हमारे लिये यह खुशी की बात है कि कथाकार राज बोहरे ने अपनी पसंद की कहानियो का चयन हमारे साथ शेयर करने का दायित्व लिया है. उसी शृंखला की आज पहली कहानी उनकी टीप के साथ प्र्स्तुत है. |
पार
जान-पहचानी गैल पर पैर अपने-आप
इच्छित दिशा को मुड़ जाते थे। हरिविलास आगे था-पीछे कमला उसके पीछे अपहरण किया गया लड़का
तथा गैंग के तीन सदस्य और थे यानी कुल छह जने। जिस समय वे ठिकाने से चले थे तब सामने पूरब में शाम का
इन्द्रधनुष खिंचा था अतः अनुमान था कि
सबेरे पानी बरसेगा-संझा धनुष सबरे पानी। ठिकाने पर एक दिन भी सुस्ताते हुए न काट पाए थे कि मुखबिर की खबर
आ गई थी-ठिकाने पर कभी भी घेरा पड़ सकता है। ऊपर का दबाव है इसलिए डी0आई0जी0 भन्ना रहा है। दो जिलों
की पुलिस का खास दस्ता एक नये डिप्टी को सौंप दिया है। नाक में दम कर रखा है
हरामजादे ने।
ऊँ.... कुछ कहा हरिविलास पथरीली पगडण्डी
पर बढ़ता हुआ बोला।
नहीं तो ! कमला जाने किस सोच से बाहर
आई-कभी-कभी पहाड़ दूभर हो जाता है।
बूँदा-बाँदी से रपटन बढ़ गई है।
पहाड़ की ऊँचाई तो पहले ही जितनी है। बात को मजाकिया मोड़ देने की आदत है हरिविलास को।
तीन घण्टे में इस कीच-खच्चड़ के
मौसम में छह कोस बढ़ आना कम नहीं है। ऊपर से कंधे पर पाँच-सात सेर वजन बंदूक का
रहता है पीठ के सफरी बैग में
जरूरत की चीजें और कपड़े-लत्ते ठुँसे होते हैं। पुलिसवालों के खाने-पीने गोली-बारूद के इंतजाम में तो
पूरी सरकार पीछे होती है। यहाँ तो एक-एक चीज़ खुद जुटानी पड़ती है। सुई से लेकर
माचिस तक के लिए दहेज-सा देना पड़ता है।
इस बार की पुलिसिया सरगर्मी में
कमला के गिरोह ने तय किया है कि पूरब में पचनदा पार कर यू0पी0 में दस-पन्द्रह दिन गुजार लिये जाएँ। खबरे हैं कि उधर की पुलिस और सरकार
दूसरी उठा-धराई में उलझी है इसलिए माहौल अनुकूल है। वैसे डाँग ही डाँग (जंगल)
शिवपुरी की ओर भी निकला जा सकता था या धौलपुर को बगल देते हुए राजस्थान में भी
कूदने से सुरक्षित हुआ जा सकता था।
पहाड़ की आधी चढ़ाई तक
पहुँचते-पहुँचते कमला की पिण्डलियाँ और पंजे पिराने लगे। धाराधार धावे में केवल दो
जगह पानी पिया है। चलते-चलते बैठने पर थकान चढ़ दौड़ती है और बागी जीवन में आलस नींद और खाँसी तीनों खतरनाक हैं।
माता की मढ़ी बस एक सपाटे-भर दूर है-बीस बाइस मिनिट का रास्ता पर कमला ने हाथ की टार्च जमीन की
ओर झुकाकर दो बार जलाई-बुझाई। इसका मतलब वहाँ कुछ सुस्ताना है।
वह पगडण्डी के पत्थर पर बैठ गई
तो गिरोह आसपास सिमट आया। अपहत यानी पकड़ छीतर बनिया का पन्द्रह सोलह साल का लड़का है। पखवारे पहले गाँव के बाहर से
गिरोह ने धर लिया था। हँगने आया था-पूँजी के नाम पर वही लोटा उसके पास है। दो लाख
की फिरौती माँगी गई है। बिचौलिया एक पर लाना चाहता है। कहता है कि बनिया जरूर है
जाति से पर दम नही है उसमें।
गाँव-गाँव फेरी लगाकर परिवार पालता है। गाँठ की कुल जमा चार बीघा जमीन बेच-बाचकर
ही एक लाख की रकम जुटा पाएगा। खरीदार भी तो ऐसे बखत औनी-पौनी कीमत लगाते हैं।
कमला डेढ़ लाख पर उतरकर अड़ी है।
गरीब सही, पर है तो बनिया !
