Wednesday, February 25, 2009

खतरे में भाषा-बोलियाँ

अरविंद शेखर युवा हैं। एक प्रतिबद्ध पत्रकार हैं। नेपाल में जिन दिनों जनता का एक निर्णायक संघर्ष जारी था, उस दौरान अरविन्द ने नेपाल की स्थिति पर पैनी निगाह रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण आलेख लिखे। उसी दौरान अरविन्द को उमेश डोभाल स्म्रति सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्तमान में अरविंद शेखर दैनिक जागरण, देहरादून मे काम कर रहे हैं। भाषा के सवाल पर उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई थी। यहां प्रस्तुत करने का खास कारण यह है कि भाषा को लेकर ऎसी ही चिन्ता इससे पूर्व हमारे वरिष्ट साथी यादवेन्द्र जी रख चुके है। अरविन्द ने हमारे बिल्कुल आस पास उन स्थितियों को पकडते हुए अपनी चिन्ताओं को रखा है।


अरविंद शेखर

गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो समेत उत्तराखंड की दस बोलियां भी खतरे में है। इनमें से दो बोलियां तोल्चा रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। यूनेस्को ने अपने एटलस आफ दि वल्र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में सूबे की इन भाषाओं को शामिल किया है। यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को)के एटलस के मुताबिक उत्तराखंड की पिथौरागढ़ जिले में बोली जाने वाली रंग्कस और तोल्चा बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को लगभग 12000 लोग बोलते हैं। यह भी विलुप्ति के कगार पर है। पिथौरागढ़ की ही दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। एटलस के मुताबिक दारमा बोली को 1761 लोग, ब्यांसी को 1734 , जाड को 2000 और जौनसारी को अनुमानत: 114,733 लोग ही बोलते समझते हैं। एटलस के मुताबिक गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो बोलियां पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन्हें असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। यूनेस्को के मुताबिक अनुमानत: दुनिया में 279500 लोग गढ़वाली, 2003783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहींकि इन क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मालूम हो कि 30 भाषाविदों के अध्ययन पर आधारित यह भाषा एटलस शुक्रवार को जारी हुआ है। यूनेस्को के मुताबिक विश्व में 200 भाषाएं पिछली तीन पीढि़यों के साथ विलुप्त हो गईं। दुनिया में 199 भाषा-बोलियां ऐसी हैं जिन्हें महज 10-10 लोग ही बोलते हैं। 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा का कहना है हालंाकि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों की राजी जनजाति की बोली को एटलस मे शामिल नहीं किया है मगर यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 517 लोग ही बचे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक उत्तराखंड की बोलियां उन पर हिंदी-अंग्रेजी के वर्चस्व, असंतुलित विकास पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन बढ़ते शहरीकरण की मार झेल रही हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अधीक्षक डॉ.एसएनएच रिजवी के मुताबिक खतरे में पड़ी इन भाषा बोलियों का संरक्षण बहुत जरूरी है अन्यथा मानव समाज अपनी बहुमूल्य विरासत को खो देगा।

Sunday, February 22, 2009

समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

पौड़ी गढ़वाल में जन्मे डा.शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष (हिंदी) के पद से सेवानिवृत हुए हैं। 50 के दशक में डा.शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शोभाराम शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय समय में प्रकाशित हुआ है।


पूर्वी कुमाउ तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों (वन रावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध्प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है। क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) उनकी ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछले दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेगें। जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का उपन्यास), जो निकट भविष्य में ही प्रकाशित होने वाला है एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डा.शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिसमें उत्तराखण्ड का जनजीवन और इस समाज के अन्तर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए है। वन राजियों पर लिखा उनका उपन्यास, जो प्रकाशानाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऎसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी उनकी कहानी समन्या साब! समन्या ठाकुरो! हम पूरे आदर के साथ प्रस्तुत कर रहे है।


समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

डॉ। शोभाराम राम शर्मा

स्थानीय मिडिल स्कूल के अहाते में उस दिन बड़ी हलचल थी। ऐसी हलचल कि जो इलाके के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। और यह सब थोकदार जीतू रौत ऊर्फ जीत सिंह जी के कुलदीपक भवान सिंह के अथक प्रयास का नतीजा था। तब के लाहौर में अपने मामा उमेद सिंह के सरंक्षण में पढ़ते समय वे आर्य समाजियों के संपर्क में क्या आए कि उनके विचारों का प्रभाव दिनोंदिन गहरा होता गया। इंटर पास करने के बाद जब घर लौटे तो आर्य समाजी विचारों के प्रचार-प्रसार का जुनून सवार हो गया। कुछ राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के समर्थन और मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य व कुछ शिक्षकों के सहयोग से आयोजन परवान चढ़ गया। सभा की अध्यक्षता के लिए जब थोकदार जीतसिंह के नाम का प्रस्ताव आया तो किसी ने भी विरोध् नहीं किया। वे पहले तो बेटे के विचारों से सहमत नहीं थे लेकिन जब जिला परिषद के चुनाव में उन्हें इलाके से खड़ा करने का प्रलोभन मिला तो रातोंरात अपने विचारों से समझौता करने को तैयार हो गए। और आज सभा में सपफेद टोपी पहनकर बेटे के विचारों के पोषक बनकर चहक रहे थे। सभा में बीस-तीस विद्यार्थी और साठ-सतर दूसरे लोग जमा थे। यह इलाके में आज तक कि सबसे बड़ी सभा थी। अधिकांश लोग परिगणित जातियों से ही थे जिन्हें सभास्थल तक लाने में थोकदार जी के अपने हलिया (हलवाहा) लूथी के बेटे केसी की भूमिका सर्वोपरि थी। सवर्णों में कुछ गांव के मौरुसी प्रधन और कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता शिरकत करने आए थे। आर्य-समाज की इस मुहिम के विरोधी दो-चार पुराण-पंथी भी मुंह बिचकाए पिफर रहे थे। महिलाओं की संख्या तो नाम-मात्र को थी। दो-चार वे नारियां जिनका पेशा ही नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करना था, अपने मर्दों के साथ चुपचाप बैठी तमाशा देख रही थीं।
थोकदार जी के सभापति के आसन पर विराजमान होते ही सभा-संचालक ने सबसे पहले उस दिन के प्रमुख वक्ता भवान सिंह का आह्वान किया। भवान सिंह ने सभी आंगतुकों का अभिवादन करते हुए जो जोशीला वक्तव्य दिया उसका लब्बोलुआब यही था कि अगर देश और हिंदू समाज को आगे बढ़ना है तो वेदों की ओर लौटना होगा। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश" में जो राह सुझाई है, उसी से देश का कल्याण संभव है। दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत तो हमारे वेद ही हैं लेकिन पुराण-पंथियों ने कुछ ऐसी विकृतियां पैदा कर दी हैं कि आज जगत गुरु भारत दूसरों के तलुवे चाटने पर मजबूर है। वेदों का महत्व पश्चिम के लोगों और विशेषकर जर्मनों ने समझा है। उसी के दम पर वे आज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रा में नए-नए अनुसंधन करने में सपफल हो रहे हैं। पूंजी हमारी है लेकिन लाभ दूसरे उठा रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो यही है कि हमने शिल्पकार जैसे उपयोगी अंग को ही बाहर कर दिया। उन्हें अछूत कहकर नारकीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। परिणाम सापफ है आज वे दूसरे मज़हबों की ओर देखने लगे हैं। अगर इस प्रवृति को रोकना है तो हमें अपने शिल्पकार भाइयों को सम्मान के साथ अपनाना होगा। उन्हें यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार प्रदान करना होगा। हम सभी आर्यों की संतान हैं और उन्हें भी अपने को आर्य कहलाने का पूरा अधिकार है। इससे छूत-अछूत की कटुता ही नहीं, पीढ़ियों से पनपी हीन-भावना का दंश भी समाप्त हो जाएगा। मेरा मानना है कि इससे सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाप्त हो जाएगी और डोला-पालकी जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं का निदान भी स्वत: हो जाएगा। हिंदू समाज को अगर सशक्त होकर उभरना है तो यह सब करना ही होगा। वक्तव्य के अंत में "भारत माता की जय" का उदघोष करते हुए उसने श्रोताओं की ओर सरसरी नजर डाली, यह देखने के लिए कि उसके कथन का कुछ असर हुआ भी या नहीं।
