Monday, May 7, 2012

कहानी-पाठ और परिचर्चा

२८ अप्रैल २०१२  को इलाहबाद शहर में प्रसिद्ध  कहानीकार  अल्पना मिश्र का  कहानी-पाठ तथा उनके तीसरे नवीनतम कहानी-संग्रह  "कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी " पर परिचर्चा का आयोजन किया गया . यह आयोजन जन संस्कृति मंच तथा हिंदी विभाग ,इलाहबाद  विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में विभाग के सभागार में संपन्न हुआ  . परिचर्चा का प्रारंभ जन संस्कृति मंच के सचिव व आलोचक  प्रणय कृष्ण के  स्वागत -व्यक्तव्य से हुआ . उन्होंने कहानीकार अल्पना मिश्र का परिचय दिया  और  उन पर लिखित हिंदी के मुख्य कथाकारों  कृष्णा सोबती, चित्र मुद्गल और ज्ञानरंजन के विचार पढ़ कर सुनाये . इस प्रकार अल्पना मिश्र के कहानियों के वृहत्तर परिदृश्य का परिचय उपस्थित विद्वान्  श्रोताओं को दिया . अपने आत्म-व्यक्तव्य में अल्पना मिश्र ने आज के समय और समस्याओं की ओर संकेत करते हुए कहा, " जीवन पहले भी इकहरा नहीं था , पर आज  जटिलताए बढ़ी हैं  . आज के समय में दो तरह की सामानांतर दुनिया  है, एक तरफ  चमकती हुई दुनिया है , भौतिकता की प्रतिस्पर्धा है जो की पैदा की गयी है , स्वाभाविक नहीं है . दूसरी तरफ अन्धकार की दुनिया है जिसमें शोषण , दमन, विस्थापन ,गरीबी ,जन-असंतोष और जनांदोलनों का उभार है . एक लेखक की जिम्मेदारी है कि वह इन दोनों के बीच के परदे को खींच कर असल दुनिया सामने लाये . वह सच सामने लाये जो दरअसल बेदखल तो कर दिया गया है पर अपनी अनुपस्थिति में भी उपस्थित है . मेरा लेखन इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है ." आत्म-व्यक्तव्य के बाद उन्होंने नए संग्रह की पहली कहानी 'गैर हाज़िर में हाज़िर' का पाठ किया . परिचर्चा का प्रारंभ करते हुए  अनीता गोपेश ने अल्पना मिश्र को स्पष्ट सरोकारों का कहानीकार बताया . उन्होंने कहा ."अल्पना जी की कहानियां बहुत तेजी से ऊपर से गिरता हुआ प्रपात नहीं है जिसके छींटे आपको भिगों दें, बाढ़ में उफनती नदी नहीं है जो आपको बहा ले जाए बल्कि एक ऐसी शांत नदी है जो अपने सतत प्रवाह में चलती है आपको आह्वान करती हुई की आओ मेरे साथ चलो और समय की गति को पकड़ो , देखो दोनों कूलों पर क्या घटित हो रहा है . अल्पना जी की कहानियों में स्त्री-विमर्श की जगह सशक्तिकरण है. परिचर्चा  के क्रम में आलोचकीय वक्तव्य देते हुए  प्रणय कृष्ण ने तीनों संग्रहों को क्रमानुसार नहीं बल्कि समानांतर देखने की बात कही . उन्होंने कहा ,'ये तीनों संग्रह २१ वीं शताब्दी के हैं और इसलिए २० वीं शताब्दी में  जो कुछ हुआ और नया कुछ जो इस शताब्दी में होना है उन दोनों के जंक्शन पर लिखी हुई ये कहानियां हैं .' उन्होंने कहानियों के शिल्प के बारे में बताते हुए कहा कि 'जो लोग आतंरिक विवशता से लिखना शुरू करते हैं वो शिल्प से आक्रांत नहीं होते और जो ऐसा नहीं करते उनकी चिंता शिल्प पे ही टिकी रहती है . चित्रा मुद्गल इसिलए इनकी कहानियों के बारे में लिखती हैं कि ये शिल्पाक्रांत नहीं हैं.'  परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी ने अल्पना मिश्र की पूर्व की लिखी कहानियों के साथ इस संग्रह की सभी कहानियों पर क्रमशः अपनी बात रखी . अपने व्यक्तव्य में उन्होंने कहानीकार के साधारण जीवन के असाधारण और सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रशंसा की और बल  देते हुए  कहा कि अल्पना की कहानियां जमीन से जुडी हुई कहानियां हैं . कार्यक्रम का कुशलता पूर्वक सञ्चालन डॉ सूर्यनारायण ने किया तथा  डॉ लालसा यादव ने धन्यवाद ज्ञापित किया . कार्यक्रम में  राम जी राय,  राधेश्याम अग्रवाल , हरिश्चंद्र पाण्डेय ,  विवेक निराला ,संतोष कुमार चतुर्वेदी  , विवेक कुमार तिवारी , पद्मजा ,  चन्द्रकला जोशी , नीलम शंकर , विभागाध्यक्ष डॉ मीरा दीक्षित  तथा हिंदी विभाग के सभी प्राध्यापक एवं छात्र उपस्थित थे . 
- सुशील कृष्णेत                                                                                                          
                                                                                            

