Friday, February 27, 2009

उपन्यास से बाहर जाकर

कबाडखाना में आज नवीन जोशी के उपन्यास दावानल की चर्चा कुछ यू है-

नवीन दा बड़े सहृदय व्यक्ति हैं और उनका एक उपन्यास 'दावानल' सामयिक प्रकाशन से २००६ में छपकर आया था। बीसवीं सदी के सन अस्सी के दशक में छिड़े चिपको आन्दोलन को इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनाया गया है. बहुत सारे आत्मकथात्मक तत्व भी इस कृति में पिरोये गए हैं. कुमाऊंनी ग्रामीण परिवेश और पलायन को अभिशप्त निर्धन कुमाऊंनी समाज के युवाओं की कई छोटी-बड़ी कहानियां इस उपन्यास की सतह के ऐन नीचे सांस लेती रहती हैं. - अशोक पाण्डे


प्रस्तुत है दावानल पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी जो इससे पूर्व शब्दयोग पत्रिका में प्रकाशित हुई है। -




राष्ट्रीयता की पहचान के आंदोलन- उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की मांग की अवश्यम्भाविता के वे कौन से कारण थे जिन्होंने उत्तराखण्ड के जनमानस को सड़को पर उतर आने के लिए मजबूर किया, यदि इस की ठीक-ठीक पहचान की जाये तो जल, जंगल जमीन पर टिकी भू-भाग की अर्थव्यवस्था पर कालान्तर से होते आये आक्रमणों को जानकर ही समझा जा सकता है। 1815 में ब्रिटिश हुकूमत के काबीज हो जाने के बाद साम्राज्यवादी लूट के जिन मंसूबों ने वन अधिनियम को जन्म दिया, उन्हीं के परिणाम स्वरूप पहाड़ों से पलायन का सिलसिला चालू हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के जन विरोधि रवैये ने सांस्कृतिक, सामाजिक और भोगोलिक रूप से भिन्न समूहों की पहचान का बलात हरण करने का कुचक्र रचा। पारम्परिक उद्योग, रोजगार और समूह विशेष की जीवन शैली को तहस नहस कर आत्मनिर्भरता को इस हद तक खत्म कर दिया गया कि गुलामी के जाल से मुक्ति का स्वपन बुनने वाले भी निरंकुश तंत्र को ही ताकत पहुचाने के लिए मजबूर हुए। ईमानदारी का तोहफा शरीर पर फौजी वर्दी को लाद कर मिलता रहा- सत्ता की चौकसी के प्रबंध के लिए जिसकी बेहद जरुरत थी।
कथाकार नवीन जोशी का उपन्यास 'दावानल" यूं तो उत्तराखण्ड में हुए चिपको आंदोलन को अपना विषय बनाता है पर पहाड़ी जनमानस के अपनी जमीन से पलायन की कथा को कहते हुए वह जिन स्थितियों का वर्णन करता है उनको पढ़कर उत्तराखण्ड राज्य आदोलन की पृष्ठभूमि को भी समझने में मद्द मिलती है। इतिहास की निर्ममता ने उत्तराखण्ड के पानी और उसकी जवानी को पलायन करने के लिए मजबूर किया है। नवीन जोशी इस तथ्य को खूबसूरत अंदाज में अपने उपन्यास में रखने में सफल हुए हैं। पुष्कर उपन्यास का मुख्य पात्र है। तिवारी जी का पुत्र। तिवारी जी जो जीवन यापन के संघ्ार्ष में लखनऊ पहुंचे हैं और अपनी ही तरह के दूसरे पहाड़ी लोगों की एक बस्ती में रहते है। पुष्कर को वे पढ़ाना चाहते हैं और इसी वास्ते उसे भी अपने साथ लखनऊ ले आये है। नहर दफ्तर के दो आहातों का वह इलाका जहां बाईस र्क्वाटरों में सिर्फ पहाड़ के ही लोग रहते हैं। जैसे-तैसे पहाड़ की पहाड़ सरीखी स्थितियों से भागकर अंग्रेज साहबों के यहां पहुंचकर साहबों-मेमसाहबों की सेवा करते-करते वयस्क होने पर सरकारी सेवाओं की अहर्ता प्राप्त कर सकते हैं। सरकारी सेवा में जाने से पहले जो अपनी इस शर्त से बंधें हैं कि अपने जैसे ही किसी अन्य पहाड़ी-ईमानदार नवयुवक को कोठी की सेवा में रख दें। जो कि उनके लिए मुश्किल भी नहीं होता। बल्कि पहाड़ से भागकर उनके पास पहुंचे हुए किसी नवयुवक को रोजगार पर चिपका देने का एक सुयोग ही होता। नहीं तो परिवार में कितने ही लोग ऐसे होते जिन्हें कठीन चढ़ाईयों भरे जीवन से बाहर निकालकर सरकारी नौकर बना सकने का बेहतरीन मौका हाथ लग रहा होता।
नहर कालोनी की सरहद ने पुष्कर को सहारा दिया। जहां रहते हुए ही उसने जीवन का ककहरा सीखा है और दुनिया की रंगीनी को जानने के लिए पिता की साईकिल के कैरियर पर फंसी रहने वाली रंगीन पन्नों की मैगजीन में आंखें गढ़ायी। पहाड़ी जीवन पर पड़ने वाली मुसीबतों की बर्फ जिनमें उल्लास बिखेर रही होती- बस यहीं से दरकने लगता है वह पहाड़ जो पुष्कर के भीतर बैठा है और वह इस छद्म को उधाड़ देना चाहता है। पहाड़ की वास्तविकता से पुष्कर का नाता- लकड़ी, घास और पानी का भारी बोझ उठाने वाली मां, बहनों और चाची बुआओं के संसार के साथ है। पत्रिकाओं में छपने वाली तस्वीरें उसको आन्नदित नहीं, बेचैन करती हैं। अपने भीतर दबी-बैठी तस्वीरों और पत्रिकाओं की तस्वीरों में साम्य नहीं दिखता। अपने आस-पास की तस्वीरों में भी उसे ढाबों में बर्तन मांजने वाले पहाड़ी छोकरों से ही साक्षात्कार करना होता है। पहाड़ में रह रही मां के पास, स्कूल की छुटि्टयों में या यदा-कदा परेशानियों से घिरे होने पर प्राप्त होने वाले बुलावों पर, उसे पहाड़ पहुंचना ही होता। पिता चाहते हुए भी जा नहीं सकते। काम का हरजा जीवन की गाड़ी के पहियों को खींचने में रुकावट डाल देता।
पढ़ लिख जाने के कारण चेतना के विकास में संवेदनाओं का संसार और ज्यादा घनेपन के साथ उसे जिस ओर को ले जाता है वह अखबारों की दुनिया है। वह लेख लिखता है- इस नैतिक ईमानदारी के साथ कि पत्रिकाओं में छप रही पहाड़ों कर रंगीन तस्वीरों के छद्म को तोड़ सके।