भवान सिंह के मंच छोड़ते ही एक त्रिपुंडधारी पंडित जी धोती का छोर हिलाते हुए मंच की ओर बढ़े। वे काफी देर से कुछ कहने के लिए कसमसा रहे थे। मंच पर चढ़ते ही गुर्राए- "अछूत और यज्ञोपवीत! ऐसी अनहोनी! अरे, हमारे पुर्खे क्या मूर्ख थे जो उन्होंने वेद-सम्मत ऐसी वर्ण-व्यवस्था लागू की? वेदों की तो शकल तक न देखी होगी और चले हैं वेदों की ओर लौटने की बात कहने। ठीक है लौटो, लेकिन पहले गहराई से उनका अध्ययन तो कर लो। आशय तो ठीक से समझ लो। वहां सापफ-सापफ कहा गया है कि आदि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और चरणों से शूद्र जन्मे हैं। इन चारों वर्णों के लिए जो शास्त्रा-सम्मत विध्-निषेध् हमारे पुरखों ने निर्धरित किए हैं उनकी अनदेखी करना भला कहां की बि(मानी है। ऐसा करने से तो हमारे समाज का पूरा ढांचा ही चरमरा जाएगा। चौथे वर्ण को अगर यज्ञोपवीत के लिए उपयुक्त नहीं माना गया तो उसके पीछे शास्त्राकारों की कोई दुर्भावना नहीं थी। बिना पात्राता के यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार देना गलत था और यही हमारे शास्त्राकारों ने किया है। वर्णाश्रम ध्म के खिलापफ जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।" यह कहकर पंडित जी एक ओर हटे तो लगा कि ठाकुर भवान सिंह ने बर्र के छते को छेड़ दिया था। सवर्णों में से जितने भी लोग वहां थे उनमें से एकाध् को छोड़कर सभी पंडित जी के साथ हो लिए।
किसी ने कहा- "पंडित जी ने बिल्कुल सही फरमाया है। इन लोगों में वैसी पात्राता न पहले थी और न आज है।" दूसरे ने कहा- "अरे! जो भक्ष्याभक्ष्य तक का खयाल नहीं रखते, निषि( मांस तक से जिन्हें परहेज नहीं, वे जनेऊ धरण करने के पात्रा कैसे हो सकते हैं।" तीसरे ने कहा- "इन लोगों में नर-नारी संबंधें की शिथिलता की कैसे अनदेखी की जा सकती है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो अपनी बहू-बेटियों को नचाकर जीविका कमाते हैं। ऐसे में इन्हें बराबरी का दर्जा देने की वकालत कैसे की जा सकती है।" चौथे ने कहा- "महीनों तक तो ये नहाते नहीं। सामने पड़ गए तो नाक फटने लगती है। जनेऊ जैसे पवित्रा सूत्र की इनके गले में क्या दुर्गति होगी, मुझे तो सोचते ही उबकाई आने लगती है।" पांचवें ने कहा- "न शकल न सूरत और पहनेंगे यज्ञोपवीत! घोर कलयुग है भाई। जाति-धर्म सबकुछ खतरे में है। ये नए जमाने के लोग तो उल्टी गंगा बहाने की वकालत कर रहे हैं। हम हर्गिज ऐसा नहीं होने देगें।"
एकाध् नौजवान ने ठाकुर भवान सिंह का समर्थन करने का प्रयास किया लेकिन विरोधियों ने ऐसा शोर मचाया कि कुछ सुनाई नहीं दिया। इस पर एक सफेद टोपी वाला नौजवान मंच पर जाकर दहाड़ा- "किसी को बोलने तक न देना, ये कहां की शरापफत है। आप मानें या न मानें लेकिन सुन तो लें।"
"अरे, जा-जा, बड़ा आया हमें शरापफत की सीख देने वाला! कल तक तो बाप-दादे हमारी डांडी (पालकी) ढ़ोते रहे और आज सपफेद टोपी क्या पहन ली कि पर ही निकल आए।" एक प्रधनजी गुस्से में कांपते हुए बोल पड़े।
"प्रधनजी, नाराज क्यों होते हैं? हां, याद दिलाने के लिए ध्न्यवाद। जब भी जरूरत पडेगी मैं आपकी डांडी (अर्थी) को कंध देने जरूर आऊंगा। लेकिन भगवान करे हाल-पिफलहाल ऐसी नौबत न आए।" नौजवान ने मुस्कुरा कर जवाब दिया तो प्रधन जी कटकर रह गए।
नौजवान की बात पर बहुत-से लोग हंस पड़े और सभा का माहौल थोड़ा शांत हो गया। सभा संचालक ने मौका देखकर अध्यक्ष से आज्ञा ली और केसी को अपना पक्ष रखने को कहा।
केसी उद्विग्न मन से मंच पर चढ़ा और हाथ जोड़कर उपस्थित लोगों का अभिवादन कर बोला- "ठाकुरो! मुझ नाचीज को बोलने का अवसर दिया, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। भाई भवान सिंह की भावना की मैं कद्र करता हूं, लेकिन क्या जनेऊ धरण करने से खाली पेट भर जाएंगे? अगर नहीं, तो इस कसरत से क्या फायदा। हां, अगर सब लोग ऐसा सोचें तब तो यह सब चल सकता है। ऊंच-नीच और छूत-अछूत का अभिशाप हमारी आत्मा में कितना जहर घोल देता है इसका भुक्तभोगी मैं खुद हूं। मुझे याद है, जब मैं पहली बार पाठशाला गया तो मुझे अछूत कहकर भर्ती करने से मना कर दिया गया। वह तो भला हो थोकदार जी का जिनके कहने पर दाखिला तो मिल गया लेकिन कक्षा में मुझे औरों से अलग बिठाया जाता रहा और बात-बात पर ऐसी गालियां दी जातीं कि क्या कहूं। गुरु जी का गंगाराम (डंडा) तो हर समय मेरी आवभगत में ऐसा लगा रहता कि पिटाई का एहसास ही जाता रहा। उस दिन की याद तो शायद भाई भवान सिंह को भी होगी जब संयोग से मैं अपने एक साथी को छू बैठा था। उसने गुस्से में आव देखा न ताव और अपना