Tuesday, July 12, 2016

सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ

कुमांऊनी चेली’ ब्लाग चलाने वाली शैफाली पाण्‍डे की ये कविताएं अपने ही तरह की हैं जिनका रंग स्थितियों से चुटकी लेते हुए खिला है। गम्भीर मिजाज की कविताओं से इनका रिश्ता इसी कारण कुछ जुदा है, वरना प्रतिरोध की आवाज यहां भी हर वक्ता सुनी जा सकती थी। शैफाली को पढ़ते हुए इस बात का एक सुखद अहसास मिलता है कि रोजमर्रा की बहुत सी स्थितियों पर चुटकी लेते हुए भी कविता के शिल्प में बात की जा सकती है । प्रस्तुतत हैं उनके प्रकाशनाधीन संग्रह से कुछ कविताएं।
वि.गौ.



खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|


सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ .......

रंग-बिरंगे स्वेटर
टोपी, जैकेट, मफलर
शाल, मोज़े, दस्ताने
गरम इनर, पायजामे
जूते और कोट से जगह जगह
पटा हुआ बाज़ार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

बकरे की जान
मुर्गे की टांग
मछली के पकौड़े
अण्डों की बिक्री ने
पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़े
सब्जी-फल गर्मी के हवाले
फल-फूल रहा सर्वत्र
मांसाहार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गजक, रेवड़ी, लड्डू
मूंगफली, पकौड़ी, हलवा
जिसकी जेब में माल भरा हो
मौसम भी देखे उसका जलवा
दो दिन के इस मेहमान का
शाही स्वागत-सत्कार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

कॉफ़ी, सूप, चाय
अद्धी, व्हिस्की, रम
जितनी भी पी लो
लगती है कम
पानी की किल्लत
शराब की इफरात में
बह रहे देश के भावी
कर्णधार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गठिया, दमा, जोड़ों के दर्द
जानलेवा बन गए दिल के सारे मर्ज़
हीटर, गीज़र, ब्लोअर, इन्हेलर
कम्बल, थुलमे, गर्म रजाई
ठंडक सीधी हड्डी तक घुस आई
खबर से ज्यादा इन दिनों
शोक वाले समाचार देखूँ।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

क्रीम की गहरी पर्तें हैं
सौन्दर्य की अपनी शर्तें हैं
होंठों की रक्षा, पैरों की सुरक्षा
रेशम सी चिकनी और मुलायम
त्वचा के पीछे
संवेदनाओं का सूख चूका
संसार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

ये सर्दी के मेले
मेले में कुछ लोग अकेले
इन लोगों का
रैन बसेरों में सिमटा
कम्बल में लिपटा
चौराहों के अलाव में
माँ की गोद में चिपटा
दूसरा ही संसार देखूँ
सर्दी देखूँ या सर्दी की धार देखूँ.......

मौसम की मार से ज्यादा
मौसम का कारोबार देखूँ

 
खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|

उसका बलात्कार होगा....


वह आकाश में उडती है। पानी में तैरती है| उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं। अन्तरिक्ष ने उसके हौसलों की गाथाएं गाईं हैं। भीग गया पर फिर भी परवाज़ किया उसने। टूट गया दम फिर भी आगाज़ किया उसने।
उसका भी होगा बलात्कार….

वह कायदों पे चलती है। नियम - -क़ानून से रहती है। उसूलों पर कड़क रहती है। हिम्मत के इतिहास में नित नया अध्याय लिख रही है। सही को सही, गलत को गलत कह रही है। जब पडी ज़रुरत, रणचंडी सा रूप धरा उसने। किसी कीमत पर भी समझौता किया उसने। आज उसके आगे सिर झुकाना मजबूरी है| घर हो या बाहर, उसकी उपस्थिति हर हाल ज़रूरी है।
उसका भी होगा बलात्कार....

उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है| ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है| बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है। पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है। उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है। हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है। रात-दिन जी तोड़ काम करती है। मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसने अकेले बच्चों को पाला। माँ-बाप, भाई-बहिन को सम्भाला| सास-ससुर को मान दिया। रिश्तेदारों को सम्मान दिया। सबके सुख-दुःख में काम आती है। सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है। अब उसका भी अपना एक नाम है। कहीं -कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है।
उसका भी होगा बलात्कार...