हाथी लटा (दुबला) होने पर भी बिटौरा सा होता है।
इधर आ रे मोंड़ा !
कमला की कड़क से सहमता लड़का उकरूँ
आ बैठा। थकान से वह भी टूटा हुआ था। कमला उसे लद्दू बनाए थी। लद्दू यानी
लादनेवाला। छह कोस से वह कमला का बैग और बंदूक ढो रहा है। अपनी ग्रीनर दोनाली कमला
को बेहद प्रिय है, पर लंबे कूच में वह
केवल पिस्तौल लटकाती है।
तेरी फट क्यों रही है पास आ.....के !
मर्दो की तरह गंदी-गंदी गालियाँ
कमला के मुँह से शुरू-शुरू में लड़के को बहुत भद्दी लगती थीं पर अब जान चुका है कि यह सब काम
मर्दो की नकल पर करती है। वैसे ही कपड़े जूते व्यौहार ठसक और डॉंट-डपट बदहवासी से
बलात्कार तक...।
कमला ने लड़के की ओर पाँव पसार
दिए। लड़का कुछ और सरककर पिंडिलियाँ दबाने लगा। पैरों पर सिपाहियों जैसे किरमिच के
बूट चढ़े थे।
बाबा के पास चून धरा हो तो आज
रात माता के मंदिर में काट लें आसपास गीधों की तरह बैठे साथियों
से कमला ने सलाह ली।
रात-रात में ही पार होना ठीक
रहेगा। डर के मारे वह खुद भी रात को सटक लेता है। दूसरे ने मत प्रकट किया।
नदी का पता नहीं कि चढ़ी है या
पाट है। चढ़ी मिली तो औघट पार कौन करेगा ये पिल्ला अलग से संग बँधा है-भो....का !
अपने आदमी कुछ न कुछ इंतजाम
करेंगे ही.....।
वो बम्हना भी तो होगा वहाँ।
महीने-भर में ही तबादला थोड़े हो गया होगा उसका। इधर आने को कोई तैयार नहीं होता सो
तीन साल से मजा मार रहा है हरामी। लैनेमेन की तनखा झटकता है। काम क्या है .... बिजली का तार इधर से उधर उधर से इधर। सो भी बिजली चली गई तो अट्ठे
पखवारे-भर पड़ा-पड़ा पादता रहेगा। इन साले बाम्हनों को तो लैन में खड़ा करके गोली मार
देनी चाहिए। सब सीटों पर जमे बैठे हैं।
कमला ने चिड़चिड़ाकर लड़के पर लात
फटकार दी-भैंचो....! हाथों में जान नहीं है क्या अभी छूट दे दो तो भैंस को गाभिन
कर देगा।
आकस्मिक प्रहार से लड़का गुलांट
खाता हुआ लुढ़क गया। दर्द से कराहता हुआ वह आँसूस बहाने लगा। पकड़ को इसी तरह रखा
जाता है। भूख, मार और दहशत से इतना
तोड़ दिया जाता है कि अवसर मिलने पर भी निकल भागने का साहस न कर सके।
लड़के की दुर्दशा पर कोई न पसीजा।
यह तो होता ही है- उठ बे ! साले ठुसुर-ठुसुर की तो गोली मार के घाटी में फेंक
दूँगी। कहते हुए कमला की निगाह
घाटी की ओर घूम गई।
कमला मोहिनी में बँध उठी। घाटी
और उसके सिर पर तिरछी दीवार की तरह उठे पहाड़ पर जगर-मगर छाई थी। जुगनुओं के
हजारो-लाखों गुच्छें दिप्-दिप् हो रहे थे। लगता था जैसे भादों का आकाश तारों के
साथ घाटी में बिखर गया है। चमकते-बुड़ाते जुगनू कमला को हमेशा से भाते हैं। सांझी
में क्वार के पहले पाख में लड़कियाँ कच्ची-पक्की दीवार पर गोबर की साँझी बनाती थीं।
दूसरी लड़कियाँ तो अपनी-अपनी पंक्ति तोरई के पीले लौकी के सफेद, या तिल्ली के दुरंगे फूलों से
सजाती थीं, कमला अपनी पंक्ति
