Monday, December 8, 2008

दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो

यूं तो अवधेश कुमार अपनी कविताओं या अपने स्केच के लिए जाने जाते रहे। पर अवधेश कहानियां भी लिखतेथे। "उसकी भूमिका" उनकी कहानियों का संग्रह इस बात का गवाह है। उनकी कहानियों में उनकी कवि दृष्टिकितनी गद्यात्मक है इसे उनकी लघु कथाओं से जाना जा सकता है।

अवधेश कुमार

भूख की सीमा से बाहर



उन्होंने मुझे पहले तीन बातें बताईं-
एक: जब तक लोहा काम करता है उस पर जंग नहीं लगता।
दो: जब तक मछली पानी में है, उसे कोई नहीं खरीद सकता।
तीन: दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं है कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो।

यह कहते हुए मेरे दुनियादार और अनुभवी मेजबान ने खाने की मेज पर छुरी के साथ एक बहुत बड़ी भुनी हुई मछली रख दी और बोले, "आओ यार अब इसे खाते हैं और थोड़ी देर के लिए भूल जाओ वे बातें जो भूख की सीमा के अन्दर नहीं आतीं।"




बच्चे की मांग

बच्चे ने अपने पिता से चार चीजें मांगीं। एक चांद। एक शेर। और एक परिकथा में हिस्सेदारी। चौथी चीज अपने पिता के जूते।

पिता ने अपने जूते उसे दे दिये। बाकी तीन चीजों के बदले उस बच्चे को कहानी की एक किताब थमा दी गई।

बच्चा सोचता रहा कि अपने पैर किसमें डाले ? जूते में या उस किताब में।



बच्चों का सपना


बच्चा दिनभर अपने माता-पिता से ऐसी-ऐसी चीजों की मांग करता रहा जो कि उसे सपने में भी नहीं मिल सकती थीं।

खैर वे उसे नहीं मिलीं।

श्रात को ज बवह सो गया तो उसकी नींद के दौरान उसका सपना उससे वो-वो चीजें छीनकर अपने पास छुपाता रहा जो-जो उसे सपने में नहीं दे सकता था।

Saturday, December 6, 2008

दिसम्बर 1992

(एक पुरानी कविता)
विजय गौड

आस्थओं का जनेऊ
कान पर लटका
चौराहे पर मूतने का वर्ष
बीत रहा है

बीत रहा है
प्रतिभूति घोटालों का वर्ष
सरकारों के गिरने
और प्रतिकों के ढहने का वर्ष

अपनी अविराम गति के साथ
बीत रहा है
सोमालिया की भीषण त्रासदी का वर्ष
हड़ताल, चक्काजाम
और गृहयुद्धों का वर्ष

अपने प्रियजनों से बिछुड़ने का वर्ष

हर बार जीतने की उम्मीद के साथ
हारने का वर्ष

Friday, December 5, 2008

साहित्य धंधा नहीं है, जनाब!

यह आम बात है कि कई बार बातचीत के दौरान वक्ता अपनी बात को रखने के लिए कुछ ऐसे मुहावरों को प्रयोगकर लेते हैं जो गैर जरूरी तरह की टिप्पणी भी हो जाती है। जो अपने मंतव्य में वक्ता के ही उदगारों के विरुद्ध हो जारही होती है। ऐसी स्थितियां क्या कई बार रचनाओं में भी नहीं दिख जा रही होती हैं ? मुझे लगता है कि अवचेतन मेंमौजूद किसी विषय की अस्पष्टता ही ऐसी गैर जरूरी टिप्पणियों के रूप में रचनाओं में भी और बातचीत में दिखजाती है। वरना अध्यनशील लोगों के लिए यह चिन्हित करना कोई मुश्किल काम नहीं कि क्या बात तार्किक रूप सेगलत है और जिसे नहीं कहा जाना चाहिए। वो तो अवचेतन ही है जहां हमारे मानस की वह महीन बुनावट होती हैजिसमें हम अपनी तमाम कमजोरियों के साथ पकड़ लिए जाते है। कथाकर जितेन ठाकुर का यह आलेख ऐसी हीस्थितियों पर चोट करता है और गैर जरूरी तरह से की जाने वाली टिप्पणियों की पड़ताल करता है।

