Monday, December 7, 2009

एक विरासत का अन्त




हिम आहुजा
(लेखक एक शोधकर्ता हैं जो आजकल टौंस घाटी, जिला उत्तरकाशी में कार्यरत हैं)

माधो सिंह भण्डारी को कौन नहीं जानता? वीरता की मिसाल, उनका नाम पूरे गढ़वाल में जाना जाता है। किन्तु दले सिंह जड़यान इतने भाग्यशाली नहीं। अपितु वीर सही, रवांई क्षेत्र में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। उनकी वीरता के कारनामे जानता है। यही सत्य है उस क्षेत्र के अनेक राजपूत वीरों की कथाओं के लिए - जैसे दले सिंह का बेटा जीतू जड़यान, नागदेऊ फन्दाटा, बहादर सिंह और कर्ण महाराज के रांगड़ वज़ीर।

इन्हीं लोगों की वीरता के किस्सों से बना है इस पूरे क्षेत्र का इतिहास। आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यही एकमात्र तरीका है अपने पूर्वजों को याद रखने और उन्हें इज्जत देने का। परन्तु बुली दास के बिना, हरकी दून क्षेत्र के देऊरा गाँव से एक साधारण गरीब बाजगी, ये किस्से और इतिहास कब के लुप्त हो जाते।

बुली दास का ज्ञान पीढ़ियों पीछे जाकर रोमांचक, अविश्वसनीय घटनायें ढूँढ लाता था। उन घटनाओं को जिनसे पिछले सैकड़ों साल में इस क्षेत्र का भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास निर्मित हुआ।

उदाहरण के तौर पर हिमांचल के बुशेहर और यहां की टौंस घाटी के लोगों के बीच चरागाह विवाद, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही राजपूत खानदानों के बीच की दुश्मनी, एवं अनेक ऐसी कथायें, घटनायें जिन्होंने सिर्फ इस क्षेत्र का इतिहास ही नहीं दर्ज किया अपितु जो लिपिबद्ध इतिहास एवं दस्तावेजों से प्रमाणित भी हुआ।

बाजगी जिन्हें बेड़ा, बादी, औजी, ढ़ाकी आदि नामों से भी जाना जाता है, उत्तराखण्ड के परम्परागत गायक वादक हैं। इनका मुख्य कार्य हर अवसर पर गाँव में गाना और बजाना है। चाहे वे जन्म के गीत हों या मृत्यु के, शादी-ब्याह के, ऋतुओं के, मेलों के और देवता के उत्सवों के, बिना बाजगी के वे सम्पन्न नहीं हो सकते। वे 'मौखिक परम्परा' के भी संवर्धक हैं जिनसे समुदाय की सामुहिक स्मृति जिन्दा रहती है।

मुझे याद है जब मैं पहली बार 2005 में उनके घर गया, तो वे हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ। विलियम सैक्स को एक 'पंवाड़ा' (वीरता की गाथा) सुनाने में तल्लीन थे। उनका ज्ञान और असर ऐसा था कि डॉ। विलियम ने उन्हें दस साल तक लगातार वृत्तचित्रित किया और उनका रिश्ता एक खूबसूरत दोस्ती में बदल गया।

इस दशहरे, टौंस घाटी की यात्रा पर, मैं बुली दास से मिला। परन्तु इस बार एक कमजोर, निढ़ाल और संक्रमण से जूझते बुली दास ने बिस्तर से मेरा अभिवादन किया। मैं उनके लिए कुछ दवाईयाँ लेकर आया था। हम हमेशा की तरह बैठे और पुरानी कथाओं में खो गये। उनकी आवाज कमजोर थी परन्तु हिम्मत मज़बूत थी। उन्होंने गाना गाने की कोशिश की परन्तु थोड़ी देर बाद ही वे रुक गये और मुझे विस्तार से कहानी रुप में सुनाने लगे।

उनकी सेहत के बारे में चिन्तित, डॉ। विलियम उनका परीक्षण करवाने उन्हें रोहड़ू ले गये। वहाँ पता चला कि उन्हें दमा है। सब प्रकार की दवाईयाँ लेकर वे लौट आये, इस आश्वासन के साथ कि बीमारी मिल जाने पर ईलाज भी शीघ्र हो जायेगा।

