Monday, June 16, 2008

अपने वतन का नाम बताओ -तीन


विजय गौड
सबसे लम्बा नदी का रास्ता
सबसे ठीक नदी का रास्ता
मानसरोवर सिन्धु का घर है
ब्रहमपुत्र का उद्गम भी
सबसे लम्बा सिंधु का रास्ता
सबसे ठीक सिंधु का रास्ता।


लमखागा वार जलंधरी और लमखागा पार बस्पा। भागीरथी-जलंधरी का संगम छोड़कर चले थे, बस्पा-सतलुज का संगम पार करेगें। नदी का लम्बा रास्ता ही भेड़ चरवाहों का रास्ता है।
भेड़-चरवाहों की सीमा क्यारकोटी से आगे बढ़ लिये। लमखागा भी एक सीमा है। उसे भी तोड़कर आगे बढ़ जायेगें। ये सीमायें किसी धरती-पुत्र ने निर्धारित नहीं की। ये प्राकृतिक सीमायें हैं। इन सीमाओं का अतिक्रमण किसी कानून का उलंघन नहीं होना चाहिए।
जलंधरी के साथ-साथ जलंधरी के उद्गम तक पहुंचेगें । जलंधरी, भागीरथी में मिलकर भागीरथी हो गयी। ढेरों जल-धारायें जलंधरी में मिलकर जलंधरी होती रही। वो जल-धारा कौन सी है जो अपने उद्गम तक भी जलंधरी कहलायेगी? नदियों के उद्गम को लेकर कोई निश्चित हो सकता है ? क्या गंगोत्री ग्लेश्यिर भागीरथी का उद्गम है ? गोमुख ही क्या वह जगह है जहां से भागीरथी निकल रही है ? तो फिर अलकनन्दा का उद्गम अरवा ग्लेशियर क्यों नहीं ? पिढडारी ग्लेशियर क्यों पिण्डर का उद्गम कहलाये जबकि मींग गदेरा पिण्डर में मिल रहा हो। जलंधरी के उद्गम तक पहुंच भी पायेगें क्या ?
धर्म सिंह तो पूर्ण-रूपा जलंधरी को पार करते हुए ही भटक गया था मार्ग। तो फिर जलंधरी के उद्गम तक कौन पहुंचायेगा ? जलंधरी के उद्गम को कोई जानता है क्या ? सूखा ताल तक पहुंची हैं ढेरों जल-धारायें। तो सूखा ताल ही है क्या उद्गम ? पर वहां तो इतना जल ही नहीं। कुछ जल-धारायें हैं जो वहां से निकलकर अपने-अपने मार्ग पर आगे बढ़ती हैं। इन धाराओं का सम्मिलित रुप ही जलंधरी है।
सूखा ताल से काफी आगे निगाह दौड़ाते हुए जलंधरी को ढूंढ चुका धर्म सिंह चिल्लाया था- वो रही जलंधरी। बर्फ के टुकड़े जो जलंधरी नहीं हो पाये, रास्तों के किनारे-किनारे ग्लेशियरों की शक्ल में मौजूद थे। कहीं-कहीं जिन पर चढ़ कर और कहीं जिनसे बच-बचाकर आगे बढ़े थे। कुछ तो पूरे पहाड़ की शक्ल में जलंधरी पर छाये हुए थे, जिनके नीचे से बहती हुई जलंधरी को देखकर भ्रम होता- मानो यही है उद्गम। किसी भी ऐसी जगह का फोटो पहाड़ों से दूर रहे व्यक्ति के लिए गंगा के उद्गम को देखने की तृप्ति भी दे सकता है। रात भर क्यारकोटी पर भालू का डर, हम एक दूसरे को दिखाते रहे। भालू तो हमने नहीं देखा पर भेड़ वालों से मालूम हुआ, बीती रात भालू ने माल (भेड़) पर हमला बोला। कुत्ते झपड़ पड़े। माल का नुकसान तो नहीं पहुंचा पाया पर एक कुत्ते को घायल कर गया।
घायल झबरा कुत्ता हमारी ओर ताकता रहा। क्यारकोटी की निर्जनता को तोड़ने के लिए शुरु किया गया भालू के डर वाला खेल स्लीपिंग बैग में दुबकने से पहले तक चलता रहा। सुबह के वक्त तेज धूप क्यारकोटी में बिखर गयी थी। पहाड़ों से उतरती जल-धारा को पार किया और लमखागा की ओर बढ़ लिये। जलंधरी के किनारे-किनारे पत्थरों भरा रास्ता शुरु हो चुका था, लमखागा के बेस तक जिसने हमारी हालत पस्त कर दी। रास्ता भी क्या, चारों ओर बिखरे पत्थरों पर, जहां कहीं मार्ग चिन्ह (पत्थरों पर रख हुआ पत्थर) दिखायी देता, उसी ओर बढ़ लेते। एक लम्बी दूरी तय करने के बाद अब न तो कहीं मार्ग चिन्ह और न ही आगे कोई ऐसी जगह शेष थी, जहां से रास्ता बनाया जा सके।
जलंधरी के पार, दूसरी ओर के पहाड़ की ओर निगाह उठायी- खड़ी चट्टान थी, जिस पर मिट्टी सरकती दिखायी दे रही थी। उधर से निकलते तो तय था हम में से कोई भी अपने जीवन की यात्रा का अन्तिम पड़ाव डाल लेता। पहाड़ पर पांव रखने भर की भी जगह नहीं। जिधर चल रहे थे वहीं रास्ता तलाशा जाये। थोड़ा ऊपर की ओर एक बड़ा-सा ग्लेशियर दिखायी दिया, नीचे सरक कर आया हुआ था। दूरी हलांकि ज्यादा नहीं थी तो भी ग्लेशियर के उस छोर तक, जहां से उसे पार करना संभव जान पड़ रहा था, पहुंचने के लिए कुछ क्षणों का विश्राम लिया। स्थिति को ठीक तरह से समझने का प्रयास भी। फिर ग्लेशियर को पार कर गये और जलंधरी के साथ-साथ चलने लगे।आगे ऐसी ही एक स्थिति में धर्म सिंह ने तय किया- जलंधरी को पार कर लेना चाहिए और दूसरी ओर के पहाड़ पर बढ़ लिया। पाट काफी चौड़ा था। देखकर लगता था पार करना आसान होगा। पानी में न तो गहराई होगी और न तेज बहाव। पर जलंधरी में बहती हुइ, त्वचा को चीर देने वाली ठंडक से भरी बर्फ और लुढ़कते पत्थरों ने एक दूसरे के सहारे ही आगे बढ़ने की सलाह दी।
दूसरी ओर का रास्ता पत्थरों का रास्ता था। बारिस की हल्की झड़ी लगी हुई थी। पत्थरों पर फिसलन थी। एक-एक कदम संभल-संभल कर बढ़ाना पड़ रहा था। पत्थरों पर चलते हुए कहीं टांगों को लम्बा खींचना पड़ रहा था और कहीं कदमों को बहुत छोटा कर देना पड़ रहा था, जिसकी वजह से शरीर थककर चूर होने लगे। ऊपर से पड़ती हुई बारिस से पिट्ठुओं को बचाने के लिए लगायी गयी पॉलीथीन की बरसाती भी बार-बार पावों में फंसकर रास्ते की दुर्गमता को ओर ज्यादा बढ़ा रही थी।
कहीं कोई थोड़ा सहज मार्ग दिखे तो उधर ही निकल लें।
नदी का किनारा ही एक मात्र सहारा था। दूसरी ओर के पहाड़ की ओर नजर उठना स्वाभाविक ही था जबकि पीछे उस किनारे को छोड़ते हुए भी यही मन:स्थिति थी। लगा कि उस ओर जगह इतनी है जिस पर चलना शायद आसान होता। मन आशंकाओं से भर गया- कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं बढ़ रहे हैं!
जलंधरी को पार कर उस ओर जाने की हिम्मत किसी के पास भी शेष नहीं थी। पत्थरों भरा रास्ता हमारी मजबूरी हो गया। पस्त हो चुकने के बाद भी बढ़ते रहना हमारी मजबूरी थी।
पत्थरों भरा रास्ता पार हुआ तो खूबसूरत मैदान दिखायी दिया। रास्ते की नीरसता को उस ऊपर-नीचे लहराते छोटे से मैदान ने तोड़ दिया। पत्थरों के साम्राज्य में हरे घास की उपस्थिति जो सुकून दे सकती है उसे शब्दों में कह पाना संभव नहीं। जाने किसकी पंक्तियां है- 'मैं तो दूब घास हूं", याद आती रही। घास का यह मैदान ही लमखागा को बेस होना चाहिए- पर लमखागा की झलक भी वहां से दिखायी नहीं दे रही थी। अनुभव के आधार पर अनुमान मारा जा सकता था कि यहां रुकने पर अगले दिन बहुत सुबह चलने पर भी लमखागा को पार करना आसान न होगा।
ऊपर उठती हुई तीखी धार पर बढ़े चलो।
शरीर जवाब दे चुके थे। खाने की वो चीजें, जिन्हें रास्ते की नीरसता को तोड़ने के लिए जेबों में रखा हुआ था, को भी देखने का मन नहीं था। सिर्फ पानी था, जो राहत देता। पीछे रास्ता भटक चुके धर्म सिंह पर से विश्वास उठता रहा- कहीं फिर गलत दिशा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं! पर कोई नया रास्ता, जो जल्दी से हमें उस जगह पहुंचा दे जहां से लमखागा दिखायी देने लगे, उसे खोजने में भटक जाने का खतरा ज्यादा। इसीलिए मजबूरी वश, रास्ते भटक जाने की आशंका को धर्म सिंह के सामने रखते हुए भी उसके पीछे चलते रहना हमारी मजबूरी थी।
तीखी धार को पार कर चुका धर्म सिंह ऊपर से हाथ हिलाता रहा। धर्म सिंह जहां मौजूद था, उससे थोड़ी दूरी पर नीचे उतरना था। दूसरी धार पकड़नी थी। जहां से उतरे, दांये किनारे पर ही बहुत थोड़ी-सी समतल कही जा सकने लायक भूमि दिखायी दी। पहले कभी कोई यात्री दल संभवत: उस जगह पर रुका हो- एक पत्थर पर हरे रंग से 5, जुलाई 1998 लिखा था। आस-पास पैक फूड के टूटे हुए डिब्बे और कुछ ऐसा ही सामान पड़ा हुआ था। पहाड़ के उन निर्जन हिस्सों में, जहां कभी न कभी कोई ऐसा दल पहुंचा हो- पहाड़ जिनके लिए सिर्फ ऐशगाह हो, उनकी एय्याशी के इन निशानों से जाना जा सकता है कि यह कैम्पिंग जगह है ।
सभी बुरी तरह थक चुके थे। रास्ते भर बारिस में भीगते हुए ही चले। पॉलीथीन की बरसातियां भी पिट्ठुओं में रखे सामानों को भीगने से बचा न पायी। अभी तक की यात्रा का यह सबसे लम्बा दिन था। सुस्ताने क्या बैठे कि लमखागा की ओर से बहने वाली हवाओं ने कंपी-कंपी छुटा दी। तय किया गया कि आज का पड़ाव यहीं डाल दिया जाये। पास तो दिखायी नहीं दे रहा था पर मौसम को देखकर अनुमान मारा जा सकता था कि पास के नजदीक ही हैं। ठंडी हवाऐं और बीच-बीच में कहीं आस-पास टूटते बर्फीले पहाड़ों की आवाज खामोशी को तोड़ती रही। चूंकि पास दिखायी नहीं दे रहा था, इसलिए निश्चित किया कि जितना जल्दी हो, अगले रोज सुबह-सुबह ही निकल लेगें। पास न जाने कितना लम्बा हो ? बर्फ न जाने कितनी हो ? धर्म सिंह भी ठीक से कुछ खास नहीं बता पाया। सुबह की बजाय शौच आदि से शाम को ही निवृत हो लिया जाये। शौच की कोई उपयुक्त जगह दिखायी नहीं दी। जहां रुके, वहां से थोड़ी दूरी पर ही एक जलधारा पास की दिशा से बहती आती दिखायी दी जो आगे बहुत नीचे उतरती थी-सूखा ताल में। सूखा ताल नीचे गहरी खाई में था। उसके साथ-साथ ही पहाड़ की यह खड़ी दीवार थी, जिसके किनारे पर खड़े होने की हिम्मत नहीं की जा सकती थी। बहुमंजिला इमारतों की छत के किनारे जैसा खोफ पैदा करते हैं उससे भी कहीं ज्यादा। हम दो विपरीत दिशाओं में बढ़ती धारों के बीच थे। एक जा हमारे दक्षिण-पश्चिम में थी उसमें चढ़कर ही यहां तक पहुंचे थे। दूसरी जो हमारे उत्तर-पूर्व में थी उस पर ही आगे बढ़ना है। इन दोनों की फांक से ही दिखायी दे रहा था सूखा ताल। उत्तर-पूर्व दिशा से ही बढ़ी चली आ रही थी वो जलधारा। दोनों धारों की इस फांक से ही नीचे उतरती हुई सूखा ताल तक। दोनों धारों के कटाव पर ही सरक कर आयी हुई शिलाओं का ढेर। इन शिलाओं पर ही फैलाये थे पांव और सूखा ताल की ओर पीठ कर बैठ गये। सूखा ताल में बिखरा सलेटी रंग मुड़-मुड़ कर देखने को मजबूर करता रहा। बारिस रुक चुकी थी। सूखा ताल का जल उस सलेटी आभा के बीच, बीच-बीच में कहीं-कहीं ऐसा चमकता मानो किसी स्त्री के वस्त्रों पर टंके शीशे चमक रहे हों। सूरज की रोशनी मौजूद ही रही होगी- उस वक्त यह नोटिस ले पाने की जरुरत ही नहीं समझी, शायद स्थिति की भयावता ने इस ओर सोचने का अवकाश ही नहीं दिया हो। पहाड़ के टूटने की आवाजें दहशत भर देने वाली थी। सिर्फ चमकते हुए पानी का बिम्ब ही स्मृतियों में दर्ज है। कच्चे पहाड़ में अटके हुए पत्थरों पर टिकी निगाहें, निगाहों को कहीं ओर स्थिर करने दे ही नहीं सकती थी- अब गिरा कि तब। पानी बेहद ठंडा था। शौच के बाद हाथ पूरी तरह से धो भी पाये या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
महेश पर हंसी आती रही, जो सामान्यत:, तम्बाकू बनाने से पहले हाथ को कई बार धोता हो, ऐसी ही हथेलियों पर रगड़ा हुआ तम्बाकू होंठों के नीचे दबाता रहा। यह पहाड़ का सौन्दर्य बोध था। दिन में दो बार नहीं तो एक बार नहाने वाला पिछले तीन दिनों से आंखों पर भी पानी न लगा पाया था। ग्लेशियर से निकलती जलधारा का जल ही पीने में इस्तेमाल होता रहा।

