Wednesday, May 2, 2012

न तो किसी के ऊपर हंसे और न ही गुस्सायें

                             

किसी के ऊपर हंसना, यानी हंसी उड़ाना, बुरी बात है। बेवजह गुस्साना और भी बुरा। हंसने वालों से तो फिर भी निपटा जा सकता है- बिना उनकी हंसी के कारणों की पड़ताल किये, बिना उन पर ध्यान दिये। लेकिन गुस्सा थूकने को उतारूओं का क्या किया जाये। वह भी ऐसे में जब कि वे गुस्से के संक्रमण को रोग की तरह फैलाने पर भी आमादा हों। गांधी पार्क ऐसी ही जगह है जो उत्तराखण्ड, खास तौर पर देहरादनू, के नक्शे में गुस्सा जाहिर करने का एक ऐतिहासिक स्थल रहा। जिसके गेट पर दरी बिछा कर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए इस जनपद के कितने ही गुस्सालू हमेशा जुटते रहे हैं और बहुत बच-बचाकर चल रहे तमाम नौकरीपेशा जनपदवासियों के भीतर तक अपने गुस्से का संक्रमण करते रहे हैं। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौर में तो हमेशा के गुस्सालुओं ने हमेशा के बचने बचानेवालों तक को गुस्से की चपेट में ले लिया था। तत्कालीन उत्तर-प्रदेश सरकार और लखनऊ में बैठे उसके आला अफसर, गांधी पार्क जैसी इस बेहद साधारण सी जगह से वाकिफ न थे। निपटने के लिए रामपुर तिराहे पर घ्ोरा डालना पड़ा। रात के अंधेरे में गन्ने के खेतों में दौड़ा दौड़ा कर खदेड़ा गया। यकीन जानिये कि यदि वे इस जनपद की धड़कन कहे जा सकने वाले गांधी पार्क की हकीकत से वाकिफ होते तो हर रोज वहां इक्ट्ठे हो कर देहरादून की सड़कों में ''आज दो अभी दो-उत्तराखण्ड राज दो"", का कोहराम मचाने वाले आंदोलनकारियों की भीड़ को चारों ओर से घ्ोर कर लाठियां गोलियां बरसाने के लिए उन्हें अलग से पुलिस गारद का बंदोबस्त करने की जरूरत न रहती।
राज्य बने हुए लगभग एक दशक बीत गया। बेशक अभी तक की सरकारों को उनकी निकम्मई के लिए कोस लें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि राज्य की मांग के साथ जिस एक छोटी प्रशासनिक इकाई का सपना जनता ने देखा था, उसे अनेकों तरह से पूरा करने की कोशिश अभी तक की सभी सरकारों की रही है। देहरादून को स्थायी जैसी अस्थायी राजधानी बना दिये जाने के कारण बेचारे राजनेताओं और आला अफसरोंे को यहां रहने को मजबूर होना पड़ा है। इसका सीधा फायदा उन्हें तो शायद ही कुछ मिला हो लेकिन गांधी पार्क की असलियत उनसे छुपी न रह सकती थी और न ही रही भी। इसीलिए उन्होंने गांधी पार्क को गुस्से का पीकदान बनने देने की बजाय उसका सौन्दर्यकरण करने की ठानी है। किसी भी तरह के धरने प्रदर्शन के लिए गांधी पार्क को प्रतिबंधित करके जो बड़ा काम किया गया उससे साफ हो गया है कि अब न तो वहां किसी को गुस्सा थूकने की इजाजत है और न ही गुस्से का संक्रमण करने की कोई स्थितियां रहने वाली हैं। जनतंत्र की पारदर्शिता का मायने ही स्पष्ट है कि कोई किसी पे न तो हंसे और न ही गुस्साये। सरकार के इस उल्लेखनीय कार्य की सरहाना की जानी चाहिए। पर शहर भर के गुस्सालुओं को भी कहां तो दिख रहा है सरकार का यह उल्लेखनीय कर्म। उन्हें तो फुर्सत ही नहीं। मेले ठेलों के लिए आबाद परेड मैदान की बहुत अंधेरी सी किसी आड़ में जाने तो वे क्या करने लगे हैं।  

- विजय गौड़

2 comments:

अनूप शुक्ल said...

लगता है सौंदर्यीकरण होकर रहेगा। :)

अखिलेश्वर पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर