इसमें कोई दो राय नहीं कि बढती हुई तकनीक के साथ मनुष्य की तकलीफें कम हो सकती थी और दुनिया ज्यादा खूबसूरत। लेकिन पाते है कि तकलीफें ही नहीं, उन से पार पाने की जटिलताएं भी बढी हैं। कोई एक दृश्य जो साफ दिख रहा होता है, न जाने कितने ही अंधेरे कोने छुपाए रहता है। ललन चतुर्वेदी की कविताओं की विशेषता है कि साफ दिखते दृश्यबंध के साथ साथ, अदृश्य कोनो को भी उजागर कर देना चाहती हैं। इसीलिए जटिलताओं का एक समग्र चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत हो जाता है और छुपने छुपाने की संगति उजागर होने लगती है। यह ब्लाग ललन चतुर्वेदी की कविताओं से अपने को समृद्ध कर पाया, इसके लिए कवि का आभार। विगौ |
मैं लंबी कविताएं नहीं लिख सकता
मैं छोटी- छोटी चीजों से घिरा हुआ हूँ
मेरे आसपास छोटे - छोटे लोग रहते हैं
उन लोगों की दुनिया बहुत छोटी है
उनके लिए छोटी- छोटी समस्याएं भी बहुत
बड़ी हैं
वे विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन,योग आदि की बात नहीं करते
शेयर बाजार की चर्चा तो वे कर भी नहीं
सकते
वे समय पर जगने के लिए घड़ी में अलार्म लगाने वाले
लोग नहीं हैं
वे सूरज की गति से समय को मापने वाले लोग
हैं
वे पेड़ों की छाया में सुस्ताने वाले लोग
हैं
किसी ठेले पर खड़े-खड़े चाय-बिस्किट से
हलक को तृप्त करने वाले लोग हैं
हर सुबह एक चौराहे पर टोकरी-कुदाल लेकर वे
खड़े हो जाते हैं
धूप के चढ़ते ही उनके चेहरे पर छाने लगती
है उदासी
कुछ को काम मिलता है और कुछ
भारी कदमों से लौट जाते हैं अपनी झोंपड़ी की ओर
उन्हें दोपहर के पहले घर लौटते हुए देखना
हमारे समय की खौफनाक त्रासदी है
उनमें से कुछ शाम में गीत गाते हुए लौटते
हैं
बाजार से आटा- दाल और अपने बच्चों के लिए
पकौड़े लेकर
मैं ठिठक कर उनके गीत सुनना चाहता हूँ
मेरे लिए यह सबसे बड़ा म्युजिक कंसर्ट है
कि
आज उनके घर में चूल्हा जल सकेगा
रोज ऐसे दृश्यों से दो-चार होते हुए
मेरे सामने ऐसा कोई नायक उपस्थित नहीं है
जिसकी गाथा लिखी जाए
इन छोटे लोगों का दुःख भी कहाँ ठीक से
अंकित कर पाता हूँ
बस,
संक्षेप में उनका हालचाल आपतक पहुँचाना चाहता हूँ ।
*****
चीजों का सुलभ होना ही दुर्लभ होना है
जब लोग कहते हैं-
अब बहुत आसान हो गया है सब कुछ
तब मेरे चेहरे पर तिरने लगता है दुख
तमाम अकादमिक डिग्रियां क्यों नहीं पढ़
पातीं हमारे दुख
ताक़तें इतनी निर्बल कि किसी गिरे हुए को उठा नहीं सकतीं
महंगी तो नहीं होती हॅ़ंसी लेकिन लोग उसका
भी मोल वसूल लेते हैं
किसने किसी गरीब की अर्जी लगाई मुफ्त में
न्याय की खातिर
क्या पढ़ने लिखने का मतलब शातिर हो जाना है
वैसे प्रेमी आसानी से दिलों पर हो रहे हैं
काबिज जो प्रेयसी से मिले लाल गुलाब को स्वयं का घोषित कर देते हैं
और आंखों में आंख डाल महबूबा को बेशर्मी
से भेंट करते हुए
दिखाते हैं चांद - सितारे के सपने
ज़माना ऐसे आशिकों की दरियादिली पर
तालियां बजाता है
इधर बावरी प्रेमिका झूम- झूम कर नाच रही है पूरे जग में पीट रही है ढिंढोरा
मेरे आशिक ने मुझे सोना का नथिया दिया है
वह कभी नहीं समझ पाएगी चीजों का सुलभ होना
ही दुर्लभ होना है।
******
काल के कपाल की अबूझ लिपियाँ
कितनी हलचलें दर्ज हो रही हैं लगातार
कुछ स्मृतियों में धँस चुकी हैं कील की
तरह
जिनमें जंग लगने की गुंजाइश नहीं हैं जीवन
पर्यन्त
हवा समय - समय पर राख में छिपी आग को भड़का देती है
दिखता है सब कुछ जलता हुआ,धुंआ-धुंआ
यहाँ तो सन्नाटा पसरा है अन्तश्चेतना पर
और तुम पूछते हो क्या हुआ ?
