Friday, May 1, 2009

प्रतिशोध में डूबा हुआ

यादवेन्द्र जी के इस अनुवाद के साथ यह उल्लेखित करना जरूरी लग रहा है कि हमें जो सहयोग उनका मिल रहा है, वह शब्दों में व्यक्त किया नहीं जा सकता। उनके मार्फत ही हम ताहा मुहम्मद अली से पहली बार हिन्दी में परिचितहो पाएं हैं और हिन्दी में अनुदित ताहा की कवितांपहली बार लिखो यहां वहां पर प्रस्तुत करने का अवसर यादवेन्द्र जी ने अपने अनुवादों को मुहैय्या कराकर दिया है।
ताहा की कविताओं में जीवन का जो ठोसपन है उसकी ज्यामिति प्रेम के अथाह समंदर में उठती हिलौरे के बीचआकार ग्रहण करती है।

फिलिस्तिनी कविता
ताहा मुहम्मद अली


प्रतिशोध

कभी कभी --- मन में आता है
भिड़ जाऊं उससे---गुत्थमगुत्था करूं
जिसने मार डाला मेरे पिता को
जमींदोज कर दिया मेरा घर
और मुझे बेदखल कर दिया
एक तंग से देश में भटकने को।

मार डालेगा यदि मुझे वह
गुम-सुम दबा पड़ा रहूंगा धरती के नीचे
यदि मेरी हैसीयत हुई उठान पर
तो बदला लूंगा ही उससे।

कोई कहे मुझसे
कि मेरे प्रतिद्वंद्वी की
मां जिंदा है घर में
और देख रही है बेटे की राह
या उसके पिता
पंद्रह मिनट की देर होने पर भी
छटपटा उठते हैं उसकी सलामती के वास्ते
और करते हैं उसके सीने पर अपना दाहिना हाथ रखकर
लौटने पर उसका गर्मजोशी से स्वागत
तब मैं उसे हरगिज नहीं मारूंगा -
मार सकता हुआ
तब भी बिल्कुल नहीं।

ऐसे ही --- मैं
उसका कत्ल उस हाल में भी नहीं करूंगा
जब यह पता चल जाए मुझे
कि भाइयों बहनों को वह खूब करता है प्यार
और उनसे मिलने को रहता है आतुर
या प्रतीक्षारत बैठी है उसकी पत्नी
और बाल-बच्चे
पल-पल उसकी बाट जोहते
कि वह लौटेगा तो लाएगा हाथ में
उन सब के लिए कुछ न कुछ जरूर।

या फिर उसके दोस्त मित्र हों ढेर सारे
जानने वाले पडोसी हों
जेल या अस्पताल में साथ रहे हुए साथी हों
या स्कूल में साथ- साथ
पढ़ने वाले सहपाठी हों-
और सब रहते हों उत्सुक हरदम
जानने को उसकी कुशल क्षेम।

पर यदि नहीं हुआ यदि ऐसा कुछ भी
वह अलग ही तरह का आदमी निकला
जैसे काट दी गयी हो कोई टहनी विशाल वृक्ष से
मां या पिता के बगैर
भाई या बहन के बगैर
पत्नी और बच्चों के बगैर
दोस्तों और रि्श्तेदारों या साथियों के बगैर
तब भी मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा
कि उसके एकाकीपन के जख्म में
जुड़ जाए कोई आघात
मृत्यु की यातना और बढ़ जाए
बिछुड़ने की व्यथा और बढ़ जाए।

बल्कि मैं तसल्ली कर लूंगा
सामने से निकलते हुए भी उसकी ओर से मुँह फेर
सड़क पर चलते-चलते-
क्योंकि इसका अहसास बड़ी शिद्दत से है मुझे
कि उसको देख कर भी न देखना
किसी गहरे प्रतिशोध से।
कमतर नहीं होगा जरा भी


चाय और नींद
इस दुनिया का
यदि कोई मालिक है
और संचालित होता है जिसके हाथों
देना और वापस ले लेना
जिसकी मर्जी से बोए जाते हैं बीज
और जिसके चाहने से पकती हैं फसलें-
मैं उस मालिक के सामने
सजदे में नवाऊंगा अपना सिर
और करूंगा बिनती
कि मुकर्रर कर दे वह मेरी मृत्यु की घडी
पूरा होने पर मेरा जीवन
तब मैं बैठूं इत्मीनान से, और
चुस्की लूं कम मीठे की हल्की चाय की
अपने पसंद के गिलास में भरकर
गर्मियों के मौसम में
दोपहर बाद निरंतर लम्बी होती जाती छाया में।

यदि दोपहर के बाद की चाय न बन पड़े
तो मेरे मालिक
यह घड़ी देना
पौ फटने के बाद आती प्यारी नींद का।

मेरा मेहनताना ऐसा ही देना प्रभु-
यदि कह सकूं इसे मेहनताना मैं-
कि अपने पूरे जीवन में
मैंने एक चींटी को भी नहीं कुचला
न ही किसी अनाथ को दान करने में की कोई कोताही
तेल की नाप तौल में भी कभी गड़बड़ नहीं की
न ही किसी नकाब के भीतर
तांक झांक करने की कोशिश की
हर जुमे की शाम
बिलानागा
इबादत गाहों पर जलाता रहा दिए
दोस्त हों पड़सी हों
या मामूली जान पहचान वाले लोग हों
खेल-खेल में भी उन पर कभी हाथ नहीं उठाया
मैंने कभी किसी का अनाज
या आहार नहीं चुराया-
आपसे इस बावत यही बिनती करूंगा
कि महीने में कम से कम एक बार
या हर दूसरे महीने
दीदार कर लेने देना उसका
जिससे निगाहें मिलाने की इजाज़त छीन ली गई मुझसे
जवानी के शुरूआती दिनों से ही
बिछुड़ने को अभिशप्त हो गए हम दोनों।

दुनिया के तमाम सुख मिल जाएंगें मुझे मेरे प्रभु
गर कबूल कर लें आप मेरी दुआ छोटी- सी
भोर की नींद की
और
चाय की चुस्की की।


अनुवाद- यादवेन्द्र

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