Wednesday, May 2, 2012

न तो किसी के ऊपर हंसे और न ही गुस्सायें

                             

किसी के ऊपर हंसना, यानी हंसी उड़ाना, बुरी बात है। बेवजह गुस्साना और भी बुरा। हंसने वालों से तो फिर भी निपटा जा सकता है- बिना उनकी हंसी के कारणों की पड़ताल किये, बिना उन पर ध्यान दिये। लेकिन गुस्सा थूकने को उतारूओं का क्या किया जाये। वह भी ऐसे में जब कि वे गुस्से के संक्रमण को रोग की तरह फैलाने पर भी आमादा हों। गांधी पार्क ऐसी ही जगह है जो उत्तराखण्ड, खास तौर पर देहरादनू, के नक्शे में गुस्सा जाहिर करने का एक ऐतिहासिक स्थल रहा। जिसके गेट पर दरी बिछा कर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए इस जनपद के कितने ही गुस्सालू हमेशा जुटते रहे हैं और बहुत बच-बचाकर चल रहे तमाम नौकरीपेशा जनपदवासियों के भीतर तक अपने गुस्से का संक्रमण करते रहे हैं। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौर में तो हमेशा के गुस्सालुओं ने हमेशा के बचने बचानेवालों तक को गुस्से की चपेट में ले लिया था। तत्कालीन उत्तर-प्रदेश सरकार और लखनऊ में बैठे उसके आला अफसर, गांधी पार्क जैसी इस बेहद साधारण सी जगह से वाकिफ न थे। निपटने के लिए रामपुर तिराहे पर घ्ोरा डालना पड़ा। रात के अंधेरे में गन्ने के खेतों में दौड़ा दौड़ा कर खदेड़ा गया। यकीन जानिये कि यदि वे इस जनपद की धड़कन कहे जा सकने वाले गांधी पार्क की हकीकत से वाकिफ होते तो हर रोज वहां इक्ट्ठे हो कर देहरादून की सड़कों में ''आज दो अभी दो-उत्तराखण्ड राज दो"", का कोहराम मचाने वाले आंदोलनकारियों की भीड़ को चारों ओर से घ्ोर कर लाठियां गोलियां बरसाने के लिए उन्हें अलग से पुलिस गारद का बंदोबस्त करने की जरूरत न रहती।
राज्य बने हुए लगभग एक दशक बीत गया। बेशक अभी तक की सरकारों को उनकी निकम्मई के लिए कोस लें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि राज्य की मांग के साथ जिस एक छोटी प्रशासनिक इकाई का सपना जनता ने देखा था, उसे अनेकों तरह से पूरा करने की कोशिश अभी तक की सभी सरकारों की रही है। देहरादून को स्थायी जैसी अस्थायी राजधानी बना दिये जाने के कारण बेचारे राजनेताओं और आला अफसरोंे को यहां रहने को मजबूर होना पड़ा है। इसका सीधा फायदा उन्हें तो शायद ही कुछ मिला हो लेकिन गांधी पार्क की असलियत उनसे छुपी न रह सकती थी और न ही रही भी। इसीलिए उन्होंने गांधी पार्क को गुस्से का पीकदान बनने देने की बजाय उसका सौन्दर्यकरण करने की ठानी है। किसी भी तरह के धरने प्रदर्शन के लिए गांधी पार्क को प्रतिबंधित करके जो बड़ा काम किया गया उससे साफ हो गया है कि अब न तो वहां किसी को गुस्सा थूकने की इजाजत है और न ही गुस्से का संक्रमण करने की कोई स्थितियां रहने वाली हैं। जनतंत्र की पारदर्शिता का मायने ही स्पष्ट है कि कोई किसी पे न तो हंसे और न ही गुस्साये। सरकार के इस उल्लेखनीय कार्य की सरहाना की जानी चाहिए। पर शहर भर के गुस्सालुओं को भी कहां तो दिख रहा है सरकार का यह उल्लेखनीय कर्म। उन्हें तो फुर्सत ही नहीं। मेले ठेलों के लिए आबाद परेड मैदान की बहुत अंधेरी सी किसी आड़ में जाने तो वे क्या करने लगे हैं।  

- विजय गौड़

Monday, April 23, 2012

पेशावर-काण्ड का प्रभाव



उत्तराखण्ड और इस ब्लाग के महत्वपूर्ण रचनाकार डा. शोभाराम शर्मा  की पुस्तक  "हुतात्मा" के प्रकाशन की सूचना आज प्राप्त होना एक संयोग ही है। २३ अप्रैल १९३० यानी आज ही के दिन पेशावर विद्रोह की वह ऎताहासिक गाथा रची गयी थी जिसमें आजादी के संघर्ष ने एक ऎसा मुकाम हासिल किया कि जिसकी रोशनी में  एक सच्चे भारतीय  नागरिक के चेहरे की पहचान साम्प्रदायिकता के  खिलाफ़ खडे़ होने पर ही आकार लेती है। पेशावर का यह विद्रोह रायल गढ़वाल रायफ़ल के उन वीर सैनिको का विद्रोह था जो निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने के कतई पक्ष में न थे। चंद्र सिंह गढ़वाली के नेत्रत्व में यह अपने तरह का सैनिक विद्रोह कहलाया। डा. शोभाराम शर्मा  ने चंद्र सिंह गढ़वाली के जीवन पर आधारित महाकाव्य  को रचा  है और इस महत्वपूर्ण दिवस पर एक पुस्तक के रूप में उसका प्रकाशन एक बड़ी खबर जैसा है। प्रस्तुत है पुस्तक से ही एक छोटा-सा अंश। पुस्तक प्राप्ति के लिए इस मेल आई डी पर सम्पर्क किया जा सकता है: arvindshekar12@gmail.com


