Monday, May 4, 2009

जिस पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना गढ़ा गया

मई २००९ के आउटलुक में प्रकाशित कथाकार जितेन ठाकुर की महत्वपूर्ण कहानी कोट लाहौर वालाकथाकार नवीन नैथानी और कवि राजेश सकलानी की टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत है।





नवीन नैथानी
एक कहानी को कैसा होना चाहिये? इस सवाल के बहुत सारे जवाब हैं.पाठकों की रुचि, संस्कार,सरोकार ओर विशिष्ट आग्रह विभिन्न जवाबों को जन्म देते हैं जिनसे कहानी के अलग-अलग स्कूल निकलते हैं.प्रायः एकतरह की कहानी पढ़ने वाला पाठक दूसरी तरह की कहानी को पसन्द नहीं कर पाता. लेकिन कुछ कहानियां स्कूलों की जकड़बन्दी से बाहर निकल कर सभी पाठकों को समान रूप से रिझा ले जाती हैं. इन कहानियों का कथ्य इतना जबर्दस्त होता है कि वे आपको अपने तूफान में बहा ले जाती हैं. एक विदेशी कहानी का अनुवाद पढ़ाथा जिसका शीर्षक याद नहीं रहा है - अभी योगेंद्र आहूजा की स्मृति का सहारा लिया है. उसका शीर्षक हैयानकोवाच का अन्त’. कहानी एक बढ़ई की जिन्दगी के बारे में है-यान कोवाच दैहिक अन्त के बाद लोगों की स्मृतियों से धीरे- धीरे गायब हो जाता है.उसकी बनायी चीजें क्षरण के स्वाभाविक चक्र से गुजर कर फ़ना होजाती हैं.सबसे अन्त में उसकी बनायी मेज का नामो-निशान दुनिया से मिटता है और यान कोवाच की मृत्यु के सौ वर्ष बाद वह दुनिया से पूरी तरह गायब हो जाता है. यह मौत के बाद बची रह गयी स्मृतियों के मरते चले जानेकी मार्मिक कहानी है.
जितेन की कहानी पढ़ने के बाद मुझे सहसा यान कोवाच की याद गयी.इस तरह की याद जब आती है तो मुझे समझ में जाता है कि अभी - अभी एक विलक्षण पाठकीय अनुभव से होकर गुजर आया हूं, कि जो अभी - अभी पढा़ ऐसा पढे़ हुए बहुत दिन हुए.यह स्मृति को जिन्दा रखे रहने वाली कहानी है-यह एक कोट की कहानी है जिसकी
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर कोई गीत लिखा गया, कोई अफसाना घड़ा गया।
यह लाहौर में सिला गया था.
(मुझे याद है कि मेरी मां बडे़ गर्व से कहा करती कि उसकी शादी के कपडे़ लाहौर से सिलकर आये थे.)
लाहौर में सिले गये इस कोट की कहानी कहते हुए जितेन जिस सहजता के साथ इतिहास में प्रवेश करने जाते हैंवह देखने लायक तो है ही उससे भी अधिक चमत्कारी लगता है विशुद्ध स्मृतियों की कथा को समकालीन बाजारकी मानसिकता उजागर करने के लिये इस्तेमाल कर ले जाने का लेखकीय कौशल !
जितेन मूलतः कथाकारों की उस नस्ल से आते हैं जो कहानी की तलाश में हर वक़्त जीवन - अनुभवों के बीहड़ मेंभटकते हैं.वे हमेशा अपने कान और आंख खुले रखते हैं. एक कुशल आखेटक के गुण उनमें होते हैं-पर कहानी भीवो चीज है जो हर वक़्त दिखायी भी देती है और सुनायी भी पड़ती है,पर कमबख़्त हाथ ही नहीं आती.जितेन जैसे शिकारी नस्ल के कथाकार जब पकड़ ले जाते हैं तो नायाब चीज पेश करते हैं.इस कहानी में जितेन अपनी वृत्ति सेअलग हटकर स्मृतियों की जो दुनिया ढूंढकर लाये हैं वह मुझ जैसे पाठक के लिये सुखद आश्चर्य है. उम्मीद है यहकहानी जितेन के लेखन में एक नये दौर के आगमन का संकेत है.
कोट लाहौर वाला एक और वजह से ध्यान खींचती है.औपन्यासिक समय को समेटे हुए कम ही कहानियां हैं जहांकथाकार विवरणों की स्फीति से बचा हो.इस कहानी में विवरणों के सटीक चयन और वर्णन में बरती गयीसांकेतिकता ने जो सहज असर पैदा किया है उसे साधना जितेन जैसे कुशल कथा - शिल्पी के ही बूते की बात है.
कहानी लिखना वैसे भी कोई आसान काम नहीं है और एक सहज कहानी लिख ले जाना तो विरल कथाकारों से हीसध पाता है.


