भारती सिंह
"ब़कद्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए "
अपने समय का प्रत्येक सृजनहार अपने-अपने तरीके से इतिहास के सहारे वर्तमान की चुनौतियों से लड़ते-भिड़ते, वक़्त की नब्ज को समझने की कोशिश करता है। यह अलग बात है कि अभिव्यक्ति की अपनी मौलिक धार से अपनी अनुभूतियों को कहां तक सशक्ति से प्रस्तुत कर पाता है। यह अनुभूतियाँ विभिन्न विधाओं का पैरहन बन, जन-मन तक, चेतना एवं विचारों को छूती हुई, देशकाल में बदलाव का अभीष्ट बयार लेकर आती हैं। इन्हीं विधाओं में ग़ज़ल का अपना रुआब और मिज़ाज रहा है। सदियों लम्बी यात्रा में बेशक़ ग़ज़ल को धीरज और भरोसे के साथ अपना सफ़र जारी रखना पड़ है। आज यही यात्रा अपने हासिल को पा सकी है। उर्दू के प्रभाव और संपर्क में पली-बढ़ी ग़ज़ल हिन्दी की जुबान को अपना कर अधिक असरकारक तथा समसामयिक मुद्दों पर और अधिक समृद्ध हुई है।
कल्पनाओं के फ़लक से उतर कर, निजता एवं एकल मनोभावों से हटकर यथार्थ की ज़मीन पर अपनी नयी पहचान मुकर्रर की है। माधव कौशिक ने लिखा है-
"सफ़र में दर्द भरी दस्तान रख दूंगा
मैं पत्थरों पे लहू का निशान रख दूंगा"
उस यथार्थ में जीवन की कितनी विषमताओं का यथार्थ है और कितना कुंठित कामनाओं का यथार्थ, इसकी भी पड़ताल एवं मूल्यांकन आवश्यक है। मानवीय तत्वों के विघटन से उत्पन्न कुंठाएं एवं वाह्य आवरण के ढकोंसलोंं ने इस सीमा तक पंगु एवं शिथिल बना दिया है कि अपनी अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं क्षरित मूल्यों का कारुणिक, विवादास्पद तथा अश्लीलता का प्रदर्शन ही उसकी नियति बन गई है। नतीजतन, कभी-कभी सृजनात्मकता हाशिए पर आ गई लगती है। ऐसे में चिंतन मनन तक में ना सिमटकर संवेदनाओं की मोटी पड़ती गई परत को खुरच कर अधिक संवेदनशील बनाने की सार्थक पहल आवश्यक होती है। तभी माधव कौशिक ने कहा है -
" ऊँगली ज़बान हाथ नज़र इस्तेमाल कर
बेखौफ़ होके वक़्त से सीधे सवाल कर।"
हिन्दी कविता के सृजन के लिए जिन तत्वों, जिन संवेदनाओं की आवश्यकता थी, उन्हीं को लेकर हिंदी ग़ज़लों की ज़मीन तैयार हुई है। हालांकि हिंदी साहित्य में गज़लों को वह मुकाम अब तक हासिल न हो सका है जिसकी वह हक़दार है। जबकि पचास, सत्तर वर्षो में ग़ज़लें ,गीत और दोहे ही हैं जो जन-जन तक अपनी पकड़ काफी मजबूत बनाए हुए हैं। फिर अन्य विधाओं की तरह ग़ज़ल को आलोचना के केंद्र में क्यों न रखा गया ! मैनेजर पाण्डेय जैसे वरिष्ठ आलोचक ने माना है कि वह रचनाएँ जो अनुशंसित एवं आलोचना के केंद्र में रहीं, काफी हद तक लोकप्रियता एवं सार्थकता की सीमा तक पहुंची। तो क्या हिन्दी कविता से हिन्दी ग़ज़ल को दूर ही रखा गया, या अन्जाने ही उपेक्षा की शिकार हुई । तभी ग़ज़लगो विनय कुमार मिश्र की पीड़ा छलछला उठी है इन पंक्तियों में-
"मैं किसे चाहूँ न चाहूँ बात होती है
पर ये भी तय कर रही है अब नई दिल्ली"
