भाई नवीन नैथानी ने यह आलेख विशेष तौर पर इस ब्लाग पत्रिका के लिए ही लिखा है और समय-समय पर आगे भी लिखते रहने का वायदा किया है।
नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार है। वर्ष 2006 में नवीन को रमाकान्त स्मृति सम्मान उनकी कहानी 'पारस" पर दिया गया था। इससे पूर्व 1998 में कहानी 'चोर घ्ाटडा" के लिए कथा सम्मान से सम्मानित किया गया था।
नवीन नैथानी विज्ञान के अध्येता है। राजकीय महाविद्यालय, डाकपत्थर, देहरादून में भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं।
(हम अपने ऐसे अन्य मित्रों से जिनकी पहचान जहॉं एक ओर साहित्यक क्षेत्र में उनकी अपनी सक्रियता के कारणों से है और वहीं वे दूसरी ओर किसी अन्य विषय में भी दख्ाल रखते हंै या कार्यारत हैं, अनुरोध करते है कि अपने उस विषय के साथ इस ब्लाग पत्रिका में हाज़िर हों। इसे एक सीधा अनौपचारिक आमंत्रण समझते हुए बेहिचक अपनी रचना के साथ ब्लाग में उपस्थित हों या फिर किसी भी माध्यम से हम तक पहुॅंचाने का कष्ट करें। आपकी उपस्थिति से पूर्व ही हम आपके स्वागत एवं आभार के लिए तत्पर है। - ब्लागर।)
मैं विज्ञान का विद्यार्थी हॅंू और साहित्य का अध्येता। विज्ञान पढ़ते हुए उसे साहित्य की असीम सीमाओं में बांधने की जद्दोजहद रहती है। यहॉं मजेदार बात यह है कि हम साहित्य पढ़ते हैं और विज्ञान का अध्ययन करते हैं। जो पढ़ते हैं उसे अध्ययन कहें क्या! शिक्षाविदों और शैक्षिक प्रविधयों के प्रणेताओं के पास इस प्रश्न का जवाब होगा मेरे पास नहीं। मैं काफ्का की मैटामॉर्फोसिस पढ़ता हॅंू। पढ़ते हुए मुझे एक साथ तीन चीजें अपनी ओर खींचती हैं। लेखक ;काफ्काद्ध की मन:स्थिति, उसका परिवेश और उन दोनों के बीच संतरण करता हुआ मेरा ;पाठक काद्ध समय। पढ़ते हुए मैं इन तीनों के बीच अर्न्तसंबंधों का अध्ययन अचेतन रुप में करने लगता हॅूं। मैं सापेक्षिकता पर आईस्टिन के पर्चे पढ़ता हॅंू, स्टीफन हॉकिंग की प्रख्यात पुस्तक से रुबरु होता हॅूं और क्वाण्टम ;सूक्ष्मद्ध जगत की विभिन्नताओं से परिचित होता हूूं। इन तमाम भैतिक परिघ्ाटनाओं के बारे में पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक ही बात अपनी तरफ खींचती है - यह जगत कैसा है ?क्या विज्ञान या वैज्ञानिक तथ्यों को जानना समझना हमारे अनुभव को इतना एकांगी रुप में सम्द्ध करता है ? या इससे मेरी चेतना अथवा मेरे संचित ज्ञान में व्द्धि कोई खलबली पैदा करती है ? इन्हीं दो प्रश्नों के बीच मैं क्वाटण्म अवधारणा के शुरुआती बिन्दुओं पर अपने विचारों को साझा करना चाहता हॅूं।मनुष्य अपने प्रारम्भ से ही विराट जगत को देखकर विस्मित होता रहा। इस विस्मय में मनुष्य में क्षुद्रता का भान तो था ही, साथ ही असीमितताऐं भी उसे उद्वेलित करती थी। आश्चर्यजनक किंतु सत्य तो यह है कि मनुष्य ने इन अनिश्चितताओं से भयभीत होना नहीं सीखा बल्कि उनके भीतर किसी अन्तर्निहित निश्चित नियम को जानने का बीड़ा उठाया।बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में मानव सभ्यता सामूहिक चेतना के उस उत्थान बिन्दु के नजदीक पहॅुंच गयी थी जहॉं हम इन अनिश्चिततओं को सिद्धान्तों की निश्चितताओं में ढालने के अनुक्रम में जुट पाते।क्वाण्टम भौतिकी की बहुत सारी व्याख्याऐं और इसके दार्शनिक विमर्श, बेशक, अनिश्चितताओं के घ्ाटाटोप की तरफ संकेत करते हैं। ईश्वर जैसी अमूर्त अवधारणाओं के पोषक कुछ खुराक भी इनसे ले लेते हों किन्तु क्वाण्टम भौतिकी अपने शुद्ध गणितीय स्वरूप में इतनी ही निश्चित है जितनी धरती के सामने चन्द्रमा की छवि!जीवन निर्जीव तत्वों से बना है। स्टनले मिलर के प्रयोगों में यह तथ्य बीसवीं शताब्दी के छठे दशक की शुरुआत में सामने आया। स्टनले मिलर के प्रयोगों से पहले प्रख्यात भैतिकविद्ध ;और क्वाण्टम अवधारणा के प्रवर्तकों में से एक, इर्विन श्रोडिंजर ने अपने निबन्ध -वॉट इज लाईफ में इस तरफ संकेत किया था। क्रिस्टलव्द्धि की सहज रासायनिक/भौतिक परिघ्ाटना के विश्लेषण में श्रोडिंजर जीवन की उत्पत्ति में निर्जीव तत्वों के योगदान की भविष्यवाणी कर चुके थे। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब प्लांक, रदरफोर्ड, आईंस्टीन, बोर आदि सूक्ष्म जगत की घ्ाटनाओं को व्याख्यायित करने की कोशिश में थे तब वह सुदूर भविष्य की बात थी। उन लागों ने सोचा भी नहीं था। और उन्हें सोचने की आवश्यकता भी नहीं थी। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आज बॉयोटैक्नालॉजी की इस सदी में उन घ्ाटनाओं की तरफ थोड़ा विस्मय और किंचित उपहास के साथ देखने की प्रव्त्ति पायी जाती है।विज्ञान का इतिहास हमेशा इस तरह की घ्ाटनाओं से भरा हुआ है कि अतीत के काल विशेष में किसी महान मेधा से भीषण चूक हुई है और वह उस समय विशेष की परिघ्ाटना को लक्षित/व्याख्यायित करने से रह गया जिसका खामियाजा सभ्यता को भुगतना पड़ा। वे लोग उस समय नहीं जानते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह हम लोग नहीं जानते हैं। हमारे आगे की पीढ़ियां तय करेगीं कि हम लोग भी नहीं जानते हैं। विज्ञान यहॉं दर्शन के सामने बौना है। और यहीं विज्ञान दर्शन से अधिक बड़ा और लचीला भी है। एक दार्शनिक अवधारणा आपके सामने भविष्य के लिए कुछ भी नहीं छोड़ती। विज्ञान के सामने आपका समूचा भविष्य खुला रहता है - सांभावनाओं और प्रयोगों की एक विस्त्त स्ष्टि जहॉं पूर्वग्रह, मत-अभिमत, धर्म, आस्थाऐं और विश्वास सब प्रश्नों की खराद पर नव सृजन के लिए तत्पर हैं। तो हम क्वाण्टम अवधारणाओं के शुरुआती प्रश्नों की तरफ लौटे। नवीन नैथानी
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