राजेश सकलानी
हिन्दी कथा की दुनिया में कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय हैं। नए रचनाकार नई भाषा और प्रयोगशीलता के साथ परिदृश्य को रोचक और गतिशील बनाते हैं। लेकिन कुछ के अनुरूप नहीं बन पाती। कुछ अटपटापन बचा रह जाता है। आधुनिक होने की कोशिश के चलते जीवन की बारिकियों तक पहुंचने के बावजूद कथानक में पात्र अजनबी से लगने लगते हैं। कहानी अपनी स्थानिकता और जातीय पहचान से छिटक जाती है। शायद यही कारण सामान्य पाठक की जगह सीमित विशेषज्ञ पाठक ने ले ली है। उत्कृष्ट और लोकप्रिय कहानी की जगह अनूठी कहानी ने ले ली है। यह सारी बातें जितेन ठाकुर की कोट लाहौर वाला (आउट लुक, मई 2009 ) पढ़कर दिमाग में आती रही। लगा कि जैसे अपने समाज की कहानी मिल गई। सचमुच एक उतकृष्ट कहानी जो बिना आरोपण के अपनी भारतीय उप महाद्वीप की सांस्कृतिक निरन्तरता को सहजता के साथ प्रकट करती है। इसमें कथा समय काफी विस्तृत है। रियासत के दिनों को जिक्र है। इसे आजादी से पहले किसी समय से शुरू हुआ मान सकते हैं। आखिरी पंक्ति बिल्कुल आज के समय पर टिप्पणी करती है- 'क्यों अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें बेची जाती हैं, खरीदी जाती हैं" यह एक बड़ा वक्तव्य है। यह पिछले इतिहास को कोमल तरह से देखने परखने की विनम्र गुजारिश भी है और अपनी जातीय स्मृतियों में छिपी सांस्कृतिक रचना पर फिर से गुजरने की मार्मिक अपील भी है। यह बेहूदा और आततायी वैश्वीकरण की जगह सदभावनापूर्ण विस्तरण (expainsion)कीशुरूआत भी करती है। इस सारे उपक्रम के लिए जितेन ने बहुत सरल और लगभग विस्मृत कर दी गई देशज भाषा का सहज प्रयोग किया है। लगता है अपने घर परिवार के बड़े बूढ़ों के माध्यम से चली रही भाषा औरकथा का नया रूप दे दिया है। यह कथा सांप्रदायिकता और वैमनस्यता को निश्छलता पूर्वक अस्वीकार कर देती है। यह भी याद नहीं रहता कि लाहौर पाकिस्तान में है और जिसे लेकर तमाम अखबार और दृश्य माध्यम गैर जिम्मेदार तरीके से और तमाम खतरों को उभारते हुए नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत कर रहे है।


कोट लाहौर वाला
जितेन ठाकुर
09410925219


वो एक शानदार कोट था। चमकदार रोएं वाले ट्वीड के कपड़े का बेहतरीन कोट। इस कोट को शानदार बनाने में इसकी कसाव भरी सिलाई का भी हाथ था। कोट कहाँ सिला गया- यही दर्शाने के लिए दर्जी ने कोट की अंदरूनी जेब पर एक "टैग" सिल दिया था। टैग इतनी सफाई से सिला गया था कि उसके सिले जाने पर ही द्राक होता था। पहली नजर में तो ये टैग चस्पां किया हुआ ही दिखलाई देता। इस टैग पर लाहौर के किसी बाजार की एक दुकान का पता दर्ज था। कोट जितनी सफाई और नफासत से सिला गया था, अस्तर का कपड़ा भी उतना ही मुलायम और चमकदार था। कोट की सारी जेबों को ढ़कते हुए तिरछे कटे हुए कान बेमिसाल कारीगिरी की जुबान थे। सिर्फ एक पतली जेब, जिसे यकीनन फांउटेन पैन रखने के लिए ही बनाया गया था, खुली हुई थी और उसे ढ़कने के लिए किसी भी कोण से जामा नहीं बिठाया गया था।
कोट पर टांके गए बटन भी चमड़े की कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना थे। बराबर लम्बाई में काटी गई चमड़े की चकोर कतरनों को एक दूसरे के ऊपर से निकाल कर कुछ ऐसा सिलसिला बनाया गया था कि उन्होंने गोल मुलायम बटन की द्राक्ल इख्तियार कर ली थी। जितनी चमक कोट के कपड़े और अस्तर में थी उतनी ही चमक चमड़े के इन बटनों में भी थी। कहा जा सकता है कि ये कोट हर तरह से कारीगिरी का एक बेहतरीन नमूना था।
बदनसीबी ये थी कि ये कोट यूरोप के किसी देश में नहीं सिला गया था। इसीलिए इस कोट पर न कोई गीत लिखा गया, न कोई अफसाना घड़ा गया। अलबत्ता, लाहौर, के पास एक छोटी सी पहाड़ी रियासत के लोग इस कोट को देख कर जरूर ललचाते थे। कफ और कालर पर चमकदार काली मखमल लगी रियासत के दूसरे अहोदेदारों की बेशकीमती अचकनों के बीच भी ये कोट अपनी अलग आब रखता। यूँ कहें कि ये कोट रियासत में एक मिसाल था, तो गलत नहीं होगा। पर इस पहाड़ी रियासत के अनपढ़-गरीब मेहनतकशों के पास दो जून की रोटी के सिवा जिंदगी के और किसी भी सपने के लिए गीत गाने की ललक नहीं थी। बस सिर्फ एक बार, जब इस रियासत का राजा लाहौर से कार लेकर आया था, तब गूजरों की भीड़ कार के पीछे-पीछे भागती हुई सम्वेत स्वर में गा रही थी- 'राजो आयो, लारी को बच्चों लायो"- और समूहगान का यह दिन, रियासत की स्मृतियों में, किसी धरोहर की तरह सहेज लिया गया था।
ठीक उसी दिन राजा की अगवानी के लिए जुटी बीसीयों अहोदेदारों, टहलकारों और रियासत के सैंकड़ों बाशिंदों की भीड़ में, कसी हुई बिरजिस पर यही कोट पहने हुए और कमर पर किरिच लटकाए हुए कुमेदान ने फख्र से अपने चारों ओर देखा था और तन गया था। लोगों ने देखा कि कार के पायदान पर पैर टिका कर उतरते हुए राजा के जिस्म पर भी ठीक ऐसा ही कोट कसा हुआ है। ---और तब अहोदेदारों की बीसियों चमकदार अचकनों की चमक अचानक फीकी पड़ गई थी।
दरअसल, यह कोट सिला ही रियासत के राजा के लिए गया था। पर उसी बीच एक ऐसा हादसा गुजरा कि द्राहर तौबा-तौबा कर उठा। ये हादसा हुआ था राजा के शिकारी काफिले के साथ। चीते को गोली लग चुकी थी और चीता झाड़ियों में बेदम पड़ा था। पता नहीं ये चूक चीते पर नजर रखने वालों से हुई थी या फिर चीता ही सिरे का फरेबी था। पर करीब घंटा भर से मुर्दा पड़े चीते को जैसे ही कुमेदान ने बंदूक से ठेला, दर्द भरी भयानक गुर्राहट के साथ चीते ने कुमेदान पर हमला कर दिया। कुमेदान की एक पूरी बांह चीते के मुँह में समा गई। हा-हा कार करती हुई भीड़ भाग निकली। दर्द से छट-पटाते कुमेदान ने एक-एक को नाम लेकर पुकारा, पर कोई लौट कर नहीं आया। अंत में, कुमेदान ने ही एक हाथ से बंदूक भरी, कांछ के नीचे दबाई, नली को गुर्राते और बांह चबाते हुए चीते की दोनों आंखों के बीच में टिकाया और ट्रिगर दबा दिया। धमाके की भयानक आवाज के साथ उछलकर एक तरफ चीता गिरा था और दूसरी तरफ कुमेदान।
करीब डेढ़ साल बाद जब ठीक होकर कुमेदान पहली बार दरबार में आया तो बहादुरी की इस मिसाल के लिए दूसरे बहुत से तोहफों के साथ राजा ने अपना ये कोट भी कुमेदान को दिया था।
अब रियासत में ऐसे दो कोट थे। एक राजा के पास और दूसरा कुमेदान के पास। कुमेदान जब ये कोट पहन कर घोडे पर निकलता तो राहगीर फुस-फुसा कर एक-दूसरे को बताते ''देखो! कोट, लाहौर वाला''। पर कुमेदान ये कोट पहन कर हर घोड़े की सवारी नहीं करता था। पाँच घ्ाोड़ों में से एक काला घोड़ा, जिसके माथे पर नेजे के फल जैसा सफैद बालों का टीका था, उसी की सवारी के दिन कुमेदान ये कोट पहनता। या यूँ कहें कि कुमेदान जिस दिन ये कोट पहनता उस दिन उसी खास घोड़े की सवारी करता। पर एक दिन साईस की गलती से वही काला घोड़ा लंगड़ा हो गया और घोड़े को गोली मार दी गई।
कुमेदान के लिए साईस की ये गलती नासूर बन गई। उसने घोडे की मौत को बरदाच्च्त करने की कोशिश की- पर नहीं कर पाया। साईस को कोड़े मारने की सजा सुनाई गई। कोड़ों की मार के शुरूआती दौर में साईस चीख-चीख कर अपनी बेगुनाही बयान करता रहा और रहम की भीख मांगता रहा। पर जब उसे यकीन हो गया कि उसकी आवाज का किसी पर कोई असर नहीं होगा तो उसने कुमेदान को कोसना और बद्दुआएँ देना शुरू कर दिया। गालियों के साथ कोड़े की मार बढ़ती गई और साईस की सांसें घटती गईं। अब इसे साईस की बद्दुओं का असर कहें या फिर कुदरत का खेल कि अगले साल ठीक उसी दिन कुमेदान भी चल बसा जिस दिन घोड़े को गोली मारी गई थी। कुमेदान की याद में सहेज कर रखी गई बहुत सी चीजों में खाल के लबादे का और लाहौर वाले कोट का अपना एक अलग मुकाम था।