वह इतनी मगरूर है। पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है| उसके मुंह पर जुबां गयी है। समझने और सोचने की अक्ल गयी है| खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है| गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है| अधिकार की बात करती है| काम के बदले पगार की बात करती है। हर बात पर तर्क करती है। अच्छे-बुरे पर खुद फर्क करती है। 
उसका भी होगा बलात्कार....

वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है| चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है| खाट की तरह अब बिछती नहीं है। दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है| अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है। गंदी से गंदी नज़र को झेलती है। तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो--सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो-सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है।
उसका भी होगा बलात्कार....

पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती। नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती।  आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है| दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है। भरे मंडप से बारात को लौटा देती है। लोभियों को हथकड़ी पहना देती है। पैर किसी के अब पड़ती नहीं है। उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसे समाज का डर नहीं रहा। अलगाव का भय नहीं रहा| अपने दम पर घर चलाती है। लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है। घुट-घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है। लोगों की नज़रों से लड़ना उसको गया। कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना गया।

बता फिरक्यूँ हो उसका बलात्कार? क्यूँ हो उसकी इज्ज़त तार-तार?


Tuesday, July 5, 2016

मेरे मन के द्वार खुले हुए हैं पूरे के पूरे

स्मृति शेष : अब्बास क्योरोस्तमी


76 वर्ष की उम्र में कैंसर के चलते हमसब को ग़मज़दा छोड़ कर खुदा को प्यारे हो गए अब्बास क्योरोस्तमी (फ़ारसी में उन्हे अब्बोसे क्योरोस्तानी कह कर पुकारा जाता है) ईरान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार ,पेंटर और फ़ोटोग्राफ़र थे जिनकी गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में की जाती है। जापान के शिखर के फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने अब्बास क्योरोस्तमी के बारे में कहा : मैं अब्बास के बारे में अपनी भावनाओं को शब्दों में बयान नहीं कर सकता ...सत्यजित रॉय के इंतकाल की खबर सुनकर मेरा मन गहरे अवसाद से भर गया ,पर अब्बास क्योरोस्तमी की फ़िल्में देखने के बाद मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि उनकी कमी पूरी करने के लिए बिलकुल उपयुक्त फ़िल्मकार धरती पर भेज दिया। अपने देश की सामाजिक संरचना पर गम्भीर कटाक्ष करने के चलते उन्हें फ़िल्में बनाने के लिए न तो किसी प्रकार की सरकारी सहायता मिलती थी न ही ईरान में उनके प्रदर्शन की अनुमति थी। इस बाबत उनसे अक्सर पत्रकार सवाल करते रहे थे ,एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : "मैं हुकूमत का शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मेरी फ़िल्में रिलीज़ करने पर पाबंदी लगायी है ,उनके हाथ में इतना ही है बस ....