कहा जा सकता है कि मानसिक बुनावट में ठहरा पहाड़ीपन पुष्कर को उन तस्वीरों को साफ कर देने के लिए प्रेरित करने लगता है और उत्तराखण्ड के पहाड़ों के भीतर घट रही घटनाओं से वहां के वातारण में फैल रही हलचलों को वह समाचारों के रुप में दर्ज करना चाहता है। इस पहल के साथ ही उत्तराखण्ड में जारी 'चिपको आंदोलन" में वह हिस्सेदारी करने लगता है। आंदोलन के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क और पहाड़ के बुद्धिजीवियों की निकटता में पूरे उत्तराखण्ड के जनजीवन से उसका सम्पर्क बनने लगता है। हर दस वर्ष के अंतराल पर होने वाला यात्रा अभियान- अस्कोट आराकोट यात्रा जिसकी शुरुआत 1974 में हुई, दिनमान पत्रिका मे उसकी रिपोर्ट पड़कर वह उस यात्रा में भी हिस्सेदारी करने लगता है और उसके माध्यम से पहाड़ो को पैदल नापते हुए जनजीवन को जानना शुरु करता है। उस समय के आंदेलनकारी संगठन "संघर्ष वाहिनी" के साथियों के साथ जीवन के खुशहाली के सपनों को सकार करने के लिए जुट जाता है। उपन्यास का यह मुख्य हिस्सा ही दावानल की मूल कथा है।
उपन्यास में संघर्ष वाहिनी के आंदोलन में शिरकत करने वाले उत्तराखण्ड के रचनात्मक जगत की उम्मीदों भरी तस्वीरें स्पष्ट तौर पर रखता है। कुछ नाम जो उभरकर आते हैं उनमें घनश्याम सैलानी, गिर्दा, शेरदा अनपढ़ की रचनाओं का विश्वसनीय पाठ भी कथा को विस्तार देता है। हुड़के और ढोल-दमाऊ के स्वर सुनायी देते हैं। जिनके बीच पुष्कर अपनी व्यक्तिगत परेशानियों से उबरकर समष्टिगत भावना के साथ आगे बढ़ने लगता है। संसाधनों पर कब्जा करने वाली ताकतों की मुखालफत करना उसका ध्येय हो जाता है। 'आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा।, जंगल निलाम नहीं होंगे, पेड़ नही हम कटेंगे।' जैसे नारे उसे उत्तेजित करते हैं। लेकिन सत्ता का षड़यंत्र जीवन को बचानें की मुहिम में जंगलों के नृशंस कत्लेआम की मुखालफत के स्वर को पर्यावरण को बचाने के आंदोलन में बदल देता है। यह स्थितियां पुष्कर को बेचैन करने लगती हैं। ऐसे में पिता की मौत भी उसे भीतर से तोड़ देती है। आंदोलन का बिखर जाना या भटक जाना ही पुष्कर की त्रासदी है। जिससे वह क्षुब्ध हो जाता है। लेकिन एक मासूम किस्म की भावुकता है जो पुष्कर के चरित्र में एक दृढ़ राजनितिक कार्यकर्ता की छवी को स्थापित नहीं होने देती। यही इस रचना की कमजोरी भी मुझे दिखायी दे रही है। उपन्यास आंदोलन के बिखराव के कारणों पर बहुत ही सतही ढंग से टिप्पणी करता है और पूरे प्रकरण के लिए मात्र कुछ एक दो लोगों को ही चिन्हित करता है जो पर्यावरण की उस अवधारणा जो विश्व पूंजी के हितों में ठीक बैठती है, के साथ साम्य बैठाते हुए लगातार ख्याति प्राप्त करने चले जाते हैं। यहां यह सवाल उठता है कि यदि ऐसा कुछ घट रहा था तो आंदोलन की वह धारा जो इस तरह के प्रपंच के खिलाफ थी वह उस दौर में प्रकट क्यों नहीं होती और ऐसे लोगों पर उसी दौर में चोट क्यों नहीं करतीं ?
उपन्यास से बाहर जाकर उस दौर के इतिहास पर यदि टिप्पणी की जाये तो सवाल उठता है कि क्या कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलन की धारा के अन्दर ही तो वह एनजीओ किस्म की मानसिकता नहीं थी जिसके कारण जनता के सवालों पर उठा चिपको आंदोलन पर्यावरण के आंदोलन में तब्दील हो गया ? इस सवाल पर बिना भावुक हुए गम्भिरता से विचार होना चाहिए था। उपन्यास के पात्र सलीम के माध्यम से एक छोटी कोशिश हुई तो दिखती है, पर मासूम किस्म की भावुकता, जिसकी जकड़ में रचनाकार भी नजर आता है, उपन्यास को उस ओर बढ़ने से रोकती है। और सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष पर ही चोट करती दिखायी देती है। बाबा जीवनलाल और रामप्रसाद उपन्यास के ऐसे ही पात्र है जो अंताराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करते हैं। आखिर ये पात्र कौन है ? वे पात्र जिनके प्रति रचनाकार सकारत्मक दृष्टिकोण रखता है, अपनी वास्तविक पहचान के साथ उपन्यास में मौजूद है जबकि उपन्यास में अपनी नकारात्मक उपस्थिति के साथ मौजूद पात्रों की पहचान को उतने ही स्पष्ट रूप्ा में रखने का परहेज रचनाकार के सीमित दृष्टिकोण को ही दिखाता है और उपन्यास के पात्र पुष्कर की तरह के कमजोर व्यक्तित्व को ही गढ़ता है। यही वजह है कि एक राजनीतिक आंदोलन के उभार और उसके विफल होने या कार्यपद्धतियों में आते गये भटकाव के कारणों पर लिखने के लिए जिस सचेत दृष्टि की जरुरत होनी चाहिए, 'दावालन" में उसका अभाव खटकता है। एक आंदोलन के बिखराव को चंद लोगों के मत्थे मढ़कर न तो किसी आंदोलन का सही विश्लेषण संभव है और न ही किसी बढ़ी रचना को रचा जाना। यदि उपन्यास का उद्देश्य इतना ही सीमित है तो यह उपन्यास के महत्व को कम ही करता है। मुझे लगता है इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए था।
चिपको आंदोलन और संघ्ार्ष वाहिनी के उभार और एक समय के बाद उसमें आये बिखराव के कारणों की पड़ताल मासूम किस्म की भावुकता से संभव ही नहीं। एनजीओ किस्म की वह मानसिकता जिसकी चपेट में संघ्ार्ष वाहिनी का आंदोलन प्ार्यावरण को बचाये के लिए स्वाहा होता गया, उसकी पड़ताल के लिए भावुक किस्म की मानसिकता से बचा जाना चाहिए और निर्मम तरह से उसकी चीर फाड़ की जानी चाहिए। आंदोलन के सामान्तर फैलती गयी मानसिकता एक ऐतिहासिक सच है जिस पर सार्थक चोट की जरुरत है, उपन्यास उससे परहेज करता दिखायी देता है। वरना कुछ लोगों का कैरिकेचर बनाकर कथा को न बुना गया होता। यह सवाल इस लिए भी उठता है, क्योंकि जहां उपन्यास में गिर्दा, घनश्याम सैलानी, गुणानंद पथिक आदि पात्र अपनी वास्तविक पहचान के साथ दिखायी देते हैं वहीं बाबा जीवन लाल और रामप्रसाद के बारे में कयास लगाने के लिए संकेत छोड़ दिये गये हैं। यहां उन कल्पित पात्रों की राजनीति से सहमति नहीं बल्कि इसलिए यह बात कही जा रही है कि उपन्यास का उद्देश्य इसी कारण बहुत सीमित हो गया है जबकि उत्तराखण्ड के राजनैतिक आंदोलन के एक ऐतिहससिक दौर को पकड़ने की जो कोशिश इसमें हुई है उस आधर पर यह एक महत्वपूर्ण कृति है।
-विजय गौड़