में जुगनू चिपका देती फिर कुछ दूर खड़ी हो मुग्ध आँखों से अपना करतब निहारती थी। तब यह उसका खेल
था- कहाँ समझती थी कि उसके खेल में जुगनू जान से जाते हैं।
इलाके में आतंक है कमला का अपनी पर आती है तो किसी को नहीं
छोड़ती। वह उसका खास था, जाति का था सप्लाई करता था, सुना जाता है कि कमला उससे जरूरत
का काम भी लेती थी। गिरोह तक के लोग दबते थे उससे। अचानक जाने कैसे बिगड़ी कि कमला
ने पचीसों के सामने उसके मुँह में मुतवाया और कोहिनी के ऊपर से दोनों हाथ गँडासेस
से कतर दिए। जातिवाला था नहीं तो जैसा कि उसका तकिया कलाम है-अंगविशेष मे गोली घुसेड़ देती। वह आदमी
इलाके में कमला का विज्ञापन बना घूमता है।
चलो...माता की मढ़ी पै बिसराम
करेंगे। कह कमला खड़ी हो गई।
लड़के ने ग्रीनर बाँस की तरह कंधे
पर रखी, ढीले बैग के फीते
कसे और नाक सुड़कता हुआ बढ़नेवाले कदमों की प्रतीक्षा करने लगा। जानता है उसे न घाव
सहलाने का अधिकार है न दिखाने का। नाक
में छल्ला-छिदे बछड़े की तरह उसी ओर मुड़ता है जिधर रस्सी का संकेत मिले।
मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू, माथे से लगा, पा-लागन किया और जूते उतार फेरी
लगाते हुए मढ़ी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी आभा
में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी। बाबा अँधेरा होते ही संझा-बत्ती कर
शायद नीचे उतर गया होगा।
पहाड़ के छोर पर बना यह छोटा-सा
मंदिर रतनगढ़ की माता के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि दूज-दीवाली के दिन
यहाँ आल्हा पूजा करने आते हैं। आल्हा अमर है-युधिष्ठिर का औतार। बड़े-बूढ़ों ने
रात-बिरात किसी पचगजे (पाँच गज लम्बे) आदमी की पहाड़ी चढ़ती उतरती झलक देखी है।
देखने वालों में ज्यादातर मर-जुड़ा गए। एकाध बचा है जिससे ब्यौरेवार कुछ पता नहीं
चलता, बस धुंधा में कोई तस्वीर तनकर रह
जाती है।
मंदिर तक पहुँचने के केवल दो
रास्ते हैं-एक तो पहाड़ी की कोर-कोर चलती ऊँची-नीची घुमावदार पगडण्डी और दूसरा
खण्डहर हुए लौहागढ़ के किले होकर दीवार की तरह सीधी खड़ी पहाड़ियों के सिर पर
माँग-सी-भरती तीन कोसी कच्ची सड़क। मढ़ी की छत पर बैठा आदमी पल्टन भी आगे बढ़ने से
रोक सकता है। दो चार को तो गोफनी में गिट्टी भरकर निपटाया जा सकताा है।
चौमासे में यह स्थान गिरोहों के
लिए मैया का वरदान है। ऋषि-मुनियों की तरह दस्युदल चातुमार्स ऐसे ही ठिकानों पर
बिताते हैं। कमला के गिरोह का नाई सदस्य हरविलास जनम का हँसोड़ है। कहता है- हम लोग
जोगी-जाती हैं। करपात्री हैं। जब जहाँ जो मिल जाए खा लो और मौका मिल जाए तो सो लो।
बाकी चलते रहो। जोगी-जती कहीं किसी से नहीं बँधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी
का मोह न घर-द्वार की मया
(माया)।
एक वही है जो कभी-कभी मौज में