फिर बंटवारें के दिन आए। इस पहाड़ी रियासत को चारों ओर से कबायली हमलावरों ने घेर लिया। बेताड़ नाले के उस पार से चलाई जा रही कबायलियों की गोलियों से घरों की दीवारें छलनी होने लगीं। द्राहर छोड़ने के सभी रास्ते कबायलियों के कब्जे में चले गए और ये रियासत, दुनिया से कटा हुआ एक टापू बनकर रह गई। तभी एक दिन ऐलान हुआ कि रसद लेकर आने वाले फौजी-जहाज में जो यहाँ से निकलना चाहते हैं- तैयार हो जाएँ। पर माली जहाज में इतनी जगह नहीं थी कि आदमियों के साथ असबाब भी जा सके। इसलिए छोटी-छोटी गठड़ियां उठाए हुए लोगों ने जब इस द्राहर को अलविदा कहा तो ऐसी ही एक गठरी में लिपटा हुआ 'कोट लाहौर वाला" भी अपनी उम्र के सुनहरे वर्क को फाड़ कर रियासत से विदा हो गया।

धीरे-धीरे रियासत से विदा हुए काफिलों की पीढ़ियाँ बीत गईं। बच्चे जवान हुए, जवान-बूढे और बूढ़े विदा हो गए। पर उस कोट का खोया हुआ सम्मान फिर नहीं लौटा। कभी रियासत की रौनक कहालने वाला यह कोट अब महज सर्दी से बचने की चीज बनकर रह गया था। रोज-रोज बदलती जिंदगी की जंग में अतीत की चिंदियों का वजूद और हो भी क्या सकता था। पर हद तो ये थी कि इस भरपूर उपेक्षा के बावजूद कोट के रेच्चों में पहले जैसी ही चमक बरकरार थी। चमडे के नर्म बटन पहले ही कि तरह नर्म और मुलायम थे और अंदरूनी जेब पर टांका गया लाहौर के बाजार का टैग पहले ही की तरह साफ-सुथरा और चस्पां किया हुआ दिखलाई देता था। न तो जेबें ही लटकी थीं और न ही अस्तर ने अपनी, आब खोई थी। हैरानी तो इस बात की थी कि उम्र की एक सदी जी लेने के बाद भी अभी इस कोट में जीने की ललक बरकरार थी। पर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि कोट ही चोरी हो गया।
पंतग और मांझा खरीदने के लिए घर के ही किसी नादान की नादानी से हुई इस चोरी की एक अलग कहानी है, पर कुनबे के लिए चोरी का सदमा गहरा था। जब तक कोट था, गुजरे हुए कल का सुनहरा वर्क फड़-फड़ाता था, जिसके सहारे ये कुनबा बार-बार चीथड़ा होते रौच्चनी के दायरों को सहेजने में कामयाब हो जाता था। पर आज इन्हें लगा जैसे माथे पर नेजे के फल वाला, काला घोड़ा, फिर लंगड़ा हो गया है और अब उसे गोली मारने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा है।


लम्बी गुमशुदगी के बाद, एक सुबह पुराने कपड़ो से भरी एक ठेली पर वो कोट दोबारा दिखलाई दिया। मैल और चिकनाहट ने उसके रेशों की चमक को दबाने की भरपूर कोशिश की थी, पर किसी जिद्दी बच्चे की किलकारी की तरह उस कोट में चमक का लिश्कारा अब भी बाकी था। यह बात और है कि फांउटेन पैन रखने के लिए शौक से बनाई गई कोट की जेब अब सलामत नहीं थी। दूसरी जेबों को ढ़कने और उनकी हिफाजत करने वाले तिरछे कटे हुए कान-अब चिकनाई वाले हाथ पौंछने से चीकट हो चुके थे। कोट की किसी भी जेब से तम्बाकू के साथ मसले हुए भांग के सूखे पत्तों का चूरा बरामद किया जा सकता था और अस्तर भी छिछरा चुका था। ताज्जुब नहीं अगर किसी ने इसे नया बर्तन खरीदने के एवज में अपने पुराने कपड़ों के साथ बेच दिया हो।
पर ये तय था कि सौदागन ने बेचने के लिए ठेली पर रखने से पहले इस कोट को किसी घटिया साबुन से धोया था और बेतरतीबी से प्रैस भी किया था। इसीलिए इसके रेच्चों में अब भी चिकनाई और सलवटों में झुर्रियाँ मौजूद थीं। पर हैरानी तो ये कि लाहौर के बाजार की दुकान वाला वो टैग अब कोट की अंदरूनी जेब पर चस्पां नहीं था। वहाँ लंदन की किसी दुकान का पता करीने से छपा और चिपका हुआ था।
--- क्योंकि अब इस मुल्क में लाहौर की चीजें न बेची जाती हैं - न खरीदी जाती हैं।