Thursday, February 26, 2009

भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था

नवीन नैथानी एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। देहरादून में रह्ते हैं। सौरी उनकी कल्पनाओं में आकार लेती एक ऎसी जगह है, जहां के बाशिंदे अपनी जमीन से बेइंतहा प्यार करते हैं। हाल ही में उनकी कहानियों की किताब प्रकाशित हुई है "सौरी की कहानियां" पुस्तक के ब्लर्ब पर प्रकाशित उनकी कहानियों का परिचय कुछ इस प्रकार है-
लोक आख्यानों-उपाख्यानों एवं किंवदंतियों को समकालीन कहानी में दर्ज करने वाले रचनाकरों की संख्या कम है। नवीन कुमार नैथानी लम्बे अरसे से पहाडी अंचल की लोककथाओं को समकालीन कहानी का कलेवर प्रदान करने वाले ऎसे ही विरल रचनाकार हैं यह कहना भी कि ये लोक कथाएं सचमुच किसी अंचल विशेष- सौरी की हैं या कहानीकार की कपोलकल्पित रचनाएं मात्र: उतनी ही अस्पष्ट हैं जितनी कि ऎसी रचनाओं का भूगोल-इतिहास। पारस कहानी का नैरेटर इस पर कुछ-कुछ प्रकाश डालता है- 'भूगोल सौरी का एक मात्र सत्य था और तथ्य उसी के इर्द-गिर्द खडे होकर सौरी को आकार देते रहे, सौरी के बाशिंदे अपने होने फ़कत को सौरी की जमीन से जोडते रहे। उस जमीन में सिर्फ़ किस्से पैदा होते थे और कहानियां उस फ़सल का महज एक उत्पाद थीं। सौरी के बाशिंदे अपने किस्सों में अपना इतिहास समेटते रहे और इतिहास को किस्सों की छणभंगूरता में नष्ट करते रहे।' आस-पास फ़ैले व्यापक लोक-समाज और समय की लेखकीय समझ सौरी और वहां के बाशिंदों का देशकाल निर्मित करती है और 'सौरी' हमारा वर्तमान समाज और समय बनकर पहचान की आशवस्ति प्राप्त कर लेता है।
'सौरी के बाशिंदों के लिए जिनकी सौरी कहीं नहीं है' लेखक का यह समर्पण वाक्य पाठकों के सम्पूर्ण कुतुहल को परिचित और अपरिचित के बीच उपस्थित कला-कौशल की अपूर्व स्रजनात्मक छमता के साथ आमंत्रित करता प्रतीत होता है। इस तरह समकालीन कहानी के दायरे को लोक सम्पदा से सम्रद्ध और विकसित करने की व्यापक रचनात्मक चेष्टा नवीन कुमार नैथानी को अपने समवर्ती रचनाकारों से अलग पहचान दिलाती है।
पुस्तक का आवरण




प्रस्तुत है नवीन कुमार नैथानी की स्म्रतियों में अपने जनपद (देहरादून) का वह दौर जब वे कहानियां लिखना शुरू ही कर रहे थे।


एक बडी गोष्ठी स्व. राज शर्मा ने करायी थी DOLFIN का गठन करते हुए. यह १९८७ की बात है-है-संभवतः अप्रैल या मई का महिना था. DOLFIN से आशय था Democratic organisation for literarture and fine arts.वे इसमें सभी कलाकारों की भागीदारी चाहते थे. इस संबंध मे शहर के वरिष्ठ लोग सही रोशनी डाल सकते हैं. यह इन पंक्तियों के लेखक की पहली गोष्ठी थी ऒर यहां उसने कुछ कवितायें सुनायी थीं जिनमें कुछ इस तरह की ध्वनि निकलती थी कि हमारे दादा परदादा अपने जमाने में प्रेम किया करते थे. इस गोष्ठी में मेरा प्रवेश राजेश सेमवाल के सॊजन्य से हुआ था. इस गोष्ठी से ही अतुल शर्मा से परिचय हुआ ऒर फिर देहरादून की साहित्यिक दुनिया से धीरे धीरे संपर्क बढता रहा. उन दिनों देहरादून में साहित्य की दीवानी एक नयी पीढी उभर रही थी- राजेश सकलानी, दिनेशचन्द्र जोशी,विजय गौड,रतीनाथ योगेश्वर, मदन मोहन ढुकलान, दैवेन्द्र प्रसाद जोशी जैसे नाम इस समय ध्यान आ रहे हैं.जितेन ठाकुर ऒर जयप्रकाश नवेन्दु पहले ही परिद्र्श्य में आ चुके थे.जितेन की कविता धर्मयुग में छप चुकी थी. कविता संग्रह आ चुका था. नवेन्दु के भी एकाधिक संग्रह छप चुके थे. ये दोनों उस नयी फ़ॊज के बीच थोडा वरिष्ठ लगते थे. नयी फ़ौज अतुल शर्मा की अगुवाई में समान्तर कवि- सम्मेलन आयोजित/प्रायोजित कर लेती थी( प्रायः ये सम्मेलन उस मंचीय कविता के खिलाफ़ होते थे जिनकी सरपरस्ती स्व. गिरिजाशंकर त्रिवेदी किया करते थे. प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है विगत तीन दशकों से अधिक समय तक त्रिवेदीजी कवि सम्मेलनों के बहुत सफ़ल संचालक रहे. उनकी वाणी में सरस्वती निवास करती थी. वे बहुत मदुभषी थे किन्तु कवि सम्मेलन की दुनिया में सिमटे हुए थे.वे हिन्दुस्तान में स्ट्रिंगर भी थे.डी.ए.वी.कालेज में संस्कत के विभागाध्यक्ष तो थे ही.गत वर्ष उन्के निधन पर राजीव नयन बहुगुणा ने पठ्नीय श्रद्धांजली युगवाणी में लिखी थी. उम्मीद है विजय गौड उस श्रद्धांजलि को इस ब्लाग पर चस्पां करेंगे. उन सम्मेलनों को गरिमा प्रदान करने हेतु तीन बुजुर्गवार अध्यक्ष की आसन्दी के लिये उपलब्ध थे- रमेश कुमार मिश्र 'सिद्धेश', सुखबीर विश्वकर्मा (वे कविजी के नाम से ख्यात थे ऒर उन पर यह खाकसार अलग से कुछ फ़ूल चढायेगा) ऒर चारूचन्द्र चन्दोला. कविजी सडक दुर्घटना में हमसे बिछड गये ऒर सिद्धेशजी बिमारी के बाद इस दुनिया में नहीं रहे- वे डयबेटिक थे ऒर दिल के मरीज भी. सिद्धेशजी ठहाके बहुत ही सुन्दर लगाते थे- उसमें एक उठान वाली लय होती थी;थोडी सी मिठास ऒर बहुत महीन कम्पन. वे जब ठहाके लगाते तो उनके होंठ लरजते थे. वे कला-प्रेमी थे ऒर पत्थरों के रूपाकारों पर काम करते थे.एक बार अतुल शर्मा ने टाउन हाल में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था जहां सिद्द्धेशजी की प्रस्तर-स्रजन के साथ अतुल की कविताओं का संसार था. उस प्रदर्शनी के लिये हम तांगे मे सहस्र्धारा रोड से् सिद्धेशजी की प्रस्तर - संपदा लादे शहर की सड्कों से गुजर रहे थे ऒर उनके निश्छल ठहाकों की लहरों में उतरा रहे थे. अब वे पल दुर्लभ हैं.
अब वे सडकें नहीं हैं.
शहर में तांगे नहीं हैं.