जितेन ठाकुर

मौका था एक उदीयमान लेखक के पहले कथा संग्रह पर आयोजित संगोष्ठी का। संगोष्ठी में चर्चाओं का दौर, सहमति-असहमति, शिक्षा-दीक्षा सभी कुछ उफान पर था। पुस्तक की समीक्षा में सम्बंधों का निर्वाह भी हो रहा था और निर्ममता भी बरती जा रही थी। 'मैं लिखता तो ऐसे लिखता" की तर्ज पर कहानियों की चीर-फाड़ जारी थी। तभी महफिल की शमा एक स्वनामधन्य कवि के सामने पहुँच गई। कविराज ने अपने पहले ही वाक्य में साहित्य को 'धंधा" बतलाया तो मुझे हंसी आ गई। बात गम्भीर थी- हंसी की तो बिल्कुल भी नहीं थी। पर पता नहीं क्यों मुझे हंसी आ गई। मुझे समझ लेना चाहिए था कि यह वक्ता का नितांत व्यक्तिगत अनुभव है और इसे वक्ता से ही जोड़ कर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। पर सोच की जिस पैनी कनी ने मुझे तत्कला छील दिया था वह यह थी कि अगर साहित्य को धंधा मान लिया जाए तो लेखकों को तो धंधे वाला कह कर निपटाया जा सकता है पर लेखिकाओं को कैसे सम्बोधित किया जाएगा।
बहरहाल! मेरे हंसने के बाद वक्ताश्री सतर्क हो गए और अपनी कही हुई बात को सिद्ध करने की मुहिम में लग गए। अनेक उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया कि हम सब झूठ घड़ते हैं। ये झूठ की हमें साहित्यकार बनाता है, स्थापित करवाता है और बदले में ढेरों लाभ भी दिलवाता है। अब ये उन स्वनाम धन्य कवि का स्वानूभूत सत्य था, अतिरेक था या फिर अति आत्मविच्च्वास। पर ये जो भी था साहित्य के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ नकारात्मक सोच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
जिस प्रकार कोई भी धंधा साहित्य नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार साहित्य भी धंधा नहीं हो सकता। साहित्य से जुडे अन्य सभी कर्म यथा छापाखाना, जिल्दसाजी विक्रय और प्रबंधन धंधा हो सकते हैं। साहित्य की आड़ लेकर पद, प्रतिष्ठा और पुरुस्कार हथियाने के लिए पैंतरे बाजी करना भी धंधा हो सकता है। साहित्यक चेले इठे करके महंत हो जाना, प्रायोजित चर्चाएं करना-करवाना, पुरुस्कारों की होड़ में सौदे पटाना, इसको उठाना- उसको गिराना यानी साहित्य की आड़ में ये सब धंधे हो सकते हैं पर इन सब कृत्यों की नींव में दफ्न साहित्य न कल धंधा था- न आज धंधा है। साहित्य को धंधा बना दिया जाए ये और बात है पर साहित्य धंधा हो जाए- ये मुमकिन ही नहीं है। इसलिए परिस्थितियों का सरलीकरण करते हुए साहित्य को धंधा कहने या फिर साहित्य कर्म को 'झूठ घड़ने" का फतवा देने से पहले आवच्च्यक है कि आत्म मंथन किया जाए। यह शोभनीय नहीं कि हम अपने को अपने से ही छुपाने की को्शिश में उन सब पर कीचड़ उछाल दें जो आज भी साहित्य को साहित्य ही मानते हैं- धंधा नहीं।
दरअसल, साहित्य जीवन की एक द्रौली है। तटस्थ और शुश्क इतिहास की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। तीर और तलवार से पैनी और बारूद से अधिक विध्वंसक होते हुए भी जल से ज्यादा शीतल और प्रवाहमय है। साहित्य समय की अर्न्तधारा है, केवल स्थूल चित्रात्मकता नहीं। समाज की शिराओं में बहता हुआ लहू हैं साहित्य। साहित्य कंठ से नीचे उतरता कौर नहीं है बल्की श्वास नलिका में रिसती हुई प्राण-वायु है। साहित्य संस्कार है, आचमन है और तर्पण भी है साहित्य। शवों की सीढ़ियाँ चढ़ कर सिंहासन तक पहुँचने वालों के लिए चुभते रहने वाली कील है साहित्य। और यही साहित्य किसी प्रलंयकारी रात में सूरज की उम्मीद भी है।