हालांकि ग़ज़लों की लंबी सुदृढ़ परंपरा में उर्दू ग़ज़लों का रसूख एवं चलन जन- मन में अपनी मजबूत दखल बना चुका था। पाठकों की समृद्ध उपस्थिति भी देखने को मिलती रही है। लेकिन हिंदी में ग़ज़लें उपेक्षा एवं इग्नोरेंस की शिकार हुई, वज़ह हैरान करती है। नामवर सिंह जैसे आलोचना के शिखर पुरुष मिर्ज़ा ग़ालिब और अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़लों को कोट करते हुए अपने आख्यानों एवं वक्तव्यों की शुरुआत करते रहे हैं। लेकिन उनकी इनायत से ग़ज़ल महरूम रही। छह दशकों की लंबी यात्रा एवं हजारों ग़ज़लकारों की उन्नतिशील प्रवाहमय यात्रा आज भी अनवरत जारी है। फिर भी 'बड़ी हसरत से उम्मीद का चेहरा तकती' रही है। किंतु संतोषजनक बात है कि आज हिन्दी कविता के बीच ग़ज़ल अपनी शिनाख्त करा चुकी है। वैसे तो गज़लों की दीर्घ परम्परा रही है लेकिन हिन्दी में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें बड़ी अदब और दमखम के साथ साहित्यिक दुनिया में खुद को साबित करतीं हैं और फिर यहीं से ग़ज़ल कल्पना और रुमानियत की हद से बाहर निकल कर ज़िन्दगी की असलियत से वाकिफ होती है -
" मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी को आईने के बतौर पेश करते हैं। फिर भी कहन का विस्तार में रचना की ज़मीन संकुचित नहीं होती है, बल्कि उसका फ़लक बड़ा और घना है-
" वे कह रहें हैं इश्क़ पर संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है"
हालांकि दुष्यंत इस आग्रह से ख़ुद को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाते। गाहे- ब -गाहे यह रूहानी भाव कुछ यूँ अभिव्यक्ति को प्राप्त होता है-
" तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
एक आदत सी बन गयी है तू
और आदत कभी नहीं जाती "
अद्भुत शैली, भाव एवं ताज़गी से छलकता यह क़लाम दुष्यंत की लेखनी की समृद्धि का सुंदरतम नमूना है।प्रेम की सहजता, सघनता की यह लयात्मक अभिव्यक्ति दुष्यंत को अमर करती है। शायर ने भिन्न-भिन्न तरीके से शैली बदल -बदल कर बात की है।
"अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं"
बहुत कम शब्दों का सहारा लेकर ग़ज़लों के मिज़ाज एवं तरबीयत पर कुछ तथ्य काबिले ग़ौर है कि कविताएं जहां एक खास वर्ग अर्थात बौद्धिक समाज एवं प्रबुद्ध पाठकों तक ही अपनी गरिमा को स्थापित कर पाईं, तब भी समय-समय पर इसकी स्थिति भी संतोषप्रद नहीं रही। कारण- शिक्षा का गिरता स्तर एवं पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रति पाठकों में कम होता लगाव। वहीं साहित्यिक अभिरुचि न रखने वाला व्यक्ति भी रोज़मर्रा की अपनी ज़िंदगी में ग़ज़लों की दो चार पंक्तियों के माध्यम से हमजुबा ग़ज़लों का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्ति को पुख्ता करता मिल जाता है। अब सवाल यह है कि ग़ज़लें इतनी लोकप्रिय होते हुए भी साहित्य की मुख्य धारा में स्वयं को सशक्ति से क्यों स्थापित नहीं कर पाईं। वज़ह साफ़ तौर पर यही मालूम होती है कि "ग़ज़ल को मुक्त छंद में लिखी जाने वाली कविता की तरह जीवन में खुली आवाजाही का अवकाश ज्यादा नहीं रहता, वह बहर और रदीफ़- क़ाफ़िया के बंधनों के अनुशासन में अपनी यात्रा तय करती है।" शायद एक यह भी वज़ह रही हो कि अभिव्यक्ति के लिए सरल और सहज पद्धति न होने के कारण ग़ज़लों को तनिक दुरूह मान लिया गया, जबकि मुक्त छंद में लिखी कविताओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना आसान रहा हो।