बस्ता जमीन पर पटक डाला। कहने लगा कि मैंने जानबूझकर उसे छुआ ताकि भिड़ने (अस्पृश्य के छूने) के कारण मैं अपना नाश्ता उसके हवाले कर दूं। नाश्ते की रोटियां तो भला मुझे क्या मिलतीं, वे तो कुत्ते के हवाले हो गईं। उफपर से गुरु जी ने कसकर मेरी जो मरम्मत की वह मुझे अभी तक याद है। छुट्टी होने पर जब हम घरों की ओर चले तो मेरे अपने ही सहपाठियों ने मुझे पटककर दबोच लिया। एक ने मेरे हाथ पकड़े, दूसरे ने पांव और तीसरे ने गला इस तरह दबाया कि मैं अपना मुंह खोलने पर मजबूर हो जाउफं। चौथा रास्ते की किनारे पड़ी गीली विष्ठा में लकड़ी डुबोकर लाया और मेरे मुंह में ठूँसने लगा। मैं पूरी ताकत से ऐसा उछला कि हाथ पकड़ने वाले और गला दबाने वाले दोनों की पकड़ ढीली पड़ गई। फ़िर भी वे गीली विष्ठा नाक के नीचे और उफपरी होंठ तक तो ले ही आए, हां मुंह में नहीं ठूँस पाए। मल की दुर्गंध् से कै करते-करते मेरी तो जान ही निकल गई थी। मेरी दशा देखकर वे सब भाग खड़े हुए। अभी दो साल पहले की बात है मैं अपने ही गांव की एक बारात में शामिल हुआ था। फाड़ (घर से बाहर सामूहिक भोजन स्थल) से ठाकुर-ब्राह्मण खाना खाकर उठ चुके थे। हम सबको खाने के लिए पुकारा गया। मैंने देखा कि पफाड़ में जो कुछ बचा-खुचा जूठन पड़ा था, उस पर कुत्ते मुंह मारकर भाग रहे थे। मैंने जूठन लेने से इंकार क्या किया कि अपने ही गांव के दो ठाकुर आगबबूला हो गए। वे गला दबाकर मेरे मुंह में भात का एक बड़ा-सा कौर लाठी से ठूँसने लगे। मेरे अपने लोग इतने डर गए कि एक ओर दुबककर रह गए। वह तो भला हो थोकदार जी और पट्टी-पटवारी जी का जो मैं उस दिन बच गया अन्यथा दम घुटने से ऊपर ही पहुंच गया होता। खैर, मेरे साथ जो हुआ सो हुआ भगवान करे ऐसा आगे और किसी के साथ न हो। वैसे इस कड़वे सच को निगल पाना बहुत कठिन है लेकिन देश और समाज का हित इसी में है कि इस तरह का व्यवहार भविष्य में अतीत का विषय बनकर रह जाए। वेद-लवेद की बात हम नहीं जानते! जानते भी कैसे, जब सुनने तक की मनाही थी। लोग तरह-तरह की व्याख्या देकर अपना पक्ष सामने रखते हैं। कहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था की पीछे कार्य-विभाजन का सिद्धांत है। हो सकता है वर्ण-व्यवस्था के पीछे यही भावना रही हो। लेकिन आगे क्या हो गया, यह सभी के सामने है। वर्ण-व्यवस्था वंशानुगत तो हो गई लेकिन क्या चारों वर्ण आज अपने दायरे के भीतर हैं? कहना न होगा कि इसकी सबसे बुरी मार हम पर ही पड़ी है। जमीन-जायदाद से तो हमें महरफम रखा ही गया था, आज हमारे पुश्तैनी पेशे भी हमसे छिनते जा रहे हैं। जो धंधे और शिल्प हमारे लिए निर्धरित थे, वे सब सवर्णों के हाथ में खिसकते जा रहे हैं। यहां पर हमारे आचरण, खान-पान, नर-नारी संबंध्, रूप-रंग और शकल-सूरत पर भी टिप्पणी की गई है। इनमें से हर मुद्दे पर बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन समय की कमी है। इसलिए केवल दो मुद्दों पर ही कुछ कहना चाहूंगा। जहां तक हमारे समाज में नर-नारी संबंधें का सवाल है, उसके लिए टिप्पणीकार अगर अपनी ओर ही देखने का कष्ट करें तो बेहतर होगा। हमारी बहू-बेटियों को अपनी अतिरिक्त वासना-पूर्ति का साध्न समझने वाले उफपर से हमें ही दोष दें तो क्या कहा जाए। जहां तक रूप-रंग और शकल-सूरत का प्रश्न है क्या उसी रूप-रंग और शकल-सूरत के लोग आप लोगों में नहीं हैं? मुझे ही देखिए। क्या रूप-रंग और नाक-नक्शे में मैं भाई भवान सिंह जैसा ही नहीं लगता? वही गोरा रंग, वही चोड़ा माथा, वही उभरी-सी नाक। वे थोकदार कुल के दीपक हैं लेकिन मैं।"
वह आगे कुछ कहता कि मंच से अध्यक्ष थोकदार जी ने पफटकार लगाई- "बहुत हो गया रे केसी! अपना थोबड़ा बंद रख। चला है अपनी बराबरी हमसे करने।"
उनकी यह पफटकार विरोधियों को इशारा कर गई। चार आदमी मंच पर चढ़ आए और केसी को धकियाने लगे।
एक ने कहा- "दो जमात क्या पढ़ गया, खुद को अपफलातून की औलाद समझने लगा।" दूसरे ने कहा- "एहसान पफरामोश कहीं का। थोकदार जी का खाया, उन्हीं की कृपा से तालीम हासिल की और अब उन्हीं की बराबरी पर उतर आया।"
तीसरे ने कहा- "बदजात की जीभ बहुत लंबी हो गई है। काटकर फेंक दो।"
चौथे ने ऐसा धक्का दिया कि केसी मंच से नीचे गिरकर एक नुकीले पत्थर से जा टकराया। उसकी कनपटी से खून बहने लगा। सभा में ऐसी अपफरा-तपफरी मची कि एक किनारे बैठी केसी की मां खुद को रोक नहीं पाई।