आज, सिर्फ दस दिन बाद ही, 62 साल की उम्र में, बुली दास नहीं रहे। वो 'जीवित परम्परा' चली गई। पीछे छोड़ गई वो खनकती हुई हंसी जो मेरे कानों में आज भी गूँज रही है, वो सालों के अनुबद्ध और संग्रहित गाने, गाथायें, कथायें जो सिर्फ उनके समुदाय ही नहीं, अपितु आने वाली कई पीढ़ियों के काम आयेंगें और एक तीखे दर्द का एहसास जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा।

हमारे चारों ओर ऐसी कई 'जीवित परम्परायें' हैं जो हमेशा के लिए खो जाने के कगार पर हैं। उत्तराखण्ड की हर वादी में ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदाय की 'मौखिक परम्पराओं' को सुरक्षित और जीवित रखने में समर्पित कर दिया। यह उन्हें सिर्फ दक्ष ढ़ोल वादक और गायक के रुप में ही अमूल्य नहीं बनाता अपितु उस 'निरन्तरता' का संग्रहणी बनाता है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। टिहरी रियासत से मिलने वाले प्रश्रय का खो जाना और लोगों का परम्परागत गीतों और ढ़ोलों के बजाय डी।जे। और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में जादा रुचि लेना- इन सबके कारण इनका जीवनयापन एवं समुची परम्परा ही खतरे में है। यही समय है जब सरकार को जागकर प्रदेश की संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को पहचानना चाहिए एवं इस परम्परा को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिएं।

Sunday, December 6, 2009

किसी भी मामले में सनसनी पैदा करना आसान है

विष्णु खरे एक जिम्मेदार रचनाकार हैं- यह ब्लाग और मैं स्वंय उनको इसी अर्थ में लेते हैं। उनके मार्फत लिखी गई पोस्ट इसी का परिचायक है। लेकिन क्या एक जिम्मेदार लेखक से असहमति नहीं रखी जा सकती ? क्या उनके लिखे के उस पाठ को पकड़ना, जो गलियारों में होने वाली बातचीत का हिस्सा होता है और उसे दर्ज करना, उसका गलत पाठ है ? यह सवाल जनसत्ता में प्रकाशित उनके उस आलेख से सहमति और असहमति रखते हुए लिखी पोस्ट पर हमारे एक सहृदय पाठक भीम सिंह जी की टिप्पणी के कारण उठ रहे हैं। मैं नहीं जानता कि भीम सिंह जी कौन है ? वे सच में भीम सिंह ही है या, उनका वास्तविक नाम कुछ और है ? पर इस बिना पर कि मैं अदना सा व्यक्ति उनको नहीं जानता तो वे मुझसे असहमति नहीं रख सकते। जरूर रख सकते हैं और इससे भी तीखे स्वर में उनका स्वागत हमेशा रहेगा। मैं किसी दार्शनिक के विचारों के मार्फत कहूं तो कह ही सकता हूं कि स्वतंत्रता के मायने यह नहीं कि मेरा कोई विरोधी मेरे विरोध में बोले तो मैं उसके बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार को छीन लूं। अब भीम सिंह जी से माफी चाहते हुए कहना चाहूंगा कि कहीं वे मुझसे उस दार्शनिक का नाम न पूछने लगें कि किसने कहा था यह (?), मैं नाम बता न पाऊंगा और फिर कहीं यादाश्त पर जोर देकर नाम बता भी दूं और वे रुष्ट होने लगें कि दार्शनिक द्वारा कहे गए वक्तव्य को मैंने अपने अंदाजों में प्रस्तुत किया है, यानी उन्हें शब्दश: नहीं कहा तो मेरे पास इस बात की सफाई देने की कोई गुंजाइश न रह जाएगी कि श्रीमान मैंने तो जो कहा वह पढ़े गए वक्तव्य का आशय है और मैं किसी भी आलेख को पढ़ने के बाद उसके आशय पर यकीन करता हूं, उसमें कहे गए हुबहू शब्दों पर नहीं। विष्णु जी के आलेख पर भी मेरी प्रतिक्रिया उसी आशय का पाठ है। यहां यह भी स्पष्ट जाने कि विष्णु जी से असहमति भी अपने आशय में एक जिम्मेदार और गम्भीर रचनाकार से असहमति है। असहमति के आशय भी स्पष्ट है, " सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? --- कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए।"
किसी बात को सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने की मंशा इस "nonsense blog" की कभी न रही। अब भी नहीं है। मामला जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नही, यह बात मैं फिर-फिर कहना चाहूंगा।
यहां यह कहना तो अब और भी जरूरी लगने लगा है कि जब साहित्य अकादमी की इस कार्रवाई की कोई अधिकारिक सूचना (मेरी सीमित जानकारी में तो कहीं दिखाई न दी ) अभी तक भी कहीं दिखाई न दी और विष्णु जी को कहीं से पता लगी तो तय है कि किसी अन्य के द्वारा तो उसके विरोध की कोई गुंजाइश कैसे दिखाई देती भला ? लेकिन विष्णु जी का आलेख उस जानकारी को इसलिए शेयर करने के लिए कि सच में प्रतिरोध करने की गुंजाइश तलाशी जाए, दिखता नहीं। बजाय इसके चंद साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवियों के सामने चुनौति प्रस्तुत करने जैसा ही ज्यादा है।
अच्छा हो कि ऊर्जा को सनसनी पैदा करने में जाया न करें और किसी ठोस पहल की शुरूआत करने में जुटे। 

