Tuesday, April 28, 2009

एक स्वस्थ आलोचना रचनाकार को भी समृद्ध करती है


कहानी पाठ- नवीन नैथानी की कहानी- पारस


सौरी
नवीन का एक काल्पनिक लोक है। काल्पनिक इसलिए कि सौरी नाम की कोई जगह इस भूभाग में है, इसकीहमें जानकारी नहीं। पर नाम को हटा दें तो पाएंगे कि काल्पनिक नही भी हो सकता है। कल्पना और सच के बीचका फासला सिर्फ होने भर का फासला है। कल्पना में कोई खजाना होता है और उस खजाने की खोज में निकल पड़ताहै कोई, या उसे लूटने को चोर चौकन्ने हो जाते हैं। सिपाही मुस्तैद। रचनाकार कल्पना के उस खजाने को यर्थाथ केधरातल पर सबके लिए खोल देता है। सिर्फ निजी बपौती समझने की समझदारी से भरी चोरी की प्रवृत्ति सेइसीलिए वह कोसों दूर हो जाता हैं। सिपाहियों वाली मुस्तैद व्यस्वथा का तंत्र भी उसे आकर्षित नहीं करता। ऐसी हीरहस्य भरी भाषा में सौरी का भूगोल नवीन नैथानी की कहानियों में आकार लेता है। जिसकी निशानदेही चोरघटड़ा, चाँद पत्थर और जाखन नदी के बिना संभव नहीं है। मुंदरी बुढ़िया के दरवाजे की सांकल के खड़खड़ाने की आवाज उसी सौरी के प्रवेश द्वार से आती हैं। उसके भीतर घुसने के बाद आगे बढ़ने वाला रास्ता जिस चढ़ाई पर जाता है उसे लाठी टेक-टेक कर ही पार किया जा सकता है। और इस तरह से मिथ एवं लोक आख्यानों को थामकर कल्पना और यथार्थ का संगुम्फन करते हुए नवीन एक ऎसे समय को दर्ज करते हैं जिसकी प्रमाणिकता के लिए मोहर लगा कोई कागज मौजूद नहीं होता।

वर्ष 2006 में रमाकान्त स्मृति सम्मान से सम्मानित उनकी कहानी पारस एक महत्वपूर्ण कहानी है। नवीन की क्षमताओं का ही नहीं बल्कि अभी तक की हिन्दी कहानियों में कल्पनाओं की अनूठी क्षमता का अदभुत नूमना है। यह नीवन की विनम्रता ही है कि वे इसे भी दूसरे के खातों में डालना चाहते हैं। इस कहानी के लिखे जाने के सवाल पर नवीन ने जो कहा, दर्ज किया जा रहा है। साथ ही कहानी का पाठ भी प्रस्तुत है।





आंधी प्रकाशित हुई थी। मैंने मां को पढ़कर सुनाई । अपनी कहानियां मैं मां को ही सुनाता रहा। वे मेरी अच्छी श्रोता भी थी और पाठक भी । मां ने सुझाया कि एक ऐसी कहानी लिखूं जिसमें बकरी के पैर में नाल ठोकी जा रही हो। मां की स्मृतियों में बकरी के खुर में नाल ठोके जाने का कोई चित्र दर्ज रहा होगा ऐसा अनुमान कर सकता हूं । वैसे बकरी के खुर में नाल नहीं ठोकी जाती । वो तो घोड़े और खच्चरों के खुरों में ठोकी जाती है। यह बात 1988-89 के आस-पास की है । कहानी उसी वक्त आकार लेने लगी थी । इधर चोर घटड़ा की आलोचना करते हुए अर्चना वर्मा ने सवाल उठाया कि सौरी का मतलब प्रसूति-गृह से तो नहीं ! मैं चौंका और प्रसूति-गृह के अर्थों से भरी सौरी को खोजने लगा। देखिए कैसे एक स्वस्थ आलोचना न सिर्फ रचना के भीतर छिपे अर्थों को खोलती है अपितु रचनाकार को भी समृद्ध करती है और वह रचनात्मकता के नए सोपान की ओर होता है । पारस को लिख लेने पर यह मैं कह ही सकता हूं। क्योंकि पारस, जैसा कि मित्रों का कहना है, मेरी कल्पना क्षमता का एक नमूना है, वैसा है नहीं । जब तलवाड़ी में रह रहा था तो वहां के एक स्थानिय मित्र ने एक कथा सुनाई थी जिसमें घोड़े की पूंछ पकड़कर चढ़ाई चढ़ने का चित्र मेरे भीतर दर्ज हो गया। इस तरह के ढेरों अनुभव मुझे रचनात्मक मदद करते रहे। बकरीं के खुरों पर नाल ठोकी जा सकती है तो मनष्य के पांव में क्यों नहीं ? यह बिंदु कहानी को लिखने के दौरान ही मेरे भीतर उठा। रचनाएं मेरे यहां बिना कथ्य (घटनाक्रम) के आती रही है। जब पारस को लिखते हुए कई साल बीत गए तो एक दिन देखता हूं कि वह समाप्त हो गई सी लगती है। मैं तो और आगे लिखने बैठा था । आगे क्या लिखा जाता वह तो उस समय भी नहीं पता था तो अभी कैसे बताऊं । प्रसूति-गृह के अर्थों से भरी सौरी को तो मुझे अभी और चित्रित करना है । शायद संभव हो कोई उपन्यास लिख पाऊं।

कहानी: पारस
लेखक: नवीन नैथानी
पाठ : विजय गौड
पाठ समय- ५५ मिनट




यदि डाउनलोड करना चाहें तो यहां से करें।

4 comments:

अखिलेश शुक्ल said...

प्रिय मित्र,
आपकी रचनाएं पढ़कर सुखद अनूभूति हुई। मेरे ब्लाग पर उपलब्ध सामग्री का लाभ अवश्य उठाएं।
अखिलेश शुक्ल
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डॉ .अनुराग said...

निसंदेह मनुष्य के मस्तिष्क में कई चित्र छिपे रहते है ...बकरी के खुर में नाल .....क्या कहूँ ?शायद इसलिए अच्छा लिखने के लिए एक मनुष्य होना भी अनिवार्य अलिखित शर्त है.....

yogendra ahuja said...

अरे मैं यह समझा था कि नवीन जी ने स्वयं कहानी का पाठ किया है. यह पाठ तो आपकी आवाज़ में है. बहुत ही प्रभावशाली तरीके से आपने कहानी पढ़ी है, कहानी के मर्म को पकड़ते हुए, उसके सभी प्रकट अप्रकट अर्थों के साथ पूरा न्याय करते हुए. बहुत अच्छी प्रस्तुति.


योगेन्द्र आहूजा

Vineeta Yashsavi said...

Kahani to achhi hai hi...lakin aap ne is kahani ko bahut achhe andaaz ke sath bayan kiya hai...

sach mai bahut achha laga is kahani ko sunna...