Friday, April 11, 2008

क्या है मुख्यधारा, कैसा है उसका यथार्थ


अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)


प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।

Wednesday, April 9, 2008

दिनेश चंद्र जोशी की कविता

डांगरी

जब तक साफ सुथरी चमकती रहती है डांगरी
तब तक नहीं लगती असली खानदानी डांगरी,
असली लगती है तभी, जब हो जाती है मैली
चमकते हैं उस पर ग्रीस तेल कालिख के
दागआता है डांगरी के व्यक्तित्व में निखार,
जब मशीन की मरम्मत करता हुआ कारीगर
निकलता हे डांगरी पहना हुआ,
छैल-छबीला, गबरू जवान या चश्मा पहना हुआ
हुआ कोई अनुभवी मिस्त्री ही सही, अचानक प्रकट होता हुआ
मशीन या ट्रक के गर्भ से बाहर
मैली कुचैली धब्बेदार डांगरी पहने हुए
सने हों हाथ ग्रीस या कालिख से और आंखों में
चमक हो, साथ में बत्तीसी निकली हो श्रम के संतोष से, तो
समझ लो सार्थक हो गया डांगरी का व्यक्तित्व।

साफ सुथरी बिना दाग धब्बे की डांगरी
पहनते हैं कई उच्च अधिकारी, प्रबंधक, महाप्रबंधक जब दौरा होता है
कारखाने में किसी विशिष्ट अतिथि मंत्री या प्रधानमंत्री का।
ख्याल आता है, इन सब भद्रजनों को अगर पहना दी जाय
कालिख सनी डांगरी और कर दिया जाय किसी बूढ़े मैकेनिक की
कक्षा में भर्ती, तो कैसा होगा परिदृश्य।
वैसे पहनते रहनी चाहिए डांगरी हर इंसान को जीवन में
एक नहीं कई बार, छूट नहीं मिलनी चाहिए इसकी कवियों,
लेखकों, कलाकारों, मशीहाओं और पंडे पुजारियों बाबाओं को भी।

(दिनेश चंद्र जोशी की इस कविता का पाठ 'संवेदना" की मासिक गोष्ठी में हुआ था। संवेदना, देहरादून के रचनाकारोंे एवं पाठकों का अनौपचारिक मंच है। महीने के पहले रविवार को संवेदना की मासिक गोष्ठियां पिछले 20 वर्षों से अनवरत जारी हैं। 6 अप्रैल 2008 की गोष्ठी में, इस कविता का प्रथम पाठ हुआ। गोष्ठी में पढ़ी गयी अन्य रचनाओं में मदन शर्मा का एक आलेख भी था, जिसमें उन्होंने अपनी पसन्दिदा सौ पुस्ताकों का जिक्र किया। राम भरत पासी ने भी अपनी नयी कविताओं का पाठ किया। सुभाष पंत, डॉ। जितेन्द्र भारती, गुरुदीप खुराना, एस पी सेमवाल, प्रेम साहिल आदि गोष्ठी में उपस्थित थे। )