बिकाऊ -फेंकाऊं चीजों के दिनों में
जरूरी सवालों से कतराने लगे हैं लोग
दर्द की भी कोई मियाद होती है क्या
असमंजस में पड़ा मन बार- बार पूछता है
अनेक हृदयद्रावक घटनाएं दफ़न हो जाती हैं
विस्मृति के गर्भ में
जैसे जीभ भूल जाती है पाँच-दस मिनट में
चाय का स्वाद
समय लगातार लिख रहा है अबूझ लिपियों में
एक साथ जय- पराजय की अनेक कथाएं
किसकी जय और किसकी पराजय ?
हम अपनी ही व्यथाओं में व्यस्त लोग
इनसे हैं बेखबर, लापरवाह
इन्हें पढ़ने की कोशिशें करने वाले भी
क्यों हो रहे हैं लगातार नाकाम ?
एक चमकदार विज्ञापन
क्षण भर में कर देता है सुर्ख़ियों को
विस्थापित
बहुत गझिन है यह भ्रम जाल
हम समाते जा रहे हैं एक अंतहीन सुरंग में
कैसा कोहरा है कि सूझ नहीं रहा हाथ को हाथ
यहाँ पास में बैठे आदमी का चेहरा भी
अपठनीय है
असत्य भी पूरे गर्व के साथ हो सकता है विराजमान
तस्दीक कर रहे हैं चौराहे पर चस्पां विज्ञापन
केवल किताबों को पढ़कर घोषित मत कीजिए
किसी को ज्ञानी- विज्ञानी
मत समझिए किसी को भाग्य विधाता
बहुत जरूरी है पढ़ा जाना
काल के कपाल पर निरंतर अंकित हो रहा मनुज का
भविष्य।
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इंटरनेशनल एयरपोर्ट
मुग्ध हूं
पांव जमीन पर ही हैं
पर यकीन नहीं हो रहा है
निगाहें आसमान में हैं
अद्भुत वास्तुशिल्प का नमूना देख रहा हूं
कलाकृतियों से सजाया गया है टर्मिनल - टू
कृत्रिम झरने से जल गिर रहा है कल-कल
कभी धरती को देखता हूं
कभी गगनचुंबी इस इमारत को
भूल गया हूं पत्नी भी साथ हैं
देखकर इंद्रप्रस्थ का वैभव
दुर्योधन भी यहां आता तो एक बार चकरा जाता
यात्रियों की सुरक्षा जांच जारी है
एक मां दूध का पाउडर निकाल
प्रस्तुत कर रही है सुरक्षाकर्मियों के
समक्ष
नोट कर लिया गया है उसका पीएनआर नंबर और मांग लिया गया है मोबाइल नंबर
मैं देख रहा हूं यह दृश्य मूक-निश्चल
गांधी बाबा यदि भूले-भटके पहुंच जाते यहां
कैसे छिपाते अपनी लाठी
करनी पड़ती स्थगित उन्हें अपनी यात्रा
पत्नी झरने के नीचे बैठ गई हैं विशिष्ट
मुद्रा में
ले रही हैं सेल्फियां धराधर
अचानक ध्यान आकृष्ट करती हैं तेज स्वर में
-
आओगे भी या ताकते रहोगे आकाश
एक सेल्फी तो ले लो संग -साथ
स्टेटस बदलना ज़रुरी है उड़ान भरने के
पहले।
*****
दृश्य में जीवन ढूँढते लोग
यहाँ कुछ लोग आठ के ठाठ में व्यस्त हैं
वे रात को दिन और दिन को रात बनाने वाले
लोग हैं
उनके लिए निर्धारित समय से चार घंटे बाद
होता है सूर्योदय
ऐसे ही लोगों से बनता है यहाँ का नागर
समाज
जहाँ से गढ़ी जा रही हैं सभ्यता की नई-नई परिभाषाएं
एक दिन असभ्य घोषित किये जा सकते हैं
इस साँचे से बाहर के लोग
यहाँ फोन करने के पूर्व संदेश भेजकर लेनी
पड़ती है इजाजत
यहाँ चमचमाती इमारतों के आगे-पीछे है
चकाचौंधी रोशनी
यहाँ सपने साकार होने की लुभावनी गारंटी
है
यहाँ घंटों साथ रहने के बावजूद लोग एक-दूसरे