फिर भी शहर में अब भी काफी कुछ बचा हुआ है.यह देहरादून की फितरत है. इस शहर में अपने को बचाने की जिजीविषा मॊजूद है.इस बारे में फिर कभी.

Wednesday, February 25, 2009

खतरे में भाषा-बोलियाँ

अरविंद शेखर युवा हैं। एक प्रतिबद्ध पत्रकार हैं। नेपाल में जिन दिनों जनता का एक निर्णायक संघर्ष जारी था, उस दौरान अरविन्द ने नेपाल की स्थिति पर पैनी निगाह रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण आलेख लिखे। उसी दौरान अरविन्द को उमेश डोभाल स्म्रति सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्तमान में अरविंद शेखर दैनिक जागरण, देहरादून मे काम कर रहे हैं। भाषा के सवाल पर उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई थी। यहां प्रस्तुत करने का खास कारण यह है कि भाषा को लेकर ऎसी ही चिन्ता इससे पूर्व हमारे वरिष्ट साथी यादवेन्द्र जी रख चुके है। अरविन्द ने हमारे बिल्कुल आस पास उन स्थितियों को पकडते हुए अपनी चिन्ताओं को रखा है।


अरविंद शेखर

गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो समेत उत्तराखंड की दस बोलियां भी खतरे में है। इनमें से दो बोलियां तोल्चा रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। यूनेस्को ने अपने एटलस आफ दि वल्र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में सूबे की इन भाषाओं को शामिल किया है। यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को)के एटलस के मुताबिक उत्तराखंड की पिथौरागढ़ जिले में बोली जाने वाली रंग्कस और तोल्चा बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को लगभग 12000 लोग बोलते हैं। यह भी विलुप्ति के कगार पर है। पिथौरागढ़ की ही दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। एटलस के मुताबिक दारमा बोली को 1761 लोग, ब्यांसी को 1734 , जाड को 2000 और जौनसारी को अनुमानत: 114,733 लोग ही बोलते समझते हैं। एटलस के मुताबिक गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो बोलियां पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन्हें असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। यूनेस्को के मुताबिक अनुमानत: दुनिया में 279500 लोग गढ़वाली, 2003783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहींकि इन क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मालूम हो कि 30 भाषाविदों के अध्ययन पर आधारित यह भाषा एटलस शुक्रवार को जारी हुआ है। यूनेस्को के मुताबिक विश्व में 200 भाषाएं पिछली तीन पीढि़यों के साथ विलुप्त हो गईं। दुनिया में 199 भाषा-बोलियां ऐसी हैं जिन्हें महज 10-10 लोग ही बोलते हैं। 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा का कहना है हालंाकि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों की राजी जनजाति की बोली को एटलस मे शामिल नहीं किया है मगर यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 517 लोग ही बचे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक उत्तराखंड की बोलियां उन पर हिंदी-अंग्रेजी के वर्चस्व, असंतुलित विकास पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन बढ़ते शहरीकरण की मार झेल रही हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अधीक्षक डॉ.एसएनएच रिजवी के मुताबिक खतरे में पड़ी इन भाषा बोलियों का संरक्षण बहुत जरूरी है अन्यथा मानव समाज अपनी बहुमूल्य विरासत को खो देगा।

Sunday, February 22, 2009

समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

पौड़ी गढ़वाल में जन्मे डा.शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से विभागाध्यक्ष (हिंदी) के पद से सेवानिवृत हुए हैं। 50 के दशक में डा.शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास "धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शोभाराम शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश, वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय समय में प्रकाशित हुआ है।


पूर्वी कुमाउ तथा पश्चिमी नेपाल के राजियों (वन रावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध्प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है। क्रांतिदूत चे ग्वेरा (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) उनकी ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछले दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेगें। जब ह्वेल पलायन करते हैं (साइबेरिया की चुकची जनजाति के पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का उपन्यास), जो निकट भविष्य में ही प्रकाशित होने वाला है एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डा.शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिसमें उत्तराखण्ड का जनजीवन और इस समाज के अन्तर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए है। वन राजियों पर लिखा उनका उपन्यास, जो प्रकाशानाधीन है, नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऎसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी उनकी कहानी समन्या साब! समन्या ठाकुरो! हम पूरे आदर के साथ प्रस्तुत कर रहे है।


समन्या साब! समन्या ठाकुरो!