अलंकार और मात्राओं की हद में बांधने की कवायद में कथ्य की संप्रेषणीयता, उसकी सरलता बाधित होने लगती हो, विषय-वस्तु, कहन का उद्देश्य व्यापक और जनकल्याणकारी हो तो उसे किसी बंदिश में न बाँधकर मुक्त भी रखने में कोई ख़राबी नहीं है। महाप्राण निराला ने कभी न कभी इन्हीं नियमों एवं परम्पराओं की बंधन की लाचारगी को अवश्य समझा होगा तभी उन्होंने मुक्तक छंद की रवायतों पर बल दिया होगा। यह एक अलग वैचारिकता की मांग है।
बहरहाल ग़ज़लों की समूची विरासत एवं इतिहास को मूल्यांकित करने के लिए व्यापक विमर्श एवं चर्चा की आवश्यकता को महसूस करना लाजमी है। इन संदर्भों को लेकर हाल के दिनों में कई पुस्तकें आई हैं जिन्होंने ग़ज़ल की परम्परा और मिज़ाज को परखने मेें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
समकालीन ग़ज़ल में यथार्थ-बोध को लेेेकर कुछ चर्चा करना चाहूूँगी, उन ग़ज़लों में समय और समाज में फैली विषमता और त्रासदी को चिन्हित कर कुछ बात हो। ऐसे में विनय मिश्र की इन पंक्तियों का आसरा लेना चाहूँगी-
" तुक मिलाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी थी कहन
बेतुकी-सी बात थी लेकिन ढिठाई से लिखा। "
ग़ज़ल के बंधन को निभाते हुए उसे आधुनिक रूप देना एक बड़ी रचनात्मक चुनौती है जिसे समकालीन ग़ज़लकारों ने बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निभाया। इसीलिए बल्ली सिंह चीमा ने लिखा है-
" ये ग़ज़ल जो राजमहलों की कभी जागीर थी
अब तो इसको झोपड़ो की अंजुमन तक ले चलो"
बल्ली सिंह चीमा की यह ग़ज़ल इस बात का पुख्ता सबूत है कि समकालीन ग़ज़लकारों ने समय की संवेदना को बख़ूबी समझा और इस संकल्प के साथ अपनी साहित्यिक -यात्रा को जारी रखा कि अब ग़ज़लें एक ख़ास चौखटे से बाहर निकल कर जन-जन तक अपनी लोकप्रियता हासिल करें। ऐसे में इसका तेवर बदल गया। यह ग़ज़लें केवल मनोरंजन या शौक का जरिया नहीं रहीं बल्कि मनुष्य की विडम्बनाओं एवं सामाजिक अराजकता, असहिष्णुता और भौतिकतावदी मनोविकारों का सही-सही चित्र उकेरना इनका मूल उद्देश्य बना। इसलिए चीमा लिखते हैं-
" बहुत जी लिए इन अंधेरों से डरकर
चलो देख लें काली रातों से लड़कर।"
इसमें सबसे अधिक नुकसान मनुष्यता का हुआ -
" जैसे तैसे बचा रह गया
आदमी और क्या रह गया"
अपनी कहन एवं शैली के माध्यम से सामाजिक-बोध और जीवन-मूल्यों को सहेजने के लिए ग़ज़लकारों ने जिस आत्मसंघर्ष को अपनाया है, उसकी पड़ताल उदारता के साथ ही मुमकिन है। एक रचनाकार का संवेदन ही उसे सचेत और बेबाक बनाता है । विनय मिश्र की यह पंक्तियाँ क़ाबिल-ए-ग़ौर है -