-विजय गौड़

Saturday, December 5, 2009

सामूहिक प्रतिरोध जरूरी है

29 नवम्बर 2009 के जनसत्ता में प्रकाशित विष्णु खरे जी के आलेख पर बहुत सख्ती से न भी कहा जाए तो भी यह तो देखा ही जा सकता है कि एक गैर जनतांत्रिक शासकीय (साहित्य अकादमी एक स्वायत संस्था है, बावजूद इसके ) प्रक्रिया के खिलाफ उनकी टिप्पणी आत्मरक चिंताओं से घिरी है जिसमें उस प्रक्रिया की जो साहित्य संस्कृति को भी बाजार का हिस्सा बना रही है, मुखालफत कम और खुद की आत्मतुष्टी कहीं ज्यादा है। विरोध के नाम पर जो कुछ है उसमें विरोध की संभावना को जन्म देने वाली चिंताओं की बजाय एक ताल ठोकू और ललकार भरी चुनौति के साथ खुद मामले से पल्ला झाड़ लेने की कवायद भी। व्यक्तियों को निशाना की बनाने की यह ऐसी प्रवृत्ति है जो खुद को ही चर्चा के केन्द्र में देखने की खराब मंशाओं भरी मनौवैज्ञानिक बिमारी है। एक वरिष्ठ एवं जिम्मेदार आलोचक और नागरिक की इस प्रवृत्ति पर आखिर सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए जो किसी भी घटनाक्रम में सनसनी पैदा करने वाली एक बाजारू मानसिकता का परिचय बनकर सामने आ रही है। मामला देश की सर्वोच्च संस्था साहित्य अकादमी द्वारा एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साहित्यिक, सांस्कृतिक चेहरे को चमकाने वाली बेहद गैर जनतांत्रिक प्रक्रिया का है। जनता के द्वारा चुनी हुई एक सरकार का बहुराष्ट्रीय पूंजी की वाहक सैमसुंग कम्पनी के तिजारती मंसूबों को सांस्कृतिक चेहरा प्रदान करने वाली घृणित मानसिकता का है। उसकी मुखालफत होनी ही चाहिए और सामूहिक रूप से होनी चाहिए। ऐसी किसी भी जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की मुखालफत ताल ठोकू वक्तव्यों से संभव नहीं, यह बात विष्णु जी की समझ नहीं आती क्या ? विष्णु जी ही क्यों अन्य उनकी जैसी ही समझदारी रखने वालों को भी भली प्रकार से मालूम होगा कि एकल प्रतिरोध का कोई मायने नहीं। फिर इतने मजबूत तंत्र के सामने तो कोई नहीं। बावजूद इसके विष्णु जी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त चंद कवियों के नाम ही इसके प्रतिरोध का ठेका क्यों छोड़ देना चाहते हैं फिर ? सामूहिक कार्रवाई की किसी ठोस पहल की शुरूआत करने की बात विष्णु जी क्यों नहीं करना चाहते, जनपक्षधर लेखकों के संगठनों के सामने वे इस सवाल को क्यों नहीं रखना चाहते ? ऐसी किसी भी नीति के विरोध में किसी अकेले व्यक्ति के विरोध का क्या मायने ? लेखक संगठनों को चाहिए कि ऐसे सवालों पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर एक राय तैयार करें और किसी ठोस कार्यनीति की शुरूआत हो। जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों का मामला ही नहीं, दूसरे, अन्य घरानों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार और लेखकीय नैतिकताओं से जुड़े अन्य सवालों पर भी एक सर्वानुमति कायम हो। ठीक वैसे ही जैसे दलित शोषित आम जन के बारे में और साम्प्रदायिकता के मामले में एक सामाजिक स्वीकृति बनी हुई है, वैसा ही, अमुक अमुक पुरस्कार के बारे में भी स्पष्ट हो। वरना तो किसी रचनाकार द्वारा किसी पुरस्कार को ग्रहण कर लेना और किसी का छोड़ देना व्यक्ति की निजी नैतिकता का मामला हो जाएगा, जो कि आज भी ऐसा ही बना हुआ है। पुरस्कारों को रचनाकारों का निजी मामाला जैसा मानने की समझदारी पर लेखक संगठनों को विचार करना चाहिए और उसे सार्वजनिक मसला बनाना चाहिए। कौन सा पुरस्कार किस घराने और किस संस्था द्वारा किस मंशा के लिए दिया जा रहा है, इसे वक्त बेवक्त के हिसाब से परिभाषित करने के गैर जनतांतत्रिक रवैये पर भी होने वाली थुक्का-फजिहत से भी बचा जाना चाहिए। सिर्फ छिछालेदारी करना ही यदि रचनात्मक अलोचना है तो विष्णु जी के वक्तव्य पर खूब ताली पीटी जा सकती है। आखिर वरिष्ठ अलोचक ही तो पहले व्यक्ति है न जो हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सैमसुंग के सहयोग से दिए जाने वाले रवीन्द्र पुरस्कार की मुखालफत कर रहे हैं !!!!     