डॉ। शोभाराम राम शर्मा

स्थानीय मिडिल स्कूल के अहाते में उस दिन बड़ी हलचल थी। ऐसी हलचल कि जो इलाके के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई। और यह सब थोकदार जीतू रौत ऊर्फ जीत सिंह जी के कुलदीपक भवान सिंह के अथक प्रयास का नतीजा था। तब के लाहौर में अपने मामा उमेद सिंह के सरंक्षण में पढ़ते समय वे आर्य समाजियों के संपर्क में क्या आए कि उनके विचारों का प्रभाव दिनोंदिन गहरा होता गया। इंटर पास करने के बाद जब घर लौटे तो आर्य समाजी विचारों के प्रचार-प्रसार का जुनून सवार हो गया। कुछ राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के समर्थन और मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य व कुछ शिक्षकों के सहयोग से आयोजन परवान चढ़ गया। सभा की अध्यक्षता के लिए जब थोकदार जीतसिंह के नाम का प्रस्ताव आया तो किसी ने भी विरोध् नहीं किया। वे पहले तो बेटे के विचारों से सहमत नहीं थे लेकिन जब जिला परिषद के चुनाव में उन्हें इलाके से खड़ा करने का प्रलोभन मिला तो रातोंरात अपने विचारों से समझौता करने को तैयार हो गए। और आज सभा में सपफेद टोपी पहनकर बेटे के विचारों के पोषक बनकर चहक रहे थे। सभा में बीस-तीस विद्यार्थी और साठ-सतर दूसरे लोग जमा थे। यह इलाके में आज तक कि सबसे बड़ी सभा थी। अधिकांश लोग परिगणित जातियों से ही थे जिन्हें सभास्थल तक लाने में थोकदार जी के अपने हलिया (हलवाहा) लूथी के बेटे केसी की भूमिका सर्वोपरि थी। सवर्णों में कुछ गांव के मौरुसी प्रधन और कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता शिरकत करने आए थे। आर्य-समाज की इस मुहिम के विरोधी दो-चार पुराण-पंथी भी मुंह बिचकाए पिफर रहे थे। महिलाओं की संख्या तो नाम-मात्र को थी। दो-चार वे नारियां जिनका पेशा ही नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करना था, अपने मर्दों के साथ चुपचाप बैठी तमाशा देख रही थीं।
थोकदार जी के सभापति के आसन पर विराजमान होते ही सभा-संचालक ने सबसे पहले उस दिन के प्रमुख वक्ता भवान सिंह का आह्वान किया। भवान सिंह ने सभी आंगतुकों का अभिवादन करते हुए जो जोशीला वक्तव्य दिया उसका लब्बोलुआब यही था कि अगर देश और हिंदू समाज को आगे बढ़ना है तो वेदों की ओर लौटना होगा। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश" में जो राह सुझाई है, उसी से देश का कल्याण संभव है। दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान के आदि स्रोत तो हमारे वेद ही हैं लेकिन पुराण-पंथियों ने कुछ ऐसी विकृतियां पैदा कर दी हैं कि आज जगत गुरु भारत दूसरों के तलुवे चाटने पर मजबूर है। वेदों का महत्व पश्चिम के लोगों और विशेषकर जर्मनों ने समझा है। उसी के दम पर वे आज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रा में नए-नए अनुसंधन करने में सपफल हो रहे हैं। पूंजी हमारी है लेकिन लाभ दूसरे उठा रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो यही है कि हमने शिल्पकार जैसे उपयोगी अंग को ही बाहर कर दिया। उन्हें अछूत कहकर नारकीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। परिणाम सापफ है आज वे दूसरे मज़हबों की ओर देखने लगे हैं। अगर इस प्रवृति को रोकना है तो हमें अपने शिल्पकार भाइयों को सम्मान के साथ अपनाना होगा। उन्हें यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार प्रदान करना होगा। हम सभी आर्यों की संतान हैं और उन्हें भी अपने को आर्य कहलाने का पूरा अधिकार है। इससे छूत-अछूत की कटुता ही नहीं, पीढ़ियों से पनपी हीन-भावना का दंश भी समाप्त हो जाएगा। मेरा मानना है कि इससे सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाप्त हो जाएगी और डोला-पालकी जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं का निदान भी स्वत: हो जाएगा। हिंदू समाज को अगर सशक्त होकर उभरना है तो यह सब करना ही होगा। वक्तव्य के अंत में "भारत माता की जय" का उदघोष करते हुए उसने श्रोताओं की ओर सरसरी नजर डाली, यह देखने के लिए कि उसके कथन का कुछ असर हुआ भी या नहीं।
भवान सिंह के मंच छोड़ते ही एक त्रिपुंडधारी पंडित जी धोती का छोर हिलाते हुए मंच की ओर बढ़े। वे काफी देर से कुछ कहने के लिए कसमसा रहे थे। मंच पर चढ़ते ही गुर्राए- "अछूत और यज्ञोपवीत! ऐसी अनहोनी! अरे, हमारे पुर्खे क्या मूर्ख थे जो उन्होंने वेद-सम्मत ऐसी वर्ण-व्यवस्था लागू की? वेदों की तो शकल तक न देखी होगी और चले हैं वेदों की ओर लौटने की बात कहने। ठीक है लौटो, लेकिन पहले गहराई से उनका अध्ययन तो कर लो। आशय तो ठीक से समझ लो। वहां सापफ-सापफ कहा गया है कि आदि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और चरणों से शूद्र जन्मे हैं। इन चारों वर्णों के लिए जो शास्त्रा-सम्मत विध्-निषेध् हमारे पुरखों ने निर्धरित किए हैं उनकी अनदेखी करना भला कहां की बि(मानी है। ऐसा करने से तो हमारे समाज का पूरा ढांचा ही चरमरा जाएगा। चौथे वर्ण को अगर यज्ञोपवीत के लिए उपयुक्त नहीं माना गया तो उसके पीछे शास्त्राकारों की कोई दुर्भावना नहीं थी। बिना पात्राता के यज्ञोपवीत धरण करने का अधिकार देना गलत था और यही हमारे शास्त्राकारों ने किया है। वर्णाश्रम ध्म के खिलापफ जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।" यह कहकर पंडित जी एक ओर हटे तो लगा कि ठाकुर भवान सिंह ने बर्र के छते को छेड़ दिया था। सवर्णों में से जितने भी लोग वहां थे उनमें से एकाध् को छोड़कर सभी पंडित जी के साथ हो लिए।
किसी ने कहा- "पंडित जी ने बिल्कुल सही फरमाया है। इन लोगों में वैसी पात्राता न पहले थी और न आज है।" दूसरे ने कहा- "अरे! जो भक्ष्याभक्ष्य तक का खयाल नहीं रखते, निषि( मांस तक से जिन्हें परहेज नहीं, वे जनेऊ धरण करने के पात्रा कैसे हो सकते हैं।" तीसरे ने कहा- "इन लोगों में नर-नारी संबंधें की शिथिलता की कैसे अनदेखी की जा सकती है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो अपनी बहू-बेटियों को नचाकर जीविका कमाते हैं। ऐसे में इन्हें बराबरी का दर्जा देने की वकालत कैसे की जा सकती है।" चौथे ने कहा- "महीनों तक तो ये नहाते नहीं। सामने पड़ गए तो नाक फटने लगती है। जनेऊ जैसे पवित्रा सूत्र की इनके गले में क्या दुर्गति होगी, मुझे तो सोचते ही उबकाई आने लगती है।" पांचवें ने कहा- "न शकल न सूरत और पहनेंगे यज्ञोपवीत! घोर कलयुग है भाई। जाति-धर्म सबकुछ खतरे में है। ये नए जमाने के लोग तो उल्टी गंगा बहाने की वकालत कर रहे हैं। हम हर्गिज ऐसा नहीं होने देगें।"