साहित्य चेतना है, स्वाभिमान है और आत्ममंथन के लिए भी है। ऐसे में साहित्य को धंधा कहना किसी व्यापारी का दृष्टिकोण तो हो सकता है पर किसी साहित्यकार का नहीं।
साहित्य न तो त्रिवेणी में डुबकी का मोहताह है न हज का। न तो अमृत छकने में साहित्य बनता है और न ही शराब में भीगी रोटी जुबान पर छुआने से। इसे न तो कालिंदी तट की रास लीलाएँ दरकार हैं और न ही किसी आराध्य की एकांत उपासना। कोई दृद्गय, कोई स्थिति, कोई विचार, समय या समाज इनमें से कुछ भी अकेला साहित्य हो जाए ये सम्भव ही नहीं हैं- पर साहित्य इनमें से कुछ भी हो सकता है। क्योंकि साहित्य अनुकृति नहीं है सृजन है और सृजन की सीमाएँ नहीं होतीं। जिसकी सीमाएँ नहीं उसका व्यापार कैसा?
दरअसल जब हम साहित्य को धंधा कहते हैं तो हम आत्मप्रवंचना से भरे हुए होते हैं। हमें लगता है कि हमारा कहा हुआ वाक्य ही समय है और यही युगों के शिलालेख पर अंकित होने जा रहा है। आत्मकुंठा और आत्ममुग्धता के बीच की स्थितियों से गुजरते हुए, अपने होने के अहसास को बनाए रखने के लिए हम कई-कई बार ऐसी घोषणाएँ करते हैं- जो हमारे वजूद के लिए दरकार होती हैं। हम मान लेते हैं कि हमारा झूठ समय का झूठ है, हमारी कुंठा समय की कुंठा है। हम अपनी प्रवंचना को समय के साथ गूंथ कर उसे कालजयी बना देना चाहते हैं। हम यह सिद्ध कर देना चाहते हैं कि हम श्वास नहीं लेते फिर भी जीते हैं, हम नेत्र नहीं खोलते फिर भी देखते हैं। हमारे कान वो सब सुन सकते हैं जो पीढ़ियों पहले से वायुमण्डल में अटका हुआ है और हमारी जीह्वा जो कहती है- वही सत्य है। इसलिए जब हम कहें कि साहित्य धंधा है- तो उसे धंधा मान ही लिया जाए। नहीं तो इसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास दलीलें हैं। हम जिरह कर सकते हैं और इस जिरह के लिए लावण्यमयी भाषा भी घड़ सकते हैं।
मुझे याद आता है कि वर्षों पहले अनेक संगोष्ठियों में साहित्य के कुछ पंडित अपना पांडित्य प्रदर्शित करते हुए बार-बार एक ही बात कहते थे कि साहित्य के पास अब पाठक नहीं रहा। साहित्य के पास पाठक रहा या नहीं- ये एक अलग बहस की बात हो सकती है पर उनके इस कथन में जो अर्थ निहित था वो यही था कि 'हे लेखक! हमारी शरण में आ जाओ क्योंकि साहित्य में तुम्हें स्थापित करने वाला पाठक अब शेष नहीं है। हमारे शरणागत होने के बाद ही तुम स्थापित और चर्चित हो पाओगे।" बहुत से लेखकों ने इस कथन के निहितार्थ को भांपा और शरणागत हुए। ऐसे ही साहित्य को धंधा बताने वाले स्वनामधन्य भी यदि नये लेखकों को अपने धंधे के गुर सिखाने के लिए कोई नया संस्थान खोल लें तो आश्चर्य नहीं।
अरविंद त्रिपाठी ने एक बार कहा था कि यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी रचना के साथ कितना समय बिताते है। इसका यही अर्थ है कि हमने जो लिखा उसका गुण-दो्ष हमें तुरंत ही पता नहीं चलता क्यों कि हम लम्बे समय तक अपनी रचना के सम्मोहन में जकड़े रहते हैं। इस सम्मोहन से मुक्त होने के बाद ही हम तटस्थ होकर अपने लिखे हुए का विश्लेषण कर सकते हैं। फिर ये कितना उचित है कि किसी संगोष्ठी में प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए विचार से कोई स्वयं ही इतना सम्मोहित हो जाए कि उसे प्रमाणिक बनाने और मनवाने के लिए इतना जूझे कि विवेक को ही ताक पर रख दे। पर शायद कुछ लोगों का यही धंधा है क्योंकि उनके लिए यही साहित्य है।

