Monday, March 31, 2008

सांस सांस में बसा देहरादून


बहुत पुराना किस्सा है। एक बुजुर्ग शख्स अपने बंगले के हरे भरे लॉन में शाम के वक्त चहल कदमी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि गेट पर उनका कोई प्रिय मेहमान खड़ा है। उसे देखते ही उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं नरम घास में धंसा दी और गेट खोलने के लिए लपके। मेहमान को ले कर वे बंगले के भीतर चले गये। छड़ी रात भर के लिए वहीं धंसी रह गयी।
अगले दिन सुबह उन्हें अपनी छड़ी की याद आयी तो वे लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी पर छोटे छोटे अंकुए फूट आये हैं।
तो ये होती है किसी जगह की उर्वरा शक्ति कि छड़ी में भी रात भर में अंकुए फूट आते हैं।
ये किस्सा है देहरादून का। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि वहां आदमी की बात तो छोड़िये, छड़ी भी ठूंठ नहीं सकती और रात भर की नमी में हरिया जाती है।
लेकिन किस्से तो किस्से ही होते हैं। न जाने कितने लोगों द्वारा सुने सुनाये जाने के बाद भेस, रूप, आकार और चोला बदल कर हमारे सामने आते हैं। हुआ होगा कभी किसी की छड़ी के साथ कि पूरे बरसात के मौसम में वहीं लॉन पर रह गयी होगी और ताज़ी टहनी की बनी होने के कारण हरिया गयी होगी, लेकिन किस्से को तो भाई लोग ले लड़े। इस बात को शहर की उर्वरा शक्ति से जोड़ दिया।
आदमी की बात और होती है। उसे छ़ड़ी की तरह हरे भरे लॉन की सिर्फ नरम, पोली और खाद भरी मिट्टी ही तो नहीं मिलती। हर तरह के दंद फंद करने पड़ते हैं अपने आपको ठूंठ होने से बचाये रखने के लिए। हर तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं अपने भीतर की संवेदना नाम के तंतुओं को सूखने से बचाने के लिए। फिर भी गारंटी नहीं रहती कि आदमी ढंग से आदमी भी रह पायेगा या जीवन भर काठ सा जीवन बिताने को होगा अभिशप्त।

अब किस्मत कहिये या कुछ और, यह बांशिदा भी उसी देहरादून का है। यह बात अलग है कि इस बदें का बचपन लॉन की हरित हो आयी छड़ी की तरह नहीं, बल्कि झाड़ झंखाड़ वाली उबड़ खाबड़ तपती ज़मीन पर लगभग नंगे पैरों चलते बीता है। कितना ठूंठ रहा और कितना अंकुरित हो कर कुछ कर पाया उस मिट्टी की उर्वरा शक्ति से कुछ हासिल करके, यह तो मेरे यार दोस्त और पाठक ही जानते होंगे लेकिन एक बात ज़रूर जानता हूं जो कुछ हासिल कर पाया उसके लिए कितनी बार टूटा, हारा, गिरा, उठा और बार बार गिर गिर कर उठा, इसकी कोई गिनती नहीं। लगभग तेरह चौदह बरस में सातवीं कक्षा में पहली तुकबंदी करने के बाद ढंग से लिख पाना शुरू करने में मुझे सच में नानी याद आ गयी। बीस बरस से भी ज्यादा का वक्त लग गया मुझे अपनी पहली कहानी को छपी देखने के लिए। लोग जिस उम्र तक आते आते अपना बेहतीन लिख चुके होते हैं, तब मैं दस्तक दे रहा था। बेशक देहरादून पहली बार बाइस बरस की उम्र में 1974 में और हमेशा के लिए दूसरी बार 1978 में छूट गया था और बाद में वहां सिर्फ मेहमानों की तरह ही जाना होता रहा, और अब तो पांच बरस से वहां जा ही नहीं पाया हूं ( 11 दिसम्‍बर 2007 को जाना तय था, टिकट भी बुक था, लेकिन 10 दिसम्‍बर 2007 को दिल्‍ली में हुए भीषण सड़क हादसे ने मेरी पूरी जिंदगी की दिशा ही बदल डाली, अब तक जख्‍म सहला रहा हूं) लेकिन पहली मुकम्मल कही जा सकने वाली कहानी 1987 में पैंतीस बरस की उम्र में ही लिखी गयी। लेकिन इस बीच, अगर अज्ञेय की कविता से पंक्ति उधार लेते हुए कहूं तो कितनी नावों में कितनी बार डूबते उतराने के बाद ही, कई कई नगरों, महानगरों में दसियों नौकरियों में हाथ आजमाने के और दुनिया भर के अच्छे बुरे अनुभव बटोरने के बाद ही यह कहानी कागज पर उतर पायी थी।
फिलहाल उस सब के विस्तार में न जा कर मैं अपनी बात देहरादून और देहरादून में भी अपनी मौहल्ले तक ही सीमित रखूंगा और कोशिश करूंगा बताने की कि कितना तो बनाया उस मौहल्ले ने मुझे और कितना बनने से रोका बार बार मुझे।