के लिए बेगाने हैं
क्या हुआ,हम तो इस शहर के दीवाने हैं
यहाँ लोग मिलते हैं,बिछुड़ते हैं, टूटते
हैं
और फिर से जुट जाते हैं जीवन के समर में
यहाँ शनि या रविवार को खुशियों को
आमंत्रित किया जाता है
इस मेले में आने के बाद हम भूल जाते हैं
घर के रास्ते
यहाँ लोग जीते हैं,सुरा में ,सौन्दर्य
में, आजादी में
यहाँ अस्वीकार्य है किसी प्रकार का
हस्तक्षेप
यहाँ सर्वत्र सुनाई देता है निजता का राग
यहाँ केवल महसूसा जाता है बोला नहीं जाता
ध्वनियाँ स्वत: होंठों से हो जाती हैं वापस
यहाँ महाप्राण ध्वनियाँ हो चुकी हैं लगभग लुप्त
शब्दों में नहीं, अक्षरों में होता है संबोधन
जिसे हम रोज आते- जाते देखते हैं
जो रोज करता है हमें नमस्कार
उसका हम कभी नहीं पूछते समाचार
वह भी देखता है हम सब अपरिचितों को आते-
जाते
किसी की कोई छवि नहीं बनती किसी के
मस्तिष्क में
यहाँ लोग
दृश्यों में ढूँढते हैं जीवन
जबकि इस दृश्य का प्रत्येक लघुतम अंश
अचीन्हा और अदृश्य होने के लिए अभिशप्त है।
*****
मूर्ख युद्ध नहीं करते
एक युद्ध लड़ा जा रहा है सीरिया में
एक अफगानिस्तान में ,एक युक्रेन
में
जहां युद्ध नहीं है वहाँ भी लड़ा जा रहा
है युद्ध
अनेक देश लड़ रहे हैं अपने - अपने युद्ध
कहते हैं युद्ध मूर्खता है
पर मूर्ख कभी नहीं लड़ते युद्ध
सभी युद्धों की अगुवाई करते हैं प्रबुद्ध
जो युद्ध की घोषणा करता है
वह युद्ध में शामिल नहीं होता
वह केवल बतलाता है कि युद्ध उसके लिए नाक का प्रश्न है,
युद्ध उसके देश की शान का और उसके
कोटि- कोटि जन के जान का प्रश्न है
हालांकि युद्ध कोई मुद्दा नहीं
परंतु युद्ध के लिए अनेक मुद्दे हैं
युद्ध के घोषकों के अपने तर्क हैं
बाघ का पुरातन आरोप है -
बकरी नाव में धूल उड़ाती है
हम युद्ध से थोड़ा सा दूर हैं , दो क़दम दूर
युद्ध हमारे लिए मात्र किसी दूर देश की
ख़बर है
हम बाख़बर रहते हुए बेखबर हैं
एक खौफनाक घटना घटती है राजधानी में
हम टीवी पर देखते हैं
थोड़ी देर के लिए हम हो जाते हैं चुप
लग जाते हैं दैनिक कामकाज में
घटना का खबर में बदल जाना
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है
जानते हैं कि दिल्ली दूर नहीं है
फिर भी,मन को समझाते हैं कि दिल्ली दूर है
एक हत्या हो जाती है हमारे प्रांत में
एक राजनेता के लिए यह विधि- व्यवस्था का
प्रश्न है
पड़ोस में हो जाती है कोई अनहोनी
तब भी झट से बंद कर लेते हैं किवाड़
हम दूसरे के फटे में टाँग नहीं अड़ाते
हम ग्लोबल गाँव के शिष्ट, संभ्रांत नागरिक हैं
हम रक्षात्मक खेल खेलने वाले खिलाड़ी हैं
हमें शायद मालूम नहीं कि
अगली बॉल पर हो सकते हैं हम भी आउट
अब इसे मासुमियत कहूं या मान लूं अपनी
कायरता
हम लाख चाहें ,बच नहीं सकते
हमें शामिल कर लिया जाएगा युद्ध में
कोई लड़ने नहीं आएगा हमारे हिस्से का युद्ध
हम भी अनेक मोर्चे पर लड़ रहे हैं
क्या कोई देख सकेगा हमारा युद्ध?