गुरुदीप खुराना का उपन्यास: उजाले अपने-अपने


मौजूदा समय की पड़ताल करते हुए पूरन चन्द्र जोशी कहते हैं- ''मैंने अपने समय को और उसकी सीमाओं में जिए अपने जीवन को आस्था, अवधारणा और अनुभव के अन्तर्सम्बंध और अन्तर्द्वन्द्व के रूप में महसूस किया है और समझा है, मेरे समय को वैज्ञानिक युग की संज्ञा दी गयी है जिसने हमारे बहिर्जगत में दूरगामी और गम्भीर महत्व के परिवर्तन तो किए हैं, लेकिन हमारे अन्तर्जगत को भी गहराई और विस्तार में उद्वेलित किया और परिवर्तित किया है।"" परिवर्तन की इस दिशा को जानने समझने के लिए गुरुदीप खुराना के रचना संसार की ओर झांके तो सदी के आखरी दशक में शुरू हुए भूमण्डलीकरण की धमक को उनके उपन्यास 'उजाले अपने-अपने" में सुना जा सकता है। इससे पहले प्रकाशित उनके उपन्यास 'बागडोर" ने भी ऐसे ही समय को एक दूसरे कोण से सामने रखा था जिसमें उस नौकरशाही के भ्रष्टतंत्र को निशाना बनाया गया था जो पिछले पचास वर्षों में अपनी जकड़न को मजबूत करती हुई बढ़ी है और आर्थिक नीतियों की दूसरी खेप के रूप में शुरू हुई विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जिसने तार्किकता प्रदान की। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ ही 'उजाले अपने-अपने' की कथा में सुनायी देता है।
इलैक्ट्रानिक्स डिवाईसों से 'ईश्वरीय" तरंगों का प्रक्षेपण और स्टॉक एक्सचेंज रूपी 'ईश्वर" की साक्षात उपस्थिति ने ऐसा दृश्यलोक गढ़ा है जिसने संचार माध्यमों की सामाजिक भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है।
बेशक उपन्यास ऐसे कोनो की ओर ईशारा नहीं करता लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो समय है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के अवचेतन में समय का यह दबाव ही रचना की शक्ल में उभरा है। समय का यह दबाव ही है जो लेखक को प्रेरित और रचनात्मक रूप से क्रियाशील करता है। 'उजाले अपने-अपने" का कथानक घटना के प्रवाह को उस निश्चित समय के भीतर रखने का प्रयास है जिसमें अध्यात्म और योग साधना के दम पर न सिर्फ बाजार पर कब्जा करने की होड़ जारी है बल्कि धर्म का 'वैज्ञानिक" (?) विश्लेषण करते हुए और एक खास वर्ग (मध्य वर्ग) को वैचारिक रूप से इस लपेट में लेते दौर की कार्यवाही का सिलसिला चालू है।
पूरन चन्द्र जोशी को ही आधार बनाकर कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत को 'अध्यात्म प्रधान" और भौतिक जगत को नकारने वाला बताकर इस त्रासदी को और भी गहरा और स्थायी बनाया। अध्यात्म की इस चौधराहट ने जहां धार्मिक पोंगा-पण्डितों के सीने में गुब्बारे फुलाये हैं वहीं भूमण्डलीकरण के आक्रमणों के खिलाफ जन-मानस की लामबंदी में सेंध लगाने का काम भी किया है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया (विशेष तौर पर भारत में) के भीतर स्थानीय पूंजी ने विश्व पूंजी के आक्रमण से तात्कालिक बचाव के रूप में भी ऐसे ही कवच को धारण करना शुरु किया है। आये दिन पैदा हो रहे नये-नये चमत्कारिक बाबाओं का उदय स्थानीय पूंजीपति (देशी) की हताशा और निराशा से उपजी स्थितियों का ही परिणाम है।
भूमण्डलीकरण की प्रक्र्रिया ने जहां एक ओर व्यापक जन समुदाय पर प्रहार किया वहीं सीमित पूंजी की लघु औद्योगिक इकाईयों और देशी पूंजीपति को भी ध्वस्त करना शुरू किया है। जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
