स्मृति शेष : अब्बास क्योरोस्तमी
76 वर्ष की उम्र में कैंसर के चलते हमसब को ग़मज़दा छोड़ कर खुदा को प्यारे हो गए अब्बास क्योरोस्तमी (फ़ारसी में उन्हे अब्बोसे क्योरोस्तानी कह कर पुकारा जाता है) ईरान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार ,पेंटर और फ़ोटोग्राफ़र थे जिनकी गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में की जाती है। जापान के शिखर के फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने अब्बास क्योरोस्तमी के बारे में कहा : मैं अब्बास के बारे में अपनी भावनाओं को शब्दों में बयान नहीं कर सकता ...सत्यजित रॉय के इंतकाल की खबर सुनकर मेरा मन गहरे अवसाद से भर गया ,पर अब्बास क्योरोस्तमी की फ़िल्में देखने के बाद मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि उनकी कमी पूरी करने के लिए बिलकुल उपयुक्त फ़िल्मकार धरती पर भेज दिया।
अपने देश की सामाजिक संरचना पर गम्भीर कटाक्ष करने के चलते उन्हें फ़िल्में बनाने के लिए न तो किसी प्रकार की सरकारी सहायता मिलती थी न ही ईरान में उनके प्रदर्शन की अनुमति थी। इस बाबत उनसे अक्सर पत्रकार सवाल करते रहे थे ,एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : "मैं हुकूमत का शुक्रगुज़ार रहूँगा कि उन्होंने मेरी फ़िल्में रिलीज़ करने पर पाबंदी लगायी है ,उनके हाथ में इतना ही है बस ....अच्छी बात यह है कि उनके हाथ इस से आगे नहीं पहुँचते। जहाँ तक मेरी फ़िल्म के प्रशंसक दर्शकों की बात है वे इसे गैरकानूनी ढंग से हासिल करते हैं और खूब देखते हैं। फल पकने के बाद हवा में उड़ रहा है ,जिसकी मर्ज़ी उसको पकड़े और खाना चाहे तो खाये ... हवा जानती है उसको कहाँ किसके पास तक ले जाना है। " वे यह भी कहते थे कि सरकार ने बीते सालों में मेरी कोई फ़िल्म ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दी ... उन्हें उन फ़िल्मों की कोई समझ ही नहीं है।
अपनी धरती से जुड़े रहने के आग्रह और उसके कारण रचनात्मक स्तर पर सालों साल से पेश आ रही मुश्किलों के कारण मन में पैदा हुई कड़वाहट को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था :"मुझे इसका इल्म बिलकुल नहीं कि सही क्या है और गलत क्या है ,पर यह क़ुबूल करने में मुझे कोई परेशानी नहीं कि मुझमें किसी प्रकार के राष्ट्रीय गौरव का भाव नदारद है.... मैं ईरानी हूँ तो किसी तरह का फ़ख्र इसको ले के मेरे मन में नहीं है ... मैं बस जैसा हूँ वैसा ही हूँ। अक्सर मैं खुद को किसी दरख़्त की तरह देखता हूँ ,उस दरख़्त का उस धरती के लिए कोई विशेष आग्रह नहीं होता जिसपर वह खड़ा होता है ... उसका काम फल देना है ,पत्तियाँ देना है और खुशबू बिखेरते रहना है।"
सृजनात्मक भूख को मिटाने के लिए अब्बास क्योरोस्तमी ने कई बार अलग अलग तरह के काम किये - बाकायदा फ़िल्मकार बनने से पहले उन्होंने पेंटिंग की ,विज्ञापन के लिए फ़ोटो खींचे और लघु फ़िल्में बनायीं ,किताबों के लिए ग्राफ़िक्स और चित्र बनाए ,कवितायेँ लिखीं और संकलित किया।पिछले दशक में लंदन में मोजार्ट का एक ऑपेरा निर्देशित किया और क्यूबा जाकर नवोदित युवा फ़िल्मकारों दस दिन की एक वर्कशॉप आयोजित की।
जब अभिव्यक्ति पर हज़ार ताले पड़े हों तो कोई भी हार न मानने वाला कलाकार वही करेगा जो अब्बास क्योरोस्तमी ने पिछले महीनों में किया - अपने देश में फ़िल्में वे बना नहीं सकते सो पिछले दो दशकों में खींचे छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी कनाडा में लगा दी जिसका शीर्षक रखा 'डोर्स विदाउट कीज़'...... इस प्रदर्शनी में सभी भारी भरकम किवाड़ हैं जिनपर कभी न खुल सकने वाले मोटे ताले जड़े हुए हैं।
इस प्रदर्शनी के विषय और उद्देश्य के बारे में अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था :"देखने में मेरा काम किसी डिफेंस मेकैनिज्म जैसा लग सकता है पर यह तमाम बंदिशों और यंत्रणाओं के प्रति एक प्रतिरोध कर्म भी है। इन किवाड़ों की ओर मुझे जो बातें सबसे ज्यादा खींचती हैं वे हैं जीवन .. उम्र का पकना ... और पकी उम्र की खूबसूरती ..... इन किवाड़ों के पीछे क्या घटित हो रहा है ?इनसे बाहर कौन खड़ा है कि किवाड़ खुले और वह अंदर दाख़िल हो ?कौन है जो उन बंद किवाड़ों पर निगाहें मारता हुआ पास से चुपचाप गुज़र रहा है ?नयी तरह के किवाड़ों में अंदर झाँकने के लिए सूराख़ बने होते हैं पर इन पुराने किवाड़ों में वो कहाँ ... दरअसल ये उस ढब के जीवन की याद दिलाते हैं जो अब कहीं नहीं हैं। "
फ़ोटो के साथ उन्होंने दो और माध्यमों का बड़ा भावपूर्ण सृजनात्मक इस्तेमाल किया है ... किवाड़ों के खुलने बंद होते समय उत्पन्न ध्वनियों का ,उनकी चरमराहट का , पार रहने वाले लोगों के दैनन्दिन जीवन की ध्वनियों का - मनुष्य ध्वनियों के साथ पंछी के कलरव का। और साथ साथ अपनी बेहद छोटी पर भावपूर्ण कविताओं का भी। प्रस्तुति : यादवेन्द्र |
प्रदर्शनी में लगी हुई उनकी कविताओं के कुछ नमूने :
घंटी खराब है
मेहरबानी कर के
किवाड़ पर दस्तक दीजिये ......
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मैं आया
आप मिले नहीं
सो मैं उलटे पाँव लौट गया ....
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हवा ने
खोल दिया जर्जर किवाड़
फिर बंद कर रही है उसे
चर्र चर्र
एक बार नहीं
बार बार .....
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चाभियाँ दर्जनों हैं
जो सदियों से यहाँ पड़ी हुई हैं
मैं उनको कैसे फेंकूं
कहाँ है ऐसी जगह जहाँ ताले नहीं ....
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भारी भरकम ताला
रखवाली कर रहा है
बिना छत वाली हवेली के
सड़े गले किवाड़ की ...
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आज मैं दिन में घर रहूँगा
और किसी के लिए खोलूँगा नहीं
किवाड़, पर
मेरे मन के द्वार
खुले हुए हैं पूरे के पूरे
दोस्तों के लिए जो मुझसे
तीखी बहस में उलझते हैं हमेशा
और अड़ियल
परिचितों के लिए भी ....
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