Wednesday, November 19, 2008

'ल्यूमिनस पीक्स" का लोकार्पण और काशीनाथ सिंह का कहानी पाठ

उदयपुर।
हमारी दृष्टि जरूर वैज्ञानिक हुई है लेकिन कल्पना की दुनिया अब सिमटती जा रही है। कहानी के समक्ष यह चुनौती है इसलिए कहानी में सुनाने का भाव आना जरूरी हो गया है। शीर्षस्थ हिन्दी कथाकार प्रो. काशीनाथ सिंह ने उक्त विचार सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के नेहरू अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित 'लेखक से मिलिए" कार्यक्रम में व्यक्त किए। प्रो. सिंह ने कहा कि कहना कहानी के जिंस में है और कहानी कहे जाने के लिए ही लिखी जाती है। उन्होंने इस आयोजन में चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी" से एक अंश का पाठ भी किया।
आयोजन में डॉ. आशुतोष मोहन द्वारा अनुवादित कविताओं के संग्रह 'ल्यूमिनस पीक्स" का विमोचन प्रो. काशीनाथ सिंह ने किया। डॉ. मोहन ने वरिष्ठ कवि नंद चतुर्वेदी की प्रतिनिधि कविताओं का अनुवाद इस संग्रह में किया है। प्रो। शरद श्रीवास्तव ने इस अनुवाद को चुनौतीपूर्ण कर्म की संज्ञा देते हुए कहा कि भारतीय साहित्य की वैश्विक छवि के लिए ऐसे अनुवाद जरूरी है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में साहित्य और चित्रकला का अभिनव संगम है। अनुवादित कविताओं के साथ समकालीन चित्रकारों की रेखाकृतियां इसे भिन्न आस्वाद देती हैं। अनुवादक डॉ। आशुतोष मोहन ने कहा कि अनुवाद रचना कर्म जैसा ही बैचेन करने वाला अनुभव है। लोकार्पण की रस्म चित्रकार अब्बास बाटलीवाला, अंग्रेजी आलोचक निखिलेश यादव और ''बनास"" के संपादक पल्लव ने प्रो. सिंह और नंद चतुर्वेदी को हाथों करवाई। आभार ज्ञापित करते हुए नंद बाबू ने कहा कि अपनी कविता की प्रशंसा सुनना एक कठिन काम है। उन्होंने इस दौर को निर्मम समय बताते हुए कहा कि यहां हम अनचाहे आ गए हैं जहां एक उत्सव भी है।
इस अवसर पर 'काशी का अस्सी" और अब्बास बाटलीवाला के कैनवास पर एक प्रायोगिक डाक्यूड्रामा ''कौन ठगवा!"" के संगीत की सी.डी. का लोकार्पण भी हुआ। यह फिल्म परम प्रोडक्शन के बैनर में बनाई जा रही है जिसके निर्देशक डॉ. आशुतोष मोहन हैं। कार्यक्रम का संयोजन शोधार्थी श्रुति शर्मा ने किया। अंत में नेहरू अध्ययन केन्द्र के निदेशक डॉ। संजय लोढ़ा ने आभार व्यक्त किया। आयोजन में डॉ। राजकुमार वर्मा (नई दिल्ली), डॉ. सदाशिव श्रोत्रिय (नाथद्वारा), सी.एस. मेहता, प्रो. नवल किशोर, प्रो. एस.एन. जोशी, प्रो. आर.एन. व्यास, डॉ. विजय पारीक सहित अनेक साहित्यप्रेमी, पत्रकार व विद्यार्थी उपस्थित थे।

पूनम अरोड़ा,
द्वारा : पल्लव
उदयपुर

Tuesday, November 18, 2008

चित्तौड़गढ़ में काशीनाथ सिंह का कहानी पाठ

हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त हमें यह रिपोर्ट प्राप्त हुई।


चित्तौड़गढ़। नरभक्षी राजा चाहे कितना भयानक हो दुर्वध्य नहीं है, उसका वध संभव है। चर्चित उपन्यास `काशी का अस्सी` के एक अं को सुनाते हुए शीर्षस्थ हिन्दी कथाकार काशीनाथ सिंह ने यह कहा कि हमारे समय में भले ही संस्कृति-समाज में निरंतर आ रहे ह्रास का सामना लोगों को करना पड़ रहा है लेकिन इससे निरा नहीं हो जाना चाहिए। प्रोफेसर काशीनाथ सिंह ने चित्तौड़गढ़ में साहित्य-संस्कृति के संस्थान संभावना और साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कथा सन्धि में अपनी रचनाओं का पाठ किया। प्रो. सिंह ने अपनी चर्चित कहानी `बांस` का भी पाठ किया, जिसमें जीवन और वैचारिक जड़ता के द्वन्द्व को लोककथात्मक शैली में अभिव्यक्त किया गया है। काशीनाथ सिंह ने चित्तौड़गढ़ में अपने कहानी पाठ को सौभाग्य मानते हुए कहा कि चित्तौड़ मेरा सपना था और यह हर उस आदमी का सपना है जो प्रतिरोध की चेतना अपने भीतर जिंदा रखना चाहता है। उन्होंने कहा कि कहानियां सुनने और सुनाने के लिए ही होती हैं। कहानी वह झूठ है जो समाज के सच को उजागर करती है। रचना पाठ के पश्चात हुई चर्चा में सुशीला लड्ढा, आर.सी. तुंगारिया, बी.एस.त्यागी और गोविन्दराम र्मा ने भागीदारी की। चर्चा में भाग लेते हुए संभावना के अध्यक्ष डॉ. के. सी. र्मा ने कहा कि काशीनाथ सिंह की रचनाओं में हमारा समय और समाज अपने पूरे रंगो-खुबुओं में दिखाई पड़ता है। वरिष्ठ लेखक और काशीनाथ सिंह के सहपाठी रहे श्रीवल्लभ शुक्ला ने पचास बरस बाद काशीजी से हुई भेंट को अपने जीवन का अपूर्व संस्मरण बताया। चर्चा में श्रोताओं के उत्तर देते हुए काशीनाथ सिंह ने बांस की रचना प्रक्रिया पर विस्तार से टिप्पणी की। बनास के संपादक पल्लव ने कहा कि काशी का अस्सी भूमण्डलीकरण का भारतीय प्रतिकार है जो अपने नयी शैली के कारण भी महत्वपूर्ण हो गया है। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने काशीनाथ सिंह के कथाकर्म को नये रूप बन्धन, नवीन उद्भावना और प्रातिभ चमत्कार का अपूर्व संयोग बताया। उन्होंने कहा कि `काशी का अस्सी` भाषा को भी नयी सम्पन्नता देने वाला उपन्यास है। समारोह में संभावना द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका `बनास` के दूसरे अंक के मुखपृष्ठ का अनावरण अतिथियों द्वारा किया गया। संभावना के वरिष्ठ सदस्य व लेखक लक्ष्मण व्यास का स्थानान्तरण हो जाने पर समारोह में प्रो. सिंह ने माल्यार्पण कर विदाई दी। इससे पूर्व लेखक परिचय साहित्यकार डॉ. सत्यनारायण व्यास ने दिया। संचालन डॉ. कनक जैन ने किया। आयोजन स्थल पर लगाई गई लघुपत्रिका प्रदर्शनी को पाठकों ने भरपूर सराहा। आकावाणी के केन्द्र निदेक सुधीर राखेचा, एडवोकेट भंवरलाल सिसोदिया, कवि मुन्नालाल डाकोत, जगदी पंचोली, संतोष र्मा, माणिक सोनी सहित अनेक पाठक आयोजन में उपस्थित थे। अलख स्टडी के संचालक जयप्रका भटनागर ने आभार प्रदर्षित किया।

