Tuesday, April 14, 2020

अमेरिका और लॉकडाउन के मायने

कोविड-19 नामक वैश्विक महामारी से निपटने के लिए जहां दुनिया के ज्यादतर देश लॉकडाउन के स्तर पर हैं, वहीं यह सवाल भी है कि बुरी तरह से प्रभावित अमेरिका ने आखिर अभी तक इस रास्ते् को क्यों नहीं अपनाया ? सेंट लुईस में रहने वाले जे सुशील इस सवाल से टकराते हुए अमेरिकी समाज का जो चित्र रखते हैं, वह गौरतलब है। वर्तमान में सुशील एक शोधार्थी है। पूर्व में बीबीसी हिंदी के पत्रकार रहे हैं।
‘’अमेरिका में लॉकडाउन क्यों नहीं होता है ये एक कठिन सवाल है.’’  जिन कारणों पर सुशील की निगाह अटकती है, वहां एक समाज की कुछ सभ्यतागत विशिष्टताएं नजर आती हैं और इसीलिए उन्हें कहना पड़ता है, ‘’सभ्यतागत चीज़ें एक्सप्लेन करना इतना आसान नहीं होता है.’’ उन सभ्यतागत विशिष्टताओं को पकड़ते हुए अमेरिका में लॉकडाउन के मायने को सुशील ने अच्छे से समझने की चेष्टा की है। जे सुशील के उस विश्लेषण को पाठकों तक पहुंचाते हुए जे सुशील का आभार। 

वि.गौ.


जे सुशील

अमेरिका में कोरोना से मरने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी के बावजूद देश में लॉकडाउन नहीं किया गया है. ये बात कई लोगों को अचंभे की लग सकती है कि अमेरिका ने ऐसा क्यों नहीं किया है लेकिन इसका जवाब गूगल करने पर नहीं मिलेगा. इसके लिए इस देश की साइकोलॉजी को समझना होगा कि लॉकडाउन जैसे शब्दों को लेकर इस देश में धारणा क्या है और वो इसे कैसे देखते हैं. इन सवालों के जवाब में ही इसका उत्तर भी छुपा है कि इतनी मौतों के बावजूद भारत जैसा लॉकडाउन क्यों नहीं किया जा रहा है अमेरिका में. इसके मूल में तीन कारण हैं.

अमेरिका में अपनी पर्सनल आज़ादी या लिबर्टी की भावना इस गहरे तक पैठी हुई है कि अगर कोई भी सरकार कोई भी ऐसा फैसला लेती है जिसमें नागरिकों के निजी अधिकारों का हनन हो तो उसे पसंद नहीं किया जाता. लोग इसका जमकर विरोध करते हैं. ये विरोध करने वाला अल्पसंख्यक, अश्वेत या दूसरे देशों से हाल में आकर बसे लोग नहीं होते बल्कि खालिस गोरे अमेरिकी ही इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
पहला तकनीकी कारण है जो इस मुद्दे का एक पहलू है. अमेरिका की संघीय़ व्यवस्था का ढांचा ऐसा है कि नागरिकों के आम जीवन से जुड़े ज्यादातर फैसले खासकर उसमें अगर पुलिस की कोई भूमिका हो तो वो राज्य का प्रशासन ही करता है यानी कि गवर्नर. कई बार ऐसे भी उदाहरण हैं जब एक काउंटी यानी एक कोई इलाका गवर्नर की बात न माने. टेक्नीकली देखा जाए तो राष्ट्रपति अगर चाहें तो नेशनल लॉकडाउन की घोषणा कर सकते हैं लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे और इसका कारण तकनीकी नहीं है. इसका कारण है अमेरिका के लोगों की साइकोलॉजी जो लिबर्टी और पर्सनल स्पेस में गुंथी हुई है.

अमेरिका में अपनी पर्सनल आज़ादी या लिबर्टी की भावना इस गहरे तक पैठी हुई है कि अगर कोई भी सरकार कोई भी ऐसा फैसला लेती है जिसमें नागरिकों के निजी अधिकारों का हनन हो तो उसे पसंद नहीं किया जाता. लोग इसका जमकर विरोध करते हैं. ये विरोध करने वाला अल्पसंख्यक, अश्वेत या दूसरे देशों से हाल में आकर बसे लोग नहीं होते बल्कि खालिस गोरे अमेरिकी ही इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं. इसलिए ट्रंप को डर है कि अगर वो लॉकडाउन जैसा कोई कदम उठाएंगे तो उनके समर्थन में खड़े लोग ही उनका विरोध करने लगेंगे. दूसरा अगर उन्होंने कोशिश की तो राज्य सरकारें भी विरोध कर सकती हैं. तो फिर इस समय अमेरिका में जहां कोरोना तेज़ी से फैल रहा है वहां किया क्या जा रहा है.

केंद्र सरकार यानी ट्रंप सरकार की तरफ से एडवाइज़री है कि लोग सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करें यानी कि दूर दूर रहें. रेस्तरां और क्लब या ऐसी जगहें जहां लोगों के जुटने की संभावना होती है उन्हें बंद करने के आदेश दिए गए हैं और वहां से ऑर्डर कर के खाना लिया जा सकता है. जहां थोड़े हालात और खराब हैं वहां स्टे एट होम के आदेश हैं यानी कि आप कुछ मूलभूत कार्यों (भोजन लाना, दवाई लेना, वाक करना और कुत्ते को घुमाना) को छोड़कर बेवजह बाहर नहीं निकल सकते हैं. निकलने पर पुलिस कारण पूछ सकती है.

ज्यादातर राज्यों में यही नियम राज्य के गवर्नर और मेयरों ने लागू किए हैं. मैं जिस इलाके में रहता हूं उससे थोड़ी ही दूर पर मेयर की पत्नी को करीब दो हफ्ते पहले पब में पाया गया जहां वो अपनी मित्रों के साथ बीयर पी रही थीं जबकि सोशल डिस्टैंसिंग का नियम लागू था. मेयर की पत्नी पर जुर्माना लगाया गया.

कैलिफोर्निया में सबसे सख्ती है लेकिन वहां भी लॉकडाउन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है क्योंकि इस शब्द का इस्तेमाल ही एक नेगेटिव भाव लिए हुए हैं अमेरिकी लोगों के लिए. कैलिफोर्निया राज्य के कुछ इलाकों में शेल्टर एट होम के आदेश हैं यानी कि आप अपने घरों में ही रहें और उन्हीं से मिले जिनसे आप पिछले दस पंद्रह दिनों में मिले हों. कहने का अर्थ ये है कि हर राज्य में अलग अलग नियम लागू किए गए हैं.

