Sunday, June 15, 2008

अपने वतन का नाम बताओ


विजय गौड

(22 जून को लददाख के अंदरुनी इलाके जांसकर की यात्रा पर अपने चार अन्य मित्रों के साथ निकल रहा हूं। जून और जुलाई के मध्य पिछले कई वर्षों से हम मित्र ऐसी यात्राओं पर निकलते रहे हैं। ऐसी ही एक यात्रा का विवरण प्रस्तुत है। तीन चार कड़ियों में ही यह संस्मरण पूरा होगा। जांसकर की यात्रा पहले भी कर चुका हूं। दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के अनुभव से जो रचनायें लिख पाना संभव हुआ, उसे कहानी और कविता के रुप में भी ढालता रहा हूं। उस श्रृंखला की कुछ कहानियां इधर-उधर प्रकाशित भी हुई हैं। पहल 72 में प्रकाशित उसी श्रृंखला की एक कहानी "जांसकरी घोडे वाले" इस संस्मरण के उपरांत, यात्रा में निकलने से पूर्व, यहां पुन: प्रकाशित करने का मन है। अभी प्रस्तुत है हर्षिल से छितकुल तक की यात्रा की प्रथम कड़ी। )


30 जून 2002 को हम देहरादून से चले और 8 जुलाई 2002 की शाम हिमाचल की किन्नौर घाटी के एक छोटे से गांव छितकुल पहुंच गये। छितकुल में लकड़ी के बने हुए घर बेहद खूबसूरत लग रहे थे। लेह-लद्दाख और कश्मीर के घरों की मानिंद छितकुल के मकानों के ऊपर के हिस्से में कांच की खिड़कियां ही दिखायी देती हैं जिनके ऊपर छज्जे जैसा, जो बारिस के पानी को रोक सके, नहीं था। छत का रूप उत्तरकाशी और हिमाचल के बीच पड़ने वाले लमखागा दर्रे की तरह- शंकुवाकार। वैसा ही दो बांहों में फैलता हुआ। कोई चित्रकार जैसे अपने चित्र में दूर उड़ते पक्षी को स्केच करते हुए सिर्फ दो रेखाओं से पक्षी की आकृति दिखा देता है। ठीक वैसे ही पंख खोलकर उड़ता पक्षी- छितकुल की छतें। किसी-किसी मकान के पीलरों पर, किनारियों पर नाशी की गयी। उत्तरकाशी की ओर से आते हुए लमखागा दर्रे को पार कर लगभग दो दिन के रास्ते पर आईटीबीपी की चैक-पोस्ट पड़ती है- नागेस्ती, जहां से छितकुल दिखायी देने लगता है। थोड़ा आगे बढ़ो तो खेतो में निराई-गुड़ाई करती किन्नरियां भी दिखने लगती हैं। दूसरे पहाड़ी इलाकों की तरह यहां भी ज्यादातर काम स्त्री के ही जिम्मे हैं। पहाड़ की स्त्रियां दुनिया के वे सभी काम बड़ी ही सहजता से करती हैं जिन्हें मैदानी इलाकों में पुरुष निबटाते हैं। मसलन घास के बड़े-बड़े पूले सिरों पर उठाये उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना, जंगलों से लकड़ी लाना। तीखी ढलानों पर खड़े हुए पेड़ भी पहाड़ी स्त्री के भीतर वैसा खोफ पैदा नहीं कर सकते। शरीर को हल्का-सा उछाला और दनादन-दनादन ऊपर चढ़ती चली गयी। इस सबके बावजूद घर के चूल्हे चौके से लेकर बच्चों की देखभाल तक उन्हीं के जिम्मे। फाफर छितकुल की मुख्य फसल है। गेहूं उगाया जाता है पर धान नहीं। घरों के आस-पास हरी सब्जी, मूली और गोभी आदि भी गांव वाले बोते ही हैं। नागेस्ती चैक-पोस्ट से गांव की ओर बढ़ते हुए गांव के द्वार पर बौद्ध कला का नुमाना दिखायी देता है- द्वार पर लामाओं की रंगी आकृतियां उकेरी गयी हैं। द्वार को देखकर छितकुल वालों को बैद्धिष्ट माना जा सकता है। लेकिन गोव में पहुंचकर मालूम हुआ कि छितकुल वाले न तो पूरी तरह से बैद्धिष्ट हैं और न पूरी तरह से हिन्दू। गांव में गोम्पा है जिसमें वर्ष 2000 में चोरी हुई। चोर बुद्ध की कांस्य प्रतिमा चुरा ले गये, अन्तराष्ट्रीय बाजार में जिसकी अच्छी-खासी कीमत मिल सकती है। गोम्पा से उत्तर-पूर्व दिशा में लकड़ियों से बने देवी के मन्दिर को भौगोलिक रुप से गांव का केन्द्र कहा जा सकता है। लकड़ियों का यह मन्दिर इतिहास में छितकुल के राजा का महल था, ऐसा गांव के एक युवक ने बताया। मन्दिर कौन-सी देवी का है ? कोई स्पष्ट जवाब नहीं। सिर्फ देवी। देवी के मन्दिर में पुजारी है। गोम्पा की जिम्मेदारी लामा पर। हमारी यात्रा के दौरान कोई भी लामा वहां नियुक्त नहीं था। गांव का ही एक लड़का जो शास्त्रीय रुप से लामा नहीं था पर अस्थायी तौर पर लामा का काम देख रहा था। मन्दिर में सुबह-सुबह पुजारी पूजा करता है। पूजा के वक्त ढोल, दमाऊ और थाली को जोर-जोर से बजाया जाता है। गांव के कुछ लोग अपने को हिन्दू मानते हैं और कुछ बौद्ध। मन्दिर और गोम्पा सभी के तीर्थ है। मालूम हुआ कि छितकुल की ही तरह एक गोम्पा और एक मन्दिर किन्नौर के हर गांव में है। ऐसा छितकुल से करछम आते हुए बस में बैठे सहयात्री ने बताया, जो छितकुल का ही रहने वाला था और ऐसा दिखायी भी देता रहा। सहयात्री अपने को पहले हिन्दू बता रहा था फिर बौद्ध, जबकि गांव में ही मिला एक युवक अपने को पहले बौद्ध बता रहा था फिर हिन्दू। यानी हिन्दू और बौद्ध साथ-साथ। दोनों धर्मों को स्वीकारना दोनों की बातचीत में था। किन्नौर में एक ही जाति नाम है- नेगी। नेगी ही पूजारी, नेगी ही राजपूत और नेगी ही बाजी। इसे बौद्ध धर्म का ही प्रभाव माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था यहां मौजूद नहीं है। फिर भी कहीं भीतर छुपा बैठा हिन्दू धर्म है जो उन्हें आपस में बांटे हुए है। जिस गेस्ट हाऊस में रुके, वहां खाना पहुंचाने वाला तो अपने को गर्व से कुंवर नेगी कह रहा था। वह यह भी कह रहा था कि हमारे पूर्वज मूल रुप से माणा के हैं जो किन्नौर में विस्थापित हुए। ऐसी ही बात गांव के अन्य लोगों से भी सुनने को मिली पर इसका ऐतिहासिक प्रमाण किसी के पास भी नहीं था।


विलसन जहां रुका, हम वहां से चले। हमें कहीं भी नहीं रुकना था। सिर्फ चलते जाना था। तो फिर हर्षिल में ही क्यों रुकें ?मोनाल पक्षी के पंखों का व्यापार हमें नहीं करना। देवदार वृक्षों को काटकर हमें मुद्रा इक्टठी नहीं करनी है । कस्तूरी का आकर्षण- हम उसे देख भर लें, बस। उसे मारने की हमें कोई जरुरत नहीं। हमें, कस्तूरी, मोनाल दिख भर जायें तो धन्य हो जायें।

हमारा कोई उपनिवेश नहीं और न ही उपनिवेश बनाने की खवाइश। जबकि दुनिया को उपनिवेश बनाने वाले आज नये से नये कुचक्र रच रहे हैं। हमारी निगाहें भी जिन्हें देख पाने में असमर्थ हैं।

चूंकि हमें कहीं नहीं रुकना था, इसीलिए तो 30 जून 2002 की सुबह जब देहरादून से चले तो कहीं भी नहीं रुके। सीधे उत्तरकाशी में ही बस से उतरे थे। मौसम बारिस का होने की वजह से बादल छाये हुए थे। अगले दिन पोर्टर आदि की व्यवस्था हो जाने के बाद हर्षिल की ओर बढ़ लिये। किन्नौर का एक छोटा-सा गांव- छितकुल, जहां पहुंचना था हमें। लेकिन रुकना वहां भी नहीं। हर्षिल से ही शुरु होता है वो मार्ग जो पांवों के जोर पर लमखागा पास को पार करते हुए छितकुल पहुंचायेगा।
कहां तक जाना है आज ?
मोरा सोर।
आज का पड़ाव मोरा सोर।
हमें यूंही रुकना है और चलते जाना है। तभी पहुंचेगें छितकुल।
छितकुल तो हम बस से भी जा सकते थे। बस का रास्ता तो शिमला होकर है। बस में ही लदकर शिमला होकर लौटना है देहरादून। तो फिर हर्षिल से ही क्यों जा रहे, पैदल! वो भी ऐसे इलाके से जो निर्जन है। जीव तो दूर वनस्पिति भी नहीं। मौजूद है तो सिर्फ मौरेन, बर्फ, पत्थर और जली हुई चट्टाने ही। आखिर क्या चीज है जो हमें आकर्षित करती है और जिसके पीछे भागे चले जाते हैं ?
पहाड़ों पर घूमना इसलिए शुरु नहीं किया कि पहाड़ी जीवन का हिस्सा हो जांऊ। चमकीला, हरहराता मौसम, पहाड़ों की ऊंचाई, बर्फ, पहाड़ों के लोग, एक तरह के जोखिम से गुजरने की इच्छा कहीं न कहीं भीतर तैरने लगी। मुसिबतों के पहाड़ हमारी जिन्दगी का हिस्सा न हो जायें, तभी तो भागे थे पिता पहाड़ छोड़कर। उनका भागना सही था या गलत, इस बात पर कभी नहीं उलझा। इधर बचचपन छूटा तो पहाड़ी 'कज्जाकों " का जीवन आकर्षित करने लगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि अपने भीतर के जंगलों से बाहर निकलने का क्रम ही मेरी यात्रायें हैं। जिसकी स्मृतियां हर वक्त मथती रहती हैं और जीवन को गति देती हैं। पहाड़ों की यात्रायें मेरे लिए मुक्ति की कामना भी नहीं। यात्राओं के बहाने ही तो मैं अक्सर अपने अतीत में झांकने की कोशिश करता हूं। मां, पिता, चाचा, चाची और ढेरों पहाड़वासियों की उस जिन्दगी में झांकना चाहता हूं जो उन्हें पहाड़ छोड़ने को मजबूर करती रही है। मुझे लगता है इसे जानने के लिए दुनियाभर के पहाड़ों से पलायन करते लोगों की जिन्दगी में झांकना होगा। किसी भी देश का पहाड़ी जीवन तो उस देश के कुलीन जीवन से अलग है।