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विवरण: डॉ. कनक जैन, चित्तौड़गढ़

Monday, November 17, 2008

पीठ का सौदा

टिहरी डूब गयी है। टिहरी का भूगोल, टिहरी का जन-जीवन, बेदखल कर दिया गया टिहरी का समाज और टिहरी के इतिहास को जानना हो तो कौन बताएगा ?
एक मात्र स्रोत अगर कोई है तो कथाकार विद्यासागर नौटियाल का रचना संसार।
टिहरी से लेकर बनारस और बनारस से लेकर यूरोप और अमेरिका तक की यात्राओं को करने और जन-जीवन को जानने समझने वाले विद्यासागर नौटियाल की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि साहित्य में उन्होंने अपने कदम टिहरी के भूगोल से बाहर नहीं निकलने दिये।
कथाकार
विद्यासागर नौटियाल के मार्फत ही कहूं, जो उन्होंने एक दिन ऐसी जिज्ञासावश पूछे गए सवाल के जवाब में कहा तो यही कि मैं वही लिखूंगा जिसे मैं लिख सकता हूं जिसको लिखने वाला कोई दूसरा नहीं है और शायद हो भी न। यह मुझ पर ऋण है और लिखकर ही मैं उस उससे उऋण होना चाहता हूं।


कथाकार विद्यासागर नौटियाल के रचना संसार पर वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी की टिप्पणी ज्यादा माकूल है -" टिहरी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों की छवियां उनके साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अंतरंगता के साथ उपस्थित हैं। आकश छूती ऊंचाइयों पर हरे-भरे बुग्यालों में अपने पशुओं के साथ एकाकी जीवन बिताने वाले गूजर हों अथवा घाटी में संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाले ग्रामीण, सभी अपनी विशिष्ट मुद्राओं में हमें अपनी जिजीविषा से चमत्कृत कर देते हैं। उनके जीन प्रसगों में काठिन्य, करुणा, दैन्य के अतिरिक्त प्रेम, माधुर्य और विनोद भी है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां भी हैं जिन्हें पढ़कर किसी संवेदनशील पाठक के होंठों पर मुस्कान उतर आए, आंखें छलछला जाएं"

प्रस्तुत है ७६वे वर्ष में प्रवेश कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल की एक महत्वपूर्ण कहानी।


पीठ का सौदा
- विद्यासागर नौटियाल
(अर्नेस्ट हेमिंग्वे को समर्पित : जिनकी धरती पर बैठ कर यह कहानी लिखी गई है।)

जबरू जमीन पर बैठ गया। उसके सामने नदी के दोनों तटों को जोड़ता, रस्सों का बना झूला-पुल था । जमीन पर बैठ कर उसने अपनी पीठ इंजन की पीठ पर टिका दी । इंजन के तल को घेर कर रस्ससों के बाहर से बांधी गई कपड़े की नरम गद्दी को सहेज कर अपने हाथ से माथे पर ले लिया । अपने सर को थोड़ा-सा आगे की ओर खींच कर उस गद्दी को अपने अंदाज से खिसकाते हुए माथे पर संतुलित किया । तब अपने घुटनों को जरा-सा मोड़ा और कपाल और माथे के बीच के हिस्से पर अटकी गद्दी को एक बार फिर से, आखिरी बार, संतुलित किया। उस प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद उसका दाहिना हाथ जमीन पर टिक गया । उस तामझाम के साथ अपने मुंड को आगे की ओर खींचते हुए, कुछ ज़ोर लगाकर, वह अपने तईं उठ कर खड़ा होने की कोशिश करने लगा। उसकी पीठ के पीछे से तीन मजदूर, अडिग-से लग रहे उस भारी इंजन को, जमीन से उठाने में जुट गए । एक मजदूर उसके एकदम सामने आकर खड़ा हो गया ।
-ला, अपना हाथ दे।
जबरू ने अपना दाहिना हाथ जमीन से उठा कर आगे बढ़ा दिया और मजदूर ने उसके बदन पर शेष रह गया वह अकेला हाथ कस कर पकड़ लिया । वह आगे की तरफ से सहारा देकर उसे उठने में मदद करने लगा। इस वक्त जमीन से उठने के प्रयास में जबरू अपने शरीर की पूरी ताकत, सर से पांव तलक, चौतरफा झोंकने लगा था । उसे सिर्फ अपना बदन नहीं उठाना था,अपने साथ नत्थी कर दिए गए इंजन को भी उठाना था। उसे इंजन को अपने साथ लेकर ऊपर उठना था । जमीन से ऊपर । अपनी ताकत और साथी मजदूरों की सहायता के बल पर आखीर में वह अपने पांवों पर खड़ा हो गया । अब वह अकेला था । उसे सहारा और सहायता देने वाले कुल लोग उसका रास्ता छोड़, उससे छिटक कर अलग हट गए थे। नदी के ऊपर, हिलते-डोलते हुए झूले पर, उसकी यात्रा की सफलता के लिए वे सब, और वहां पर मौजूद बाकी तमाम लोग, अपने-अपने मन में मंगलकामनाएं करने लगे थे। उसकी आगे की राह बिलकुल साफ थी । झूला-पुल की शुरूआत तक । वहां जमीन पर, उसके रास्ते में कोई छोटा-सा कंकर-पत्थर तक नहीं दिखायी दे रहा था । जमीन से ऊपर उठ गए अति-भार को मजबूत रस्सों के बल पीठ पर लिए हुए उसने झूला-पुल की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा दिया । पहला कदम ।
शांत घाटी के निवासियों की ज़िन्दगी के ढब में कई तरह के नए परिवर्तनों का सूचक । एक ऐतिहासिक कदम ।
उसे अपने पास खड़े साथी मजूरों की हमदर्द आवाजें सुनाई दीं ।
-आराम से, आराम से।
संभल कर चलने के लिए दो बार उच्चारित उन गंभीर आवाज़ों के बाद वहां सब कुछ शान्त हो गया । ऐसा लगने लगा कि जैसे जबरू के चलने के अलावा दुनिया के बाकी सभी काम थम गए हों ।
हैरत में डूब गए तमाम लोग अपनी सांसें रोक कर उसे देखने लगे थे । सबकी नज़रें पुल की तरफ बढ़ते जा रहे जबरू पर केंद्रित हो गई थीं । उसका एक-एक कदम गिना जाने लगा था । झूले पर बीच-बीच में कामचलाऊ पांवदान के तौर पर बंधी लकड़ियों पर टिकाए गए पांव को ऊपर उठाना और उसे अपने सामने बिछे अगले पांवदान पर टिका देना । हिलते हुए झूला-पुल पर दाहिने हाथ से अपने पास दिखायी दे रहे जंगले के रस्सों को धैर्यपूर्वक पकड़ता और छोड़ता हुआ,कदम-कदम आगे की ओर सरकता जा रहा जबरू । नदी के दोनों तटों पर फैले, खड़े, खतरनाक ढलानों पर घास काट रही घसियारिनें और उस वन में अपने गोरू के साथ मौजूद ग्वैर छोरे भी काफी पहले अपने-अपने काम-धाम छोड़ कर उस झूले के पास आकर जमा हो गए थे । उन सबकी नज़रें भी जबरू पर केंद्रित हो गई थीं।
एक सवारी गाड़ी के इंजन के भार के नीचे दबे हुए जबरू ने अपना काम शुरू करने से पहले अपने पुरखों का सुमिरन किया था। वे पुरखे जिन में से किसी को उस ने कभी देखा नहीं । उन के बारे में उस ने सिर्फ सुना भर है। पुरखों की गिनती में, उस से सब से नजदीक उस का बाप था। वह भी जबरू के जन्म लेने के साल भर बाद दुनिया से चल बसा था। अपने बाप की जबरू के मन में कोई स्मृति नहीं थी। कई बार उसे इस बात का बहुत अफसोस भी होता था। वह कल्पना करने लगता कि उस का बाप जीवित होता तो कैसा होता । उसका बचपन कैसे बीता होता, जवानी में क्या-क्या करता, उसकी ज़िन्दगी कैसी हो गई होती। बाप जिन्दा रहा होता तो कुछ बरसों तक, मात्र कुछ बरस तक, उसे उसका सहारा मिल गया होता । बस इतना ही होना था । यह बात तो वह अच्छी तरह जानता है कि उसका बाप जिन्दा भी रहा होता तो वह उसे कोई सेठ या ठेकेदार, व्यापारी या पढ़ा-लिखा आदमी नहीं बना सकता था। रहना तो उसे मजदूर बन कर ही होता। करनी मजदूरी ही होती। रोज कमाओ, रोज खाओ। उसे रोटी का सहारा देने वाले सैकड़ों माई-बाप इस दुनिया में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। उसे कोई काम सौंपने से पहले मालिकों के स्वर में ऐसा दयाभाव भरा रहता है जैसे उसे उस काम पर लगा कर वे उस पर कोई भारी-भारी अहसान कर रहे हों । हर बार काम मिल जाने के बाद उस काम के बोझ से कहीं ज़्यादा वह अपने को उस अहसान के नीचे दबा हुआ महसूस करता आया है ।