न्यूयार्क जो सबसे बुरी तरह प्रभावित है वहां भी लॉकडाउन नहीं है और लोग मेट्रो का इस्तेमाल कर रहे हैं. खबरों के अनुसार मेट्रो ट्रेनों की संख्या कम कर दी गई है और कई ट्रेनों में भीड़ भी हो रही है लेकिन जीवन अनवरत जारी है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका में घरेलू विमान सेवाएं अभी भी जारी हैं लेकिन इंटरनेशनल ट्रैवल पर रोक लगाई गई है. घरेलू विमान सेवाओं में न्यूयार्क और ज्यादा प्रभावित इलाके के लोगों से अपील की गई है कि वो पंद्रह दिनों तक ट्रैवल न करें ताकि बीमारी को फैलने से रोका जा सके.
तीसरा बड़ा कारण है इकोनोमी. अगर सादे शब्दों में कहा जाए तो अमेरिका पैसा जानता है और इकोनॉमी सबके लिए सर्वोपरि है. ट्रंप ने यूं ही नहीं कहा था कि अमेरिका इज़ नॉट मेड टू स्टॉप. शेक्सपियर का कहा हम जानते हैं कि द शो मस्ट गो ऑन. अमेरिका इकोनॉमी को लेकर ऐसी ही सोच रखता है. चाहे कुछ हो जाए इकोनॉमी ठप नहीं पड़नी चाहिए इसलिए काम जारी है. जो भी बिजनेस घर से हो सकता है वो घर से चल रहा है लेकिन बाकी जिस किसी भी काम के लिए कम लोगों की ज़रूरत है वो अबाध जारी है मसलन ई कामर्स, अमेजन और ऐसे ही तमाम ईशापिंग के काम. स्टॉक एक्सचेंज और तमाम बिजनेस को चलाए रखा जा रहा है. यूनिवर्सिटी, संग्रहालय, रेस्तरां और वो चीजें ही बंद की गई हैं जिससे इकोनॉमी को बहुत अधिक नुकसान न हो.

एक छोटा और महत्वपूर्ण कारण ये भी है कि अमेरिका की सुपरपावर की एक छवि है और वर्तमान विश्व में इमेज के इस महत्व को नकारा नहीं जा सकता. कल्पना कीजिए दुनिया भर के अख़बारों में अमेरिका ठपजैसा शीर्षक लगे तो उस छवि को कितना धक्का लगेगा. जो देश ग्यारह सितंबर के हमले में नहीं रूका वो एक वायरस से रूक जाए ये अमेरिकी जनता और नेताओं को बिल्कुल गवारा नहीं है. ये बात अमेरिकी मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है कि मीडिया में भी लॉकडाउन को लेकर बहुत अधिक शोर नहीं है. मीडिया ट्रंप की आलोचना कर रहा है कि उन्होंने शुरूआती दौर में इसकी गंभीरता को नहीं लिया या फिर अभी भी वो ऐसी दवाओं पर भरोसा कर रहे हैं जिसका वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है लेकिन अखबारों में ऐसी तस्वीरें तक नहीं छप रही हैं जिसमें सुनसान सड़कें दिख रही हों. अखबारों की वेबसाइटों को भी देखें तो तस्वीरों में डॉक्टर हैं, मरीज़ हैं, संघर्ष करता शहर है. ठप शहर नहीं क्योंकि अमेरिका कभी रूकता नहीं एक ऐसा सूत्र वाक्य है जो यहां के लोगों में अंदर तक बसा हुआ है.

Tuesday, April 7, 2020

हिटलरी चिन्तन-पथ

पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ. शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है। इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां पाठकों में लोकप्रिय हैं। प्रस्तुत है डॉ शोभाराम शर्मा की दो व्यंग्य रचनाएं।
डॉ.शोभाराम शर्मा 



 (रचनाकाल 1989)
आर्य आर्यानन्द जी वर्मा (1)


ठिगना कद । नाक-नक्श कुछ-कुछ आदिवासियों से । एकदम काले नहीं तो गोरे भी नहीं। तोंद कुछ बाहर निकलती हुई और सिर इतना छोटा कि किसी बड़े से घड़े के संकरे मुंह पर रखे कटर जैसा । नस्ल नामालूम । आर्य शब्द से इतना लगाव कि पहले नाम के आगे लेकिन अब पुछल्ले के रूप में भी। बात इतनी सी थी कि कुछ शिल्पजीवी लोग भी अपने नाम के आगे आर्य लिखने लगे तो वर्मा जी ने उसे पुछल्ला बनाना ही बेहतर समझा। इस तरह आर्यानन्द आर्य जी, आर्य आर्यानंद वर्मा हो गए।  हमने पूछा भी कि, जब नाम के पहले ही आर्य शब्द है तो फिर दुहरा प्रयोग करने का क्या तुक है  
वे बोले-''गुरुजनो ने तो यों ही आर्यानन्द नाम रख दिया जैसे महानन्द या कार्यानन्द । मैं इस दुहरे प्रयोग से यह सन्देश देना चाहता हू कि हम आर्य हैयह देश आर्यावर्त है और जो आर्यावर्त में रहकर अपने को आर्य नहीं कहता उसे इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
"आपकी इस धारणा में तो हिटलरी सोच के दर्शन होते है। "- हमने कहा तो आर्य जी हत्थे से ही उखड़ गए बोले - " हिटलर न हुआ चिन्तन-पथ का रोना हो गया । ऐरा- गैरा जो भी आए ठोकर मारकर चला जाए । अरेहिटलर जैसे महानायक तो कभी-कभी ही जन्म लेते हैं एक पराभूत
निर्जीव राष्ट्र को उसने किस तरह एक शक्तिशाली राष्ट्र में बदल दिया- यह नहीं देख पाते क्यों   
"वह सब तो ठीक ले कि परिणाम क्या निकला ? "- हमने कह दिया ।
"परिणाम का भय कायरता को जन्म देता है और हिटलर कायर नहीं था । शक्ति-सम्पन्न स्वाभिमान के साथ जितना भी जिए वह व्यक्ति हो या राष्ट्र बस उतने में ही जीवन की सार्थकता है। दूसरो के तलुए चाटकर जीना भी क्या जीना है।" उन्होंने कहा और मेज पर पड़ी फाइल के ऊपर-नीचे 'ओम' लिखकर बीच में स्वस्तिक का चिन्ह बनाने लगे।
"लेकिन आर्यत्व के नाम पर पूरी यहूदी जाति पर जो अत्याचार किए गए, क्या आप उनका भी समथर्न करते हैं  क्या आप भी यह मानते है कि प्रतिभा केवल तथाकथित आर्यों की पूंजी है कार्ल मार्क्स, फ्रॉयड और आइंस्टाइन जैसे लोगों का मूल्य क्या आप नस्ली आधार पर आंकेंगे ? " -हमने पूछ लिया ।
" देखिएजब एक राष्ट्र की अस्मिता का सवाल हो तो पंचमांगियो को सहन करना, अपने विनाश को न्यौता देना है। जर्मन राष्ट्र को भितरघात से सुरक्षित रखना समय की मांग थी। क्या हमें भी अपने हिटलर की आवश्यकता नहीं है ? " यहां भी ऐसे लोग है जो खाते यहां का और गाते कहीं और का हैं। जिन्होंने देश का दोफाड़ किया, उन्हें यहां रहने का क्या अधिकार है ? ऐसे लोग अगर यहां से निकल जाते तो हमारी अधिकांश समस्याएं कब की हल हो गई होतीं ।" उन्होंने अपना आशय स्पष्ट करते हुए कहा।
"तो किसी हिटलर या सूर्यवंशी सम्राट की प्रतीक्षा है आप लोगों को । आपके हिसाब से यहां
सारी बुराइयां किसी मजहब विशेष के कारण उत्पन्न हुई है। अन्यथा अपना यह देश तो हर हर अच्छाई का घरथा पापों और अपराधों का उल्लेख तो शायद जायका बदलने के लिए हो गया होगाहै न ।"
हमने छेड़ दिया तो आर्य आर्यानन्दजी भेदभरी मुस्कान के साथ बोले-" देखिए, हमारे पूर्वजों ने मानव जाति के इतिहास को जिन चार काल-खण्डों में विभाजित किया है उनके अनुसार सतयुग में कहीं कोई पाप या अपराध नहीं होता था । त्रेता से अधोगति की सूचना मिलती है जो द्वापर और वर्तमान कलियुग में उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। कलियुग में ही देवभूमि भारत की ओर विदेशी आक्रान्ता उन्मुख हुए और आज हमारी दुर्दशा का एकमात्र सबसे बड़ा कारण यही है।"
"अर्थात आप यह मानते है कि मानव जाति प्रगति की ओर नहीं अधोगति की और उन्मुख है।  लेकिन ज्ञान-विज्ञान में जो विस्फोट हुआ हैक्या उसे भी आप अधोगति में ही शुमार करते है ?"
हमने पूछा तो वे बोले- "यह सब पश्चिम की बकवास है । अरे, असली ज्ञान-विज्ञान तो धर्म और आध्यात्म्य है और इस क्षेत्र में कोई हमारे सामने नहीं ठहरता । भौतिक ज्ञान -विज्ञान के जिन चमत्कारों को आप लोग गिनते है, उनसे भी बड़े चमत्कार तो हमारे पूर्वज बहुत पहले ही दिखा घुके है। महाभारत और पुराणों में ऐसे-ऐसे चमत्कारों का उल्लेख है कि दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। यहां ऐसे अस्त्र-शस्त्र थे कि नापाम बमअणुबम या हाइड्रोजन बम भी पानी भरें। हमारे पूर्वज चन्द्रलोक-सूर्यलोक और नक्षत्र लोक ऐसे आते-जातेजैसे पड़ोस में गप-शप करने जाते हों। आज का दूरदर्शन (टेलिविजन) भला हमारे पूर्वजों  की दिव्य दृष्टि के सामने कहीं टिकता है?
परखनली शिशु की बात करते हो तो यहां महर्षि अगस्त्य तो घड़े में जन्मे थे । आजकल बन्दर और भेड़ के प्रतिरूपों(क्लोन) की चर्चा जोरों पर है लेकिन हमारे यहाँ तो रक्तबीज का उदाहरण मौजूद है। जितनी रक्त की बूंद उतने ही रक्तबीज । है न आश्चर्य की बात । आज के शल्य- चिकित्सक क्या मानव-धड़ पर पशु का सिर जोड़ सकते है। गणेशजी और दक्ष प्रजापति के जैसे उदाहरण क्या आज कहीं देखने को मिल सकते है ?
अपने पूर्वजों के ये थोड़े से प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भौतिक ज्ञान-विज्ञान में भी हम बहुत आगे थे । पश्चिम वाले क्या खाकर मुकाबला करेंगे ?- आर्य जी ने भाषण ही दे डाला।
इस पर हमने जड़ दिया-- " लेकिन आज हम स्वयं कहां है ? पश्चिम मे अगर कोई नया आविष्कार होता है तो हम अपने पौराणिक ग्रंथों के पन्ने उलटने लगते हैं और घोषित करते हैं यह सब तो हमारे पूर्वज पहले ही कर चुके थे । अगर यहा सब पका-पकाया है तो हम दूसरों से पहले ही दुनिया के आगे क्यों नही परोस देते ? "
" सही कहा आपने लेकिन....। वे कुछ झिझके और फिर बोले-"बात यह है कि हमारे असली ग्रन्थ लुटेरों ने पश्चिम में पहुंचा दिए और जो यहां रह भी गएउनमे केवल उल्लेख भर मिलता है। वास्तव में अपना यह देश तो जगत-गुरु था और आगे भी रहेगा। दुनिया को पढ़ना-लिखना इसी देश ने सिखाया है । संस्कृत वस्तुत: संसार भर की भाषाओं की ज़ननी है"। और देखिए कह कर उन्होंने एक अभ्यास पुस्तिका सामने रख दी बोले - "इसी देश में सर्व प्रथम लिपि का आविष्कार हुआ । सिन्धु लिपि का अगला विकास ब्राह्मी लिपि में हुआ। उसी से रोमन, अरबी, फारसी आदि संसार की अधिकांश लिपियां निकली हैं ।"
उन्होने विभिन्न लिपि-चिह्नों के विकास को समझाने का प्रयास उस अभ्यास-पुस्तिका में किया था। हमने कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने से खुद को रोक लिया।