हर्षिल में ही रुका था विल्सन। नालापानी-खलंगा के युद्ध में अंग्रेज जीत गये। गोरखे हारे थे। राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मद्द की। तोहफा तो मिलना ही था। अंग्रेज व्यापारी थे। चालाक थे। टिहरी राजा के स्वतंत्र अस्तित्व को कैसे स्वीकार करते। श्रीनगर राजधानी वापिस नहीं दी जा सकती थी। पर वफादारी का तोहफा क्या हो ? लिहाजा अन-उपजाऊ ढंगारों वाला हिस्सा, जो अलकनन्दा के दांये तट पर पड़ता है, सुदर्शन शाह को दे दिया गया। राजधानी श्रीनगर नहीं रही। नई राजधानी कहां हो ? और भागीरथी-भिलंगना का तट टिहरी रियासत की राजधानी बना। पूर्व दिशा में सीमा मंदाकनी नहीं रही। मंदाकनी के दांयें तट का उपजाऊ भाग भी अंग्रेजों ने अपने पास ही रखा। रवांई अभी राजा को नहीं सोंपा गया था। बाद में प्रशासनिक दितों की वजह से राजा को सोंपना पड़ा। यूं, राज तो राजा का ही रहा पर ब्रिटिश हस्तक्षेप भी जारी रहा। उसी दौरान अपनी बीमारी को ठीक करने विलसन टिहरी पहुंचा और हर्षिल के नजदीक मुखवा-धराली में ही रुक गया। मालूम नहीं शारीरिक बीमारी ठीक हुई या नहीं पर आर्थिक बीमारी को तो वह ठीक करने ही लगा। कस्तूरी मृगों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा और उनकी कस्तूरी निकाल ली। हांका लगाने के लिए स्थानिय लागों का इस्तेमाल किया। लट्ठों को नदीयों के बहाव के साथ मैदानों तक पहुंचाने वाला वह पहला व्यक्ति कहा जा सकता है। पेड़ों के लट्ठे नदी के बहाव के साथ हरिद्वार पहुंचने लगे। मुखवा-धराली के पास जब उसकी समानान्तर सत्ता चलने लगी तो "हुल सिंह साहब" या 'हुल सिंह राजा" के नाम से जाना जाने लगा। मुखवा के एक बाजी की लड़की से विवाह किया। हम जहां से निकल रहे हैं उसके दांयें हाथ पर विलसन कॉटेज। जो अब उजाड़ हो चुका है। सुनते हैं पिछले कुछ वर्ष पूर्व उसमें आग लग गयी थी। इसीलिए अभी वो रुप नहीं।

--जारी

Thursday, June 12, 2008

नदी को बहता पानी दो

(आज ज्यादा कुशलता से जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करती व्यवस्था का चक्र बड़ी तेजी के साथ घूम रहा है। प्रतिरोध की कार्यवाहियों में जुटी जनता के संघर्षों का दौर भी हमारे सामने है। एक समय पर चिपको आंदोलन की पृष्ठभूमि में जंगलो को बचाने की लड़ाई लड़ने वाला उत्तराखण्ड का जनमानस आज नदी बचाओ आंदोलन की आवाज को बुलन्द कर रहा है। अशोक कबाड़िये ने जिस अतुल शर्मा को अपने कबाड़ में से ढूंढ निकाला था वही अतुल शर्मा नदियों के बचाव के इस आंदोलन में अपने गीतों के साथ है। अतुल शर्मा के मार्फत ही नदी बचाओ आंदोलन की उस छोटी सी, लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश को हम जान सकते है। अतुल मूलत: कवि है। जो कुछ यहां है, वह कविता नहीं है पर कविता की सी संवेदनाओं से भरे इस आलेख को रिपोर्ट भी तो नहीं कहा जा सकता।



अतुल शर्मा 09719077032


अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्ट्ठा हों


नदियों पर बांध बनेगें ---! छोटे-छोटे बांध। उससे बिजली उत्पादन होगा। बिजली सबके लिए जरुरी है। तो फिर क्यों हुआ इन बांधों को लेकर विरोध ? विरोध भी ऐसा कि गांव का गांव इक्टठा हो गया। पुरुषों से ज्यादा महिलायें थी मार्चों पर। गांव को बचाने के लिए उनके सब्र का बांध टूट गया और वे सभी सड़कों, पगडंडियों और घरों से बाहर आ गये। खुले आकश के नीचे। क्या उन्हें बिजली नहीं चाहिए ? यह सवाल पिछले आठ साल से मेरे साथ रहा। पर उसके उत्तर भी मुझे मिलते रहे। विरोध करने वालों से ।

एक लघु जल विद्युत परियोजना में पूरी नदी को सुरंग में डाला जाता है और मिलों दूर से आने वाली नदी सूख जाती है। बिजली बनाने के लिए जितना प्रवाह चाहिए, उससे ज्यादा लिया जाता है। अब नदी के आस-पास के गांव सूख जाते हैं। सुरंग बनाने के लिए होने वाले धमाकों से स्रोत भी सूखने लगे। नदी के आस-पास के दस गांव जल संकट और खेतों और मकानों पर पड़ी दरारों के साथ जैसे-तैसे जीते रहे।

दरारों वाला जीवन जीते हुए उन्होंने बहुत सहा भी और कहा भी। पर क्योंकि बिजली जरुरी थी इसलिए नदी को सुरंग में डालना जरुरी था। गांवों को विस्थापन का जहर पीना था। विस्थापन के लिए कोई ठोस नीति पर बात नहीं हो रही थी। टिहरी बांध जैसे बड़े बांधों में आज भी विस्थापन की समस्या, समाधान के लिए भटक रहे हैं लोग।

कुमाऊ से लेकर गढ़वाल तक कई बांधों का काम निजि कम्पनियों को सोंप दिया गया। मुनाफे के लिए और बिजली उत्पादन के लिए काम शुरु हुआ ही था कि अपनी बुनियादी समस्याओं को लेकर लोग सामने आ गये।

यह आठ साल पुरानी बात है। टिहरी के फलेण्डा गांव में बांध बनना था। गांव और प्रशासन आमने-सामने थे। लोग भाषणों से अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। प्रशासन चुपचाप सुन रहा था। फिलहाल। भाषणों का सिलसिला कितना चलता ? वहीं के लोगें के साथ नुड़ नाटक जत्था तैयार किया गया। दिल्ली से आये राजेन्द्र धस्माना (पूर्व समाचार सम्पादक दूर दर्शन दिल्ली) ने बताया कि जब नाटक एक सुदूर गांव में जन-मानस को उद्वेलित कर रहा था, तो मैंने पूछा, "तुम अतुल को जानते हो ? अतुल शर्मा।" उन्होंने बताया कि उन्होंने ही तो हमें यह नुक्कड़ नाटक तैयार कराया है। नाटक का नाम था, क्या नदी बिकी। उन्होने ने ही बताया था कि इस आंदोलन का पहला गीत अतुल ने ही लिखा, "अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्टठा हो ---। "

यह "सारे गांव इक्टठा हों" एक जिजीविषा से भरे आंदोलन का सार्थक नारा बन गया।

नदी बिकी भई नदी बिकी

अब "नदी बचाओ आंदोलन" के तहत व्यापक रणनीति बननी शुरु हुई। नदियों में "कोसी", अलखनन्दा, जमुना, भिलंगना, भागीरथी पर बनने वाले दर्जनों बांध सवालों के घेरे में खड़े कर दिये गये। यह गांव के लोगों की ही ताकत थी।

जो तकलीफ में होता है - अगर वही बोलेगा तो निश्चित उसका सार्थक और व्यवहारिक असर होगा।

अगर नदियों के आस पास संसकृतियां पलती थी तो आज नदियों के आस-पास सूखा पड़ा है। कुछ लोगों ने तो यह तक कहा कि ऐसा ही रहा तो गंगा दिखेगी नहीं।

जंगलों, वन्य जीवों और नदी के भीतरी संसार को तहस नहस करने वाली भागेवादी सभ्यता को व्यवहारिक स्वरूप् मिलेगा - ऐसा नदी के किनारे रहने वाले लोगों का कहना है। उन्हें छोटे बांध से आपत्ति नहीं है। पर उनकी कार्यशैली और उनकी भागीदारी पर सवाल जरुर है।