दृश्य तरंगों ने इलेक्ट्रानिक्स चकाचौध का ऐसा वातावरण बुना है कि सूचना, पुनरुत्थान और किसी भी तरह की चिन्ता से मुक्त एवं पूंजी की चौपड़ में उलझे समाज की कथायें ही चैनलों पर जगह पा रही है। अट्टहास लगाते राक्षस और अवतारों का दृश्यलोक ईश्वर और धर्म की नयी से नयी परिभाषा गढ़ रहा है। ईश्वर और धर्म की इस आधुनिक परिभाषा का पाठ और उसका निषेध ही 'उजाले अपने-अपने" का मूल कथ्य है जिसे उपन्यास की नायिका शीला अवस्थी के मार्फत भी जाना जा सकता है- ''मतलब यह कि जब हमें कुछ दिखायी नहीं देता तो एक अद्द लाठी की जरुरत महसूस होती है, रास्ता टटोलने को। जो जितना डरा हुआ था, घबराया हुआ है उसे उतनी ही ज्यादा जरुरत महसूस होती है इस सहारे की। हर किसी के ईश्वर की धारणा उसकी जरुरत के मुताबिक बनती।''
आधुनिकता की चकाचौंध में भारतीयता की गंध को खोजता 'उजाले अपने-अपन्ो" का कथानक और उसके पात्र कुतुहल पैदा करते हैं। लेकिन भारतीयता के प्रति उनका रूमानी आकर्षण भी यहां देखने को मिलता ही है। आधुनिकता के रंग में घुली मिली सभ्य-सुशील, पतिव्रता, धर्मिक विश्वासों में रमने वाली पारम्परिक भारतीय नारी की छवी ही शीला अवस्थी के व्यक्तित्व की विशेषता है जो काफी हद तक विवेक को भी भाती है।
बावजूद इसके कि भारतीयता की वह शक्ल जिसे शीला अवस्थी प्रस्तुत करना चाहती है और जिसके लिए लगातार प्रयत्नशील है, कथा नायक विवेक की उससे असहमति है। विवेक के व्यवहार में असहमतियों को जाहिर न कर पाने का ठंडापन जरुर अखरने वाला है लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शीला अवस्थी का व्यक्तित्व, उसका सौन्दर्य और विवेक के प्रति उसका प्यार भी विवेक को कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। हां असहमति को जाहिर न करने का मध्यवर्गीय व्यवहार यहां उसके व्यक्तित्व के कमजोर पक्ष को जरुर उजागर करता है।
आदिल के बेटे के नामकरण वाला प्रसंग हो चाहे स्वंय के विवाह के वक्त पहली बार शीला अवस्थी के साथ घर पहुंचने पर वर-वधु की देहरी पर आरती उतारने और तेल चुहाने की रस्म (बेशक चाहे सादगी से हुई हो) पर विवेक की उससे एक प्रकार की असहमति होते हुए भी वह उसको जाहिर करने कोई जरुरत नहीं समझता। यही वजह है कि जनतांत्रिक-सा दिखने वाला यह प्रेम संबंध जिसमें एक दूसरे की 'स्पेश" में अनाधिकार हस्तक्षेप से बचने का प्रण और उसको निर्वाह करने की ललक, असहमति पर ठंडेपन के कारण बरकरार नहीं रह पाती। शीला अवस्थी का फरमान ''घास पर चलना मना है।"" बावजूद दूसरे की स्पेश में 'एन्क्रोंच" नहीं तो और क्या है? अपनी असहमति को न रख पाने का द्वंद्व ही विवेक को एक प्रकार से आत्म केन्द्रित बनाये देता है, यदि कहीं उसके भीतर का उच्छवास फूटता भी है तो उसमें निराशा और हताशा की अनुगूंज ही सुनायी देती है।
धर्म रूपी 'इन्लाइटमेंट" को बिखेरती शीला अवस्थी की कार्यवाही के विश्लेषण में भी वह अपनी उस समझ तक को नहीं रख पाता जिसको कि वह स्वंय जान रहा होता है- ''आत्म विश्वास की कमी मेन्टल ब्लॉक्स बनाती है- अब चाहे वह गणपति हो या हनुमान या कोई और------" ऐसे ही एकालापों को बड़-बड़ाता विवेक सिंह इस तरह की बहस भी कभी अपनी प्रिया और जीवन संगनी शीला अवस्थी से नहीं कर पाता। ऐसे वक्त पर खिलंदड़ आदिल ही उसका हम सफर होता है- ''यार चलो इन तमाम फिरको और मतों से हटकर एक ऐसी जमात तैयार की जाए जिसमें सिर्फ इंसान हो।"" समाज की मुक्ति धर्म से इतर मनुष्यता की पहचान और उसकी स्थापना पर ही संभव है, जैसे विचार ही विवेक सिंह और आदिल की दोस्ती का कारण है। पर अपने इस विचार को मजबूती के साथ रख पाने में भी वे असमर्थ दिखायी देते हैं।