-विजय गौड़

Monday, November 30, 2009

टिप्पणी जो प्रकाशित न हो पा रही थी

सबद मे प्रकाशित इस आलेख पर यह टिप्पणी पोस्ट करना चाह्ता था  पर तकनीकी खामियो के चलते बार बार यही संदेश मिलता रहा -

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लिहाजा इसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

बेहद शर्मनाक खबर है यह तो, इसमें कोई दो राय नहीं। विष्णु जी ने निश्चित ही यह पहल की है, कल जनसत्ता में भी पढ लिया था। पर तब से ही सोच रहा हूं कि जिस मामले क प्रतिरोध बिना सामूहिकता के नहीं उसके लिए वरिष्ट आलोचक चंद कुछ नामों को लेकर ताल ठोकते से क्यों दिख रहे हैं ? क्या किसी सामूहिक कार्रवाई से अलग लिए गए नाम कोई इतने बड़े रसूखदार इंसान है कि जिनके कहने भर से साहित्य अकादमी अपना फ़ैसला बदल देगी या ये कोई गुंडे बदमाश है कि जिन्हें ललकारा जा रहा है कि अब दिखाओ अपनी गुंडई जब साहित्य अकादमी खुले तौर पर तुम्हारे आगे आ खड़ी हुई है। विष्णु जी के आलेख का यह हिस्सा तो मुझे ऎसा ही कुछ कहता हुआ लग रहा है-
" देखना दिलचस्प होगा कि प्रगतिशील, जनवादी तथा जन संस्कृति मोर्चा लेखक संगठनों के हमारे मित्र जिनमें सर्वश्री ज्ञानेंद्रपति, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, अरुण कमल, विरेन डंगवाल तथा मंगलेश डबराल जैसे मनसा-वाचा-कर्मणा नई आर्थिक व्यवस्था और नव-साम्राज्यवाद के सक्रिय विरोधी हैं, जो उनके काव्य और गद्य तथा सक्रियता में स्पष्ट दीखता है, उस साहित्य अकादेमी के इस प्रयोज्य 'सामसुंग रवीन्द्रनाथ साहित्य पुरस्कार' के बारे में क्या सोचेंगे जिसने उन्हें अपने नियमित पुरस्कार से कभी सम्मानित किया था।"
विष्णु जी के इस हिस्से को भी देखिए-
"गुरुदेव को जोतकर अकादेमी ने बांग्ला साहित्यकारों का तो मुंह शायद बंद कर दिया, ज़ाहिर है कि इसमें अकादेमी के उपाध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय ने भी अपना कहावती 'पाउंड -भर मांस' वसूला होगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य भारतीय भाषाओँ में महान साहित्यकार हैं ही नहीं कि सिर्फ़ नोबेल पुरस्कार के कारण भारतीय साहित्यों को चिरकाल तक मात्र रवीन्द्र-संगीत गाना पड़े?"
यहां विष्णु जी का विरोध पुरस्कार से है या, क्या है(?) समझ नहीं पा रहा हूं।
अच्छा हो कि प्रस्तुत कर्ता भी अपनी बात रखें, ताकि इस आलेख को पुन: प्रस्तुत करते हुए वह द्रष्टिकोण भी नजर आए जो इसी आलेख को प्रस्तुत करने के उद्देश्य के रूप में रहा होगा।