उस दिन सुबह के वक्त किशनसिंह के स्वर में भी वैसा ही दयाभाव भरा था, जब उसने जबरू को अपने घर पर बुलवाया था। गाड़ी मालिक किशनसिंह, ठेकेदार किशनसिंह, नेताजी किशनसिंह । इलाके की जानी-मानी हस्ती, एक बहुत बड़ा आदमी किशनसिंह ।
बे्शक उस दिन कि्शनसिंह ने और दिनों की तरह ऊपर की मंजिल में बनी, आंगन की तरफ खुली हुई अपनी तिवारी में खंभ को पकड़ कर और लकड़ी के डेड़ फुट ऊंचे मजबूत, गहरे हरे रंग में चमक रहे जंगले के ऊपर एक पांव टिका कर, खड़े-खड़े वहीं से अपना फरमान नहीं सुनाया था । आजकी बात कुछ अलग बात थी । जबरू को अपने घर की ओर आता देख, उसके आंगन में पहुंचने और गर्दन झुका कर, जमीन की ओर ताकते हुए नमस्कार करने से भी पेशतर, किशनसिंह खुद ही ऊपर की मंजिल से नीचे आंगन में उतर आया था । आंगन में एक-बराबरी पर खड़े होकर बात करते हुए वह जैसे जबरू को इज्जत बख्श रहा हो । उस वक्त आंगन में सुबह के सूरज की किरणें चमकने लगी थीं । जबरू से बात ्शुरू करने से पहले किशनसिंह ने ऊपर की मंजिल में रसोई के भीतरी कमरे में मौजूद अपनी घरवाली को बाहर से ही आवाज़ दे दी थी।
-यह जबरू आया है, जरा चाय बना दो इसके लिए। अपने गांव से, उतनी दूर से चल कर सुबह-सुबह यहां पहुंच गया है बेचारा। वहां तो उस वक्त रात भी नहीं खुली होगी ।
किशनसिंह के अपनी घरवाली को कहे गए वे बोल जबरू को भारी अहसान के नीचे दबाने लगे थे ।
-जबरू ! मैने तुझे एक खास मतलब से बुलाया है ।
-मालिक ।
किशना यह तय नहीं कर पा रहा था कि अपने मन में बहुत लंबे अरसे से वह जिन सुनहरे सपनों के जाल बुनता आ रहा है, उसे जबरू के कानों के अंदर किस हिसाब से, किस तरतीब से डाला जाय । पिछले कई दिनों से वह सिर्फ सपने देखता आया है। असंभव सपने ।
-मैं तुझे ठेकेदार बनाने की सोच रहा हूं ।
-इतनी बड़ी बात क्यों बोल रहे हैं मालिक, जो न कभी हुई है न हो सकती है ?
-नहीं जबरू ! मैने तय कर लिया है कि तुझे एक ऐसा काम सौंप दूं जिसे पूरा कर लेने पर तेरी किस्मत चमक उठेगी ।
जबरू चुप हो गया । उसने कोई जवाब नहीं दिया ।
-ऐसा करते हैं, पहले चाय पी लेते हैं ।
चाय पीते हुए किशनसिंह मन ही मन फिर से अपने सुहावने सपनों में खो गया । पिछले दस वर्षों से वह नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग के निर्माण में अपनी भूमिका निभाता आ रहा था । दस साल पहले इलाके के आठ मान्यवर, खास-खास लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर वह मुख्य मंत्रीजी और निर्माण मंत्रीजी के पास लखनऊ गया था। स्थानीय विधायक के अलावा पर्वतीय क्षेत्र के दस अन्य विधायकों को भी उसने अपने प्रतिनिधिमंडल में साथ कर लिया था । उसने ऐसा जोर लगवा दिया कि नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग विधान सभा में पेद्गा किए गए उसी साल के बजट में शामिल कर लिया गया था। रोड पर कि्श्तों में एक तरफ से काम शुरू हो गया। उस पर दस बरसों में काम के सबसे ज़्यादा ठेके किशनसिंह को ही मिलते रहे। अब खुदाई, कटान के बाद रोड पूरी तरह तैयार हो गई थी । सिर्फ संपर्क पुल का बनना बाकी रह गया था । इस साल के बजट में शासन ने उस पुल की भी स्वीकृति दे दी । और अब किशनसिंह उस पूरी तरह तैयार हो गई रोड पर, पुल के बनने से पहले, किसी तरह अपनी गाड़ी चलाने के सपने देखने लगा था । जबरू से मुंह खोल कर, मतलब की बात करने से पहले, उसने बहुत जल्दी में एक बार पूरी योजना पर सरसरी तौर पर पुनर्विचार किया । अपने मन के अंदर आखिरी बार वह अपना सबक दुहराने लगा था ।

