(दरवाजा शीर्षक कविता में नरेश सक्सेना कहते हैं
दरवाजा होना
तो शब्दों का नहीं अर्थों का होना
नरेश
सक्सेना की कविताओं में शब्दों का अर्थ संधान करने के लिये बहुत दूर नहीं जाना पड़ता
. वस्तुपरक तथ्यों की जमीन पर उनकी कविता आकाश घेरती है.पानी के असामान्य प्रसार का वैज्ञानिक विवरण किस तरह असामान्य कविता में बदल जाता है
इसे देखने के लिये प्रस्तुत है नरेश सक्सेना की कविता : पानी क्या
कर
रहा
है)
पानी
क्या
कर
रहा
है
नरेश
सक्सेना
आज
जब
पड़
रही
है
कड़ाके
की
ठण्ड
और
पानी
पीना
तो
दूर
उसे
छूने
से
बच
रहे
हैं
लोग
तो
जरा
चल
कर
देख
लेना
चाहिये
कि
अपने
संकट
की
इस
घड़ी
में
पानी
क्या
कर
रहा
है.
अरे!
वह
तो
शीर्षासन
कर
रहा
है
सचमुच
झीलों,तालाबों
और
नदियों
का
पानी
सिर
के
बल
खड़ा
हो
रहा
है
सतह
का
पानी
ठण्डा
और
भारी
हो
लगाता
है
डुबकी
और
नीचे
से
गर्म
और
हल्के
पानी
को
ऊपर
भेज
देता
है
ठण्ड
से
जूझने
इस
तरह
लगतार
लगाते
हुए
डुबकियाँ
उमड़ता-घुमड़ता
हुआ
पानी
जब
आ
जाता
है
चार
डिग्री
सेल्सियस
पर
यह
चार
डिग्री
क्या?
यह
चार
डिग्री
वह
तापक्रम
है
दोस्तों
जिसके
नीचे
मछलियों
का
मरना
शुरू
हो
जाता
है
पता
नहीं
पानी
यह
कैसे
जान
लेता
है
कि
अगर
वह
और
ठण्डा
हुआ
तो
मछलियां
बच
नहीं
पाएँगी
अचानक
वह
अब
तक
जो
कर
रहा
था
ठीक
उसका
उल्टा
करने
लगता
है
यानि
कि
और
ठण्डा
होने
पर
भारी
नहीं
होता
बल्कि
हल्का
होकर
ऊपर
ही
तैरता
रहता
है
तीन
डिग्री
हल्का
दो
डिग्री
और
हल्का
और
शून्य
डिग्री
होते
ही,बर्फ
बनकर
सतह
पर
जम
जाता
है
इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का
अब पड़ती रहे ठंड
नीचे गर्म पानी में मछलियाँ
जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं
इस वक्त शीत कटिबन्धों में
तमाम झीलों और समुद्रों का पानी जमकर
मछलियों का कवच बन चुका है
पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहां बसते हैं, दोस्तों
इस वक्त
कोई कुछ बचा नहीं पा रहा है
किसान बचा नहीं पा रहा है अन्न को
अपने हाथों से फसलों को आग लगाये दे रहा है
माताएँ बचा नहीं पा रहीं बच्चे
उन्हें गोद में ले
कुओं में छलाँगें लगा रही हैं
इससे पहले कि ठंडे होते ही चले जाएँ
हम ,चलकर देख लें
कि इस वक्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड
तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है.