हमारा घर मच्छी बाज़ार में था। एक लम्बी सी गलीनुमा सड़क थी जो शहर के केन्‍द्र घंटाघर से फूटने वाले शहर के उस समय के एक मात्र मुख्य बाज़ार पलटन बाज़ार से आगे चल कर मोती बाज़ार की तरफ जाने वाली सड़क से शुरू होती थी और आगे चल कर पुराने कनाट प्लेस के पीछे पीछे से बिंदाल नदी की तरफ निकल जाती थी। मोती बाज़ार नाम तो बाद में मिला था उस सड़क को, पहले वह कबाड़ी बाज़ार के नाम से जानी जाती थी। कारण यह था कि वहां सड़क के सिरे पर ही कुछ सरदार कबाड़ियों की दुकानें थीं। ये लोग कबाड़ी का अपनी पुश्तैनी धंधा तो करते ही थे, एक और गैर कानूनी काम करते थे। देहरादून में मिलीटरी के बहुत सारे केन्‍द्र हैं। आइएमए, आरआइएमसी और देहरादून कैंट में बने मिलीटरी के दूसरे ढेरों दस्ते। तो इन्हीं दस्तों से मिलीटरी का बहुत सा नया सामान चोरी छुपे बिकने के लिए उन दुकानों में आया करता था। पाउडर दूध के पैकेट, राशन का दूसरा सामान, फौज के काम आने वाली चीजें और सबसे खास, कई फौजी अपनी नयी यूनिफार्म वहां बेचने के लिए चोरी छुपे आते थे और बदले में पुरानी यूनिफार्म खरीद कर ले जाते थे। तय है उन्हें नयी नकोर यूनिफार्म के ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे और पुरानी और किसी और फौजी द्वारा इस्तेमाल की गयी पोशाक के लिए उन्हें कम पैसे देने पड़ते होंगे। मच्छी बाज़ार में ही रहते हुए हमारे सामने 1964 की ओर 1971 की लड़ाइयां हुई थीं। लड़ाई में जो कुछ भी हुआ हो, उस पर न जा कर हम बच्चे उन दिनों ये सोच सोच कर हैरान परेशान होते थे कि जो सैनिक अपनी यूनिफार्म तक कुछ पैसों के लिए बाज़ार में बेच आते हैं, वे सीमा पर जा कर देश के लिए कैसे लड़ते होंगे। एक सवाल और भी हमें परेशान करता था कि जो आदमी अपनी ड्रेस तक बेच सकता है, वह देश की गुप्त जानकारियां दुश्मन को बेचने से अपने आपको कैसे रोकता होगा। (यहां इसी सन्दर्भ में मुझे एक और बात याद आ रही है। मैं अपने बड़े भाई के पास 1993 में गोरखपुर गया हुआ था। ड्राइंगरूम में ही बैठा था कि दरवाजा खुला और एक भव्य सी दिखने वाली लगभग पैंतीस बरस की एक महिला भीतर आयी, मुझे देखा, एक पल के लिए ठिठकी और फ्रिज में छः अंडे रख गयी। तब तक भाभी भी उनकी आहट सुन कर रसोई से आ गयी थीं। दोनों बातों में मशगूल हो गयीं। थोड़ी देर बाद जब वह महिला गयी तो मैंने पूछा कि आपको अंडे सप्लाई करने वाली महिला तो भई, कहीं से भी अंडे वाली नहीं लगती। खास तौर पर जिस तरह से उसने फ्रिज खोल कर अंडे रखे और आप उससे बात कर रही थीं। जो कुछ भाभी ने बताया, उसने मेरे सिर का ढक्कन ही उड़ा दिया था और आज तक वह ढक्कन वापिस मेरे सिर पर नहीं आया है।
भाभी ने बताया कि ये लेडी अंडे बेचने वाली नहीं, बल्कि सामने के फ्लैट में रहने वाले फ्लाइट कमांडर की वाइफ है। उन्हें कैंटीन से हर हफ्ते राशन में ढेर सारी चीजें मिलती हैं। वैन घर पर आ कर सारा सामान दे जाती है। वे लोग अंडे नहीं खाते, इसलिए हमसे तय कर रखा है, हमें बाज़ार से कम दाम पर बेच जाते हैं। और कुछ भी हमें चाहिये हो, मीट, चीज़ या कुछ और तो हमें ही देते हैं। इस बात को सुन कर मुझे बचपन के वे फौजी याद आ गये थे जो गली गली छुपते छुपाते अपनी यूनिफार्म बेचने के लिए कबाड़ी बाज़ार आते थे। वे लोग गरीब रहे होंगे। कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी, लेकिन एक फ्लाइट कमांडर की बला की खूबसूरत बीवी द्वारा (निश्चित रूप से अपने पति की सहमति से) अपने पड़ोसियों को हर हफ्ते पांच सात रुपये के लिए अंडे सिर्फ इसलिए बेचना कि वे खुद अंडे नहीं खाते, लेकिन क्यूंकि मुफ्त में मिलते हैं, इसलिए लेना भी ज़रूरी समझते हैं, मैं किसी तरह से हजम नहीं कर पाया था। उस दिन वे अंडे खाना तो दूर, उसके बाद 1993 के बाद से मैं आज तक अंडे नहीं खा पाया हूं। एक वक्त था जब ऑमलेट की खुशबू मुझे दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू लगती थी और ऑमलेट मेरे लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश हुआ करती थी। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि जो अधिकारी चार छः रुपये के अंडों के लिए अपना दीन ईमान बेच सकता है, उसके ज़मीर की कीमत क्या होगी।) मैं एक बार फिर कबाड़ियों चक्कर में भटक गया। हां तो मैं अपने मच्छी बाज़ार की लोकेशन बता रहा था। बाद में मच्छी बाजार का नाम भी बदल कर अन्सारी मार्ग कर दिया गया था। हमारे घर का पता था 2, अन्सारी मार्ग। मच्छी बाज़ार के दोनों तरफ ढेरों गलियां थीं जिनमें से निकल कर आप कहीं के कहीं जा पहुंचते थे। आस पास कई मौहल्ले थे, डांडीपुर मौहल्ला, लूनिया मौहल्ला, चक्कू मोहल्ला। सारी गरीब लोगों की बेतरतीबी से उगी छोटी छोटी बस्तियां। बिना किसी प्लान या नक्शे के बना दिये गये एक डेढ़ कमरे के घर, जिन पर जिसकी मर्जी आयी, दूसरी मंजिल भी चढ़ा दी गयी थी। कच्ची पक्की गलियां, सडांध मारती गंदी नालियां, हमेशा सूखे या फिर लगातार बहते सरकारी नल। गलियों के पक्के बनने, उनमें नालियां बिछवाने या किसी तरह से एक खम्बा लगवा कर उस पर बल्ब टांग कर गली में रौशनी का सिलसिला शुरू करना इस बात पर निर्भर करता था कि किसी भी चुनाव के समय गली मौहल्ले वाले सारे वोटों के बदले किसी उम्मीदवार से क्या क्या हथिया सकते हैं। (ये बात अलग होती कि ये सब करने और वोटरों के लिए गाड़ियां भिजवाने के बदले उस उम्मीदवार को वादे के अनुसार साठ सत्तर वोटों के बजाये पांच सात वोट भी न मिलते। उस पर तुर्रा यह भी कि अफसोस करने सब पहुंच जाते कि हमने तो भई आप ही को वोट दिया था।)
हमारे घर में लाइट नहीं थी। पड़ोस से तार खींच कर एक बल्ब जलता था। ऐसे ही एक चुनाव में हम गली वाले भी अपनी गली रौशन करवाने मे सफल हो गये थे। चूंकि गली का पहला मोड़ हमारे घर से ही शुरू होता था, इसलिए गली को दोनों तरफ रौशन करने के लिए जो खम्बा लगाया गया था, वह हमारी दीवार पर ही था। इससे गली मे रौशनी तो हुई ही थी, हम लोगों को भी बहुत सुभीता हो गया था। हम भाई बहनों की पढ़ाई इसी बल्ब की बदौलत हुई थी। ये बात अलग है कि हम पहले गली के अंधेरे में जो छोटी मोटी बदमाशियां कर पाते थे, अब इस रौशनी के चलते बंद हो गयी थीं।
इस गली की बात ही निराली थी। हमारे घर के बाहरी सिरे पर पदम सिंह नाम के एक सरदार की दुकान थी जहां चाकू छुरियां तेज करने का काम होता था। कई बार खेती के दूसरे साजो सामान भी धार लगवाने के लिए लाये जाते। ये दुकान एक तरह से हमारे मौहल्ले का सूचना केन्‍द्र थी। यहां पर नवभारत टाइम्स आता था जिसे कोई भी पढ़ सकता था। बीसियों निट्ठले और हमारे जैसे छोकरे बारी बारी से वहां बिछी इकलौती बेंच पर बैठ कर दुनिया जहान की खबरों से वाकिफ होते। जब नवभारत टाइम्स में पाठकों के पत्रों में मेरा पहला पत्र छपा था तो पदमसिंह के बेटे ने मुझे घर से बुला कर ये खबर दी थी और उस दिन दुकान पर आने वाले सभी ग्राहकों और अखबार पढ़ने आने वालों को भी यह पत्र खास तौर पर पढ़वाया गया था। दुकान के पीछे ही गली में पहला घर हमारा ही था। वैसे नवभारत टाइम्स सामने ही चाय वाले मदन के पास भी आता था लेकिन उसकी दुकान में अखबार पढ़ने के लिए चाय मंगवाना ज़रूरी होता जो हम हर बार एफोर्ड नहीं कर पाते थे।
तो उसी पदम सिंह की दुकान के पीछे हमारा घर था। हम छः भाई बहन, माता पिता, दादा या दादी (अगर दादा हमारे पास देहरादून में होते थे तो दादी फरीदाबाद में चाचा लोगों के पास और अगर दादी हमारे पास होतीं तो दादा अपना झोला उठाये फरीदाबाद गये होते), चाचा और बूआ रहते थे।
न केवल हमारा घर उस गली में पहला था बल्कि हम कई मामलों में अपनी गली में दूसरों से आगे थे। वैसे भी उस गली में कूंजड़े, सब्जी वाले, गली गली आवाज मार कर रद्दी सामान खरीदने वाले जैसे लोग ही थे और उनसे हमारा कोई मुकाबला नहीं था सिवाय इसके कि हम एक साथ अलग अलग कारणों से वहां रहने को मजबूर थे। ये सारे के सारे घर पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आये शरणार्थियों को दो दो रुपये के मामूली किराये पर अलाट किये गये थे और बाद में उन्हीं किरायेदारों को बेच दिये गये थे। हमारा वाला घर हमारी नानी के भाई का था और जिसे हमारे नाना ने अपने नाम पर खरीद लिया था। अब हम अपने नाना के किरायेदार थे। बेशक पूरे मौहल्ले से हमारा कोई मेल नहीं था फिर भी न तो उनका हमारे बिना गुज़ारा था और न ही हम पास पड़ोस के बिना रह सकते थे। न केवल हमारा घर गली में सबसे पहले था बल्कि हम कई मायनों में अपने मुहल्ले के सभी लोगों और घरों से आगे थे। सिर्फ मेरे पिता, चाचा और बूआ ही सरकारी दफतरों में जाते थे और इस तरह बाहर की और पढ़ी लिखी दुनिया से हमारा साबका सबसे पहले पड़ता था। उन दिनों जितनी भी आधुनिक चीजें बाज़ार में आतीं, सबसे पहले उनका आगमन हमारे ही घर पर होता। प्रेशर कूकर, गैस का चूल्हा, अलार्म घड़ी और रेडियो वगैरह सबसे पहले हम ही ने खरीदे। बाद में ये चीजें धीरे धीरे हर घर में आतीं। हमारी देखा देखी आलू बेचने वाले गणेशे की बीवी ने अलार्म घड़ी खरीदी। इसके बाद से उनके घर के सारे काम अलार्म घड़ी के हिसाब से होने लगे। घर के सारे जन किसी काम के लिए अलार्म लगा कर घड़ी के चारों तरफ बैठ जाते और अलार्म बजने का इंतजार करते। अलार्म बजने पर ही काम शुरू करते। वे हर काम अलार्म लगा कर करते। चाय का अलार्म, सब्जी बनाने का अलार्म, खाना खाने या बनाने का अलार्म।