ह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्ण

वह अभी तक चुपचाप बैठी अपने पिछले जीवन की याद में खोई थी। उसने उन मां-बाप के घर जन्म लिया था जो गांव-गांव नाच-गाकर जीविका कमाते थे। ब्याह-शादियों में उनकी मांग होती और थोड़ी-बहुत अतिरिक्त कमाई भी हो जाती। मां परुली की कदकाठी बड़ी आकर्षक थी। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पेट का सवाल था। नन्हीं-सी जान को लेकर गांव-गांव जाना ही पड़ता था। बेटी कुछ बड़ी हुई, थोड़ा-बहुत सीखने-समझने की उम्र हुई तो उसके कानों में सबसे पहले "समन्या साब! समन्या ठाकुरो!" के संबोधन ही पड़े। मां-बाप जहां भी जाते, जिसके भी संपर्क में आते "समन्या साब, समन्या ठाकुरो" कहकर अभिवादन करते और बदले में "जी रै" (जिंदा रह) का आशीर्वाद पाते। मां-बाप ने नाम रखा दीपा। बढ़ती उम्र के साथ वह रूप-रंग और नाक-नक्शे में मां से भी दो हाथ आगे निकल गई। सौंदर्य की ऐसी दीपशिखा कि जिसके उजास के आगे कुरूपता का अंधकार कहीं टिक नहीं पाता। उसने भी जब नाच-गान में अपनी मां का साथ देना शुरू किया तो लोग परवानों की तरह मंडराने लगे। इसी बीच मां को न जाने क्या हुआ कि वह दिनों-दिन मुर्झाने लगी। फलत: उसकी जगह बेटी को लेनी ही पड़ी। लेकिन मां नहीं चाहती थी कि जो कुछ उसके साथ हुआ, उसी की शिकार उसकी बेटी भी बने। मां-बाप ने बहुत प्रयास किया लेकिन कहीं किसी खूंटे से बांध्ने की सूरत नजर नहीं आई।
बरसों पहले की बात है, वे थोकदार जी के आंगन में ही अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। थोकदार जी अपने कुलपुरोहित के साथ बातों में मशगूल थे कि दीपा पर नजर पड़ी तो मूंछों को ताव दे बैठे और पुरोहित से बोले- "पंडितजी, ऐसी खूबसूरती तो आज पहली बार देखी।"
पंडित जी ने जवाब दिया- "सच कहते हैं ठाकुर साहब! नारी रत्न है यह तो। कामसूत्रा के अनुसार पद्मिनी, चित्रणी, शंखिनी और हस्तिनी ये चार प्रकार की नारियां होती हैं। पद्मिनी इनमें श्रेष्ठ मानी गई है और यह तो सचमुच पद्मिनी लगती है। ऊपर वाले को भी न जाने क्या सूझी कि हुड़क्यूं (हुड़का वादकों) के घर ऐसा रत्न पैदा कर दिया।" थोकदार जी के कान तो पुरोहित की ओर थे लेकिन निगाह अल्हड़ किशोरी दीपा की ओर। पुरोहित ने थोकदार जी के भीतर उठे तूफान को भांपकर बात आगे बढ़ाई, बोला- "सुन रहे हो थोकदार जी! शास्त्रों की बहुत-सी मान्यताएं आज स्वीकार नहीं की जातीं। कलयुग है न! मनु महाराज ने तो ब्राह्मण को चारों वर्णों और क्षत्रिय को शेष तीनों वर्णों से वैवाहिक संबंध् स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया था। लेकिन आज इसे कोई नहीं मानता, हां! अमान्य तरीकों से संबंध् आज भी बनते-बिगड़ते हैं। कुछ दिन शोर मचता है और पिफर सबकुछ भुला दिया जाता है।"
थोकदार जी समझ गए कि पंडितजी किस ओर इशारा कर रहे हैं। इस बीच नाच-गाना समाप्त हो चुका था। थकी-मांदी मां-बेटी भी सुस्ताने लगी थीं। हुड़का भी शांत हो चुका था। थोकदार जी ने खा जाने वाली नजर से दीपा की ओर देखा। मन-ही-मन कुछ निर्णय लिया और भीतर की ओर लपक लिए। कुछ ही पलों में वे बाहर आए तो उनके हाथों में मां-बाप और बेटी के लिए नए-नए कपड़े थे। पीछे से सेवक लूथी पसेरी भर बढ़िया चावल भी उनकी टोकरी में उड़ेल गया। वे निहाल हो गए। मां ने कहा- "जुगराज रयां ठाकुरो! (ठाकुरो युगों तक राज करते रहो) भगवान करे आपके रुतबे और भंडार में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो।" तीनों ने पफर्शी सलाम किया। कपड़े टोकरी में रखे और आंगन से नीचे रास्ते पर चले आए। पंडित जी काम के बहाने एक ओर खिसक लिए और थोकदार जी मां-बाप के आगे-आगे जाती अल्हड़ दीपा की ओर निहारते रहे।
गांव की सीमा से आगे जंगल पड़ता था। एक मोड़ पर पहुंचे ही थे कि झाड़ियों की आड़ से चार जवान सामने कूद पड़े। वे दीपा को जबरन खींचकर ले जाने लगे। इस अप्रत्याशित घटना से मां-बाप बुरी तरह घबरा गए, मदद के लिए चिल्लाए तो दो जवान उन्हीं पर पिल पड़े। दीपा ने शेष दो की पकड़ से छूटने का भरपूर प्रयास किया। बस नहीं चला तो एक के हाथ पर दांत गड़ा दिए। पकड़ ढीली पड़ते ही वह गांव की ओर भागी और इतनी जोर से चिल्लाई कि उसकी चीख दूर-दूर तक सुनाई दी। पिफर से पकड़ी जाती कि अचानक थोकदार जी सामने आकर गरज उठे- "ये क्या हो रहा है? कौन हो तुम? एक अकेली लड़की को छेड़ते शरम नहीं आती, नामुरादो!" थोकदार जी को देखते ही चारों हमलावर भाग खड़े हुए। दीपा रुलाई रोककर एक पेड़ की ओट में सिसकियां भरने लगी।
थोकदार जी ने पास आकर सांत्वना दी- "दीपा रो मत! मैं आ गया हूं ना, देखता हूं कौन तुमसे बदसलूकी करने की हिम्मत करता है।"