'नदी के ऊपर मोटर-पुल के बनते-बनाते साल, दो साल का समय तो बहुत आसानी से लग जाएगा । पुल के दोनों तरफ के अबटमेंट(दीवार) की चिनाई का काम पूरा होने में ही सात-आठ महीने से कम वक्त नहीं लग सकता । पुल का काम है । कोई दिल्लगी नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि जैसी चाहो कच्ची-पक्की, हल्की-ढीली चिनाई कर बाहर से पलस्तर लगा दो,और जैसा चाहो मटीरियल लगा दो : ओवरसियर अपने खिलाफ नहीं होना चाहिए,जिसने काम का मेजरमेंट (पैमाइश) करना है। वह खुद ही सब कुछ निपटा लेगा। जी नहीं ! पुल का अबटमेंट बनाया जा रहा है तो ओवरसियर को मौके पर लगातार मौजूद रहना है । वह कहीं हिल नहीं सकता । और चिनाई की पुख्तई के किसी भी मामले में ओवरसियर कोई खास मदद नहीं कर सकता । उसके ऊपर एक से एक अफसर बैठे हैं । सिविल में पुल के अबटमेंट का काम सबसे मुश्किल काम होता है। काम पर मामूली डिफेक्ट नज़र आया तो सीधे नौकरी पर आंच आ सकती है । छोटे साहब(ए 0 ई0, असिस्टेंट इंजीनियर ) के भी लगातार चर लगते रहते हैं और बड़े साहब( ई 0 ई0,इक्जीक्यूटिव इंजीनियर) भी जब देखो तब पुल पर हाजिर । काम पूरे जोर पर चालू है लेकिन बाजार के दुकानदारों के उधार, लेबर की रोजाना की खलाई, बीड़ी-सिगरेट, किसी-किसी लेबर के आकस्मिक बहुत जरूरी खर्चों के भुगतान और रोजाना के दीगर मुतफरकात खर्चों के बोझ तले दबे हुए ठेकेदार के रनिंग पेमेंट के मामले ओवरसियर से लेकर बड़े साहब के आफिस तक कभी-कभी इस तरह घपले में पड़ जाते हैं कि ठेकेदार साइट से रातों-रात काम छोड़ कर भाग खड़ा होने को मजबूर हो जाता है। फिर ठेकेदार के खिलाफ नीचे से ऊपर तक,बड़े साहब से भी आगे सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर तक, कागजी कार्यवाही। तब एक दिन डिपार्टमेंट की ओर से ठेकेदार के बौंड में दिए गए स्थायी पते पर रजिस्टर्ड नोटिस भेजा जा रहा है । नोटिस भेजे जाने के बाद फिर कागजों की नीचे से ऊपर तक के दफ्तरों में दौड़। तब आखीर में बाकी बचे काम के दुबारा टेंडर करने, उसके स्वीकार होने और नया वर्क आर्डर जारी होने तक में पता नहीं कितना लंबा समय लग जाता है। अबटमेंट के तैयार हो जाने के बाद पुल के लोहे के रस्सों और दूसरे मटीरियल के साइट तक पहुंचने और उसे जोड़ कर पुल खड़ा करने का काम भी कोई महीने दो महीने में पूरा नहीं हो सकता । कितनी ही तेज रफ्तार से काम चले, दो साल तो आसानी से बीत जाएंगे । वह भी तब अगर सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। और कोई ठेकेदार अध-बीच में काम छोड़ कर भाग गया या उसकी अर्जी पर किसी सिविल कोर्ट का समन या स्टे या वसूली का वारंट आ गया तो फिर पुल के निर्माण की योजना को हवा में लटका समझो । उतने लंबे समय तक बीस मील लंबी पूरी लाइन पर सिर्फ एक गाड़ी। वही सवारी बस, वही माल गाड़ी। अपनी किस्मत कि इस साल अपने क्षेत्र के चहेते विधायक को शासन ने आर0 टी0 ए0(क्षेत्रीय परिवहन अथॉरिटी) का सदस्य नामजद कर लिया । अपने घर के मेम्बर, अपनी राजनीतिक पहुंच और आर 0टी0 ओ0 दफ्तर में अपने खुले, मधुर और रोबीले संबंधों के चालू रहते कोई दूसरा गाड़ी मालिक उस लाइन पर अपनी गाड़ी के लिए परमिट की अर्जी तक पेश करने की बात सोच भी नहीं सोच सकता । आर 0 टी 0 ओ0 जानता है मैं कौन हूं । जरा सा इधर-उधर करे तो उसकी झंडी करवा सकता हूं । लखनऊ के लिए एक फोन भर करने की जरूरत है । आर 0 टी 0 ओ 0 रातोंरात देहरादून से झांसी । या फिर बलिया । बीच से्शन में मेरा ट्रांसफर किया जा रहा है, मेरे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा साब ? मंत्रीजी ने अपने पद की कसम लेने के साथ तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई का ठेका भी ले लिया था भाई? लेकिन आर 0 टी 0 ओ 0 मेरे मामलों में क्यों उलझने लगा? देहरादून जैसा शहर उसे और कहां मिल सकता है ? उसके चपरासी तक को पता है मैं कौन हूं । मेरे पहुंचते ही साहब के दर्शन को इच्छुक दूसरे गाड़ी मालिकान की तरह मेरे नाम की चिट नहीं मांगता, फर्शी सलाम ठोंकता है और चिक को इतना ऊपर उठा देता है कि मैं बगैर सिर झुकाए कमरे के अंदर प्रवेश कर सकूं । उसके चार बेटे हैं । चारों देहरादून के टॉप अंगे्रजी स्कूलों में पढाई कर रहे हैं। कोई प्रिंसिपल उसके बच्चों को दाखिला देने से इन्कार कर उससे क्यों उलझने लगेगा? अपना और अपनी गाड़ियों का रास्ता सब साफ रखना चाहते हैं । बीस मील लंबी सड़क पर अपनी गाड़ी का एकछत्र राज । साल । दो साल । तीन साल । कोई दूसरा प्रतिद्वंदी नहीं। मैदान एकदम खाली। पुलिस आफिस में वाजिब दस्तूरी पहुंचाते रहो । सवारी गाड़ी पर माल कैसे ढोया जा रहा है साहब ? किस नियम, किस कानून के तहत ? इस पहाड़ी जिले के अंदर इस तरह का बेहूदा सवाल पूछने की किस बेटे की हिम्मत है? इस नवनिर्मित रोड पर गाड़ी चलाने के लिए टेम्परेरी परमिट तो मिल ही गया है । अब बात सिर्फ इतनी-सी रह गई है कि एक बार किसी तरह गाड़ी का इंजन खोल कर उसे इस ओर पहुंचाया जा सके।"
जबरू ने पीतल के गिलास में चाय खत्म करने के बाद गिलास को धोने के लिए थोड़ा ऊंची आवाज़ में घर के एक बच्चे से पानी की मांग की । धुले हुए गिलास को सूखने के लिए उसने बहुत कायदे से एक सीढी के एक पत्थर पर उल्टा करके रख दिया । फिर किशनसिंह के पास आ गया ।