" ख़ुद में अपने से ही छूटकर
भीड़ में हर दफ़ा रह गया "
इन ग़ज़लों को पढ़ना और समझना अपने आप में अनुभव से गुजरते हुए परिपक्व होना है। इस दौर के ग़ज़लकारों की ख़ूबी यही है कि उनकी सृजनात्मकता का चेहरा निहायत व्यक्तिगत है, लेकिन इनमें गहरे उतरते जाएँ तो धीरे-धीरे वक़्त का अक्स उभरने लगता है। इन्होंने काल्पनिक सृजन-संसार की बजाय दुनिया की असलियत एवं गहरे जड़ जमाए हुए कुरीतियों और त्रासदियों को ग़ज़लों के लिए चुना। हरेराम समीप की लिखी यह पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं-
" इस सियासत की गिनाऊ और क्या उपलब्धियां
त्रासदी- दर - त्रासदी -दर -त्रासदी -दर त्रासदी "
व्यंग्य मुस्कुराता हुआ है तो कहीं-कहीं यही व्यंग्य अधिक तल्ख और आक्रामकता के साथ हालातों को रखता है। अधिकतर विडंबनापूर्ण उक्तियाँ समय की जटिलता को व्यक्त करते हुए पाठकों को उत्तेजना और चिन्तन के लिए मजबूर करती हैं। अदम गोंडवी आक्रोश और आवेग- संपन्न रचनाकार हैं। उनका काव्यादर्श एक तीखी टिप्पणी बन पाठकों के भीतर बौखलाहट पैदा करता है। वह लिखते हैं-
"जी में आता है आईना को जला डालूँ
भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
ये बात कह रहा हूं होशो हवास में"
बगावती तेवर के साथ अपने अभाव एवं फकीरी में भी रचनाकार लिखता है और बिगुल फूंकता है कि अब हाथ पर हाथ धरे बैठने से कुछ ना होगा। अदम गोंडवी की ग़ज़लों में बेचैन आत्मा का संघर्ष पूरी शिद्दत और प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। तेवर, मिज़ाज और कहन में तल्ख और आक्रोश एवं विक्षुब्धता का गरजता स्वर है। उनकी ग़ज़लों में यथार्थ का स्वरूप अधिक आक्रामक और परिवर्तनकारी रहा है। यही वज़ह है कि अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से अलग नज़र आते हैं ।सत्ता पर ,व्यवस्था पर काबिज़ अयोग्य एवं शोषकों को चुनौती देना होगा, तभी स्थितियाँ बदल सकती हैं, यह स्वर उनकी गज़लों की पहचान है-
" घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।।
× × × ×
बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है ।।"्र
इस अभिव्यक्ति से यथार्थ की पेशानी पर भी बल पड़ जाए। अनुभवों की तीखी चुभन और टीस अदम गोंडवी की रचनाओं की ज़मीन है -
" सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे।
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।।"
अदम गोंडवी विकृत सामाजिक व्यवस्था एवं अवयवों का खाका अपनी ग़ज़लों में रूपायित करते हैं जो वास्तव में विकृत और कुरूप हो चुके हैं। कभी कठिन परिस्थितियां रचनाकार को जन्म देती है तो कभी यही रचनाकार अपनी लेखनी की ताक़त से विश्वव्यापी परिवर्तन का कारण बनता है। सब कुछ सहने और चुप रहने की फ़ितरत पर अदम बौखला जाते हैं और फिर कहते हैं-
" नीलोफर शबनम नहीं अंगार की बात करो
वक्त के बदले हुए मेयार की बातें करो
