेंखरीदते थे। अगली बार जब हम उसे पढ़ाने जाते, अपनी किसी किताब में छिपाकर ले जायी गयी वे किताबेंउसे दे देते और पढ़ाने के बहाने देखी हुई फिल्म की पूरी स्टोरी उसे सुना देते। वह हमारे शब्दों के सहारे अपनी कल्पना में पूरी फिल्म देख लेती, उसके संवाद याद कर लेती, उसके गानों की सिचुएशंस अच्छी तरह समझ लेती, अगले दिन स्कूल जाकर अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों पर शान से नयी फिल्म देखने का रौब जमाती और उनके खर्चे पर चाट-पकौड़ी खाकर उसकी स्टोरी उन्हें सुनाती।
इस प्रकार हम और माधुरी ममेरे-फुफेरे भाई-बहन होते हुए भी एक-दूसरे के राजदार थे और हमें लगा कि पे्रम के लिए वह उपयुक्त पात्र है। सुंदर तो है ही, भरोसेमंद भी है। हमें भी अपने घर से जेबखर्च के लिए एक आना प्रतिदिन मिलता था। हमने पाँच दिन के पाँच आने बचाये, माधुरी के लिए फिल्मी गानों की पाँच किताबें खरीदीं और चुपके से उसके हवाले करते हुए प्रेम निवेदन कर दिया।
माधुरी पहले तो हक्की-बक्की रह गयी, फिर उसकी आँखें डबडबा गयीं। टूटे-फूटे शब्दों में उसने जो कहा, उसका सार यह था कि हम बहुत अच्छे हैं, उसे बहुत अच्छे लगते हैं, फर्क यही है कि वह जो कह नहीं पा रही थी, हमने कह दिया। और कि वह हमारे प्रेम को अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार कर लेती, मगर क्या करे, भाई-बहन का पवित्र रिश्ता बीच में आ गया। ममेरी ही सही, वह हमारी बहन है और भाई-बहन के बीच प्रेम नहीं हो सकता। उसने यह भी कहा कि काश हम लोग मुसलमान होते, जिनमें ममेरे-फुफेरे भाई-बहन में शादी हो जाती है। हमारा (और शायद अपना भी) दिल टूटने से बचाने के लिए उसने यह भी कहा कि वह भगवान से प्रार्थना करेगी कि अगले जनम में हमें फिर मिलाये, मगर हिंदू भाई-बहन न बनाये।
दिल-विल तो हमारा नहीं टूटा, लेकिन प्रेम का पहला पाठ हमने पढ़ लिया: प्रेम करने से पहले अच्छी तरह देख-भाल लेना चाहिए कि कोई पवित्र रिश्ता तो बीच में नहीं आ रहा।
जब हम नवीं कक्षा में पढ़ते थे, एक इंग्लिश टीचर स्कूल में नयी-नयी आयी थीं। वे इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखते ही हमें उनसे प्रेम हो गया। कक्षा में उनके आते ही हम उन्हें देखने लगते और देखते ही रह जाते। वे क्या पढ़ाती थीं, हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। वे कई बार हमसे पूछ चुकी थीं कि हम कहाँ खोये रहते हैं। लेकिन हम उनके द्वारा पूछे जाने वाले पढ़ाई से संबंधित सवालों की तरह इस सवाल का जवाब भी नहीं दे पाते थे। हम चीजों के खो जाने या उन्हें खो देने का मतलब तो जानते थे, क्योंकि हमारी चीजें अक्सर खोती रहती थीं; एक बार हम दशहरे के मेले में खुद भी खो गये थे और बड़ी मुश्किल से पाये गये थे, इसलिए भीड़ में खो जाने का मतलब भी जानते थे; लेकिन कक्षा में अपनी जगह पर बैठा-बैठा कोई कैसे खो सकता है, यह नहीं जानते थे। हम उन्हें एकटक देखते रहकर बड़ा सुख पाते थे। लेकिन यह नहीं बता सकते थे कि हम क्या पाते हैं। जानते और बातें बनाना भी जानते होते, तो शायद उनसे कहते--मैम, यह पूछिए कि हम क्या पाये रहते हैं!
एक दिन कक्षा के बाहर कहीं जाते हुए हम उन्हें अकेले में मिल गये, तो रोककर बोलीं, ‘‘तुम क्लास में मुझे घूरते क्यों रहते हो?’’
उनका सुंदर चेहरा क्रोध में ऐसा तमतमाया हुआ था कि भयभीत होकर हमने सच बोल दिया, ‘‘मैम, आप हमें बहुत अच्छी लगती हैं।’’
‘‘मतलब, तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया है?’’
हमने पहली बार जाना कि घिग्घी बँध जानाऔर सिट्टी-पिट्टी भूल जानाक्या होता है।
तब उन्होंने वहीं खड़े-खड़े हमें समझाया कि प्रेम हो जाने वाली बात बकवास है। प्रेम होता नहीं, किया जाता है। और वह कभी भी, कहीं भी, किसी से भी नहीं किया जाता।
‘‘अभी तुम्हारी उम्र मन लगाकर पढ़ाई करने की है। बड़े हो जाओ, पढ़-लिखकर कुछ बन जाओ, तब अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह कर लेना।’’ कहकर वे मुस्करायीं और हमारी पीठ थपथपाकर आगे बढ़ गयीं।
इस प्रकार हमने प्रेम का दूसरा पाठ पढ़ा: प्रेम होता नहीं, किया जाता है, उसे करने की एक उम्र होती है, उससे पहले कुछ बनना होता है, और प्रेम जो है सो विवाह के लिए किया जाता है।
उस दिन हमने अपनी इंग्लिश टीचर को ही नहीं, किसी भी स्त्री या लड़की को घूरकर न देखने की, देखकर उसे देखते ही न रह जाने की और अपनी सुध-बुध भूलकर उसी में खोये न रह जाने की कसमें खा लीं और मन लगाकर पढ़ाई करने की, पढ़-लिखकर कुछ बन जाने की और उसके बाद अपने लायक कोई लड़की देखकर उससे प्रेम और विवाह करने की प्रतिज्ञाएँ कर लीं।
हमारी कसमें न टूटें और प्रतिज्ञाएँ पूरी हों, इसका उपाय हमें यही सूझा कि स्त्रियों या लड़कियों के सामने या तो हम नीचे देखें या इधर-उधर। मगर वास्तव में हम उनकी ओर न देखते हुए भी उन्हें बहुत ध्यान से देखते थे, क्योंकि आज नहीं तो कल, हमें प्रेम और विवाह तो करना ही था और करने से पहले इन दोनों चीजों को समझना था। ममेरी बहन माधुरी ने जो पाठ हमें पढ़ाया था, उसके अनुसार हमने पवित्र रिश्तोंवाली स्त्रियों और लड़कियों को अपने अध्ययन का विषय बनाया और यह ज्ञान पाया कि उनमें से प्रायः सभी का कभी न कभी, किसी न किसी से प्रेम रहा है, लेकिन एकाध को छोड़कर किसी का भी प्रेम विवाह के रूप में सफल नहीं हुआ है।
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके काॅलेज में आ जाने पर भी हमने लड़कियों को देखते ही नजरें झुका लेना या इधर-उधर देखने लगना जारी रखा, तो हमारे बारे में मशहूर हो गया कि हम बहुत शरमीले हैं। हमारे सहपाठी हमें बुद्धू समझते थे और समझाते थे कि लड़कियों की तरफ देखो, उनसे आँखें मिलाकर बात करो, क्योंकि उनमें से कुछ तुमसे नैना मिलाना और अँखियाँ लड़ाना चाहती हैं। मगर हम अपनी कसमों और प्रतिज्ञाओं के चलते शरमीले बने रहे। यहाँ तक कि हम पर एक चुटकुला भी बन गया कि हम फिल्म देखते समय भी, जब कोई लड़की परदे पर आती है, नीचे या इधर-उधर देखने लगते हैं।
इस प्रकार हम न तो प्रेम में अंधे हुए न पागल। हमेशा शरमीले और शरीफ कहलाये। लेकिन हमारे आसपास--सहपाठियों और शिक्षकों के बीच, मुहल्ले और पड़ोस में, नगर और प्रदेश में, देश और विदेश में--जो प्रेमलीलाएँ होती थीं, उनके समाचार-श्रोता के रूप में प्रत्यक्ष और साहित्य-पाठक के रूप में परोक्ष साक्षी बनकर प्रेम के विविध रूपों का हमारा अध्ययन बराबर जारी रहा। हम अंतरजातीय, अंतरवर्णीय, अंतरधार्मिक, अंतरप्रांतीय तथा अंतरदेशीय प्रेम विवाहों के बारे में पढ़ने, सुनने और जानने को विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। ज्यों-ज्यों हम इस प्रकार के प्रेम और विवाह से संबंधित विभिन्न काॅमिक, रोमांचक और मार्मिक किंतु भयानक रूप से हिंसक पक्षों से परिचित होते जा रहे थे, त्यों-त्यों प्रेम हमारे लिए बड़ी और उससे भी बड़ी गुत्थी बनता जा रहा था।
प्रेम के हिंसक पक्ष हमने फिल्मों में भी देखे थे, कहानियों और उपन्यासों में भी पढ़कर जाने थे, लेकिन समाचारों और उन पर बनी सत्यकथाओं में प्रेम से संबंधित हिंसा के जो रूप हमारे सामने आते थे, बिलकुल भिन्न होते थे। फिल्मों और कहानियों में प्रेम से जुड़ी हिंसा के तीन रूप प्रचलित थे: काॅमिक, जैसे प्रेम करने वाली लड़की के दकियानूसी बाप द्वारा की जाने वाली हल्की-सी पिटाई; रोमांचक, जैसे नायक और खलनायक के बीच लड़की को लेकर होने वाली मारामारी; या मार्मिक, जैसे प्रेम में असफल रहने पर नायक-नायिका में से किसी एक की आत्महत्या से अथवा दोनों की बेदर्द जमानेद्वारा की जाने वाली हत्या। मगर हिंसा के ये तीनों रूप अंततः मनोरंजक होते थे। इसलिए उन्हें देख-पढ़कर हम हँसें चाहे रोयें, वे हमें अच्छे लगते थे। उनसे हमें डर नहीं लगता था, बल्कि जोश आता था कि ‘‘चाहे सिर फूटे या माथा’’ हम भी प्रेम करेंगे। लेकिन समाचारों और सत्यकथाओं में प्रेम से जुड़ी हिंसा कभी प्रेम करने वाली लड़की को उसके रूढ़िवादी माता-पिता और भाई-भाभी द्वारा ही जलाकर मार डालने या काटकर घर में ही गाड़ देने के रूप में सामने आती थी; कभी जातिवादी पंचों-सरपंचों द्वारा प्रेमी-प्रेमिका दोनों को लाठियों से पीट-पीटकर या कुल्हाड़ियों से काट-काटकर या गोलियों से भून-भूनकर मार डालने के रूप में सामने आती थी; तो कभी सांप्रदायिक नेताओं द्वारा कराये गये भयानक दंगों के रूप में सामने आती थी। तब प्रेम के ये हिंसक पक्ष हमें भयानक रूप से आतंकित करने के साथ-साथ घोर घृणा से भर देते थे।
इस प्रकार हमने प्रेम का तीसरा पाठ पढ़ा: प्रेम कहानियाँ काल्पनिक होती हैं, वे मजा तो दे सकती हैं, मार्ग नहीं दिखा सकतीं; इसलिए प्रेम के इन काल्पनिक रूपों से बचकर और हिंसक रूपों से लड़कर हमें प्रेम का मार्ग स्वयं बनाना पड़ेगा।
और हमने निश्चय किया कि हम प्रेम और विवाह तो अवश्य करेंगे, लेकिन यह देखकर करेंगे कि लड़की और उसके माता-पिता या अभिभावक रूढ़िवादी, जातिवादी और संप्रदायवादी न हों। ऐसा प्रेम और विवाह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने पर ही किया जा सकता था, इसलिए हमने निश्चय किया कि पढ़ाई करके हम भाईसाहब के साथ नहीं रहेंगे (पिताजी इस बीच गुजर चुके थे), किसी दूसरे शहर में नौकरी करेंगे और वहीं रहकर प्रेम और विवाह करेंगे।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमने कानपुर में रहते हुए प्रेम के सारे रास्ते बंद कर रखे थे। हमने अपनी तरफ से बाहर जाकर किसी से प्रेम करने का रास्ता बंद कर रखा था, लेकिन बाहर से कोई हमसे प्रेम करने आये, तो उसके आ सकने का रास्ता खुला रखा था। उस रास्ते से हमारे जीवन में तीन लड़कियाँ और दो स्त्रियाँ आयीं। अर्थात् तीन भावी परदाराएँ और दो वर्तमान परदाराएँ। पाँचों एक साथ नहीं, एक-एक करके आयीं, लेकिन पाँचों ही यह घोषणा-सी करती हुई आयीं कि उन्हें ‘‘मातृवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से नहीं, बल्कि ‘‘मित्रवत परदारेषु’’ वाली दृष्टि से देखा जाये। मगर उनकी मित्रता कुछ नहीं, काफी अजीब थी।