एकाध् नौजवान ने ठाकुर भवान सिंह का समर्थन करने का प्रयास किया लेकिन विरोधियों ने ऐसा शोर मचाया कि कुछ सुनाई नहीं दिया। इस पर एक सफेद टोपी वाला नौजवान मंच पर जाकर दहाड़ा- "किसी को बोलने तक न देना, ये कहां की शरापफत है। आप मानें या न मानें लेकिन सुन तो लें।"
"अरे, जा-जा, बड़ा आया हमें शरापफत की सीख देने वाला! कल तक तो बाप-दादे हमारी डांडी (पालकी) ढ़ोते रहे और आज सपफेद टोपी क्या पहन ली कि पर ही निकल आए।" एक प्रधनजी गुस्से में कांपते हुए बोल पड़े।
"प्रधनजी, नाराज क्यों होते हैं? हां, याद दिलाने के लिए ध्न्यवाद। जब भी जरूरत पडेगी मैं आपकी डांडी (अर्थी) को कंध देने जरूर आऊंगा। लेकिन भगवान करे हाल-पिफलहाल ऐसी नौबत न आए।" नौजवान ने मुस्कुरा कर जवाब दिया तो प्रधन जी कटकर रह गए।
नौजवान की बात पर बहुत-से लोग हंस पड़े और सभा का माहौल थोड़ा शांत हो गया। सभा संचालक ने मौका देखकर अध्यक्ष से आज्ञा ली और केसी को अपना पक्ष रखने को कहा।
केसी उद्विग्न मन से मंच पर चढ़ा और हाथ जोड़कर उपस्थित लोगों का अभिवादन कर बोला- "ठाकुरो! मुझ नाचीज को बोलने का अवसर दिया, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। भाई भवान सिंह की भावना की मैं कद्र करता हूं, लेकिन क्या जनेऊ धरण करने से खाली पेट भर जाएंगे? अगर नहीं, तो इस कसरत से क्या फायदा। हां, अगर सब लोग ऐसा सोचें तब तो यह सब चल सकता है। ऊंच-नीच और छूत-अछूत का अभिशाप हमारी आत्मा में कितना जहर घोल देता है इसका भुक्तभोगी मैं खुद हूं। मुझे याद है, जब मैं पहली बार पाठशाला गया तो मुझे अछूत कहकर भर्ती करने से मना कर दिया गया। वह तो भला हो थोकदार जी का जिनके कहने पर दाखिला तो मिल गया लेकिन कक्षा में मुझे औरों से अलग बिठाया जाता रहा और बात-बात पर ऐसी गालियां दी जातीं कि क्या कहूं। गुरु जी का गंगाराम (डंडा) तो हर समय मेरी आवभगत में ऐसा लगा रहता कि पिटाई का एहसास ही जाता रहा। उस दिन की याद तो शायद भाई भवान सिंह को भी होगी जब संयोग से मैं अपने एक साथी को छू बैठा था। उसने गुस्से में आव देखा न ताव और अपना बस्ता जमीन पर पटक डाला। कहने लगा कि मैंने जानबूझकर उसे छुआ ताकि भिड़ने (अस्पृश्य के छूने) के कारण मैं अपना नाश्ता उसके हवाले कर दूं। नाश्ते की रोटियां तो भला मुझे क्या मिलतीं, वे तो कुत्ते के हवाले हो गईं। उफपर से गुरु जी ने कसकर मेरी जो मरम्मत की वह मुझे अभी तक याद है। छुट्टी होने पर जब हम घरों की ओर चले तो मेरे अपने ही सहपाठियों ने मुझे पटककर दबोच लिया। एक ने मेरे हाथ पकड़े, दूसरे ने पांव और तीसरे ने गला इस तरह दबाया कि मैं अपना मुंह खोलने पर मजबूर हो जाउफं। चौथा रास्ते की किनारे पड़ी गीली विष्ठा में लकड़ी डुबोकर लाया और मेरे मुंह में ठूँसने लगा। मैं पूरी ताकत से ऐसा उछला कि हाथ पकड़ने वाले और गला दबाने वाले दोनों की पकड़ ढीली पड़ गई। फ़िर भी वे गीली विष्ठा नाक के नीचे और उफपरी होंठ तक तो ले ही आए, हां मुंह में नहीं ठूँस पाए। मल की दुर्गंध् से कै करते-करते मेरी तो जान ही निकल गई थी। मेरी दशा देखकर वे सब भाग खड़े हुए। अभी दो साल पहले की बात है मैं अपने ही गांव की एक बारात में शामिल हुआ था। फाड़ (घर से बाहर सामूहिक भोजन स्थल) से ठाकुर-ब्राह्मण खाना खाकर उठ चुके थे। हम सबको खाने के लिए पुकारा गया। मैंने देखा कि पफाड़ में जो कुछ बचा-खुचा जूठन पड़ा था, उस पर कुत्ते मुंह मारकर भाग रहे थे। मैंने जूठन लेने से इंकार क्या किया कि अपने ही गांव के दो ठाकुर आगबबूला हो गए। वे गला दबाकर मेरे मुंह में भात का एक बड़ा-सा कौर लाठी से ठूँसने लगे। मेरे अपने लोग इतने डर गए कि एक ओर दुबककर रह गए। वह तो भला हो थोकदार जी और पट्टी-पटवारी जी का जो मैं उस दिन बच गया अन्यथा दम घुटने से ऊपर ही पहुंच गया होता। खैर, मेरे साथ जो हुआ सो हुआ भगवान करे ऐसा आगे और किसी के साथ न हो। वैसे इस कड़वे सच को निगल पाना बहुत कठिन है लेकिन देश और समाज का हित इसी में है कि इस तरह का व्यवहार भविष्य में अतीत का विषय बनकर रह जाए। वेद-लवेद की बात हम नहीं जानते! जानते भी कैसे, जब सुनने तक की मनाही थी। लोग तरह-तरह की व्याख्या देकर अपना पक्ष सामने रखते हैं। कहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था की पीछे कार्य-विभाजन का सिद्धांत है। हो सकता है वर्ण-व्यवस्था के पीछे यही भावना रही हो। लेकिन आगे क्या हो गया, यह सभी के सामने है। वर्ण-व्यवस्था वंशानुगत तो हो गई लेकिन क्या चारों वर्ण आज अपने दायरे के भीतर हैं? कहना न होगा कि इसकी सबसे बुरी मार हम पर ही पड़ी है। जमीन-जायदाद से तो हमें महरफम रखा ही गया था, आज हमारे पुश्तैनी पेशे भी हमसे छिनते जा रहे हैं। जो धंधे और शिल्प हमारे लिए निर्धरित थे, वे सब सवर्णों के हाथ में खिसकते जा रहे हैं। यहां पर हमारे आचरण, खान-पान, नर-नारी संबंध्, रूप-रंग और शकल-सूरत पर भी टिप्पणी की गई है। इनमें से हर मुद्दे पर बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन समय की कमी है। इसलिए केवल दो मुद्दों पर ही कुछ कहना चाहूंगा। जहां तक हमारे समाज में नर-नारी संबंधें का सवाल है, उसके लिए टिप्पणीकार अगर अपनी ओर ही देखने का कष्ट करें तो बेहतर होगा। हमारी बहू-बेटियों को अपनी अतिरिक्त वासना-पूर्ति का साध्न समझने वाले उफपर से हमें ही दोष दें तो क्या कहा जाए। जहां तक रूप-रंग और शकल-सूरत का प्रश्न है क्या उसी रूप-रंग और शकल-सूरत के लोग आप लोगों में नहीं हैं? मुझे ही देखिए। क्या रूप-रंग और नाक-नक्शे में मैं भाई भवान सिंह जैसा ही नहीं लगता? वही गोरा रंग, वही चोड़ा माथा, वही उभरी-सी नाक। वे थोकदार कुल के दीपक हैं लेकिन मैं।"
वह आगे कुछ कहता कि मंच से अध्यक्ष थोकदार जी ने पफटकार लगाई- "बहुत हो गया रे केसी! अपना थोबड़ा बंद रख। चला है अपनी बराबरी हमसे करने।"
उनकी यह पफटकार विरोधियों को इशारा कर गई। चार आदमी मंच पर चढ़ आए और केसी को धकियाने लगे।
एक ने कहा- "दो जमात क्या पढ़ गया, खुद को अपफलातून की औलाद समझने लगा।" दूसरे ने कहा- "एहसान पफरामोश कहीं का। थोकदार जी का खाया, उन्हीं की कृपा से तालीम हासिल की और अब उन्हीं की बराबरी पर उतर आया।"
तीसरे ने कहा- "बदजात की जीभ बहुत लंबी हो गई है। काटकर फेंक दो।"
चौथे ने ऐसा धक्का दिया कि केसी मंच से नीचे गिरकर एक नुकीले पत्थर से जा टकराया। उसकी कनपटी से खून बहने लगा। सभा में ऐसी अपफरा-तपफरी मची कि एक किनारे बैठी केसी की मां खुद को रोक नहीं पाई।