भाप बन सकती नहीं,पानी अगर हो नीम गर्म
क्रांति लाने के लिए हथियार की बातें करो।
अदम गोंडवी यहीं तक नहीं रुकते, वह गाँधी की नीतियों पर भी सुबहा और सवाल करते हुए कहते हैं-
" लगी है होड़-सी देखो अमीरों और गरीबों में
यह गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी ख़राबी है
तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है"
अदम तल्खी और तेज़ाबी तेवर में दुष्यंत कुमार से एक क़दम आगे हैं। दुष्यंत की ग़ज़लों में जीवन की इसी असामानता, असहिष्णुता, अव्यवस्था, अराजकता , अनैतिकता से भिड़ने की पूरी वफ़ादारी मिलती है।
" हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए "
लेकिन अदम गोंडवी के यहाँ यह चिंगारी पाठकों को परिवर्तनकारी निष्कर्ष तक पहुँचाता है, जो शुरुआत की चिंगारी दुष्यंत कुमार देते हैं। अदम के यहाँ वह आग अधिक जनप्रिय होकर हर दिल में घर कर गयी है-
"जामो -मीना की खनक से थी ये वाबस्ता जरूर
देखिए अब जिन्दगी की तजुर्मानी है ग़ज़ल। "
आज़ादी के बाद जिस समृद्ध और विकसित समाज और देश की परिकल्पना की गई थी, वह चंद स्वार्थी तत्वों और सत्तासीन शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयी।
"कैसा सम्मोहन है उसकी बातों में
नेता तो पूरा जादूगर लगता है "
क्या यह वर्तमान का यथार्थ नहीं है ! एक ऐसा यथार्थ, जहां लोकतंत्र के नाम पर हम इस्तेमाल हो रहे हैं और चंद मुठ्ठी भर तथाकथित देश के कर्णधार बनते यह नेता अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से झांसे में लेकर हमारे अधिकारों एवं हितों का दोहन करते हैं और हम उनकी गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारी स्थिति ऐसी है जैसे ' बहेलिया आएगा दाना डालेगा, फंसना नहीं'। लेकिन हमारी विडंबना है कि बहेलिया आता है, दाना डालता है, इसे रटते, समझते हुए भी हम 'फंस' जाते हैं। इस मुद्दे से ताल्लुक रखती महेश कटारे सुगम जी की ग़ज़ल भी स्वागत योग्य है-
" बेईमान ख़िदमतगारों से क्या होगा
लोक तंत्र के हत्यारों से क्या होगा "
यह ग़ज़ल भी समय को बताती है-
फट जाएंगे एक रोज़ शिक़म अहले हवश
जनता का ये लोग बजट खाने में लगे हैं।"
विकास के नाम पर पूंजीवादी ताकतों का बंदरबांट, महत्वाकांक्षाओं एवं जरूरतों के बीच से मिटता भेद, आम जनजीवन को कितना खोखला और मूल्यरहित करता जा रहा है, इसकी बेचैनी इन पंक्तियों में देखी जा सकती है -
"उन्हें पटरी बिछानी है, उन्हें सड़कें बनानी है
तेरी खेती छिने या घर,उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है।
राम नारायण हलधर की यह पंक्तियाँ भी समय की भयावहता को उजागर करती हैं। बेबसी और लाचारी का बड़ा मार्मिक चित्र पेश करते हैं अपनी ग़ज़लों में।अलग-अलग भाव-भूमि को लेकर ताज़गी और टटकेपन को बरकरार रखते हुए विभिन्न ग़ज़लगो ने बड़ी साफ़गोई से स्थितियों को उद्घाटित किया है।
" श्रद्धा हो तो पत्थर शंकर लगता है
वरना शंकर में भी पत्थर लगता है।"