आर्य आर्यानंद जी वर्मा-- 2

रथ-यात्रा हमारे कस्बे में भी पहुंची थी और कस्बे के एकमात्र बड़े प्राचार्य होने के नाते आर्य
आर्यानन्द जी वर्मा को स्वागत-सभा की सदारत करने का अवसर मिला। गेरुवे वस्त्र धारी एक साधु रूपी नेता ने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान’ को केन्द्र में रखकर जो आग उगलीउसका असर आर्य  जी पर कुछ ऐसा पड़ा कि अपने अध्यक्षीय भाषण में वे सारी सीमाएं भूलकर मुसलमानो और ईसाइयों पर बरस पड़े । उनका कहना था कि हिंदुस्थान बनाम भारत अर्थात आर्यावर्त एक लोकतंत्र है और लोकतन्त्र बहुमत के आधार पर चलता है। अब यहां के 83 प्रतिशत लोग हिन्दू है तो उन्हीं की बात मानी जानी चाहिए । अगर हम कहते है कि अयोध्या में मन्दिर की जगह मस्जिद बनी थी तो मुसलमान मान क्यों नहीं लेते ? उन्हे बहुमत का सम्मान करना चाहिए राम-मन्दिर तो वहीं बनेगा। काशी और मथुरा का भी सवाल है । और भी मुद्दे उभर सकते हैं जिनका निर्णय हिन्दू बहुमत के अनुरूप होना ही लोकतंत्र की मांग है अन्त में उन्होंने सामने मिशन स्कूल की ओर इशारा करते हुए ईसाइयों और मुसलमानों को हिन्दू बहुमत का सम्मान करने या भारत से निकल जाने तक का अल्टीमेटम दे दिया । सभा में खूब तालियां पिटी और वर्मा जी के उस दिन के हीरो बन गए।
और उस दिन तो कमाल ही हो गया। वे इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य पसबोला जी के छज्जे पर बैठे थे। नीचे मुझ पर नजर पड़ी तो ऊपर बुला लिया। चाय तैयार थी। पसबोला जी बिस्कुट का
पैकेट खोलने लगे तो वर्मा जी ने टोक दिया --देखिए इस पर उर्दू में लिखा है इसका मतलब है कि ये बिस्कुट किसी मुसलमान के हाथों बने हैं, मैं तो नहीं लूगा । मैं और पसबोला जी आर्य जी का मुंह देखते रह गए।
अंत में मैंने ही चुप्पी तोड़ीबोला- " वर्मा जी इसका क्या गारण्टी है कि जिन पर उर्दू में न लिखा हो वे मुसलमानो के उत्पाद न हो। फिर तो आपको कुछ भी नहीं खाना चाहिए। उत्पादों में भी हम हिन्दू-मुसलमान का भेद करने तगे तो इस देश का बण्टाधार होने में क्या सन्देह है ? यह देश इण्डोनेशिया के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है। करोड़ों मुसलमान यहां की हवा में सांस लेते और छोड़ते हैं । उसी हवा में आप भी सांस लेते है । अगर आप मुसलमानों को इतना अस्पृश्य समझते है तो मेरी माने आप साँस लेना ही छोड़ दीजिए आपकी पवित्र आत्मा अपवित्र होने से बच जाएगी और मुक्ति का लाभ मिलेगा सो अलग ।"
क्या कहा आपने मैं क्यो मरूं ? मरें वे जिन्होने इस देश का बेड़ा गर्क किया है । वे अपने पाकिस्तान क्यों नही चले जाते ?" आर्य जी विफर उठे ।
"अगर वे आपकी सताह मानकर पाकिस्तान को भी गए तो सांसों की समस्या तब भी बनी रहेगी। आप जानते है कि यहां (उत्तराखंड में )जाड़ों की वर्षा भूमध्य सागरीय चक्रवातों से सम्भव होती है । अर्थात ईरान-अफगानिस्तान और पाकिस्तान की ओर से बनती चक्रवाती हवाएं वहां के मुसलमान आबादी की सांसों को लेकर आती है। क्या आप उन पश्चिमोतरी हवाओं में सांस लेना बन्द कर देगे?
देखिए मेरे मन्तव्य को आपने व्यर्थ में इतना खींच लिया मै तो केवल अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा था। चार-चार शादियां करेंगे और देश के सम्मुख बढ़ती आबादी की समस्या खड़ी करेंगे।-वे फिर बोले ।
"आप जैसे बुद्धिजीवियों का यह आक्रोश कितना अनर्थ कर सकता है, क्या आपने इस पर भी सोचा है कभीजरा अपनी ओर भी तो नजर डालें ।"(वर्मा जी को सात पुत्रों और एक पुत्री के यशस्वी पिता होने का गौरव प्राप्त था) -हमने कहा तो वर्मा जी बगलें झांकने लगे।
 वर्मा जी का व्यक्तित्व मेरे लिए एक पहेली बनकर रह गया । विचारों से इतने संकीर्ण और उग्र लेकिन व्यवहार में एकदम सीधे-सादे और नम्रता के अवतार। सादा जीवन लेकिन विचारों से उच्चता गायब । प्राचार्य जैसे उच्च पद पर कार्य करते हुए भी उनके रहन-सहन में कोई अन्तर नहीं आया। भोजन बिलकुल साधारण । पकौड़ी उनकी कमजोरी थी । कहीं भी जाते तो चाय के साथ पकौड़ी की मांग अवश्य करते । कोई विशेष लत-नहीं।  हां, छिपकर यदा-कदा बीड़ी का सुट्टा अवश्य लगाते । मुफ्तखोरी से उन्हें चिढ़ थी। वे न उत्कोच देते या लेते थे। कॉलेज के लेखा - परीक्षण के लिए एजी आफिस से लेखा-परीक्षक आए थे। कुछ विशेष अनियमितताएं पकड़ी गईं तो वर्मा जी ने टिप्पणी लिखी- भविष्य में ध्यान रखा जाएगा।
लेखा परीक्षक समझते थे कि प्राचार्य महोदय लीपा-पोती के लिए उनकी जेबें गरम अवश्य करेंगे । लेकिन वर्माजी ने उन्हें हनुमान चालीसा की प्रतियां भेंट की और वे देखते रह गए । कुछ कह भी नहीं पाए और चुपचाप चलते बने ।
पीठ पीछे लोग उन्हें मक्खीचूस भले ही कहते हो लेकिन सामने कुछ नहीं कह पाते । उनका यह रूप निश्चित रूप से श्लाघनीय है किन्तु विचारो का वह उग्र रूप......। कौन सा रूप वास्तविक है और कौन सा ओढ़ा हुआ ....आज तक समझ नहीं पाया।

Sunday, March 1, 2020

चलचित्र


काश कोई ऐसा तरीका मेरे पास हो, मैं कहानी का पाठ करूँ और आप उसे दृश्य में देख सकें तो सम्भव है कि नवीन नैथानी की कहानी हत वाक के बारे में मुझे अलग से कुछ कहना न पड़े। 'स्मार्ट सिटी' की अवधारणा में उधेड़ी जा रही भारतीय समाज की बुनावट तो दृश्य के रूप में सामने हो ही, अपितु तंत्र द्वारा विकास का झंडा गाड़ते हुए भूगोल की जो 'सीटी' बज रही है, वह भी सुनाई देने लगे।
मेरे देखे, समकालीन यथार्थ को इतने कलात्मक ढंग से दर्ज करती यह अभी तक कि यह पहली हिंदी कहानी होनी चाहिए। अभी तो कहानी को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश में यहां इसलिए लगा रहा हूँ कि कथादेश के फरवरी अंक में जो पढ़ न पाए हैं, पढ़ सकें।
कभी विस्तार से लिखने का अवसर निकाल पाया तो जरूर लिखूंगा। गंवई आधुनिकता से भृष्ट आधुनिकता के दो छोरों पर डोल रही हिंदी कहानियों के सामने यह कहानी ठीक मध्य में खड़े होकर आधुनिकता के सही रास्ते का मार्ग ढूंढने में सहायक हो रही है। 
वि गौ