एक मामले में वह मित्रता जब तक शादी नहीं हो जाती, तब तक की वक्तकटी या मौज-मस्ती थी।
दूसरे मामले में वह मित्रता स्वयं अपना वर खोजकर स्वयंवर रचाने निकली आधुनिका की तलाश थी।
तीसरे मामले में वह मित्रता धोखा दे भागे पूर्व प्रेमी के विरुद्ध हमें सच्चा प्रेमी बनाने की चुनौती थी।
 चौथे मामले में वह मित्रता परदेस में रह रहे पति के अभाव में देह की भूख मिटाने की कोशिश थी।
पाँचवें मामले में वह मित्रता पति की नपुंसकता के कारण सूनी गोद को संतान से भर देने की करुण पुकार थी।
हम तब भी नहीं जानते थे और आज भी नहीं जानते--शायद भविष्य में भी कभी नहीं जान पायेंगे--कि प्रेम वास्तव में क्या होता है। मगर यह जानने में हमने देर नहीं लगायी कि यह और जो भी हो, प्रेम नहीं है। इसलिए हम ऐसे प्रेम को हमेशा हाथ जोड़कर विदा करते रहे। इसमें हमारे हौलूपन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
जब हम एम.ए. में पढ़ रहे थे और भाईसाहब की इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी भाषा और साहित्य की जगह हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ रहे थे, तब एक दिन अचानक हमने पाया कि हम प्रेम के कवि हैं। हुआ यह कि काॅलेज की वार्षिक पत्रिका के लिए छात्रों से रचनाएँ माँगी गयीं, तो हमने यह तो प्रेम नहींशीर्षक से पाँच खंडों वाली एक कविता लिखी और उन प्रोफेसर साहब के पास ले गये, जो पत्रिका के हिंदी खंड के संपादक थे। वे हिंदी के प्रोफेसर ही नहीं, साहित्यकार भी थे। जिस समय हम उनके पास गये, काॅलेज में छुट्टी होने का समय था और वे स्टाफ रूम में अकेले बैठे छात्रों की रचनाएँ पढ़ रहे थे। वे हमें पढ़ाते थे, जानते थे और अच्छा विद्यार्थी मानते थे। उन्होंने सरसरी नजर से हमारी कविता देखी और कहा, ‘‘बैठो।’’
स्टाफ रूम में छात्र जा तो सकते थे, शिक्षकों से बातचीत भी कर सकते थे, लेकिन खड़े-खड़े ही। इसलिए हम बैठने का आदेश पाकर भी खड़े ही रहे। उन्होंने फिर बैठने के लिए कहा, तो हम सकुचाते हुए उनसे कुछ हटकर उसी सोफे पर बैठ गये, जिस पर वे बैठे थे। उन्हांेने हमारी कविता ध्यान से पढ़ी और पूछा, ‘‘प्रेम किया है?’’
‘‘जी, नहीं।’’ हमने दोटूक उत्तर दिया।
‘‘और प्रेम पर कविता लिखते हो!’’ उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा।
‘‘यह कविता प्रेम पर नहीं है, सर!’’ हमने विनम्र किंतु मजबूत स्वर में कहा, ‘‘इसका शीर्षक ही है यह तो प्रेम नहीं’’
‘‘जो प्रेम नहीं है, उसे वही कहो, जो वह है।’’ हमें लगा कि हमारी कविता अस्वीकृत हो गयी, लेकिन उन्होंने कहा, ‘‘लो, इसे ले जाओ। यह एक कविता नहीं, पाँच अलग-अलग कविताएँ हैं। इनके अलग-अलग शीर्षक दो। सोचो कि जो प्रेम नहीं है, वह क्या है। उसे वही नाम दो, जो वह वास्तव में है।’’
हम कविता लेकर उठने लगे, तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी ये कविताएँ तो हम काॅलेज की पत्रिका में छाप देंगे। लेकिन तुम कुछ ऐसी कविताएँ लिखो, जिनमें प्रेम हो और जिन्हें प्रेम की कविताएँ कहा जा सके। अच्छी होंगी, तो उन्हें हम किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित करायेंगे।’’
हमने उस कविता की पाँच कविताएँ तो बनायीं, लेकिन शीर्षक एक ही रखा--प्रवंचना: पाँच कविताएँ। उनके शीर्षक हमने अलग-अलग रखे: प्रवंचना-1, प्रवंचना-2, प्रवचंना-3 इत्यादि। यह काम आसानी से हो गया, लेकिन प्रेम कविताएँ लिखने में बड़ी मुश्किल पड़ी। अंततः हमने मूर्खता-1’ और मूर्खता-2’ शीर्षक से दो कविताएँ लिखीं। पहली कविता हमने अपनी ममेरी बहन से प्रेम निवेदन करने की मूर्खता पर लिखी और दूसरी अपनी इंग्लिश टीचर को सुध-बुध भूलकर एकटक देखते रहने की मूर्खता पर।
साहित्यकार प्रोफेसर हमारे दोनों कारनामों से खुश हुए। उन्होंने हमारी पहली पाँच कविताएँ काॅलेज मैगजीन में छापीं और दूसरी दो कानपुर से ही निकलने वाली एक साहित्यिक पत्रिका में छपवायीं। आश्चर्य कि उन दो कविताओं के छपते ही हम प्रेम के कवि मान लिये गये।
इस प्रकार हमने प्रेम का चौथा पाठ पढ़ा: प्रेम के नाम पर ऐसा बहुत कुछ होता है, जो प्रेम नहीं होता और प्रेम मूर्खता कहलाने पर भी प्रेम ही रहता है।
एम.ए. फाइनल में हमारे साहित्यकार प्रोफेसर हमें मध्यकालीन काव्य और उसका इतिहास पढ़ाते थे। जब से उन्होंने हमारी कविताएँ प्रकाशित करायी थीं, हम उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगे थे। वे प्रगतिवादी माने जाते थे, लेकिन हमें वे खासे परंपरावादी लगते थे। हम से कहते थे, ‘‘अच्छे कवि बनना चाहते हो, तो मध्यकालीन काव्य को ध्यान से पढ़ो। रीतिकाल और भक्तिकाल की कविता को समझे बिना तुम न तो हिंदी कविता को समझ सकते हो, न हिंदी में अच्छी कविता लिख सकते हो--खासकर प्रेम कविता--क्योंकि प्रेम और प्रेम कविता के अच्छे-बुरे तमाम तरह के रूप तुम्हें उसी में मिलेंगे, जिनसे तुम यह सीख सकते हो कि अच्छी प्रेम कविता क्या होती है। और देखो, एम.ए. के पाठ्यक्रम में जितना रीतिकालीन और भक्तिकालीन काव्य लगा हुआ है, उतना ही पढ़ने से दूसरे छात्रों का काम शायद चल जाये, तुम्हारा चलने वाला नहीं है। इसलिए उसे विस्तार से और गहराई से पढ़ो। उसके साथ-साथ उस समय के इतिहास को भी पढ़ो। वह जिन भाषाओं में लिखा गया है, उनके विकास और ह्रास को भी पढ़ो। इसके लिए तुम्हें एक तरफ संस्कृत की तरफ जाकर हिंदी की तरफ आना पड़ेगा और दूसरी तरफ अरबी-फारसी की तरफ जाकर उर्दू तक आना पड़ेगा। और यह काम एक-दो या दस-बीस साल का नहीं, जिंदगी भर का काम है। बड़ा काम है। बोलो, करना चाहोगे?’’
‘‘चाहें, तो क्या कर पायेंगे?’’ हमने डरते-डरते पूछा।
‘‘मन से चाहोगे, तो कर पाओगे।’’
‘‘तो बताइए, कहाँ से शुरू करें?’’
‘‘उर्दू आती है?’’ उन्होंने पूछा, लेकिन अगले ही क्षण शायद हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर बोले, ‘‘कहाँ से आती होगी! लेकिन उर्दू सीखना ज्यादा मुश्किल नहीं है। जल्दी सीख जाओगे। हम अपने एक मित्र का पता तुमको देते हैं। उनके पास चले जाओ। वे उर्दू साहित्य के जानकार ही नहीं, खुद भी उर्दू के शायर हैं। उनको उस्ताद बनाकर उर्दू शायरी पढ़ोगे, तो हिंदी में अच्छी प्रेम कविता लिखना अपने-आप सीख जाओगे।’’
उनके दिये पते पर काॅमरेड अंसारी को खोजते हुए हम जहाँ पहुँचे, वह कानपुर का एक ऐसा इलाका था, जो हमने अभी तक नहीं देखा था। वह औद्योगिक क्षेत्र की एक मजदूर बस्ती थी।
काॅमरेड अंसारी ने हमारा परिचय पाकर स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अहा, आ गये आप! आपके प्रोफेसर साहब ने फोन पर हमें बता दिया था कि आप आयेंगे। कहिए, पहले कभी आप इस तरफ आये हैं?’’
‘‘जी, नहीं।’’
‘‘ठीक तो है!’’ काॅमरेड अंसारी व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोले, ‘‘आप उस कानपुर में रहते हैं, जो इस कानपुर की तरफ कम ही आता है।’’
फिर उन्होंने बताया कि यह एक मजदूर बस्ती है, जो तब बसी थी, जब कानपुर एक बड़ा औद्योगिक शहर बना था; जब कानपुर में एक जबर्दस्त मजदूर संगठन और आंदोलन हुआ करता था; जब कानपुर में रहने वाले गरीब और दूर-पास गाँवों-कस्बों के भूमिहीन किसान और कारीगर पहली बार कारखानों के मजदूर बने थे; जब हर धर्म और हर जाति के लोगों ने मिलकर मजदूर आंदोलन खड़ा किया था और सर्वहारा वर्ग की शुरुआती लड़ाइयाँ लड़ी थीं। यों कानपुर अब भी एक औद्योगिक शहर है और यहाँ ऐसी कई मजदूर बस्तियाँ हैं, मगर वह आंदोलन इतिहास बन गया है, जो शहर के दूसरे हिस्सों को ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित करके अपने होने का अहसास कराया करता था।
काॅमरेड अंसारी उस बस्ती के एक पुराने मगर बड़े-से मकान में रहने वाले संपन्न बुजुर्ग थे। पेशे से वकील थे और सिर्फ मजदूरों के मुकद्दमे लड़ते थे। उनकी बेटियों की शादियाँ हो चुकी थीं और बेटों ने दूसरे शहरों में अपने घर बसा लिये थे। वे खुद यहाँ अपनी बेगम, एक नौकर, एक नौकरानी और अपने दफ्तर के एक सहायक के साथ रहते थे। वकालत अब ज्यादा नहीं चलती थी, फिर भी गुजर-बसर हो रही थी। फालतू वक्त काफी बचता था, सो उसमें वे पढ़ने और लिखने का काम करते थे।
अपने बारे में विस्तार से बताकर उन्होंने हमारे बारे में, हमारी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, हमारे घर-परिवार के बारे में और अंततः हमारे कविता लिखने के बारे में पूछा।
शायद हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से संतुष्ट होकर उन्होंने कहा, ‘‘आप प्रेम की कविता लिखना चाहते हैं, तो प्रेम कीजिए। करते हैं? अभी नहीं? कोई बात नहीं, हम उस प्रेम की बात कर भी नहीं रहे। हम उस प्रेम की बात कर रहे हैं, जो खुद से किया जाता है; जो हमें अपनी खुदी से मिलाता है और बेखुदी तक ले जाता है। खुदी के बारे में इकबाल का शेर आपने सुना होगा--खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।खुदी को बुलंद करने का मतलब है खुद को इतना बड़ा बना लेना कि आप सारी दुनिया से, सारी कायनात से प्यार कर सकें। मगर इसका मतलब खुदा बन जाना या खुद को खुदा समझने लगना नहीं है। खुदा कौन है, क्या है, आप यह जानने के चक्कर में न पड़ें। उसे न कोई जान सका है, न जान ही सकता है। जिस चीज को आप जानते नहीं और जान भी नहीं सकते, वह चीज आप कैसे बन सकते हैं? बन नहीं सकते और फिर भी समझते हैं कि आप वह हैं, तो समझिए कि आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं। खुदी को बुलंद करने का मतलब अहंकार नहीं है, खुद को औरों से या सबसे बड़ा समझने लगना नहीं है; बल्कि खुद को ऐसी ऊँचाई तक ले जाना है, जहाँ से आप सारी कायनात को देख सकें, उसे बाँहों में लेकर उससे प्यार कर सकें। जो वहाँ पहुँच जाता है, वह खुद को भूल जाता है। यही बेखुदी है। और दुनिया भर की अच्छी प्रेम कविता इसी बेखुदी के आलम में लिखी गयी है।’’
इस प्रकार हमने प्रेम का पाँचवाँ पाठ पढ़ा। लेकिन वह ऐसा निकला कि खत्म ही नहीं होता। उसे हम आज तक पढ़ रहे हैं और शायद ताउम्र पढ़ते ही रहेंगे।