--- जारी

अपने वतन का नाम बताओ -दो


विजय गौड


सुबह 9.00 बजे के आस-पास ही धर्म सिंह हर्षिल पहुंच गया। धर्म सिंह झाला का रहने वाला है। लमखागा का रास्ता उसका देखा हुआ है। एक बार आईटीबीपी के जवानों के साथ, माल ढुलाई के वक्त लमखागा को पार कर चुका है। इसीलिए हमारा पोर्टर भी ओर हमारा गाइड भी।

तिरेपन ओर किशन भी हमारे सहयोगी ही थे, जो उत्तरकाशी से ही साथ चले थे लेकिन लमखागा का मार्ग नहीं जानते थे। किशन की सलाह पर ही झाला से धर्म सिंह को तय किया। साफ था कि कम से कम कोई तो हो जिसे थोड़ा बहुत ही सही, रास्ते का अंदाजा हो। धर्म सिंह के पहुंचते ही पिट्ठू कंधें पर लादे और निकल पड़े।
जलंधरी गाड़ के किनारे-किनारे ही आगे बढ़ने लगे। रास्ता चढ़ाई भरा था। चढ़ाई ऐसी कि घुटनों पर हाथ खुद-ब-खुद ही पहुंच जाते । सीधे लाल देवता पहुंचे । एक पेड़ के मुख्य तने पर पुराने कपड़े बंधें थे। जानवरों के सिंग भी पेड़ पर धंसाये गये थे। पेड़ के नजदीक पहुंचकर ही अनिल काला रुक गया। उसका अनुमान सही था- यही लाल देवता है।