                नवीन कुमार नैथानी


             मुझे अभी तक यकीन नहीं हो रहा कि मेरी आवाज फिर से बन्द हो गयी  थी.कहा जाता है कि हादसों  के वक्त ऐसा हो जाया  करता है .पर मेरे साथ तो कोई हादसा नहीं घटा. लोगों को  ऐसा लगता है.पुरानी ईमारतें गिरती रहती हैं.पुराने मकान भी ढह जाते हैं.सबका वक्त तय है.
          आवाज लौटने के बाद मुझे वह सब बता ही देना चाहिये.एक डर सा कुछ फिर भी बना रहता है- सुनेगा कौन? जो मैं कह रह हूँ , कोई उस पर यकीन भी करेगा? सब लोग जानते हैं कि डूबते हुए जहाजों के साथ पुराने जमानों के  कप्तान जहाज नहीं छोड़ दिया करते थे.पर टूटते हुए मकान कोई जहाज नहीं होते.मकानों को लोग बहुत आसानी से छोड़ देते हैं.जब लोग रहना छोड़ देते हैं तब भी मकान नष्ट होने लगते हैं. धीमे-धीमे...
         मुझे सादी नानी के मकान की याद है.उनका सही नाम क्या था? यह हममें से किसी को नहीं पता.उनका कोई और नाम रहा भी हो, यह जानने की शायद किसी ने कोशिश भी नहीं की.ननिहाल में नाना के घर से चार घर उत्तर की तरफ सादी नानी का मकान था – बहुत बड़ी और ऊँची दीवारों से घिरा हुआ ; मिट्टी और धूल और हवाओं मेम उड़ते हुए पत्तों से खड़खड़ाता हुआ.सादी नानी को हमने नहीं देखा.बहुत पहले वे अपनी बेटी के पास विदेश चली गयी थीं.जब तक नाना रहे,सादी नानी के मकान की देख-भाल होती रही. नाना एक हिलती हुई आरामकुर्सी की तरह स्मृतियों में दर्ज़ हैं.उनके हाथ में हमेशा एक अखबार रहा करता जो पिछली शाम को शहर से आने वाली इकलौती बस पर चलकर उनके पास पहुँचता.नाना के बाद वह मकान यतीम हो गया.उसकी चार-दीवारी पर यहाँ-वहाँ पीपल के मुलायम पत्ते निकलने लगे. बड़े दरवाजे पर मोटी और मजबूत साँकल आ टिकी.
        सादी नानी के घर की वह साँकल अब भी किसी बुरे सपने की तरह मेरी यादों में चली आती है.वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.नाना के बाद नानी अकेली रह गयी थीं.वे आती हुई सर्दियों के नम दिन थे और आसमान जाती हुई बारिशों की धुलाई से बहुत साफ बना हुअ था.हम लोग हमेशा की तरह शाम की बस से पहुँचे थे.सफर की थकान के साथ सब लोग रात होने से पहले ही ऊँघने लगे थे.मैं सुबह होने से पहले ठीक से सो भी नहीं सका.सपने में भी सादी नानी का घर दिखायी देने लगा था.जब भी हम आते , नाना गोविन्द मामा को बुला लेते थे.गोविन्द मामा हमें सादी नानी का घर दिखाने ले जाते थे.उस घर की चार-दीवारी के भीतर एक बहुत बड़ा कुंआ था.हम दौड़ कर कुंए तक पहुँचते और तुलसी चौरे के पास आँख बन्द कर सूरज की पहली किरणों का इन्तज़ार करते.नाना के बाद गोविन्द मामा को बुलाने वाला कोई नहीं था.सुबह होते ही सादी नानी का घर मुझे पुकारने लगा.
      सादी नानी के घर की तरफ दौड़ते हुए दरवाजे की चौड़ी चौखट फलांगने में मुझे बहुत आनन्द आता था.उस सुबह जब मैं अकेला उस दरवाजे के पास पहुँचा तो स्तब्ध रह गया. वापस लौटा तो बहुत देर तक मेरी आवाज नहीं निकल पायी थी.वह आवाज बन्द होने का पहला हादसा था जो मेरे साथ घटा था.वह सच में एक हादसा था.सादी नानी के घर का दरवाजा बन्द था और उस पर एक मोटी साँकल लगी हुई थी.वे मेरे बचपन के दिन थे और मैंने पहले कभी बन्द दरवाजे नहीं देखे थे-बाहर से बन्द.अपने घरों में हम जब भी प्रवेश करते तो दरवाजे हमेशा खुले हुए मिलते.हम जब घरों से बाहर निकलते तो पूरा घर हमारे साथ खाली नहीं हो जाता था – घर के भीतर तब भी बहुत सारे लोग रह जाते थे.
मुझे बाद में बताया गया कि कुल चार घण्टे तक मेरी आवाज नहीं निकली थी.गोविन्द मामा को बुलाया गया.आवाज लौटने के बाद मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ था?
“ तुम्हारी आवाज रूठ गयी थी” मनोज मामा ने मुझे बहलाते हुए कहा था.
“नहीं.यह सच नहीं है,”मुझे लगा जैसे आवाज का रूठना कोई बहुत बुरी बात हो,“मेरी आवाज नहीं रूठी थी.वह सादी नानी को ढूँढने चली गयी थी.”
“तुमने तो सादी नानी को देखा भी नहीं.”
“तो क्या हुआ!उनका घर तो देखा है.”
“ठीक है ,मान लेते हैं,”गोविन्द मामा की आँखों में अजीब तरह की चालाकी चली आयी थी,“तुम तो सादी नानी को पहचान लेते.तुम्हारी आवाज कैसे पहचानती ?”
एक बच्चे के लिये इस सवाल का जवाब देना मुश्किल था.गोविन्द मामा ने मुझे चुप देखा तो अपने होंठों से सीटी की तेज आवाज में एक धुन बजाने लगे.
“यह धुन मत बजाओ.” मैंने उन्हें टोक दिया था.
“क्यों”
“यह धुन सादी नानी को अच्छी नहीं लगेगी.”
“वे तो यहाँ नहीं हैं”
“जब वापस लौटेंगी तो उन्हें दिखायी दे जायेगी.”
“कैसे”
“तुम्हारे होंठों से निकल कर वह सादी नानी के दरवाजे की साँकल में छिप गयी है. वे लौटेंगी तो दरवाजे को खोलेंगी. जैसे ही साँकल हटायेंगी,धुन वहाँ से बाहर निकल जायेगी.”
बहुत देर तक वहाँ कोई आवाज नहीं निकली.सब लोग चुप होकर मुझे देखते रहे.शायद उन्हें लग रहा था कि एक छोटा बच्चा इस तराह की बातें क्यों कर रहा है.पर मेरे लिये इसमें अजूबे जैसा कुछ भी नहीं था.आज सोचता हूँ तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होता.बचपन से अधिक सहज और सरल जीवन में और है भी क्या! वह ननिहाल की मेरी आखिरी यात्रा थी.उसके बाद कभी ननिहाल जाना नहीं हो सका.