Friday, May 1, 2009

प्रतिशोध में डूबा हुआ

यादवेन्द्र जी के इस अनुवाद के साथ यह उल्लेखित करना जरूरी लग रहा है कि हमें जो सहयोग उनका मिल रहा है, वह शब्दों में व्यक्त किया नहीं जा सकता। उनके मार्फत ही हम ताहा मुहम्मद अली से पहली बार हिन्दी में परिचितहो पाएं हैं और हिन्दी में अनुदित ताहा की कवितांपहली बार लिखो यहां वहां पर प्रस्तुत करने का अवसर यादवेन्द्र जी ने अपने अनुवादों को मुहैय्या कराकर दिया है।
ताहा की कविताओं में जीवन का जो ठोसपन है उसकी ज्यामिति प्रेम के अथाह समंदर में उठती हिलौरे के बीचआकार ग्रहण करती है।

फिलिस्तिनी कविता
ताहा मुहम्मद अली


प्रतिशोध

कभी कभी --- मन में आता है
भिड़ जाऊं उससे---गुत्थमगुत्था करूं
जिसने मार डाला मेरे पिता को
जमींदोज कर दिया मेरा घर
और मुझे बेदखल कर दिया
एक तंग से देश में भटकने को।

मार डालेगा यदि मुझे वह
गुम-सुम दबा पड़ा रहूंगा धरती के नीचे
यदि मेरी हैसीयत हुई उठान पर
तो बदला लूंगा ही उससे।

कोई कहे मुझसे
कि मेरे प्रतिद्वंद्वी की
मां जिंदा है घर में
और देख रही है बेटे की राह
या उसके पिता
पंद्रह मिनट की देर होने पर भी
छटपटा उठते हैं उसकी सलामती के वास्ते
और करते हैं उसके सीने पर अपना दाहिना हाथ रखकर
लौटने पर उसका गर्मजोशी से स्वागत
तब मैं उसे हरगिज नहीं मारूंगा -
मार सकता हुआ
तब भी बिल्कुल नहीं।

ऐसे ही --- मैं
उसका कत्ल उस हाल में भी नहीं करूंगा
जब यह पता चल जाए मुझे
कि भाइयों बहनों को वह खूब करता है प्यार
और उनसे मिलने को रहता है आतुर
या प्रतीक्षारत बैठी है उसकी पत्नी
और बाल-बच्चे
पल-पल उसकी बाट जोहते
कि वह लौटेगा तो लाएगा हाथ में
उन सब के लिए कुछ न कुछ जरूर।

या फिर उसके दोस्त मित्र हों ढेर सारे
जानने वाले पडोसी हों
जेल या अस्पताल में साथ रहे हुए साथी हों
या स्कूल में साथ- साथ
पढ़ने वाले सहपाठी हों-
और सब रहते हों उत्सुक हरदम
जानने को उसकी कुशल क्षेम।

पर यदि नहीं हुआ यदि ऐसा कुछ भी
वह अलग ही तरह का आदमी निकला
जैसे काट दी गयी हो कोई टहनी विशाल वृक्ष से
मां या पिता के बगैर
भाई या बहन के बगैर
पत्नी और बच्चों के बगैर
दोस्तों और रि्श्तेदारों या साथियों के बगैर
तब भी मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा
कि उसके एकाकीपन के जख्म में
जुड़ जाए कोई आघात
मृत्यु की यातना और बढ़ जाए
बिछुड़ने की व्यथा और बढ़ जाए।

बल्कि मैं तसल्ली कर लूंगा
सामने से निकलते हुए भी उसकी ओर से मुँह फेर
सड़क पर चलते-चलते-
क्योंकि इसका अहसास बड़ी शिद्दत से है मुझे
कि उसको देख कर भी न देखना
किसी गहरे प्रतिशोध से।
कमतर नहीं होगा जरा भी


चाय और नींद
इस दुनिया का
यदि कोई मालिक है
और संचालित होता है जिसके हाथों
देना और वापस ले लेना
जिसकी मर्जी से बोए जाते हैं बीज
और जिसके चाहने से पकती हैं फसलें-
मैं उस मालिक के सामने
सजदे में नवाऊंगा अपना सिर
और करूंगा बिनती
कि मुकर्रर कर दे वह मेरी मृत्यु की घडी
पूरा होने पर मेरा जीवन
तब मैं बैठूं इत्मीनान से, और
चुस्की लूं कम मीठे की हल्की चाय की
अपने पसंद के गिलास में भरकर
गर्मियों के मौसम में
दोपहर बाद निरंतर लम्बी होती जाती छाया में।