Friday, November 28, 2008

यादों के झरोखों से

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार डॉ कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बीमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया था। रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून केरचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी।
आगामी रविवार 30 नवम्बर 2008 को डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री नीरजा चतुर्वेदी ने अपने निवास पर एक गोष्ठीआयोजित की है जिसमें जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले पर चर्चा होनी है।
कथाकार जितेन ठाकुर डॉ कुसुम चतुर्वेदी के प्रिय शिष्यों में रहे हैं। डॉ कुसुम चतुर्वेदी पर लिखा गया उनका संस्मरण प्रस्तुत है।




जितेन ठाकुर

श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी नहीं रहीं। सुनकर सहसा ही विश्वास नहीं हुआ। बार-बार नियति से जूझने वाली, पराजय स्वीकार न करने वाली। एक अनुशासित शिक्षिका, एक ममतामयी माँ, एक अकेली आशंकित महिला और एक गम्भीर लेखिका। मैडम अब कभी दिखलाई नहीं देंगी- यह सोच पाना मेरे लिए सरल नहीं है। स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी देहरादून की उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं जब आदमी को आदमी के पास बैठने की फुर्सत होती थी, मिल बैठ कर दुख-दर्द बांटे जाते थे, लिखने-लिखाने पर लम्बी बातचीत और बहस होती थी, सम्बंधों में अपनत्व की सुगंध होती थी और इस द्राहर के लोग एक दूसरे को आहट से पहचान लेते थे।
1981 में मैंने पहली बार मैडम चतुर्वेदी के द्वारा पर दस्तक दी थी। डरा सहमा हुआ मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था, किवाड़ श्री चतुर्वेदी ने खोले थे। लम्बा कद, गोरा रंग। भव्य व्यक्तिव के स्वामी थे, श्री चतुर्वेदी
"जी! मुझे श्रीमती नारंग ने भेजा है।" मैंने जैस-तैसे थूक निगल कर अपनी बात कही थी। घर का हरियाला परिसर, विशाल भवन और चमचमाते हुए फर्श मेरे भीतर हीन भावना भर रहे थे। प्रयत्न के बाद ही शब्द मेरे कंठ से बाहर आ पाए थे। उन दिनों ऐसे परिसर और भवन, भवनस्वामी की सुरूची और सम्पन्नता के प्रतीक हुआ करते थे।
"ओह! अच्छा तुम पी0एच0डी0 करना चाहते हो।" श्री चतुर्वेदी को शायद मेरे आने की जानकारी थी। मैं सहमा हुआ उनके साथ ड्राईंगरूम में प्रवेश कर गया और झिझकता हुआ सोफों से दूर पड़ी एक सैटी पर बैठ गया। कुछ समय बाद मैडम चतुर्वेदी ने ड्राईंगरूप में प्रवेश किया। उन्होंने एक बेहद सादी धोती पहनी हुई थी। लम्बे-लम्बे डग भरती हुई वे आकर सोफे पर बैठ गई थीं। उनकी बातचीत इतनी सरल और सहज थी कि मेरी कल्पना में भरा हुआ उनकी विद्वता का आतंक जाता रहा।
कुछ ही समय बाद चतुर्वेदी साहब का निधन हो गया था। चतुर्वेदी साहब का निधन उस परिवार को रीत देने के लिए पर्याप्त था। उनके साथ मेरा सानिध्य बहुत ही कम रहा पर मैंने जितना भी उन्हें जाना, वे केवल व्यक्तिव से ही भव्य और विशाल नहीं थे- विचारों से भी अत्यंत उदात और आधुनिक थे। उनका व्यक्तिव भी ऐसा था कि सहसा ही श्रद्धा उत्पन्न होती थी।