आवाज के साथ दूसरा हादसा कोई पच्चीस साल बाद घटा .तब तक मैं पत्रकारिता को एक पेशे के तौर पर पूरी तरह अपना चुका था.लोगों से मिलना और नयी जगहें देखना मेरा शौक था.धीरे-धीरे यह शौक एक जुनून में बदलता गया. अनजाने इलाकों में जाना मुझे अच्छा लगता था. मैं कई दिनों तक घर से बाहर निकला रहता.मेरे आस-पास के ज्यादातर  लोग घरों में बने रहते.बाहर निकलते भी तो बहुत जल्दी अपने घरों में लौट आते.
“अरे , नरेन!” कहाँ निकल गये थे?” लोग मुझसे अक्सर कहते,“इस तरह भटकते हुए कहीं घर का रास्ता तो नहीं भूल जाओगे?”
मैं इस तरह के सवालों का जवाब अक्सर नहीं दिया करता था.एक रोज यही बात सावित्री चाची ने कही.
हाँ, सावित्री चाची! वही सावित्री चाची जो मेरे उस फ़ीचर की केन्द्रीय तस्वीर  में थीं .अधखुले और अधबन्द दरवाजे के बीच-दहलीज पर ठिठकी हुईं. सावित्री चाची से हमारा खून का रिश्ता नहीं था.लेकिन कभी हमने महसूस नहीं किया कि वे हमारे परिवार की सदस्य नहीं हैं.वे गली और मुहल्लों के दिन थे.तब कॉलोनियाँ सुदूर भविष्य में कहीं जन्म लेने की सोच रही थीं.
“नरेन!लोग तुम्हारे बरे में क्या-क्या बातें करते रहते हैं.”एक रोज उन्होंने कहा था,“तुम हमेशा भटकते रहते हो.अब यह भटकना बन्द करो.”
“चाची मैं भटकता नहीं हूँ.”मैंने कहा था,“जिसे लोग भटकन कहते हैं वह तो यात्रा है.आप को कहना था, मैं निरन्तर यात्रा में रहता हूँ.”
चाची सन्तुष्ट नहीं हुईं.उन दिनों वे सन्तुष्ट नहीं होती थीं.सन्तोष करने के लिये उनके पास बहुत कुछ था भी नहीं.वे उम्र के पचास बरस पार करने के बाद भी उसके इन्तज़ार में थी – जिसका उन्हें खुद भी पता नहीं था.
“आखिर मुझे भी पता चले कि तुम्हारी यात्रा में और भटकन में क्या फर्क है?” चाची बहुत संजीदा थीं.
“भटकता हुआ आदमी न कहीं पहुँचता और न कहीं लौटता है.” मुझे याद है, चाची यह जवाब सुनकर उदास हो गयी थीं.
थोड़ी देर हमारे बीच चुप्पी ठहर गयी.उसका भारीपन जमी हुई बर्फ की तरह महसूस किया जा सकता था.उसे सिर्फ आवाज की नमी से हटाया जा सकता था.
“देखो चाची,यात्रा में हम हमेशा किसी जगह पहुँचते हैं और फिर वापस लौट आते हैं.”
जो लोग कहीं पहुँच जाते हैं और वापस नहीं लौटते?
शायद चाची यह सवाल पूछना चाहती थीं.लेकिन वे चुप रहीं.उनकी उदासी और ज्यादा बढ़ गयी थी. एक सुबह चाचा घर से बाहर निकले तो कभी वापस नहीं लौटे.उनके कहीं भी होने की कुछ भी खबर नहीं मिल सकी.क्या चाचा अब भी कहीं भटक रहे होंगे.
“तो तुम एक काम क्यों नहीं करते?” चाची अचानक भीतर की यात्रा से बाहर लौट आयी थीं,“तुम जितनी जगहों पर जाते हो, जितने लोगों से मिलते हो ,जितनी बातें करते हो,उन्हें दर्ज कर लिया करो.”
तब मैंने सावित्री चाची की सलाह मान ली और अपनी यत्राओं के अनुभव लिखने लगा.शुरू में मैंने दो यत्राओं के अनुभव लिखे और चाची को सुनाये.
“इन्हें तो दुनिया के सामने आना चाहिये.तुम इन्हें अपने पास नहीं रख सकते.” बहुत देर तक चुप रहने के बाद वे बोलीं,“इन्हें छपने भेजो.”
सावित्री चाची निरन्तर मुझे लिखने और छपने के लिय उकसाती रहीं.वह एक तरह से  मेरे पत्रकार होने की शुरुअत थी.जैसे-जैसे मैं पत्रकारिता के दुनिया में रमता गया,वैसे-वैसे मेरा घर जाना कम होता गया.जब भी घर लौटता तो तीन गली पार कर सावित्री चाची के घर जरूर जाता.
“तो अब तुम्हारा भटकना बढ़ गया है.” चाची उलाहना देतीं.
“अर, कहाँ चाची.अब तो बस भागम-भाग है.बस, खबरोम के पीछे भागो,हादसों की जगहों पर भागो.”
“भागती हुई दुनिया भी भागती कहाँ है नरेन!जिसे तुम भागम-भाग कह रहे हो ना!वह और कुछ नहीं है.बस भटकन है”
उस वक्त सावित्री चाची की बात सुनकर मुझे अजीब सा अहसास हुआ था.उनका इकलौता बेटा एक अच्छी नौकरी पाकर दूसरे शहर में चला गया था.चाची एक स्कूल में पढ़ाया करती थीं.
अगली बार जब मैं घर गया तो आदतन,चाची के घर की तरफ चल दिया.जिस घर में चाची रहती थीं ,वहाँ ताला लगा हुआ था.मैं घर वापस लौटा तो कुछ बोल ही नहीं सका.मेरी आवाज कहीं चली गयी.तीन दिन तक मेरी आवाज नहीं लौटी.मैं कुछ बोलना चाहता तो बोलने के लिये आपनी आवाज को ढूँढता.वह कहीं दूर सादी नानी के कुंए में छिप जाती.मुझे सब कुछ साफ दिख रहा था.आस-पास लोग थे.उनकी आवाजें सुनायी देती थीं.
तीन दिन बाद जब मेरी आवाज लौटी तो मैंने सावित्री चाची के बारे में पूछा.माँ ने बताया कि एक महिना पहले उन्होंने अचानक नौकरी छोड़ दी.वे गाँव चली गयी हैं.वहाँ चाची का पुश्तैनी मकान है.उसमें कोई रहने वाला नहीं है.चाची त्क खब्र पहुँची थी कि मकान टूट रहा है.भारी मन के साथ मैं काम पर वापस लौटा.