लाल देवता से सीधा ढाल उतरता गया। ऊंची चट्टानों से रिपटकर आये हुए पत्थरों भरा इलाका। हर्षिल से जब चले तो धूप तेज थी। देवदार के घने जंगलों के बीच ही चढ़ाई भरे रास्ते पर चले थे। देवदार की ठंडी छांव तेज धूप से बचाती रही। निर्मम हाथ छायाओं को कम नहीं कर पाये थे। प्रकृति की महानता है कि वृक्षों के नृशंस कत्लेआम के बावजूद भी उनका उगना जारी रहा। जगह-जगह कटे हुए वृक्षों के ठूंठों को, देवदार की घनी झाड़ियां मुंह चिढ़ाती रही।
पहले दिन ही बर्फ रास्ते के किनारे दिखायी देने लगी। रपटा पार कर मोरा सोर का मैदान दिखायी देने लग, जहां धूप जानवरों की शक्ल में मौजूद थी। कुछ साथियों ने भोज-पत्रों की छाल स्मृतियों को बचाये रखने के लिए पिट्ठुओं में रख ली। किशन, तिरेपन, विमल और सतीश टैन्ट लगाने लगे। हम कुछ साथी इधर-उधर बिखरी लकड़ियों को रात में आग सेंकने के लिए इक्ट्ठा करते रहे। धूप ढलती जा रही थी। हवा में ठंडक थी।
सुबह जब उठे तो किशन चाय बना चुका था। दाल की बड़ियों को उबालकर नाश्ता किया जाये, यह रात ही तय हो चुका था। अन्य साथी टैन्ट खोलकर सामानों की पैकिंग करने लगे। मैं और किशन नाश्ता तैयार करते रहे। पैकिंग निबटाकर नाश्ता किया और मोरा सोर से आगे बढ़ लिये। मोरासोर से जब चले, जलंधरी हमारे बांयें हाथ पर थी। गंगनानी के नजदीक ही लकड़ी के पुल से जलंधरी को पार किया और जलंधरी हमारे दांयें हाथ पर। भोज पत्रों के वृक्ष जो मोरा सोर से दिखने शुरु हुए थे, क्यारकोटी से थोड़ा पहले तक दिखायी देते रहे। यानी लगभग 12000 फुट की ऊंचाई पर हम चल रहे थे। मोरा सोर से मैं कभी किशन के साथ तो कभी धर्म सिंह के साथ चलता रहा। झाला में सुनी गयी बीरासिंह की कथा मेरी बातचीत का विषय बनी हुई थी।

बीरा सिंह झाला का सयाणा, थोकदार था। झाला में उसकी पांच मंजिला इमारत आज भी मौजूद है। झाला वाले उसका नाम आदर से लेते हैं। औजी उसके गीत गाते हैं। पर बड़ासू! बड़ासू बीरा सिंह का दुश्मन है- धर्म सिंह बताता रहा।
धर्म सिंह की बातों में आने वाले संदर्भों के हिसाब से बीरा सिंह को विलसन का समकालीन ही होना चाहिए। उस समय पहाड़ के इस पार झाला और दूसरी ओर की घाटी में यमुना के पार बड़ासू वाले अपनी भेड़ बकरियों को पहाड़ की दोनों ओर की ढलानों पर चुगाने के लिए बर्फ के गल जाने के पर पहुंचते थे। वहीं वक्त-बे-वक्त एक दूसरे की भेड़ बकरियों को बल पूर्वक हांक लेजाने पर दोनों ही ओर के लोगों के बीच ठनी रहती थी। वैसे नाते-रिश्तेदारियां भी झाला और बड़ासू वालों के बीच आम थी।
धर्म सिंह के ही मुताबिक बीरा सिंह की एक बहन बड़ासू में ब्याही हुई थी। बीरा सिंह के बारे में धर्म सिंह का कहना था कि वह झाला का ऐसा सयाणा था जिसने झाला वालों की खातिर बड़ासू वालों से दुश्मनी मोल ली। बीरा सिंह के रहते बड़ासू वालों की हिम्मत नहीं होती थी कि झाला वालों की बकरियों को हांक ले जायें। बस इसीलिए बड़ासू वालों ने एक दिन - जब बीरा सिंह अपनी बहन को सुसराल खेदने बड़ासू पहुंचा तो वहां घेर कर उसे खत्म कर दिया। हालांकि अपने ऊपर एकाएक हुए हमले का बीरा सिंह ने अपनी पूरी ताकत से प्रतिरोध किया पर अन्तत: वह मारा गया। बड़ासू में आज भी बीरा सिंह का स्मारक है। धर्म सिंह की इस कथा की सत्यता पर से पर्दा तो शायद बड़ासू जा कर ही उठे। कभी वक्त निकल पाया और जाना संभव हुआ तो अवश्य जाना चाहूंगा। देखना चाहूंगा बड़ासू में बीरा सिंह का स्मारक जैसे देखना चाहूंगा तिब्बत में लदृदाख के सामंत जोरावर सिंह का स्मारक, जो तिब्बत वालों की जीत का प्रतीक है।
बीरा सिंह की बहादुरी को लेकर जो कथा धर्म सिंह ने सुनायी, उसे सुनकर मुझे लगता है, बड़ासू और झाला वालों के बीच यदि वाकई कोई ऐसी दुश्मनी रही हो तो उसके कारणों को उस कथा में ढूंढा जा सकता है। बीरा सिंह बड़ासू की किसी स्त्री से प्रेम करने लगा था जो विधवा थी। बड़ासू वाले बीरा सिंह और उस स्त्री के बीच पनप रहे संबंधों को नाजायज मानते थे। इस बाबात उन्होंने बीरा सिंह तक अपनी नाराजगी उसकी बहन के मार्फत भी पहुंचायी। बहन ने भी एक विधवा से बीरा सिंह को संबंध न बनाने के लिए बार-बार कहा पर बीरा सिंह का मन उससे जुड़ता चला गया और बड़ासू वालों की नाराजगी जो लगातार धमकियों में बदलती चली गयी, उसने उसकी भी परवाह नहीं की। एक दिन सरेआम उस महिला को अपने साथ झाला लेकर निकल गया और अपनी पत्नी बना लिया। उसके बाद ही वह एक दिन गुस्से से उबल रहे बड़ासू वालों के बीच घिरकर मारा गया। उस स्त्री को लेजाने वाले दिन की घटना, जैसा धर्म सिंह ने बताया, बड़ी ही दिलचस्प है।
एक दिन बीरा सिंह जब अपनी बहन की सुसराल बड़ासू पहुंचा तो उसकी बहन ने बीरा सिंह को सूचना दी कि बड़ासू वाले बुरी तरह से खार खाये बैठे हैं और तेरी जान के दुश्मन बन गये हैं। मैं तुझ सरिखे भाई को अपने सुसरालियों के हाथों मरते नहीं देख सकती बीरा। तू उस स्त्री से अपने संबंध तोड़ दे बीरा। पूरी तरह से तोड़ दे बीरा। बीरा सिंह चुपचाप बहन को सुनता रहा। प्रेम जीवन का कोई ऐसा कार्य-व्यापार तो नहीं जिसे जब मन में आया जमा लिया और जब मन में आया उजाड़ दिया। बीरा सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि अपने भीतर ही भीतर बड़ासू वालों द्वारा दे दी गयी चुनौति का जवाब देने की तरकीब सोचता रहा। बहन ने बताया कि आज तेरे आने की खबर पर पूरा बड़ासू चौकन्ना है। गांव का हर मर्द तेरी जान का दुश्मन है। यह तय है कि यदि आज की रात तू उस ओर को गया भी तो चारों ओर हाथों में पाठल लिये तेरी फिराक में घूम रहे बड़ासू के मर्द तुझे जिन्दा न छोड़ें। तुझे मेरी कसम है बीरा, तू आज कतई नी जाना वहां।
गहन काली रात थी। बीरा की आंखों में नीद नहीं थी। प्रेमिका से मिलने की इच्छा उसे बेचैन किये हुए थी। चोर कदमों से उठते हुए किवाड़ खोल वह बाहर निकल आया। सामने यमुना का उछाल मारता जल शोर कर रहा था। बीरा सिंह के भीतर भी बहुत तेज उछल रहा था कुछ। बस जा पहुंचा अपनी प्रेमिका के पास। किवाड़ खड़खड़ाये।कौन ?बीरा सिंह।
भड़भड़ाकर खुल गये किवाड़। झट हाथ पकड़ उसने बीरा सिंह को भीतर खींच लिया।
तू क्यों आया बीरा। चला जा, चला जा। तुझे मार देगें वो। तू अभी निकल जा बीरा। मेरी खातिर तू अभी यहां से चला जा बीरा।
मंद मंद मुस्कराता रहा बीरा, निगाहों से शरारत करते हुए।
तू चला जा बीरा। तुझे मेरी सों। देख, तू अभी निकल जल्दी।
बीरा नहीं माना। तुझे भी मेरे साथ चलना होगा।
कहां ?

झाला।
क्या---!
हां, मेरी पत्नी बनकर।
लेकिन चारों ओर पहरा है। हमारा यहां से बाहर निकलना ही संभव नहीं।
उसके लिए तू निसफिक्र हो जा। बस बोल मेरे साथ चलेगी कि नहीं ?