नदी को बेचकर, जंगलों, पहाड़ों और श्रम और श्रमिक को खरीदकर पूरे वर्तमान को परेशानियों में डालना कुछ लोगों के लिए ठीक होगा, पर भविष्य के लिए यह खतरे की घन्टी है।

कहते हैं अगला विश्व युद्ध पानी की समस्या को लेकर हो सकता है ---। ऐसा न हो, ऐसा चाहते हैं लोग। बहुत से लोग। बोलने वाले लोग। आवाज उठाने वाले लोग।

पर इस सबके लिए "बीच तूफानों" में जाना होगा। "नदी बचाओ आंदोलन" में गांव की ही प्रमुख भूमिका है। वे अपनी जीवन रेखा, "नदियों" , को बचाना चाहते हैं। स्वंय को बचाना चाहते हैं और भविष्य को भी बचाना चाहते हैं। इनके साथ राधा भटट, सुरेश, राजेन्द्र सिंह, रवि चोपड़ा, शमशेर सिंह, गिर्दा, नरेन्द्र नेगी, शेखर पाठक, अनुपम मिश्र भी मजबूती के साथ खड़े हैं।

गांव और नदी के साथ मेरे आठ साल के संस्मरण हैं। जिन्हें नदी दर नदी और गांव दर गांव पहुंचकर लिखा है और वहीं सौंप दिया है। यह उसका परिचय भर है।

---आज गांव के लोगों के लोक जलनीति को मसैदा तैयार किया और शासन प्रशासन को सौंपना चाहा। उन्हें सबको गिरफ्तार किया गया।

"यहां कोई जलनीति नहीं है ।।।।"

इसीलिए मेरा एक जनगीत लोगों के काम आता है -

नदी को बहता पानी दो
हर कबीर को वाणी दो
सिसकी वाली रोतों को
सूरज भरी कहानी दो।
अब शब्दों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों
आवाजों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों

गांवों के घरों की छोटी बड़ी दीवारों पर आंदोलनी परम्पराओं से लिखा यह गीत सिपाही की तरह काम कर रहा है।

इस जत्थे को लेकर, हम खटीमा, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी, बागेश्वर होते हुए श्रीनगर, नई टिहरी, देहरादून, फलेण्डा, बूढ़ा केदार, घनसाली, झाम, चिन्याली सौड़, रुड़की, धरासू, उत्तरकाशी, बड़कोट, नौगांव, मोरी, पुरोला और फिर प्रभावित गांवों में गये। इसकी पुस्तकें-पोस्टर बटे। अब यह जत्था अपने नये तेवर के साथ स्वंय आवाज उठा रहा - नदियों के मार्फत जीवन के समर्थन में ---।

Tuesday, June 10, 2008

बुलाकी का उस्तरा और राजधानी

व्यंग्य कथा

दिनेश चन्द्र जोशी 09411382560


बुलाकी को आप नहीं जानते होंगे,जानेंगे भी कैसे, कभी फुटपाथ में सिर घोटाया होता तो जानते भी। बहरहाल बुलाकी को जनवाने के लिये मैं आपका सिर नहीं घुटवाउंगा, आप निश्चिन्त रहें,हां,इस कथा को पढ़ने की जहमत अवश्य करें।

बालों की फ़िसलन पर

बुलाकी के बाप दादा गांव के पुश्तैनी नाई थे। गांव के जमीदारों,सेठ साहुकारों की हजामत बनाया करते थे.लोग कहते हैं उनके उस्तरे में ऐसी सिफत थी कि पता ही नहीं चलता था कब उस्तरा चला और बिना खूं खरोच के अपना काम कर गया। रही बात कैंची की, सुना है ऐसी चलती थी कि पचास फीसदी बाल कम हो जाने के बाद भी पता नहीं चलता था कि बाल कम हुए हैं. यानी कि बाल कट भी जायें और कटिंग हुई कि नहीं इस बात का पता भी न चले।

पहली छब्बीस जनवरी यानी आजाद नाऊ

इस फने हजामत के एवज में उन्हें इनाम इकराम भी खूब मिला करता था. सो, कहा जाता है कि बुलाकी के दादा के जमाने में घर की माली हालत अच्छी थी। बुलाकी के बारे में एक बड़ा दिलचस्प वाकया यह था कि सन पचास में जिस दिन पहली छब्बीस जनवरी मनाई गई,उसी दिन बुलाकी का जन्म हुआ। आजादी की लहर का जोर था और दूर दराज के कस्बों गांवों तक छब्बीस जनवरी मनाये जाने की खबर थी,सो इस कारण बुलाकी की जन्म तिथि लोगों की जुबान पर रट गई यहां तक कि शुरू शुरू में बुलाकी को गांव में कुछ लोग "आजाद नाऊ" के नाम से भी पुकारते थे। आजादी के बाद बुलाकी के बाप दादा का धन्धा हल्का पड़ गया,जमीदारों सेठ साहुकारों का रौबदाब घट गया,उनकी मूछों का बांकपन कम हुआ और हजामत के काम में भी वो बात नहीं रही जो पहले थी,सो बुलाकी के बाप को गर्दिश के दिन देखने पड़े।
थोड़ी बहुत खेती पाती और थोड़ा हजामत का काम चला कर बुलाकी के बाप ने किसी तरह बुलाकी व उसके भाई बहिनों को जवानी तक ला खड़ा किया। हजामत के फन में बुलाकी ने भी पुश्तैनी महारत अवश्य हासिल कर ली थी, लेकिन गांव में हजामत बनाने वालों, बाल कटवाने वालों और सिर घुटाने वालों को कस्बे और शहर की सैलून का फैशन भाने लगा था, दो चार बुजुर्गों व सयानों की खोपड़ी व हजामत के भरोसे बुलाकी का उस्तरा कब तक अपना काम चलाता,ऐसे नामुराद वक्त में एक रोज बुलाकी ने अपनी हजामत वाली बक्सिया उठाई और गांव के पास वाले नजदीकी कस्बे की ओर रूख कर लिया। कस्बे के चौराहे पर बरगद के पेड़ तले मौका देख कर उसने अपनी चटाई तथा हजामत वाली बक्सिया जमा दी।
कस्बे में बुलाकी का धन्धा ठीक ठाक चल पड़ा,कस्बे की आवादी गांव से कई गुना ज्यादा थी। आस पास के गावों से कई लोग कस्बे में सौदा सुलुफ,डाक्टर,हकीम तहसील,स्कूल, नून तेल राशन के चक्कर में आते थे। लगे हाथों कटिंग,मुंडन व हजामत भी बना लेते थे। बुलाकी एक तो सस्ता था ऊपर से मौके की जगह पर बैठा करता था,सो उसके उस्तरे की धार चमकने लगी। बाल तो वो काटता ही था लेकिन जो मजा उसे सिर घोटने में आता था,वो बात हजामत आदि में नहीं थी, सिर घोटने का तो वह एक्सपर्ट ही था। घोटते वक्त जब वह मस्ती में आ जाता था तो घुटे हुए सिर के इंच इंच हिस्से को उंगलियों से चटखाता मालिस करता हुआ चहक उठता था, ग्राहकों से कहता, "भय्या हम आदमी को चेहरा देख कर नहीं खोपड़ी देख कर पहचानते हैं, और अगर घुटी हुई खोपड़ी हो तो कहने ही क्या। एक बार जिस खोपड़ी को हमारा उस्तरा देख लेता है उसे ताजिन्दगी नहीं भूलता। चेहरा पहचानने में हमसे गल्ती हो सकती है,लेकिन खोपड़ी पहचानने में कतई नहीं होगी। आखिर भय्या,खोपड़ी ही तो हमारी रोजी रोटी है, रोजी रोटी को नहीं पहिचानेंगें तो जिन्दा कैसे रहेंगे।"