लवलेश दत्त की इन पंक्तियों में लोक-जीवन में तैरता एक बंद 'मानो तो देव नहीं तो पत्थर' की स्मृतियों में ले जाता है। इसे जरा नए रूप में उतार कर अपनी लोक संस्कृति एवं आस्था को सहेजने का यह हुनर सराहनीय है। उनकी एक और ग़ज़ल की यह पंक्तियाँ बहुत स्पष्ट शब्दों में मौज़ूदा वक़्त को हमारे सामने रखती है-
" रोटी कपड़ा घर को भूले
अब मंदिर-मस्जिद मुद्दा है "
इतनी बेबाकी और स्पष्टता के साथ सृजन करना उसकी विश्वसनीयता को चिन्हित एवं सूचित करता है। यही वज़ह है कि रचनाकार को किसी खास विचारधारा अथवा खेमे से ताल्लुक न रखकर समसामयिक गतिविधियों एवं कार्यान्वयनो का सटीक परख होना, उसे दृष्टि संपन्न एवं कृतियों को कालजई बनाता है। हालातों को समझते हुए परिस्थितियों के साथ समझौते के लिए विवश होने को इन पंक्तियों में बखूबी देखा जा सकता है-
"अपनी शर्तों पर जीने का मंजर नहीं रहा
जिंदा रहना अब अपने पर निर्भर नहीं रहा"
मौजूदा दौर एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए किसी बड़ी विडंबना और विफलता के रूप में उपस्थित है। यह पंक्तियां साफ़तौर पर जता रही हैं। विषम परिस्थितियों से निर्मित खुरदरी ज़मीन पर विनय मिश्र की ग़ज़लें कहीं खिलखिलाती, कहीं मुस्कुराती तो कहीं उग्र तेवर का मिज़ाज लेकर प्रस्फुटित हुई हैं।
"यह समय का खुरदुरापन है इसी पर तो
मेरी ग़ज़लों की उगी हैं मखमली घासें
× × × ×
लड़ाई हार भी जाऊं मगर संघर्ष बोलेगा
मेरी ग़ज़लों में गूंगा देश भारतवर्ष बोलेगा "
मुलायमियत के साथ संघर्ष की चिंगारी को अपने भीतर जोगा कर रखती यह ग़ज़लें अपने उद्देश्यों को पुख्ता करती हैं, साथ ही आने वाली पीढ़ियों को समसामयिक अराजकता एवं व्यवस्था पर प्रतिरोध करने का हौसला देती हैं-
"हमारा काम है बाज़ार में भी आदमी गढ़ना
तुम्हारा काम घर आंगन को भी बाज़ार करना है"
उपनिवेशवादी ताकतों का फैलाव, बाज़ारवादी संस्कृतियों के हाथों हमारे सपने गिरवी रखे जा चुके हैं। विनय मिश्र आत्मसजग ग़ज़लगो हैं
"अपने घर में ही किराएदार हूँ
सोचिए मैं किस क़दर लाचार हूं"
भौतिकवादी मनोवृति आज इतना हावी हो चुकी है कि अपनी जरूरतों एवं महत्वाकांक्षाओं के बीच की खींची महीन लकीर को समझ पाने में पूर्णता असफल हो चुके हैं। नतीजा मनुष्य अकेलापन, हताशा और कुंठा का शिकार हो चुका है। अपनी अस्मिता को खोकर, संवेदनहीन हो मशीन बनता जा रहा है। इसलिए वह लिखते हैं -
"यह आदमी जितना पढ़ो
पहचान में आता नहीं"
बस किसी उम्मीद का था आसरा
इसलिए मैं टूट कर बिखरा ना था"
समय बार -बार अपने विद्रूप शक़्ल व सूरत में बेढब और आक्रामक रूप से अलग-अलग ग़ज़लों में रूपायित होता आया है ।ज़हीर कुरैशी की ग़ज़लों में समय का संत्रास, मनुष्य की जड़ता, एकाकीपन, मानसिक द्वंद, राजनीतिक पैतरेबाजी ,उपभोक्तावादी दबाव, बाज़ार का फैलता मकड़जाल का जटिल यथार्थ पेश करता है-
"कितने हज़ार डर हैं हर एक आदमी के साथ
क्या आपको भी आपके डर का पता लगा?"