क्षण भर को ही ठहरा होगा मौन कि ओबरे की दीवार फोड़ दी उस पहाड़ी स्त्री ने। खेत में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाली उस पहाड़ी स्त्री का शरीर ही नहीं उसका दिमाक भी दुगनी शक्ति से चल रहा था। नीचे गयी और गाय का मौल उस जगह लाकर ढोलने लगी जहां से दीवार फोड़ी गयी थी। घनी काली रात थी। अपने शिकार बीरा सिंह की फिराक में चौकीदार करते बड़ासू के बांकुरे कैसे अनुमान लगाते थे कि बीरा सिंह उसके पास पहुंचा हुआ है जबकि वह तो इस रात में भी जानवरों की गोठ में जुटी है।
जब गोबर का अच्छा खासा ढेर खड़ा हो गया और उसने निश्चित कर लिया कि इस पर छलांग लगाने के बाद भी बीरा सिंह के शरीर को कोई क्षती नहीं पहुंचेगी तो उसने ओबरे में बैठे बीरा सिंह को छलांग लगा देने को कहा। उसके इस तरह एकाएक गायब हो जाने और उसकी प्रतिक्षा में बैठे बीरा सिंह ने जब उसकी आवाज के इशारे पर ओबरे की टूटी हुई दीवार से झांका तो गोबर से सनी उस खूबसूरती पर उसकी निगाह अटकी की अटकी रह गयी, जिसकी निगाहों में उल्लास की चमक थी। बस, बीरासिंह ने छलांग लगा दी। गोबर में धंसी टांगों के कारण बीरा सिंह का बदन ज्योंही डगमगाने को हुआ गोबर सनी बांहों ने उसे थाम लिया। उसकी बांहों में अपनी संभली हुई देह को हटाने की इच्छा बीरा सिंह को हुई ही नहीं। उसके वश में होता तो इन क्षणों को गुजरने ही न देता। रात से पहले ही झाला की सरहद को छू लेना चाहिए। और सामने बहती यमुना को पार करने के लिए वे दोनों दबे कदमों से बढ़ने लगे। बीरा सिंह जब खुद कायर नहीं था तो किसी कायर स्त्री से प्रेम भी कैसे करता।
अपनी प्रेमिका को यूंही चुपके से उसे लेजाना गंवारा नहीं हुआ। एकाएक उसको न जाने क्या हुआ। दुबारा ओबरे में गया और लम्बे समय से एक कोने में गुमसुम पड़े उस ढोल को उसने उठा लिया जिसके बजाये जाने के लिए परम्परा के अनुसार एक मर्द की दो मजबूत भुजाओं की जरुरत होती है और फिर से उसने ओबरे के नीचे लगाये गये गोबर के ढेर पर छलांग लगायी।
अब वे दोनों यमुना के उस कच्चे पुल पर थे जिसे पालसिंयों ने भेड़ और बकरियों को पार ले जाने के लिए डाला हुआ था। नदी के बहाव से पैदा होती कम्पन और शरीर के भार से झूलते पुल को पार कर दोनों ही उस पहाड़ की तलहटी में पहुंच गये थे जहां से खड़ी चढ़ाई शुरु होती थी। लकड़ी का कच्चा पुल उन्होंने तोड़ दिया। जिस वक्त बीरा सिंह पुल की बल्ली को निकाल कर यमुना में बहा रहा था ढोल उसने अपनी साथिन को पकडा दिया था। तभी बीरा सिंह ही नहीं पूरा बड़ासू चौंक गया जब उसने एकाएक ढम-ढमाते ढोल की आवाज सुनी। गले में टंगे ढोल को पूरे उल्लास के साथ वह ढम ढमा रही थी। नदी के उस पार से ताकते बड़ासू वालों को चुनौति देकर दो युवा प्रेमी एकदम सामने खड़े थे और यमुना का तेज बहाव उनके दुश्मनों के होंसले पस्त कर रहा था।
धर्म सिंह की कथा समाप्त होने तक हमारे सभी साथी क्यारकोटी निकल चुके थे। धर्म संह के मुताबिक वे आज के पड़ाव पर पहुंच चुके होगें। क्यारकोटी खूबसूरत बुग्याल है जहां भेड़े चुग रही थी। साथी टैन्ट लगा चुके थे। क्यारकोटी में बारिस पड़ रही थी। ठंड ज्यादा थी। एक बार तो बादल इतना नीचे तक घिर आये कि हमारे टैन्ट भी ढक गये। कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। लेकिन ऐसा ज्यादा देर नहीं रहा और बादल छंटने लगे। रात के वक्त क्यारकोटी का हरापन, अंधेरे के बीच ढक गया। अपने टैन्टों में दुबके हुए हम भेड़ों की आवाज सुनते रहे। भले ही भेड़-चरवाहे भी अपनी कम्बलों के भीतर दुबक चुके थे पर स्मृतियों में भेड़ों को पुकारती उनकी सीटियां स्वप्न बुनती रही।


--जारी

Sunday, June 15, 2008

अपने वतन का नाम बताओ


विजय गौड

(22 जून को लददाख के अंदरुनी इलाके जांसकर की यात्रा पर अपने चार अन्य मित्रों के साथ निकल रहा हूं। जून और जुलाई के मध्य पिछले कई वर्षों से हम मित्र ऐसी यात्राओं पर निकलते रहे हैं। ऐसी ही एक यात्रा का विवरण प्रस्तुत है। तीन चार कड़ियों में ही यह संस्मरण पूरा होगा। जांसकर की यात्रा पहले भी कर चुका हूं। दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के अनुभव से जो रचनायें लिख पाना संभव हुआ, उसे कहानी और कविता के रुप में भी ढालता रहा हूं। उस श्रृंखला की कुछ कहानियां इधर-उधर प्रकाशित भी हुई हैं। पहल 72 में प्रकाशित उसी श्रृंखला की एक कहानी "जांसकरी घोडे वाले" इस संस्मरण के उपरांत, यात्रा में निकलने से पूर्व, यहां पुन: प्रकाशित करने का मन है। अभी प्रस्तुत है हर्षिल से छितकुल तक की यात्रा की प्रथम कड़ी। )


30 जून 2002 को हम देहरादून से चले और 8 जुलाई 2002 की शाम हिमाचल की किन्नौर घाटी के एक छोटे से गांव छितकुल पहुंच गये। छितकुल में लकड़ी के बने हुए घर बेहद खूबसूरत लग रहे थे। लेह-लद्दाख और कश्मीर के घरों की मानिंद छितकुल के मकानों के ऊपर के हिस्से में कांच की खिड़कियां ही दिखायी देती हैं जिनके ऊपर छज्जे जैसा, जो बारिस के पानी को रोक सके, नहीं था। छत का रूप उत्तरकाशी और हिमाचल के बीच पड़ने वाले लमखागा दर्रे की तरह- शंकुवाकार। वैसा ही दो बांहों में फैलता हुआ। कोई चित्रकार जैसे अपने चित्र में दूर उड़ते पक्षी को स्केच करते हुए सिर्फ दो रेखाओं से पक्षी की आकृति दिखा देता है। ठीक वैसे ही पंख खोलकर उड़ता पक्षी- छितकुल की छतें। किसी-किसी मकान के पीलरों पर, किनारियों पर नाशी की गयी। उत्तरकाशी की ओर से आते हुए लमखागा दर्रे को पार कर लगभग दो दिन के रास्ते पर आईटीबीपी की चैक-पोस्ट पड़ती है- नागेस्ती, जहां से छितकुल दिखायी देने लगता है। थोड़ा आगे बढ़ो तो खेतो में निराई-गुड़ाई करती किन्नरियां भी दिखने लगती हैं। दूसरे पहाड़ी इलाकों की तरह यहां भी ज्यादातर काम स्त्री के ही जिम्मे हैं। पहाड़ की स्त्रियां दुनिया के वे सभी काम बड़ी ही सहजता से करती हैं जिन्हें मैदानी इलाकों में पुरुष निबटाते हैं। मसलन घास के बड़े-बड़े पूले सिरों पर उठाये उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना, जंगलों से लकड़ी लाना। तीखी ढलानों पर खड़े हुए पेड़ भी पहाड़ी स्त्री के भीतर वैसा खोफ पैदा नहीं कर सकते। शरीर को हल्का-सा उछाला और दनादन-दनादन ऊपर चढ़ती चली गयी। इस सबके बावजूद घर के चूल्हे चौके से लेकर बच्चों की देखभाल तक उन्हीं के जिम्मे। फाफर छितकुल की मुख्य फसल है। गेहूं उगाया जाता है पर धान नहीं। घरों के आस-पास हरी सब्जी, मूली और गोभी आदि भी गांव वाले बोते ही हैं। नागेस्ती चैक-पोस्ट से गांव की ओर बढ़ते हुए गांव के द्वार पर बौद्ध कला का नुमाना दिखायी देता है- द्वार पर लामाओं की रंगी आकृतियां उकेरी गयी हैं। द्वार को देखकर छितकुल वालों को बैद्धिष्ट माना जा सकता है। लेकिन गोव में पहुंचकर मालूम हुआ कि छितकुल वाले न तो पूरी तरह से बैद्धिष्ट हैं और न पूरी तरह से हिन्दू। गांव में गोम्पा है जिसमें वर्ष 2000 में चोरी हुई। चोर बुद्ध की कांस्य प्रतिमा चुरा ले गये, अन्तराष्ट्रीय बाजार में जिसकी अच्छी-खासी कीमत मिल सकती है। गोम्पा से उत्तर-पूर्व दिशा में लकड़ियों से बने देवी के मन्दिर को भौगोलिक रुप से गांव का केन्द्र कहा जा सकता है। लकड़ियों का यह मन्दिर इतिहास में छितकुल के राजा का महल था, ऐसा गांव के एक युवक ने बताया। मन्दिर कौन-सी देवी का है ? कोई स्पष्ट जवाब नहीं। सिर्फ देवी। देवी के मन्दिर में पुजारी है। गोम्पा की जिम्मेदारी लामा पर। हमारी यात्रा के दौरान कोई भी लामा वहां नियुक्त नहीं था। गांव का ही एक लड़का जो शास्त्रीय रुप से लामा नहीं था पर अस्थायी तौर पर लामा का काम देख रहा था। मन्दिर में सुबह-सुबह पुजारी पूजा करता है। पूजा के वक्त ढोल, दमाऊ और थाली को जोर-जोर से बजाया जाता है। गांव के कुछ लोग अपने को हिन्दू मानते हैं और कुछ बौद्ध। मन्दिर और गोम्पा सभी के तीर्थ है। मालूम हुआ कि छितकुल की ही तरह एक गोम्पा और एक मन्दिर किन्नौर के हर गांव में है। ऐसा छितकुल से करछम आते हुए बस में बैठे सहयात्री ने बताया, जो छितकुल का ही रहने वाला था और ऐसा दिखायी भी देता रहा। सहयात्री अपने को पहले हिन्दू बता रहा था फिर बौद्ध, जबकि गांव में ही मिला एक युवक अपने को पहले बौद्ध बता रहा था फिर हिन्दू। यानी हिन्दू और बौद्ध साथ-साथ। दोनों धर्मों को स्वीकारना दोनों की बातचीत में था। किन्नौर में एक ही जाति नाम है- नेगी। नेगी ही पूजारी, नेगी ही राजपूत और नेगी ही बाजी। इसे बौद्ध धर्म का ही प्रभाव माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था यहां मौजूद नहीं है। फिर भी कहीं भीतर छुपा बैठा हिन्दू धर्म है जो उन्हें आपस में बांटे हुए है। जिस गेस्ट हाऊस में रुके, वहां खाना पहुंचाने वाला तो अपने को गर्व से कुंवर नेगी कह रहा था। वह यह भी कह रहा था कि हमारे पूर्वज मूल रुप से माणा के हैं जो किन्नौर में विस्थापित हुए। ऐसी ही बात गांव के अन्य लोगों से भी सुनने को मिली पर इसका ऐतिहासिक प्रमाण किसी के पास भी नहीं था।