107, साक्षरा अपार्टमेंट्स, ए-3, पश्चिम विहार, नयी दिल्ली-110063 मोबाइल: 09818244708

Tuesday, October 10, 2017

मुस्कुराना भी एक प्रतिरोध है


वैसे सुनने में यह अटपटा लग सकता है पर विपरीत और उग्र परिस्थितियों में घटनास्थल पर पहुँच कर खड़े हो जाना और तने हुए चेहरों के बीच मुस्कान बिखेरना भी एक प्रतिरोध है...कुछ महीने पहले ब्रिटेन के बर्मिंघम में गोरे अंग्रेजों के उग्र इस्लाम विरोधी प्रदर्शन के दौरान जब प्रदर्शनकारियों ने एक मुस्लिम युवती को चारों ओर से घेर लिया तो साफ़िया खान नामक युवती ने वहाँ पहुँच कर न सिर्फ़ भीड़ से घिरी युवती को आश्वस्त किया बल्कि बिल्कुल सहज भाव से जेब में हाथ डाले खड़े खड़े मुस्कुरा दी जैसे कुछ हुआ ही न हो...और यह संदेश भी दिया कि हम ऐसी बन्दर घुड़कियों से डरने वाले नहीं।यह प्रदर्शन कट्टर दक्षिणपंथी संगठन इंग्लिश डिफेंस लीग (EDL) ने आयोजित किया था जो मुसलमानों को वहाँ से हटाने की माँग कर रहे थे ।एशियाई देशों से आकर रह रहे नागरिक बहुल बर्मिंघम में इस तरह के प्रदर्शन के खास महत्व हैं और युवती को चारों ओर से घेर कर वे ' यह क्रिश्चियन देश है,तुम्हारा देश नहीं' जैसे जुमले उछाल रहे थे।'द गार्डियन' को भयभीत युवती सायरा जफ़र ने बताया कि नारे चिल्लाने वाली भीड़ ने उसको पकड़  कर इस्लामविरोधी बैनर उसके चेहरे पर लपेट दिया।तभी दूर खड़ी सब देख रही युवती साफ़िया खान दौड़ती हुई वहाँ आयी और आक्रामक प्रदर्शनकारियों को सहज मुस्कुराहट की भाषा में अनूठा जवाब दिया - "हम भी हैं तुम भी हो दोनों हैं आमने सामने...है आग हमारे सीने में हम आग से खेलते आते हैं/टकराते हैं जो इस ताकत से वो मिट्टी में मिल जाते है...."
उस युवती के बचाव में साफ़िया के अचानक बीच में आ जाने पर भीड़ उससे चिपट गयी...प्रदर्शनकारियों के मुखिया ने साफ़िया के गालों पर अपनी उँगलियाँ गड़ा दीं और जोर जोर से चिल्लाते हुए बदले में हाथापाई करने के लिए उसको उकसाने लगा।पर साफ़िया ने अपना आपा नहीं खोया और बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप जेब में हाथ डाले खड़ी मुस्कुराती रही। प्रदर्शनकारियों को इस जवाबी प्रतिरोध से सांप सूँघ गया और उन्होंने उन युवतियों की घेराबंदी तोड़ दी।