आकर कमला को बीबीजान कह देता है। पहली बार तो सुनकर कमला हत्थे से उखड़ गई थी, पर जब उसने बताया था कि फिल्मों
में सबसे सुन्दर और घर की मालकिन को बीबीजान कहा जाता है तब से कमला यह सुनकर खिल जाती
है। कमला ने हरिविलास की हैसियत बढ़ाई है, कैंची-उस्तरा की जगह बारह बोर सौंपी है।
हरिविलास ने ही बताया था
कि-बीबीजान को हम रण्डी समझते हैं.....कुछ जानते थोड़े हैं। जाननेवाले तो
दिल्ली-बंबई में रहते हैं। तड़ातड़ मारनेवाले को वहाँ लाखों-करोड़ों, कोठी-कार मिलते हैं। हमें क्या
मिलता है सेंतमेंत की दुःख-तकलीफ देते-लेते हैं।
ऐसे में कमला हँसकर कहती है-साला
नउआ घरवाली का टेंटुआ
चीरकर इधर क्या आ मरा निकल जाता बंबई या दिल्ली।
दिल्ली तो हम तुम्हें पहुँचाएँगे कमला बीबी ! वहाँ अपनी फूलन
अकेली है- बस, एक बड़ा स्वयंवर रच
दो। दिल्ली-बंबई वाले लार टपकाते तुम्हारे पीछे न घूमें तो मैं मूँछ मुड़ा के नाम
बदल लूँगा। फूलन तो शकल-सूरत से मात खा गई। तू पहुँचते ही मिनिस्टर हो जाएगी।
कमला सोचती है- नउआ ससुरा बड़ा
ऐबी है। छत्तीसा साला ! सपनों के हिंडोले पे झुला देता है। प्रकट में कहती है- चुनाव तेरा
बाप जितवाएगा
मेरा बाप तो जाने सरग में है कि
नरक में ....पर कोई न कोई बाप मिल ही जाएगा। और चुनाव तो आजकल जाति जितवाती है।
तेरी जाति, मेरी जाति और बाप की
जाति-बस हो गए पार। हरिविलास खी-खी कर
देता है।
टैम कितना हो गया ? कमला की पूछती निगाह हरिविलास पर
घूमी। हरिविलास की घड़ी पानी भर जाने से बंद है। कमला की घड़ी पट्टा टूट जाने से
सामान के साथ लद्दू की पीठ पर लदी है। बाकी बे-घड़ी हैं। बादलों की टुकड़ियों से
सप्तऋषि और सूका (शुक्र) भी दुबके-ढके हैं।
दस के लगभग होंगे। बन्दूक पर हाथ फेरते हरिविलास
बोला।
अब तो चार घड़ी यहीं बिसराम ठीक
रहेगा। भोर में नदी पार कर लेंगे। छत की छॉव और चोटी का पवन पाकर गिरोह में आलस पसरने लगा था।
थोडा-बहुत पेट में भी डालना है।
भागमभाग में दोपहर आधा-अधूरा खाया, तब से एक घूँट चाय
भी नहीं मिली।
मौन स्वीकृति के साथ सबके झोले
खुलने लगे। लड़के ने पीठ का थैला खोलकर कमला के सामने रख दिया। बोतल निकाल कमला ने
तीन-चार बड़े बडे घूँट भरे। सबके पास इसी किस्म की बोतले हैं। इनका खास लाभ यह रहता
है कि वजन में हल्की होती हैं। लड़का इस उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था कि कोई उसे
दो घूँट पानी के लिए पूछ ले । मुँह से माँगने पर कमला के कोप का शिकार हो सकता है।
संग-साथ रहते जान चुका है कि भूख-प्यास के बखत कमला खूँखार हो जाती है। पहाड़ी चढ़ते
समय भी उसका गला चटका जा रहा था।
प्यास के साथ उसे घर की याद भी आ
रही थी। वहाँ पर वह भरपेट खाकर मजे से सो रहा होता। माँ याद आई- क्या वह सो चुकी
होगी जग रही होगी। चारों भाई-बहनों पर हाथ फेरकर ही सोने लेटने है। मेरे बदले का
हाथ किस पर फेरती होगी ?
