शहर कलकत्ता: सलाम कलकत्ता
गीता दूबे
कोलकाता मेरे लिए अपना शहर रहा है। आँखें भले ही इस शहर में नहीं खुलीं लेकिन सही मायने में आँखें खुलने का मतलब यहीं जाना। जन्म हुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक गाँव में। माँ बताती हैं कि मैं जब छ दिनों की थी तब माँ मुझे लेकर कलकत्ता आ गई थीं। हमारी जड़ें उत्तर प्रदेश में थीं, जहाँ जाने की हुड़क मन में बनी रहती थी जो गर्मी की छुट्टियों में पूरी होती थी। वहाँ फैला हुआ बड़ा सा घर था, छत थी, खेत थे, सखियाँ थीं और ढेरों रिश्तेदार थे।
मेरे बचपन का कोलकाता यानी कालीघाट और उसके आस -पास का परिवेश। मेरे परदादा गाँव से कोलकाता आ गये थे, रोजी -रोटी की तलाश में। उस जमाने में जिनके पास ज्यादा खेत नहीं हुआ करते थे, रोजी रोजगार का कोई खास इंतजाम नहीं हुआ करता था, वे रोजगार की तलाश में कलकत्ते की गलियों में समा जाते थे। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार से आए ढेरों लोग यहाँ अपनी छोटी सी दुनिया बसा लेते थे। उत्तर भारत में तो यह पंक्ति बड़ी प्रचलित थी-
"लागा झुलनिया का झटका बलम कलकत्ता पहुँच गये।"
ये 'बलम' अपना घर- दुआर छोड़कर, कभी नयी -नवेली पत्नी तो कभी बच्चो को छोड़कर यहाँ किसी तरह गुजर- बसर करते थे ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने परिवार वालों को भेज सकें। इनकी जरूरत इस शहर को भी खूब थी। जूट मिलें हों या दुकानें, चौकादारी का काम हो या मजदूरी का, ये बड़ी आसानी से यहाँ खप जाते थे। यह बात और है कि यहाँ के मूल निवासियों या फिर संभ्रांत बंगालियों को इनकी संगत कुछ खास रास नहीं आती थी। ये उन्हें कहीं न कहीं घुसपैठियों की तरह जरूर महसूस होते थे जिन्होंने यहाँ के परिवेश को दूषित कर दिया है लेकिन धीरे- धीरे पूरे प्रांत में उन्होंने अपनी उपस्थिति को आवश्यक बना दिया। इसके बावजूद इन्हें कुछ ऐसे विशेषणों से संबोधित किया जाता रहा है, जो अपमानजनक लगते थे। बचपन में ऐसे शब्दों से मेरा सामना भी खूब हुआ है जैसे "मेड़ो"। बाद में सोचने पर समझ में आया कि यह शब्द मारवाड़ से आए मारवाड़ी समाज के लोगों के लिए या फिर मड़ुआ की रोटी खाने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए व्यवहृत होता होगा। आज के समय में यह तिरस्कार या क्षोभ का भाव भले ही सतह पर दिखाई नहीं देता लेकिन शायद दिल की गहराई में कहीं न कहीं अब भी मौजूद जरूर है।
बचपन में मेरे लिए कलकत्ता का मतलब था घर, दुकान और स्कूल। घर था कालीघाट के महिम हलदार स्ट्रीट में। आस- पास बांगाल लोग काफी संख्या में रहते थे इसलिए बांग्ला भाषा का संग -साथ बचपन से रहा। दुकान का मतलब कालीघाट मंदिर के पास अवस्थित दादाजी और बाद में पिताजी की पेड़े की दुकान से है। हमारी कलकत्ते में यह चौथी पीढ़ी थी। पहला स्कूल भवानीपुर इलाके में था। बाद में कलकत्ता के प्रतिष्ठित स्कूल श्री शिक्षायतन में पढ़ने लगी। यह तो बहुत बाद में जाना कि सीताराम सेकसरिया जी ने राजस्थानी लड़कियों की पढ़ाई -लिखाई के लिए यह स्कूल खोला था जिसमें मुझ जैसी उत्तर प्रदेश या बिहार की लड़कियाँ भी मजे से शिक्षा प्राप्त करती थीं। स्कूल में आकर पता लगा कि कलकत्ते में कितने राज्यों और प्रांतों के लोग रहते हैं जो स्कूल में भले ही खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग करते हैं लेकिन इनकी अपनी एक माँ बोली भी है जिसका हल्का- फुल्का असर इनकी हिंदी पर दिखाई देता है। खान पान की आदतों में भी थोड़ी बहुत भिन्नता तो है ही। राजस्थानियों के अचार और सब्जी का स्वाद हमारे उत्तर प्रदेशीय स्वाद से हल्का सा ही सही भिन्न जरूर हुआ करता था। हमारी सभी शिक्षिकाएं हिंदीभाषी नहीं थीं लेकिन उनकी हिंदी कतिपय अपवादों को छोड़कर इतनी साफ हुआ करती थी कि कोई बता भी नहीं सकता था कि वे हिंदीभाषी नहीं हें। यह गजब का सांस्कृतिक सम्मिलन था।
अपने स्कूली जीवन से ही मैंने कविता लिखना आरंभ कर दिया था। कॉलेज में पढ़ते हुए महाविद्यालय की पत्रिका और दीवार पत्रिका में कविताएँ लेख आदि छपे और एक आध जगह कविता सुनाने का अवसर भी मिला। हमारी एक प्राध्यापिका थीं, डॉ. माया गरानी जो भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में विभिन्न विषयों पर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया करती थीं। ऐसे ही एक आयोजन में पहली बार मैंने अपनी कविता पढ़ी। उस काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे, सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र। उनका गीत "एक बार और जाल फेंक रे मछेरे", उन्हीं के मुख से सुना था। माया मैडम जो बाद में माया दी बन गईं क्योंकि इनके साथ थोड़े ही समय के लिए सही श्री शिक्षायतन कॉलेज में पढ़ाने का अवसर मुझे मिला, एक जिंदादिल महिला थीं। जिंदगी की परेशानियां कभी उनके माथे पर शिकन बनकर नहीं उभरीं। विभिन्न महाविद्यालय के विद्यार्थियों को युवा गोष्ठियों के माध्यम से उन्होंने मंच प्रदान किया। उनकी प्रतिभा को मांज -घिसकर साहित्य की दुनिया में पाँव धरने के लायक बनाया। बाद में पता चला कि माया दी कहानियां भी लिखती थीं और सिंधी से हिंदी में काफी अनुवाद भी किया था। उनका एक कहानी संग्रह "ठहराव" नाम से 2004 में प्रकाशित हुआ था। माया दी का एक निजी योगदान मेरे जीवन में है जिसे स्वीकार किए बिना आगे बढ़ने का मन नहीं कर रहा। 1994 के दिसंबर महीने में मेरी स्नातकोत्तर की परीक्षाएं समाप्त हुई ही थीं कि माया दी कि संदेश मिला कि बालीगंज शिक्षा सदन स्कूल में एक लीव वेकैंसी है। उन्हें फोन किया तो उन्होंने कहा- पढ़ाएगी ?..अंधा क्या चाहे दो आँखें.. मेरे अध्यापकीय जीवन की वह पहली सीढ़ी थी। आज माया दी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका स्नेहिल व्यक्तित्व हृदय में बसा हुआ है। शिक्षायतन की याद आते ही बरबस याद आती हैं, कवि कथाकार डॉ. सुकीर्ति गुप्ता जो मेरी प्रिय अध्यापिकाओं में से एक थीं। जयशंकर प्रसाद की कविताएं इतना डूबकर पढ़ाती थीं कि प्रसाद जाने कब मेरे प्रिय कवि बन गये। "आषाढ़ का एक दिन" पढ़ाते हुए वह कक्षा में ही नाट्य मंचन का मनोरम वातावरण सृजित कर देती थीं। उन्होंने 1998 में "साहित्यिकी" नामक अनूठी संस्था की स्थापना की और शहर की हिंदी अध्यापिकाओं के साथ पढ़ी- लिखी गृहणियों को मंच प्रदान किया। उन्हें सोचने समझने के साथ लिखने पढ़ने के लिए भी प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा से लंबे समय तक साहित्यिकी नामक हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन होता रहा। स्मृतिशेष सुकीर्ति गुप्ता के खाते में एक उपन्यास (चक्रव्यूह) , दो कहानी संग्रह ( दायरे, अकेलियां) और एक कविता संग्रह ( शब्दों से घुलते-मिलते हुए) दर्ज हैं। उनका आत्मकथात्मक उपन्यास कोलाज उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ जिसका संपादन डॉ. किरण सिपानी ने किया। किरण दी से मेरी पहचान 'साहित्यिकी' में हुई। अदम्य ऊर्जा से भरी किरण दी ने अपना पूरा जीवन अध्यापन और साहित्य को समर्पित कर दिया है। पिछले वर्ष ही उनका यात्रा संस्मरण 'मेरी जापान यात्रा' छपकर आई है। अत्यंत रोचक पुस्तक है, रवानी और कथारस से भरपूर। किरण दी ने अपना अभिन्न सखी डॉ. विजयलक्ष्मी मिश्रा के साथ मिलकर वर्षों तक हनुमान मंदिर अनुसंधान संस्थानमें पूरे समर्पण के साथ काम किया।
विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान कोलकाता के साहित्यक और सांस्कृतिक जगत से परिचय लगातार बढ़ता गया। प्रख्यात नाटककार उषा गांगुली अतिथि प्रवक्ता के रूप में सप्ताह में एक दिन हमारी क्लास लेने आती थीं। संयोग से एक दिन जब वे बिना किसी पूर्व सूचना के प्रथम वर्ष की कक्षा लेने आई तो कक्षा में कुल पाँच विद्यार्थी मौजूद थे। उन्होंने संख्या पर ध्यान न देते हुए पूरे मन से वह क्लास ली और नाटकों के बारे में न केवल बताया बल्कि अपना नाटक देखने के लिए प्रेरित भी किया। मैंने सखी और सहपाठी अल्पना नायक जीवन का पहला नाटक "कोर्ट मार्शल" देखा और जाना कि हमारी गँवई नौटंकियों और रामलीलाओं से इतर भी ऐसे नाटक होते हैं जो प्रेक्षागृह में मंचित होते हैं और दर्शक टिकट खरीदकर इसे देखने जाते हैं। स्त्रियों के लिए यह वर्जित क्षेत्र नहीं है बल्कि वे न केवल इनमें अभिनय करती हैं बल्कि निर्देशन का दायित्व भी निभाती हैं। बाद में ऊषा जी के कई नाटक देखे। वह अभिनेत्री, निर्देशिका, सूत्रधार आदि सभी भूमिकाओं का निर्वाह कुशलतापूर्वक करती थीं। 'कोर्ट मार्शल', रूदाली, हिम्मत माई, चंडालिका,'काशीनामा' आदि नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन उषा जी ने किया है। इनके दल के कई कलाकारों ने फिल्मों में भी शोहरत कमाई है जिसमें राजेश शर्मा का नाम उल्लेखनीय हैं।
पढ़ाई के दौरान विभिन्न प्रतियोगिताओं में जाकर प्रतिभागिता का सुख तो पाया ही, परिचय के दायरे को भी विस्तार मिला। उस समय मौलाली युवा केंद्र में सरकार द्वारा विभिन्न प्रतियोगिताओं कार्यक्रमों आदि का आयोजन हुआ करता था जिसमें विभिन्न साहित्यक हस्तियों से मिलने का अवसर मिला। साहित्य पढ़ते पढ़ते साहित्य लिखने और गोष्ठियों से जुड़ने का सिलसिला जो एक बार शुरु हुआ, वह दोबारा थमा नहीं।