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वह अभी तक चुपचाप बैठी अपने पिछले जीवन की याद में खोई थी। उसने उन मां-बाप के घर जन्म लिया था जो गांव-गांव नाच-गाकर जीविका कमाते थे। ब्याह-शादियों में उनकी मांग होती और थोड़ी-बहुत अतिरिक्त कमाई भी हो जाती। मां परुली की कदकाठी बड़ी आकर्षक थी। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पेट का सवाल था। नन्हीं-सी जान को लेकर गांव-गांव जाना ही पड़ता था। बेटी कुछ बड़ी हुई, थोड़ा-बहुत सीखने-समझने की उम्र हुई तो उसके कानों में सबसे पहले "समन्या साब! समन्या ठाकुरो!" के संबोधन ही पड़े। मां-बाप जहां भी जाते, जिसके भी संपर्क में आते "समन्या साब, समन्या ठाकुरो" कहकर अभिवादन करते और बदले में "जी रै" (जिंदा रह) का आशीर्वाद पाते। मां-बाप ने नाम रखा दीपा। बढ़ती उम्र के साथ वह रूप-रंग और नाक-नक्शे में मां से भी दो हाथ आगे निकल गई। सौंदर्य की ऐसी दीपशिखा कि जिसके उजास के आगे कुरूपता का अंधकार कहीं टिक नहीं पाता। उसने भी जब नाच-गान में अपनी मां का साथ देना शुरू किया तो लोग परवानों की तरह मंडराने लगे। इसी बीच मां को न जाने क्या हुआ कि वह दिनों-दिन मुर्झाने लगी। फलत: उसकी जगह बेटी को लेनी ही पड़ी। लेकिन मां नहीं चाहती थी कि जो कुछ उसके साथ हुआ, उसी की शिकार उसकी बेटी भी बने। मां-बाप ने बहुत प्रयास किया लेकिन कहीं किसी खूंटे से बांध्ने की सूरत नजर नहीं आई।
बरसों पहले की बात है, वे थोकदार जी के आंगन में ही अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। थोकदार जी अपने कुलपुरोहित के साथ बातों में मशगूल थे कि दीपा पर नजर पड़ी तो मूंछों को ताव दे बैठे और पुरोहित से बोले- "पंडितजी, ऐसी खूबसूरती तो आज पहली बार देखी।"
पंडित जी ने जवाब दिया- "सच कहते हैं ठाकुर साहब! नारी रत्न है यह तो। कामसूत्रा के अनुसार पद्मिनी, चित्रणी, शंखिनी और हस्तिनी ये चार प्रकार की नारियां होती हैं। पद्मिनी इनमें श्रेष्ठ मानी गई है और यह तो सचमुच पद्मिनी लगती है। ऊपर वाले को भी न जाने क्या सूझी कि हुड़क्यूं (हुड़का वादकों) के घर ऐसा रत्न पैदा कर दिया।" थोकदार जी के कान तो पुरोहित की ओर थे लेकिन निगाह अल्हड़ किशोरी दीपा की ओर। पुरोहित ने थोकदार जी के भीतर उठे तूफान को भांपकर बात आगे बढ़ाई, बोला- "सुन रहे हो थोकदार जी! शास्त्रों की बहुत-सी मान्यताएं आज स्वीकार नहीं की जातीं। कलयुग है न! मनु महाराज ने तो ब्राह्मण को चारों वर्णों और क्षत्रिय को शेष तीनों वर्णों से वैवाहिक संबंध् स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया था। लेकिन आज इसे कोई नहीं मानता, हां! अमान्य तरीकों से संबंध् आज भी बनते-बिगड़ते हैं। कुछ दिन शोर मचता है और पिफर सबकुछ भुला दिया जाता है।"
थोकदार जी समझ गए कि पंडितजी किस ओर इशारा कर रहे हैं। इस बीच नाच-गाना समाप्त हो चुका था। थकी-मांदी मां-बेटी भी सुस्ताने लगी थीं। हुड़का भी शांत हो चुका था। थोकदार जी ने खा जाने वाली नजर से दीपा की ओर देखा। मन-ही-मन कुछ निर्णय लिया और भीतर की ओर लपक लिए। कुछ ही पलों में वे बाहर आए तो उनके हाथों में मां-बाप और बेटी के लिए नए-नए कपड़े थे। पीछे से सेवक लूथी पसेरी भर बढ़िया चावल भी उनकी टोकरी में उड़ेल गया। वे निहाल हो गए। मां ने कहा- "जुगराज रयां ठाकुरो! (ठाकुरो युगों तक राज करते रहो) भगवान करे आपके रुतबे और भंडार में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो।" तीनों ने पफर्शी सलाम किया। कपड़े टोकरी में रखे और आंगन से नीचे रास्ते पर चले आए। पंडित जी काम के बहाने एक ओर खिसक लिए और थोकदार जी मां-बाप के आगे-आगे जाती अल्हड़ दीपा की ओर निहारते रहे।
गांव की सीमा से आगे जंगल पड़ता था। एक मोड़ पर पहुंचे ही थे कि झाड़ियों की आड़ से चार जवान सामने कूद पड़े। वे दीपा को जबरन खींचकर ले जाने लगे। इस अप्रत्याशित घटना से मां-बाप बुरी तरह घबरा गए, मदद के लिए चिल्लाए तो दो जवान उन्हीं पर पिल पड़े। दीपा ने शेष दो की पकड़ से छूटने का भरपूर प्रयास किया। बस नहीं चला तो एक के हाथ पर दांत गड़ा दिए। पकड़ ढीली पड़ते ही वह गांव की ओर भागी और इतनी जोर से चिल्लाई कि उसकी चीख दूर-दूर तक सुनाई दी। पिफर से पकड़ी जाती कि अचानक थोकदार जी सामने आकर गरज उठे- "ये क्या हो रहा है? कौन हो तुम? एक अकेली लड़की को छेड़ते शरम नहीं आती, नामुरादो!" थोकदार जी को देखते ही चारों हमलावर भाग खड़े हुए। दीपा रुलाई रोककर एक पेड़ की ओट में सिसकियां भरने लगी।
थोकदार जी ने पास आकर सांत्वना दी- "दीपा रो मत! मैं आ गया हूं ना, देखता हूं कौन तुमसे बदसलूकी करने की हिम्मत करता है।"
हादसे से बुरी तरह हिले मां-बाप की तो सोच ही कुंद पड़ गई थी। बेटी की सुरक्षा की समस्या मुंह बाए खड़ी थी। गुजारे के लिए लोगों का मनोरंजन करना तो उनकी पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा थी और इसके लिए गांव-गांव की खाक छानते पिफरना उनकी मजबूरी थी। बेटी को अकेली घर पर छोड़ना भी खतरे से खाली नहीं था। साथ लेते चलें तो आज का सा हादसा पिफर से न हो इसकी की भी कोई गारंटी नहीं थी। बेटी को लेकर मां-बाप के दिमाग में क्या कुछ चल रहा है इसका अनुमान लगाकर थोकदार जी बोले- "देखो, हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलाद किसी संकट में न पड़े। बेटी को लेकर इस तरह की चिंता तो और भी स्वाभाविक है। तुम लोग जिस उधेड़बुन में हो मैं उसे महसूस कर रहा हूं। उससे बाहर निकलने का एक रास्ता है मेरे पास।"
बाप ने कहा- "क्या उपाय है ठाकुर साहब? हमें तो कुछ नहीं सूझ रहा?"
मां ने कहा- "माई बाप! जल्दी बताएं मैं नहीं चाहती कि जो कुछ मैंने भोगा है, वही दीपा को भी भोगना पड़े।"
थोकदार जी कुछ गंभीरता ओढ़कर बोले- "देखो मेरी बात को अन्यथा न लेना। यहां आस-पास के गांवों में मेरी इतनी जमीन पड़ी है कि संभालना मुश्किल है। खायकर और सिरत्वान जितनी चाहें कमा-खाते हैं लेकिन कुछ अभी भी बंजर पड़ी है। अगर चाहो तो मैं कमा-खाने के लिए कहीं भी जमीन दे सकता हूं। लेकिन मैं चाहूंगा कि यहां इसी गांव में मेरे पास ही रहो तो बेहतर है।" इस पर पिता ने कहा- "सो तो ठीक ठाकुर जी। लेकिन हमारा खेती-पाती से कभी कोई ताल्लुक तो रहा नहीं। गाने-बजाने के अलावा हमें आता ही क्या है?"
"इसकी चिंता न करें खेती तो वही करेंगे जो आज तक करते आए हैं। मैं यहां अपने पास रहने के लिए इसलिए कह रहा हूं कि आज का सा हादसा फ़िर कभी न हो। मेरे सरंक्षण में रहने से लपफंगों की बुरी नजर से दीपा बची रहेगी। आप चाहें तो उसे मेरे पास छोड़कर अपनी परंपरा निभाते रहें। वैसे यहां अनेक अधिकारी सरकारी काम से आते रहते हैं, मेरी समझ से उनका मनोरंजन ही काफी रहेगा। तुम लोगों को गांव-गांव भटकने से भी मुक्ति मिल जाएगी।" थोकदार जी बोले।
"धन्य भाग हमारे, जो हमारी खातिर आप इतना सोचते हैं। लेकिन दीपा को आपके सरंक्षण में छोड़ दें, बात अटपटी लगती है। दुनियां क्या कहेगी?" पिता ने आशंका जताई।
"अरे! तुम भी न जाने क्या सोच बैठे। सरंक्षण से मतलब केवल सरंक्षण और कुछ नहीं। मेरी देख-रेख में रहेगी तो कोई आंख उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाएगा। तुमने लूथी को तो देखा ही है। तुम्हारी ही बिरादरी का है। पांच-छह साल का था जब अनाथ हो गया। तब से हमारी सेवा में है। तुम चाहो तो उसके साथ दीपा के हाथ पीले कर सकते हो।" थोकदार जी ने शंका मिटाने के लिए सुझाव रखा।
"शादी के बाद अगर उसने भी अपनी परंपरा निभाने की सोची तो क्या होगा? जो कुछ मैंने झेला है, क्या वही दीपा को भी झेलना पड़ेगा?" दीपा की मां ने कहा।
"नहीं तो। अरे, हमारी देख-रेख में पले लूथी को न नाचना-गाना आता है और न बजाना। हां, हल जरूर चला लेता है और खेती-पाती के दूसरे काम भी बखूबी कर लेता है। दीपा तो उसके साथ यहीं बनी रहेगी।" थोकदार जी ने समझाया।
बाप की शंका तो निर्मूल नहीं हो पाई लेकिन मां ने सोचा कि दुनियां भर की नजरों से बचाने का एक यही रास्ता है। ठाकुर साहब की नजर में अगर खोट भी हो तो भी क्या हर्ज है? इधर-उधर मुंह मारने वाले कामियों से तो बची रहेगी। जो रोग मुझे लग गया है उससे तो बची रहेगी। यही सब सोचकर वह ऐसी अड़ी कि बाप की एक न चल पाई। दीपा की शादी लूथी से हो गई। शादी का पूरा खर्च थोकदारजी ने ही उठाया।
शादी के बाद दीपा ने पाया कि थोकदन (थोकदार की पत्नी) किसी बीमारी के कारण इतनी कमजोर हो गई थी कि उससे अपनी औलाद भी नहीं संभल पाती थी। दीपा को ही दो साल के भवान सिंह और उसकी दूध पीती बहन को संभालना पड़ा। उसे याद आया कि किस तरह उसके मां-बाप गुप्त-रोग के चलते एक दिन दुनियां छोड़ गए और उसे थोकदार जी की जरखरीद रखैल की तरह जीना पड़ा। उसे अपनी वह सुहागरात भी याद आई जब लूथी की जगह थोकदार जी ने उसे अपने आगोश में भर लिया था। लूथी को उसी दिन कहीं दूर बाजार से कुछ सामान खरीद लाने भेज दिया गया था, जहां से वह तीन-चार दिन बाद ही लौट पाता। उसके लौट आने तक तो सबकुछ हो गया। उसने हाथ-पैर जोड़े लेकिन थोकदार जी नहीं पसीजे। ऊपर से धमकी दे बैठे कि अगर वह नहीं मानी तो उस दिन के हादसे से भी कहीं और बुरा घट सकता है। पिफर कहने लगे- "अरी! अपना सौभाग्य मान जो इलाके का थोकदार तुझसे प्रणय की भीख मांग रहा है।" फ़िर कहने लगे कि वह जिंदगी भर उसका और उसके बीमार मां-बाप का भार उठाने को तैयार हैं। अगर हाथ खींच लिए तो वह जाने। दीपा ने अपनी और अपने मां-बाप की बेबसी समझी और छटपटा कर रह गई। पति के लौटने पर उसने रो-रोकर उसे अपने साथ हुए बर्ताव की जानकारी दी। लेकिन लूथी में पहले तो प्रतिक्रिया ही नहीं हुई और पिफर हंसा तो हंसता ही चला गया। दीपा को लगा कि उसमें शायद मर्दानगी ही नहीं है। थोकदार को शायद पहले से पता था और इसीलिए उससे शादी का प्रपंच रचा गया। सदमा तो बहुत बड़ा था परंतु भाग्य का लिखा मानकर दीपा थोकदार जी के हाथों का खिलौना बनकर रह गई। लूथी तो केवल नाम का पति था।

