Tuesday, February 5, 2013

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता



धारकोट

शहर की आरामतलबी व एकरसता से ऊब कर

हम ट्रेकिंग पर निकल पडते हैं पास की

छोटी-छोटी पहाडियों की ओर



पक्के रास्ते को छोडकर पकडते हैं कच्चे रास्ते

और फिर पगडंडियां थामे चढ़ाई चढ़ने लगते हैं

अपने शरीर की सामर्थ्य जांचते हुए



गांव, खेत, जंगल,नदी, खाले पार करते हुए हम कोसते

 हैं शहर की भीड और शोरगुल को

राहगीर जो मिलते हैं इतने निर्जन पथ पर इक्का-दुक्का

उनका अभिवादन और प्रेम देखकर हमारा पथराया हुआ

 दिल पिधल उठता है

रास्ते में मिलती हैं घास का बोझा लाती हुई युवतियां

कहती हैं ,भाई जी नमस्ते

बस्स,थोडी सी ओर चढ़ाई है,फिर आ जायेगा धारकोट

हम भीतर तक धुल जाते हैं,बहिनों ,बेटियों के श्रम,सौंदर्य

व अभिवादन से



उधर अखबारों में दिल्ली रेप काण्ड का हाहाकार मचा है

टी वी पर चर्चा जारी है

हम सोचते हैं दिल्ली में क्या हो गया ऐसा

क्यों छा गयी इतनी विकृति,इतनी क्रूरता

इतनी हिंसा , लोगों की चेतना पर

यहां धारकोट में तो ऐसा कुछ भी नहीं




Thursday, January 31, 2013

छिन्नमस्ता:सुषमा नैथानी की कविता

(सुषमा नैथानी की कवितायें इस ब्लॉग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं.यहां प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो उनके ब्लॉग स्वप्नदर्शी से साभार ली गयी है)






छिन्नमस्ता!
 

मैं तिरुपति नहीं गयी

तिरुपति से लौटी औरतें देखीं

शोक तज आयीं  

केश तज आयीं   



देखीं

हिन्दू विधवा 

शिन्तो विधवा  

नन

संयासिन  

और ऑर्थोडॉक्स यहूदी सधवा

कामना तज आयीं 

केश तज आयीं    



क्या नहीं रीझतीं 

नहीं रिझातीं मुंडिता 

किसकी कामना हैं केश 

किसकी मुक्ति 

क्या हैं  स्त्री के केश  

किस विषवृक्ष की शाख पर 

किस ऋतु के खिले

वर्जित, बैगैरत कामना फूल!



तिरुपति से विग में गुंथी

कोई परकटी लालसा

क्या कभी नहीं पहुंचती 

न्यूयॉर्क, बोस्टन

पेरिस, इजरायल  

विरहराग नहीं सुनती विगधारिणी

तब  किस तरह 

लालसा और कामना की नदी में 

पूरब-पश्चिम

उत्तर-दक्षिण 

तिल तिल तिरोहित होती 

छिन्नमुण्डा !

वज्रयोगिनी!

छिन्नमस्ता!


Monday, January 28, 2013

हमन है इश्क़ मस्ताना



(नया ज्ञानोदय का ग़ज़ महाविशेषांक इस लोकप्रिय विधा के इतिहास की झलक दिखाने में कामयाब रहा है. यहां प्रस्तुत है इस विशेषांक में प्रकाशित कबीर की रचना)



हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या?

रहें आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या?



जो बिछुड़े हैं पियारे से भटाकते दर-ब-दर फिरते,

हमारा यार है हम मेम हमन को इन्तज़ारी क्या?



ख़लक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है,

हमन गुरनाम सांचा है हमन दुनिया से यारी क्या?



न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़े पियारे से

उन्हीं से नेह लागी है   हमन को  बेकरारी  क्या?



कबीरा  इश्क़  का माता,दुई को दूर  कर  दिल से,

जो चलना राह नाज़ुक है  हमन सिर बोझ भारी क्या?




Wednesday, January 16, 2013

खिड़की खोलो अपने घर की



एक जरा सी दुनिया घर की
लेकिन चीजें दुनिया भर की

फिर वो ही बारिश का मौसम
खस्ता हालत फिर छप्पर की

रोज़ सवेरे लिख लेता है
चेहरे पर दुनिया बाहर की

पापा घर मत लेकर आना
रात गये बातें दफ्तर की

बाहर धूप खडी है कब से
खिडकी खोलो अपने घर की
      -विज्ञान व्रत