एक शहर था पेशावर जो, कभी हमारा अपना था।

जहाँ न कोई दीवारें थीं, एक हमारा सपना था।।

लेकिन गाथा शेष रही अब, दिल से कोसों दूर वही।

दिल की धड़कन एक नहीं जब, लगता सब कुछ सपना था।।

        उस सपने को देख सके थे, अनपढ़ सैनिक गढ़वाली।

        नया सवेरा आएगा फिर, मुक्त खिलेगी नभ लाली।।

        परिचित था इतिहास न उनका, नहीं किसी ने प्रेरा था।

        स्वप्न सुमन थे उनके अपने, रहे अपरिचित बन-माली।।

वन-फूलों से खिले झरे वे, सुरभि समाई धरती में।

बीज न उनके कहीं गिरे पर, बंजर-ऊसर परती में।।

आजादी के फूल खिले हम शीश उठाकर चलते हैं।

वन-फूलों का सौरभ अब भी, दबा पड़ा है धरती में।।

व्यक्ति मिटाया जाता है पर, भाव न मिटने पाता है।।

        जालिम लाखों यत्न करें पर, त्याग-तपस्या फलती है।

        वह तो ऐसा जादू है जो सिर पर चढ़कर गाता है।।

पेशावर में ज्योति जली जो, उसे बुझाना चाहा था।

खुली जगत की आँखों से ही, खुले छिपाना चाहा था।।

लेकिन उनके यत्न फले कब, फिरा सभी पर पानी था।

सैनिक थे पर रग-रग बहता, शोणित हिन्दुस्तानी था।।

        रोमाँरोला1 रजनी-सुत2 ने, खुलकर उन्हें सराहा था।

        अपने पण्डित मोहन3 ने भी, मूल्य समझकर थाहा था।।

        मृत्यु-वेदना झेल रहे थे, भारत माँ के मोती जब।

        पेशावर के गढ़वीरों का, त्याग वरद अवगाहा था।।

भूल न जाना कुर्बानी को, अन्तिम स्वर वे बोले थे।

कितनी पीड़ा थी उस मन में, कहते-कहते डोले थे।।

और जवानी भूल न पाई, पेशावर की भाषा को।

आग न सचमुच बुझने पाई, तोड़ा घ्ाोर निराशा को।।

        पेशावर का बीज उगा फिर, सिंगापुर की धरती में।

        गढ़वाली थे कफन उठाकर, प्रस्तुत पहले भरती थे।।

        बीस हजारी कुल सेना4 में-तीन सहस्र थे गढ़वाली।

        कब्र खुदी थी जालिम की, तब लाश पड़ी अब दफना ली।।

नौ सेना5 ने सागर-तट पर, तर्पण उसका कर डाला।

सत्ता ने संकेत समझकर, स्वयं समर्पण कर डाला।।

जमीं विदेशी सत्ता की जड़, सेना के बल-बूते पर।

जिसके बदले-बदले रुख ने, अन्त उसी का कर डाला।।

        एक लड़ी सी विद्रोहों की, पेशावर से शुरू हुई।

        जिसकी लहरें मणिपुर होती, मुम्बई तक भी पहुँच गई।।

        अब न विदेशी सत्ता के हित, अपनी जड़ को खोदेंगे।

        और गुलामी चुपके-भुपके, होंठ चबाती चली गई।।

आजादी का सूरज निकला, अपना परचम फहराया।

माँ की पावन गोदी में फिर, सिन्धु खुशी का लहराया।।

लेकिन खुशियाँ बाँट न पाए, भाई-भाई बिखर गए।

जो कुछ अपने पास रहा भी, श्रेय स्वयं का बतलाया।।

        पेशावर के वन-फूलों का, सौरभ हमने झुठलाया।

        उनकी सारी कुर्बानी को, जान-बूझकर बिसराया।।

        उन फूलों की महक निराली, सत्ता की थी गन्ध नहीं।

देश कभी क्या भूल सकेगा, लाख किसी ने भुलवाया।।





1।फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक

2।ब्रिटिश कम्युनिष्ट नेता रजनी पामदत्त

3।पंडित मदन मोहन मालवीय

4।आजाद हिन्द फौज

5।सन् 1947 में भारतीय नौसेना ने भी विद्रोह कर दिया था।


Wednesday, April 11, 2012

सुषमा नैथानी की कवितायें

बारिश के बाद बडी सुकूनदेह है ये गीली धूप
ये घुले-घुले और धुले-से सन्नाटे में ठहरे पल
आसमान पर धूप के अक्षरों से कविता लिखने की हिमाकत कर सकने वाली सुषमा नैथानी से मेरा परिचय लगभग दस वर्ष पूर्व इंटरनेट में नैथानी वंश नाम ढूंढने की सहज उत्कंठा के परिणाम-स्वरूप हुआ…बाद में ब्लाग की दुनिया में विचरते हुए सुषमा के कवि रूप से मुलाकात हुई!अमेरिकाअ में जीव-विग्यान में शोध और अध्यापन से जुडी सुषमा का कविता संग्रह “उडते हैं अबाबील” हाल ही में अन्तिका प्रकाशन से आया है. सुषमा की कविताओं में संवेदना की कताई बरबस ध्यान खींचती आई.इस संग्रह से कुछ कवितायें प्रस्तुत हें
(नवीन कुमार नैथानी)
आगंतुक
एक दिन अचानक
चला आया प्रेम दबे पांव
समूचे चौकन्नेपन के बावजूद
सहूलियत नहीं छोडी उसने
एक सिरे से खारिज होने की
नहीं बैठता किसी ठौर
किसी औने-कोने ठीक
शब्द
शब्द तुम
मेरे पास आना तो कौतुक छोडे आना
न आना बुझव्वल की तरह
आना कभी मेरी गली तो
आजमाए जुमलों की शक्ल में न आना
न गुजरना नारों की तरह
आओ तो अपने पूरे अर्थ में आना
काले पनियल बादल-सा आना
बिसार देना शब्दकोश और कुंजियां
व्यंजना व्याकरण नदी के तीर बहा आना
अटरम-पटरम,साज-सामान सब
बेस कैम्प पर ही छोडे आना
पामीर की ऊंचाई तक न भी बने
तब भी कुछ ऊंचाई तक चले आना
सपनों की रंगत में
उदासी और उल्लास बन
अपने अंतर का संगीत लिये आना
किसी राग की तरह आना
मनभावन गीत बन आना
शब्द अपने पूरे अर्थ में आना तुम…
बंटवार
किसी अबाबील की तरह
दिन उडते हैं
पंजों में दबाये जीवन
हर रोज कुछ शब्द बचे रहते
कुछ प्यार बचा रहता
सत्रह इच्छायें सर उठाती हैं
उसी का बंटवार है
उसी में कुछ बचे रहते हम…

Monday, March 19, 2012

स्या-स्या

कहानी   
डा शोभाराम शर्मा                 



यह कहानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की व्यांस, चौदांस और दारमां पट्टी में रहने वाली भोटांतिक 'रं़ड" जनजाति की वैवाहिक प्रथा पर आधारित है। इस जनजाति में विवाह अधिकांशत: अपहरण द्वारा सम्पन्न होते थे। विवाह के लिए जिस लड़की का अपहरण किया जाता था उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी पकड़ ली जाती थी। विवाह हो जाने की स्थिति में सहेलियाँ मुक्त कर दी जाती थी। इस सहेलियों को ही स्या-स्या कहा जाता था।         - लेखक