गाँवों की बदलती दुनिया के बारे में एक फीचर तैयार करते हुए मुझे ननिहाल की याद आयी.सादी नानी के घर की याद आयी –उनके बन्द दरवाजे में पड़ी साँकल का दृश्य आँखों के सामने कौंध गया.नानिहाल जाने की इच्छा खत्म हो गयी.फिर मुझे सावित्री चाची का ध्यान आया – वे भी तो गाँव में रह रही हैं.मैंने तय कर लिया फीचर के लिये यात्रा की शुरुआत सावित्री चाची से मिलकर की जाये.
गरमियों की लम्बी और धूल भरी दुपहर पार कर मैं वहाँ पहुँच सका था.वह पुराना और बड़ा मकान था.बाहरी दीवार के पत्थर कई जगहों पर हिल रहे थे और टीन की छत बदरंग हो चुकी थी.बहुत बड़ा, लकड़ी का पुराना दरवाजा खुलने और बन्द होने के बीच की स्थिति में झूल रहा था-आधा बन्द और आधा खुला.
“दरवाजा बन्द है कि खुला?” मैंने सावित्री चाची से मिलते ही सवाल किया.
“कोई भी आता है समझ लेती हूँ कि दरवाजा खुला है.जब चला जाता है तो समझ लेती हूँ कि बन्द हो गया है.”
सावित्री चाची बहुत बूढी लग रही थीं. शायद चन्द सालों में वे दशकों की उम्र जी ली थीं.कद वही था,चेहरा वही था,आवाज भी वही थी.बस सावित्री चाची वह नहीं रह गयी थीं.उन्को देख कर लगा कि कुछ है जो बदल गया है. जाती हुई उम्र के छूटते हुए निशानों के अलावा भीतर कुछ है जो दरक रहा है-आहिस्ता-आहिस्ता.
“अचानक कैसे चले आये!खबर कर दी होती”
“आपसे मिलने का मन हो आया.”
“झूठ बोलना नहीम छोड़ा ,नरेन!”क्षण भर को लगा कि चाची वही हैं.
“अरे चाची! बदलती दुनुया के साथ गाँव भी तो बदल रहे हैं.पहले छूटते गाँवों की कहानी ढूँढते थे.अब बदलते गाँवों की कहानी पर काम कर रहा  हूँ”
“क्या बदलेगा नरेन!” चाची ने लम्बी सांस ली,“मैं तो ऊपर वाले से मना रही हूँ कि मेरे रहए तो हवा खराब न हो. सड़क किनारे के गाँव और घर दोनों अब पैसों में बदलते जा रहे हैं”
उनका बेटा चाहता था कि वे उसके पास रहने चली आयें.खाली मकान वैसे भी एक बोझ है.वह ढहा दिया जाये तो जमीन की ठीक कीमत मिल जायेगी.लौटते हुए आधे बन्द दरवाजे तक वे मुझे विदा करने आयीं.
“एक फोटो!” उस खुले-खुले से बन्द दरवाजे के फ्रेम में उनकी मौजूदगी जिन्दा साँसों की तरह महसूस हो रही थी.
“जानते हो नरेन!मेरी क्या इच्छा है?”उन्होंने रुकते हुए कहा था,“यही कि इस घर को भीतर से इतना सजा दूँ कियहाँ से कोई जाना ही न चाहे.”
“अरे! चाची ठीक ही है,”मुझे यह खयाल कुछ जमा नहीं.
“शृंगार तो बुढ़िया भी करती ही है.”विदाई के वक्त मैंने महौल को हलका बनाने के इरादे से कह दिया.
चाची के चेहरे के भाव जिस तरह से बदले ,उन्हें देखकर मुझे लग गया कि मैं बहुत बड़ी भूल कर चुका हूँ.उनके चेहरे में हैरानी,पीड़ा और गहरी हताशा के भाव एक के बाद एक आये और चले गये.
वे कुछ नहीं बोलीं.हलके से मुस्करायीं.उस मुस्कान में उदासी के तमाम रंग एक साथ उभर आये थे.मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं एक बार फिर से मुड़कर सावित्री चाची की तरफ देखूँ.मैं चुपचाप बाहर निकल आया.
वह फीचर बहुत पसन्द किया गया.उस फीचर में मैंने सावित्री चाची का फोटो भी छापा था.वही-आधे खुले हुए दरवाजे के पास-उदासी से भरी हुई मुस्कराहट के साथ.वे भीतर थीं कि बाहर , पता नहीं चल पाता था.
उस फीचर के चार साल बाद मुझे एक बार फिर वहाँ जाना पड़ा.तब वहाँ भीड़ थी,बहुत सारे पत्रकार थे और टेलीविजन के कैमरों की चमक थी.सड़क को चौड़ा होना था और उसकी जद में आने वाले गिने-चुके मकानों को ध्वस्त किया जा चुका था.सिर्फ एक मकान बचा रह गया जिसमें रहने वाले इकलौते बाशिन्दे ने बाहर आने से मना कर दिया था.बहुत सारे पत्रकार उसका साक्षात्कार लेने की कोशिश में असफल हो चुके थे.मेरे पास यह खबर पहुँची तो मैं समझ गया कि जरुर सावित्री चाची होंगी.मैं तुरन्त रवाना हो गया.मैं सावित्री चाची से बात करने के लिये बेताब था.रास्ते में सोचता रहा कि उनसे किस तरह बात की शुरुआत करूंगा.सबसे पहले तो मुझे पिछली बार विदा के वक्त कही गयी बात के लिये माफी माँगनी होगी.मैं कई तरह के वाक्य सोचता रहा.हर वाक्य गलत लगता.मुझे अपनी शर्मिन्दगी को बयान करने वाले शब्द नहीं मिल रहे थे.आखिर मैंने कोशिश छोड़ दी.तय कर लिया कि उनके सामने जो शब्द निकलेंगे वे  ठीक ही होंगे.
भीड़ के बीच रास्ता बनाने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई.बाहर का दरवाजा पूरी तरह खुला हुआ था.भीतर का दरवाजा भी. वे सीढ़ियों के ऊपर वाले कमरे में थीं.लकड़ी के बने फर्श पर पुराना कालीन बिछाये बैठी हुई थीं.उन्हें देखकर मैं स्तब्ध रह गया.मैंने पहले कभी उन्हें इस रूप में नहीं देखा था.उन्होंने पूरा शृंगार किया हुआ था.वे डूबते हुए जहाज  की डेक पर एक दुल्हन की तरह बैठी थीं.
“आओ,नरेन!”उन्होंने मुझे पहचान लिया था,“मकान को तो मैं सजा नहीं सकी.खुद को सजा लिया है.”
उनकी आवाज और चेहरे की भंगिमा देखकर मैं अवाक रह गया.मैं कुछ नहीं कह पाया.मेरी आवाज बन्द हो गयी.
मैं कैसे मान लूँ कि वह हादसा था.वह दृश्य बहुत साफ दिखायी दे रहा है.अब शायद उसके बारे में न कह पाऊँ.मुझे डर है कि मेरी आवाज एक बार फिर बन्द हो रही है...
नवीन कुमार नैथानी
ग्राम+पोस्ट भोगपुर
जिला देहरादून
248143