हादसे से बुरी तरह हिले मां-बाप की तो सोच ही कुंद पड़ गई थी। बेटी की सुरक्षा की समस्या मुंह बाए खड़ी थी। गुजारे के लिए लोगों का मनोरंजन करना तो उनकी पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा थी और इसके लिए गांव-गांव की खाक छानते पिफरना उनकी मजबूरी थी। बेटी को अकेली घर पर छोड़ना भी खतरे से खाली नहीं था। साथ लेते चलें तो आज का सा हादसा पिफर से न हो इसकी की भी कोई गारंटी नहीं थी। बेटी को लेकर मां-बाप के दिमाग में क्या कुछ चल रहा है इसका अनुमान लगाकर थोकदार जी बोले- "देखो, हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलाद किसी संकट में न पड़े। बेटी को लेकर इस तरह की चिंता तो और भी स्वाभाविक है। तुम लोग जिस उधेड़बुन में हो मैं उसे महसूस कर रहा हूं। उससे बाहर निकलने का एक रास्ता है मेरे पास।"
बाप ने कहा- "क्या उपाय है ठाकुर साहब? हमें तो कुछ नहीं सूझ रहा?"
मां ने कहा- "माई बाप! जल्दी बताएं मैं नहीं चाहती कि जो कुछ मैंने भोगा है, वही दीपा को भी भोगना पड़े।"
थोकदार जी कुछ गंभीरता ओढ़कर बोले- "देखो मेरी बात को अन्यथा न लेना। यहां आस-पास के गांवों में मेरी इतनी जमीन पड़ी है कि संभालना मुश्किल है। खायकर और सिरत्वान जितनी चाहें कमा-खाते हैं लेकिन कुछ अभी भी बंजर पड़ी है। अगर चाहो तो मैं कमा-खाने के लिए कहीं भी जमीन दे सकता हूं। लेकिन मैं चाहूंगा कि यहां इसी गांव में मेरे पास ही रहो तो बेहतर है।" इस पर पिता ने कहा- "सो तो ठीक ठाकुर जी। लेकिन हमारा खेती-पाती से कभी कोई ताल्लुक तो रहा नहीं। गाने-बजाने के अलावा हमें आता ही क्या है?"
"इसकी चिंता न करें खेती तो वही करेंगे जो आज तक करते आए हैं। मैं यहां अपने पास रहने के लिए इसलिए कह रहा हूं कि आज का सा हादसा फ़िर कभी न हो। मेरे सरंक्षण में रहने से लपफंगों की बुरी नजर से दीपा बची रहेगी। आप चाहें तो उसे मेरे पास छोड़कर अपनी परंपरा निभाते रहें। वैसे यहां अनेक अधिकारी सरकारी काम से आते रहते हैं, मेरी समझ से उनका मनोरंजन ही काफी रहेगा। तुम लोगों को गांव-गांव भटकने से भी मुक्ति मिल जाएगी।" थोकदार जी बोले।
"धन्य भाग हमारे, जो हमारी खातिर आप इतना सोचते हैं। लेकिन दीपा को आपके सरंक्षण में छोड़ दें, बात अटपटी लगती है। दुनियां क्या कहेगी?" पिता ने आशंका जताई।
"अरे! तुम भी न जाने क्या सोच बैठे। सरंक्षण से मतलब केवल सरंक्षण और कुछ नहीं। मेरी देख-रेख में रहेगी तो कोई आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाएगा। तुमने लूथी को तो देखा ही है। तुम्हारी ही बिरादरी का है। पांच-छह साल का था जब अनाथ हो गया। तब से हमारी सेवा में है। तुम चाहो तो उसके साथ दीपा के हाथ पीले कर सकते हो।" थोकदार जी ने शंका मिटाने के लिए सुझाव रखा।
"शादी के बाद अगर उसने भी अपनी परंपरा निभाने की सोची तो क्या होगा? जो कुछ मैंने झेला है, क्या वही दीपा को भी झेलना पड़ेगा?" दीपा की मां ने कहा।
"नहीं तो। अरे, हमारी देख-रेख में पले लूथी को न नाचना-गाना आता है और न बजाना। हां, हल जरूर चला लेता है और खेती-पाती के दूसरे काम भी बखूबी कर लेता है। दीपा तो उसके साथ यहीं बनी रहेगी।" थोकदार जी ने समझाया।
बाप की शंका तो निर्मूल नहीं हो पाई लेकिन मां ने सोचा कि दुनियां भर की नजरों से बचाने का एक यही रास्ता है। ठाकुर साहब की नजर में अगर खोट भी हो तो भी क्या हर्ज है? इधर-उधर मुंह मारने वाले कामियों से तो बची रहेगी। जो रोग मुझे लग गया है उससे तो बची रहेगी। यही सब सोचकर वह ऐसी अड़ी कि बाप की एक न चल पाई। दीपा की शादी लूथी से हो गई। शादी का पूरा खर्च थोकदारजी ने ही उठाया।
शादी के बाद दीपा ने पाया कि थोकदन (थोकदार की पत्नी) किसी बीमारी के कारण इतनी कमजोर हो गई थी कि उससे अपनी औलाद भी नहीं संभल पाती थी। दीपा को ही दो साल के भवान सिंह और उसकी दूध पीती बहन को संभालना पड़ा। उसे याद आया कि किस तरह उसके मां-बाप गुप्त-रोग के चलते एक दिन दुनियां छोड़ गए और उसे थोकदार जी की जरखरीद रखैल की तरह जीना पड़ा। उसे अपनी वह सुहागरात भी याद आई जब लूथी की जगह थोकदार जी ने उसे अपने आगोश में भर लिया था। लूथी को उसी दिन कहीं दूर बाजार से कुछ सामान खरीद लाने भेज दिया गया था, जहां से वह तीन-चार दिन बाद ही लौट पाता। उसके लौट आने तक तो सबकुछ हो गया। उसने हाथ-पैर जोड़े लेकिन थोकदार जी नहीं पसीजे। ऊपर से धमकी दे बैठे कि अगर वह नहीं मानी तो उस दिन के हादसे से भी कहीं और बुरा घट सकता है। पिफर कहने लगे- "अरी! अपना सौभाग्य मान जो इलाके का थोकदार तुझसे प्रणय की भीख मांग रहा है।" फ़िर कहने लगे कि वह जिंदगी भर उसका और उसके बीमार मां-बाप का भार उठाने को तैयार हैं। अगर हाथ खींच लिए तो वह जाने। दीपा ने अपनी और अपने मां-बाप की बेबसी समझी और छटपटा कर रह गई। पति के लौटने पर उसने रो-रोकर उसे अपने साथ हुए बर्ताव की जानकारी दी। लेकिन लूथी में पहले तो प्रतिक्रिया ही नहीं हुई और पिफर हंसा तो हंसता ही चला गया। दीपा को लगा कि उसमें शायद मर्दानगी ही नहीं है। थोकदार को शायद पहले से पता था और इसीलिए उससे शादी का प्रपंच रचा गया। सदमा तो बहुत बड़ा था परंतु भाग्य का लिखा मानकर दीपा थोकदार जी के हाथों का खिलौना बनकर रह गई। लूथी तो केवल नाम का पति था।