इस प्रदर्शन को जाने कितनी पब्लिसिटी मिली पर जोए गिडिन्स की खींची साफ़िया खान के नायाब अहिंसक प्रदर्शन की फ़ोटो पूरी दुनिया में आग की तरह फैल गयी।
फोटोग्राफर ने टाइम पत्रिका की बताया :
"वैसे देखें तो फ़ोटो मामूली सी है - एक प्रतिरोधकर्ता,एक EDL सदस्य और एक पुलिस वाला।पर जब मैंने गौर किया तो प्रतिरोध कर रही युवती के बॉडी लैंग्वेज और उसके चेहरे के भावों पर ध्यान गया...तब मुझे इस फ़ोटो की ताकत का अंदाज हुआ।इस फ़ोटो के इतने प्रभावकारी होने का कारण उस युवती का बॉडी लैंग्वेज है।(साफ़िया)खान एकदम शांत और स्थिर लग रही थी,उसके चेहरे पर मुस्कान थी और उसके हाथ जेब में थे।इसके विपरीत क्रॉसलैंड(प्रदर्शनकारियों का नेता) बेहद क्रोधित और आक्रामक था - यह अंतर्विरोध ही इस फ़ोटो की ताकत है और इसको विशिष्ट बनाता है।उसका बिल्कुल शांत और विश्वासपूर्ण चेहरा...न तो कोई घबराहट न ही डर।"


इस अनूठे प्रतिरोध की फ़ोटो ने पाकिस्तानी बोस्निया मिश्रित मूल की ब्रिटिश की पैदाइशी नागरिक साफ़िया खान को रातों रात एक सेलिब्रिटी बना दिया।साफ़िया कहती हैं कि उस फ़ोटो ने मुझे एक गुमनाम नागरिक से अलग पहचान दे दी पर जब मैं पिछली घटनाएँ याद करती हूँ तो लगता है अच्छा ही हुआ...अब मुझे एक मकसद के लिए काम करना है...अब मैं ब्रिटेन की सड़कों पर नस्ली भेदभाव के विरोध में संघर्ष करूँगी।
"मुझे लगता है कभी कभी चीखने चिल्लाने के बदले सिर्फ़ मुस्कुराना ज्यादा असरकारी होता है", साफ़िया कहती हैं।

प्रस्‍तुति: यादवेन्‍द्र  

Saturday, September 23, 2017

कितना लंबा इंतज़ार

कथादेश के सितम्बर अंक में छपे हमारे मित्र और इस ब्लाग के सहलेखक  यादविन्द्र जी की डायरी के कुछ अंश पुनः प्रकाशित हैं पढ़ें और अपनी बेबाक राय दें। 
वि गौ




आज सुबह सुबह सैर के वक्त एक दिलचस्प लेकिन ठहर कर सोचने के लिये प्रेरित करने वाली घटना हुई -- एक मामूली कपड़े पहने आदमी ने(बाद में बातचीत से मालूम हुआ प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड का काम करता है) अनायास मुझे रोका और सड़क पर पड़े हुए दस रुपये के नोट को दिखा कर पूछा :"सर, ये नोट कहीं आपकी जेब से तो नहीं गिर गया ?"ताज्जुब भी हुआ कि दूर से वः मुझे आता हुआ देख रहा था और वहाँ पहुँचने पर पूछ रहा है कि नीचे सड़क पर पड़ा नोट मेरा तो नहीं है..... गिरने की गुंजाइश तो तब होती जब मैं वहाँ से होते हुए आगे बढ़ गया होता। मैंने इन्कार किया तो उसने उसी  कंसर्न के  साथ पीछे आते व्यक्ति को रोक कर यही सवाल पूछा ।फिर एक और ....और ....और। मुझे इस खेल में मज़ा आने लगा था सो वहीं ठहर गया।इनकार करने वाले लोगों की गिनती जब बढ़ती गयी तब मैं उस से इस मसले की बाबत पूछने लगा ...  उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले वह रात की सिक्युरिटी गार्ड की ड्यूटी पूरी करके वापस घर लौट रहा था तो अचानक उसकी निगाह सड़क पर पड़े इस दस रु के नोट पर पड़ गयी  ....और तब से वह उस आदमी को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसकी जेब से अनजाने में यह नोट फिसल कर सड़क पर आ गिरा ..... ठिकाने पर पहुँच कर ,या आगे कहीं रुक कर उसको  नोट की ज़रूरत पड़ी होगी तो बेचारा परेशान हो रहा होगा - कहीं किसी मुसीबत में न हो। मालूम हो जाये किसका है यह नोट तो मैं उसके घर जाकर पहुँचा दूँ। 
उसकी बात में कहीं कोई दिखावा या नाटक नहीं था ,यह उसके चेहरे पर छाये हाव भाव से साफ़ झलक रहा था।मैं भी खड़ा होकर लौट आने वाले  का इंतज़ार करने लगा ,मुझे देखकर रोज रोज की पहचान वाले दो तीन और लोग ठहर गए।    
 "मैंने सोचा इतने सारे लोग इस सड़क से गुज़र रहे हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि किसी की नज़र उस नोट पर न पड़ी हो .... मैं पहला इंसान तो नहीं हूँ जो सड़क पर पड़े इस नोट को देख रहा है। हो सकता है जिसका नोट  गिरा हो वह उसको ढूँढ़ता हुआ पलट कर इसी रास्ते आ रहा हो। मैंने पहले सोचा था वहाँ से गुज़रते हुए दस आदमियों से नोट के बारे में पूछ कर देखूँगा ,इतने समय में ज़रूर नोट का मालिक मिल जायेगा..... दस की गिनती पूरी होने पर सोचा और दस लोगों से पूछ लूँ --  मेरा क्या है ,घर ही तो जाना है मैं घंटे भर बाद भी घर पहुँच  जाऊँगा तो कुछ नुक्सान नहीं होना ,पर एक दो मिनट से कोई गरीब अपना खोया हुआ पैसा फिर से हासिल करने से चूक जाये तो बहुत बुरा होगा।सर ,आप सत्रहवें आदमी हो जिनसे मैंने पूछ कर अपनी आत्मा की भरपूर तसल्ली कर ली .....फिर भी मेरा मन मानता नहीं।  "
मैं थोड़ी दूर से खड़ा खड़ा देखता रहा कि बीस की गिनती पार कर के वह व्यक्ति हताश होकर अपनी साइकिल के साथ साथ दूर तक पैदल चलने लगा पर हर दो कदम पर पीछे मुड़ मुड़ कर उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहा --- शायद उसको लापरवाही में दस का नोट जेब से गिरा चुके अभागे के लौट कर आ जाने का इन्तज़ार अब भी था।
"ठरकी है साला ....खुद उसकी जेब से गिर गया होगा नोट और अब सिम्पैथी के लिये नाटक कर  
रहा है ..... लगता है दस का नोट नहीं कोहिनूर हीरे की अँगूठी गिर गयी हो। "कहते हुए एक साहब वहाँ से इस अंदाज में आगे बढ़े कि किसी ने उनका हाथ पकड़ कर तमाशा देखने को रोक लिया हो और तमाशा हुआ ही नहीं - टाँय टॉय फिस्स !
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अपने प्रोफेशनल काम से मुझे सड़क यात्रा बहुत करनी होती है ,ख़ास तौर पर पहाड़ पर…… मैदानी क्षेत्रों में भी। आम तौर पर नौजवान ड्राइवर तेज गति से  गाड़ियाँ चलाते हैं और जबतक आप उनको रुकने के लिये मनायें तबतक दो सौ चार सौ मीटर आगे बढ़ चुके होते हैं - फिर पीछे मुड़कर लौटना बहुत भारी पड़ता है … और कई बार तो जबतक आप पीछे लौटें तबतक परिदृश्य पूरा बदल चुका होता है। 
अभी कल सुबह सुबह की बात है ,हम लखनऊ से अयोध्या जा रहे थे -फूलगोभी के लम्बे चौड़े खेत लगभग वर्गाकार बिलकुल एक आकार के दिखाई दे रहे थे और भोर की ओस के ऊपर सुनहरी धूप  पड़ने पर मोहक रंग बिखेरते पौधे बार बार बरबस अपनी ओर ध्यान खींच  रहे थे .....  मैं उनकी कुछ तस्वीरें लेने की सोच रहा था। ज्यादातर खेत सड़क से थोड़ी दूर अंदर थे और मैं धीरज रख कर किसी बिलकुल सड़क किनारे खेत का इंतज़ार कर रहा था ..... पर इंतज़ार करते करते जब धीरज खो बैठा तब देखा ,गोभी के खेतों का स्थान केले के बागानों ने ले लिया है। पूछने पर ड्राइवर पारस ने बताया अब आपको गोभी के खेत नहीं मिलेंगे ,वह इलाका बीत चुका है। 

एक जगह खेत से भाप का चमकता हुआ बगूला जैसे उठ रहा था उसने मुझे मनाली से लेह जाने वाले लगभग रेगिस्तानी रास्ते के गंधक तालाबों की याद आई जिनसे उठती हुई ऐसी ही भाप दूर से दिखाई देती है - सुबह सुबह की सुनहरी धूप उसको और चमका देती है । दरअसल जुते हुए खेत में सिंचाई के लिए डाले जाते पानी से उठती भाप दूर से दिखाई दे रही थी पर जब खाली सड़क पर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से भागते हुए हम आगे निकल गए तो मन को मना लिया कि आगे फिर देख लेंगे - आगे हम इंतज़ार करते ही रहे ,पर साध कहाँ पूरी हुई। 