Monday, January 13, 2020

समकालीन आलोचना के दायरे से बाहर

वर्ष 2019 में कवि राजेश सकलानी का कविता संग्रह ‘’पानी है तो फूटेगा’’ राहुल फाउंडेशन ने प्रकाशित किया। हिंदी आलोचना की सीमा, दयनीयता और गैर पेशेवराना रवैये के चलते हिंदी का ज्यादातर पाठक संग्रह से अपरिचित ही रहा। जबकि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि राजेश सकलानी की कविताएं न सिर्फ भविष्य की हिंदी कविता के लिए बल्कि सामाजिक, राजनैतिक संघर्षों की दिशा के लिए भी एक टर्निंग प्वा‍इंट साबित होने की संभावना से भरी हैं। क्रूर एवं मजबूत होती राज्या व्यंवस्था के विरूद्ध आवाम की जीत कैसे सुनिश्चित हो, राजेश सकलानी के कवि चिंतन की दिशा उसका प्रमाण है। ‘’पानी है तो फूटेगा’’ के प्रकाशन के बाद राजेश सकलानी की कविताओं का स्‍वर किस दिशा में आगे बढ़ता हुआ है, उसे समझने के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नयी कविताएं 
हिन्दी कविता में उदात की अवधारणा से भरे तत्वों को खोजा जाये तो बहुत ही क्षीण उपस्थिति दिखती है। वर्ग विभेद की प्रभावी अवधारणा को धारण करती कविता में भी उनकी उपस्थिति बहुत उल्ले खनीय तरह से उभर नहीं पाती है। जबकि उदात का संबंध ही शोषक विहीन, शोषण विहीन समाज की अवधारणा से है। संघर्ष के रणनीतिक पहलू से दूरी बनाकर चलने के कारण भी ऐसा हुआ हो, ऐसा माना ही जा सकता है। शत्रु की पहचान, उसके आक्रमण एवं अत्यााचारों के विरुद्ध प्रतिरोध तो भरपूर तरह से आता है लेकिन उनकी परिणति संवेदना के जागरण पर पहुंच कर विश्राम करती हुई ही बनी रहती है। शोषित वर्ग की जीत का सपना किस तरह साकार हो सकता है, हिन्दी कविता इस ओर से अपरिचित ही नजर आती है। संघर्ष को अंजाम तक पहुंचने के लिए जिस तरह से मित्र वर्गों के बीच मोर्चेबंदी होनी चाहिए, उसके प्रति कवि के लापरवाह होने के संकेत भी यहां छुपे हुए होते 
हैं। उदात का पक्ष बनती सकलानी की कविता इस दृष्टि से ज्यादा महत्‍वपूर्ण नजर आती है। सकलानी की कविताओं में सम्प्रेषण की सारी ऊर्जा उस वैचारिकी के लिए उत्सकर्जित है जिसका प्रबल गुण उदात का संचरण करना है। जनवाद के सर्वोत्तपम रूप को हासिल करने की यह कोशिश शोषक और शोषण विहीन समाज की स्पष्ट पुकार है। भाव और विचार आपस में संगुम्फित हैं, उन्हें खण्ड-खण्ड तरह से न तो चिह्नित किया जा सकता है और न ही कवि के देखने और दिखाने के तरीके में वे विगलित होकर जगह पाते हैं। काव्यात्मक चमत्काार पैदा करना भी कवि के उद्देश्य से बाहर बना रहता है। जबकि कलात्मक कसौटी पर भी वे खरी-खरी कविताएं होकर सामने हैं। अपने समकाल में विन्यशस्तय उनके कथ्य भविष्य‍ की आशवस्ति से भरे हैं और बीते हुए की वस्तुननिष्ठ आलोचना करने का अवसर प्रदान करते हैं। इस तरह से ये कविताएं एक कवि के आत्मय संघर्ष का बयान बनकर सामने आती हैं। कवि की उन चेष्टाओं का भी साक्षात कराती हैं जो षडयंत्रो के दांव पेंच से हरा दिये जा रहे सर्वहारा की क्षमताओं को निश्चित स्तर तक उठा देने का सहारा हो जाना चाहती हैं। जाहिर है ऐसा तभी संभव है जब सामूहिकता सामाजिक मूल्य के रूप में स्थानपित हो। राजेश सकलानी की कविताएं सामूहिकता का पाठ रचने की हर संभव चेष्टा करती हैं।