उस मुहल्ले में हमें दोस्त चुनने की आज़ादी नहीं थी। स्कूल वाले यार दोस्त तो वहीं स्कूल तक ही सीमित रहते, या बाद में कम ही मिल पाते, गुज़ारा हमें अपनी गली में उपलब्ध बच्चों से करना होता। गली में हर उम्र के बच्चे थे और खूब थे। हमारी उम्र के नंदू, गामा, बिल्ला, अट्टू, तो थोड़े बड़े लड़कों में प्रवेश, सुक्खा, मोणा वगैरह थे लेकिन एक बात थी कि हर दौर में अमूमन सभी बड़े लड़के गंदी आदतों में लिप्त थे। पता नहीं कैसे होता था कि चौदह पन्‍द्रह साल के होते न होते नयी उम्र के लड़के भी उनकी संगत में बिगड़ना शुरू कर देते। बड़े लड़के छोटे लड़कों की नेकर में हाथ डालना या उन्हें हस्त मैथुन करने या कराने के लिए उकसाना अपना हक समझते। शुरुआत इसी से होती। बाद में अंधेरे कोनों में अलग अलग कामों की दीक्षा दी जाती। आगरा से छपने वाले साप्ताहिक अखबारों, कोकशास्त्र और मस्तराम की गंदी किताबों का सिलसिला चलता और सोलह सत्रह तक पहुंचते पहुंचते सारे के सारे लड़के इन कामों में प्रवीण हो चुके होते। ये लड़के आस पास के दस मौहल्लों की लड़कियों को गंदी निगाह से ही देखते और उनके साथ सोने के मंसूबे बांधते रहते लेकिन गलत आदतों में पड़े रहने के कारण बुरी तरह से हीन भावना से ग्रस्त होते। वे बेशक अपनी चहेती लड़कियों का पीछा करते रोज़ उनके कॉलेज तक जाते या शोहदों की तरह गली के मोड़ पर खड़े हो कर गंदे फिकरे कसते, लेकिन वही लड़की अगर उनसे बात भी कर ले तो उनकी पैंट गीली हो जाती। मेरी गली का बचपन भी इन्हीं सारी पीढ़ियों के बीच बड़ा होता रहा था। कोई भी अपवाद नहीं था। बचने का तरीका भी नहीं था।
ये तो हुई गली के भीतर की बात, गली के बाहर यानी मच्छी बाज़ार का नज़ारा तो और भी विचित्र था। अगर मोती बाज़ार से स्टेशन वाली सड़क पर जाओ तो मुश्किल से पांच सौ गज की दूरी पर पुलिस थाना था और अगर मच्छी बाजार वाली ही सड़क पर आगे बिंदाल की तरफ निकल जाओ तो हमारे घर से सिर्फ तीन सौ गज की दूरी पर देसी शराब का ठेका था। यही ठेका हमारे पूरे इलाके के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाता था। ठेका वैसे तो पूरे शहर का केन्‍द्र था, लेकिन आस पास के कई मौहल्लों की लोकेशन इसी ठेके से बतायी जाती। हमें कई बार बताते हुए भी शरम आती कि हम शराब के ठेके के पास ही रहते हैं। उसके आस पास थे सट्टा, जूआ, कच्ची शराब, दूसरे नशे, गंदी और नंगी गालियां, चाकू बाजी, हर तरह की हरमजदगियां। ये बाय प्राडक्ट थे शराब के ठेके के। शरीफ लड़कियां शर्म के मारे सिर झुकाये वहां से गुज़रतीं। हमारी गली के सामने मदन की चाय की दुकान के साथ एक गंदे से कमरे में अमीरू नाम का बदमाश रहता था। चूंकि उसका अपना कमरा वहां पर था इसलिए वह खुद को इस पूरे इलाके का बादशाह मानता था और धड़ल्ले से कच्ची और नकली दारू के, सट्टे और दूसरे किस्म के नशे के कारोबार करता था। चूंकि ठेके में सिर्फ शराब ही मिलती थी और ठेका खुला होने पर ही मिलती थी, अमीरू का धंधा हर वक्त की शराब और सट्टे के कारण खूब चलता था। वैसे तो हर इलाके के अपने गुंडे थे लेकिन अमीरू का हक मारने दूसरे इलाकों के दादा कई बार आ जाते। एक ऐसा ही दादा था ठाकर। शानदार कपड़े पहने और तिल्लेदार चप्पल पहने वह अपनी एम्बेसेडर में आता। उसके आते ही पूरे मोहल्ले में हंगामा मच जाता। उसके लिए सड़क पर ही एक कुर्सी डाल दी जाती और वह सारे स्थानीय गुर्गों से सट्टे का अपना हिसाब किताब मांगता। शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो कि उसके आने पर मारपीट, गाली गलौज न होती हो और छुटभइये किस्म गुंडे छिपने के लिए हमारी गली में न आते हों। वह अपनी चप्पल निकाल का स्थानीय गुंडों को पीटता और वे चुपचाप पिटते रहते। कई बार चाकू भी चल जाते और कई बार कइयों को पुलिस भी पकड़ कर ले जाती। एक आध दिन शांति रहती और फिर से सारे धंधे शुरू हो जाते। कई बार फकीरू नाम का एक और लम्बा सा गुंडा आ जाता तो ये सारे सीन दुहराये जाते। अमीरू और फकीरू में बिल्कुल नहीं पटती थी, दोनों में खूब झगड़े होते लेकिन दोनों ही ठाकर से खौफ खाते। ज्यादातर झगड़े सट्टे की रकम और दूसरे लेनदेनों को ले कर होते लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि कभी कभार हमारी शरारतों के कारण भी उनमें आपस में गलतफहमियां पैदा होती थीं।