चेहरे से नही खोपडी से होती है आदमी की पह्चान

कस्बे में बुलाकी की दिनचर्या बड़ी मजेदार चल रही थी,लेकिन एक रोज ऐसा वाकया हुआ कि कस्बे से उसका मन उचट गया। हुआ यूं कि उस दिन सुबह सुबह बौनी के वक्त एक गोल मटोल भारी आवाज व सख्त गलमुच्छों वाली खोपड़ी बुलाकी के समक्ष घुटने के वास्ते प्रस्तुत हुई, खोपड़ी रौबीले अन्दाज में बोली, "ऐ नाऊ जी, फटाफट हजामत बनाओ,और सिर घोटो, जल्दी करो यह काम, टैम नहीं है।"
बुलाकी का उस्तरा यूं भी तैयार ही बैठा था,उसने चेहरे पर ज्यादा गौर न कर फटाफट हजामत बना दी, उसके पश्चात सिर घोटने लगा। यह सिर सामान्य सिरों से कुछ ज्यादा ही बड़ा व गोल मटोल था। इसे घोटने में बुलाकी को बड़ा मजा आया।
काम हो चुकने के बाद भारी भरकम आवाज वाली वह खोपड़ी सिर पर चादर लपेट कर,बुलाकी के हाथ में पांच का नोट पकड़ा कर चलती बनी, बकाया पैसे लौटाने के लिए उसने आवाज मारी,पर खोपड़ी इतनी त्वरित गति से चली गई कि बुलाकी को वे पैसे रखने ही पड़े। बुलाकी को वह व्यक्ति कुछ रहस्यमय कुछ संदिग्ध कुछ भयानक तो अवश्य लगा लेकिन अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो जाने के कारण उसके दिमाग से यह बात जाती रही।
उसी दिन दोपहर तीन बजे के लगभग दो पुलिस वाले बुलाकी के पास अकड़ते हुए आये और एक मुच्छैल भयानक किस्म के आदमी का फोटो दिखाते हुए बोले, "देखो, ये आदमी तुम्हारे पास हजामत बनाने तो नहीं आया था।"
बुलाकी ने फाटो को गौर से देखा, चेहरा गलमुच्छों से इतना भरा हुआ था कि स्पष्ट रूप से नजर ही नहीं आ रहा था, हां, सिर का आकार लगभग वैसा ही था।
बुलाकी बोला, "हुजूर, चेहरे पर तो हम ध्यान नहीं दिये,लेकिन एक मूछों वाला आदमी सुबह सुबह बौहनी के वक्त आया था, वह हजामत बनवा ले गया साथ ही सिर भी घुटवा ले गया,हमारे हाथ में पांच का नोट रख कर चला गया। उसके घुटे हुए सिर की तस्वीर हो तो हम पा बता सकते हें कि वही आदमी था।"
पुलिस वाले बुलाकी पर बिगड़ गये,बोले,"तुम साले कैसे नाई हो, आदमी का चेहरा न पहचान कर खोपड़ी पहचानते हो, आईन्दा से चेहरा पहचाना करो, और स्साले गुंडे बदमाशों से घूस लेते हो." उन्होंने बुलाकी को डराया धमकाया साथ ही उसको दो डंडे जमाते हुए बोले,जानते हो वो आदमी जिले का एक नम्बरी गुंडा है,दसियों हत्याओं का इल्जाम है उसके उपर जिसकी तुमने हजामत बनाई है।"
बुलाकी बोला,"सरकार आईन्दा ऐसी गल्ती नहीं करूंगा और चेहरा देख कर उस्तरा चलाउंगा।"


समय सिखा देता है जीवन के रंग ढंग

इस घटना से बुलाकी बेहद परेशान व चिन्तित हो उठा, कस्बे से उसका जी उचट गया। उसके दिल में कस्बे से पलायन की हूक उठने लगी। इस बावत उसने जुगाड़ भी लगाना शुरू कर दिया। नतीजा यह निकला कि उक्त घटना को घटे दो माह भी नहीं बीते होंगे कि बुलाकी जी, कस्बे से कूच कर अपने जिला मुख्यालय की कचहरी के बाहर एक चबूतरे के कोने में अपनी चटाई और बक्सिया सहित जम गये।
जिला मुख्यालय का तो नजारा ही कुछ और था, फिर कचहरी के तो कहने ही क्या।
मुवक्किल, मुहर्रिर वकीलों, पेशकारों के अलावा शहर, गांव, देहात के लागों का रेला हर समय लगा रहता था। पान,सिगरेट,फल चाय,समोसा खस्ता पूड़ी वालों की दिन भर चांदी रहती थी।
चबूतरे के पास ही पीपल के नीचे तीन चार नाई और बैठते थे, उनके पास बकायदा कुर्सी,शीशा,तौलिया व हजामत वाली क्रीम आदि भी थी। उनकी आमदनी भी ठीक थी। बुलाकी ने फिलहाल अपनी चटाई व बक्सिया से ही काम चलाना शुरू किया। उसके हुनर व कारीगरी से प्रसन्न हो कर ग्राहकों की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी. सो जिला मुख्यालय में बुलाकी का काम बढिया चल निकला। समय का पहिया चलता रहा और कब जिला मुख्यालय में बुलाकी को चार पांच वर्ष बीत गये,पता ही नहीं चला।
इस बीच बुलाकी ने वकीलों ,बाबुओं, अफसरों के घर जाकर छुट्टी के रोज उनके बाल काटने का कार्य प्रारम्भ कर के 'डोर टू डोर' सेवा प्रारम्भ कर दी। यहां तक कि उसने दो एक जजों को भी अपने हुनर से प्रसन्न करके उनको नियमित ग्राहक बना लिया था। इस दौरान वह शहरी शिष्टाचार,सीप शउर,चुश्ती नर्ती, बोली बानी व चुतराई से भी वाकिफ हो गया था। उसका भोला देहातीपन कम होता गया और एक शहरी तेज तर्रार किस्म के आदमी के व्यवहार की नकल उसको भाने लगी। अपने उस्तरे के फन की बदौलत उसने कुछ रकम भी जोड़ ली थी सो अपने स्टैन्डर्ड में कुछ इजाफा किया और चटाई बक्सिया के बदले कुर्सी,शीशा व तौलिया वाला स्टेटस हासिल कर लिया।

मेरा मुंडन कोई न कर पायेगा

बुलाकी के राजधानी में बैठने की व्यवस्था क्या हुई कि उसने अपने मृद व्यवहार और मेहनत से आस पास के दुकानदारों,ठेले रेहड़ी पान वालों से दोस्ती गांठ ली, धन्धा भी धीरे धीरे चलने लगा,ग्राहकों की संख्या में आहिस्ता आहिस्ता बृद्धि होने लगी। बुलाकी का परिचय क्षेत्र बढ़ने लगा, राजधानी उसे रास आई। महीने दो महीने में सामूहिक घुटन्ना करवाने वालों की भीड़ चली आती थी। बुलाकी के उस्तरे को अपने करतब का भरपूर प्रदर्द्रान करने का मौका मिलने लगा। उसके अतिरिक्त कैंची का कमाल और हजामत का हूनर भी फलदायी साबित हो रहा था, लिहाजा राजधानी में बुलाकी प्रसन्न था,आमदनी भी बढ़ती जा रही थी। बुलाकी ने 'डोर टू डोर' सर्विस यहां भी जारी रक्खी। छुट्टी के दिन वह आसपास के रिहायशी इलाकों में जाकर सेवा प्रदान कर आता था, इसी सिलसिले में उसने विधायक निवास व मंत्री आवासों तक अपनी पंहुच बना ली थी। वहां पर विधायकों, नेताओं, छुटभय्यों, चमचों व क्षेत्र से आये हुए कार्यकर्ताओं समाजसेवकों, सेविकाओं, खक्ष्रधारियों, गुंडे बदमाशों, मुच्छैल हट्टे कट्टे विशालकाय महापुरूषों की भीड़ भाड़ व आवाजाही लगी रहती थी। वे लोग, दाड़ी हजामत बाल बनवाने हेतु बुलाकी की सेवायें प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजधानी में बुलाकी पूरी तौर पर फिट हो चुके थे । राजनैतिक क्षेत्र में भी उनके उस्तरे ने दबदबा बना लिया था। कारोबार भी उसने बढ़ा लिया था, लकड़ी की पक्की दुकान बना कर उसमें शीशा,कुर्सी,कलेन्डर क्रीम,तौलिये का इंतजाम करके दुकान को 'सैलून' का दर्जा दिलवाने योग्य अर्हतायें प्राप्त कर ली थी। एक दो लड़के भी सहयोगी के तौर पर रख लिये थे। कुल मिला कर बुलाकी जी राजधानी के सुपरिचित नागरिक बन गये थे,सिर्फ गांव से बच्चों को लाने की देर थी। जमीन के एक टुकड़े पर छोटी सी कुटिया बनाने की योजना भी उनके दिमाग में आकार लेने लगी थी। इस सारी उन्नति व जमजमाव के चलते बुलाकी को राजधानी में आये हुए आठ दस वर्ष हो गये थे। गांव से कस्बे को कूच करते युवा बुलाकी अब अधेड़ावस्था में पदार्पण कर चुके थे। बालों में सफेदी आ गई थी, चेहरा प्रौढ़ हो गया था, आंखों से उम्र व अनुभव की झलक नजर आने लगी थी। उस्तरा निरन्तर कार्यरत था, आये रोज उस्तरे को राजधानी के अनेकों महापुरूषों के मुंडन करने का सौभाग्य प्राप्त होता जा रहा था।
इसी क्रम में एक रोज बुलाकी के पास कालीदास रोड स्थित मंत्री आवासों में तत्काल पंहुचने का आदेश प्राप्त हुआ। हुआ यह था कि माननीय न्याय मंत्री जी की माता जी का स्वर्गवास हो गया था सो मुंडन हेतु नाई की आवश्यकता थी। बुलाकी से ज्यादा इस काम में सक्षम और कौन हो सकता था। बुलाकी ने तुरन्त इस नेक काम में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। माननीय मंत्री जी के मुंडन से पूर्व अनेकों छूटभय्ये, चेले चमचे सहयोगी, शुभचिन्तक मुंडन हेतु प्रस्तुत हो गये। मंत्री जी उनकी वफादारी से प्रसन्न हुए,उनका ह्दय पसीज गया।
सेवकों के मुंडन के पश्चात अन्त में मंत्री जी मुंडन हेतु प्रस्तुत हुए। बुलाकी ने उनकी सेवा में अतिरिक्त सावधानी व सफाई से उस्तरा चलाना प्रारम्भ किया। नाम व गुण के अनुरूप मंत्री जी का सिर अन्य सिरों की अपेक्षा ज्यादा बड़ा व गोलाकार था, बुलाकी ने अभी एक तिहाई सिर घोटा ही था कि उसे यह सिर पूर्व परिचित लगा, आधा सिर घोटने के पश्चात तो वह अचानक चौंक कर कांप सा गया, यह तो वही सिर था जिसकी बदौलत कस्बे में पुलिस के डंडे खाये थे। लेकिन यह कैसे हो सकता है, कहां वह गुंडे बदमाद्रा का सिर और कंहा मंत्री जी का। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, मुझसे ही कोई गल्ती हो रही है,बुलाकी अजीब पेशोपेश में पड़ गया। पर सिर पहचानने में मुझसे गल्ती नहीं हो सकती चाहे कुछ भी हो जाय,यह सिर सौ फीसदी वही है। बुलाकी डरा,सहमा व आश्चर्यचकित था। किसी तरह इसी मनोदशा में उसने पूरा सिर घोटा,उसके समक्ष वही कस्बे वाला विशाल सिर सम्पूर्ण रूप से साकार हा उठा। डर व भय से बुलाकी का हाथ कांपा और मंत्री जी के कान के पास उस्तरे की हल्की खरोंच सी लगी,मंत्री जी थोड़ा क्रुद्ध से हुए उन्होंने पलट कर बुलाकी का चेहरा घूरा,इससे पूर्व कि बड़बड़ाते,झुंझलाते उनकी तीक्ष्ण सृमति ने बुलाकी को चीन्ह लिया,क्रोध के बदले चेहरे पर आत्मीयता के भाव उभरे,सेवक लोग इस बीच गुस्ताखी के लिए बुलाकी पर बरसने ही वाले थे कि मंत्री जी बोल पड़े,"अरे भाई,नाऊ जी से कोई गल्ती नहीं हुई है, हमही सिर हिला दिये थे,सो खरोच लग गई। इसके साथ ही उन्होंने एक सेवक को हिदायत दे डाली, तुरन्त एक दूसरा नाई बुला कर इनका भी मुंडन किया जाय,ये अपने गांव जवांर के आदमी हैं,ऐसे मौकों पर गांव बिरादरी के लोगों का मुंडन जरूरी होता है,माता जी की आत्मा कों शान्ति मिलेगी।'
बुलाकी बड़ी असमंजस की स्थिति में था,उसने सेवक जी से दूसरा नाई लाने हेतु मना कर दिया,और जिन्दगी में पहली बार अपने ही हाथों से अपना मुंडन करने लगा।