सूरज ढल चुका था। पूर्वोत्तर की बर्फीली चोटियों पर संध्या की सलज मुस्कान स्वर्ण विखेर रही थी। तिथलाधार की मनोरम उपत्यका से एक छोटा सा काफिला गुजर रहा था, उन दो पहाड़ियों के बीच जहाँ न जाने कब से मानव की श्रान्त ठोकरों ने चट्टानी भूमि को तोड़कर एक गहरी पतली रेखा का मार्ग बना डाला था। काफिले के लोग काली की घाटी में धारचुला की ओर अपने जाड़ों के आवास की ओर जा रहे थे। घरेलू सामान से लदे झप्पुओं, गाय-बैलों और भेड़-बकरियों के गलों में बंधी घण्टियों का टनन-टन्, टनन-टन् अजीब समाँ बांध रहा था। भेड़-बकरियाँ यदा-कदा में-में करती हुई रास्ते से भटकती तो साथ में चलते रक्षक कुत्ते भौंकते हुए उन्हें पुन: रास्ते पर ले आते। कफिले को आज सौसा गाँव के नीचे ज्यूंती गाड के किनारे डेरा जमाना था और काफिले का बड़ा हिस्सा वहाँ पहुंच भी चुका था।
तिथलाधार की दूसरी ओर से एक नवयौवना अपनी पीठ पर अपने नन्हें शिशु को लादे ऊपर चढ़ी। थकान के मारे माथे का पसीना पौंछते हुए वह मुलायम घास पर बैठ गई। एकान्त और कुछ-कुछ अंधेरे से त्रस्त उसने चारों ओर देखा। एक ओर रागा (देवदार के समान एक सुन्दर वृक्ष) नीले चीड़ों और बाँज-बुराँस के पेड़ों तथा देव रिंगाल की झाड़ियों से ढकी श्रेणी संध्या के स्याह परदे में काले दैंत्य का आकार ग्रहण कर रही थी और दूसरी ओर पीले बुग्याल से ढकी पहले सी्धी खड़ी, फिर कुछ-कुछ ढालू और सिर पर त्रिशूल के आकार के बौने पेड़ों को सजाए पर्वत श्रेणी उतर की ओर हिम की रजत-धवल टोपी पहने नीचे ज्यूंती गाड की छोटी सी उपत्यका की ओर झांक रही थी। पूरब की ओर नीचे  और बहुत नीचे काली नदी की गहरी घाटी के पार नेपाल के जंगलों के ऊपर खड़े श्वेत शिखरों के बीच पूर्णिमा का चांद अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ बढ़ने लगा था। चांदनी के प्रकाश में ऊंचाई पर पितरों  की स्मृति में रखे बड़े-बड़े पाषाण नजर आए। लगता था कि वे जैसे अपने वंशजों के काफिलों को आशीर्वाद देने हेतु सामूहिक रूप से वहाँ पर जमा हों। नवयौवना ने भय और श्रद्धा के वशीभूत रागा के पेड़ों पर बंधे घण्टे-घण्टियों को हिलाया, जिनका गम्भीर स्वर हेमन्त की तीखी बर्फीली बयार का स्पर्श पाकर चारों ओर फैल गया और मानव के भोले विश्वासों के रंग-बिरंगे चीर भी बुरी तरह फड़फड़ाने लगे।
नवयौवना ने पहले घबराहट में इधर-उधर देखा और फिर किसी तरह आश्वस्त होकर पुकारा- 'दीदी, ओ! डमसा दीदी!" उसकी वह पतली आवाज हवा में फैलकर विलीन हो गई। उसने कई बार पुकारा लेकिन उत्तर नहीं पाया। काफी देर बाद डमसा दीदी ने एक अन्य कमसिन बाला के साथ प्रवेश किया और सुस्ताने के लिए पूर्वागत यौवना के पास बैइ गई।
'दीदी, तुमने सुना नहीं, मेरा तो गला ही बैठ गया था।" पहली ने उलाहने के स्वर में कहा, 'यहाँ तो दम ही निकलने को था। मन भर से कम क्या होगा।" डमसा ने पसीना पोंछते हुए कहा।
'वाह! बच्चे का बोझ तो और भी भारी होता है, पर तुम क्या जानो?" पहली ने शिशु को गोद में लेते हुए कहा। इस पर कमसिन अबोध बाला ठहाका मारकर हंस पड़ी। उसकी निर्दोष हंसी उस बर्फीली हवा की सांय-सांय में गूँज उठी।