अच्छी बात यह है कि उनके हाथ इस से आगे नहीं पहुँचते। जहाँ तक मेरी फ़िल्म के प्रशंसक दर्शकों की बात है वे इसे गैरकानूनी ढंग से हासिल करते हैं और खूब देखते हैं। फल पकने के बाद हवा में उड़ रहा है ,जिसकी मर्ज़ी उसको पकड़े और खाना चाहे तो खाये ... हवा जानती है उसको कहाँ किसके पास तक ले जाना है। " वे यह भी कहते थे कि सरकार ने बीते सालों में मेरी कोई फ़िल्म ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दी ... उन्हें उन फ़िल्मों की कोई समझ ही नहीं है। अपनी धरती से जुड़े रहने के आग्रह और उसके कारण रचनात्मक स्तर पर सालों साल से पेश आ रही मुश्किलों के कारण मन में पैदा हुई कड़वाहट को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था :"मुझे इसका इल्म बिलकुल नहीं कि सही क्या है और गलत क्या है ,पर यह क़ुबूल करने में मुझे कोई परेशानी नहीं कि मुझमें किसी प्रकार के राष्ट्रीय गौरव का भाव नदारद है.... मैं ईरानी हूँ तो किसी तरह का फ़ख्र इसको ले के मेरे मन में नहीं है ... मैं बस जैसा हूँ वैसा ही हूँ। अक्सर मैं खुद को किसी दरख़्त की तरह देखता हूँ ,उस दरख़्त का उस धरती के लिए कोई विशेष आग्रह नहीं होता जिसपर वह खड़ा होता है ... उसका काम फल देना है ,पत्तियाँ देना है और खुशबू बिखेरते रहना है।" सृजनात्मक भूख को मिटाने के लिए अब्बास क्योरोस्तमी ने कई बार अलग अलग तरह के काम किये - बाकायदा फ़िल्मकार बनने से पहले उन्होंने पेंटिंग की ,विज्ञापन के लिए फ़ोटो खींचे और लघु फ़िल्में बनायीं ,किताबों के लिए ग्राफ़िक्स और चित्र बनाए ,कवितायेँ लिखीं और संकलित किया।पिछले दशक में लंदन में मोजार्ट का एक ऑपेरा निर्देशित किया और क्यूबा जाकर नवोदित युवा फ़िल्मकारों दस दिन की एक वर्कशॉप आयोजित की। जब अभिव्यक्ति पर हज़ार ताले पड़े हों तो कोई भी हार न मानने वाला कलाकार वही करेगा जो अब्बास क्योरोस्तमी ने पिछले महीनों में किया - अपने देश में फ़िल्में वे बना नहीं सकते सो पिछले दो दशकों में खींचे छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी कनाडा में लगा दी जिसका शीर्षक रखा 'डोर्स विदाउट कीज़'...... इस प्रदर्शनी में सभी भारी भरकम किवाड़ हैं जिनपर कभी न खुल सकने वाले मोटे ताले जड़े हुए हैं। इस प्रदर्शनी के विषय और उद्देश्य के बारे में अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था :"देखने में मेरा काम किसी डिफेंस मेकैनिज्म जैसा लग सकता है पर यह तमाम बंदिशों और यंत्रणाओं के प्रति एक प्रतिरोध कर्म भी है। इन किवाड़ों की ओर मुझे जो बातें सबसे ज्यादा खींचती हैं वे हैं जीवन .. उम्र का पकना ... और पकी उम्र की खूबसूरती ..... इन किवाड़ों के पीछे क्या घटित हो रहा है ?इनसे बाहर कौन खड़ा है कि किवाड़ खुले और वह अंदर दाख़िल हो ?कौन है जो उन बंद किवाड़ों पर निगाहें मारता हुआ पास से चुपचाप गुज़र रहा है ?नयी तरह के किवाड़ों में अंदर झाँकने के लिए सूराख़ बने होते हैं पर इन पुराने किवाड़ों में वो कहाँ ... दरअसल ये उस ढब के जीवन की याद दिलाते हैं जो अब कहीं नहीं हैं। " फ़ोटो के साथ उन्होंने दो और माध्यमों का बड़ा भावपूर्ण सृजनात्मक इस्तेमाल किया है ... किवाड़ों के खुलने बंद होते समय उत्पन्न ध्वनियों का ,उनकी चरमराहट का , पार रहने वाले लोगों के दैनन्दिन जीवन की ध्वनियों का - मनुष्य ध्वनियों के साथ पंछी के कलरव का। और साथ साथ अपनी बेहद छोटी पर भावपूर्ण कविताओं का भी।

 प्रस्तुति : यादवेन्द्र

प्रदर्शनी में लगी हुई उनकी कविताओं के कुछ नमूने  :


घंटी खराब है 
मेहरबानी कर के 
किवाड़ पर दस्तक दीजिये ...... 
**********
मैं आया 
आप मिले नहीं 
सो मैं उलटे पाँव लौट गया ....  
************
हवा ने 
खोल दिया जर्जर किवाड़ 
फिर बंद कर रही है उसे 
चर्र चर्र 
एक बार नहीं 
बार बार .....  
**********
चाभियाँ दर्जनों हैं 
जो सदियों से यहाँ पड़ी हुई हैं 
मैं उनको कैसे फेंकूं 
कहाँ है ऐसी जगह जहाँ ताले नहीं ....  
************
भारी भरकम ताला 
रखवाली कर रहा है 
बिना छत वाली हवेली के 
सड़े गले किवाड़ की ...  
************
आज मैं दिन में घर रहूँगा 
और किसी के लिए खोलूँगा नहीं 
किवाड़,  पर 
मेरे मन के द्वार 
खुले हुए हैं पूरे के पूरे 
दोस्तों के लिए जो मुझसे 
तीखी बहस में उलझते हैं हमेशा 
और अड़ियल 
परिचितों के लिए भी ....  