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Sunday, June 8, 2008

वो जो शख्स था कुछ जुदा-जुदा

जितेन ठाकुर 4, ओल्ड सर्वे रोड़,देहरादून-248001


वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों पर

उन्नीस सौ उन्हत्तर-सत्तर के दिन थे। हाईस्कूल के इम्तहान से फारिग होकर मैं कविताएँ लिखता और छपवाने के लिए शहर के छोटे-छोटे अखबारों के दफ्तरों के चर लगाता हुआ घूमता रहता था। उन दिनों शहर में कुल जमा चार-छ: अखबार थे। दो-दो, चार-चार पेज के छोटे-छोटे। यदि इनमें से किसी अखबार के खाली रह गए कोने में मेरी कविता छाप दी जाती तो मैं लम्बे समय तक तितलियों के पंखों पर बैठ कर फूलों पर तैरता। तब जमीन बहुत छोटी और आसमान बहुत करीब लगता था। कमीज की जेब में कविता डालकर साईकल पर उड़ते हुए धूप, बारिश और सर्दी की परवाह किए बिना जब मैं किसी अखबार के दफ्तर में पहुँचता था तो सामने बैठा सम्पादक अचानक बहुत कद्दावर हो जाता था। वो मेरी कविता के साथ लगभग वही व्यवहार करता था जो किसी रद्दी कागज के टुकड़े के साथ किया जा सकता है। मैं हताश हो जाता पर हिम्मत नहीं हारता था। दरअसल, उन दिनों दैनिक अखबार तो एक दो ही थे- बाकी सब साप्ताहिक अखबार थे। पर पता नहीं क्यों इन छोटे-छोटे अखबारों को हाथ में लेते ही भूरे-मटमैले कागजों पर छपी काली इबारतों का जादू मुझे जकड़ लेता था और मैं सम्मोहित सा उनमें समा जाता।
यही वो दिन थे जब मुझे किसी ने "वैनगॉर्ड" के बारे में बतलाया था। आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी का अखबार। सप्ताह में निकलने वाले इस अखबार के पहले दो पेज अंगे्रजी में और आखिरी दो पेज हिन्दी के हुआ करते थे। अलबत्ता पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बटोरे गए विज्ञापनों से इसकी मोटाई कुछ बढ़ जाती थी और ये हमारे लिए एक बेहद खुशी का अवसर होता। इससे जहाँ एक ओर रचना छपने की सम्भावना बढ़ती वहीं दूसरी ओर विशेषांक में छपने का गौरव भी हासिल होता था। इतने छोटे आकार, नगण्य सम्भावनाओं और सीमाओं के बावजूद भी यदि वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों के छपकर आने की प्रतीक्षा की जाती थी तो उसके पीछे महज एक शख्स की ताकत थी और वे थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ "कवि जी"। हैरानी तो ये कि यह प्रतीक्षा महज देहरादून में ही नहीं देहरादून से बाहर भी होती थी।

मशीनों की घड़घड़ाहट में

वो गर्मियों की चिलचिलाती धूप वाली एक सुनसान सी दोपहर थी जब मैं वैनगॉर्ड के दफ्तर में पहली बार पहुँचा था। पता नहीं उन दिनों सचमुच ये शहर कुछ ज्यादा बड़ा था या फिर किशोर मन के आलस्य के कारण करनपुर से कनाट प्लेस की दूरी, खासी लम्बी महसूस होती थी। जल्दी पहुँचने की कोशिश में मैने साईकिल तेज चलाई थी और अब हांफता हुआ मैं वैनगार्ड के दफ्तर के उस कोने में खड़ा था, जहाँ एक मेज के तीन तरफ कुर्सियाँ लगाकर बैठने का सिलसिला बनाया गया था। इसी के पीछे छापे खाने की चलती हुई मशीनों की घड़घड़ाहट थी, नम अंधेरे में फैली हुई कागज और स्याही की महक थी और काम कर रहे लोगों की टूट-टूट कर आती आवाजों का अबूझ शोर था।
"किससे मिलना है?" छापे खाने वाले बड़े दालाना नुमा कमरे से बाहर आते हुए एक आदमी ने मुझसे पूछा। सामने खड़ा सांवला सा आदमी पतला-दुबला और मझोले कद का था। सिर के ज्यादातर बाल उड़ चुके थे अलबत्ता मूँछों की जगह बालों की एक पतली सी लकीर खिंची हुई थी। पैंट से बाहर निकली हुई कमीज की जेब में एक पैन फंसा हुआ था और कलाई पर चमड़े के स्टैप से कसी हुई घड़ी।
""कवि जी से।'' मैंने झिझकते हुए कहा
"क्या काम है?" उन्होंने फिर पूछा
"कविता देनी है।"
"लाओ।" मैने झिझकते हुए कविता पकड़ा दी। समझ नहीं पाया कि ये आदमी कौन है। कविता पढ़ कर लौटाते हुए बोले
"कभी प्यार किया है।"
मैं शरमा गया। उन दिनों सोलह-सत्तरह साल का लड़का और कर भी क्या सकता था।
"पहले प्यार करो-फिर आना।" वो हंसे
तो यही थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कवि जी जो उस समय मेरी कल्पना में किसी भी तरह खरे नहीं उतरे थे। दरअसल वो एक ऐसा दौर था जब किसी कवि की बात करते ही दीमाग में पंत और निराला के अक्स उभर आते थे कुलीन और सम्भ्रांत। पैंट और कमीज में भी कोई बड़ा कवि हो सकता है- उस समय मेरे लिए ये सोचना भी कठिन था और फिर कवि जी तो बिल्कुल अलग, एक साधारण मनुष्य दिखाई दे रहे थे- कवि नहीं।
छापे खाने से अजीबो-गरीब कागजों पर खुद कर आए काले-गीले अक्षरों को काट-पीट कर प्रूफ रीडिंग करते हुए, सिग्रेट या बीड़ी का धुआँ उगलते हुए और मद्रास होटल की कड़क-काली चाय पीते हुए बीच-बीच में कवि जी कविता के बारे में जो कुछ भी समझाते थे- वो मेरे जैसे किच्चोर के लिए खुल जा सिम-सिम से कम नहीं था। मैं कविता लिख कर ले जाता तो कवि जी उसके भाव, बिम्ब और शब्दों पर मुझसे बात करते। गीत लिखकर ले जाता तो मात्रा और मीटर के बारे में समझाते। कवि जी ये सब बहुत मनोयोग से किया करते थे- बिल्कुल उसी तरह जैसे एक पीढ़ी, अपनी विरासत दूसरी पीढ़ी को बहुत चाव और हिफाजत के साथ सौंपती है। साहित्य के क्षेत्र में यही मेरी पहली पाठशाला थी।