यदि दोपहर के बाद की चाय न बन पड़े
तो मेरे मालिक
यह घड़ी देना
पौ फटने के बाद आती प्यारी नींद का।

मेरा मेहनताना ऐसा ही देना प्रभु-
यदि कह सकूं इसे मेहनताना मैं-
कि अपने पूरे जीवन में
मैंने एक चींटी को भी नहीं कुचला
न ही किसी अनाथ को दान करने में की कोई कोताही
तेल की नाप तौल में भी कभी गड़बड़ नहीं की
न ही किसी नकाब के भीतर
तांक झांक करने की कोशिश की
हर जुमे की शाम
बिलानागा
इबादत गाहों पर जलाता रहा दिए
दोस्त हों पड़सी हों
या मामूली जान पहचान वाले लोग हों
खेल-खेल में भी उन पर कभी हाथ नहीं उठाया
मैंने कभी किसी का अनाज
या आहार नहीं चुराया-
आपसे इस बावत यही बिनती करूंगा
कि महीने में कम से कम एक बार
या हर दूसरे महीने
दीदार कर लेने देना उसका
जिससे निगाहें मिलाने की इजाज़त छीन ली गई मुझसे
जवानी के शुरूआती दिनों से ही
बिछुड़ने को अभिशप्त हो गए हम दोनों।

दुनिया के तमाम सुख मिल जाएंगें मुझे मेरे प्रभु
गर कबूल कर लें आप मेरी दुआ छोटी- सी
भोर की नींद की
और
चाय की चुस्की की।


अनुवाद- यादवेन्द्र

Tuesday, April 28, 2009

एक स्वस्थ आलोचना रचनाकार को भी समृद्ध करती है


कहानी पाठ- नवीन नैथानी की कहानी- पारस


सौरी
नवीन का एक काल्पनिक लोक है। काल्पनिक इसलिए कि सौरी नाम की कोई जगह इस भूभाग में है, इसकीहमें जानकारी नहीं। पर नाम को हटा दें तो पाएंगे कि काल्पनिक नही भी हो सकता है। कल्पना और सच के बीचका फासला सिर्फ होने भर का फासला है। कल्पना में कोई खजाना होता है और उस खजाने की खोज में निकल पड़ताहै कोई, या उसे लूटने को चोर चौकन्ने हो जाते हैं। सिपाही मुस्तैद। रचनाकार कल्पना के उस खजाने को यर्थाथ केधरातल पर सबके लिए खोल देता है। सिर्फ निजी बपौती समझने की समझदारी से भरी चोरी की प्रवृत्ति सेइसीलिए वह कोसों दूर हो जाता हैं। सिपाहियों वाली मुस्तैद व्यस्वथा का तंत्र भी उसे आकर्षित नहीं करता। ऐसी हीरहस्य भरी भाषा में सौरी का भूगोल नवीन नैथानी की कहानियों में आकार लेता है। जिसकी निशानदेही चोरघटड़ा, चाँद पत्थर और जाखन नदी के बिना संभव नहीं है। मुंदरी बुढ़िया के दरवाजे की सांकल के खड़खड़ाने की आवाज उसी सौरी के प्रवेश द्वार से आती हैं। उसके भीतर घुसने के बाद आगे बढ़ने वाला रास्ता जिस चढ़ाई पर जाता है उसे लाठी टेक-टेक कर ही पार किया जा सकता है। और इस तरह से मिथ एवं लोक आख्यानों को थामकर कल्पना और यथार्थ का संगुम्फन करते हुए नवीन एक ऎसे समय को दर्ज करते हैं जिसकी प्रमाणिकता के लिए मोहर लगा कोई कागज मौजूद नहीं होता।

वर्ष 2006 में रमाकान्त स्मृति सम्मान से सम्मानित उनकी कहानी पारस एक महत्वपूर्ण कहानी है। नवीन की क्षमताओं का ही नहीं बल्कि अभी तक की हिन्दी कहानियों में कल्पनाओं की अनूठी क्षमता का अदभुत नूमना है। यह नीवन की विनम्रता ही है कि वे इसे भी दूसरे के खातों में डालना चाहते हैं। इस कहानी के लिखे जाने के सवाल पर नवीन ने जो कहा, दर्ज किया जा रहा है। साथ ही कहानी का पाठ भी प्रस्तुत है।