विलसन जहां रुका, हम वहां से चले। हमें कहीं भी नहीं रुकना था। सिर्फ चलते जाना था। तो फिर हर्षिल में ही क्यों रुकें ?मोनाल पक्षी के पंखों का व्यापार हमें नहीं करना। देवदार वृक्षों को काटकर हमें मुद्रा इक्टठी नहीं करनी है । कस्तूरी का आकर्षण- हम उसे देख भर लें, बस। उसे मारने की हमें कोई जरुरत नहीं। हमें, कस्तूरी, मोनाल दिख भर जायें तो धन्य हो जायें।

हमारा कोई उपनिवेश नहीं और न ही उपनिवेश बनाने की खवाइश। जबकि दुनिया को उपनिवेश बनाने वाले आज नये से नये कुचक्र रच रहे हैं। हमारी निगाहें भी जिन्हें देख पाने में असमर्थ हैं।

चूंकि हमें कहीं नहीं रुकना था, इसीलिए तो 30 जून 2002 की सुबह जब देहरादून से चले तो कहीं भी नहीं रुके। सीधे उत्तरकाशी में ही बस से उतरे थे। मौसम बारिस का होने की वजह से बादल छाये हुए थे। अगले दिन पोर्टर आदि की व्यवस्था हो जाने के बाद हर्षिल की ओर बढ़ लिये। किन्नौर का एक छोटा-सा गांव- छितकुल, जहां पहुंचना था हमें। लेकिन रुकना वहां भी नहीं। हर्षिल से ही शुरु होता है वो मार्ग जो पांवों के जोर पर लमखागा पास को पार करते हुए छितकुल पहुंचायेगा।
कहां तक जाना है आज ?
मोरा सोर।
आज का पड़ाव मोरा सोर।
हमें यूंही रुकना है और चलते जाना है। तभी पहुंचेगें छितकुल।
छितकुल तो हम बस से भी जा सकते थे। बस का रास्ता तो शिमला होकर है। बस में ही लदकर शिमला होकर लौटना है देहरादून। तो फिर हर्षिल से ही क्यों जा रहे, पैदल! वो भी ऐसे इलाके से जो निर्जन है। जीव तो दूर वनस्पिति भी नहीं। मौजूद है तो सिर्फ मौरेन, बर्फ, पत्थर और जली हुई चट्टाने ही। आखिर क्या चीज है जो हमें आकर्षित करती है और जिसके पीछे भागे चले जाते हैं ?
पहाड़ों पर घूमना इसलिए शुरु नहीं किया कि पहाड़ी जीवन का हिस्सा हो जांऊ। चमकीला, हरहराता मौसम, पहाड़ों की ऊंचाई, बर्फ, पहाड़ों के लोग, एक तरह के जोखिम से गुजरने की इच्छा कहीं न कहीं भीतर तैरने लगी। मुसिबतों के पहाड़ हमारी जिन्दगी का हिस्सा न हो जायें, तभी तो भागे थे पिता पहाड़ छोड़कर। उनका भागना सही था या गलत, इस बात पर कभी नहीं उलझा। इधर बचचपन छूटा तो पहाड़ी 'कज्जाकों " का जीवन आकर्षित करने लगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि अपने भीतर के जंगलों से बाहर निकलने का क्रम ही मेरी यात्रायें हैं। जिसकी स्मृतियां हर वक्त मथती रहती हैं और जीवन को गति देती हैं। पहाड़ों की यात्रायें मेरे लिए मुक्ति की कामना भी नहीं। यात्राओं के बहाने ही तो मैं अक्सर अपने अतीत में झांकने की कोशिश करता हूं। मां, पिता, चाचा, चाची और ढेरों पहाड़वासियों की उस जिन्दगी में झांकना चाहता हूं जो उन्हें पहाड़ छोड़ने को मजबूर करती रही है। मुझे लगता है इसे जानने के लिए दुनियाभर के पहाड़ों से पलायन करते लोगों की जिन्दगी में झांकना होगा। किसी भी देश का पहाड़ी जीवन तो उस देश के कुलीन जीवन से अलग है।

हर्षिल में ही रुका था विल्सन। नालापानी-खलंगा के युद्ध में अंग्रेज जीत गये। गोरखे हारे थे। राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मद्द की। तोहफा तो मिलना ही था। अंग्रेज व्यापारी थे। चालाक थे। टिहरी राजा के स्वतंत्र अस्तित्व को कैसे स्वीकार करते। श्रीनगर राजधानी वापिस नहीं दी जा सकती थी। पर वफादारी का तोहफा क्या हो ? लिहाजा अन-उपजाऊ ढंगारों वाला हिस्सा, जो अलकनन्दा के दांये तट पर पड़ता है, सुदर्शन शाह को दे दिया गया। राजधानी श्रीनगर नहीं रही। नई राजधानी कहां हो ? और भागीरथी-भिलंगना का तट टिहरी रियासत की राजधानी बना। पूर्व दिशा में सीमा मंदाकनी नहीं रही। मंदाकनी के दांयें तट का उपजाऊ भाग भी अंग्रेजों ने अपने पास ही रखा। रवांई अभी राजा को नहीं सोंपा गया था। बाद में प्रशासनिक दितों की वजह से राजा को सोंपना पड़ा। यूं, राज तो राजा का ही रहा पर ब्रिटिश हस्तक्षेप भी जारी रहा। उसी दौरान अपनी बीमारी को ठीक करने विलसन टिहरी पहुंचा और हर्षिल के नजदीक मुखवा-धराली में ही रुक गया। मालूम नहीं शारीरिक बीमारी ठीक हुई या नहीं पर आर्थिक बीमारी को तो वह ठीक करने ही लगा। कस्तूरी मृगों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा और उनकी कस्तूरी निकाल ली। हांका लगाने के लिए स्थानिय लागों का इस्तेमाल किया। लट्ठों को नदीयों के बहाव के साथ मैदानों तक पहुंचाने वाला वह पहला व्यक्ति कहा जा सकता है। पेड़ों के लट्ठे नदी के बहाव के साथ हरिद्वार पहुंचने लगे। मुखवा-धराली के पास जब उसकी समानान्तर सत्ता चलने लगी तो "हुल सिंह साहब" या 'हुल सिंह राजा" के नाम से जाना जाने लगा। मुखवा के एक बाजी की लड़की से विवाह किया। हम जहां से निकल रहे हैं उसके दांयें हाथ पर विलसन कॉटेज। जो अब उजाड़ हो चुका है। सुनते हैं पिछले कुछ वर्ष पूर्व उसमें आग लग गयी थी। इसीलिए अभी वो रुप नहीं।