भूख-प्यास भूलकर लड़का झर-झर आँसू
टपकाने लगा। हिलकियों से देह हिल उठी। कमला बिस्कुट कुतरने में लगी थी। भौंहे
चढ़ाकर फुफकारती-क्या हुआ बे बीछू लग गया क्या
हिलकियाँ रोकने की कोशिश में
लड़का और भी हिलने लगा।
बोलते क्यों नहीं मादर....! कुछ
खाने बैठो तभी खोटा करने लगता
है। जी में आता है कि ....मैं गोली उतारकर ठूँठ पै टाँग दूँ हरामी को। चप....।
कमला ने दो बिस्कुट उसकी ओर फर्श
पर फेंक दिये। लड़का आँसू सँभालता हुआ बिस्कुट चबाने लगा। बिस्कुट का गूदा वह
बार-बार जीभ से भीतरर की ओर ठेलता पर प्यासे मुँह लार न होने से पेट में न सरक पाता। लड़का घूँट से भरता
बिस्कुट निगलने की कोशिश कर रहा था।
दिए की पीली रोशनी में हरिविलास
को लगा कि लड़के की आँखे बिल्कुल वैसी ही हो रही हैं जैसी उस्तरा गर्दन पर रखे जाते
समय उसकी पत्नी की हो गई थीं। अनमने हरिविलास ने अपनी बोतल लड़के की ओर सरका दी-
पानी पी ले पहले।
लड़के ने बिस्कुट चबाती कमला की
ओर देखा।
पी ले ना ! हरिविलास ने नरमी से कहा।
लड़का फिर भी हाथ न बढ़ा पाया।
पी ना....के। हरिविलास की चीख मढ़िया में गूँज
गई।
लड़के ने सकपकाकर बोतल झपट ली। कमला
मुस्करा उठी। दूसरे हँस पड़े- दीवारों के बीच कहकहे भर गए। माता की मूर्ति उसी तरह
अविचल थी- सिंह पर सवार, सिर की ओर त्रिशूल
ताने।
सहमते लड़के ने गिनती के चार
बड़े-बड़े घूँट भरे और ढक्कन कसकर बोतल हरिविलास की ओर बढ़ा दी।
अब चल देना चाहिए। हरिविलास की गंभीरता से गिरोह के
लोग चौंक गए।
क्यों ? यहाँ बिसराम .... दीवार के सहारे अधपसरी होती कमला
ने पूछा।
कान खोलो ! दखिनी तरी में मोर
कोंक रहे हैं....सियार भी रोए हैं। दबस (दबिस) हो सकती है।’’
अलसाता गिरोह चौकन्ना हो गया।
कमला ने दीवार से टिकी ग्रीनर दुनाली झटके के साथ पकड़ ली। और कमर में बँधी बेल्ट
से दो कारतूस निकाल तेजी के साथ बेरल में ठोंक दिए।
अगले क्षण गिरोह खुले चबूतरे पर
था। सबकेक आँख-कान टोह पर थे। अँधेरे में दुश्मन को गच्चा दिया जा सकता है तो
दुश्मन भी अँधेरे का लाभ उठाकर घेर सकता है। मोर रह-रहकर कोंक उठते थे। संकेत, किसी के मंदिर की ओर बढ़ते जैसे
थे।
देखो-देखो। वो बाटरी चमकी !’’ तरी के घने बबूल वन में कुछ
चमककर बुझा था।
दूसरा गिरोह भी हो सकता है।
कौन होगा ? चरन बाबा शहर में है। इधर है ही
नहीं।
देवा घूम सकता है। उसकी बिरादरी
के काफी घर हैं इधर।’’
पुलिस भी तो हो सकती है-गैल
काटकर आ रही हो।’’
डाबर में पुलिस वाले क्यों मरेगे
?