विवाह के बाद जब मैं पहली बार पत्नी सहित उस घ्ार में गया था और पत्नी ने चतुर्वेदी जी के चरण स्पर्श किए थे तो उन्होंने जो कहा था वो मुझे आज भी याद है। वे थोड़ा पीछे हटते हुए बोले थे
"बेटी झुको मत! अपने को ऊँचा उठाओ और सिर उठा कर जियो"
पर पास खड़ी हुई मैडम ने हंसते हुए अधिकार भरे स्वर में कहा था "आप पैर छुवाएं या न छुवाएं मैं तो पैर छुवाऊंगी। जितेन की पत्नी है मेरा तो पैर छुवाने का अधिकार बनता है।" ऐसा था वो घर- ऊर्जा और अपनत्व से भरा हुआ।
मैडम ने अपना ये अधिकार कभी छोड़ा भी नहीं। अपनी व्यस्तता अथवा अन्य कारणों से यदि मैं कुछ समय मैडम के यहाँ नहीं जाता तो मैडम, फौरन उलाहना देतीं "अच्छा! अब तुमने भी आना बंद कर दिया है।" और मैं चोरी करते हुए पकड़े गए बच्चे की तरह सफाई पेश करने लगता।
स्व0 चतुर्वेदी के निधन के बाद घर में बहुत उदासी और अकेलापन हो गया था। परंतु मैडम ने ऐसे में भी अपनी बेटी को अमेरिका जाने की स्वीकृति केवल इसलिए दे दी थी क्योंकि यह उनके स्वर्गीय पति की इच्छा थी। बेटी नीरजा के चले जाने के बाद जीवन में आए अकेलेपन और उदासी का उन्होंने अदम्य इच्छा शक्ति के साथ सामना किया था। घर की साफ-सफाई, मरम्मत-पुताई और जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वो किसी पर ज्यादा आश्रित नहीं हुई थीं।
महिला लेखिकाओं में वो समय स्व0 शाशि प्रभा शास्त्री का था। दिल्ली में अपने सम्पर्क और बाद में दिल्ली प्रवास के कारण श्रीमती शास्त्री का वर्चस्व लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं पर था। लगभग उसी समय धर्मयुग में छपी अपनी कहानी 'उपनिवेश' से मैडम चतुर्वेदी ने चौंकाया था। देहरादून के ही एक नामी स्कूल पर लिखी गई यह कहानी अपने पीछे बहुत से प्रश्न छोड़ गई थी।
लेखन का वो दौर जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को कलात्मक तरीके से पिरोने का दौर था। मैडम की कहानियों में उस दौर की विशेषताओं के साथ ही स्त्रीमन की अतृप्त इच्छाओं ओर आकांक्षाओं की एक सबल अन्तर्धारा भी मिलती है। सारिका में छपी एक लम्बी कहानी और 'तीसरा यात्री' नामक कहानियाँ स्त्रीमन की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति है। मैडम ने जितना भी लिखा, स्तरीय लिखा। जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को आपने सफलतापूर्वक उकेरा। पर अपने अकेलेपन को आपने कभी किसी दूसरे पर नहीं थोपा, न जीवन में- ना साहित्य में।
बढ़ती आयु के साथ गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें चिंतित कर दिया था। इस चिंता के पीछे अकेलेपन का एहसास भी प्रभावी था। पर सात समुंदर पार बैठी बेटी को वो अपनी समस्याओं से अछूता रखने का प्रयत्न करतीं। एक बार उन्होंने ही मुझे बताया था कि बेटी के पूछने पर उन्होंन बहुत से नाम गिनवा कर कहा था- 'यह सभी लोग तो मिलने आते रहते हैं, मैं अकेली कहाँ हूँ। यद्यपि वास्तविकता ये थी लोग बहुत-बहुत दिनों के बाद ही मिल पाते थे।
पहली बार उनकी बीमारी की सूचना मिलने पर जब मैं हस्पताल में उन्हें मिलने गया था तो बातचीत में यूं तो वो सामान्य दिख रही थीं पर उनकी स्मृतियों से जैसे कुछ मिट गया था। काफी देर तक बातचीत करती रही थीं फिर बोली थीं
"मुझे तो याद ही नहीं आता कि मैं कैसे इतनी बिमार हो गई"