डमसा की छाती में जैसे तीर चुभ गया। तुम क्या जानो? हवा का हर झोका उसके कानों में कह उठा। तुम क्या जानो? हंसी की हर गूँज में वही ध्वनि झंकृत हो उठी। और उस नन्हें से जीव की इकहरी आवाज में वही-तुम क्या जानो? तुम क्या जानो? डमसा का जैसे मर्म दहल उठा। काले कम्बल की गांठों से घिरा, काले बादलों के बीच पूर्णिमा का चांद सा चेहरा मुझांकर रह गया। वह रोनी-रोनी हो गई। उच्छवास लेकर उठ खड़ी हुई और बोझ सम्भालकर शीघ्रता से नीचे की ओर चल पड़ी।
वे दोनों अवाक। डमसा दीदी का यह व्यवहार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। चकित मृगी सी वे भी उठी और उसी ओर चल पड़ी। डमसा चल रही थी, किन्तु उसके कानों में हवा का हर झोंका वहीं स्वर घोल रहा था- तुम क्या जानो? उसका मानस तिक्त हो उठा। उसकी हर लहर में वहीं तिक्त भावना छा गई थी- तुम क्या जानो?
बैसाखी उससे दो वर्ष छोटी थी। पिछले साल ही उसके हाथ पीले हुए थे और आज उसकी गोद में नन्हा सा शिशु खेल रहा था। अपना-अपना भाग्य है। डमसा के दिल में कभी ईर्ष्या नहीं जगी। वह बैसाखी को कितना चाहती थी, किन्तु आज उसके एक छोटे से वाक्य ने डाह का बवण्डर खड़ा कर दिया। वह जितना ही मन को समझाती मन उतना ही संतप्त होता गया। जीवन की कठोर वास्तविकता अपनी समस्त व्यंग्य की पैनी धार से जैसे उसके मर्म को कचोट रही थी- तुम क्या जोना? हाँ, क्या जाने? समाज  की वेदी पर माँ के अपराध का दण्ड उसी को तो भोगना था। वह मन-मन भर के पाँवों से चल रही थी और अचानक ठोकर लगने से गिर पड़ी। चार कदम पीछे घनारी ने दखा और उसने दौड़कर बोझ संभाला। इतने में बैसाखी भी पहुँच गई।
'दीदी, चोट तो नहीं लगी?" बैसाखी ने पूछा।
'अरे! तुम तो रो रही हो!" घनारी ने डमसा की पतली-पैनी आँखों में आँसू की बूँदें देख कर कहा।
'दीदी, बुरा मान गई क्या?" बैसाखी ने फिर से पूछा।
डमसा बोले तो क्या? वह कैसे कहे कि चोट पाँव पर नहीं उसके दिल पर लगी है। उठी और बोझ को पीठ पर ठीक से जमाते हुए बोली- 'नहीं-नहीं, बहिन, बुरा किस बात का लगेगा? पाँव के अंगूठे पर चोट लग गई है न।"
किन्तु आँसुओं ने कपोलों को चूमते हुए सब कुछ कह दिय। तीनों पिफर चल पड़ी। किसी को कुछ कहने का साहस न हुआ। घनारी भी अपनी चुहुल भूल गई। वे सोसा गाँव की धार पर पहुँच चुकी थी। दूसरी ओर अभी चांदनी का प्रकाश नहीं था। कुछ पेड़ों और झाड़ियों के कारण अंधेरा और भी घना था। नीचे ज्यूंती गाड के किनारे तम्बू-तन चुके थे। कभी-कभी प्रकाश की  क्षीण रेखा चमक उठती थी। उन्हें वहीं पहुँचना था।
बैसाखी सबसे आगे थी। बीच में घनारी और पीछे डमसा अपने मन को समझाने की चेष्टा करती हुई चल रही थी। इतने में नीचे से आवाज आई- 'बैसाखी हो!" यह बैसाखी के पिता, डमसा के चाचा की आवाज थी। बैसाखी उत्तर देने को था कि इतने में डमसा की चीख उसके कानों में पड़ी। मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई । झाड़ी से निकलकर तीन-चार आदमियों ने डमसा को घेर लिया था। बैसाखी के लिए तो यह नई बात नहीं थी उसके साथ भी पिछले साल यही तो हुआ था। शादी की परम्परा यही चली आई है तो किसी का क्या दोष? घनारी का भय से बुरा हाल था। वह चीखने को थी कि दो युवकों ने उसे भी घेर लिया। अंधेरे में बीड़ी सुलगाते हुए वे किसी प्रेत की छाया से लग रहे थे।
'मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, हमें छोड़ दो।" डमसा ने अनुनय की।
'वाह! छोड़ दो, छोड़ने के लिए ही क्या हम यहाँ बैठे थे?" उनमें से एक ने कहा 'अजी, ऐसे नहीं चलती तो उठाकर ले चलो।" दूसरे ने प्रस्ताव रखा।
और एक बलिष्ठ युवक आगे बढ़ा। डमसा घबरा गई। घबराहट में उसके मुख से निकल पड़ा- 'मैं अपने-आप चलूँगी। हाथ न लगाओ।" और उपस्थिति पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। मछली पफँस गई थी। वे चल पड़े। घनारी और बैसाखी ने भी डमसा का रुख देखकर अधिक विरोध नहीं किया। फिर ऐसे विरोध का मूल्य भी क्या था? वह तो परम्परा थी। उन्हें डमसा दीदी के विवाह में स्या-स्या तो बनना ही था।
मार्ग अंधेरे में था। वे चल रहे थे। घनारी और बैसाखी में मीठी चुटकियां चल रही थी। डमसा अपने ही में खोई, यह सब क्या हो रहा है? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या सचमुच उसके भाग्य ने रास्ता सुझा दिया है? क्या विधाता ने अपनी आँखें खोल दी हैं? कई प्रश्न उसके अन्तर को झकझोर रहे थे। और वह उसी झोंक में युवकों से घिरी आगे बढ़ रही थी। गाँव आ गया। एक बड़े से घर के आगन में कई लोग आ जा रहे थे। मंगल-वाद्य बजने लगे। रास्ते में एक सफेद कोरा कपड़ा बिछाया जाने लगा। अन्तिम सिरे पर चकती (स्थानीय सुरा) की भरी बोतल रख दी गई। वह कोरा कपड़ा, वह चकती की बोतल दुल्हन के पक्ष वालों के लिए चुनौती थी। आते हो तो आओ, चकती को स्वीकार करो और मित्राता के धागे में बंध जाओ। अन्यथा यह लक्ष्मण-रेखा है। तुम उस सीमा से आगे नहीं बढ़ सकते।
तीनों को एक कोठरी में ढकेल दिया गया। बैसाखी का नन्हा शिशु रोने लगा और वह उसे चुप कराने में लग गई। डमसा और घनारी सहमी सी कोने में दुबक गई। डमसा का हृदय डूब-उतराने लगा। तुम क्या जानो? शिशु का रुदन अभी भी वह व्यंग्य उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था। शायद अब वह जान सके। एक आशा की किरण कहीं से उसके हृदय में चमक उठी। वर्षों से वह इसी कामना के पीछे दौड़ी थी, किन्तु स्या-स्या बनने के अतिरिक्त उसके भाग्य में दुल्हन बनना तो लिखा ही न था। उसे लगा कि जैसे आज उसकी मनोकामना पूर्ण होने को थी। उसके संचित, किन्तु अधूरे अरमान फिर उसके मानस में अपनी समस्त चपलताओं का खेल खेलने लगे। वह अब किसी की बन सकेगी, अपने समस्त संचित प्यार का प्रतिदान लेगी ओर पिफर उनका प्यार एक नन्हा सा शिशु बनकर उसकी गोद में खेलने लगेगा। कल्पना का वह शिशु उसकी गोद में खेलने भी लगा, रोने भी लगा। उसने देखा- आनन्द तिरोहित हो गया- वह उसका नहीं, बैसाखी का था जो हाथ-पाँव चलाकर जोर-जोर से रो रहा था।
इतने में कुछ उ(त युवक-युवतियां कमरे में आए। लालटेन भी थी एक के हाथ में। एक अधेड़ सी नारी ने भी प्रवेश किया। उसने डमसा के पास जाकर उसके चेहरे को अपनी ओर किया और उछल पड़ी। सभी सकपका गए। आश्चर्य भरी आँखें जैसे डमसा को निगलने लगीं।