Wednesday, November 25, 2009

भाषा का वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्र

डॉ.शोभाराम शर्मा

भाषा का वर्गीय एवम् औपनिवेशिक चरित्र होता है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि कोई भी समाज जिन परिस्थितियों से गुजरता है उनका प्रभाव सर्वग्रासी होता है। और तो और भाषा तक भी अछूती नहीं रह पाती। हर समाज आर्थिक, राजनीतिक, धर्मिक और सांस्कृतिक आदि कारणों से समस्तर नहीं होता। वह अनेक वर्गों और उपवर्गों में बंटा होता है। उन वर्गों-उपवर्गों की भाषा-बोलियां एक मूल की होने पर भी एक जैसी नहीं रह पाती। पढ़े-लिखे पंडितों और जन-साधरण की भाषा का अंतर इसका अकाटय प्रमाण है। भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो भाषा के वर्गीय एवं औपनिवेशिक चरित्रा का तथ्य खुली किताब के रूप में सामने आ जाता है। आर्य भाषा-भाषी जन-गणों का यहां द्रविड़ भाषा-भाषियों से ही नहीं अपितु आग्नेय भाषा-भाषी संथाल, मुंडा और कोल-भीलों से भी जूझना पड़ा। संघर्ष में आर्य प्रबल सिद्ध हुए और आर्येतर भाषा-भाषियों को या तो दक्षिण-पूर्व की ओर हटना पड़ा या आर्य कबीलों के बीच उनके उपनिवेशों में ही अधीन होकर रहना पड़ा। इन उपनिवेशों के विस्तार और उनमें आर्येतर भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा-बोलियों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। भाषा वैज्ञानिकों का मत है कि संस्कृत में टवर्गीय ध्वनियाँ द्राविड़ी प्रभाव स्वरूप आई हैं। जहाँ तक शब्दों के आदान-प्रदान का सवाल है, आर्य और आर्येतर मूल की सभी भाषा-बोलियों में एक-दूसरे के शब्द सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में उपलब्ध् हैं और उनकी रूपात्मकता भी निश्चित रूप से प्रभावित हुई है।
प्राचीन आर्यावर्त या मध्य देश तथा उसके बाहर जहां तक आर्य भाषा-भाषी प्रबल सिद्ध हुए वहां पैशाची, खस, शौरसैनी, महाराष्ट्री, अर्द्धर्माग्धी और पाली आदि प्राकृत भाषाओं के और आगे विकास में आर्य और आर्येतर भाषा-भाषियों का संसर्ग ही मुख्य कारण था। इन प्राकृत भाषाओं का स्वरूप मोटे रूप में आर्य भाषा-भाषियों की बोल-चाल की भाषा ही थी लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उनमें जो अंतर पैदा हुए वे उन आर्येतर भाषा-भाषियों का प्रभाव था जो आर्य भाषा-भाषियों के बीच रहने पर बाध्य हो गए थे। इनमें से अधिकांश समाज के निचले स्तर के वे लोग थे जिन्हें शूद्र कहा गया। इन क्षेत्रों में कई आर्येतर भाषा-भाषी कबीले तो अपनी मूल भाषा तक त्यागने पर बाध्य हो गए। भील आदि जन-जातियों का यही इतिहास है। वे आज पूर्णत: आर्य भाषा-भाषी हो चुके हैं। मध्य पहाड़ी क्षेत्रा में जोहार-मुन्सार के भोटांतिक आज कुमाउफंनी के ही एक रूप का उपयोग करते हैं, जबकि उनकी मूल भाषा दारमा-चौदाँस और व्यास के भोटांतिकों की मुंडा प्रभावित तिब्बत-बर्मी बोलियों की सजातीय थी।
समाज के शीर्ष पर बैठे ब्राह्मण-पुरोहितों और शासकों को दलित शूद्रों के प्रभाव से अपनी देव-भाषा को बचा कर रखने की चिंता सताने लगी और इस तरह पाणिनि आदि के द्वारा संस्कृत का स्वरूप निर्धरण संभव हुआ। अपने धर्म और संस्कृति के प्रसार के लिए उन्हें पूर्व और दक्षिण के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच जाना पड़ा और उनसे वैवाहिक संबंध् भी स्थापित करने पड़े। आर्यावर्त या मध्य देश में अपनी अतिरिक्त कामेच्छा की पूर्ति के लिए भी वे दलित स्त्रियों को दासी या रखैलों के रूप में स्वीकार करने लगे थे। आर्येतर भाषा-भाषी पत्नियों या रखैलों, दास-दासियों से भी देव-भाषा के विकृत होने का खतरा था और इसीलिए शूद्र व नारी वर्ग को संस्कृत के पठन-पाठन आदि से वंचित कर दिया गया। संस्कृत के नाटक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिाय आदि पात्रों के संभाषण संस्कृत में हैं लेकिन शूद्र या नारी पात्रा प्राकृत में ही अपनी बात कहते नजर आते हैं। इतना ही नहीं शूद्रों पर वेद मंत्रा सुनने या बोलने पर भी पाबंदी लगा दी गई। यहां तक कहा गया है कि वेद मंत्रा सुनने पर उनके कानों में खौलता हुआ सीसा उड़ेल देना चाहिए और अगर वह वेद मंत्रा जुबान पर लायें तो जुबान काट देनी चाहिए।
आपसी वार्तालाप, अभिवादन और कुशल-क्षेम पूछने तक में भी भाषा का वर्गीय स्वरूप नजर आता है। मनुस्मृति के अनुसार-
भवत्पूर्वं चरेभ्दैक्ष मुपनीतो द्विजोत्त्म।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्।।