--जारी

Thursday, June 12, 2008

नदी को बहता पानी दो

(आज ज्यादा कुशलता से जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करती व्यवस्था का चक्र बड़ी तेजी के साथ घूम रहा है। प्रतिरोध की कार्यवाहियों में जुटी जनता के संघर्षों का दौर भी हमारे सामने है। एक समय पर चिपको आंदोलन की पृष्ठभूमि में जंगलो को बचाने की लड़ाई लड़ने वाला उत्तराखण्ड का जनमानस आज नदी बचाओ आंदोलन की आवाज को बुलन्द कर रहा है। अशोक कबाड़िये ने जिस अतुल शर्मा को अपने कबाड़ में से ढूंढ निकाला था वही अतुल शर्मा नदियों के बचाव के इस आंदोलन में अपने गीतों के साथ है। अतुल शर्मा के मार्फत ही नदी बचाओ आंदोलन की उस छोटी सी, लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश को हम जान सकते है। अतुल मूलत: कवि है। जो कुछ यहां है, वह कविता नहीं है पर कविता की सी संवेदनाओं से भरे इस आलेख को रिपोर्ट भी तो नहीं कहा जा सकता।



अतुल शर्मा 09719077032


अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्ट्ठा हों


नदियों पर बांध बनेगें ---! छोटे-छोटे बांध। उससे बिजली उत्पादन होगा। बिजली सबके लिए जरुरी है। तो फिर क्यों हुआ इन बांधों को लेकर विरोध ? विरोध भी ऐसा कि गांव का गांव इक्टठा हो गया। पुरुषों से ज्यादा महिलायें थी मार्चों पर। गांव को बचाने के लिए उनके सब्र का बांध टूट गया और वे सभी सड़कों, पगडंडियों और घरों से बाहर आ गये। खुले आकश के नीचे। क्या उन्हें बिजली नहीं चाहिए ? यह सवाल पिछले आठ साल से मेरे साथ रहा। पर उसके उत्तर भी मुझे मिलते रहे। विरोध करने वालों से ।

एक लघु जल विद्युत परियोजना में पूरी नदी को सुरंग में डाला जाता है और मिलों दूर से आने वाली नदी सूख जाती है। बिजली बनाने के लिए जितना प्रवाह चाहिए, उससे ज्यादा लिया जाता है। अब नदी के आस-पास के गांव सूख जाते हैं। सुरंग बनाने के लिए होने वाले धमाकों से स्रोत भी सूखने लगे। नदी के आस-पास के दस गांव जल संकट और खेतों और मकानों पर पड़ी दरारों के साथ जैसे-तैसे जीते रहे।

दरारों वाला जीवन जीते हुए उन्होंने बहुत सहा भी और कहा भी। पर क्योंकि बिजली जरुरी थी इसलिए नदी को सुरंग में डालना जरुरी था। गांवों को विस्थापन का जहर पीना था। विस्थापन के लिए कोई ठोस नीति पर बात नहीं हो रही थी। टिहरी बांध जैसे बड़े बांधों में आज भी विस्थापन की समस्या, समाधान के लिए भटक रहे हैं लोग।

कुमाऊ से लेकर गढ़वाल तक कई बांधों का काम निजि कम्पनियों को सोंप दिया गया। मुनाफे के लिए और बिजली उत्पादन के लिए काम शुरु हुआ ही था कि अपनी बुनियादी समस्याओं को लेकर लोग सामने आ गये।

यह आठ साल पुरानी बात है। टिहरी के फलेण्डा गांव में बांध बनना था। गांव और प्रशासन आमने-सामने थे। लोग भाषणों से अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। प्रशासन चुपचाप सुन रहा था। फिलहाल। भाषणों का सिलसिला कितना चलता ? वहीं के लोगें के साथ नुड़ नाटक जत्था तैयार किया गया। दिल्ली से आये राजेन्द्र धस्माना (पूर्व समाचार सम्पादक दूर दर्शन दिल्ली) ने बताया कि जब नाटक एक सुदूर गांव में जन-मानस को उद्वेलित कर रहा था, तो मैंने पूछा, "तुम अतुल को जानते हो ? अतुल शर्मा।" उन्होंने बताया कि उन्होंने ही तो हमें यह नुक्कड़ नाटक तैयार कराया है। नाटक का नाम था, क्या नदी बिकी। उन्होने ने ही बताया था कि इस आंदोलन का पहला गीत अतुल ने ही लिखा, "अब नदियों पर संकट है, सारे गांव इक्टठा हो ---। "

यह "सारे गांव इक्टठा हों" एक जिजीविषा से भरे आंदोलन का सार्थक नारा बन गया।

नदी बिकी भई नदी बिकी

अब "नदी बचाओ आंदोलन" के तहत व्यापक रणनीति बननी शुरु हुई। नदियों में "कोसी", अलखनन्दा, जमुना, भिलंगना, भागीरथी पर बनने वाले दर्जनों बांध सवालों के घेरे में खड़े कर दिये गये। यह गांव के लोगों की ही ताकत थी।

जो तकलीफ में होता है - अगर वही बोलेगा तो निश्चित उसका सार्थक और व्यवहारिक असर होगा।

अगर नदियों के आस पास संसकृतियां पलती थी तो आज नदियों के आस-पास सूखा पड़ा है। कुछ लोगों ने तो यह तक कहा कि ऐसा ही रहा तो गंगा दिखेगी नहीं।

जंगलों, वन्य जीवों और नदी के भीतरी संसार को तहस नहस करने वाली भागेवादी सभ्यता को व्यवहारिक स्वरूप् मिलेगा - ऐसा नदी के किनारे रहने वाले लोगों का कहना है। उन्हें छोटे बांध से आपत्ति नहीं है। पर उनकी कार्यशैली और उनकी भागीदारी पर सवाल जरुर है।

नदी को बेचकर, जंगलों, पहाड़ों और श्रम और श्रमिक को खरीदकर पूरे वर्तमान को परेशानियों में डालना कुछ लोगों के लिए ठीक होगा, पर भविष्य के लिए यह खतरे की घन्टी है।

कहते हैं अगला विश्व युद्ध पानी की समस्या को लेकर हो सकता है ---। ऐसा न हो, ऐसा चाहते हैं लोग। बहुत से लोग। बोलने वाले लोग। आवाज उठाने वाले लोग।

पर इस सबके लिए "बीच तूफानों" में जाना होगा। "नदी बचाओ आंदोलन" में गांव की ही प्रमुख भूमिका है। वे अपनी जीवन रेखा, "नदियों" , को बचाना चाहते हैं। स्वंय को बचाना चाहते हैं और भविष्य को भी बचाना चाहते हैं। इनके साथ राधा भटट, सुरेश, राजेन्द्र सिंह, रवि चोपड़ा, शमशेर सिंह, गिर्दा, नरेन्द्र नेगी, शेखर पाठक, अनुपम मिश्र भी मजबूती के साथ खड़े हैं।

गांव और नदी के साथ मेरे आठ साल के संस्मरण हैं। जिन्हें नदी दर नदी और गांव दर गांव पहुंचकर लिखा है और वहीं सौंप दिया है। यह उसका परिचय भर है।

---आज गांव के लोगों के लोक जलनीति को मसैदा तैयार किया और शासन प्रशासन को सौंपना चाहा। उन्हें सबको गिरफ्तार किया गया।

"यहां कोई जलनीति नहीं है ।।।।"

इसीलिए मेरा एक जनगीत लोगों के काम आता है -

नदी को बहता पानी दो
हर कबीर को वाणी दो
सिसकी वाली रोतों को
सूरज भरी कहानी दो।
अब शब्दों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों
आवाजों पर संकट है
सारे गांव इक्टठा हों

गांवों के घरों की छोटी बड़ी दीवारों पर आंदोलनी परम्पराओं से लिखा यह गीत सिपाही की तरह काम कर रहा है।

इस जत्थे को लेकर, हम खटीमा, नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी, बागेश्वर होते हुए श्रीनगर, नई टिहरी, देहरादून, फलेण्डा, बूढ़ा केदार, घनसाली, झाम, चिन्याली सौड़, रुड़की, धरासू, उत्तरकाशी, बड़कोट, नौगांव, मोरी, पुरोला और फिर प्रभावित गांवों में गये। इसकी पुस्तकें-पोस्टर बटे। अब यह जत्था अपने नये तेवर के साथ स्वंय आवाज उठा रहा - नदियों के मार्फत जीवन के समर्थन में ---।

Tuesday, June 10, 2008

बुलाकी का उस्तरा और राजधानी

व्यंग्य कथा

दिनेश चन्द्र जोशी 09411382560


बुलाकी को आप नहीं जानते होंगे,जानेंगे भी कैसे, कभी फुटपाथ में सिर घोटाया होता तो जानते भी। बहरहाल बुलाकी को जनवाने के लिये मैं आपका सिर नहीं घुटवाउंगा, आप निश्चिन्त रहें,हां,इस कथा को पढ़ने की जहमत अवश्य करें।