एक बार जब आँख के किसी डाक्टर ने उन्हें कहा था कि "देखती आँख है- चश्मा नहीं।" तब भी वो चिंतित हुई थीं। एक रात किसी लक्ष्ण से आच्चंकित होकर जब वो कारोनेशन हस्पताल चली गई थीं- तब भी वो चिंतित थी। जब एक डाक्टर ने अपना फोन नम्बर देकर उन्हें कहा था कि आपको सिर्फ फोन करना है बाकी हम देख लेंगे- हमारी एम्बुलेंस फौरन पहुँच जाएगी" तब भी वो चिंतित थीं पर इस अंतिम बिमारी में वो चिंतित नहीं थी क्यों कि उनकी बेटी उनके पास थी।
मैं अक्सर देखता था कि वो एक बहुत बड़े कप में पिया करती थीं। ड्राईंगरूम में रखी हुई स्व0 चतुर्वेदी साहब की तस्वीर पर धूल का एक भी कण बैठने नहीं देती थीं। किसी ने किसी कारण से हमेशा उनके फ्रिज में मिठाई रहती। ये बेसन के लड्डू और लौकी की लाज भी हो सकती थी और नारीयल की बर्फी और मोतीचूर के लड्डू भी। यह सब वो बहुत स्नेह और आग्रह से खिलाती थीं। बहुत सी घटनाएँ जो पिछली बार मिलने के बाद से आज तक हुई थीं- सिलसिलेवार सुनातीं। पर इन सब बातों के बीच वो लिखने और लिखते रहने की बात को अक्सर टाल जातीं।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने वहाँ के बहुत से संस्मरण सुनाए थे। मिशिगन के मोहक फोटोग्राफ भी दिखलाए थे। तब मैंने उनसे बार-बार संस्मरण लिखने के लिए कहा था। उन्होंने उत्साह भी दिखलाया पर शायद ही वो पूरे संस्मरण लिख पाई हों।
मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि उनके पास औसत महिलाओं से कहीं अधिक तीक्ष्ण अर्न्तदृष्टि थी, विषयके मर्म को समझने की अद्भुत सामर्थ्य थी और बेहतर लेखकीय समझ थी। पर वो कभी भी इसे प्रकट नहीं करती थीं। उनके जीने की द्रौली बेहद सरल, सहज और एक घरेलू महिला जैसी थी। शिक्षिका होने का न दम्भ न लेखिका होने की दिखावट। सब कुछ स्वभाविक और प्राकृतिक परंतु सजग। उन्होंने मकान की नेम प्लेट हटवाकर वहाँ नया पत्थर केवल इसीलिए लगवाया था क्योंकि उसमें बेटी नीरजा का नाम खुदा हुआ नहीं था।
अपनी दिनचर्या में उन्हें जितनी चिंता मकान के फीके होते रंग-रोगन की सताती थी उतनी ही लान में खिलते और मुरझाते हुए फूलों की भी। उन्हें फर्श पर उभर आया दाग भी चिंतित करता था और बढ़ते हुए घास की कटाई भी। उन्हें अपने घर के रख-रखाव से उतना ही मोह था जितना किसी भी घ्ारेलु महिला को हो सकता है। सात समुंदर पार बैठी अपनी बेटी के एक-एक पल की उतनी ही चिंता थी- जितनी किसी ममतामीय मां को हो सकती है। वो अपने अकेलेपन से उतना ही आतंकित रहतीं- जितना इस आयु में कोई भी अकेली महिला रह सकती हैं। पर उनकी बातचीत में सदा एक संकल्प होता था। परिस्थितियों से जूझने की अद्भुत सामर्थ्य थी उनमें।
मैडम सदा चाहती थीं कि उनके यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा हो। संगोष्ठी हो पर हमेशा संकोच कर जातीं। पता नहीं क्यों आमंत्रित साहित्याकारों की आवभगत को लेकर वो सदा चिंतित रहा करती थीं। यही एक कारण था कि उनके चाहने पर भी उनके यहाँ बैठकें टलतीं रहीं।
आज जब मैडम स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी हमारे बीच नहीं है- उन्हें याद करते हुए अंत में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कारों में एक महिल का जो बिम्ब बनता है- वो ठीक वैसी ही थीं। देहरादून के साहित्य जगत में वो सदा याद की जाएंगी।