अर्थात् यज्ञोपवीतधरी ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर "भवत्" शब्द का उच्चारण पहले क्षत्रिय को मध्य में और वैश्य को अंत में करना चाहिए। ब्राह्मण कहे- "भवति भिक्षां देहि", क्षत्रिय कहे- "भिक्षां भवति देहि" और वैश्य कहे- "भिक्षां देहि भवति।" इस श्लोक में चौथे वर्ण शूद्र का जिक्र नहीं है क्योंकि उसे न तो यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार था न संस्कृत बोलने का। न्यायालय तक में यह भाषा-भेद बरता जाता था। मनुस्मृति के ही अनुसार-

ब्रृहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम्।
गो बीज काञ्चनेर्वैश्यं शूद्रं सर्वेस्तु पातकै:।।

अर्थात् न्यायकर्ता ब्राह्मण से गवाही देने और क्षत्रिाय से सत्य बोलने को कहें। वैश्य से कहें कि अगर झूठ बोले तो उसे गौ, बीज और स्वर्ण चुराने का पाप लगेगा और शूद्र से कहें कि झूठ बोलने पर तुम्हें सारे पातकों का दोष लगेगा।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भाषा का यह वर्गीय चरित्रा आज भी समाप्त नहीं हो पाया है। खस प्राकृत से निकली गढ़वाली में एक दलित को ब्राह्मण आदि का अभिवादन "समन्या ठाकुरो या समन्या साब" (सेवा मानें ठाकुर या साहब) कहकर करना होता है। बदले में आर्शीवचन "जी रै" (जिंदा रह) कहा जाता है। उनके लिए "प्रणाम", "नमस्कार", "आयुष्मान" या "चिरंजीव" आदि शब्द वर्जित हैं। आर्य समाज के प्रभाव में कुछ पढ़े-लिखे दलितों ने अपने को आर्य लिखना आरंभ किया तथा अभिवादन के लिए "नमस्ते" का प्रयोग शुरू किया। लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की नजर में "आर्य" और "नमस्ते" दोनों ही अपना मूल्य खो बैठे और यही हाल गांध्ी जी के दिए गए नाम 'हरिजन" का भी हुआ। गढ़वाली में दलित वर्ग से संबंध्ति डूम (नीच/शूद्र), डुमण (शूद्र निवास) डुमिणु (नीच/शूद्र होना), डुमण्य (शूद्रता प्राप्त), डुम्याणु (शूद्र बना देना), डुमटाल (नीचता का पातक), डुमैण (नीच शूद्रा) जैसे शब्दों के पीछे निश्चित रूप से वर्गीय घृणा ही नजर आती है। उनसे संबंधित मुहावरों और कहावतों में भी उसी घृणा के दर्शन होते हैं और यही स्थिति इस देश की अन्य भाषा-बोलियों में भी मिलती है।
समाज में पेशों पर आधरित जो विभिन्न वर्ग बन जाते हैं उनकी बोल-चाल भी एक जैसी नहीं रह पाती। उदाहरणार्थ, जिन जातियों को आपराधिक प्रवृति का मान लिया गया है, उनकी भाषा बोली कुछ ऐसा रूप ले लेती है कि दूसरे उसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं। साँसी, बावरिया और भाँतू जिस छद्म भाषा का प्रयोग करते हैं उसे वे ही आपस में समझ पाते हैं। गुप्तचरों और सटोरियों की भाषा भी सामान्य जन की भाषा से अलग ही होती है। पढे-लिखे सुसंस्कृत वर्ग और दबे-कुचले दलित-शोषितों की भाषा-बोलियों में जो अंतर होता है, वह भाषा के वर्गीय चरित्र को ही स्पष्ट करता है।