ह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्णह्ण

इधर बेटे की कनपटी से खून रिसता देखकर वह आवेश में आकर मंच की तरपफ दौड़ पड़ी। जिन्होंने केसी को घोर रखा था, एक अधेड़ औरत को अपनी ओर झपटते देखकर सहम गए। उनमें से जिसने जूता हाथ में निकालकर केसी को जुतियाना चाहा था उसका हाथ उठा का उठा ही रह गया। अचकचाए सभा संचालक ने दीपा को रोकना चाहा और बोले- "बहन जी, आप मंच से हट जाएं तो अच्छा है। हम सब ठीक कर लेंगे।"
इस पर दीपा आदतन बोल पड़ी- "समन्या ठाकुरो! मेरा बेटा पिट रहा है और आप कहते हैं कि मैं मंच से हट जाऊं। जरा, इन थोकदार जी से तो पूछो कि वह कौन है? जिसको वह थोबड़ा बंद करने को कह रहे हैं। वह ऐसे क्यों तिलमिला उठे? अगर वह अपने नाक-नक्शे का मिलान भवान सिंह से कर बैठा तो क्या गलत कर बैठा। आखिर दोनों की रगों में खून तो एक ही है।" यह सुनना था कि सभा में सनसनी पफैल गई। यह पहला अवसर था जब एक औरत सभा में खड़ी होकर मर्दों से सवाल-जवाब कर रही थी। थोकदार जी को काटो तो खून नहीं। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। पहली बार पगड़ी ऐसी उछली कि मंच से उतरकर भागते नजर आए। किसी ने पीछे से व्यंग्य किया- "वाह थोकदार जी! आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले।" बाप की इस तरह किरकिरी होते देख भवान सिंह खड़ा का खड़ा रह गया। बोलती जैसे बंद हो गई। कुछ ही पलों में सभा-स्थल पर सन्नाटा पसर गया।

Saturday, February 21, 2009

सनसनीखेज शीर्षको की खोज में कौन है परेशान

चोखेर बाली ने रवीश जी के आलेख के बहाने भाषा की जो बहस छेड़ी है, रवीश जी के आलेख को ध्यान में रखकर कहूं तो वहां मूल रूप से एक भाषा के भीतर ही शब्द संयोजन और उसके भाषिक विन्यास का मामला है। भाषायी भिन्नता के सवाल पर मुझे तेलगू के कवि वरवर राव की वह टिप्पणी याद आ रही है जिसमें वे भाषा के दो रूपों का जिक्र करते हैं - एक सत्ता की भाषा और दूसरी जनता की भाषा। यानी यहां वे दो भाषाओं के समूल विभेद की बात करते हैं। भाषायी विभेद को वे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्यायित करते हैं। लिंगभेद की बजाय उत्पादन के यंत्रों पर कब्जा किए शासक वर्ग और उसके द्वारा शोषित जनता के आधार पर उसका विश्लेषण करते हैं।
एक ही भाषा के भीतर उसके विन्यास के सवाल पर भाषाविद्ध नोम चॉमस्की सृजनात्मकता पर बल देते हैं। उनका मानना है सृजनात्मकता मन की क्षमता है, जो किन्हीं नियमों के अंतर्गत अब तक न सुनी गयी रचनाओं को भी पहचानता है और नये-नये वाक्यों का उत्पादन (निष्पादन) करता है। यानी निष्पादन की इस प्रक्रिया को कोई भी भाषा-भाषी बिना किसी लिंगभेद के ग्रहण करता है। स्वंय हिन्दी के भीतर ही देख सकते हैं कि किसी भी वस्तु के लिंग को निर्धारित करते हुए हिन्दी भाषी स्त्री हो चाहे पुरुष, कभी कोई गलती नहीं करते। एक स्त्री भी "बस जाती है" कहती है और एक पुरुष भी "ट्रक जाता है" कहता है। यहां बस और ट्रक के रूप, आकार या गति के आधार पर नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के भीतर मौजूद सामंतीय संस्कार, जो सिर झुका कर काम करने वाली स्त्री की तस्वीर हमारे सामने रखते हैं, वैसे ही सार्वजनिक रूप से सेवा के भाव के साथ कार्य में जुती बस को स्त्रीलिंग और उसी सामंतीय संस्कारों के चलते बलशाली से दिखते और अपनी मर्जी से संचालित होते भाव को लिए ट्रक को पुल्र्लिंग बना देते हैं। इस तरह से यदि देखना चाहें तो एक हद तक हिन्दी में वस्तुओं के लिंग निर्धारण की व्याख्या संभव हो सकती है। यद्यपि यह मुक्कमिल नहीं है। अन्य भी, और कई नियम हो सकते हैं जिन पर गम्भीरता से विचार करने वाले स्वत: मु तक पहुंच पाएं। यहां तो बस यह उल्लेखनीय है कि भविष्य में उत्पादित होने वाली किसी भी वस्तु,जिसके अस्तीत्व की भी आज कल्पना संभव नहीं, के लिंग निर्धारण में किसी हिन्दी भाषी पुरुष और स्त्री में शायद ही मतभेद हों। अब सवाल यह है कि मीडिया की भाषा में, जो सनसनी और चौंकाऊपन दिखाई दे रहा है क्या उसके कारणों को रवीश जी की दृष्टि, जो इसे लिंगभेद के कारणों की उपज मानती है, से विश्लेषित किया जा सकता है ?
मेरी समझ में टी आर पी को बढ़ाने के लिए जो बाजारु किस्म के दबाव हैं, जिसके पीछे मुनाफा एक मात्र शर्त है, वही एक मूल बिन्दू हो सकता है जो इस प्रवृत्ति को विश्लेषित कर पाए। यहां स्त्री और पुरुष के बदल जाने पर शायद ही कोई बदलाव दिखे, ऐसी आशंका रखना चाहता हूं।
बाजार सनसनी पैदा करता है और सनसनी से भरी खबरें ही बाजार हो सकती हैं। बाजार की चमक-दमक में ही वो चुधियाट हो सकती है जो झूठे सपनो का संसार रच सकती है और उन सपने के पूरे न हो सकने के लिए किसी सनसनी भरी खबर में ही जनता की लामबंदी को रोकना संभव है। सनसनी भरी खबर ही ज्यादा दर्शक बटोरू भी हो सकती है। जितने ज्यादा दर्शक जिस रिपोर्ट के कारण मिले उतनी पौ बारह उस पत्रकार की जिसकी वह रिपोर्ट है। ऐसे ही सुरक्षित रह सकती है हमारी रोजी-रोटी, यह बात मीडिया का हर स्त्री-पुरुष जानता है। इसलिए उनका शाब्दिक संयोजन भी उसी प्रवृत्ति के चलते है जो बेशक दर्शक को ज्यादा देर तक भले ही न टिकाए रख पाए पर चौंका कर अपने पास तक तो ले आए। सिर्फ और सिर्फ टी आर चाहिए और उस टी आर पी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन। बल्कि मुनाफे की यह मानसिकता हमारे भीतर जब महत्वांकाक्षा के रूप में होती है तो ब्लाग पर उस एक क्लिक के लिए ही जो हमारी टी आर पी को बढ़ाने वाला होता है, क्या हमें सनसनीखेज शीर्षको की खोज में परेशान नहीं करता। महत्वाकांक्षा की इस प्रव्त्ति से संचालित स्त्री और पुरुष ब्लागरस में भी यहां कोई खास फर्क शायद ही दिखे।