Wednesday, November 26, 2008

दम तोड़ती भाषा

यादवेन्द्र जी संवेदनशील और एक सचेत नागरिक हैं। दुनिया जहान की खबरों से अपने को जोड़े रहते हैं और हर उस गतिविधि के साथ अपना जुड़ाव बनाए रखना चाहता हैं जो इस दुनिया की विविधता को तहस नहस करनेवाली ताकतों के खिलाफ हो। ऐसी ही सामाग्री जब उन्हें कहीं भी दिख जाती है तो वे चाहते हैं उससे हिन्दी का पाठक समुदाय भी वाकिफ हो सके। इसके चलते ही वे अक्सर ऐसी सामाग्री को खोज-खोज कर अनुवाद में जुटे रहते हैं। हम उनकी इस कोशिश के साथ अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं- जब उनके अनुवादों को कहीं भी पढते हैं। उनके अनुवादों को इस ब्लाग में प्रकाशित कर हम उनका आभार व्यक्त करना चाहते हैं।

भाषा के सवाल को यादवेन्द्र जी विश्व मानचित्र में व्यक्ति और समुदाय के जनतांत्रिक अधिकार के रूप में देखते हैं। किन्हीं खास षड़यंत्रों के चलते विलुप्त होती भाषाओं को बचाये रखने की कोशिश उन षड़यंत्रों की मुखालफत ही है जो विविधता की बजाय एक जैसे धर्म, एक जैसे समाज, एक जैसी जीवन शैली को आरोपित करने पर आमादा है। "काउंटर पंच" में 26/27 नवम्बर 2005 को प्रकाशित एक आलेख में उल्लेखित कविता को अनुवाद कर यादवेन्द्र जी ने अपने हस्तलेख की फोटो के रूप में भेजा है जिसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


दम तोड़ती भाषा


जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो दैवी वस्तुएं
तारे, सूर्य और चन्द्रमा- और
मानवीय वस्तुएं
चिंतन और अनुभूति -
सब कुछ ओझल होते होते
बंद हो जाते हैं दिखना
इस दर्पण में।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो सब कुछ
जो इस दुनिया में मौजूद है-
महासागर और नदियां
पशु पक्षी और पौधे,
बंद हो जाता है
कहीं भी उसके बारे में सोचना
और कभी भी उनके नाम उचारना---
बस इस धरती से पुंछ जाता है
उनका अस्तित्व ही।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
तो दुनियाभर के लिए
तमाम दरवाजे और खिड़कियां
हो जाते हैं सब बंद---
अब कोई कभी नहीं समझ पाएगा
दैवी और मानवीय वस्तुओं को
पुकारने के इतर ढंग---
इनकी दरकार है बड़ी
इस धरती पर रहते रहने के लिए।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
प्यार के बोल
पीड़ा और स्नेह की भंगिमाएं
पुराने गीत
किस्से, कहानियां, बोलचाल, प्रार्थनाएं-
चाहे तो भी किसी के लिए
दुहरा नहीं पाएगा कोई
इन्हें अब कभी भी ।

जब कोई भाषा दम तोड़ती है
इससे पहले भी लोप हो चुका होगा कईयों का
तथा कई और कगार पर होंगी
दम तोड़ने के
अमूल्य दर्पण खण्डित हो जाएंगे
सदा सदा के लिए
जिनमें संवाद की छवियां
नहीं दिखेंगी अब कभी
मानवता और भी दरिद्र होती जाएगी दिनों दिन
जब तक दम तोड़ती रहेगी कोई भाषा।