नौकरी के लिए सब करना पड़ता है, मन-बेमन से।’’
अब जल्दी से पार निकल जाना
चाहिए।’’
उधर यू.पी. की पुलिस डटी हो तो ? उधर की सूँघ-साँघ तो लेनी पड़ेगी।’’
तो जा ! लुगाई के घाँघरे में
दुबक जा। अबे साले, तू क्या पुलिस की
जगह जिंदाबाद-जिंदाबाद गानेवाली भीड़ की उम्मीद रखता है ? बागी क्यों बना ? लुल्लू-लुल्लू करता घर रहता और
टाँग पसारकर सोता।’’ हरिविलास की इस
झल्लाहट पर चुप्पी हो गई। इसे अचानक हो क्या गया है ?
जल्दी के लिए खड़ा उतार पकड़ा गया।
टॉर्च जलाना खतरनाक था। पैरों को तौल-तौलकर रखना पड़ रहा था। लड़के को अब हरिविलास
ने अपनी बगल में ले लिया- इन रास्तों के लिए कच्चा और निज़ोरा है लड़का। नेंक चूकते
ही हजारों हाथ नीचे पहुँचेगा। हड्डियाँ भी नहीं बचेंगी- सबरे तक। लड़के की पीठ पर
अब केवल सफरी बैग था। बंदूक कमला ने सँभाल ली थी।
नीचे पहुँचते ही बेसाली के भरके
(बीहड़) शुरू हो जाते हैं। यहाँ की मिट्टी पानी में बूँद के साथ घुलकर बहने लगती
है। हर बरसात में बीहड़ा का नक्शा बदलता है। बड़े ढूह टूट और भहराकर निशान खो देते
हैं तो छोटे ढूह नीचे की मिट्टी बहने से ऊँचे हो जाते हैं। हर साल पुराने के आसपास
नए रास्ते बनते व चुने जाते हैं। गैर-जानकार के लिए पूरी भूल भुलैया हैं भरके।
फँसने वाले का राम ही मालिक है। भेड़िए, बघेरे, साँप-सियार सभी का तो आसरा है
इनमें। जंगली जानवरों से बचने के लिए गिरोह ने टॉर्च जला ली। रोशनी से चमकमकाए
जानवर पास नहीं आते। पुलिस के यहाँ भय नहीं- कदम-कदम पर ओट व सुरंगो जैसे रास्ते
हैं।
आधी रात छूते-छूते गिरोह ने
बेसली की रेत पकड़ ली। नदी में बाढ़ नहीं थी, पर बिना तैरे पार न हुआ जा सकता था।
कमला ने नथुआ को बुलाकर समझाया-‘‘नत्थू ! तुम इस सुअरा को जलेकर
खैरपुरा पहुँचो। मेहमानी करो दो-चार दिन। इसे भुसहरा में डाल देना- आराम कर लेगा।
इधर की जानकारी लेते रहना ! ऐसी-वैसी बात न हुई तो छठे दिन मंदिर पै मिलेंगे। और
सुन, चरन बाबा या भरोसा गूजरा की गैंग
टकरा जाय तो बरक जाना। ये मादर....अपने को धरती से दो हाथ ऊँचा समझते हैं।’’
नत्थू ने लड़के की पीठ से कमला का