खास तौर से शीला के सामने तो विवेक एक कमजोर चरित्र ही लगता है जो अपनी सकारात्मकता के बावजूद प्रेरित नहीं कर पाता। शीला अवस्थी विवेक की इस स्थिति से वाकिफ है, तभी तो अपनी बातचीत में वह विवेक को एक सिद्ध पुरुष बनाये हुए है। झूठमूठ की महानता का एक ऐसा आभा मण्डल विवेक सिंह को घ्ोरे हुए है जिसकी धुंध में शीला अवस्थी के कमजोर पक्ष पर उसका कभी ध्यान जा ही नहीं सकता। तमाम आधुनिकता के बावजूद विवेक सिंह की इस चारित्रिक कमजोरी को उसके वर्गीय आधार और पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है।
एंथनी गिडेंस के मार्फत अभय कुमार दुबे ने 'वसुधा" के स्त्री विशेषंाक में पूंजीवादी समाज में प्रेम की तीन श्रैणियों की चर्चा की है। प्रेम की इन तीन श्रैणियों को रुमानी प्रेम, उत्कट प्रेम और इयता केंद्रित प्रेम के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उनके मतानुसार ये तीनों ही रूप आधुनिकता की देन हैं और पूंजीवादी विकास में तरह-तरह की भूमिकाऐं निभाते दिख सकते हैं।
रोमानी प्रेम आजादी की कामना से जुड़ा हुआ है। यहां पूंजी अपने प्रभुत्व के शुरुआती दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का नियामक होते हुए भी प्रेम को डराती है। यहां प्रेम ऐलान करके कहता है कि वह स्थापित संरचनाओं द्वारा आरोपित रिश्तों को मान्यता नहीं देता। ऐसे प्रेम में दोनों पार्टनर एक दूसरे को स्पेशल समझते हैं और यह स्पेशलिटी उसी समय स्थापित हो जाती है जब पहली बार नजरें चार होती हैं। दोनों एक दूसरे के सामने अपना हृदय खोलते चले जाते हैं। दोनों की इयताऍ मिलकर एक हो जाती है। रोमानी प्रेम की यह घटना अपने प्रारम्भ और परिणाम में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग ढंग से घटती है। प्रेम की इस संस्कृति में विशिष्ट किस्म का तीव्र और सार्वभौम रूप उत्कट प्रेम है। इस प्रेम में राज सिंहासन त्याग दिये जाते हैं, वर्ग, जाति की सीमाऐं तोड़ दी जाती है और एक दूसरे को पाने के लिए रेडिकल तरीके अख्तियार करने में भी कोई हिचक दिखायी नहीं देती। रोमानी प्रेम में व्यवस्था विरोध के तत्व होते हैं, पर उत्कट प्रेम व्यवस्था को अपने सामने पूरी तरह से झुका देना चाहता है। वह मरने-मारने पर उतारु रहता है। व्यवस्था इन दोनेां प्रेमों की अस्थिरकारी प्रवृति से चौंकती है।पूंजीवादी समाज लगातार एक तीसरी तरह के प्रेम की तलाश करता रहता है। जिसकी सिफारिश करने से उसे किसी जोखिम का सामना न करना पड़े। यह इयता आधारित प्रेम है। इसमें दोनों पक्ष आगा-पीछा सोच-समझ कर प्रेम में पड़ते हैं। पहली नजर में किसी का किसी को भा जाना प्रेम की शुरुआत कर सकता है, इससे मन में प्रेम का विचार पैदा हो सकता है, लेकिन बुद्धिसंगत कसौटियों पर कसने से यह आकर्षण मस्तिष्क द्वारा खारिज भी कर दिया जाता है। इस प्रेम में प्रेमीजन अपने परिवेश को कोई चुनौती नहीं देना चाहते। वे भविष्य, सामाजिक हैसियत, आर्थिक हैसियत और अपनी इयता की पूरी रक्षा का बंदोबस्त करके प्रेम के मैदान में उतरते हैं। यह प्रेम प्रेम-विवाह 'स्वनियोजित" विवाह में बदल जाता है. जिसमें दोनों पक्षों के परिजन भागीदारी करते हैं।
खास बात यह है कि इस प्रेम में दोनों पक्ष अपनी इयता एक दूसरे के समक्ष उतनी ही प्रकट करते हैं जितनी संबंधों को जारी रहने के लिए जरुरत होती है। दोनों किसी न किसी रूप में अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रखने का निर्णय ले सकते हैं। कुछ-कुछ इस तीसरे तरह के प्रेम के ही दर्शन 'उजाले अपने-अपने" में हो जाते हैं। कुछ-कुछ इसलिए, क्योकि यह प्रेम जिस भू-खण्ड में पनपा है वहां पूंजीवाद उस अवस्था तक पूरी तरह से तक पहुंचा ही नहीं है, जिसके आधार पर गिडेंस ने व्याख्या की है।