Tuesday, February 17, 2009

ये राज ठाकरे कौन है

कवि राजेश सकलानी की कविताओं पर लिखा आलेख उनकी कविता पुस्तक सुनता हूं पानी गिरने की आवाज की कविताओं को ध्यान में रखकर लिख गया था पिछले वर्षो में लिखी गईं उनकी कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत हैं :


राजेश सकलानी


पहाड़ों का बयान


हम तो देवता हैं आदि काल से
जरा देखिए हमारा कद
जंगल के जंगल है हमारी जमींदारी में
पहरेदारी में है खूंखार चट्टाने

हमारी जेबों से निकलती है
चमकीली नदियां
बहा कर ले जा सकती हैं
कुछ भी वे अपने आवेग से
अपनी जान की हिपफाजत आज चाहें
तो कर लें

हमसे किया ही नहीं जा सकता
कोई भी सवाल
हां हमारी प्रशंसा में लिखे जा सकते हैं
गीत


पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
संभालते है हमारे कन्धें

हम भी है सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर है खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध है

सुरक्षित रास्ते हैं जिन्दगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा हैं
घरों के लिए

तारीफों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

ये राज ठाकरे कौन है

ये राज ठाकरे कौन है?
पता नहीं, मै तो मनु ठाकरे को जानता हूँ
अन्धेरी वैस्ट में रहता है
और वह कोई मशहूर आदमी नहीं है

सुबह आठ चालीस पर निकलता है घर से
लोकल पकड़ने के लिए
बीस मिनट लगते हैं उसे गलियों से गुजरने में
चलते-चलते ही कर लेता है अपनी चिन्ताएं
थोड़ा घबराहट तो बराबर बनी रहती है
कितने से टकराता है इसका कोई हिसाब नहीं

धीमे से बोलता है वह जिससे एक दीर्घ और स्थाई
आवाज बनती है
रात में एक समकेत सांस की तरह जो धीमें से
सुनाई पड़ती है
किन्हीं बिरले क्षणों में जागती है करूणा उसके भीतर
वर्षों तक जो बनी रहती है तहों में
और देखो कितना अलग है वो गिरे हुए लोगों से

गिरा हुए बोले तो?
वही जिन्हं सूझता हीनहीं अपनी वर्चस्वता के सिवा कुछ भी
भले ही पफूंकना पड़े उसे किसी का घ्ार
और खुलजाता रहता है दूसरे की तलाश में
शत्रु बनाने के लिए

दूसरा बोले तो ?
वही जैसे दूसरे मजहब, दूसरी जाति, दूसरे नगर
दूसरे मौहल्ले यानि कि कोई भी दूसरा जैसा कि आप ही
जो बाजू में खड़े हो

लेकिन वे कौन हैं जो बदहवास हो रेलों में भर कर
शहर छोड़ कर जा रहे हैं ?

ये कामकाजी लोग है भईया
वही हमेशा के दूसरे
पिफर भी ये राज ठाकरे कौन है?
होगा कोई
वक्त का पहिया, उसे भी सबक सिखाएगा
लेकिन ये वक्त का पहिया कौन चलाता है ?
जैसे ये मजदूर जो शहर छोड़ कर
बाहर की ओर भाग रहे हैं।

ब्लैंक कॉल

निकलो जी बाहर भीतर बड़ी घुटन है
लड़के निकल पड़ते हैं जहाँ कहीं सड़कों पर
दोस्तों के बीच जबरन मुस्कराते
गुटखा तमाखू पफाँकते बैचेनियों में
बीते जमाने के लड़कों से अध्कि चुस्त
लेकिन कहीं अधिक निराश
गलियों में पान की दुकानों की तरह खुले
लुटेरे कम्प्यूटर जैसे शिक्षण संस्थानों में आते या जाते

बढ़ती जाती है भीड़ बेकारों की रोज
बढ़ता जाता है कर्ज घरों में
बैंक प्रबन्धक बुलाते हैं उनके हड़बड़ाए पिताओं को
कर्जे के लिए बशर्ते वे आयकर का रिटर्न
दाखिल करते हो
भले ही बची तनख्वाह में पेट भर पाना
हो मुश्किल

कर्ज में ली गई मोटर साइकिल में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष
की तरह उदंड रफ्रतार में भागते
कभी वे घायल हो निर्मम अस्पतालों के
बन्ध्क बन जाते हैं
दूर तक नजर नहीं आता रोजगार का रास्ता
बैंकों, सरकारी दफ्रतरों और उपक्रमों से निकाल
बाहर किए जा रहे हैं परिवार का बोझ उठाने वाले

सपनों के लिए छटपटाते वे पी।सी।ओ। में
पफोन नम्बर लगाते हैं और तुरन्त लाइन काट देते हैं
जब उधर से जिन्दगी हैलो कहती है