Friday, June 24, 2016

चिडि़या की कहानी

हमारे मित्र अरविंद शर्मा की यह पोस्ट, इस अपील के साथ है कि जब भी वृक्ष लगाने का विचार अपने मन में लाएं, अपनी भविष्य की योजनाओं पर पहले अच्छे से चिंतन-मनन कर लें। आपका घर सुरक्षित रहे, आपकी सुविधायें बनी रहें पर निरीह पक्षियों का भी ध्यान रखें, जो आपके एक निर्णय पर उजड़ जाने को मजबूर हो जाते हैं। सुनिश्चित योजनाओं का यह मामला सिर्फ मनुष्यो और पक्षियों के संबंध को ही नहीं बल्कि मनुष्य और मनुष्य़ के बीच के संबंध का भी अहम पहलू है। लोगों को उनके जल, जंगल, जमीन से उजाड़ने में भी कई बार योजनाओं की सनक देखी जा सकती है।


 अरविंद शर्मा

पक्षियों के जीवन में एक दुर्घटना अक्सर घट जाया करती है। सुबह दाना चुगने निकलते हैं कि शाम को लौटते हैं तो पाते हैं कि तिनके तिनके जुटा कर बनाया गया घर गायब है। आशियाना उखड़ने की यह कथा बार बार लिखी जाती है। पक्षियों में 'बयां' का नाम की चिडि़या का नाम एक हुनरमंद के पक्षी रूप में लिया जाता है। पीले, सफेद, मटमैले रंगी यह नन्ही सी चिडि़या सुरक्षित औरर मजबूत धागों जैसी तार निकल सके, ऐसे रेशेदार पत्तों एवं तनों वाले वृक्षों के बीच अपने घोंसले बनाती है। इस पक्षी को 'हैंगिंग बर्ड' भी कहा जाता है।

यहां जो लटकते हुए घोंसलों से सजा वृक्ष आप देख रहे हैं, इस पेड़ के पास ऐसे ही दो पेड़ ओर भी थे। बीच वाले पेड़ को सुरक्षित व अनुकूल जानकर, लगातार तीन बरस, मीलों दूर से अपने परिवार सहित आती रही।

 दिसम्ब र माह के एक दिन उनका पूरा परिवार आ पहुंचता है। सुबह चहचहाट से भर जाती है और नजारा रंगीन हो जाता है। कुछ ही दिन की मेहनत मश्‍कत के बाद कितने ही घोंसलों वृक्ष सज जाता है। लटकते हुए घोंसलों की खूबसरती देखते ही बनती है। कभी इधर, कभी उधर उड़ते बैठते अपने घर की सुरक्षा में वे सब अपने समूह को सामूहिक कलरव से सावधान भी कर देते हैं। घोंसला किसी किले से कम सुरक्षित नहीं होता है। घोंसलों में जाने ओर आने के दो अलग अलग दरवाजे होते हैं। अन्यह किसी पक्षी का भी उसमें घुसना नामुमकिन होता है। कुशल कारीगरों को भी मात देने वाली कला कुशलता। मनुष्य भी चाहे तो ऐसा घोंसला नहीं बना सकता।

एक दिन मैं अचानक उदास हो गया। गर्मियों के दिन में घर के मालिक ने बीच वाला वृक्ष कटवा दिया। शेष दो पेड़ों पर चिडि़यों फिर कभी घोंसला नहीं बनाया। मौसम, यानी सर्दियों के आरम्भम में वे आयीं लेकिन फिर सदा के लिए अदृश्यम हो गयीं।