कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
आपको ध्यान होगा, ऋषिकेश से एक कविता संग्रह प्राकाशित हुआ था। ‘उत्तर हिमानी’ नाम से प्रकाशित उस संग्रह में उत्तराखण्ड के अन्य कवियों की कविताएं भी थी। पार्थ सारथी डबराल के संपादक थे।
‘सदियों की संताप’ आपकी कविता पुस्तक तो 1989 में प्रकाशित हुई। तब तक हम
दोनों ने भी ‘उत्तर हिमानी’ के लिए कविताएं भेज दी थी। आपकी डायरी में सबसे
अन्तिम कविता ‘तब तुम क्या करोगे’ ही थी उस वक्त। आपकी डायरी को पूरा पढ़ने के
बाद डायरी की वह अंतिम कविता मेरे भीतर बहुत दिनों तक गूंजती रही थी।
पारंपरिक छापे की प्रक्रिया से छपने वाले कविता फोल्डर ‘फिल्हाल की टीम’
फिल्हाल के तीन अंक निकाल चुकी थी और इस नाते प्रकाशन के जोड़ घटाव से एक हद तक
परिचित हो चुकी थी। उस अनुभव के नाते ही एक रोज शाम को अम्मा-अब्बा को खाना
पहुंचाने जाते वक्त हम (मैं और आप) जब उस कविता संग्रह की बात कर रहे थे जिसमें
सहयोग राशि के साथ हम दोनों की कविताएं छप रही थी (‘उत्तर हिमानी’) तो मैंने कहा
था कि अब आपकी भी कविता पुस्तक छप जानी चाहिए। मेरी बात पर आपने मायूसी के साथ जवाब
दिया था, ‘’
‘’कौन छापेगा किताब।
‘’हम खुद छाप सकते हैं न।‘’
‘’कैसे ?’’
‘’जैसे फिलहाल छापते हैं। 6 फोल्ड में मुश्किल से 300 रू खर्च होते हैं हमारे
एक अंक छापने पर। यदि किताब मैं 50.60 पेज हों और हम उसकी 400-500 प्रतियां छापें
तो किताब का खर्च मुश्किल से 1000-1200 रू ही आएगा। उसको भी हम किताब बेच कर निकाल
लेगें।‘’
फिल्हाल की छपाई में मोटा कागज इस्तेमाल होता था, जिसका दाम सामान्य कागज
से कहीं ज्यादा था। ‘युगवाणी’ पर पेज की 30 रू लेता था। चालीस से पचास रू के भीतर
कवर में छपने वाले चित्र का ब्लाक बन जाता था और लगभग 60-70 रू में कागज की
120-130 सीट आ जाती थी। एक सीट से दो प्रति तैयार हो जाती थी। किताब को छापे जाने
के पीछे मेरा तर्क था कि नब्बे का दशक बीत रहा है, लगातार की उपेक्षा के चलते आप
क्यों नब्बे के बाद के दशक में गिने जाएं। उस वक्त थोड़ी बहुत आलोचनाएं पढ़ते हुए
मैं इस बात को जानने लगा था कि आलोचना में दशक के रचनाकारों के जिक्र होते हैं। हालांकि
सच बात तो यह हिन्दी कविताओं की आलोचना में कहीं यह आज तक दर्ज नहीं आप कौन से
दशक के कवि हैं। ‘लांग नाइंटीज’ के विशेषणों वाली आलोचना भी आपके कवि होने को दर्ज
नहीं कर पाई जबकि आप मूलत: कवि ही थे। परिस्थितिजन्यता में या कविता में
शुद्धातावादियों के बोलबाले ने आपको कहानीकारों के खाते में ही डाले रखा।
न जाने वह कौन सा क्षण था, अम्मा-अब्बा को खाने पहुंचाने के बाद जब हम वापिस
घर लौटे, आपने अपनी डायरी निकाली। अल्टी–पल्टी कुछ सोचा-विचार किया और मासूमियत
भरी दृढ़ता से कहा, ‘’लो ले जाओ डायरी।‘’
डायरी को हाथ में थामते हुए एक बड़ी जिम्मेदारी के
अहसास ने मुझे घेर लिया। आपसे विदा लेकर मैं घर चला आया। कविताओं को पढ़ा और जमाने
को जाति की दासता में जकड़ने वाली ब्राहमणवादी प्रवृत्तियों से उलझता रहा। उस वक्त
तक हिंदी में दलित साहित्य नहीं आया था। जब मैंने कुछ कविताओं के साथ एक
पुस्तिकानुमा किताब को शीर्षक ‘’सदियों का संताप’’ के साथ आपके सामने रखा तो आपने
मेरी इस अनुनय को भी स्वीकार लिया कि छपाई में जो अनुमानित खर्च् रू 1300 के
करीब आएगा, बतौर उधार दे देंगे। पुस्तिका की 200
प्रति छाप कर बेच लेने की मंशा के साथ उसका मूल्य रू 7 निर्धारित किया
गया। यह संतोष की बात है कि लगभग 150 प्रतियां
बेची जा सकी और लगाये गए धन की वापसी न्यनतम मूल्य रख कर हासिल की जा
सकी। याद कीजिए उस कविता पुस्तक का कवर भाई रतीनाथ योगेश्वर ने किया था, वह भी
तब जबकि अवधेश कुमार जैसे बड़े आर्टिस्ट हमारे बीच थे। अवधेश कुमार की बजाय कवर
पर रतीनाथ के हाथों की छाप कैसे अंकित हुई, उस कथा को बाद में कहूंगा। अभी तो इतना
ही कि सदियों के संताप का जब आपके स्टार हो जाने के बादए कई सालों बाद उसका पुन:प्रकाशन
एक अन्य प्रकाशक ने किया और कवर को लगभग ज्यों का त्यों एक दूसरे आर्टिस्ट के
नाम से छाप दिया तो आपने इस पर कोई एतराज जाहिर नहीं किया, क्यों ? यहां तक कि एक
रोज कभी यूंही आपने कहा था कि सदियों के संताप का यदि कोई पुन:प्रकाशन करता है तो
मैं उसमें अपने उन अनुभवों को भूमिका के रूप में लिखूं जो पुस्तक के पहले प्रकाशन
में हुए। लेकिन आपने जब उस पुन: प्रकाशित पुस्तक की प्रति मुझे भेंट की तो उसे
अलटने पलटने के बाद मैंने एकाएक कहा था, वाह। पर दूसरे ही क्षण कवर पर कलाकार का
बदला हुआ नाम देखकर आपकी निगाहों में ताकते हुए कहा था, ये क्या तो आप निगाह
बचाते हुए जाने क्यों खामोश हो गए थे।# स्मृति