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इधर बेटे की कनपटी से खून रिसता देखकर वह आवेश में आकर मंच की तरपफ दौड़ पड़ी। जिन्होंने केसी को घोर रखा था, एक अधेड़ औरत को अपनी ओर झपटते देखकर सहम गए। उनमें से जिसने जूता हाथ में निकालकर केसी को जुतियाना चाहा था उसका हाथ उठा का उठा ही रह गया। अचकचाए सभा संचालक ने दीपा को रोकना चाहा और बोले- "बहन जी, आप मंच से हट जाएं तो अच्छा है। हम सब ठीक कर लेंगे।"
इस पर दीपा आदतन बोल पड़ी- "समन्या ठाकुरो! मेरा बेटा पिट रहा है और आप कहते हैं कि मैं मंच से हट जाऊं। जरा, इन थोकदार जी से तो पूछो कि वह कौन है? जिसको वह थोबड़ा बंद करने को कह रहे हैं। वह ऐसे क्यों तिलमिला उठे? अगर वह अपने नाक-नक्शे का मिलान भवान सिंह से कर बैठा तो क्या गलत कर बैठा। आखिर दोनों की रगों में खून तो एक ही है।" यह सुनना था कि सभा में सनसनी पफैल गई। यह पहला अवसर था जब एक औरत सभा में खड़ी होकर मर्दों से सवाल-जवाब कर रही थी। थोकदार जी को काटो तो खून नहीं। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। पहली बार पगड़ी ऐसी उछली कि मंच से उतरकर भागते नजर आए। किसी ने पीछे से व्यंग्य किया- "वाह थोकदार जी! आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले।" बाप की इस तरह किरकिरी होते देख भवान सिंह खड़ा का खड़ा रह गया। बोलती जैसे बंद हो गई। कुछ ही पलों में सभा-स्थल पर सन्नाटा पसर गया।