दरअसल मामला ये था कि पदम सिंह की दुकान की हमारी गली वाली दीवार में इन्हीं लोगों ने ईंटों में छोटे छोटे छेद कर दिये थे और सट्टा खेलने वाले हमारी गली के अंधेरे में खड़े हो कर और कई बार दिन दहाड़े भी अपने सट्टे का नम्बर एक कागज पर लिख कर अपनी दुअन्नी या चवन्नी उस कागज में लपेट कर इन्हीं छेदों में छुपा जाते और बाद में अमीरू या उसके गुर्गे पैसे और पर्ची ले जाते। हम छुप कर देखते रहते और जैसे ही मौका लगा, कागज और पैसे ले का चम्पत हो जाते। कागज कहीं फेंक देते और पैसों से ऐश करते। हम ये काम हमेशा बहुत डरते डरते करते और किसी को भी राज़दार न बनाते। हो सकता है बाकी लड़के भी यही करते रहे हों और हमें या किसी और को हवा तक न लगी हो।
तय है कि जब मच्छी बाजार है तो मीट, मच्छी, मुर्गे, सूअर और दूसरी तरह के मांस की दूकानें भी बहुत थीं। कुछ छोटे होटल भी थे जो बिरयानी, मछली या मीट के साथ गैर कानूनी तरीके से शराब भी बेचते थे। इन शराबियों में आये दिन झगड़े होते। कुछ ज्यादा बहादुर शराबी सुबह तक नालियों में पड़े नज़र आते।
उन्हीं दिनों ऋषिकेश में आइपीसीएल का बहुत बड़ा कारखाना रूस के सहयोग से बन रहा था। वहां से हफते में एक बार बस शॉपिंग के लिए देहरादून आती तो ढेर सारी मोटी मोटी रूसी महिलाएं स्कर्ट पहले सूअर का मांस खरीदने आतीं। हम उन्हें बहुत हैरानी से खरीदारी करते देखते क्योंकि हमारे बाजार के दुकानदारों को हिन्दी भी ढंग से बोलनी नहीं आती थी और रूसी महिलाओं के साथ उनके लेनदेन कैसे होते होंगे, ये हम सोचते रहते थे। किसी भी तरह के विदेशियों को देखने का ये हमारा पहला मौका था।
मच्छी और मांस बेचने वाले ज्यादातर खटीक और मुसलमान थे। ये लोग आसपास छोटे छोटे दड़बों में रहते थे। इन दड़बों के आगे टाट का परदा लटकता रहता। हम हैरान होते कि इन छोटे छोटे कमरों में इनके बीवी बच्चों का कितना दम घुटता होगा क्योंकि कभी भी किसी ने उनके परिवार के किसी सदस्य को बाहर निकलते कभी नहीं देखा था। ये लोग बेहद गंदे रहते, आपस में लड़ते झगड़ते और मारपीट करते रहते। अक्सर लौंडेबाजी के चक्कर में हमारे ही मौहल्ले के लड़कों की फिराक में रहते। उन्हें दूध जलेबी या इसी तरह की किसी चीज का लालच दे कर अंधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करते या फिर अगर दांव लग जाये तो नाइट शो में फिल्म दिखाने की दावत देते। ऐसे लड़कों पर वे खूब खर्च करने के लिए तैयार रहते लेकिन हमारी गली के सारे के सारे लड़के उनके इस दांव से वाकिफ थे और दूध जलेबी तो आराम से खा लेते या कई बार पिक्चर के टिकट ले कर हॉल तक उनके साथ पहुंच भी जाते लेकिन ऐन वक्त पर किसी लड़के को अपना चाचा नजर आ जाता तो किसी को तेजी से प्रेशर लग जाता और वह फूट निकलता। इन मामलों में हमसे सीनियर लड़का प्रवेश हमारा उस्ताद था। वह ऐसे लोगों को चूना लगाने और फिर ऐन वक्त पर निकल भागने की नई नई तरकीबें हमें बताता रहता था। प्रवेश ने तो उनके पैसों से खरीदी टिकट बाहर आ कर बेच डाली थी और गफूर नाम का कसाई हॉल के अंदर उसकी राह देखता बैठा रहा था। कुछ दिन तो गफूर उसे गालियां देता फिर किसी और लड़के को पटाने की कोशिश करता।
उन्हीं दिनों एक पागल औरत नंगी घूमा करती थी सड़कों पर। किसी ने खाने को कुछ दे दिया तो ठीक वरना मस्त रहती थी। कुछ ही दिनों बाद हमने देखा था कि वह पगली पेट से है। सबने उड़ा दी थी कि ये सब गफूर मियां की दूध जलेबी की मेहरबानी है।
तो ऐसे माहौल में मैंने अपने बचपन के पूरे तेरह बरस बिताये। लगभग पहली कक्षा से लेकर बीए करने तक। साठ के आस पास से तिहत्तर तक का वक्त हमने उन्हीं गलियों, उन्हीं संगी साथियों और उन्हीं कुटिलताओं के बीच गुज़ारा। ऐसा नहीं था कि वहां सब कुछ गलत या खराब ही था। कुछ बेहतर भी था और कुछ बेहतर लोग भी थे जो आगे निकलने, ऊपर उठने की जद्दोजहद में दिन गुजार रहे थे। सबसे बड़ी तकलीफ थी कि किसी के भी पास न तो साधन थे और न ही कोई राह ही सुझाने वाला था। जो था, जैसा था, जितना था, उसी में गुजर बसर करनी थी और कच्चे पक्के ही सही, सपने देखने थे। न कल का सुख भोग पाये थे न आज के हिस्से में सुख था और न ही आने वाले दिन ही किसी तरह की उम्मीद जगाते थे। किसी तरह हाई स्कूल भर कर लो, टाइपिंग क्लास ज्वाइन करो और किसी सरकारी महकमें से चिपक जाओ। इससे ऊँचे सपने देखना किसके बूते में था। कोई भी तो नहीं था जो बताता कि ज्यादा पढ़ा लिखा भी जा सकता है। खुद हमारे घर में हमारे साथ रहने वाले चाचा हमें लगातार पीट पीट कर हमें ढंग का आदमी बनाने की पूरी कोशिश में लगे रहते। हम स्कूल से आये ही होते और गली में किसी चल रहे कंचों का खेल देख रहे होते या कहीं और झुंड बना कर खड़े ही हुए होते कि हमारे चाचा ऑफिस से जल्दी आ कर हमारी ऐसी तैसी करने लग जाते। बिना वजह पिटाई करना वे अपना हक समझते थे। न हम कुछ पढ़ने लायक बन पाये और न ही किसी खेल में ही कुछ करके दिखा पाये। दब्बू के दब्बू बने रह गये।