राजेश सकलानी की कविताएं


हमें जमीन चाहिए



हमें जमीन चाहिए आसमान चाहिए
ये धरा स्वतन्त्र है हमें समान चाहिए

क्यों किसी को दर्द हो
क्यों झुके कोई नजर
क्यों डगर में शूल हो
क्यों जिन्दगी अगर मगर

हमें सुकून चाहिए
रोजगार चाहिए
ये धरा सभी की है
हमें मुकाम चाहिए

क्यों जुलम किसी पे हो
क्यों बने ख़ुदा कोई
क्यों उपज की लूट  हो
क्यों मान पर बुरी नज़र

हमें भाईजान चाहिेए
आन-बान चाहिए
ये धरा समृद्ध  है
समाजवाद चाहिए

क्यों श्रम रहे दबा दबा
क्यों जन्म से गरीब हो
क्यों उदास फूल हों
क्यों सनम रकीब हों

हमें मजूर चाहिए हमें किसान चाहिए
ये धरा लगाव है न्यायवान चाहिए 

राम सुरेश

राम और सुरेश जब पी चुके तो
राम ने कहा मुझे कह ही देना चाहिए
वास्तव में मैं जात का दलित हूं
तब सुरेश ने कहा इससे क्या फर्क पड़ता है
मेरे लिए तुम जैसे हो वैसे ही हो
राम ने स्थिर होकर देखा
इससे तुम बड़े हो जाते हो
मैं और भी दब जाता हूं, यह गलत है
तुम जो कर चुके हो वह कर चुके हो

मुझ में समुद्र से भारी आवाज उठती रहती है
तट पर हमेशा ठाठे टकराती रहती हैं
तरल उछाले लेता रहता है
मेरा रूप रोज बनता है
एक सुहावनी दृढ़ता मेरे आकार को गढ़ती है
आने वाले हजारों हजार सालों के लिए
मेरा बदन ठोस धातु में बदलने को हैं
अभी वक्त है यदि सूर्य की तरह आभावान होना है तो
मेरी भट्टी में आकर पिघल जाओ ।


विराट घर


मैं अपने घर को छोटा क्यों करुंगा
मैं एक विराट घर में रहता हूं
मेरे अजस्र हाथ है
मैं एक भी हाथ कम नहीं करूंगा
मेरे अनंत दोस्त हैं
मैं एक भी दोस्ती कम नहीं करूंगा

तुम बुद्धू हो क्या
तुम्हें एक भी खिड़की बंद नहीं करने दूंगा

मेरे आसमान के भीतर चुपचाप समा जाओ
वरना बाहर कर दूंगा, समझे।


ज्यादा


ज्यादा ज्यादा ज्यादा
हम मिलजुल कर ज्यादा
मुठिया भी ज्यादा
और बातचीत ज्यादा

अपने खेत ज्यादा ज्यादा
खलिहान ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा
अपने काम ज्यादा ज्यादा

अपनी भूख ज्यादा ज्यादा
अपनी प्यास ज्यादा ज्यादा
आसमान ज्यादा ज्यादा
जमीन ज्यादा ज्यादा

अपने गांव ज्यादा ज्यादा
अपने पांव ज्यादा ज्यादा
ये नगर ज्यादा ज्यादा
ये डगर ज्यादा ज्यादा

पत्ते पत्ते पत्ते
और फूल ज्यादा ज्यादा
धूप ज्यादा ज्यादा
मानसून ज्यादा ज्यादा

अपने काम ज्यादा ज्यादा
अपनी जिम्मेदारियां हैं ज्यादा ।



तंग घरों का मोहल्ला


आप जिस तरफ से आते हो
सरसरी तौर पर पता नहीं कर सकते
कौन आदमी क्या है
सारे के सारे जन किसी मोड़ पर मददगार हैं
जब मौसम खुशगवार हो तो वे बहुत भारी पड़ने वाले हैं
गांधी भी यही हैं और अंबेडकर भी
पैदल चलने वालों को भारी कठिनाई है
बांझ गाय और उपजाऊ कुत्ते खराब सेहत के बावजूद
छोड़कर नहीं जाते हैं
आप जोर से बोलो तभी सुने जाओगे
यहां आओगे तो दोबारा जरूर आओगे
एक दो मूर्ति यहां और लगेंगी
बुरी होंगी तो भी बोलती हुई अच्छी लगेगी
यहां से कुछ सारगर्भित आवाजें लेकर जाओगे
लापरवाही करोगे तो अधूरे रह जाओगे ।


हमसे दशहरा बन पड़ा



जब हम सच्चे थे तो दशहरा बन पड़ा
मेघनाथ कुंभकरण और रावण लुभावने बने
अपने चेहरे हमने मैदान में रुला मिला दिए
कोई बामण बनिया क्षत्रिय नहीं रह गया
ऊपर आसमान दलित जैसा सुंदर हुआ
मुसलमान रावण के मुकुट पर काम करता था
आंख नाक कान जाने हमारी कल्पना से ऊंचा बनाता था
हथियार खुश होकर गत्ते और मांस की खप
 चियों के बन पड़े


सारे रचनाकार गुमनाम हुए
न वो राजा हुए न पुरोहित हुए न मालदार हुए
हतप्रभ पुतले महाकाय हुए
इतने मासूम की अनुकरणीय हुए
पूरे इलाके में दिलों का मेला बन पड़ा ।


कैमरा


माफ करना मैंने चुपके से तुम्हारी सुंदर चीजें
अपने पास रख ली है
मैं उन्हें कभी लौटा नहीं पाऊंगा
तुम्हें मेरी चोरी का पता नहीं चलेगा
मेरा वक्त अच्छा निकल जाएगा
किसी को इसकी भनक नहीं होगी 
यह मेरे साथ चली जाएंगी

सुंदरता के संरक्षण के नियम के अंतर्गत
कहीं दूर देश में बल्ब जगमगा उठेंगे
बहुत जनों के होठों पर तुम्हारी जितनी
अबोध मुस्कान आएगी

अगर तुमने मेरी चोरी पकड़ ली हो
तो 100 गुना ज्यादा रोशनी प्रकाशित होगी
तुम मुझे बता दो तो
मैं खुशी से बर्बाद हो जाऊंगा ।


घोड़े

हरे मैदान में चढ़ते घोड़े
अनूठा भाव जगाते हैं


सुंदर हैं कसे हुए हैं
जाने कैसी याद जगाते हैं

जाने क्या सोचते है
कि हमें अकुलाते है

जिन्हें वास्ता है घोड़े को खूब प्यार करते हैं
चौकड़ी भरते हैं
गिरते हैं


जब तक हम जिंदा है
ज़िन्दा घोड़ों से अपना प्यारा रिश्ता है
यह दिलकश है
विधि सम्मत है
अनुभव सम्मत है

यू घोड़े भी जान गवाते हैं
पर दंगे नहीं कराते हैं ।  


लहसुन का सपना


लहसुन की प्रतिबद्धता पूर्ण है
उसमें नहीं दुराव की गुंजाइश
विनम्र है आवरण बनावट सुगठित
उसकी अंतर्वस्तु दृढ़ता से अर्जित है

कशी बंदी हैं कलियां युक्ति से
हमारे हक के लिए फूटने को तैयार
सुगंधी विस्तारित होने को तत्पर है

हमारे बचपन जैसी खिली हुई है कलियां
सही इरादों से जैसे प्रफुलता खुल जाने को है ।