आर्य भाषी जन-गण जब दक्षिण और पूरब के आर्येतर भाषा-भाषियों के बीच अपने उपनिवेश बसाने तथा सत्ता हथियाने में सपफल हो गए तो उनकी भाषा, ध्म और रहन-सहन को महत्व मिलना जरूरी था। आर्येतर भाषा-भाषी कुछ कबीले बीहड़ घने जंगलों की शरण लेने पर बाध्य हो गए थे लेकिन अध्सिंख्य आर्य भाषा-भाषियों के रंग में रंगते चले गए। उनके शासकों ने भी ब्राह्मणवाद के प्रभाव में आकर संस्कृत को ही धर्म, प्रशासन और साहित्य की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की देन है। द्रविड़ भाषा-बोलियों ने भी बहुत कुछ संस्कृत से ग्रहण किया लेकिन उनकी कीमत पर सत्ता और आश्रमों के गलियारों में संस्कृत की अभिवि्र्द्धि ही होती रही। उत्तर और दक्षिण दोनों जगह संस्कृत जन-सामान्य से दूर होती गई। पंडितों ने उसे ऐसे नियमों में जकड़ दिया कि सामान्य जन उनका पालन नहीं कर सके और संस्कृत पंडित, पुरोहित वर्ग तक सीमित रह गई। मध्य कालीन निर्गुणपंथी संत कबीर ने इसीलिए कहा- "संस्कीरत है कूप जन भाखा बहता नीर" कबीर से बहुत पहले ही संस्कृत के वर्चस्व के विरूद्ध विद्रोह का सूत्रापात हो चुका था। बौद्धों ने जन-भाषा पालि-प्राकृत को तो जैनियों ने अपभ्रंश को अपनाया। धुर दक्षिण में आलवार संतों ने भी अपनी बात वहां की जन-भाषा में ही कही।
मुसलमान शासकों की ध्म-भाषा तो अरबी थी लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए उन्होंने पफारसी का सहारा लिया। शायद इसलिए कि फारसी भी उसी मूल से निकली थी जिससे संस्कृत और उत्तर भारत की अन्य प्राकृत भाषा-बोलियां निकली थीं। पश्चिमोत्तर भारत ईरान के संपर्क में प्राचीन काल से ही रहा था। किंतु इध्र प्राचीन ईरानी से विकसित फारसी में इस्लाम की धर्म-भाषा अरबी की भारी घुसपैठ से फारसी भी भारतीय जन-मानस के लिए बहुत कुछ समझ से परे हो चुकी थी पिफर भी रोजी-रोटी का प्रश्न जुड़ा होने से एक छोटे से वर्ग ने उसे अपनाया और उसका असर जन-सामान्य की भाषा-बोलियों तक भी पहुंचता चला गया। शासक वर्ग में भी कुछ ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो समझते थे कि ऊपर से थोपी गई भाषा में प्रजा का एक छोटा-सा वर्ग पैठ बनाने में सपफल हो पाएगा। अधिसंख्यक लोगों को समझने-समझाने के लिए तो उन्हीं की जुबान का सहारा लेना होगा। फारसी के विद्वान अमीर खुसरो ने इसीलिए ब्रज और खड़ी बोली की ओर ध्यान दिया और इसी प्रक्रिया में आगे चलकर उर्दू जैसी एक नयी भाषा का प्रादुर्भाव संभव हुआ जिसमें इस्लाम की धर्म भाषा अरबी से ग्रस्त फारसी का खड़ी बोली हिंदी से घाल-मेल बखूबी हुआ है। दूसरी ओर धर्म संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में प्रादेशिक भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करना आरंभ किया और इस तरह थोपी गई फारसी को प्रशासन के एक कोने तक सिमट कर रहने को बाध्य कर दिया।
थोपी गई भाषा का प्रतिरोध् एक विश्व व्यापी लक्षण है। उत्तर भारत में कबीर जैसे निर्गुणपंथियों ने जहाँ पंचमेल खिचड़ी भाषा का उपयोग किया, वहीं सगुणोपासकों ने ब्रज और अवधी का आश्रय लिया। और तो और प्रेम मार्गी सूफियों तक ने भी अरबी-पफारसी की जगह अवधी का दामन थाम लिया। अन्यत्रा भी मराठी, बांग्ला और गुजराती आदि ने भी उभरना आरंभ कर दिया। जहां तक दक्षिण का सवाल है, वहां भी तमिल, तेलुगू, मलयालम और