बालों की फ़िसलन पर

बुलाकी के बाप दादा गांव के पुश्तैनी नाई थे। गांव के जमीदारों,सेठ साहुकारों की हजामत बनाया करते थे.लोग कहते हैं उनके उस्तरे में ऐसी सिफत थी कि पता ही नहीं चलता था कब उस्तरा चला और बिना खूं खरोच के अपना काम कर गया। रही बात कैंची की, सुना है ऐसी चलती थी कि पचास फीसदी बाल कम हो जाने के बाद भी पता नहीं चलता था कि बाल कम हुए हैं. यानी कि बाल कट भी जायें और कटिंग हुई कि नहीं इस बात का पता भी न चले।

पहली छब्बीस जनवरी यानी आजाद नाऊ

इस फने हजामत के एवज में उन्हें इनाम इकराम भी खूब मिला करता था. सो, कहा जाता है कि बुलाकी के दादा के जमाने में घर की माली हालत अच्छी थी। बुलाकी के बारे में एक बड़ा दिलचस्प वाकया यह था कि सन पचास में जिस दिन पहली छब्बीस जनवरी मनाई गई,उसी दिन बुलाकी का जन्म हुआ। आजादी की लहर का जोर था और दूर दराज के कस्बों गांवों तक छब्बीस जनवरी मनाये जाने की खबर थी,सो इस कारण बुलाकी की जन्म तिथि लोगों की जुबान पर रट गई यहां तक कि शुरू शुरू में बुलाकी को गांव में कुछ लोग "आजाद नाऊ" के नाम से भी पुकारते थे। आजादी के बाद बुलाकी के बाप दादा का धन्धा हल्का पड़ गया,जमीदारों सेठ साहुकारों का रौबदाब घट गया,उनकी मूछों का बांकपन कम हुआ और हजामत के काम में भी वो बात नहीं रही जो पहले थी,सो बुलाकी के बाप को गर्दिश के दिन देखने पड़े।
थोड़ी बहुत खेती पाती और थोड़ा हजामत का काम चला कर बुलाकी के बाप ने किसी तरह बुलाकी व उसके भाई बहिनों को जवानी तक ला खड़ा किया। हजामत के फन में बुलाकी ने भी पुश्तैनी महारत अवश्य हासिल कर ली थी, लेकिन गांव में हजामत बनाने वालों, बाल कटवाने वालों और सिर घुटाने वालों को कस्बे और शहर की सैलून का फैशन भाने लगा था, दो चार बुजुर्गों व सयानों की खोपड़ी व हजामत के भरोसे बुलाकी का उस्तरा कब तक अपना काम चलाता,ऐसे नामुराद वक्त में एक रोज बुलाकी ने अपनी हजामत वाली बक्सिया उठाई और गांव के पास वाले नजदीकी कस्बे की ओर रूख कर लिया। कस्बे के चौराहे पर बरगद के पेड़ तले मौका देख कर उसने अपनी चटाई तथा हजामत वाली बक्सिया जमा दी।
कस्बे में बुलाकी का धन्धा ठीक ठाक चल पड़ा,कस्बे की आवादी गांव से कई गुना ज्यादा थी। आस पास के गावों से कई लोग कस्बे में सौदा सुलुफ,डाक्टर,हकीम तहसील,स्कूल, नून तेल राशन के चक्कर में आते थे। लगे हाथों कटिंग,मुंडन व हजामत भी बना लेते थे। बुलाकी एक तो सस्ता था ऊपर से मौके की जगह पर बैठा करता था,सो उसके उस्तरे की धार चमकने लगी। बाल तो वो काटता ही था लेकिन जो मजा उसे सिर घोटने में आता था,वो बात हजामत आदि में नहीं थी, सिर घोटने का तो वह एक्सपर्ट ही था। घोटते वक्त जब वह मस्ती में आ जाता था तो घुटे हुए सिर के इंच इंच हिस्से को उंगलियों से चटखाता मालिस करता हुआ चहक उठता था, ग्राहकों से कहता, "भय्या हम आदमी को चेहरा देख कर नहीं खोपड़ी देख कर पहचानते हैं, और अगर घुटी हुई खोपड़ी हो तो कहने ही क्या। एक बार जिस खोपड़ी को हमारा उस्तरा देख लेता है उसे ताजिन्दगी नहीं भूलता। चेहरा पहचानने में हमसे गल्ती हो सकती है,लेकिन खोपड़ी पहचानने में कतई नहीं होगी। आखिर भय्या,खोपड़ी ही तो हमारी रोजी रोटी है, रोजी रोटी को नहीं पहिचानेंगें तो जिन्दा कैसे रहेंगे।"

चेहरे से नही खोपडी से होती है आदमी की पह्चान

कस्बे में बुलाकी की दिनचर्या बड़ी मजेदार चल रही थी,लेकिन एक रोज ऐसा वाकया हुआ कि कस्बे से उसका मन उचट गया। हुआ यूं कि उस दिन सुबह सुबह बौनी के वक्त एक गोल मटोल भारी आवाज व सख्त गलमुच्छों वाली खोपड़ी बुलाकी के समक्ष घुटने के वास्ते प्रस्तुत हुई, खोपड़ी रौबीले अन्दाज में बोली, "ऐ नाऊ जी, फटाफट हजामत बनाओ,और सिर घोटो, जल्दी करो यह काम, टैम नहीं है।"
बुलाकी का उस्तरा यूं भी तैयार ही बैठा था,उसने चेहरे पर ज्यादा गौर न कर फटाफट हजामत बना दी, उसके पश्चात सिर घोटने लगा। यह सिर सामान्य सिरों से कुछ ज्यादा ही बड़ा व गोल मटोल था। इसे घोटने में बुलाकी को बड़ा मजा आया।
काम हो चुकने के बाद भारी भरकम आवाज वाली वह खोपड़ी सिर पर चादर लपेट कर,बुलाकी के हाथ में पांच का नोट पकड़ा कर चलती बनी, बकाया पैसे लौटाने के लिए उसने आवाज मारी,पर खोपड़ी इतनी त्वरित गति से चली गई कि बुलाकी को वे पैसे रखने ही पड़े। बुलाकी को वह व्यक्ति कुछ रहस्यमय कुछ संदिग्ध कुछ भयानक तो अवश्य लगा लेकिन अन्य ग्राहकों में व्यस्त हो जाने के कारण उसके दिमाग से यह बात जाती रही।
उसी दिन दोपहर तीन बजे के लगभग दो पुलिस वाले बुलाकी के पास अकड़ते हुए आये और एक मुच्छैल भयानक किस्म के आदमी का फोटो दिखाते हुए बोले, "देखो, ये आदमी तुम्हारे पास हजामत बनाने तो नहीं आया था।"
बुलाकी ने फाटो को गौर से देखा, चेहरा गलमुच्छों से इतना भरा हुआ था कि स्पष्ट रूप से नजर ही नहीं आ रहा था, हां, सिर का आकार लगभग वैसा ही था।
बुलाकी बोला, "हुजूर, चेहरे पर तो हम ध्यान नहीं दिये,लेकिन एक मूछों वाला आदमी सुबह सुबह बौहनी के वक्त आया था, वह हजामत बनवा ले गया साथ ही सिर भी घुटवा ले गया,हमारे हाथ में पांच का नोट रख कर चला गया। उसके घुटे हुए सिर की तस्वीर हो तो हम पा बता सकते हें कि वही आदमी था।"
पुलिस वाले बुलाकी पर बिगड़ गये,बोले,"तुम साले कैसे नाई हो, आदमी का चेहरा न पहचान कर खोपड़ी पहचानते हो, आईन्दा से चेहरा पहचाना करो, और स्साले गुंडे बदमाशों से घूस लेते हो." उन्होंने बुलाकी को डराया धमकाया साथ ही उसको दो डंडे जमाते हुए बोले,जानते हो वो आदमी जिले का एक नम्बरी गुंडा है,दसियों हत्याओं का इल्जाम है उसके उपर जिसकी तुमने हजामत बनाई है।"
बुलाकी बोला,"सरकार आईन्दा ऐसी गल्ती नहीं करूंगा और चेहरा देख कर उस्तरा चलाउंगा।"