बैग निकलवाया और अपना कस दिया, फिर ‘‘जय भीम’ बोलकर दो छायाओं के साथ अँधेरे
में समा गया।
अब गिरोह तीन जगह बँट गया था।
अपनी-अपनी जाति में सुरक्षा पाना आम चलन है। भरकों के बीच चौरस जगहों पर खेत हैं।
जगह-जगह नलकूप व उसके साथ मंजिला-दोमंजिला कोठरियाँ हैं। आराम से खाते हुए पड़े रहो
और खतरे की भनक मिलने पर बीहड़ में सरक लो।
हरिविलास को कमला ने बिजली वाले
रमा पंडित को लाने भेज दिया था। बाम्हन होकर भी तैरने में मल्लाहों के कान काटता
है। यहाँ नौकरी करते, डाकुओं से साबका
रोजमर्रा की चीज़ है, पर वह कमला से बेतरह
डरता है। तरह-तरह के किस्से हैं, उसके बारे में-बड़ी
जाति से घृणा करती है। आदमी छाँटकर महीने-दो महीने सेवा करवाती है, फिर गोली मार देती है। बुलावे पर
पहुँचने की मजबूरी ठहरी-रोज यहीं रहकर बिजली के खंभों पर चढ़ना उतरना है।
रेत पर चित्त पड़ी कमला के पास
पहुँच रामा ने हरिविलास के बताए अनुसार अभिवादन किया।
तू ही रामा पण्डित है ? ’’ कमला ने पूछा।
हाँ, बहन जी !’’
भैंचो ....! तुझे मैं बहन दिखती
हूँ ?’’
रामा घबरा गया-मैंने तो
.....मैं....माफ कर दें।’’ वह घिघियाने लगा।
समझ नहीं पा रहा था कि कैसे संबोधित करें।
ठीक है, जल्दी कर !’’ कमल बैठ गई- ‘‘और सुन, दगा-धोखा किया तो लाश चील-कौवे
खाते दिखेंगे ! सामान ले जा पहले, तब तक मैं कपड़े
उतारती हूँ।’’
जी-ी-ी ?’’
ठीक है।’’ रामा ने कंधे पर रखा मथना रेत पर
रख दिया। बैग का सामान मथना के भीतर जमाया गया। दो बंदूकें खड़ी करके फँसाई गई।
तुम दोनों इसके साथ तैरकर पार
पहुँचो। मैं इसे निशाने पर रखती हूँ, तुम उस पार से से
रखना।’’ कमला ने सुरक्षा-व्यवस्था समझाई।
बादल छँट जाने से सप्तमी का
चन्द्रमा उग आया था। पार के किनारे धुँधले-से दिखाई देने लगे थे। तीनों उघाड़े होकर
पानी में ऊपर गए। कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगा जी का स्मरण कर एक चुल्लू
पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर
से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और आगे बढ़ रामा ने बाई हथेली तली से
चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी-जै गंगा मैया !
जै गंगा मैया !