'अरे! ये तो किसी और को उठा लाए हैं। यह तो डमसा है, जो दूसरे घ्ार में पैदा हुई। अभी तो इसकी माँ का हिसाब तक नहीं हुआ।" वह अधेड़ नारी एक सांस में कह उठी और बाहर चल पड़ी। सनसनी  सी पफैल गई। डमसा को काटो तो खून नहीं। वह लाज में गड़ी जा रही थी। लोगों में कानापूफसी चलने लगी। कई आए, गए। उन्होंने डमसा को देखा तक नहीं। तर्क-वितर्क चलने लगे। अन्त मंे बड़े बूढों ने पफैसला दिया कि यह नहीं हो सकता है और डमसा की रही-सही आशा भी जाती रही। वह सुबकने लगी। आँसुओं से उसके कपोल भीग गए। किन्तु उन आँसुओं का मूल्य ही क्या था? फिर निर्णय हुआ- क्यों न घनारी को दुल्हन बना दिया जाए? कोई छोटी भी नहीं। दूल्हा देखने भी आया। डमसा ने उधर देखा भी नहीं। उसका मन मर गया था। बेचारी दुल्हन बनते-बनते स्या-स्या बन गई। देखते-देखते घनारी दूसरे कमरे में पहुँचा दी गई और डमसा उपस्थित युवकों की कृपा-दृष्टि का लक्ष्य। उसका सौन्दर्य-दीप पतिंगो को आकृष्ट करने के लिए यथेष्ट था। सभी चकती में मस्त। कुछ गा रहे थे, कुछ ही-ही, हू-हू कर रहे थे। फिर समां बध गया। आनन्द का दिन था। शादी जो थी। ऐसे ही दिन तो होते हैं जब उद्दाम (उद्दाम) इच्छाएँ अपनी सीमा तोड़ बाहर फूटना चाहती हैं। गाँव की कुछ और अल्हड़ युवतियाँ आ गई। गीत चलने लगे। नृत्य चलने लगा। चकती के दौर पर दौर चलने लगे। सारा कमरा विचित्रा मदाहोशी में रम गया। युवक थक गए। युवतियाँ थक गई। लेकिन वे डमसा को न मना सके। वह न हिली न डुली। सोचती रही और सोचती रही- पिछले साल वह बैसाखी की शादी में रात-रात भर नाचती रही। युवक थक गए। कोई जोड़ का नहीं मिला। हर साल वह ऐसी शादियों में स्या-स्या बनती रही, पीती रही, अपने हाथों पिलाती रही और मस्त होकर नाचती रही। शायद यही उसका भाग्य है। दूसरों की खुशी में खुशी माने, नाचे, गाए और वासना की आँखों से अपने सौन्दर्य की कीमत आंकने वालों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल करे। युवक उसे घूर रहे थे। जबरन उठाना चाहते थे। उनके लिए वह खिलवाड़ थी। वह खिलवाड़ थी समाज की। कोई उसे अपनी नहीं बना सकता। किसी में इतना साहस नहीं। समाज के बन्धनों से कौन टकराए? ठकराने की जरूरत ही क्या है, जबकि वे उसके यौवन से खिलवाड़ कर सकते हैं, उसके जीवन से खेल सकते हैं तो पिफर बैठे-बिठाए कौन हत्या मोल ले? वह सचमुच हत्या है- समाज की हत्या। फिर हत्या को कौन स्वीकार करें? उसकी माँ के रुपए अदा नहीं हुए तो भला कौन उसे अंगीकार करें?
इतने में बैसाखी ने आकर बताया- 'दीदी, घनारी ने चकती और चावल ले लिए हैं।" डमसा का ध्यान भग्न हो गया। घनारी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। वह दुल्हन बन गई थी। अभागी डमसा के बदले घनारी ही सही। उसी का जीवन संवरे। उसे तो स्या-स्या बनकर ही जवानी की अनमोल घड़िया काट देनी हैं। वह किसी से डाह क्यों करे? और वह उठ खड़ी हो गई। एक लालायित युवक की उसने बांह पकड़ ली और उसके हाथ से दो लिन्च (चांदा का प्याला विशेष) चकती के वह एक सांस में पी गई। उसकी पतली-पैनी आंखों और उभरे रक्तिम गालों पर मादकता थिरकने लगी। वह नाचने लगी। गीत निर्झरणी की तरह उसके कण्ठ से झरने लगा। नृत्य में अद्भुत प्रवाह आ गया। सबके सब थिरकने लगे। सब की आवाज से अलग स्वर्गीय गिरा सी उसकी स्वर लहरी जैसे हवा में थिरकने लगी-
'न्यौल्या, न्यौल्या, लाल मेरो सांवरी, दिन को दिन जोवन जान लाग्यों।"
(प्रियतम! तुम नहीं आए, नहीं आए, दिन-वॐ-दिन मेरा यौवन ढलने लगा है।)
कौन जाने, उसका वह सांवरी इस जीवन में कभी आएगा भी या नहीं?