जहां तक उस माहौल में पढ़ने लिखने का सवाल था, हमारे सामने तीन तरह के, बल्कि वार तरह के रास्ते खुलते थे। हमारी गली के आसपास कई दुकानें थीं जहां फिल्मी पत्रिकाएं और दूसरी किताबें 10 पैसे रोज पर किराये पर मिलती थीं। वहां से हम हर तरह की फिल्मी पत्रिकाएं किराये पर ला कर पढ़ते। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश काम्बोज, कर्नल रंजीत और कुछ भी नहीं छूटता था वहां हमारी निगाहों से। उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी सरदारजी ने वहीं कबाड़ी बाजार में एक आदर्शवादी वाचनालय खोला और अपने घर की सारी अच्छी अच्छी किताबें वहां ला कर रखीं ताकि लोगों का चरित्र निर्माण हो सके। तब मैं ग्यारहवीं में था। तय हुआ तीस रुपये महीने पर मैं स्कूल से आकर दो तीन घंटे वहां बैठ कर उस लाइब्रेरी का काम देखूं।
भला इस तरह की किताबों से कोई लाइब्रेरी चलती है। मजबूरन उन्हें भी फिल्मी पत्रिकाओं का और चालू किताबों का सहारा लेना पड़ा। वहां तो खूब पढ़ने को मिलतीं हर तरह की किताबें। दिन में तीन तीन किताबें चट कर जाते। ये पुस्तकालय छः महीने में ही दम तोड़ गया। वे बेचारे कब तक जेब से डाल कर किताबें और पत्रिकाएं खरीदते। जबकि मासिक ग्राहक दस भी नहीं बन पाये थे।
स्कूल की लाइब्रेरी में भी हमारे लाइब्रेरियन मंगलाप्रसाद पंत हमें चरित्र निर्माण की ही किताबें पढ़ने के लिए देते। जबकि अपने मोहल्ले की चांडाल चौकड़ी में हम मस्तराम की किताबों और अंगड़ाई तथा आज़ाद लोक जैसी पत्रिकाओं का सामूहिक पाठ कर रहे थे। एक और सोर्स था हमारे पढ़ने का। मैं और मुझसे बड़े भाई महेश स्कूल के पीछे ही बने सार्वजनिक पुस्तकालय में नियमिन रूप से जाते थे और वहां पर चंदामामा, राजा भैय्या, पराग जैसी पत्रिकाओं के आने का बेसब्री से इंतजार करते। हमारी कोशिश होती कि हम सबसे पहले जा कर पत्रिका अपने नाम पर जारी करवायें। वहां जा कर किताबें पढ़ने की हम कभी सोच ही नहीं पाये।
तो इस तरह के जीवन के एकदम विपरीत ध्रुवों वाले माहौल से और बचपन से गुज़रते हुए यह बंदा निकला। कोई दिशा नहीं थी हमारे सामने ओर न कोई दिशा बताने वाला ही था कि ये राह चुनो तो आगे चल कर कुछ कर पाओगे।
तो जो बना वहीं से निकल कर बना और जो नहीं बना, वह भी उसी जगह की वजह से न बना.
आमीन
सूरज प्रकाश
मूल कार्य
· अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992
· हादसों के बीच - उपन्यास 1998
· देस बिराना - उपन्यास 2002
· छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002
· ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह - 2002
अंग्रेजी से अनुवाद
· जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म
· गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद
· ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद
· चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद
· मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004
· चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद
· इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित
गुजराती से अनुवाद
· प्रकाशनो पडछायो (दिनकर जोशी का उपन्यास
· व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकों का अनुवाद
· गुजराती के महान शिक्षा शास्‍त्री गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकों दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियों का अनुवाद
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· कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित
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· कहानियों का रेडियो पर प्रसारण और
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कार्यालय में
· पिछले 32 बरस से हिन्दी और अनुवाद से निकट का नाता
· कई राष्ट्रीय स्तर के आयोजन किये
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Thursday, March 27, 2008

विश्व रंगमंच दिवस

दुनिया
के
साहित्य-कला प्रेमियों को

विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च
की
मुबारकबाद।

रंगकर्मी बर्तोल ब्रेख्त की कविता:-


सुबह के करीब
जब मै अस्पताल के एक सफेद कमरे में जागा
और कोयल को सुना
तब, बूझा मैने खूब।
काफी देर तक मुझे मौत का कोई डर नहीं रहा
क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है जो मैं कभी खो सकूं
बशर्ते, मैं न रहूं खुद
इस वक्त उस कामयाबी तक ले गया है
मेरी खुशी को
यह सब
कि तमाम कोयलों के गीत
रहेगें मेरे बाद भी।

Wednesday, March 26, 2008

संजय कुदन की कविताऐं

योजनाओं का शहर

जो दुनियादार थे वे योजनाकर थे
जो समझदार थे वे योजनाकर थे
एक लड़का रोज़ एक लड़की को
गुलदस्ता भेंट करता था
उसकी योजना में
लड़की एक सीढ़ी थी
जिसके सहारे वह
उतर जाता चाहता था
दूसरी योजना में
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योजनाओं में हरियाली थी
धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने
एक दिन एक योजनाकार को
रास्ते में प्यास तड़पता एक आदमी मिला
योजनाकार को दया आ गई
उसने झट उसके मुॅंह में एक योजना डाल दी।

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योजनाऐं अक्सर योजनाओं की तरह आती थीं
लेकिन कई बार वे छिपाती थीं खुद को
किसी दिन एक भीड़ टूट पड़ती थी निहत्थों पर
बस्तियॉं जला देती थी
खुलेआम बलात्कार करती थी
इसे भावनाओं का प्रकटीकरण बताया जाता था
कहा जाता था कि अचानक भड़क उठी है यह आग
पर असल में यह सब भी
एक योजना के तहत ही होता था
फिर योजना के तहत पोंछे जाते थे ऑंसू
बॉंटा जाता था मुआवज़ा
एक बार खुलासा हो गया इस बात का
सबको पता चल गया इन गुप्त योजनाओं का
तब शोर मचने लगा देश भर में
तभी एक दिन एक योजनाकार
किसी हत्यारे की तरह काला चश्मा पहने
और गले में रूमाल बॉंधे सामने आया
और ज़ोर से बोला - हॉं, थी यह योजना
बताओ क्या कर लोगे
सब एक-दूसरे का मुॅंह देखने लगे
सचमुच कोई उसका
कुछ नहीं कर पाया।

संजय कुदन, सी 301 जनसत्ता अपार्टमेंटस सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद- 201012 मो। 09910257915

संजय कुंदन की कविताऐं वागर्थ के मार्च 08 अंक से साभार ली गयी। यहॉं प्रकाशन से पूर्व कवि की सहमति प्राप्त होने के बाद ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में जल्द ही उनकी ताजा रचना भी इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्राप्त हो सकेगी।

Sunday, March 23, 2008

क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना

भाई नवीन नैथानी ने यह आलेख विशेष तौर पर इस ब्लाग पत्रिका के लिए ही लिखा है और समय-समय पर आगे भी लिखते रहने का वायदा किया है।
नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार है। वर्ष 2006 में नवीन को रमाकान्त स्मृति सम्मान उनकी कहानी 'पारस" पर दिया गया था। इससे पूर्व 1998 में कहानी 'चोर घ्ाटडा" के लिए कथा सम्मान से सम्मानित किया गया था।
नवीन नैथानी विज्ञान के अध्येता है। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं।
(हम अपने ऐसे अन्य मित्रों से जिनकी पहचान जहॉं एक ओर साहित्यक क्षेत्र में उनकी अपनी सक्रियता के कारणों से है और वहीं वे दूसरी ओर किसी अन्य विषय में भी दख्ाल रखते हंै या कार्यारत हैं, अनुरोध करते है कि अपने उस विषय के साथ इस ब्लाग पत्रिका में हाज़िर हों। इसे एक सीधा अनौपचारिक आमंत्रण समझते हुए बेहिचक अपनी रचना के साथ ब्लाग में उपस्थित हों या फिर किसी भी माध्यम से हम तक पहुॅंचाने का कष्ट करें। आपकी उपस्थिति से पूर्व ही हम आपके स्वागत एवं आभार के लिए तत्पर है। - ब्लागर।)