यह बताते हुए सुख का अनुभव हो रहा है कि आज की मशहूर नाट्य शख्सियत उमा झुनझुनवाला मेरी सीनियर थीं। उनके अभिनय जीवन के शुरुआती चरण को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला। आज कोलकाता के नाट्य जगत में अगर किसी की निरंतरता बनी हुई है तो इसका श्रेय निस्संदेह दिवंगत अजहर आलम और उनकी जीवन संगिनी तथा नाट्य संगिनी उमा झुनझुनवाला को जाता है। यह कह सकती हूँ कि जो कलकत्ता एक समय में श्यामानंद जालान के पदातिक, ऊष प्रतिभा अग्रवाल के नाट्य शोध संस्थान और उषा गांगुली के रंगकर्मी के कारण जाना जाता था, उसकी विरासत को आज बड़े सलीके से 'लिटिल थेस्पियन' ने सँभाल रखा है। पहले "जश्ने रंग" और अब "जश्ने अज़हर" के आयोजन ने राष्ट्रीय स्तर कर कोलकाता की नाट्य क्षमता को रेखांकित किया है।
एम. ए. में पढ़ते समय ही मनमोहन ठाकौर का उपन्यास 'गगन घटा घहरानी' पढ़ा, उसकी समीक्षा लिखी जो 'पश्चिम बंग पत्रिका' में प्रकाशित हुई। कलकत्ते में साहित्य के कई गढ़ थे और अब भी हैं। एक ओर तो सेठाश्रित संस्थानों ने साहित्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन उनका रूप समन्यवादी रहा। व्यवस्था विरोध से वे करीब -करीब दूर रहें। दूसरी ओर आरंभ, प्रतिध्वनि, प्रगतिशील लेखक संघ, आरंभ, पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज जैसी संस्थाओं ने साहित्य का मोरचा बखूबी सँभाला। इनसे जुड़े साहित्यकारों की रचनाओं में यथार्थ की अनुगूँज भी थी, व्यवस्था विरोध का माद्दा भी और थी प्रबल वैचारिक प्रतिबद्धता। वामपंथ की वैचारिकी से जुड़े साहित्यकारों की रचनाओं में आम आदमी के दुख और छोटे- छोटे सुखों के जिक्र के साथ इंकलाबी तेवर भी दिखाई देता था।
इन साहित्यकारों के बहुत से अड्डे या ठेक रहे। हर जगह तो अपनी पहुँच नहीं रही लेकिन भारतीय भाषा परिषद के अलावा लेखक- पत्रकार के रूप में प्रसिद्ध और अपनी पुस्तक "धर्म के नाम पर" के लिए चर्चित दिवंगत गीतेश शर्मा के मशहूर अड्डे जनसंसार में जरूर आना -जाना होता था। वहाँ होने वाली विचारोत्तेजक बहसों, विभिन्न संगोष्ठियों आदि ने बंगभूमि पर पनपने और पल्लवित होनेवाले हिंदी साहित्य से परिचित जरूर कराया। इन गोष्ठियों में छविनाथ मिश्र, अनय जी, छेदीलाल गुप्त, नगेंद्र चौरसिया आदि को बोलते, अपनी रचनाओं का पाठ करते सुना। ऐसी ही एक गोष्ठी में कवि ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण' ने अपनी चर्चित रचना 'चौराहे पर कृष्ण' का प्रभावशाली पाठ किया था। पाषाण जी की एक कविता मुझे बेहद प्रिय है-
"जिनसे छीन लिया जाता है उनका देश
और जिनके खिलाफ बसा दिया जाता है
एक दूसरा देश
उनकी पीठ पर
संगीनों की नोंक से
शहंशाह की अभ्यर्थना में लिखी पंक्तियां
नहीं होती हैं राष्ट्रगान।"