कि्शनसिंह ने अपने सपनों को अपने मन की गहराइयों में दबाते हुए असली, मतलब की बात बहुत संक्षिप्त तरीके से जबरू को समझाई । -गाड़ी के इंजन को झूला-पुल के रास्ते नदी के इस ओर ले आना है । जबरू ! मैने इस मामले में बहुत दिमाग दौड़ाया । इलाके के तमाम मजबूत से मजबूत बीर-बहादुरों की ताकत का अंदाज लगाता रहा। लेकिन मुझे तेरे अलावा कोई दूसरा द्यद्गाख्स नजर नहीं आता, जो इस काम को निभा सके । तू ऐसा समझ ले कि मेरे दफ्तर में तेरा सिंगल टेंडर जमा हुआ है। वह पास हो गया है और मैं तुझे इंजन को इस ओर ले आने का ठेका दे रहा हूं । तेरी किस्मत चमकने वाली है ।
-मेरी किस्मत अब नहीं चमक सकती साब । मैने बहुतों की किस्मतें चमका दी हैं । रही ठेका लेने की बात । ठेका मैं कैसे ले सकता हूं ? मैं तो सिर्फ मजूरी लेना जानता हूं ।
-जबरू, तू ऐसा समझ ले मैं कुछ देर के लिए तेरी पीठ भाड़े पर ले रहा हूं । बोल, थोड़ी देर के लिए अपनी पीठ का क्या भाड़ा मांगता है ?
-मालिक खुश होकर जो इनाम देंगे उसे जेब के अंदर रख लूंगा ।

अब किराए की पीठ पर एक सवारी गाड़ी का इंजन लादे वह भागीरथी नदी के आर-पार बने रस्सों के हवा में डोलते हुए झूले पर बहुत संभल-संभल कर पाँव रखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था । उसके पाँवों के नीचे नदी बहती दिखायी दे रही थी । पेशे के हिसाब से दिहाड़ी मजदूर, जाति के हिसाब से हरिजन । नाटे कद का, एक अकेले हाथ का आदमी जबरू। उसका बायां हाथ बहुत पहले डाक्टर ने काट कर फेंक दिया था । डाक्टर ने नहीं,हाथ को तो विस्फोट के कारण पहाड़ से छिटक गई किसी धारदार शिला ने एक झटके में काट फेंका था । डाक्टर ने उसका इलाज कर उसे मरने नहीं दिया । उसकी जान बचा दी थी । किसी पहाड़ को काट कर उसके सीने पर मोटर सड़क बनाने के लिए खुदाई का काम चल रहा था । उस खुदाई के दौरान एक ऐसा मुकाम आया जब कठोर शिलाओं ने काम के आगे बढ़ने में बाधा पैदा कर दी । ठेकेदार को गैंतियों, सब्बलों के बल पर खोदा जा रहा काम रोक देना पड़ा । कठोर शिलाओं को तोड़ने, चकनाचूर करने के लिए उस जगह पर डाइनामाइट लगाकर विस्फोट करने की जरूरत पैदा हो गई । तब सब्बलों और घन और छेणी के बल पर पहाड़ के सीने पर तीन गहरे सूराख बनाए गए । उन सूराखों के अन्दर विस्फोटक रख कर एक काफी लंबा, डोरीनुमा तार लेकर जबरू और उसके साथी मजदूर उस स्थान से कुछ दूरी पर चले आए । बाकी मजदूर वहां से पहले ही निकल चुके थे । घाटी में मजूरों की बेहद ऊँची आवाजें गूंजने लगी थीं - कोई आगे मत बढ़ना, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है । उस तार के आखिरी सिरे पर माचिस झाड़ कर जबरू ने आग छुआई और उस जगह से दूर निकल जाने की कोशिश में वहां से भागने लगा। झरझराती आग डाइनामाइट की तरफ लपकने लगी और जबरू उससे विपरीत दि्शा की ओर लपकता चला गया ।
उस खतरे का उसे भली भांति अहसास था, जैसा कि हमेशा रहता आता है । मोटर सड़क बनाने के लिए जो पहाड़ को काटते हैं उन्हें हरदम अपने शरीर के हिस्सों को कटवाने को,अपनी जान तक न्यौछावर करने को भी तैयार रहना पड़ता है। पहाड़ कोई मुर्दा चीज नहीं, एक ज़िन्दा जीव होता है । जब पहाड़ टूटता है तो उसके साथ और भी बहुत कुछ टूटने लगता है । कुछ पहाड़ टूटेगा, कुछ पशु-पक्षियों के नीड़ टूटेंगे, कुछ आदमी का बदन टूटेगा। बहुत सारे जीवों का, बहुत सारे लोगों का खून-पसीना बहता है, तब बन पाती है उस पर चलने लायक एक मोटर सड़क । उस वक्त जबरू पूरी तेजी से दौड़ रहा था फिर भी उस मोड़ को पार नहीं कर पाया । उसके मोड़ पार करने से पहले उसकी भेजी हुई आग छेदों की गहराई में दबाए गए डाइनामाइटों की गुल्लियों तक की दूरी को लपकती हुई पार गई । घंटे भर से जिस कठोर शिला पर सब्बलों और छेणियों से प्रहार करते जा रहे थे उस जगह पर भयानक विस्फोट हो गया । अपनी मूल शिला से छिटक कर तीव्र गति से हवा में उड़ते जा रहे एक पतले, धारदार पत्थर ने जमीन पर गिरने से पेद्गतर जबरू के बदन पर तलवार का जैसा वार किया और उसके एक हाथ को काट कर जमीन पर गिरा दिया था। टिहरी के सरकारी अस्पताल में एक डाक्टर मिश्रा थे । डा0 मिश्रा ने उसे मरने से बचा लिया । अस्पताल से घर लौट आने के बाद जबरू फिर मजदूरी के काम करने लगा । तबसे वह अपना पेट पालने के लिए बाकी बचे एक हाथ से ही सबके, सभी तरह के काम निभाता आया है ।
- जबरू, यह और किसी के बस का नहीं लगता । यह काम तो तुझे ही करना पड़ेगा ।
नदी के दोनों तटों पर जमा हो गए तमाम लोग अकेले हाथ से रस्से को पकड़ते-छोड़ते, अपने सामने बिछी लकड़ियों के पांवदानों पर आहिस्ता-आहिस्ता, झूले को पार करते हुए जबरू के एक-एक कदम की ओर देखते जा रहे थे । उस वक्त टकटकी लगा कर उस पर देखते रहने के अलावा वे और कोई बात, उसके दूसरी ओर पहुंच जाने के बाद की किसी अन्य बात के बारे में सोच ही नहीं सकते थे । सच्चे दिल से सिर्फ उसकी सलामती की ख्वाहिद्गा करते हुए वे सबके सब मूक दर्द्गाक बने खड़े थे ।
सिर्फ ठेकेदार किशनसिंह था, जो उस भारी भीड़ के बीच जबरू के हर धीमे, सधे कदम के साथ बहुत-बहुत आगे की, विभिन्न प्रकार की,योजनाओं-समस्याओं पर बेहद तेज रफ्तार से विचार करते रहने में उलझने लगा था ।
अतीव प्रसन्नता के उन क्षणों में वह चाहते हुए भी अपने चल-विचल हो रहे दिमाग को किसी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रख पा रहा था ।
जबरू के हर सधे हुए, बढ़ते कदम के साथ किद्गाना के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं ।