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देह का अध्यात्म
वह सद्यस्नाता
स्त्री
जिसके कुंतल से टपक रहे हैं बूंद-बूंद जल
एक झटके से झाड़कर बाल
खड़ी हो गई है आईने के सामने
उसने विदा कर दिये हैं मन के सारे शोक
-संताप
स्थितप्रज्ञ सी निहार रही है
एक -एक कर अपने अंग
अपनी काली आंखों में दे रही है अतिरिक्त
काजल
सुर्ख कपोलों पर लगा रही है अंगराग
नखों पर दे रही है जतन से लालरंग
बालों में बांध चुकी है सफेद पुष्पों का
जूड़ा
पहन चुकी है मनपसंद रेशमी परिधान
एक बार देखती है पीछे मुड़कर
शायद भूलने को अतीत
सांसों में भरना चाहती है वर्तमान
फैल गई है उसके होंठों पर मुस्कान
नखशिख पर्यन्त प्रकीर्ण हैं विविध रंग
चमक रहा है सिन्दूर तिलकित भाल
ज्यों नीलगगन में उतर आया हो इन्द्रधनुष
कहां है कोई क्लेश - कालुष्य
कहां है आत्मा, कहां है वैराग्य
कहां है देह के बिना इनका अस्तित्व
जिस दिन मिलना होगा , मिट्टी में मिल जाएगी देह
देह ही है सत्य ,देह ही है प्रेय,
बिल्कुल नहीं है हेय यह कंचन देह
जब तक है देह तब तक है नेह
नहीं सुनना कोई प्रवचन उपदेश
कोई गुरु नहीं,कोई देव नहीं,कोई
पोथी नहीं
एक स्त्री ही समझा सकती है देह का अध्यात्म ।
******
वी आई पी लाऊंज
कुछ शब्द जीभ पर आसानी से नहीं चढ़ते
जैसे अति विशिष्ट व्यक्तित्व
भारी भरकम शब्दों में लगती है शिष्टता की
न्यूनता
उतरना जरूरी हो जाता है विदेशी भाषा में
शब्दों में भरने के लिए सभ्यता ,शिष्टता
देने के लिए अतिरिक्त वजन
संक्षिप्तता समय की मांग है
वीआईपी लाउंज में घुसने के पहले
बाबा तुलसीदास का कवित्त याद आया -
"हौं तो सदा खर को ही सवार ,
तेरे ही भाग गयंद चढ़ायो"
यह मेवा सेवा का प्राप्य है
बिना डेबिट कार्ड यहां प्रवेश निषेध है
जेब में एक डेबिट कार्ड हो तो दो रुपए में
खाया जा सकता है तरह- तरह के व्यंजन
यहीं आकर पता चला
मुफ्त का अन्न आदमी को बना देता है विपन्न
यहीं आकर समझ में आयी बात
गरीबों से कहीं अधिक भूक्खड़ हैं धनवान
हम स्लीपर क्लास के यात्री
निम्नमध्यवर्गीय
बैठ गए हैं साहब- सुब्बे के साथ
वीआईपी लाउंज में चख रहे हैं तरह तरह के
खाद्य और पेय पदार्थ
समझ रहे हैं विकास का निहितार्थ
एक ही डेबिट कार्ड है जेब में
लोगों के पास हैं कई कार्ड
(अब यह अचरज की बात नहीं)
सपरिवार कर रहे हैं उपयोग और लगा रहे हैं
भोग
सोच रहा हूं, अगली यात्रा के पहले
पत्नी के लिए बनवा दूंगा कार्ड
बहुत खल रही है उनकी अनुपस्थिति
वह अकेले बैठी हैं प्रतीक्षालय में।
*****
एक्सप्रेस वे
पुणे - मुंबई एक्सप्रेस वे पर हूं
लग्जरी वाहन वहन कर रहा है मुझे
यह भी किसी पुण्य से कम नहीं है