कन्नड़ जैसी प्रादेशिक भाषाओं ने अपनी पकड़ और महत्व में उत्तरोत्तर व्रद्धि आरंभ कर दी। इसी समय देश पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने आरम्भ में फारसी से छेड़-छाड़ नहीं की लेकिन धीरे-धीरे एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत उसकी जगह अपनी भाषा अंग्रेजी थोप दी। भारत ही नहीं दुनिया में जहां कहीं भी अंग्रेज अपने उपनिवेश स्थापित करने में सपफल हुए, वहां सर्वत्र अंग्रेजी भी अपना पैर जमाने में सपफल हो गई। उस समय दुनिया की एकमात्र बड़ी शक्ति होने के कारण दूसरे स्वतंत्र देशों को भी अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना पड़ा और इस तरह अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त करने में सपफल हो गई। र्‍ेंच, जर्मन और रूसी जैसी सशक्त भाषाएँ भी उसका मुकाबला नहीं कर सकीं। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत रूसी भाषा की चुनौती भी अंग्रेजी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी का वैश्वीकरण हो चुका है। सारे महा्द्वीपों में उसी की तूती बोल रही है। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मौलिक सामग्री का सबसे बड़ा भंडार उसी में है और सभी देशों को एक-दूसरे से संपर्क रखने के लिए उसी का सहारा लेना पड़ता है।
अंग्रेजी के इस अभ्युदय से दुनिया भर की दूसरी भाषाओं का विकास बाधित हुआ है। उपनिवेशीकरण का अभिशाप यह है कि हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर अंग्रेजी की ओर देखना पड़ता है। ब्रिटिश काल में स्थापित अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे हैं। रोजी-रोटी के प्रश्न को लेकर यहां काले अंग्रेज नौकरशाहों का जो शक्तिशाली वर्ग पैदा हुआ उसका प्रभाव आज भी ज्यों-का-त्यों है। अंग्रेजी का ज्ञान सामाजिक स्तर पर श्रेष्ठता का मानदंड बन चुका है। आर्थिक स्थिति में कुछ सुधर आने पर आज मध्यम वर्ग भी अंग्रेजियत अपनाने को आतुर है। यहां तक कि भारतीय संस्कृति और संस्कृत की श्रेष्ठता का बखान करने वाले सा्धु-संत तक भी अंग्रेजी बोलने में अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जनता और जन-भाषा की बातें करने वाले नेतागण भी अपनी औलाद को अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा देने पर बाध्य हैं।
भाषा के प्रश्न पर उत्तर और दक्षिण के बीच जो खाई थी उसे और चौड़ा करने में अंग्रेजी समर्थक नौकरशाही वर्ग का हाथ होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाषा का प्रश्न इतना उलझा दिया गया है कि उसे सुलझाने का कोई सीध रास्ता नजर नहीं आता। सोवियत व्यवस्था के अंतर्गत सुदूर टुंड्रा-टैगा और काकेशस की अल्पसंख्यक जन-जातियों तक की भाषा-बोलियों को जिस तरह विकास करने का अवसर प्रदान किया गया, यदि उसी तरह की कोई नीति यहां भी अपनाई जाए तो संभव है इस समस्या का कोई हल निकल सके। ऐसा करने से देश की दबी-कुचली जन-जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा और वे अपने वर्गीय हितों की रक्षा करने में अपने स्तर पर समर्थ हो सकेंगे।