डर का यथार्थ कितने पुरज़ोर तरीक़े से मनुष्य से सवाल करता है कि प्रत्येक डरा हुआ व्यक्ति को अपने डर की वज़ह का पता चलता है। डर ,आशंका, हताशा के बीच से हमारी सहज मानवीय रागात्मकता कहीं लुटती जा रही है। अपने द्वारा रचे गए अप्राकृतिक परिवेश का कुछ तो असर रखेगा -
"यहां हर व्यक्ति है डर की कहानी-
बड़ी उलझी है अंतर की कहानी"
जीवनानुभूति जितनी गहन होगी, रचना उतनी ही प्रासंगिक एवं असरकारक होगी। ज़हीर कुरैशी ने लिखा है कि-
" चिन्तन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही
जन्में हैं अपने आप ही दोहे कबीर के। "
विराट तकनीकी सभ्यता के विकास के समय में भी 'क्या खोया क्या पाया' का मलाल क़ायम रखना होगा। किन मूल्यों को खोकर, किस क़दर खोखला हो रहें हैं।
" सत्य का पक्ष लेने के बाद लोग कायर दिखाई दिए
उस परीक्षा में हर प्रश्न के चार उत्तर दिखाई दिए"
सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है लेकिन आज का दौर की सच्चाई है कि सत्य का भी कई विकल्प है। सबके 'अपने-अपने सच' हैं। मेयार सनेही की कहन की शैली एवं विषय का यथार्थ की बानगी सोचने को विवश करती है-
"कभी इसका तो कभी उसका निज़ाम आता है
देखना यह है कि कब दौरे आवाम आता है"
ग़ज़ल की यह पंक्तियां लोकतंत्र पर कटाक्ष है। इस लोकतंत्र के दौर-ए-जहाँ में कुछ भी सुरक्षित और स्थिर नहीं है। इसी तरह दिव्या जैन के अश्आरो में जीवन का यही कड़वा यथार्थ समय की भयावहता को दर्शाता है-
"मुझको अब घर से निकलते हुए डर लगता है
अब हर एक राम में रावण का बसर लगता है"
इसमें हमारे दौर का वह स्याह सच है,जिसे हम रोज़ सहते हैं और सहते रहने को अभिशप्त हैं।
"ये रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
कि जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है"
वहीं लवलेश जी लिखा है -
" भूख से व्याकुल बचपना देखा है
हाट में बिकता यौवन देखा है "
यानी, लगातार सभी संवेदनशील रचनाकारों ने अपने मिज़ाज और अनुभव के तर्ज़ पर समय को मूल्यांकित किया है। ऐसे ही तथाकथित सभ्य समाज का हकीकत बयां करते अदम अपनी लेखनी के दायरों को अधिक विस्तृत करते हुए जहां भूख और गरीबी को चिन्हित करते हैं, वहीं जीवन के फलसफे को भी हमारे समक्ष ला खड़ा करते हैं-
"आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की
× × × ×
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियां सल्फास की।"
मिटती सभ्यता और घायल संस्कृति का मूल कारण बढ़ता बाज़ारवाद है और चाहे कि अनचाहे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है-
" है कोई इन्सान जो उठकर कहे इस बज़्म में
मैंने अपने आप को बाज़ार में बेचा नहीं "
कितना दारूण और स्याह पक्ष है हमारी तथाकथित उपलब्धियों का। जीवन का रंग और राग हमेशा के लिए रूठ गये लगते हैं। बाज़ार की रौनक बनती स्त्री, नई पीढ़ी का भटकाव, अतीत का मोह, राजनीति का गिरता स्तर ,समाजवाद का पतन, कामनाओं की अतिशयता, जातीयता और सांप्रदायिकता का बढ़ता विकृत रूप, भाषाई स्तर पर अलगाववाद का हिंसात्मक प्रतिरूप हर ओर विघटन है। ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति प्रतिरोध का स्वर दबाकर नहीं रह सकता। बल्कि वह गुहार लगाता है -
हमसफ़ीरों न तुम ख़ामोश रहना
मैं आवाज़ दूँ, तुम आवाज़ देना"
और उस आवाज़ में असर होता है। आवाज़ आवाज़ को आमंत्रित करती है और वह साथ होने का नमूना पेश करती है माधव कौशिक के अल्फ़ाज में -
" मेरी तरह उदास थे कुछ लोग भी