मैं विज्ञान का विद्यार्थी हॅंू और साहित्य का अध्येता। विज्ञान पढ़ते हुए उसे साहित्य की असीम सीमाओं में बांधने की जद्दोजहद रहती है। यहॉं मजेदार बात यह है कि हम साहित्य पढ़ते हैं और विज्ञान का अध्ययन करते हैं। जो पढ़ते हैं उसे अध्ययन कहें क्या! शिक्षाविदों और शैक्षिक प्रविधयों के प्रणेताओं के पास इस प्रश्न का जवाब होगा मेरे पास नहीं। मैं काफ्का की मैटामॉर्फोसिस पढ़ता हॅंू। पढ़ते हुए मुझे एक साथ तीन चीजें अपनी ओर खींचती हैं। लेखक ;काफ्काद्ध की मन:स्थिति, उसका परिवेश और उन दोनों के बीच संतरण करता हुआ मेरा ;पाठक काद्ध समय। पढ़ते हुए मैं इन तीनों के बीच अर्न्तसंबंधों का अध्ययन अचेतन रुप में करने लगता हॅूं। मैं सापेक्षिकता पर आईस्टिन के पर्चे पढ़ता हॅंू, स्टीफन हॉकिंग की प्रख्यात पुस्तक से रुबरु होता हॅूं और क्वाण्टम ;सूक्ष्मद्ध जगत की विभिन्नताओं से परिचित होता हूूं। इन तमाम भैतिक परिघ्ाटनाओं के बारे में पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक ही बात अपनी तरफ खींचती है - यह जगत कैसा है ?क्या विज्ञान या वैज्ञानिक तथ्यों को जानना समझना हमारे अनुभव को इतना एकांगी रुप में सम्द्ध करता है ? या इससे मेरी चेतना अथवा मेरे संचित ज्ञान में व्द्धि कोई खलबली पैदा करती है ? इन्हीं दो प्रश्नों के बीच मैं क्वाटण्म अवधारणा के शुरुआती बिन्दुओं पर अपने विचारों को साझा करना चाहता हॅूं।मनुष्य अपने प्रारम्भ से ही विराट जगत को देखकर विस्मित होता रहा। इस विस्मय में मनुष्य में क्षुद्रता का भान तो था ही, साथ ही असीमितताऐं भी उसे उद्वेलित करती थी। आश्चर्यजनक किंतु सत्य तो यह है कि मनुष्य ने इन अनिश्चितताओं से भयभीत होना नहीं सीखा बल्कि उनके भीतर किसी अन्तर्निहित निश्चित नियम को जानने का बीड़ा उठाया।बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में मानव सभ्यता सामूहिक चेतना के उस उत्थान बिन्दु के नजदीक पहॅुंच गयी थी जहॉं हम इन अनिश्चिततओं को सिद्धान्तों की निश्चितताओं में ढालने के अनुक्रम में जुट पाते।क्वाण्टम भौतिकी की बहुत सारी व्याख्याऐं और इसके दार्शनिक विमर्श, बेशक, अनिश्चितताओं के घ्ाटाटोप की तरफ संकेत करते हैं। ईश्वर जैसी अमूर्त अवधारणाओं के पोषक कुछ खुराक भी इनसे ले लेते हों किन्तु क्वाण्टम भौतिकी अपने शुद्ध गणितीय स्वरूप में इतनी ही निश्चित है जितनी धरती के सामने चन्द्रमा की छवि!जीवन निर्जीव तत्वों से बना है। स्टनले मिलर के प्रयोगों में यह तथ्य बीसवीं शताब्दी के छठे दशक की शुरुआत में सामने आया। स्टनले मिलर के प्रयोगों से पहले प्रख्यात भैतिकविद्ध ;और क्वाण्टम अवधारणा के प्रवर्तकों में से एक, इर्विन श्रोडिंजर ने अपने निबन्ध -वॉट इज लाईफ में इस तरफ संकेत किया था। क्रिस्टलव्द्धि की सहज रासायनिक/भौतिक परिघ्ाटना के विश्लेषण में श्रोडिंजर जीवन की उत्पत्ति में निर्जीव तत्वों के योगदान की भविष्यवाणी कर चुके थे। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब प्लांक, रदरफोर्ड, आईंस्टीन, बोर आदि सूक्ष्म जगत की घ्ाटनाओं को व्याख्यायित करने की कोशिश में थे तब वह सुदूर भविष्य की बात थी। उन लागों ने सोचा भी नहीं था। और उन्हें सोचने की आवश्यकता भी नहीं थी। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आज बॉयोटैक्नालॉजी की इस सदी में उन घ्ाटनाओं की तरफ थोड़ा विस्मय और किंचित उपहास के साथ देखने की प्रव्त्ति पायी जाती है।विज्ञान का इतिहास हमेशा इस तरह की घ्ाटनाओं से भरा हुआ है कि अतीत के काल विशेष में किसी महान मेधा से भीषण चूक हुई है और वह उस समय विशेष की परिघ्ाटना को लक्षित/व्याख्यायित करने से रह गया जिसका खामियाजा सभ्यता को भुगतना पड़ा। वे लोग उस समय नहीं जानते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह हम लोग नहीं जानते हैं। हमारे आगे की पीढ़ियां तय करेगीं कि हम लोग भी नहीं जानते हैं। विज्ञान यहॉं दर्शन के सामने बौना है। और यहीं विज्ञान दर्शन से अधिक बड़ा और लचीला भी है। एक दार्शनिक अवधारणा आपके सामने भविष्य के लिए कुछ भी नहीं छोड़ती। विज्ञान के सामने आपका समूचा भविष्य खुला रहता है - सांभावनाओं और प्रयोगों की एक विस्त्त स्ष्टि जहॉं पूर्वग्रह, मत-अभिमत, धर्म, आस्थाऐं और विश्वास सब प्रश्नों की खराद पर नव सृजन के लिए तत्पर हैं। तो हम क्वाण्टम अवधारणाओं के शुरुआती प्रश्नों की तरफ लौटे। नवीन नैथानी

Saturday, March 22, 2008

देहरादून पर एक गीत

'बीटल्स' के मुख्य गायक गिटारिस्ट जॉर्ज हैरिसन का गाया गीत ' देहरादून ' पेश है। इसे " कबाड़ख़ाने" से साभार लिया गया है। बीटल्स ग्रुप के सदस्य १९६० - १९७० के दौरान, आत्मिक शांति की खातिर ऋषिकेश बहुत आया जाया करते थे। प्रस्तुत गीत उसी दौर का है।
Dehra, Dehra dun,
Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
Many people on the roads looking at the sights
Many others with their troubles looking for their rights
Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun
See them move along the road in search of life devine..........................
Beggers in a goldmine
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun
Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days
Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dun
Dehradun, Dehradun dun
Dehradun