समय सिखा देता है जीवन के रंग ढंग

इस घटना से बुलाकी बेहद परेशान व चिन्तित हो उठा, कस्बे से उसका जी उचट गया। उसके दिल में कस्बे से पलायन की हूक उठने लगी। इस बावत उसने जुगाड़ भी लगाना शुरू कर दिया। नतीजा यह निकला कि उक्त घटना को घटे दो माह भी नहीं बीते होंगे कि बुलाकी जी, कस्बे से कूच कर अपने जिला मुख्यालय की कचहरी के बाहर एक चबूतरे के कोने में अपनी चटाई और बक्सिया सहित जम गये।
जिला मुख्यालय का तो नजारा ही कुछ और था, फिर कचहरी के तो कहने ही क्या।
मुवक्किल, मुहर्रिर वकीलों, पेशकारों के अलावा शहर, गांव, देहात के लागों का रेला हर समय लगा रहता था। पान,सिगरेट,फल चाय,समोसा खस्ता पूड़ी वालों की दिन भर चांदी रहती थी।
चबूतरे के पास ही पीपल के नीचे तीन चार नाई और बैठते थे, उनके पास बकायदा कुर्सी,शीशा,तौलिया व हजामत वाली क्रीम आदि भी थी। उनकी आमदनी भी ठीक थी। बुलाकी ने फिलहाल अपनी चटाई व बक्सिया से ही काम चलाना शुरू किया। उसके हुनर व कारीगरी से प्रसन्न हो कर ग्राहकों की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी. सो जिला मुख्यालय में बुलाकी का काम बढिया चल निकला। समय का पहिया चलता रहा और कब जिला मुख्यालय में बुलाकी को चार पांच वर्ष बीत गये,पता ही नहीं चला।
इस बीच बुलाकी ने वकीलों ,बाबुओं, अफसरों के घर जाकर छुट्टी के रोज उनके बाल काटने का कार्य प्रारम्भ कर के 'डोर टू डोर' सेवा प्रारम्भ कर दी। यहां तक कि उसने दो एक जजों को भी अपने हुनर से प्रसन्न करके उनको नियमित ग्राहक बना लिया था। इस दौरान वह शहरी शिष्टाचार,सीप शउर,चुश्ती नर्ती, बोली बानी व चुतराई से भी वाकिफ हो गया था। उसका भोला देहातीपन कम होता गया और एक शहरी तेज तर्रार किस्म के आदमी के व्यवहार की नकल उसको भाने लगी। अपने उस्तरे के फन की बदौलत उसने कुछ रकम भी जोड़ ली थी सो अपने स्टैन्डर्ड में कुछ इजाफा किया और चटाई बक्सिया के बदले कुर्सी,शीशा व तौलिया वाला स्टेटस हासिल कर लिया।

मेरा मुंडन कोई न कर पायेगा

बुलाकी के राजधानी में बैठने की व्यवस्था क्या हुई कि उसने अपने मृद व्यवहार और मेहनत से आस पास के दुकानदारों,ठेले रेहड़ी पान वालों से दोस्ती गांठ ली, धन्धा भी धीरे धीरे चलने लगा,ग्राहकों की संख्या में आहिस्ता आहिस्ता बृद्धि होने लगी। बुलाकी का परिचय क्षेत्र बढ़ने लगा, राजधानी उसे रास आई। महीने दो महीने में सामूहिक घुटन्ना करवाने वालों की भीड़ चली आती थी। बुलाकी के उस्तरे को अपने करतब का भरपूर प्रदर्द्रान करने का मौका मिलने लगा। उसके अतिरिक्त कैंची का कमाल और हजामत का हूनर भी फलदायी साबित हो रहा था, लिहाजा राजधानी में बुलाकी प्रसन्न था,आमदनी भी बढ़ती जा रही थी। बुलाकी ने 'डोर टू डोर' सर्विस यहां भी जारी रक्खी। छुट्टी के दिन वह आसपास के रिहायशी इलाकों में जाकर सेवा प्रदान कर आता था, इसी सिलसिले में उसने विधायक निवास व मंत्री आवासों तक अपनी पंहुच बना ली थी। वहां पर विधायकों, नेताओं, छुटभय्यों, चमचों व क्षेत्र से आये हुए कार्यकर्ताओं समाजसेवकों, सेविकाओं, खक्ष्रधारियों, गुंडे बदमाशों, मुच्छैल हट्टे कट्टे विशालकाय महापुरूषों की भीड़ भाड़ व आवाजाही लगी रहती थी। वे लोग, दाड़ी हजामत बाल बनवाने हेतु बुलाकी की सेवायें प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार राजधानी में बुलाकी पूरी तौर पर फिट हो चुके थे । राजनैतिक क्षेत्र में भी उनके उस्तरे ने दबदबा बना लिया था। कारोबार भी उसने बढ़ा लिया था, लकड़ी की पक्की दुकान बना कर उसमें शीशा,कुर्सी,कलेन्डर क्रीम,तौलिये का इंतजाम करके दुकान को 'सैलून' का दर्जा दिलवाने योग्य अर्हतायें प्राप्त कर ली थी। एक दो लड़के भी सहयोगी के तौर पर रख लिये थे। कुल मिला कर बुलाकी जी राजधानी के सुपरिचित नागरिक बन गये थे,सिर्फ गांव से बच्चों को लाने की देर थी। जमीन के एक टुकड़े पर छोटी सी कुटिया बनाने की योजना भी उनके दिमाग में आकार लेने लगी थी। इस सारी उन्नति व जमजमाव के चलते बुलाकी को राजधानी में आये हुए आठ दस वर्ष हो गये थे। गांव से कस्बे को कूच करते युवा बुलाकी अब अधेड़ावस्था में पदार्पण कर चुके थे। बालों में सफेदी आ गई थी, चेहरा प्रौढ़ हो गया था, आंखों से उम्र व अनुभव की झलक नजर आने लगी थी। उस्तरा निरन्तर कार्यरत था, आये रोज उस्तरे को राजधानी के अनेकों महापुरूषों के मुंडन करने का सौभाग्य प्राप्त होता जा रहा था।
इसी क्रम में एक रोज बुलाकी के पास कालीदास रोड स्थित मंत्री आवासों में तत्काल पंहुचने का आदेश प्राप्त हुआ। हुआ यह था कि माननीय न्याय मंत्री जी की माता जी का स्वर्गवास हो गया था सो मुंडन हेतु नाई की आवश्यकता थी। बुलाकी से ज्यादा इस काम में सक्षम और कौन हो सकता था। बुलाकी ने तुरन्त इस नेक काम में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। माननीय मंत्री जी के मुंडन से पूर्व अनेकों छूटभय्ये, चेले चमचे सहयोगी, शुभचिन्तक मुंडन हेतु प्रस्तुत हो गये। मंत्री जी उनकी वफादारी से प्रसन्न हुए,उनका ह्दय पसीज गया।
सेवकों के मुंडन के पश्चात अन्त में मंत्री जी मुंडन हेतु प्रस्तुत हुए। बुलाकी ने उनकी सेवा में अतिरिक्त सावधानी व सफाई से उस्तरा चलाना प्रारम्भ किया। नाम व गुण के अनुरूप मंत्री जी का सिर अन्य सिरों की अपेक्षा ज्यादा बड़ा व गोलाकार था, बुलाकी ने अभी एक तिहाई सिर घोटा ही था कि उसे यह सिर पूर्व परिचित लगा, आधा सिर घोटने के पश्चात तो वह अचानक चौंक कर कांप सा गया, यह तो वही सिर था जिसकी बदौलत कस्बे में पुलिस के डंडे खाये थे। लेकिन यह कैसे हो सकता है, कहां वह गुंडे बदमाद्रा का सिर और कंहा मंत्री जी का। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, मुझसे ही कोई गल्ती हो रही है,बुलाकी अजीब पेशोपेश में पड़ गया। पर सिर पहचानने में मुझसे गल्ती नहीं हो सकती चाहे कुछ भी हो जाय,यह सिर सौ फीसदी वही है। बुलाकी डरा,सहमा व आश्चर्यचकित था। किसी तरह इसी मनोदशा में उसने पूरा सिर घोटा,उसके समक्ष वही कस्बे वाला विशाल सिर सम्पूर्ण रूप से साकार हा उठा। डर व भय से बुलाकी का हाथ कांपा और मंत्री जी के कान के पास उस्तरे की हल्की खरोंच सी लगी,मंत्री जी थोड़ा क्रुद्ध से हुए उन्होंने पलट कर बुलाकी का चेहरा घूरा,इससे पूर्व कि बड़बड़ाते,झुंझलाते उनकी तीक्ष्ण सृमति ने बुलाकी को चीन्ह लिया,क्रोध के बदले चेहरे पर आत्मीयता के भाव उभरे,सेवक लोग इस बीच गुस्ताखी के लिए बुलाकी पर बरसने ही वाले थे कि मंत्री जी बोल पड़े,"अरे भाई,नाऊ जी से कोई गल्ती नहीं हुई है, हमही सिर हिला दिये थे,सो खरोच लग गई। इसके साथ ही उन्होंने एक सेवक को हिदायत दे डाली, तुरन्त एक दूसरा नाई बुला कर इनका भी मुंडन किया जाय,ये अपने गांव जवांर के आदमी हैं,ऐसे मौकों पर गांव बिरादरी के लोगों का मुंडन जरूरी होता है,माता जी की आत्मा कों शान्ति मिलेगी।'
बुलाकी बड़ी असमंजस की स्थिति में था,उसने सेवक जी से दूसरा नाई लाने हेतु मना कर दिया,और जिन्दगी में पहली बार अपने ही हाथों से अपना मुंडन करने लगा।


(((((