देहरादून में साहित्य की पाठ्शाला

मैं ही नहीं धीरेन्द्र अस्थाना, नवीन नौटियाल, अवधेश, सूरज, देशबंधु और दिनेश थपलियाल जैसे कई दूसरे युवा लेखकों के लिए वैनगार्ड उस समय किसी तीर्थ की तरह था। सब अपनी रचनाएँ लाते और कवि जी को पढ़ाते। देहरादून के लगभग सभी लेखक-कवि कमोबेश "वैनगॉर्ड" में आया ही करते थे और वहाँ घंटों बैठा करते थे। अप्रतिम गीतकार वीर कुमार 'अधीर" और कहानी के क्षेत्र में मुझे अंगुली पकड़कर चलाने वाले आदरणीय सुभाद्गा पंत से भी मेरी पहली मुलाकात यहीं पर हुई थी। ये वैनगार्ड के मालिक जितेन्द्र नाथ जी की उदारता ही थी कि उन्होंने कभी भी इस आवाजाही और अड्डेबाजी पर रोक-टोक नहीं की। ये वो दिन थे जब कवि जी का किसी कविता की तारीफ कर देना- किसी के लिए भी कवि हो जाने का प्रमाण-पत्र हुआ करता था।
वे तरूणाई और उन्माद भरे दिन थे इसलिए हमें परदे के पीछे का सच दिखलाई नहीं देता था। पर आज सोचता हूँ तो कवि जी के जीवट का कायल हो जाता हूं। एक छोटे से छापे खाने में लगभग प्रूफ रीडर जैसी नौकरी करते हुए घर परिवार चलाना और दुनियादारी निभाना कोई सरल कार्य नहीं था। पर मैंने शायद ही कभी कवि जी को हताश देखा हो। वो जिससे भी मिलते जीवंतता के साथ मिलते। अपनी भारी आवाज को ऊँचा करके आगंतुक का स्वागत करते, बिठाते, चाय पिलाते और कभी-कभी तो मद्रास होटल का साम्बर-बढ़ा भी खिलाते थे अगर देखने को प्रूफ नहीं होते तो इतना बतियाते कि घड़ी कितना घड़िया चुकी है इसका होश न उन्हें रहता न सामने वाले को। हाँ! अलबत्ता शाम को वो कभी भी मुझे अपने साथ नहीं रखते थे। ये समय उनके पीने-पिलाने का होता था। अपने लम्बे साथ में मुझे ऐसा एक भी दिन याद नहीं आता जब उन्होंने मुझसे द्राराब की फरमाईश की है।
कवि जी के पास कलम का जो हुनर था वो उसी के सहारे अपने को इस दुनिया के भंवर से निकालने की कोशिश में लगे रहे। आर्थिक निश्चिंतता की कोशिश में ही उन्होंने पहले अपना एक अखबार निकाला था जब वो नहीं चला तो हरिद्वार में एक दूसरे अखबार में नौकरी कर ली। पर वहाँ से भी उन्हें वापिस आना पड़ा। सचमुच ये वैनगार्ड के स्वामी जितेन्द्र नाथ ही थे कि उन्होंने उज्जवल भविष्य की तलाश में जाते कवि जी को न तो जाने से रोका और न ही असफल होकर लौटने पर उन्हें दर-ब-दर होने दिया।

दूरदर्शन पर देहरादून का पहला कवि

उन दिनों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं कादम्बिनी, माया और मनोरमा के साथ ही पंजाब केसरी और ट्रिब्यून योजना आदि में भी कवि जी की रचनाएँ छपा करती थीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कवि जी ही दूरदर्शन दिल्ली पर काव्य पाठ करने वाले देहरादून के पहले कवि थे। कवि जी जिस दिन आकाशवाणी से भुगतान लेकर लौटते या फिर किसी पत्रिका से पैसे आते उनकी वो शाम एक शहंशाह की शाम होती। कुछ लोग अपने आप जुट जाते थे और कुछ को संदेश भेज कर बुलाया जाता। फिर कवि जी इस "उल्लू की पट्ठी" दुनियो को फैंक दिए गए सिग्रेट की तरह बार-बार पैरों से मसलते और तब तक मसलते रहते जब तक कि उन्हें इसके कस-बल निकलने का यकीन न हो जाता। वो न तो अपनी कमियों पर परदा डालते थे और न ही अपनी खुशियाँ छुपाते थे। पर अपनी परेशानियों का जिक्र कम ही किया करते थे। दुर्घटना में अपनी एक बेटी की मृत्यु के बाद तो जेसे वो टूट से गए थे और लम्बे समय तक सामान्य नहीं हो पाए थे। पर उन्होंने तब भी किसी की हमदर्दी पाने के लिए अपनी आवाज की खनक को डूबने नहीं दिया था अलबत्ता बेटी का जिक्र आते ही वो कई बार फफक कर रो पड़ते थे।
उन दिनों देहरादून में कवि गोष्ठियों का प्रचलन था। लगभग हर माह किसी न किसी के यहाँ एक बड़ी कवि गोष्ठी होती। स्व0 श्री राम शर्मा प्रेम, कवि जी, श्रीमन जी इन गोष्ठियों की शोभा हुआ करते थे। और भी बहुत से कवि थे जिनका मुझे इस समय स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि आदरणीय विपिन बिहारी सुमन और रतन सिंह जौनसारी के गीतों की धूम थी। जिस गोष्ठी में ये दोनों न होते वो गोष्ठी फीकी ही रह जाती। सुमन जी के वासंती गीतों की मोहक छटा और जौनसारी जी की प्रयोगधर्मिता- गोष्ठियों के प्राण थे। ये एक प्रकार से बेहतर लिखने की मूक प्रतिद्वंदिता का दौर था। रामावतार त्यागी और रमानाथ अवस्थी से अगली पीढ़ी के ऐसे बहुत से गीतकारों को मैं जानता हूँ जिन्होंने अपने एक-दो लोकप्रिय गीतों के सहारे पूरी आयु बिता दी- उनकी बाकी रचनाएँ कभी प्रभावित नहीं कर पाईं। पर बहुत आदर के साथ मैं स्व0 रमेश रंजक और रतन सिंह जौनसारी का नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने अपनी हर रचना में नया प्रयोग किया और सफल रहे।

गोष्ठियों का शहर

बहरहाल, ऐसी ही एक गोष्ठी में मैं पहली बार कवि जी के साथ ही गया था। कविता पढ़ने की उत्तेजना और गोष्ठी के रोमांच ने मुझे उद्वेलित किया हुआ था। किसी ने नया मकान बनाया था उसी के उपलक्ष्य में गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मकान में अभी बिजली भी नहीं लगी थी इसलिए मोमबत्तियों की रौशनी में गोष्ठी हुई थी। मैंने भी किसी गोष्ठी में पहली बार अपनी कोई रचना पढ़ी थी। निच्च्चय ही कविता ऐसी नहीं होगी कि उस पर दाद दी जा सके इसीलिए सारे कमरे में सन्नाटा छाया रहा था पर कवि जी "वाह वाह" कर रहे थे। मेरा मानना है कि कवि जी के इसी प्रोत्साहन ने मुझे लेखन से जोड़े रखा और आगे बढ़ाया।

साहित्य की दलित धारा

कवि जी ने कई बार लम्बी बीमारियां भोगीं। कुछ अपने शौक के कारण और कुछ प्राकृति कारणों से। परंतु उनमें अदम्य जीजिविषा थी। वो जब भी लौट कर अपनी कुर्सी पर बैठे- पूरी ठसक के साथ बैठे। न उन्होंने हमदर्दी चाही- न जुटाई। कवि जी न तो अपनी कमजोरियों को छुपाते थे और न ही उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश ही करते थे। जैसा हूँ- खुश हूँ वाले अंदाज में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया। कवि जी अपने मित्रों की उपलब्धियों से भी उतना ही खुश होते थे जितना अपनी किसी उपलब्धि से। वो हर मिलने वाले से अपने मित्रों की चर्चा बड़े चाव और गर्व से किया करते थे। वो अक्सर श्याम सिंह 'शशि", शेरजंग गर्ग, विभाकर जी, अश्व घोष, विजय किशोर मानव और धनंजय सिंह की चर्चा बहुत स्नेह और अपनत्व से करते। इन सबके लेखन पर वो ऐसा ही गर्व करते थे जैसा कोई अपने लेखन पर कर सकता है। उन्हें गर्व था कि ये सब उनके मित्र हैं। स्व0 कौशिक जी को अपना गुरु मानते थे और बातचीत में भी उन्हें इसी सम्मान के साथ सम्बोधित भी करते थे। हिन्दी साहित्य में जिन दिनों दलित चेतना की कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी कवि जी ने शम्बूक-बध जैसी कविता लिख कर अपने चिंतन का परिचय दिया था।
'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह हैं, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठक आज भी उस दर्ज पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिंदी साहित्य के केन्द्र में तो दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनायें, जो बाद में दलित चेतना की संवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिंदी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय रहा। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली पर वार करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। कागज का नक्शा भर नहीं है देहरादून -विजय गौड



नौकरी की सीमाओं, आर्थिक विषमताओं और खराब होती सेहत से
जूझते हुए भी वो अंत तक अर्न्तमन से कवि बने रहे।
उन्होंने क्या लिखा, कितना लिखा और उनके लिखे हुए का आज के दौर में
क्या महत्व है- ये एक अलग मूल्यांकन की बाते है। परंतु उन्होंने जो लिखा
मन से लिखा, निरंतर लिखा और और जब तक जिए लिखते ही रहे।
हरिद्वार के एक कवि सम्मेलन से लौटते हुए, सड़क दुर्घटना में मौत के बाद ही
उनकी अंगुलियों से कलम अलग हो पाई थी।
अपनी नौकरी की पहली तनख्वाह मिलने पर जब मैं उनके पास गया और
पूछा कि मैं उन्हें क्या दूँ- तो उन्होंने कहा था
"मेरा चश्मा टूटा गया है- कोई सस्ता सा फ्रेम बनवा दो।"
शोध पूरा करने के बाद जब मैंने कविता लिखने की चेष्टा की थी तो मैंने पाया
कि मैं कविता से बहुत दूर जा चुका हूँ। कवि जी को मेरा कविता लिखना
छोड़ने का दुख था। पर मेरे कहानियाँ लिखने और आगे बढ़ने से भी
वो बहुत खुश थे और गर्व अनुभव करते थे। इस बात को वो अपने मित्रों से कहते भी थे।
आज जब भी मैं कवि जी को याद करता हूँ तो मुझे रतन सिंह जौनसारी के गीत की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
मेरे सुख का बिस्तर फटा पुराना है,
जिसे ओढ़ता हूँ वो चादर मैली है,
घृणा करो या प्यार करो परवाह नहीं
ये मेरे जीने की अपनी शैली है।
सच! कवि जी ने तो जैसे इन पंक्तियों में अपने जीवन का अक्स ही ढूंढ लिया था।