Saturday, November 15, 2008

11th National Conference of Jan Sanskriti Manch

The 11th National Conference of JSM was held at Kheoli-Rameshwar (Varanasi) on 9-10 November 2008, with the main slogan of 'Against Imperialism: for Democracy'. Kheoli-Rameshwar is the village of revolutionary poet Dhumil whose birth anniversary falls on November 9. Prior to the conference, the President and all other office bearers of JSM along with many litterateurs of Varanasi visited Dhumil's home, where a meeting was held to pay respects to the poet. Prof Manager Pandey said that Dhumil developed the sharpest political critique of Indian bourgeois democracy in his poetry. He was the first in Hindi poetry to celebrate the Naxalbari movement in the '70s, at a time when state terror ensured that nobody had the courage even to speak of Naxalism, let alone celebrate it. Dhumil changed the diction of poetry. His poems articulate the perspective of the common people in their own language. Dhumil hoped and aspired for a radical change in the character of
Indian left.

Bangla poet Nabarun Bhattacharya inaugurated the conference. He criticised the official left in Bengal for pursuing the same pro-imperialist development policies and the same kind of state terror on people's movements as other non-left bourgeois parties. He hailed the fighting spirit of the people of Singur and Nandigram and appealed to intellectuals and cultural activists to always actively side with the people's struggle. He said that we have a great tradition behind us of cultural resistance. Neruda, Mayakovsky and Eisenstein are with us. Later Nabarun also recited 2 of his most well known revolutionary poems in Hindi translation in the poetry session which followed the inaugural session. Hindi poet Asad Zaidi was the special guest at conference. He spoke of the challenges of fascism, and its Indian variety namely Hindutva and lamented that the political system which we inherited from the colonial rulers and the also the oppositional political culture
that prevails, in fact strengthens the logic of fascism in our country. He urged that organisation alone can lead to a radical anti imperialist anti fascist cultural practice. No individual effort can be a substitute. Zaidi also narrated his most hotly debated poem on 1857 which criticizes the derogatory stance of the so-called Indian renaissance on our first war of independence. State secretary of Progressive Writers' association Jaya Prakash Dhumketu hailed the initiative of Jan Sanskriti Manch for choosing Dhumil's village as a venue of the conference. Prof Manager Pandey concluded the inaugural session outlining the challenges of imperialism and fascism and the ways to confront them. He dwelt on the anti-national and anti-people surrender of our interests to U.S. imperialism by the Indian ruling classes. The poetry session in memory of naxal poet Venugopal followed the inaugural session. More than 20 poets including Viren Dangwal, Manglesh Dabral,
Ashtabhuja Shukla, Asad Zaidi, Nabarun Bhattacharya, Rajendra Kumar, Ramesh Ali, Basant, Pankaj Chaturvedi, Shambhu Badal, Hari Om, Vyomesh, Shobha Singh, Mukul Saral, and Achyutanand recited their poems. A delegation of Paschim Banga Jatiya Gana Parishad represented by Amit Das Gupta and Com. Nitish and a three member delegation from Orissa including Poet Ramesh Ali Basant whose house was ransacked by the RSS also participated and spoke at the conference. PWA General Secretary Kamla Prasad's letter of greetings for the conference was read. Noted documentary filmmaker Meghnad also addressed the conference. On November 10, the General Secretary's report was debated by delegates from U.P, Bihar, Jharkhand, Uttarakhand, Rajasthan, Chattisgarh and Delhi. The conveners/secretaries of every state and other national level bodies of the organisation such as Sanskritica Sankul, and theatre and film divisions of JSM also submitted their reports. A 95-member
council and 27-member executive was elected with Manager Pandey as National President and Pranay Krishna as General Secretary. The Conference adopted resolutions demanding ban on Bajrang Dal and other RSS outfits involved in terror activities, condemned the Jamia Nagar encounter as well as that of Rahul Raj in Mumbai and demanded highest level enquiries in both, condemned the harassment of youth in the name of terrorism at Azamgarh and elsewhere, condemned the false cases registered in U.P. against human rights' activists and demanded immediate release of Dr. Binayak Sen. The conference paid rich tributes to Palestinian poet Mahmood Darvesh, Pakistani progressive poet Ahmad Faraz and feminist writer Prabha Khetan among others who died recently. A book of poetry by Comrade Vijendra Anil was released in his memory at the conference.