जगह- जगह सीसीटीवी कैमरे हैं संस्थापित
भूल से भी कोई आ जाए दुपहिया वाहन
तो हो सकती है दंडात्मक कार्रवाई
क्या अभिराम दृश्य है
सांवले - सांवले बादल कर रहे हैं स्वागत
पर्वतों पर घिर आए हैं मेघ
अब प्रियतमा को संदेश पहुंचाने का नहीं
सौंपूंगा इन्हें दायित्व
वीडियो काल पर हाजिर हो चुकी हैं
खुदमुख्तार
बोल रहीं हैं - अकेले मजे ले रहे हो
बर्खुरदार
इच्छा हो रही है तुम्हारे साथ चलूं
एक्सप्रेस वे पर
हाथों में डालकर हाथ
मैं थोड़ी देर के लिए मौन हो जाता हूं
यहां कोई पदयात्री नहीं दिख रहा है दूर-
दूर तक
सोचा नहीं था एक दिन सड़कें आरक्षित हो
जायेंगी
और लोग महसूस करेंगे असुरक्षित ।
*******
बासी पूरियां
जो अघाए हुए थे, उन्हें सबसे पहले परोसा गया
लगातार नजरअंदाज किया गया उन्हें
जो अहले सुबह से डटे हुए थे अपने कर्तव्य
पर
पंगत के लिए उमड़ चुका था लोगों का हुजूम
एक के उठते दूसरा बैठने की प्रतिस्पर्धा
में शामिल थे
जो दिन भर के भूखे थे
वे अपना धैर्य चबाते हुए प्रतीक्षा में
खड़े थे
ऐसा कभी महसूस नहीं किया गया कि
उनके बैठने के लिए भी होनी चाहिए कोई जगह
वे सालों भर श्रम का साग-सत्तू खाने वाले
लोग थे
जो सपरिवार करते थे इन्तज़ार एक दिन के
भोज का
वे कोई भिखमंगें नहीं थे, पेशेवर श्रमजीवी थे
जो करते थे विश्वास अपनी भुजाओं पर
सदियों से निभा रहे थे निर्धारित वर्ण व्यवस्था में
कारगर भूमिका
उनके देर से आने या सामान नहीं पहुंचाने
पर रुके रहते थे मंगल या श्राद्ध कार्य
छोटी मोटी भूलों पर वे अकसर बनते रहते थे
यजमानों के कोपभाजन
गांव का एक -एक घर होता था उनका यजमान
अचरज यह कि सबके सब ने उन्हें घोषित कर
रखा था शैतान
गांव की चौहद्दी के बाहर अकेले खड़ी होती
थी उनकी झोंपड़ी
उन्हें पंगत में बैठकर खाने की अनुमति
नहीं थी
वे ताकते रहते थे यजमान का मुंह देर रात
तक खड़े होकर
वे लाते थे अपने घर से टिनही बरतन,कटोरा
सारी पंगतों के उठ जाने के बाद
एक निश्चित दूरी से लोग परोस देते थे उसी
में भोज- सामग्रियां
आधे -अधूरे बचे -खुचे जो भी मिले वे लेकर
लौट जाते आधी रात
बच्चे जब सुबह उठते, वे बताते कि बहुत देर से शुरू हुआ था भोज
वे बताते थे आंखें फाड़कर,उमड़ पड़ा था लोगों का हुजूम
वे शब्द टटोलते थे पर नहीं मिलते थे
उन्हें कोई उपयुक्त शब्द
जो दे सकें उनकी भावनाओं को सही स्वर
वैसे ही जैसे पंगत में नहीं मिलती थी
उन्हें जगह
वे बतलाना चाह रहे थे बच्चों को अपना दुख
और बच्चे दांतों से खींचते हुए बासी पूरी
कर रहे थे शिकायत - बाबू ! बुंदिया नहीं बनी थी क्या
?
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संपर्क:
ललन
चतुर्वेदी