चूंकि यह दौर भूमण्डलीकरण का दौर है जिसने आर्थिक मोर्चे पर तो तीसरी दुनिया को तोड़ा ही है साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी घुसपैठ की है। यही वजह है कि इयता आधारित प्रेम की वे सारी शर्ते विवेक और शीला के प्रेम में लागू हो ही नहीं पाती। यानी शाश्वत प्रेम के आग्रह से मुक्त रहने वाला इयता प्रेम 'उजाले अपने-अपने" में शावत्ता के रुप को ही पकड़ने के लिए उत्सुक दिखायी देता है। यही वजह है कि 'मिलन और तलाक" की परिघटना वाला समाज हम यहां नहीं देख पाते बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधों में आरम्भिक दौर का उत्तेजक आकर्षण ठंडेपन के साथ ता उम्र कायम रहता है। साथ ही रुमानियत की जगह असहमतियों को जाहिर न कर पाने वाले ठंडेपन का वातावरण अपने-अपने स्पेश में सुरक्षित बने रहने देने का अहसास देने के लिए कुछ हल्की-फुल्की चुहलबाजी (ह्यूमर) के रूप में दिखायी देता है।
निश्चित तौर पर यह सच है कि वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक मजबूत प्ाक्ष राष्ट्रीयता का उभार हो सकता है। यहां एक बार फिर पूरन चन्द जोशी को ही आधार बना कर कहा जा सकता है- ''औपनिवेशिक युग में स्थानीयता की आशा और राष्ट्रीयता की धारा एक दूसरे की पूरक बन कर उभरी। आज वह एक दूसरे की विरोधी बन कर क्यों उभर रही है। साथ ही स्थानीयता का उभार क्यो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द दे रहा है। विकासमान प्रगतिशील शक्तियों को नहीं।"
इस जवाब को यदि गुरुदीप खुराना के उपन्यास से खोजना चाहे तो पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयता की पहचान के लिए दौड़ते उस वर्ग पर निगाह जाना स्वाभाविक है जिसका प्रतिनिधित्व उपन्यास के पात्र करते हैं। तो पाते है कि गणेश और दैविय बिम्बों में अटका यह वर्ग भारतीयता की उस सीमित परिभाषा से एक हद प्रभावित दिखायी देता है जो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द पहुंचाने वाली है, भारतीयता की वह परिभाषा जो श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता को ही सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखती है, से इस वर्ग का कोइ परिचय दिखायी नहीं देता। विवेक और शीला का व्यक्तित्व भी ऐसी ही पृष्ठभूमि में गढ़ा गया है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दो अलग धराओं का प्रतिनिधित्व करते यह दोनों पात्र कहीं न कहीं एक अन्तर्धारा के साथ हैं। जहां शीला भारतीय संस्कृति को सिर्फ हिन्दू संस्कृति तक सीमित करना चाहती है वही विवेक अपने प्रगतिशील विचार के लिए सचेत रूप से क्रियाशील होने की बजाय नितांत व्यक्तिगत बना रहता है. उसकी निष्क्रियता का आलम यह है कि घर में क्या-क्या तब्दीलियां हो रही हैं इससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं। वह अपने रंगों में ही मस्त रहना चाहता है। विवेक परिणति को अवस्थी सहाब के उस रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जहां अवस्थी सहाब स्वंय और उनकी शौर्य गाथाऐं महफिलों का किस्सा भर है। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय की संगति में रचे गये 'उजाले अपने-अपने" का यह एक पाठ है जबकि इसकी प्रासंगिकता की पड़ताल के लिए इसके अन्य पाठ भी संभव है।