Friday, November 14, 2008

जारी रहे पहल (सम्मान)

पहल बंद होने के कगार पर है- यह खबर है। कई ब्लागों में छपी सूचनाएं, जनसत्ता में कवि अशोक वाजपेयी का कॉलम और गाहे बगाहे सुनी जा रही खबरें चिन्तित करने वाली हैं। इसीलिए उन पर यकीन भी नहीं होता। यकीन करना भी नहीं चाहते। पहल आज हिन्दी की एक ऐसी केन्द्रीय पत्रिका है जिसे जनपक्षधर साहित्य का स्कूल भी कहा जा सकता है। उसमें छपे की विश्वसनीयता है। पहल से धुर असहमति रखने वाले भी इससे अलग राय नहींरख पाते हैं। आज पत्रिकाएं तो बहुत निकल रही हैं पर पहल की जो भूमिका है उसको स्थानापन करने की सार्म्थय अभी तो किसी में नहीं है। पहल ने जन पक्षधरता के सवाल को जिस तरह से प्राथमिकता पर रखा है उससे इस हल्लातारु दौर में भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं पर एक लगाम लगती रही है। प्रतिबद्धता की इस मुहिम के जारी रहने की खबर फिर कैसे हिन्दी के पाठकों की चिन्ता का विषय होगी। पहल-90 जो ताजा-ताजा छपा है, में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के आलेख "ठुमरी के नैहर में बनारस की मैना " के अंत में छपी टिप्पणी "--- धारावाहिक आगे भी जारी रहेगा ।" हमारे इस यकीन को पक्का करता है कि पहल का प्रकाशन सतत जारी रहेगा और उसे रहना भी चाहिए।

इस उम्मीद को कायम रखते हुए ही पहल सम्मान 2000 के सम्मानित कथाकार
विद्यासागर नौटियाल जी द्वारा सम्मान के वक्त प्रस्तुत उनका आत्मकथ्य, प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है। वारणसी से निकलने वाली पत्रिका आर्यकल्प ने उन पर विशेषांक निकाला है। हम भी अपने प्रिय ऊर्जावान और बुजुर्ग-युवा कथाकार को शुभकानाएं देते हैं। इस अवसर पर उनकी अन्य रचनाएं भी सिल-सिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। यह उसकी पहली कड़ी है।

दसवें ' पहल " सम्मान के अवसर पर 4 जून, 2000 को देहरादून के टाउन हॉल में विद्यासागर नौटियाल द्वारा दिया गया वक्तव्य

सभागार में उपस्थित सम्बन्धियों मित्रों, परिचितों, साहित्यप्रेमियों , रचनाधर्मियों और साथियों से घिरा होने पर मेरी नज़रें एक मेहतरानी की सूरत तलाशने लगी हैं । यह सुनि्श्चित हो चुका है कि इस वक्त वह हमारे बीच नहीं । भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद केन्द्र और प्रान्त की सरकारों से सीधी टर लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत हो जाना पड़ा था । हमारा शिकार करने को घूम रहे मुस्तैद पुलिसकर्मियों की सतर्क निगाहों से बचते हुए इस शहर की एक छोटी-सी झोंपड़ी के अन्दर बारी-बारी से कभी दूसरे, कभी तीसरे दिन पहुँचकर हम एक या दो साथी बहुत बेताबी से उस मेहतरानी का उस घर के अन्दर लौटने का इन्तज़ार करने लगते थे । अपने आँचल के नीचे एक थाली को छुपाती हुई वह घर के अंदर पाँव धरती तो हमारे चेहरे खिल उठते । उसकी थाली में विभिन्न घरों से, जहाँ-जहाँ वह काम करती होगी,माँग-माँग कर लाई गई इस शहर की जूठन होती । अपने भूखे बच्चों को खिलाने से पहले वह उस थाली के मिश्रित पदार्थ हमें परोस देती थी । गुरदयालसिंह बताते हैं कि गुरूद्वारे में अमृत छकने के बाद सिख कोई अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करता । भूमिगत ज़िन्दगी में उस अमृत का पान करने के बाद मैने आजीवन अपने को उस वर्ग के साथ एकाकार करके रखने की चेष्ठा की । दुनिया का कोई प्रलोभन मुझे विचलित नहीं कर पाया । पूँजीवादी समाज के कुल पदार्थ बेस्वाद लगते रहे । सोच रहा हूँ कि इस मौके पर कहीं से वह मेहतरानी माँ, हमारी वह कामरेड भी इस सभागार में आ लगती तो उसके आल्हाद के तापमान को माप करने लायक कोई यंत्र क्या वैज्ञानिक ईजाद कर पाते ?
राजगुरू कुल में जन्मे पिता नारायणदा नौटियाल वन विभाग के अधिकारी थे । मेरा बचपन रियासत टिहरी-गढ़वाल के उन भयानक,घनघोर जंगलों में बीता जहाँ शायद अब अकेले जाने का मैं साहस न कर सकूँ । यद्यपि उन वनों का अधिकांश माफिया की हव्श के शिकार हो चुके है। । उस ज़माने में उस वन-प्रदे्श में रहते हुए मुझे इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि रोग-बीमारियों का उपचार करने के लिए रीछ के कलेजे के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । उसे हम रिखतिता कहते थे । ज्वर-बुखार से लेकर चोट वगैरह लगने या छाती-पेट-बदन आदि में दर्द उठने,कैसा भी दर्द उठने,की दवा मेरी जानकारी में रिखतिता होती थी । हमारे ज्ञान में दवा का अर्थ रिखतिता होता था । अपने बचपन में मैने कितनी मात्रा रिखतिता की हज़म की इसका कोई हिसाब नहीं दिया जा सकता । रीछ की एक विशेषता यह होती है कि गोली लगने पर,घायल होने पर वह रूकता नहीं,आगे बढ़ता जाता है । रास्ते में मिलने वाले वृक्षों और झाड़ी-गाछ से पो दंदोड़ कर वह अपने घावों को भरता जाता है और बढ़ता जाता है। रिखतिते की अचूक शक्ति की सहायता से अपने बचपन के कुल रोगों से लड़ते रहने के कारण मेरे अन्दर रीछ का वही स्वभाव भर गया । जीवन और साहित्य में हमलों से विचलित हुए बगैर मैं अपने लक्ष्य की ओर लगातार अग्रसर रहा ।