ऐसा नहीं मैं शहर में तन्हा उदास था"
यह उदासी कई आयामों को ज़ाहिर करती है। यह उदासी है विस्थापन की, खोखलेपन की, चिन्तन की जड़ता की, प्रतिरोध की नपुसंकता की, प्रेम के प्रति एकनिष्ठता की।
"उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ
जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया "
कितनी खलिश है विनय मिश्र की इस पंक्ति में। बाज़ार की चकाचौंध और दो वक़्त की रोटी की तलाश में अपनों से किस क़दर दूर हो गये। लेकिन इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में भी हिचक अनुभव करते हैं लोग। और प्रतिरोध का मतलब आप अब उनके निशाने पर हैं ।तभी तो पुरुषोत्तम प्रतीक जी ने लिखा है -
"चाकू के गांव में इंसान की बातें न कर
है बहुत खतरा यहां ईमान की बातें न कर "
अब यह आपका नैतिक दायित्व है कि आपको किस का पक्ष लेना है। अराजकता को हवा देंगे अथवा उन्हें रोकने, अंकुश लगाने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाएंगे।यह आपका निजी चुनाव है आप किस ओर रूख और करेंगे। इतिहास तो दोनों का लिखा जाना तय है और मनुष्यता एक न एक रोज़ कटघरे में खड़ा करेगी। तभी दुष्यंत को सुझा होगा -
"यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा"
यही आलम आज भी बना हुआ है। तभी मक़बूल मंजर की क़लम आह भरती है-
"कहने को सलामत हूँ, मगर टूट रहा हूँ
हालात के हाथों का खिलौना जो हुआ"
लेकिन ज़िन्दगी थमती नहीं, उम्मीदें टूटती नहीं। ' वो सुबहो कभी तो आएगी ' साहित्य समाज का प्रतिरूप है, और कल्पना उसमें नई भोर का अस्तित्व तलाशती है।
यह तभी मुमकिन है जब हमारे भीतर ' जो है उससे बेहतर ' की चिंगारी जगी रहे। दुष्यंत के यहाँ यह भरोसा क़ायम है -
" एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दीए में तेल से भीगी हुई बाती तो है"।
अमीर खुसरो से होते हुए भारतेंदु से लेकर चली हिंदी ग़ज़ल मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत कुमार, नागार्जुन, पुरुषोत्तम प्रतीक ,केदार जी, रामकुमार कृषक, अदम गोंडवी , ज़हीर कुरैशी, हरेराम समीप, बल्ली सिंह चीमा, ज्ञान प्रकाश विवेक, विनय मिश्र जैसे सशक्त ग़ज़लगो ने समय-समय पर मानवीय मूल्यों, वातावरण की संवेदना पर, वैश्विक सौहार्द्र, सामाजिक समरसता के लिए, ग़ज़लों से सरोकार रखते हुए अभिव्यक्ति की तमाम आग्रहों को अपनाते हुए लेखनी की लंबी और चौड़ी रेखा खींची है। इन तमाम ग़ज़लों में अपने समय का समाज, आम आदमी की अजीयतें, प्रेम का पलायन ,अभावग्रस्त जीवन का संघर्ष, अव्यवस्था, महंगाई, शोषण से अभिशप्त जीवन जीने की बाध्यता को लेकर आए। साथ ही दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की जो रहनुमाई की उसका अनुकरण करते हुए आगे की पीढ़ियां नए परिदृश्य रचने के लिए, बदलाव के बयार को लाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं -
"दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या ना हो आकाश-सी छाती तो है"।
निधि सिंह की ग़ज़लों में यही आश्वासन नज़र आता है -
" बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए
कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं।"
परिचय
भारती सिंह
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़, वागर्थ ,पाखी , लहक ,सापेक्ष, वाक ,परिकथा, चौपाल, ककसाड़, सुबह की धूप आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित ।
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