तीनों पैर-उछाल लेकर पानी की सतह
पर औंधे हो गए। गुमका मारता हुआ रामा आगे और बहमा छाँटते दोनों पीछे। पानी का
फैलाव अनुमान से अधिक निकला। दोनों बागी पार पहुँचते-पहुँचते पस्त हो गए थे।
पंडित थक गए क्या लम्बी साँसे भरते हरिविलास ने पूछा।
थकान तो आती ही है। मथना से सामान निकालते रामा ने
उत्तर दिया।
तुम आराम से आना-जाना। जल्दबाजी
की जरूरत नहीं है। उधर सुस्ता लेना कुछ। औरत वाली बात है। मथना थामने की क्रिया
बता देना उसे। हरिविलास ने समझाया।
बैफिकर रहो कहा रामा पंडित मथना के साथ फिर
पानी में आ गया। धार काटते हुए सोच रहा था कि बस आज की रात खेम-कुशल से गुजर जाए।
कल इंजीनियर के सामने जाकर खड़ा हो जाऊँगा कि साब तीन साल हो गए सूली की सेज पर सोते, अब तबादला कर दो। जान सदा जोखिम में ऊपर से अपमान।
सोच में उतराता रामा किनारे आ
गया। कंधे पर मथना रख चुचुआती देह लिये वह कमला की दिशा में चलने लगा। हल्की-हल्की
हवा से देह ठण्ड पकड़ने लगी थी। चाँद कभी खुलता कभी ढँक जाता। उस पार के आदमी धब्बे की झाँई मार रहे थे। नदी का फैलाव
अस्सी-नब्बे हाथ तो रहा ही होगा।
आ गया कमला की आवाज आई।
रामा के मुँह से केवल हूँ निकल सका। आने-जाने में हुई देर
पर खींझकर कहीं भड़क न बैठे, इसके डर से रामा
सहमा-सा खड़ा हो गया-सामान दे दो, रख दूँ।
ले ! कमला ने अपने जूते बढ़ा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया-साली नीच
जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता। उसेन जूते मथना की तरी में जमा
दिए।
और...
इस बार कमला की पेंट थी। रामा
सनाका खा गया। पेंट के साथ चड्डी थी। सिर नीचा किये उसने ये भी भर दिए।
तेरे घर कौन-कौन है घरवाली है
बस एक बिटिया है पाँच बरस की। घरवाली तीन साल पहले रही नहीं।
अच्छा मैं अगर तुझे रख लूँ तो.... जैसे मर्द औरत को रखता है।
----------
कुछ कहा नहीं तूने कमला की आव़ाज कठोर हुई।
मैं ...क्या कहूँ तुम ठहरी जंगल की रानी और मैं नौकरपेशा। आज यहाँ, कल वहाँ।
यहाँ है तब तक रहेगा मेरा रखैला
अब मैं क्या बोलूँ
गूँगा है डर मत ! मैंने जिनकी कुगत की है वे दगाबाज थे। संग
सोकर बदनामी करने वाले को मैं नहीं छोड़ती। तुझसे भी साफ कह रही हूँ-ले ये भी रख
दें।
लेने के लिए हाथ बढ़ाते रामा ने
देखा कि कमला कमीज़ उतारकर बढ़ा रही है।
हल्के-से उजाले में कमला की देह
किरणें छोड़ रही थी। रामा की आँखें भिंच गई। उसे मथना का मुँह नहीं मिल रहा था। हाथ
कभी इधर पड़ता कभी उधर। पसीना
छलछलाकर रोएँ खड़े हो गए। नथुनों में कोई विकल गंध भर रही थी। पैर झनझना आए।
कसमसाती देह फट पड़ने को हो गई।
और ये भी....। कमला की काँसे की खनकती हँसी के
साथ रामा ने पाया कि वह रेत पर पटक लिया गया है।
ना....ना ! छोड़ो.....! करता रामा रेत रौंदने में शामिल
हो गया।
थोड़ी देर बाद उस पार से कूक आई।
कमला ने कूक से उत्तर दिया कि- सब ठीक है।...ला पेंट निकाल।
रामा ने अपराधी की तरह पेंट
निकाली।
कमीज...।
पेंट कमीज कसकर सिर से साफी बाँध
कमला ने बंदूक उठा ली-चल पार पहुँचा।
मथना में दुनाली रखते हुए लोहे
के ठण्डे स्पर्श से रामा में कँपकँपी भर आई। वह कमर तक पानी में खड़ा हो कमला के
कदम गिनने लगा।