आंधी प्रकाशित हुई थी। मैंने मां को पढ़कर सुनाई । अपनी कहानियां मैं मां को ही सुनाता रहा। वे मेरी अच्छी श्रोता भी थी और पाठक भी । मां ने सुझाया कि एक ऐसी कहानी लिखूं जिसमें बकरी के पैर में नाल ठोकी जा रही हो। मां की स्मृतियों में बकरी के खुर में नाल ठोके जाने का कोई चित्र दर्ज रहा होगा ऐसा अनुमान कर सकता हूं । वैसे बकरी के खुर में नाल नहीं ठोकी जाती । वो तो घोड़े और खच्चरों के खुरों में ठोकी जाती है। यह बात 1988-89 के आस-पास की है । कहानी उसी वक्त आकार लेने लगी थी । इधर चोर घटड़ा की आलोचना करते हुए अर्चना वर्मा ने सवाल उठाया कि सौरी का मतलब प्रसूति-गृह से तो नहीं ! मैं चौंका और प्रसूति-गृह के अर्थों से भरी सौरी को खोजने लगा। देखिए कैसे एक स्वस्थ आलोचना न सिर्फ रचना के भीतर छिपे अर्थों को खोलती है अपितु रचनाकार को भी समृद्ध करती है और वह रचनात्मकता के नए सोपान की ओर होता है । पारस को लिख लेने पर यह मैं कह ही सकता हूं। क्योंकि पारस, जैसा कि मित्रों का कहना है, मेरी कल्पना क्षमता का एक नमूना है, वैसा है नहीं । जब तलवाड़ी में रह रहा था तो वहां के एक स्थानिय मित्र ने एक कथा सुनाई थी जिसमें घोड़े की पूंछ पकड़कर चढ़ाई चढ़ने का चित्र मेरे भीतर दर्ज हो गया। इस तरह के ढेरों अनुभव मुझे रचनात्मक मदद करते रहे। बकरीं के खुरों पर नाल ठोकी जा सकती है तो मनष्य के पांव में क्यों नहीं ? यह बिंदु कहानी को लिखने के दौरान ही मेरे भीतर उठा। रचनाएं मेरे यहां बिना कथ्य (घटनाक्रम) के आती रही है। जब पारस को लिखते हुए कई साल बीत गए तो एक दिन देखता हूं कि वह समाप्त हो गई सी लगती है। मैं तो और आगे लिखने बैठा था । आगे क्या लिखा जाता वह तो उस समय भी नहीं पता था तो अभी कैसे बताऊं । प्रसूति-गृह के अर्थों से भरी सौरी को तो मुझे अभी और चित्रित करना है । शायद संभव हो कोई उपन्यास लिख पाऊं।

कहानी: पारस
लेखक: नवीन नैथानी
पाठ : विजय गौड
पाठ समय- ५५ मिनट




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Friday, April 24, 2009

आखेट पर निकलने का शौक रखने वालों



1931 में गलिली इलाके के सफ्फूरिया गांव में जन्मेंफिलिस्तिनी कवि ताहा मुहम्मद अली के अनुवाद यादवेन्द्रजी ने किए हैं। ताहा मुहम्मद की कई कविताओं के अनुवादकी यह दूसरी कड़ी है। ताहा की कविताओं में मानवीय गरिमाको बचाए रखने की जबरदस्त ललक है। उनके रचना संसारसे पाठकों का एक जीवन्त परिचय हो, यादवेन्द्र जी की इसपहल का हम स्वागत करते हैं। उनकी अन्य कविताओं कोअगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।

फिलिस्तिनी कविता
ताहा मुहम्मद अली









चेतावनी

आखेट पर निकलने का शौक रखने वालों
और शिकार पर झपट्टा मारने का श्री गणेश करने वालों-
अपनी रायफल का
मुंह मत साधो मेरी खुशी की ओर-
यह इतना मूल्यवान नहीं
कि जाया की जाए इस पर एक भी गोली-
(बर्बादी है यह खालिस बर्बादी)
तुम्हें जो दिख रहा है
हिरन के बच्चे की तरह
फुर्तीला और मोहक
कुलांचें भरता हुआ
या तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता हुआ-
यह मत समझ लेना कि
बस खुशी यही है
मेरा यकीन मानो
मेरी खुशी का
कुछ भी लेना देना नहीं है।