Wednesday, June 4, 2008

गोरख्याणी का आतंक पिता की स्मृतियों में डरावनेपन के साथ रहा

नेपाल में एक राजा रहता था। नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
नेपाल में चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। शासन प्रशासन का नया रूप जल्द ही सामने होगा. खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है।
नेपाली जनता 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ रही है। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है।
पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है।
नेपाल और सीमांत में सामंती झगड़ों की चपेट में झुलसती रही जनता के मुक्ति के जश्न को मैं पिता की आंखों से देखूं तो कह सकता हूं कि पिता होते तो सदियों के आतंक से मुक्त हो जाते। नेपाल गणतांत्रिक लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ चला है। सदियों की दासता से नेपाली जनता मुक्त हुई है। लगभग 240 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ राजशाही का आतंक समाप्त।
आतंक की परछाईयों से घिरे पूर्वजों की कथाऐं पिता को भी आतंक से घेरे रही। मां भी आतंकित ही रहती थी। मां की कल्पनाओं में ऐसे ही उभरता रहा था गोरख्याणी का दौर। गढ़वाल-कुमाऊ के सीमांत पर रहने वाले, इतिहास के उस आंतक के खात्मे पर अब भय मुक्त महसूस कर रहे होगें अपने को जिसने उन्हें बहुत भीतर तक दबोचे रखा - पीढ़ियों दर पीढ़ी। पिता ता-उम्र ऐसे आतंक के साये से घिरे रहे। गोरख्याणी का आतंक उनको सपनों में भी डराता रहा था। जबकि गोरख्याणी का दौर तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं। सिर्फ सुनी गयी कथाये ही जब सैकड़ो लोगों को आंतक में डूबोती रही तो उसको झेलने वाले किस स्थिति में रहे होगें, इसकी कल्पना की जा सकती है क्या ?
खुद को जानवरों की मांनिद बेचे जाने का विरोध तभी तो संभव न रहा होगा। हरिद्वार के पास कनखल मंडी रही जहां गोरख्याणी के उस दौर में मनुष्य बेचे जाते रहे। लद्दू घोड़े की कीमत भी उनसे ज्यादा ही थी। लद्दू घोड़ा 30 रु में और लगान चुकता न कर पाया किसान मय-परिवार सहित 10 रु में भी बेचा जा सकता था। बेचने वाले कौन ? गोरखा फौज।
पिता का गांव ग्वालदम-कर्णप्रयाग मार्ग में मीग गदेरे के विपरीत चढ़ती गयी चढ़ाई पर और मां का बच्चपन इसी पहाड़ के दक्षिण हिस्से, जिधर चौखुटिया-कर्णप्रयाग मार्ग है, उस पर बीता। ये दोनों ही इलाके कुमाऊ के नजदीक रहे। नेपाल पर पूरी तरह से काबिज हो जाने के बाद और 1792 में कुमाऊ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल में प्रवेश करती गोरखा फौजों ने इन्हीं दोनों मार्गों से गढ़वाल में प्रवेश किया। गढ़वाल में प्रवेश करने का एक और मार्ग लंगूर गढ़ी, जो कोटद्वार की ओर जाता है, वह भी उनका मार्ग रहा। आंतक का साया इन सीमांत इलाकों में कुछ ज्यादा ही रहा। संभवत: अपने विस्तारवादी अभियान के शुरुआती इन इलाकों पर ही आतंक का राज कायम कर आग की तरह फैलती खबर के दम पर ही आगे के इलाकों को जीतने के लिए रणनीति तौर पर ऐसा हुआ हो। या फिर प्रतिरोध की आरम्भिक आवाज को ही पूरी तरह से दबा देने के चलते ऐसा करना आक्रांता फौज को जरुरी लगा हो। मात्र दो वर्ष के लिए सैनिक बने गोरखा फौजी, जो दो वर्ष बीत जाने के बाद फिर अपने किसान रुप को प्राप्त कर लेने वाले रहे, सीमित समय के भीतर ही अपने रुआब की आक्रांता का राज कायम करना चाहते रहे। अमानवीयता की हदों को पार करते हुए जीते जा चुके इलाके पर अपनी बर्बर कार्यवाहियों को अंजाम देना जिनके अपने सैनिक होने का एक मात्र सबूत था, सामंती खूंखरी की तेज धार को चमकाते रहे। पुरुषों को बंदी बनाना और स्त्रियों पर मनमानी करना जिनके शाही रंग में रंगे होने का सबूत था। गोरख्याणी का ये ऐसा आक्रमण था कि गांव के गांव खाली होने लगे। गोरख्याणी का राज कायम हुआ।
1815 में अंग्रेजी फौज के चालाक मंसूबों के आगे यूंही नहीं छले गये लोग। 1803 में अपने सगे संबंधियों के साथ जान बचाकर भागा गढ़वाल नरेश "बोलांदा बद्री विशाल" राजा प्रद्युमन शाह। सुदर्शन शाह, राजा प्रद्युमन शाह का पुत्र था। अंग्रेजों के सहयोग से खलंगा का युद्ध जीत जाने के बाद जिसे अंग्रेजों के समाने अपने राज्य के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। अंग्रेज व्यापारी थे। मोहलत में जो दिया वह अलकनन्दा के उत्तर में ढंगारो वाला हिस्सा था जहां राजस्व उगाने की वह संभावना उन्हें दिखायी न दी जैसी अलकनन्दा के दक्षिण उभार पर। बल्कि अलकनन्दा के उत्तर से कई योजन दूरी आगे रवाईं भी शुरुआत में इसीलिए राजा को न दिया। वह तो जब वहां का प्रशासन संभालना संभव न हुआ तो राजा को सौंप देना मजबूरी रही। सुदर्शन शाह अपने पूर्वजों के राज्य की ख्वहिश के साथ था। पर उसे उसी ढंगारों वाले प्रदेश पर संतोष करना पड़ा। श्रीनगर राजधानी नहीं रह गयी। राजधानी बनी भिलंगना-भागीरथी का संगम - टिहरी।
खुड़बड़े के मैदान में प्रद्युमन शाह और गोरखा फौज के बीच लड़ा गया युद्ध और राजा प्रद्युमन शाह मारा गया। पुश्तैनी आधार पर राजा बनने का अधिकार अब सुदर्शन शाह के पास था। पर गद्दी कैसे हो नसीब जबकि गोरखा राज कायम है। बस अंग्रेजों के साथ मिल गया भविष्य का राजा। वैसे ही जैसे दूसरे इलाको में हुआ। अपने पड़ोसी राजा को हराने में जैसे कोई एक अंग्रेजों का साथ पकड़ता रहा। तिब्बत के पठारों पर पैदा होती ऊन और चंवर गाय की पूंछ के बालों पर टिकी थी उनकी गिद्ध निगाहें। यूरोप में पश्मिना ऊन और चँवर गाय की पूंछ के बालों की बेहद मांग थी। पर तिब्बत का मार्ग तो उन पहाड़ी दर्रो से ही होकर गुजरता था जिन पर गोरखा नरेश का राज कायम था। दुनिया की छत - तिब्बत पर वह खुद भी तो चढ़ना चाहता था।