जीवन ऐसी ही स्मृतियों की अनवरत श्रृंखला है - लपक कर जिसको पकड़ लिया वह तो जैसे तैसे हाथ आ जाता है .... और जो छूट गया सो छूट गया।     

मेरी कवि मित्र ने उन्हीं दिनों किसी शायर की एक शानदार नज़्म मुझे भेजी थी जो कल वाली घटना पर बिलकुल सटीक बैठती है :

ज़रूरी बात कहनी हो 
कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …… 
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मेरी अम्मा अस्सी के आसपास पहुँच रही हैं पर शरीर की सीमाओं को स्वीकार करते हुए मन से  अब भी एकदम युवा हैं - चाहे कहीं घूमने का मौका हो या फ़िल्म देखने का। बहते हुए पानी को देख कर  पिछली बार यहाँ आने तक वे भी वैसे ही मचला करती थीं जैसे उनके बेटे की बेटी का बेटा पलाश। पिछले हफ़्ते जब हमने हरिद्वार घूमने का नाम लिया तो तैयार तो वे फ़ौरन हो गयीं पर वहाँ पहुँचने के बाद नहाने को कहने पर ना नुकुर करने लगीं - यह अम्मा के स्वभाव से बिलकुल उलट था।पहले हरिद्वार ऋषिकेश जाने पर कोई और गंगा में उतरे या न उतरे अम्मा और उनका यह बेटा ज़रूर उतरता था। जब बहुत ज़िद कर के मेरी बहन उनको सीढ़ियाँ उतार कर नीचे पानी तक ले आयी तो उन्होंने हिचकिचाने का कारण बताया -- अप्रैल मई के महीनों में पटना में महसूस होने वाले भूकम्प के झटकों और सब कुछ तहस नहस कर डालने वाले दुनिया के सबसे बड़े भूकम्प आने की अफ़वाहों के बीच कई बार घुटनों की तकलीफ़ के बावज़ूद उन्हें बदहवासी में जैसे घर की सीढ़ियों से कूदते फाँदते हुए रात बिरात उतरना पड़ा उस से उनको किसी भी हिलती चीज़ से हिलती हुई धरती का एहसास होने लगता है। पानी की तेज़ धार के साथ उस दिन अम्मा की बड़ी संक्षिप्त मुलाकात हुई …मैं सोचता रहा वास्तविक भूकम्प के केन्द्र से सैकड़ों मील दूर (भूकम्प का केन्द्र नेपाल की सुदूर पहाड़ियों में बताया जा रहा था ) रह रही बेहद दृढ़ निश्चयी और साहसी अम्मा के मन में जब इतनी दहशत बैठ गयी तो महाविनाश के केन्द्र में रहने वाले अभिशप्तों के मन की दशा कितनी डाँवाडोल होगी।
मन की अंदरूनी परतों में दुबक कर बैठे डर मौका मिलते ही कैसे सिर उठाते फुफकारते हैं ....    =============
मामूली चीजें भी आपको कभी कभी एकदम हतप्रभ कर देती हैं … बात पुरानी है , बीसियों साल पहले रेल से पटना से रुड़की आते हुए लक्सर स्टेशन पड़ने पर अम्मा ने बाल सुलभ सरलता से मुझे बताया था कि बचपन में अपने नाना के साथ वे महीने भर के लिए पहली बार रेल पर चढ़ कर गृह शहर आरा (बिहार) से हरिद्वार आयी थीं --- रास्ते में पहले तो बक्सर( आरा से महज पचास किलोमीटर) पड़ा और नौ सौ किलोमीटर और चलने के बाद लक्सर स्टेशन दिखाई दिया। स्कूल में मास्टरजी ने उन्हीं दिनों दुनिया गोल है वाला पाठ पढ़ाया था और कहा था कि इसका प्रमाण यह है कि किसी स्थान से यदि यात्रा शुरू की जाए तो चलते चलते मुसाफ़िर उसी स्थान पर दुबारा पहुँच जाएगा --- बच्ची अम्मा नींद से उठी उठी थीं और लक्सर बक्सर के एक ही होने की उलझन में आसानी से उलझ गयी थीं.... जहाँ से चली थीं इतनी लम्बी यात्रा के बाद फिर वहीँ पहुँच गयीं ( ब के बदले गलती से ल भी तो लिखा जा सकता है )…… उनको पक्का प्रमाण मिल गया ,सचमुच दुनिया गोल है।  
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कल रात निकोलस इवांस के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास "द हॉर्स व्हिस्परर" पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म फ़िर से देखी -- शायद पाँचवी बार।उसका राउल मेलो की भावपूर्ण आवाज़ में गाया "ड्रीम रिवर" गीत हर बार की तरह मन में इस बार भी कहीं ठहर गया …… एक चलताऊ अनुवाद ,जिसने साँस लेने की गुंजाइश बनायीं और मन हल्का किया : 


सपनों की नदी में डूबते उतराते
ऊपर छाये हुए चाँद सितारे 
आस लगाये हूँ उनसे मदद की 
कि दिलवा दें प्रेम तुम्हारा 
पूरा पूरा अ टूट ....

कालिमा की अंतिम कोठरी में सोया हूँ 
तुम्हें बाँहों में समेटे होने के ख़्वाब देखता ....
काश, यह सपना सच हो जाता 
और ऊपर से नीचे तक तर जाता मेरा मन। 

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता  

सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  

नहीं चाहता पल पल बीती जाये ये रात  
और मैं रह जाऊँ तुम बिन ,बिलकुल नहीं चाहता .......   
सपनों की नदी में डूबते उतराते
सोचता हूँ तुम साथ हो बिलकुल बगल में …  
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।    
जानता हूँ फ़कत चाहत के सिवा यह कुछ नहीं  
फ़िर भी इतना करो 
कि नींद में रहने दो, जगाओ मत मुझे।  
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कोई पंद्रह दिन पहले की बात होगी - एक मित्र के साथ सुबह सात बजे चाय पीने का वायदा था ,वे रिटायर होकर शहर छोड़ रहे थे। मैं अपने हिसाब से उठा और घूमने के लिए दरवाजे से बाहर निकल ही रहा था कि बहन का फ़ोन आ गया। फ़ोन पर बात करते करते मैं घर के आहाते से बाहर निकल आया और घूमता टहलता मित्र के घर पहुँच गया। बातचीत के दौरान मेरे दूधवाले का फोन आया तब मुझे मालूम हुआ कि मुझसे दरवाज़ा बगैर ताले के खुला ही छूट गया है। जल्दी जल्दी मैं रास्ते भर अपने बुढ़ापे और याददाश्त के क्षरण के बारे में सोचता सोचता घर लौटा - अपने भुलक्कड़पन को सोचते सोचते कुछ साल पहले आरएसएस के पूर्व प्रमुख सुदर्शन जी के बारे में पढ़ी एक खबर याद आ गयी जब वे ऐसे ही सुबह की सैर को निकले और अपना पता ठिकाना भूल पीने का पानी ढूँढ़ते हुए किसी अजनबी घर जा बैठे। वे बड़े आदमी थे,बात पुलिस तक पहुँची और उन्हें सुरक्षित  घर पहुंचा दिया गया। मुझे बार बार यह लगता रहा कि मेरे साथ ऐसा हो जाए तो क्या होगा - अपने शहर में तो लोग पहचान लेंगे पर किसी दूसरे शहर में ???????
बरसो पहले पढ़ी और सहेज कर रखी बिली कॉलिन्स की चर्चित कविता "विस्मरण" कुछ ऐसे ही पलों का बड़ा मार्मिक विवरण देती है :

"सबसे पहले लेखक का नाम गुम होता है
और लगता है जैसे डूबते डूबते उसने समझाया  हो 
किताब के नाम को .... विषय को ... और दारुण अंत को भी 
कि चलते चले आओ पदचिह्न ढूँढ़ते मेरे पीछे पीछे 
और पल भर भी नहीं लगता पूरे उपन्यास को विस्मृत होते 
जैसे पढ़ना तो बहुत दूर, सुना भी न हो उसका नाम कभी इस जीवन में 
 
जो जो भी आप याद करने का यत्न करते हैं 
दिमाग पर भरपूर जोर डाल के 
सब का सब बच कर दूर छिटक जाता है आपकी ज़बान से
या कि आपकी तिल्ली (spleen) के किसी अंधेरे कोने में 
रुक रुक कर जुगनू सरीखा टिमटिमाता रहता है......

कोई अचरज नहीं कि आधी रात अचानक आपकी नींद उचट जाये 
और आप किताबों में ढूँढने लगें किसी ख़ास लड़ाई की तारीख़ 
कोई अचरज नहीं कि आपको अनमना देख  
खिड़की से बाहर दिख रहा चन्द्रमा 
आँख बचा कर भाग जाये उस प्रेम कविता से भी बाहर
जो आजीवन आपके मन में बोलती बतियाती रही...."

