Thursday, February 14, 2013

इच्छा: इब्बार रब्बी की कविता



 (  हमारे समय के असाधारण कवि इब्बार रब्बी की  कविताएं आप अगले दिनों में भी पढेंगे)


इच्छा. 

मैं मरूं दिल्ली की चलती हुई बस में
पायदान पर लटक कर नहीं
पहिये से कुचलकर नहीं
पीछे घसिटता हुआ नहीं
दुर्घटना में नहीं
मैं मरूं बस में खड़ा खड़ा
भीड़ में पिचक कर
चार पांव ऊपर हों
दस हाथ नीचे
दिल्ली की चलती हुई बस में मरूं मैं

अगर कभी मरूं तो
बस के बहुवचन के बीच
बस के यौवन और सौन्दर्य के बीच
कुचलकर मरूं मैं
अगर मैं मरूं कभी तो वहीं
जहां जिया गुमनाम लाश की तरह
गिरूँ मैं भीड़ में
साधारण कर देना मुझे हे जीवन !


Monday, February 11, 2013

नरेश सक्सेना की कविता : पानी क्या कर रहा है



(दरवाजा शीर्षक कविता में नरेश सक्सेना कहते हैं
              दरवाजा होना तो शब्दों का नहीं अर्थों का होना
                   नरेश सक्सेना की कविताओं में शब्दों का अर्थ संधान करने के लिये बहुत दूर नहीं जाना पड़ता . वस्तुपरक तथ्यों की जमीन पर उनकी कविता काश घेरती है.पानी के असामान्य प्रसार का  वैज्ञानिक विवरण किस तरह असामान्य कविता में बदल जाता है इसे देखने के लिये प्रस्तुत है नरेश सक्सेना की कविता : पानी क्या कर रहा है)

पानी क्या कर रहा है
नरेश सक्सेना

आज जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड

और पानी पीना तो दूर

उसे छूने से बच रहे हैं लोग

तो जरा चल कर देख लेना चाहिये

कि अपने संकट की इस घड़ी में

पानी क्या कर रहा है.



अरे! वह तो शीर्षासन कर रहा है

सचमुच झीलों,तालाबों और नदियों का पानी

सिर के बल खड़ा हो रहा है



सतह का पानी ठण्डा और भारी हो

लगाता है डुबकी

और नीचे से गर्म और हल्के पानी को

ऊपर भेज देता है ठण्ड से जूझने



इस तरह लगतार लगाते हुए डुबकियाँ

उमड़ता-घुमड़ता हुआ पानी

जब आ जाता है चार डिग्री सेल्सियस पर

यह चार डिग्री क्या?



यह चार डिग्री वह तापक्रम है दोस्तों

जिसके नीचे मछलियों का मरना शुरू हो जाता है

पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है

कि अगर वह और ठण्डा हुआ

तो मछलियां बच नहीं पाएँगी



अचानक वह अब तक जो कर रहा था

ठीक उसका उल्टा करने लगता है

यानि कि और ठण्डा होने पर भारी नहीं होता

बल्कि हल्का होकर ऊपर ही तैरता रहता है



तीन डिग्री हल्का

दो डिग्री और हल्का और

शून्य डिग्री होते ही,बर्फ बनकर

सतह पर जम जाता है



इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का

अब पड़ती रहे ठंड

नीचे गर्म पानी में मछलियाँ

जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं





इस वक्त शीत कटिबन्धों में

तमाम झीलों और समुद्रों  का पानी जमकर

मछलियों का कवच बन चुका है



पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं

आदमी के प्राण कहां बसते हैं, दोस्तों

इस वक्त

कोई कुछ बचा नहीं पा रहा है

किसान बचा नहीं पा रहा है अन्न को

अपने हाथों से फसलों को आग लगाये दे रहा है

माताएँ बचा नहीं पा रहीं बच्चे

उन्हें गोद में ले

कुओं में छलाँगें लगा रही हैं



इससे पहले कि ठंडे होते ही चले जाएँ

हम ,चलकर देख लें

कि इस वक्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड

तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में

पानी क्या कर रहा है.










Tuesday, February 5, 2013

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता



धारकोट

शहर की आरामतलबी व एकरसता से ऊब कर

हम ट्रेकिंग पर निकल पडते हैं पास की

छोटी-छोटी पहाडियों की ओर



पक्के रास्ते को छोडकर पकडते हैं कच्चे रास्ते

और फिर पगडंडियां थामे चढ़ाई चढ़ने लगते हैं

अपने शरीर की सामर्थ्य जांचते हुए



गांव, खेत, जंगल,नदी, खाले पार करते हुए हम कोसते

 हैं शहर की भीड और शोरगुल को

राहगीर जो मिलते हैं इतने निर्जन पथ पर इक्का-दुक्का

उनका अभिवादन और प्रेम देखकर हमारा पथराया हुआ

 दिल पिधल उठता है

रास्ते में मिलती हैं घास का बोझा लाती हुई युवतियां

कहती हैं ,भाई जी नमस्ते

बस्स,थोडी सी ओर चढ़ाई है,फिर आ जायेगा धारकोट

हम भीतर तक धुल जाते हैं,बहिनों ,बेटियों के श्रम,सौंदर्य

व अभिवादन से



उधर अखबारों में दिल्ली रेप काण्ड का हाहाकार मचा है

टी वी पर चर्चा जारी है

हम सोचते हैं दिल्ली में क्या हो गया ऐसा

क्यों छा गयी इतनी विकृति,इतनी क्रूरता

इतनी हिंसा , लोगों की चेतना पर

यहां धारकोट में तो ऐसा कुछ भी नहीं




Thursday, January 31, 2013

छिन्नमस्ता:सुषमा नैथानी की कविता

(सुषमा नैथानी की कवितायें इस ब्लॉग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं.यहां प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो उनके ब्लॉग स्वप्नदर्शी से साभार ली गयी है)






छिन्नमस्ता!
 

मैं तिरुपति नहीं गयी

तिरुपति से लौटी औरतें देखीं

शोक तज आयीं  

केश तज आयीं   



देखीं

हिन्दू विधवा 

शिन्तो विधवा  

नन

संयासिन  

और ऑर्थोडॉक्स यहूदी सधवा

कामना तज आयीं 

केश तज आयीं    



क्या नहीं रीझतीं 

नहीं रिझातीं मुंडिता 

किसकी कामना हैं केश 

किसकी मुक्ति 

क्या हैं  स्त्री के केश  

किस विषवृक्ष की शाख पर 

किस ऋतु के खिले

वर्जित, बैगैरत कामना फूल!



तिरुपति से विग में गुंथी

कोई परकटी लालसा

क्या कभी नहीं पहुंचती 

न्यूयॉर्क, बोस्टन

पेरिस, इजरायल  

विरहराग नहीं सुनती विगधारिणी

तब  किस तरह 

लालसा और कामना की नदी में 

पूरब-पश्चिम

उत्तर-दक्षिण 

तिल तिल तिरोहित होती 

छिन्नमुण्डा !

वज्रयोगिनी!

छिन्नमस्ता!