मामा बिशु भट्ट साबली गाँव के बेहद गरीब आदमी थे। एक बार हमसे भेंट करने शिमला पहाड़ियों के मिलान पर टिहरी-गढ़वाल रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र बंगाण पट्टी के कसेडी रेंज मुख्यालय पर आए । उनको कुछ रोज़गार की ज़रूरत थी । पिता ने बड़े पाजूधार में जमा लकड़ी के स्लीपरों को छोटे पाजूधार तक ढुलान करने का काम सौंप दिया । पिता के लम्बे दौरे पर जाते ही मेरी माँ ने मुझे भी उस काम में जोत दिया इस सख्त व गोपनीय हिदायत के साथ कि इस बारे में किसी भी तरह पिता को पता नहीं लगना चाहिए । मामा के अलावा स्लीपरों के उन चट्टों के ढुलान की जुम्मेदारी मेरे कमज़ोर कंधों पर भी आ पड़ी । किसी अन्य बालक के साथ मैं भी बारह फुट्टे स्लीपरों के ढुलान में जुट गया । लम्बे दौरे के बाद पिता के घर लौटने से पहले ही ढुलान का काम पूरा कर लिया गया था । मजूरी के भगतान के वक्त मामा को लगा कि शायद हिसाब में कुछ गड़बड़ी हो गई है । पहाड़ी लोग दिन के वक्त सिर्फ भात खाते हैं । भात चौके के अन्दर खाया जाता था । बच्चों का वहाँ प्रवेश वर्जित होता । मामा पिता के एकदम पास,चौके के अन्दर बैठे थे । माँ ने धीमे स्वर में मामा की मजूरी का प्रसंग छेड़ दिया । पिता ने अदा की गई मजूरी को सही बताया । बेहद दबी जुबान में मामा ने भी कुछ निवेदन किया । पिता ने खाते-खाते वहीं चौके के अंदर क्रोधावेश में उलटे हाथ से उन्हें एक धौल मार दी । उस घटनाक को मैं आजीवन बिसार नहीं पाया । उसके स्मरण से मुझे अपनी जड़ों का खय़ाल आ जाता है और मैं अपनी औकात पर पहुँच जाता हूँ । जीवन में अनेक ऐसे मुकाम आए जब अंतिम निर्णय लेने से पूर्व मैने नौ बरस के उस विद्यासागर की याद की जो पाजूधार के वन में ऊँची-नीची राहों पर बारह फुट्टे स्लीपरों का ढुलान कर रहा था कि उसके दरिद्र मामा को दो पैसे ज़्यादा मिल सकें ।

पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है । पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है । सूरज,नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग । ये सब शक्ति देते हैं । उच्च शिखरों पर बुग्यालों की रंगीन कालीन के ऊपर बैठ कर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करते लगते हैं । लेकिन इन पहाड़ों में मानव जीवन विकट है । याद रखा जाना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे । कुछ लोग, मात्र कुछ लोग, इसे सुगम बनाने के लिए अपने को कुर्बान कर रहे हैं । मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया । इसे छोड़ कर कहीं भाग जाने की बात नहीं सोची । अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अन्दर घिरा रहा । टिहरी से बाहर नहीं निकला । निकलूँगा भी नहीं ।
वन अधिकारी के घर जन्म लिया । जब तक छोटा रहा पिता व परिवार के साथ दूरियाँ तय करनेके लिए मुझे बोझा ढोनेवाले बेगारियों की पीठ पर ढोए जा रहे माल-असबाब के ऊपर धर दिया जाता । तब बेगार के ऊपर, उनकी पीठ पर बैठकर मैं यात्राएँ करता रहा । अब वे भारवाहक मुझे अपने सर के ऊपर बैठे मालूम होते हैं । पीठ पर ढोने के बजाय सर पर ढोना बहुत कठिन होता है । उनके उस भार को अपने सर से उतार नहीं पाता । जिन्होंने एक-दो दिन कभी मुझे अपनी पीठ पर ढोया वे आजीवन मेरे सर पर सवार मालूम हो गए लगते हैं । उनके उस जीवन की व्यथा का बयान करने की कोशिश करता रहता हूँ ।
अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ । साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, कहीं ऊपर पहुँचने-चढ़ने की कोई अस्थायी सीढ़ी नहीं, ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है । लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज के तौर पर अंजाम देता हूँ । किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की सिफारिश पर नहीं लिखता । जो मन में आए वह लिखता हूँ । सिर्फ वही लिखता हूँ ।
कोई भी मनुष्य नितान्त अकेला नहीं जी सकता । किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियाँ पूरे समाज की उपलब्धियाँ होती हैं । बचपन से उसके निर्माण में असंख्य लोगों का
योगदान रहता है । इस दुनिया का हर कार्य अनगिनत लोगों के सामूहिक श्रम का प्रतिफल होता है । 'सूरज सबका है" में मैने इस तथ्य को, समाज की सामूहिकता के प्रश्न को भी, रेखांकित करने का प्रयास किया है । 'भीम अकेला " में भी यह बात और खुल कर सामने आती है जहाँ एक पीढ़ी के बजाय, हमारे इतिहास में विचरण करते हुए अनेक लोग समान रूप से कार्यरत दिखाई देते हैं ।
अपनी कहानियों में मैं मामूली लोगों पर होनेवाले सामंती अत्याचार के विरोध में अपने को खड़ा पाता हूँ । जहाँ मेरे पात्र कोई प्रतिरोध नहीं कर पाते, मेरी मंशा रहती है कि उस स्थिति को देखकर पाठक के मन में प्रतिरोध की भावना जागृत हो । अक्सर वे अत्याचार हमारी सामाजिक व्यवस्था की उपज के रूप में दिखाई देते हैं । तब मात्र सत्तासीन कुछ व्यक्तियों को बदलने के बजाय पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना पाठक को एकमात्र विकल्प प्रतीत होने लगे ऐसी मेरी कोशिश रहती है । ' खच्चर फगणू नहीं होते " तथा ' उमर कैद " जैसी अनेक कहानियों में मैने यही प्रयास किया है । सामाजिक व्यवस्था का बदलाव अकेले व्यक्तियों के द्वारा, चाहे वे कितने ही महाबली हों, किया जाना संभव नहीं । ' फट जा पंचधार " में अपनी सदिच्छा और कोशिशों के बावजूद सवर्णों के कसे हुए जाल में फँसा हुआ वीरसिंह पराजित हो जाता है और रक्खी सड़क पर आ जाती है । यह अकेले वीरसिंह की नहीं, उस समाज में जी रहे कुल नौजवानों की पराजय है । ' भैंस का कट्या " में गबलू व उसके माता-पिता की मज़बूरियाँ पाठक के दिमाग में स्पष्ट हो उठती हैं, जब एक जानवर गज्जू के प्रति उनके दृष्टिकोणों के अन्तर गायब हो जाते हैं और वे सब उसकी मौत पर एक समान पीड़ा का अनुभव करने लगते हैं ।
अपना लेखन कार्य करते वक्त मुझे लगता है इस कार्य को मैं अकेले नहीं कर रहा हूँ, मेरे कुल पात्र मेरे साथ हैं जो अपनी कहानी मुझसे लिखवा रहे हैं और यह एक मिली-जुली प्रक्रिया है। अनेक पात्रों को मैं वर्षों तक अपने अन्दर जीता आया हूँ । अपनी अब तक की रचनाओं के लेखन से मेरे अन्दर एक आत्मविश्वास पैदा हुआ । भविष्य में मैं नए विषयों पर लिखना चाहता हूँ । सन् 1930 में टिहरी रियासत के बागी किसानों की ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड में अमर भूमिका पर अब लिखना शुरू किया है जिसका एक अंश ' वसुधा " ने ' यमुना के बागी बेटे " शीर्षक से प्रकाशित किया ।
सभागार में उपस्थित मित्रों तथा भारत के कोन-कोने से देहरादून तक पहुँचने वाले साहित्यकारों के अहसान से मुझे शेष जीवन में शक्ति मिलती रहेगी

विद्यासागर नौटियाल
nautiyalvs@yahoo.com