मुझे इस हिंसक समय में प्रेम कविताओं के विस्मृत हो जाने का बड़ा डर सताने लगा है उस दिन से .....
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 कल शाम दिल्ली से लौटते हुए एफ़ एम रेडियो पर एक ग़ज़ल इतनी दिलकश जनाना आवाज़ में कानों में पड़ी कि लगा थोड़ी देर के लिए जीवन उलट पलट हो गया - सड़क के शोर शराबे के कारण शब्द शब्द सुनना और समझना उस तसल्ली से नहीं हो पाया जिस से मैं चाह्ता था। पहले तो मुझे लगा कि ड्राइवर राधेश्याम ने अपने पेनड्राइव कलेक्शन से यह ग़ज़ल सुनायी ,सो उसको दुबारा बजाने को कहा। पर जब मालूम हुआ कि रेडियो पर आ रही थी तो इंटरनेट पर ढूँढ़ने लगा और गूगल सर्च के पहले पन्ने पर 1994 की फ़िल्म "विजयपथ" का इन्दीवर का लिखा और अलका याग्निक का गाया गीत हाथ लगा। मेरी स्मृति ने इन्दीवर वाला गीत स्वीकार करने से मना कर दिया और वह आवाज़ भी अलका जी की नहीं थी। आज सुबह जब मुझे अंदलीब शादानी की यह मूल ग़ज़ल हाथ लगी तब इन्दीवर जी की खिचड़ी सामने आ गयी। पर अब भी यह पता नहीं लग पाया कि कल मैंने किसकी दिलकश आवाज सुनी थी : आस ने दिल का हाल न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो .... घबराने का ऐसा भी अनूठा अंदाज़ हो सकता है ,मुझे इल्म भी न था। बहरहाल यह ग़ज़ल :


देर लगी आने में तुमको  शुक्र है फिर भी आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा  वैसे हम घबराये तो…

शफ़क़ धनुक महताब घटायें  तारे नग़मे बिजली फूल 
इस दामन में क्या क्या कुछ है  दामन हाथ में आये तो ....

चाहत के बदले में हम बेच दें अपनी मर्ज़ी तक 
कोई मिले तो दिल का गाहक  कोई हमें अपनाये तो … 

क्यूँ ये मेहर अंगेज़ तबस्सुम मद्द ए नज़र जब कुछ भी नहीं 
हाय!! कोई अनजान अगर  इस धोखे में आ जाये तो…

सुनी सुनाई बात नहीं ये  अपने ऊपर बीती है 
फूल निकलते हैं शोलों से  चाहत आग लगाये तो …

झूठ है सब तारीख़ हमेशा  अपने को दोहराती है 
अच्छा मेरा ख़्वाब ए जवानी  थोड़ा सा दोहराये तो…

नादानी और मज़बूरी में यारों कुछ तो फ़र्क करो 
एक बे आस इंसान करे क्या  टूट के दिल आये तो .... 

                                                       ---- अंदलीब शादानी 
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लम्बे अरसे बाद हमारे पच्चीस तीस साल पुराने मित्र ( जब हम मिले थे तो ये मस्तमौला कुँवारे थे ,उनकी शादी में शामिल होने वालों में मैं भी था और अब उनकी बड़ी बिटिया  पंतनगर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने को है) नवीन कुमार नैथानी कल शाम घर आये ..... ढेर सारी गप्पें हमने मारीं और उनके सात आठ महीनों से स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहने की विस्तार से चर्चा सुनी ....  फिर हरिद्वार जाकर कवि कथाकार सीमा शफ़क के घर खूब स्वादिष्ट भोजन किया। वैसे तो नवीन बेतक़ल्लुफ़ी में विश्वास करने वाले इंसान हैं पर घर से दूर रहने पर जब बगैर रोकटोक तबियत से खाना खाने के बाद उन्होंने "तृप्त हो गया" कहा तो सत्कार करने वाली सीमा के चेहरे पर भी तृप्ति और संतुष्टि का भाव झलक पड़ा। आज सुबह की सैर करते नवीन ने शुरूआती दिनों को याद करते हुए मज़ेदार बात बताई  कि बचपन में उनकी रूचि साइंस में बिलकुल नहीं थी पर स्व मनोहर श्याम जोशी के सम्पादन में "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में डॉ वागीश शुक्ल की क्वांटम फ़िजिक्स पर छपी लेखमाला पढ़ कर वे विज्ञान की ओर आकर्षित हुए - वे डाकपत्थर के सरकारी स्नातकोत्तर कॉलेज में फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। इसी क्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक इसाक असिमोव की उसी पत्रिका में छपी एक कहानी "टेक ए मैच" का ज़िक्र बड़े मज़ेदार अंदाज़ में किया। इस कहानी में एक अंतरिक्षयान के बादलों के विशाल समूह के बीच फँस जाता है जिसके कारण अपेक्षित मात्र में ईंधन नहीं बन पा रहा है - धरती से लाखों किलोमीटर दूर वापस लौटना संभव नहीं है और आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त ईंधन भी है नहीं।  यान में सफ़र कर रहे लोगों की जान पर बन आई है और यान के ईंधन की जिम्मेदारी जिस विशेषज्ञ फ़्यूज़निस्ट पर है उसको कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है और वह अपनी नाकामी के चलते अपनी मूँछ भी नीची नहीं होने देना चाहता। यान में बैठे एक साइंस टीचर को इस गड़बड़ी का आभास हो जाता है और विज्ञान पढ़ाने के अभ्यास से विकल्प भी सूझ जाता है - कि माचिस की तीली को जलाने जैसी पुरातनपंथी क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है उसकी मदद लें तो थोड़ी मात्र में जिस ईंधन की दरकार है वह प्राप्त हो सकती है।असमंजस में पड़ा हुआ  फ़्यूज़निस्ट टीचर की बताई तरकीब अपनाता है और यान संकट से निकलने में कामयाब हो जाता है...पर यान के कैप्टन और   फ़्यूज़निस्ट की साख बनी रहे इसलिए आशा की किरण दिखाने वाले साइंस टीचर को घर में नज़रबंद कर दिया जाता है। नवीन को  फ़्यूज़निस्ट के बारे में लेखक का यह कथन हू ब हू याद था :"ए स्पेशलिस्ट ऑलवेज़ लिव इन स्पेशलिटीज़"....... अपनी बीमारी के शुरूआती दौर में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के एक दायरे में बंध कर रह जाने और अन्य संभावनाओं को न तलाशने की बात बताते हुए नवीन भाई को असिमोव याद आये और जिस सरसता के साथ उन्होंने सुबह मुझे यह बात बताई वह कोई कहानीकार ही बता सकता है। उनकी कहानियों का जो सकारात्मक जादुई संसार है उसकी जड़ें नवीन की पूरी शख्सियत में फैली हुई हैं ..... उनकी द्रौपदी के चीर सरीखी बातों को  सुनना एक ट्रीट है। 
अभी इस एक बात के साथ बस ... बाकी बातें फिर कभी और ..... नवीन भाई जल्द से जल्द खाने पीने के परहेज से बाहर आयें और जोरदार ठहाके लगाते हुए मिलें ,शुभ कामनायें। 
नोट : जब मैंने आज दो तीन बार उन्हें बिना चीनी की चाय पिलाई तो उन्होंने राज की यह बात भी बताई कि पहले एक मामला ऐसा था जब पत्नी के सामने झूठ बोलना पड़ता था ....अब तो वह भी छूट गया।           
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घर की भौतिक शक्ल सूरत को लेकर भले ही कितना  कुछ लिखा कहा जाए पर चार दीवारों और छत वाले एक अदद घर के अंदर व्याप्त भावनात्मक निष्ठा व ऊष्मा की अनुपस्थिति को समझे बगैर घर के मायने को समझ पाना मुमकिन नहीं होगा। अपनी किशोरावस्था में पढ़ी उषा प्रियंवदा की कहानी "वापसी" मुझे कई दिनों तक इसलिये हैरान परेशान किये रही कि गजाधर बाबू के किरदार का नौकरी से रिटायर होकर घर लौटना  और चंद दिनों में ही इस तरह उसको छोड़ कर चल देना उस अनुभवहीन अवस्था में गले नहीं उत्तर रहा था .... पर जैसे जैसे दीन दुनिया देखता गया वैसे वैसे उनके बर्ताव की असलियत मेरे मन में खुलती गयी- अपने ढर्रे पर चल रहे घर में चारपाई की तरह उनकी दैहिक उपस्थिति के असंगत लगने का मर्म समझ में आने लगा।कहानी का सिर्फ़ एक वाक्य " घर में गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।" घर और मकान के बारीक अंतर को समझाने के लिए पर्याप्त है - कोई चालीस साल पहले पढ़ी कहानी का यह वाक्य मुझे अब भी अक्षरशः याद है। 
बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास "सारा आकाश" पर इसी नाम की फ़िल्म बना कर उसकी कई परतें और खोलीं - फ़िल्म निर्माण के दौरान उपयुक्त घर खोजने की पूरी कहानी राजेंद्र यादव ने बयान की है और लिखा भी है कि "घर बोलता है "...... पुरातन संस्कारों से जकड़े खोखले आदर्शवाद का पनपना अंधेरे भुतहे घरों के अंदर खूब होता है और इस परिवेश में क्या मज़ाल कि आधुनिक समय की ताज़ा हवा प्रवेश कर जाये। इस फिल्म में समर का कॉलेज से घर लौटते हुए साइकिल चलाना बेहद संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है - शुरूआती उत्साह घर के पास आते आते कितना थका थका और सुस्त हो जाता है यह बेमन से ढोये जाने वाले रिश्तों की बर्फ़ीली  ईंट गारे मिट्टी के निर्माण को घर कहने की परिपाटी पर गंभीर सवाल उठाता है। 
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प्रसिद्ध ग्रीक कवि यिआन्निस रित्सोस ने लिखा :

मुझे मालूम है हम में एक एक को
कदम बढ़ाना पड़ता है प्रेम की राह पर अकेले ही 
वैसे ही आस्था के रास्ते 
और मृत्यु को जाते रास्ते पर भी 
मैं अच्छी तरह जानता हूँ 
कोशिश तो बहुतेरी की पर कर नहीं पाया कुछ  .
अब मैं एकाकी नहीं 
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ 
चलोगी प्रिय? 