कालांतर में पश्चिम बंग हिंदीभाषी समाज ने "पाषाण" जी पर केंद्रित एक गोष्ठी का आयोजन जनसंसार में ही किया था जिसमें डॉ. रूपा गुप्ता ने बहुत अच्छा पर्चा पढ़ा था। रूपा दी को पहली बार मैंने जनसंसार में ही मुक्तिबोध पर बोलते सुना था और उनसे बहुत प्रभावित हुई थी। आज तो उन्होंने दर्जनों किताबें लिखकर एकेडमिक जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है।
कुछ महत्वपूर्ण आयोजन जनवादी लेखक संघ द्वारा भी हुए। राहुल सांकृत्यायन की 125 वीं जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित गोष्ठी की याद अब भी ताजा है। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर भी महत्वपूर्ण आयोजन होते थे। एक बार राजेन्द्र यादव भी जनवादी लेखक संघ के किसी आयोजन में आये थे। इसराइल जैसे कथाकार की कहानियों से इन्हीं आयोजनों में परिचय हुआ। इनकी वैचारिक और साहित्यिक प्रतिबद्धता का अक्स इनकी कहानियों में दिखाई देता है। आयोजन अब भी होते हैं लेकिन उनकी सूचना कम ही लोगों तक पहुंच पाती है।
इन सभा -गोष्ठियों से अलग एक और किस्म की गोष्ठियों में शामिल होने का अवसर मिला जिनकी रवायत अब रही नहीं। वे थी सीढ़ी गोष्ठियाँ। नंदन या अलीपुर पुस्तकालय की सीढ़ियों पर आयोजित इन गोष्ठियों में जमीनी साहित्यकारों को खुल कर आपनी रचनाओं का पाठ करते, उस पर बहस करते सुना था। अशोक सिंह साहित्यकार भले नहीं हैं लेकिन साहित्यकारों को एक मंच पर लाने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। उनकी संगठन शक्ति का कमाल था कि 'प्रक्रिया' नामक एक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसमें श्री हर्ष, छेदीलाल गुप्त, दुर्गा डागा, चंद्रकला पांडेय, संगीता गुप्ता आदि की रचनाओं को जगह मिली। अफसोस कि एक ही अंक के बाद यह पत्रिका बंद हो गई।
1995 में डॉ शंभुनाथ ने हिंदी मेला की शुरुआत कर विद्यार्थियों को एक मंच प्रदान किया। मेला अब भी पूरे उल्लास और ऊर्जा के साथ कायम है।
वर्तमान समय में बंगीय हिंदी परिषद, कुमार सभा, जालान पुस्तकालय, साहित्यिकी, अपनी भाषा, नीलांबर, मुक्तांचल आदि संस्थानों ने बंगभूमि में साहित्यिक -सांस्कृतिक आयोजनों का जिम्मा बखूबी संभाल रखा है।
कोलकाता के साहित्यक जगत की कहानी के न जाने कितने अध्याय और किरदार हैं। कुछ बरबस याद आए और कुछ छूट गये हैं। मौका मिला तो उनपर भी बात करूंगी। बस एक प्रसंग के साथ बात खत्म करना चाहूँगी। 1985 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कोलकाता को डाइंग सिटी (dying city) कहा था तो कोलकाता के साहित्यकारों का आक्रोश फूट पड़ा था। जनवादी कवि श्री हर्ष ने अपनी कविता के माध्यम इस आक्रोश को अभिव्यक्ति दी थी-
"कौन कहता है
यह मरता हुआ शहर है
यह तो जीवन गीत गाता हुआ शहर है
सलाम कलकत्ता..
लाल सलाम कलकत्ता.."
यह कविता बेहद लोकप्रिय हुई और विभिन्न अवसरों पर इसकी आवृत्ति करके विद्यार्थियों, साहित्य प्रेमियों ने इसे जन - जन तक पहुंचा दिया। कलकत्ता के साहित्यकारों की कलम की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
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