पिता तीन तरह के लोगों से डरते रहे। डरते थे और नफ़रत करते थे। कौन थे ये तीन। गोरखे, कम्यूनिस्ट और संघी।
कम्यूनिस्टों के बारे में वैसे तो उनकी राय भली ही रही। ईमानदार होते हैं, उद्यमी भी। पर घोर नास्तिक होते हैं। पिता बेशक उस तरह के पंडिताई बुद्धि नहीं रहे जैसे आस्थाओं पर तनिक भी तर्क वितर्क न सहन करने वाले संघी। पर धार्मिक तो वे थे ही। नास्तिकों को कैसे बरदाश्त कर लें!
जाति से ब्राहमणत्व को प्राप्त किये हुए, घर में मिले संस्कारों के साथ। पुरोहिताई पुश्तैनी धंधा रहा। पर पिता को न भाया। इसलिए ही तो घर से निकल भागे। कितने ही अन्य संगी साथी भी ऐसे ही भागे पहाड छोड़कर। पेट की आग दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, जाने कहाँ-कहाँ तक ले गयी, घर से भागे पहाड़ के छोकरों को।
देखें तो जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, उसके बाद से ही शुरु हुआ घर से भागने का यह सिलसिला। गोरखा राज के बाद जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, गांव के गांव खाली हो चुके थे। खाली पड़े गांवों से राजस्व कहां मिलता। बस, कमीण, सयाणे और थोकदारों के तंत्र ने अपने नये राजाओं के इशारे पर गांव छोड़-छोड़कर भागे हुए पहाड़ियों को ढूंढ कर निकाला। नये आबाद गांव बसाये गये। ये अंग्रेज शासकों की भूमि से राजस्व उगाही की नयी व्यवस्था थी। फिर जब पुणे से थाणे के बीच रेल लाईन चालू हो गयी और एक जगह से दूसरी जगह कच्चे माल की आवाजाही के लिए रेलवे का विस्तार करने की योजना अंग्रेज सरकार की बनी तो पहाड़ों के जंगलों में बसी अकूत धन सम्पदा को लूटने का नया खेल शुरु हुआ। जंगलों पर कब्जा कर लिया गया। जानवरों को नहीं चुगाया जा सकता था। खेती का विस्तार करना संभव नहीं रहा। पारम्परिक उद्योग खेती बाड़ी, पशुपालन कैसे संभव होता! बस इसी के साथ बेरोजगार हो गये युवाओं को बूट, पेटी और दो जोड़ी वर्दी के आकर्षण में लाम के लिए बटोरा जा सका। जंगलों पर कब्जे का ये दोहरा लाभ था। बाद में वन अधिनियम बनाकर जंगलों के अकूत धन-सम्पदा को लूटा गया। पेशावर कांड का विद्राही चंद्र सिंह गढ़वाली भी ऐसे ही भागा था एक दिन घ्ार से बूट, पटटी और सरकारी वर्दी के आकर्षण में। पर यह भागना ऐसा भागना नहीं था कि लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराना है। पेट की आग को शांत करने के लिए लगायी जा रही दौड़ खाते पीते मोटियाये लोगों के मनोरंजन का पाठ तो हो भी नहीं सकती।
पिता धार्मिक थे और अंत तक धार्मिक ही बने रहे। माँ भी धार्मिक थी। ऐसी धार्मिक कि जिसके पूजा के स्थान पर शालीग्राम पर भी पिठांई लग रही है तो बुद्ध की कांस्य मूर्ति भी गंगाजल के छिड़काव से पवित्र हो रही है। माँ उसी साल गयी, जिस साल को मुझे अपनी एक कविता में लिखना पड़ा - कान पर जनेऊ लटका चौराहे पर मूतने का वर्ष। 2 दिसम्बर का विप्लवकारी वो साल - 1992। माँ 6 दिसम्बर को विदा हो गयी। 2 दिसम्बर 1992 से कुछ वर्ष पूर्व जब भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था, समाचार सुनते हुए माँ की बहुत ही कोमल सी आवाज में सुना था - ये क्या हो गया है लोगों को, जरा जरा सी बात पर मरने मारने को उतारु हो जाते हैं।
दादा पुरोहिताई करते थे। पिता सबसे बड़े थे। दूर-दूर तक फैली जजमानी को निपटाने के लिए दादा चाहते थे कि ज्येठा जाये। हरमनी, कुलसारी से लेकर भगवती तक। दादा की उम्र हो रही थी। टांगे जवाब देने लगी थी। ज्येठे को भगवती भेज कर जहां किसी को पानी पर लगाना है, मंझले को भी आदेश मिल जाता कि वह कुलसारी चला जाये, जजमान को रैबार पहुँचाना है। कठिन चढ़ाई और उतराई की यह ब्रहमवृत्ति पिता को न भायी। जोड़-जोड़ हिला देने वाली चढ़ाई और उतराई पर दौड़ते हुए आखिर एक दिन दादा से ऐसी ही किसी बात पर झड़प हो गयी तो उनके मुँह से निकल ही गया - फंड फूक तै दक्षिणा ते। ऐसी कठिन चढ़ाईयों के बाद मिलने वाली दक्षिणा भाड़ में जाये। बर्तन मांज लूंगा पर ये सब नहीं करुंगा। पिता के पास घर से भागने का पूरा किस्सा था। जिसे कोई भी, खास उस दिन, सुन सकता था, जिस दिन उनके भीतर बैचेनी भरी तरंगें उछाल मार रही होतीं। 6 दिसम्बर के बाद, माँ के न रहने पर तो कई दिनों तक सिर्फ उनका यही किस्सा चलता रहा। हर आने जाने वाले के लिए किस्से को सुने बिना उठना संभव ही न रहा। शोक मनाने पहुंचा हुआ व्यक्ति देखता कि पिता न सिर्फ सामान्य है बल्कि माँ के न रहने का तो उन्हें कोई मलाल ही नहीं है। वे तो बस खूब मस्त हैं। खूब मस्त। उनके बेहद करीब से जानने वाला ही बता सकता था कि यह उनकी असमान्यता का लक्षण है। सामन्य अवस्था में तो इतना मुखर वे होते ही नहीं। बात बात पर तुनक रहे हैं तो जान लो एकदम सामान्य हैं। पर जब उनके भीतर का गुस्सा गायब है तो वे बेहद असमान्य हैं। उस वक्त उन्हें बेहद कोमल व्यवहार की अपेक्षा है। वे जिस दिन परेशान होते, जीवन के उस बीहड़ में घुस जाते जहां से निकलने का एक ही रास्ता होता कि उस दिन मींग गदेरे से जो दौड़ लगायी तो सीधे ग्वालदम जाकर ही रुके। कोई पीछे से आकर धर न दबोचे इसलिए ग्वालदम में भी न रुके, गरुड़ होते हुए बैजनाथ निकल गये। बैजनाथ में मोटर पर बैठते कि साथ में भागे हुए दोनों साथी बस में चढ़े ही नहीं और घर वापिस लौट गये।
बस अकेले ही शुरु हुई उनकी यात्रा। मोटर में बैठने के बाद उल्टियों की अनंत लड़ियां थी जो उनकी स्मृतियों में हमेशा ज्यों की त्यों रही। जगहों के नामों की जगह सिर्फ मुरादाबाद ही उनकी स्मृतियों में दर्ज रहा। जबकि भूगोल गवाह है कि गरूण के बाद अल्मोड़ा, हल्द्वानी और न जाने कितने ही अन्य ठिकानों पर रुक-रुक कर चलने वाली बस सीधे मुरादाबाद पहुंची ही नहीं होगी।
कम्यूनिस्टों का नाम सुनते ही एक अन्जाना भय उनके भीतर घर करता रहा। मालूम हो जाये कि सामने वाला कम्यूनिस्ट है तो क्या मजाल है कि उसकी उन बातों पर भी, जो लगातार कुछ सोचते रहने को मजबूर करती रही होती, वैसे ही वे यकीन कर लें। नास्तिक आदमी क्या जाने दुनियादारी, अक्सर यही कहते। लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी द्विविधा को भी रख देते - वैसे आदमी तो ठीक लग रहा था, ईमानदार है। पर इन कम्यूनिस्टों की सबसे बड़ी खराबी ही यह है कि इन्हें किसी पर विश्वास ही नहीं। इनका क्या। न भाई है कोई इनका न रिश्तेदार। तो क्या मानेगें उसको। और उनकी निगाहें ऊपर को उठ जाती। कभी कोई तर्क वितर्क कर लिया तो बस शामत ही आ जाती थी। जा, जा तू भी शामिल हो जा उन कम्यूनिस्टों की टोली में। पर ध्यान रखना हमसे वास्ता खतम है। कम्यूनिस्ट हो चाहे क्रिश्चयन, उनकी निगाह में दोनों ही अधार्मिक थे - गोमांस खाते है। कम्यूनिस्टों के बारे में उनकी जानकारी बहुत ही उथली रही। बाद में कभी, जब कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ तो अपनी धारणा तो नहीं बदली, जो बहुत भीतर तक धंस चुकी थी, पर उन व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होने के बाद यही कहते - आदमी तो ठीक है पर गलत लोगों के साथ लग गया। धीरे-धीरे इस धारणा पर भी संशोधन हुआ और कभी कभी तो जब कभी किसी समाचार को सुनकर नेताओं पर भड़कते तो अपनी राय रखते कि गांधी जी ने ठीक ही कहा था कि ये सब लोभी है। इनसे तो अच्छा कम्यूनिस्ट राज आ जाये। गांधी जी के बारे में भी उनकी राय किसी अध्ययन की उपज नहीं बल्कि लोक श्रुतियों पर आधारित रही। आजादी के आंदोलन में गांधी जी की भूमिका वे महत्वपूर्ण मानते थे। उस दौर से ही कांग्रेस के प्रति उनका गहरा रुझान था। लेकिन इस बात को कभी प्रकट न करते थे। जब वोट डालकर आते तो एकदम खामोश रहते। किसे वोट दिया, हम उत्सुकतवश पूछते तो न माँ ही कुछ ज़वाब देती और न ही पिता। वोट उनके लिए एक ऐसी पवित्र और गुप्त प्रार्थना थी जिसको किसी के सामने प्रकट कर देना मानो उसका अपमान था। मतदान के नतीजे आते तो भी नहीं। हां, जनसंघ्ा डंडी मारो की पार्टी है, ठीक हुआ हार गयी, समाचारों को सुनते हुए वे खुश होते हुए व्यक्त करते। गाय बछड़े वाली कांग्रेस तक वे उम्मीदों के साथ थे। आपातकाल ने न सिर्फ कांग्रेस से उनका मोह भंग किया बल्कि उसके बाद तो वे राजनीतिज्ञों की कार्यवाहियों से ही खिन्न होने लगे। अब तो कम्यूनिस्ट राज आना ही चाहिए। कम्यूनिस्ट तंत्र के बारे में वे बेशक कुछ नहीं जानते थे पर अपने आस पास के उन लोगों से प्रभावित तो होते ही रहे जो अपने को कम्यूनिस्ट भी कहते थे और वैसा होने की कोशिश भी करते थे।
नेपाल में बदल रहे हालात पर उनकी क्या राय होती, यदि इसे उनकी द्विविधा के साथ देखूं तो स्पष्ट है कि हर नेपाली को गोरखा मान लेने की अपनी समझ के चलते, वे डरे हुए भी रहते, पर उसी खूंखार दौर के खिलाफ लामबंद हुई नेपाली जनता के प्रति उनका मोह भी उमड़ता ही। जब वे जान जाते उसी राजा का आतंकी राज समाप्त हो गया जिसके वंशजों ने गोरख्याणी की क्रूरता को रचा है तो वे निश्चित ही खुश होते। बेशक, सत्ता की चौकसी में जुटा अमला उन्हें माओवादी कहता तो वे ऐसे में खुद को माओवादी कहलाने से भी परहेज न करते।