Thursday, April 13, 2017

अम्‍बेडकर को याद करते हुए

14 अप्रैल अम्‍बेडकर को याद करने का दिन है। जाति विषमता के विरूद्ध अम्‍बेडकर ने जो लड़ाई लड़ी है, उसे याद करने और आगे बढ़ाने का दिन है। इस मौके पर मार्टिन लूथर किंग की याद किसी भी तरह के विभेद के विरूद्ध जारी मुहिम को ही वैश्विक स्‍तर पर देखने की ही कोशिश है। भारतीय समाज में जाति की संरचना ने भी एक बड़े कामगार वर्ग को गुलामी की दास्‍ता में न सिर्फ जकड़ा बल्कि गुलामी का जीवन जीने वालों को उसे स्‍वीकारते रहने की मन:स्थिति में भी पहुंचाये रखा। 

मेरा एक सपना है 

                             मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 

इस घटना के सौ साल बीत चुके पर आज भी नीग्रो  गुलामी से मुक्त नहीं हुआ....वह आज भी अलगाव और भेद भाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त है.सौ साल बीत जाने के बाद भी नीग्रो आज भौतिक सुख सुविधाओं और समृद्धि के विशाल महासागर के बीच में तैरते हुए निर्धनता के एक टापू पर गुजार बसर कर रहा है...अमेरिकी समाज के कोनों अंतरों में नीग्रो आज भी पड़े पड़े कराह रहे हैं और कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि उनको अपने ही देश में निर्वासन की स्थितियों में जीना पड़ रहा है. हम आज यहाँ इसी लिए एकत्रित हुए हैं कि इस शर्मनाक सच्चाई पर  अच्छी तरह से  रौशनी डाल सकें.

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि हम अपने देश की राजधानी में इसलिए एकत्र हुए हैं कि एक चेक कैश करा सकें. जब हमारे देश के निर्माताओं ने संविधान और आजादी की घोषणा का मजमून स्वर्णाक्षरों में  लिखा था तो वे दरअसल एक  रुक्का देश के हर नागरिक के हाथ में उत्तराधिकार के तौर पर थमा गए थे.इसमें लिखा था कि हर एक अदद शख्स -- चाहे वो गोरा हो या काला -- इस देश में जीवन, आजादी और ख़ुशी के लिए बराबर का हकदार होगा.

यह हम सबके सामने प्रत्यक्ष है कि पुरखों द्वारा दिया गया यह रुक्का आज इस देश के अश्वेत लोगो के लिए मान्य नहीं है...इसकी अवहेलना और बे इज्जती की गयी है. इस संकल्प की अनदेखी कर के नीग्रो  लोगों के चेक यह लिख कर वापिस लौटाए जा रहे हैं कि इसको मान्य करने के लिए कोश में पर्याप्त धन नहीं है.

पर हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि न्याय के बैंक की तिजोरी खाली होकर दिवालिया घोषित हो गयी है.हम ये कैसे मान लें कि अपार वस्रों वाले  इस देश में धन की  कमी पड़ गयी है?

इसको देखते हुए हमलोग आज यहाँ इकठ्ठा हुए हैं कि अपना अपना चेक भुना सकें-- ऐसा चेक जो हमें आजादी और न्याय की माँग करने का हक़ दिलवा  सके. हम इस पावन भूमि पर आज इसलिए आये हैं कि अमेरिका को अपनी समस्या की गंभीरता और तात्कालिक जरुरत का भान करा सकें.अब सुस्ताने या नींद की गोलियां खा के निढाल पड़े रहने का समय नहीं है.

अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को वास्तविकता का जामा  पहनाया जाये...अब समय आ गया है कि अलगाव की अँधेरी और सुनसान गलियों से निकल कर हम रंग भेद के विरुद्ध सामाजिक न्याय के प्रशस्त मार्ग की ओर कूच करें... यह समय है चमड़ी के रंग को देख कर अन्याय किये जाने की नीतियों से इस देश को मुक्त कराने का जिस से हमसब भाईचारे के ठोस और मजबूत धरातल पर एकसाथ खड़े हो सकें....यही वो अवसर है जब ईश्वर के सभी संतानों को न्याय दिलाने के सपने को साकार किया जाये.

हमारा देश यदि इस मौके की फौरी जरुरत की अनदेखी करता है तो यह उसके लिए प्राणघातक भूल होगी. नीग्रो समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों की  झुलसा देने वाली गर्मी की ऋतु  तब तक यहाँ से टलेगी नहीं जबतक आजादी और बराबरी की सुहानी  शरद  अपने जलवे नहीं बिखेरती.

उन्नीस सौ तिरेसठ किसी युग का अंत नहीं है...बल्कि यह तो शुरुआत है.

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नीग्रो समुदाय के असंतोष की हवा सिर्फ ढक्कन उठा देने से बाहर निकल जाएगी और सबकुछ शांत और सहज हो जायेगा,उन्हें अब बड़ा गहरा  धक्का लगेगा...यदि बगैर आमूल चूल परिवर्तन  किये देश अपनी रफ़्तार से चलने की जिद करेगा.अमेरिका में तबतक न तो शांति होगी और न ही स्थिरता जबतक नीग्रो समुदाय को सम्मानजनक नागरिकता का हक़ नहीं दिया जाता.न्याय की  रौशनी से परिपूर्ण प्रकाशमान दिन जबतक क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई नहीं देगा तबतक बगावत की आँधी इस देश की नींव  को जोर जोर से झगझोरती  रहेगी

पर इस मौके पर मुझे अपने लोगों से भी यह कहना है कि न्याय के राजमहल के द्वार पर दस्तक देते हुए यह कभी न भूलें कि अपने  अधिकारपूर्ण और औचित्यपूर्ण स्थान पर पहुँचने के क्रम में वे कोई गलत या अनुचित कदम उठाकर पाप के भागीदार न बनें. आजादी की अपनी भूख और ललक  के जोश में हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि कहीं हम कटुता और घृणा के प्याले को उठा कर अपने होंठों से लगाने लगें... हमें अपना संघर्ष शालीनता और अनुशासन के उच्च आदर्शों के दायरे में रहकर ही जारी रखना पड़ेगा.हमें सजग रहना होगा कि हमारा  सृजनात्मक विरोध कहीं हिंसा में न तब्दील हो जाये...बार बार हमें रुक कर देखते रहना  होगा कि यदि कहीं से भौतिक हिंसा राह रोकने के लिए सामने आती भी है तो उसका मुकाबला हमें अपने आत्मिक बल से करना होगा. आज नीग्रो समुदाय जिस अनूठे उग्रवाद के प्रभाव में है उसको समझना होगा कि सभी गोरे लोग अविश्वास के काबिल नहीं है...आज यहाँ भी अनेक गोरे लोग अपनी 
आज यहाँ भी कई गोरे भाई यहाँ दिखाई दे रहे हैं...जाहिर है उनको एहसास है कि उनकी नियति हमारी नियति से अन्योन्यास्रित ढंग से जुड़ी हुई है.वे यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हमारी आजादी के बगैर उनकी आजादी कोई मायने नहीं रखती.

यह एक सच्चाई है कि हम अकेले आगे नहीं बढ़ सकते.इतना ही नहीं हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि जब हमने आगे कदम बढ़ा दिए हैं तो अब  पीछे नहीं मुड़ेंगे..हम पीछे मुड़ ही नहीं सकते.
ऐसे लोग भी हैं जो नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से पूछते है: आखिर तुम संतुष्ट कब होओगे?
जबतक एक भी नीग्रो पुलिस की अकथनीय न्रिशंसता का शिकार होता रहेगा, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक लम्बी यात्राओं से हमारा थकाहारा शरीर राजमार्गों के मोटलों  और शहरों के होटलों  में  टिकने का अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता,हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक एक नीग्रो की उड़ान एक छोटे घेट्टो से निकल कर बड़े घेट्टो पर समाप्त होती रहेगी, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.जबतक हमारे बच्चे अपनी पहचान से वंचित किये जाते रहेंगे और "सिर्फ गोरों के लिए "लिखे बोर्डों की मार्फ़त उनकी प्रतिष्ठा पर आक्रमण किया जाता रहेगा, हम भला कैसे संतुष्ट हो सकते हैं.

जबतक मिसीसिपी में नीग्रो को वोट देने का हक़ नहीं मिलता और न्यूयोर्क में रहनेवाला नीग्रो यह सवाल पूछता रहे कि देश के चुनाव में  ऐसा क्या है कि वो वोट डाले...तबतक हम संतुष्ट नहीं हो सकते....नहीं नहीं,हम संतुष्ट बिलकुल नहीं हो सकते...तबतक संतुष्ट नहीं हो सकते जबतक इन्साफ पानी की तरह बहता हुआ हमारी ओर न आये...न्यायोचित नीतियाँ जबतक एक प्रभावशाली नदी की मानिंद यहाँ से प्रवाहित न होने लगे.

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपमें से कई लोग ऐसे हैं जो लम्बी परीक्षा और उथल पुथल को पार करके यहाँ आये हैं ...कुछ ऐसे भी हैं जो सीधे जेलों की तंग कोठरियों से निकल कर आये हैं... अनेक ऐसे लोग भी हैं जो पुलिस बर्बरता और प्रताड़ना की गर्म आँधी से लड़ते हुए अपने अपने इलाकों से यहाँ तक आने का साहस जुटा पाए हैं.

सृजनात्मकता से भरपूर यातना क्या होती है ये कोई आपसे सीखे...आप इस विश्वास से ओत प्रोत होकर काम करते रहें कि यातना अंततः मुक्ति दायिनी ही होती है

आप वापस यहाँ से मिसीसिपी जाएँ..अलबामा जाएँ.. साऊथ कैरोलिना जाएँ...जोर्जिया जाएँ...लूसियाना जाएँ...उत्तरी भाग के किसी भी स्लम या घेट्टो में जाएँ...पार यह विश्वास लेकर वापिस लौटें कि वर्तमान हालात बदल सकते हैं और जल्दी ही बदलेंगे.