पुस्तक: उजाले अपने अपने
लेखक: गुरुदीप खुराना
प्रकाशक: मेधा प्रकाशन, नई दिल्ली।

Monday, April 7, 2008

हिन्दी फैक्स मशीन

राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए जुटी अधिकारियों की मीटिंग में चिन्ता ज़ाहिर की गयी कि लगातार किये जा रहे प्रयत्नों के बाद भी अभी हिन्दी में पर्याप्त काम नहीं हो पा रहा है। हिन्दी को बढ़ावा दिया ही जाये। le
लेट अस सी, हाऊ वी केन डू दिस।
राजभाषा अधिकारी ने अपना भाषण समाप्त करते हुए कहा। अधिनस्थ कर्मचारियों का हड़कान करते हुए बोले, हिन्दी में काम करना उतना ही सरल है जितना अंग्रेजी में। तो भी क्या कारण कि ऐसा नहीं हो पा रहा है ? 'क' , 'ख' क्षेत्रों में जहां कि शत प्रतिशत कोरसपोंडेंस हिन्दी में होनी चाहिए वहां भी हमारी ज्यादातर कोरसपोंडेंस अंग्रेजी में ही चल रही हैं। अगले हफ्ते पार्लियामेंट कमेटी का इंस्पेशन है, कुछ करो भाई।
चालाक और होशियार युवा क्लर्क ने अधिकारी को गुस्से में जान, छायी हुई चुप्पी को तोड़ा -
"सर आजकल ज्यादातर कोरसपोंडेंस तो फैक्स से ही हो रही है, पोस्ट लेटर तो न के बराबर ही हैं।"
"तो फिर।" अधिकारी ने ध्यान से सुनने के बाद कहा।
"सर ऑफिस में हिन्दी फैक्स मशीन तो है ही नहीं, फिर कैसे करें ?" युवा क्लर्क बोला.
राजभाषा अधिकारी ने जब समस्या को सभा और सभापति के सामने रखा तो सब चिन्तित नज़र आये। अंत में निर्णय लेते हुए पर्चेस डिविजन के अधिकारी को आर्डर दिया गया आज और अभी टेन्डर करो, हिन्दी फैक्स मशीन के लिए।
क्लर्क अपने साथी कर्मचारियों के साथ मुस्कराता रहा।

आवासिय समस्या का हल है हमारे पास

आप यदि ये माने बैठे हैं कि एक ध्रुविय होती जा रही दुनिया के चलते दुनियाभर की पूंजीवादी लोकतांत्रिक सरकारें कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से परहेज़ करने लगी हैं और जनता की अधारभूत जरुरत । रोटी, कपड़ा और मकान को भी बाज़ार के हवाले छोड़ दे रही हैं तो शायद आप गलती पर हैं। आपकी जानकारी के लिए लीजिए प्रस्तुत है ये खबर झोपड़ियों में चांदनी रात का मजा लेंगे सैलानी