वही जगह


मैं आ तो गया फिर उसी जगह
पर जगह का मायना
केवल मिट्टी, पत्थर और मैदान होता है क्या ?
कहां है वह लाल दुम वाली चिड़िया
और बादाम की हरियाली
कहां है मिमियाते हुए मेमने
और अनारों वाली शामें ?
राटियों की सुगंध
और उनके लिए उठती कुनमुनाहटें कहां हैं ?
कहां गईं वे खिड़कियां
और अमीरा की बिखरी हुई लटें ?
कहां गुम हो गए सारे के सारे बटेर
और सफेद खुरों वाले हिनहिनाते हुए घ्ाोड़े
जिनकी केवल दाईं टांग खुली छोड़ी गयी थी ?
कहां गईं वे बारातें
और उनकी लजीज दावतें ?
वे रस्मों रिवाज और जैतून वाले भोज कहां चले गए ?
गेहूं की बालियों से भरे लहरदार खेत कहां गए
और कहां चली गईं फूलवाले पौधों की रोंएदार बरौनियां ?
हम खेलते थे जहां
लुकाछिपी का खेल देर-देर तक
वो खेत कहां चले गए ?
वो सुगंध से मदमस्त झाड़ियां कहां चली गईं ?
जन्नत से चूजों पर सीधे उतर आने वाली
पतंगे कहां गई
जिन्हें देखते ही
बुढिया के मुंह से निकलने लगती थीं गालियों की झड़ी :
हमारी चित्तीदार मुर्गियां चुराने वालों
सब के सब तुम, छिनाल हो-
मुझे मालूम है तुम उन्हें हजम नहीं कर सकते-
फूटो यहां से छिनालों
तुम मेरी मुर्गियां कतई हजम नहीं कर पाओगे।








हमारा मरना

जब हम मरेंगे
और थका हारा निढ़ाल दिल
मूंद लेगा अंतिम तौर पर अपनी पलकें
उन सबसे बेखबर
कि हमने जीवन भर किया क्या-क्या
कि पल-पल हमने किसकी उत्कंठा में बिताए
कि क्या-क्या देखते रहे स्वप्न
कि किन-किन बातों की करते रहे लालसा
और अनुभूति
तो
पहली चीज
जो सड़ गल कर नष्ट होना शुरू होगी
हमारे अंदर की दुनिया में
वह
होगी
नफरत।

Wednesday, April 22, 2009

चुनावी कोरस

पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर चुनाव कितना बड़ा झूठ है, इसे कहने की भी अब कोई जरूरत नहीं। चुनने की आजादी के नाम पर खेला जाने वाला झूठा खेल जारी है। क्षेत्र, जाति और धार्मिक भावनाओं को भड़काकर सिर्फ और सिर्फ वोट बटोरने की जरूरी कार्रवाई ने राजनेताओं को व्यस्त किया हुआ है। अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी के नाम पर सिर्फ वोट डालने का अधिकार एक ऐसा षडयंत्र है कि फिर मलते रहो हाथ पूरे पांच साल तक। वास्तविक आजादी क्या अपने प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार दिए बिना संभव है ? किसी भी निर्वाचन क्षेत्र के कुल मतदाताओं का सिर्फ 10-15 प्रतिशत समर्थन हासिल कर लेने पर ही क्या कोई वास्तविक प्रतिनिधि हो सकता है ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो इस पूरे खेल के गैर-जनतांत्रिक होने के बहुत साफ दिखते हुए स्तम्भ है। इसके अलावा जमाने की जटिलता में थोड़ा धूमिल से दिखने वाले और भी कई कारण हैं जिन पर विचार किए बगैर वास्तविक आजादी को पहचाना नहीं जा सकता। यहां सवाल है कि आरोप और प्रत्यारोप की उत्तेजना फैलाकर जीवन के जरूरी सवालों को दरकिनार करने की हर चालाकी जनता के साथ एक षडयंत्र नहीं तो और क्या है ? इतने बड़े देश के भीतर दमन के सारे औजारों के जरिए मत पेटियों को भर लेने का मामला एक सांख्यिकी आंकड़े के सिवा दूसरा कुछ नहीं। सिर्फ संख्याबल के द्वारा साम्प्रदायिकता की मुखालफत भी एक ढोंग ही कहा जाएगा। इतने सारे ढोंग और ढकोसलों ने ही जनता के एक सीमित हिस्से को इस झूठे खेल में दिलचस्पी लेने को उकासाया हुआ भी है और किसी ठोस विकल्प की लगभग अनुपस्थित-सी स्थिति ने उसे मजबूर भी किया है कि वह इस पूरे खेल में शामिल न हो तो क्या करे ?
चुनाव के इस मौसम में प्रस्तुत है दिनश चंद्र जोशी की कविता-


दिनेश चन्द्र जोशी


चुनावी कोरस




बेशर्मी की खाल ओढ़ कर
बगुले खड़े हैं हाथ जोड़ कर
लगा गिरगिटों का मेला
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

गठबन्धन की गलबहियां हैं
धूर्त हंसी की बतकहियां हैं
पाखंडियों का रेला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

इधर ठगों का जमघट है
उधर माफिया मरघट है
सत्ता का मद फैला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

बड़े कपट की चाल चलेंगें
घिघिया कर के तुझे छलेंगें
पग पग पर घोटाला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान ।

भ्रष्टानन्द बड़े बड़े
धूर्त शिरोमणि हुए खड़े
गुंडाधीस चेला हैं
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान।

मर्यादा कोने पड़ी है
लोकतन्त्र की खाट खड़ी है
गिद्धों ने नाटक खेला है
आई चुनाव की बेला है
जनता ! रहना सावधान।