हमलोगों को हताशा की घाटी में लुंज पुंज होकर ठहर नहीं जाना है...आज की  इस घड़ी में  मैं आपसे कहता हूँ मित्रों कि आज और बीते हुए कल की मुश्किलें झेलने के बाद भी मेरे मन के अंदर एक स्वप्न की लौ जल रही है...और यह स्वप्न की जड़ें  वास्तविक अमेरिकी स्वप्न  के साथ जुड़ी हुई हैं.

मेरे स्वप्न है कि वह दिन अब दूर नहीं जब यह देश जागृत होगा और अपनी जातीय पहचान के वास्तविक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरेगा की " हम इस सत्य को सबके सामने फलीभूत होते हुए देखना चाहते हैं कि इस देश के सभी मनुष्य बराबर पैदा हुए हैं."

मेरा स्वप्न है कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब जोर्जिया के गुलामों के बच्चे और उनके मालिकों के बच्चे एकसाथ भाईबंदी के टेबुल पर बैठेंगे.

मेरा स्वप्न है कि वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और दमन की ज्वाला में झुलस रहे मिसीसिपी राज्य तक में आजादी और इंसाफ का दरिया बहेगा.

मेरा स्वप्न है कि मेरे चारो बच्चे एक दिन ऐसे देश की हवा में साँस लेंगे जहाँ उनकी पहचान उनकी  चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्रों की ताकत से की जाएगी

आज के दिन मेरा एक स्वप्न है...

मेरा स्वप्न है कि रंगभेदी दुर्भावनाओं से संचालित अलाबामा जैसे राज्य में भी-- जहाँ का गवर्नर अड़ंगेबाजी और पूर्व घोषणाओं से मुकर जाने के लिए बदनाम है -- एकदिन नन्हे अश्वेत लड़के और लड़कियां गोरे बच्चे बच्चियों के साथ भाई बहन की तरह हाथ मिला कर संग संग चल सकेंगे

यह सब हमारी आशाएं हैं...अपने दक्षिणी इलाकों में मैं इन्ही विश्वासों  के साथ वापिस लौटूंगा.. इसी विश्वास के बल पर हम हताशा के ऊँचे पर्वत को ध्वस्त कर उम्मीद के एक छोटे पिंड में तब्दील कर सकते हैं...इसी विश्वास के बल बूते हम अपने देश में व्याप्त अ समानता का उन्मूलन कर के भाईचारे की खूबसूरत संगीतपूर्ण स्वरलहरी  निकाल सकते हैं... इस विश्वास को संजो कर हम कंधे से कन्धा मिला कर  काम कर पाएंगे..प्रार्थना कर पाएंगे...संघर्ष कर पाएंगे...जेल जा पाएंगे...आजादी के आह्वान के लिए सिर ऊँचा कर खड़े हो पाएंगे...इन सबके बीच सबसे बड़ा भरोसे का संबल यह रहेगा कि हमारी मुक्ति  के दिन आखिरकार आ गए.

यही वो दिन होगा..जिस दिन खुदा के सब बन्दे इस गीत के  नए अर्थों को उजागर करते हुए साथ मिलकर गायेंगे.." मेरा देश...प्यारी आजादी की भूमि... इसके लिए मैं गाता हूँ...यही   धरती है जहाँ मेरे पिता ने प्राण त्यागे ... तीर्थ यात्रियों की शान का देश...इसके तमाम पर्वत शिखरों से आती है...आजादी की समवेत  ध्वनि...

और यदि अमेरिका को महान देश बनना है तो मेरी ऊपर कही बातों को सच होना पड़ेगा...सो न्यू हैम्पशायर  के गगन चुम्बी शिखरों से आनी चाहिए आजादी की पुकार...न्यू योर्क के पर्वत शिखरों से आना  चाहिए आजादी का उद्घोष..पेन्सिलवानिया से आनी   चाहिए आजादी की गर्जना..

आजादी का उद्घोष होने दो...जब ऐसा होने लगेगा और हम इसको सर्वत्र फैलने देंगे..हर गाँव से और हर बस्ती से... तो वह दिन सामने खड़ा दिखने लगेगा जब खुदा के बनाये सभी बन्दे...चाहे वे गोरे हों या काले...यहूदी हों या कोई और...प्रोटेस्टेंट हों या कैथोलिक.. हाथ से हाथ जोड़े एकसाथ पुराने नीग्रो गीत को गाने के लिए मिलकर स्वर देंगे.." अंततः हम आजाद हो ही गए...आजाद हो ही गए...'

सर्व शक्तिमान ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि अंततः हम आजाद हो ही गए...  

 प्रस्तुति-  यादवेन्द्र 


                             

Tuesday, April 4, 2017

पतरोल


(यह कहानी यू के की है। ओह उत्‍तराखण्‍ड की, जो कभी उत्‍तर प्रदेश का एक हिस्‍सा था। उत्‍तराखण्‍ड के एक छोटे से शहर के बहुत मरियल नाम वाले मोहल्ले की। )    

गुड्डी दीदी, जगदीश जीजू से प्रेम करती थी। जब तक हमें यह बात मालूम नहीं थी, जीजू हमारे लिए जगदीश सर ही थे। जगदीश सर, गुड्डी दीदी के घर किराये में रहते थे और ट्यूशन पढ़ाते थे। गुड्डी दीदी भी जगदीश सर से ट्यूशन पढ़ती थी। यह बात किसी को भी पता नहीं थी कि गुड्डी दीदी, जगदीश सर से प्रेम करती है। स्‍वयं गुड्डी दीदी को भी शायद ही पता रहा हो। वे इतना भर जानती थीं कि चश्‍मूदीन होने के बावजूद जगदीश सर बड़े सुन्‍दर है, बहुत अच्‍छे से पढ़ाते हैं। लम्‍बाई भी अच्‍छी है और जब हँसते हैं तो होंठों के ऊपर उगी हुई उनकी मूँछें भी हँसती है। ये सब बातें गुड्डी दीदी हमको उस वक्‍त बताती थीं, जब जगदीश सर आसा पास भी नहीं होते। मूँछों के हँसने वाली बात पर हम खूब खुश होते थे और जोर-जोर से हँसते थे। कई बार हमें सामूहिक रूप से हँसते हुए देख जगदीश सर आ भी जाते तो बस इतना ही कहते, ‘’अरे भाई हमें तो बताआो क्‍या बात है, हँसने का हक तक तो हमें भी है।‘’ उनको देखते ही बंद हो चुकी हमारी हंसी का फव्‍वारा एक बार फिर से फूट पड़ता था। लेकिन हम जगदीश सर को अपने उस आनंद का हिस्‍सा नहीं बनाते थे, जिसका रहस्‍य उठ जाने पर न मालूम वह उसी प्रकार बना रहता या नहीं।

जगदीश सर किराये का कमरा लेकर अकेले ही रहते थे। वे किसी सरकारी विभाग में मुलाज़िम थे और खाली वक्‍त में अपने कमरे में पढ़ते रहते थे। यदा-कदा मौसी, यानी गुड्डी दीदी की मां, जब अपने लिए भी चाय बनाती तो जगदीश सर के लिए भी भिजवा देती थी। कभी खाना खाने के लिए भी बुलवा लेती। गुड्डी दीदी ही दौड़-दौड़कर जाती- चाय पहुंचा देती या खाने के बुला लाती। प्रेम क्‍या होता है, हम में से कोई नहीं जानता था। हो सकता है जगदीश सर जानते रहे हों, बहुत सी बातों के जानकार होने के कारण ही वे हम सबके सर थे।  


जगदीश सर को शुक्रगुजार होना चाहिए मोहल्ले  क के दबंगों का कि उन्‍हें इस बात की भनक उस वक्‍त नहीं लग पायी कि गुड्डी दीदी और उनके बीच प्रेम पनप रहा है। इस बात की खबर उन्‍हें तब लगी, इतने बाद में कि तब जगदीश सर को मोहल्ले का ही निवासी मान लिया गया था। वरना, वह किस्‍सा तो आज तक मशहूर है- सुशीला दीदी, दीवान जी की बेटी जो मोहल्ले  क की पहली लड़की हुई जिसका किसी सरकारी नौकरी में चयन हुआ, घर लौटते हुए एक लड़के के साथ उसकी साइकिल में बैठकर आती थी। मोहल्ले की सरहद पर वह लड़का सुशीला दीदी को साइकिल से उतार देता था और वहां सुशीला दीदी पैदल-पैदल, बार-बार ढलक जाते अपने दुपट्टे को संभालते हुए घर तक पहुँचती थी। लड़का अपनी साइकिल पर पैडल मारकर कोई मधुर गीत गाते हुए निकल जाता था। मोहल्ले के दबंगों को यह बात चुभनें लगी थी कि कोई अनजान लड़का उनके मोहल्ले  क की लड़की को रोज साइकिल पर बैठाकर छोड़ने आता है। एक दिन उन्‍होंने मंत्रणा की और सुशीला दीदी के चले जाने के बाद भी उतर गयी साइकिल की चैन को चढ़ाने में व्‍यस्‍त उस लड़के पर हमला बोल दिया। जमकर उसकी कुटाई की। उसकी साइकिल तोड़ दी। लड़के की नाक से खून निकलने लगा। खून से लथपथ हो चुके चेहरे को देख दबंगों ने उस अकेले लड़के को धक्‍का दिया और वहां से रफू-चक्‍कर हो गये।